हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – फ़ोन कॉल ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  फ़ोन कॉल)

☆ लघुकथा – फ़ोन कॉल

सीमा सुबह पति को ऑफिस भेजकर फटाफट अपने सभी काम निपटा रही थी, क्योंकि आज बिजली का बिल जमा करवाने की अंतिम तिथि थी, अत: उसे बिजली का बिल भरने जाना था। तभी उसके मोबाइल की घंटी बजी, काम छोड़कर सीमा ने मोबाइल उठाया, “हेल्लो, कौन बोल रहे हैं?”

“जी, मैं बैंक से रामकुमार बोल रहा हूँ। आपका एटीएम कार्ड ब्लाक हो गया है। आप अपने एटीएम कार्ड का सोलह डिजिट का नंबर बताएं। इसे नया बना कर दो घंटे में आपका एटीएम कार्ड चालू कर दिया जायेगा। आपको बैंक आने की भी जरूरत नहीं है। कार्ड आपके घर पर ही पहुंचा दिया जाएगा। अपना पिन नंबर भी बताएं, और हाँ, बैलेंस भी बताएं।”

एक साथ इतने सारे सवाल सुन कर सीमा चकरा गयी। वह पहले ही जल्दी में थी, इस नयी मुसीबत से और घबरा गयी। उसने आव देखा न ताव, तुरंत एटीएम कार्ड निकाला, कार्ड का नंबर और पिन कार्ड बतला दिया।

दस मिनट के अन्दर ही सीमा के मोबाइल पर दो मेसेज आ गए। उसके बैंक खाते से तीस हज़ार रुपए निकाले जा चुके थे।

सीमा और भी घबरा गयी। वह तुरंत बैंक गयी और बैंक मैनेजर से बैंक से फ़ोन आने की बात कही। तब बैंक मैनेजर ने बताया, “मैडम हमारे बैंक से आपको कोई फ़ोन नहीं किया गया है। ऐसे ही फ़ोन हमारे और भी कई ग्राहकों को किये गए हैं और उनके साथ भी ऐसा ही हुआ है, जो आपके साथ हुआ है। हमने तो अखबार में भी कई बार यह खबर छपवाई है कि हमारे बैंक से किसी को ऐसे फोन नहीं किये जाते, अत: कृपया अपना एटीएम कार्ड नंबर और पिन नम्बर किसी को भी न बताएं।”

सीमा को समझते देर नहीं लगी कि उस एक फ़ोन कॉल से वह ठगी जा चुकी थी।

 

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #78 – महानता के लक्षण ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #78 – महानता के लक्षण ☆ श्री आशीष कुमार

एक संत थे। वह नदी तट पर आश्रम बनाकर रहते और अपने शिष्यों को शिक्षा देते थे। कुंभी नामक उनका एक शिष्य दिन-रात उनके पास ही रहता था। संत उसके प्रति काफी स्नेह रखते थे। एक दिन उसने संत से सवाल किया, ‘गुरुजी, मनुष्य महान किस तरह बन सकता है?’ संत बोले, ‘कोई भी मनुष्य महान बन सकता है लेकिन उसके लिए कुछ बातों को अपने दिलो-दिमाग में उतारना होगा।’

इस पर कुंभी बोला, ‘कौन सी बातों को?’ संत ने कुंभी की बात सुनकर एक पुतला मंगवाया। संत के आदेश पर पुतला लाया गया। संत ने कुंभी से कहा कि वह उस पुतले की खूब प्रशंसा करे। कुंभी ने पुतले की तारीफों के पुल बांधने शुरू कर दिए। वह बड़ी देर तक ऐसा करता रहा। इसके बाद संत बोले, ‘अब तुम पुतले का अपमान करो।’

संत के कहने पर कुंभी ने पुतले का अपमान करना शुरू कर दिया। पुतला क्या करता! वह अब भी शांत रहा। संत बोले, ‘तुमने इस पुतले की प्रशंसा व अपमान करने पर क्या देखा?’ कुंभी बोला, ‘गुरुजी, मैंने देखा कि पुतले पर प्रशंसा व अपमान का कुछ भी फर्क नहीं पड़ा।’

कुंभी की बात सुनकर संत बोले, ‘बस महान बनने का यही एक सरल उपाय है। जो व्यक्ति मान-अपमान को समान रूप से सह लेता है, वही महान कहलाता है। महान बनने का इससे बढ़िया उपाय कोई और नहीं हो सकता।’

संत की इस व्याख्या से उनके सभी शिष्य सहमत हो गए और सबने प्रण किया कि वे अपने जीवन में प्रशंसा व अपमान को समान रूप से लेने का प्रयास करेंगे।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – ख़ून के रिश्ते ☆ श्री हरभगवान चावला

श्री हरभगवान चावला

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत।sअब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘ख़ून के रिश्ते’।)

☆ लघुकथा – ख़ून के रिश्ते ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

आज पुश्तैनी मकान में अपना हिस्सा बँटाने शहर से तीनों भाई जुगल के घर आए थे। चाय पीते हुए तीनों भाई कह रहे थे कि मकान की क़ीमत लगवा ली जाए और उनके हिस्से के पैसे जुगल उन्हें दे दे। जुगल के पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी। उसे वह दिन याद आ रहा था जब पिता लकवाग्रस्त होकर खाट से आ लगे थे। बड़ा भाई तब तक बैंक में अफ़सर हो चुका था, बाक़ी दोनों उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। जुगल तब दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था। तीनों ने जुगल की मिन्नत की थी कि वह पिता की सेवा करे, माँ का ख़याल रखे। तीनों में से किसी का वहाँ रुक पाना संभव नहीं है। बदले में वे पुश्तैनी ज़मीन और मकान में कोई हिस्सा नहीं लेंगे। पिता ने कपास के व्यापार में जो पैसा कमाया था, वह सारा पैसा उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे भाइयों को दे दिया गया। जुगल की पढ़ाई छूट गई। पिता चार साल के लगभग बिस्तर पर रहे। अपने आख़िरी  दिनों में तो वे मल मूत्र में लिथड़े रहते और जुगल चुपचाप उनकी सेवा में लगा रहता। उनकी मौत के दो साल बाद माँ भी चली गई। तब तक दूसरा भाई बिजली विभाग में इंजीनियर हो गया था, तीसरे का कारोबार शहर में बहुत अच्छा चल रहा था। माँ की तेरहवीं पर ही भाइयों ने ज़मीन बाँट ली। जुगल के पास एक एकड़ ज़मीन बची थी।

अब जुगल लोगों के घरों में गोबर उठाने तथा भैंसों का दूध निकालने का काम करके किसी तरह गुज़ारा कर रहा था… और आज भाई मकान में अपना हिस्सा बँटाने आए थे। चाय पी जा चुकी थी।

बड़े ने खँखारते हुए कहा, “तो भाई, बुला पंचायत को, मकान की क़ीमत लगवा लें।”

जुगल ने जवाब नहीं दिया। वह तेज़ी से एक तरफ़ मुड़ा और एक चारपाई उठाकर घर के बाहर रख दी, फिर बड़ा ट्रंक खींचने की कोशिश में लग गया। कामयाब नहीं हुआ तो बीवी से कहा, “ज़रा उधर से धक्का मार।” भाई हैरान खड़े समझने की कोशिश कर रहे थे कि हो क्या रहा है? ट्रंक दरवाज़े तक पहुँचने को था कि एक भाई ने पूछा, “ये क्या हो रहा है जुगल?”

“भाइयों का घर ख़ाली कर रहा हूँ। देने को मेरे पास पैसे नहीं हैं। आप लोग क़ीमत लगवा लो। बेचकर पैसा बाँट लेना। मुझे कोई हिस्सा नहीं चाहिए।”

“पर तुम लोग रहोगे कहाँ?” दूसरे भाई ने पूछा।

“तुम्हें चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। लाखों लोग आसमान की छत के नीचे रहते हैं, हम भी रह लेंगे।”

 

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 85 ☆ गोली लगी, पर तिरंगे को झुकने न दिया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है युवा स्वतंत्रता सेनानी कनकलता बरुआ की शौर्यगाथा  ‘गोली लगी, पर तिरंगे को झुकने न दिया’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 85 ☆

☆ लघुकथा – गोली लगी, पर तिरंगे को झुकने न दिया ☆

अठ्ठारह साल की दुबली – पतली लडकी कनकलता बरुआ हाथ में अपने देश की शान तिरंगा झंडा लिए जुलूस के आगे – आगे चल रही थी। उसकी उम्र तो कम थी लेकिन जोश में कमी न थी। उसके चेहरे पर प्रसन्न्ता थी साथ ही देश के लिए कुर्बानी का जज्बा भी साफ दिखाई दे रहा था। भारत माता की जय से वातावरण गूँज रहा था। भारत छोडो आंदोलन तेजी पर था। कनकलता बरुआ के नेतृत्व में स्वतंत्रता सेनानियों ने आसाम के तेजपुर से थोडी दूर गहपुर थाने पर तिरंगा फहराने का निश्चय किया। थाना प्रमुख जुलूस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ। कनकलता जुलूस में सबसे आगे थी, उसने निडरता से कहा- “आप हमारे रास्ते से हट जाइए। हम आपसे कोई विवाद नहीं करना चाहते हैं। हम थाने पर तिरंगा फहराने आए हैं और अपना काम करके लौट जाएंगे।“ थाने के प्रमुख ने उसकी एक ना सुनी और तेजी से कहा – ‘अगर कोई थोडा भी आगे बढा तो मैं सबको गोली से भून दूंगा। वापस लौट जाओ।‘

कनकलता इस धमकी से ना तो डरी और ना रुकी, वह आगे बढती रही। उसके पीछे था बडा हुजूम जिसमें स्वाधीनता के दीवाने ‘ भारत देश हमारा है ‘ के नारे लगा रहे थे। नारों से आकाश को गुंजाती हुई भीड थाने की ओर बढती ही जा रही थी। जब इन स्वतंत्रता सेनानियों ने पुलिस की बात ना सुनी तो उन्होंने जुलूस पर गोलियों बरसानी शुरू कर दीं। गोलियों की बौछार भी स्वातंत्रता के इन दीवानों को ना रोक सकी। पहली गोली कनकलता को लगी। कनकलता गोली लगने पर गिर पड़ी, किंतु उसने अपने हाथ में पकडे तिरंगे को झुकने नहीं दिया। उसकी शहादत ने स्वतंत्रता सेनानियों में जोश और आक्रोश भर दिया। हर कोई सबसे पहले झंडा फहराना चाहता था। कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर युवक आगे बढ़ते गए, एक के बाद एक शहीद होते गए, लेकिन झंडे को न तो झुकने दिया न ही गिरने दिया।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #105 – लघुकथा- दूसरी शादी ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं प्रेरणास्पद लघुकथा  “दूसरी शादी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 105 ☆

☆ लघुकथा- दूसरी शादी ☆ 

“मैं दूसरी शादी करके रहूंगी,” यह सुनते हैं घर में सन्नाटा पसर गया। ससुर समान पिता ने कहा, “बेटी! अभी तेरे शहीद पति की चिता भी ठंडी नहीं हुई और तूने यह फैसला कर लिया।”

“हां पिताजी, मैं नहीं चाहती हूं कि मैं अपने इरादे से डिग जाऊं।”

“इस बारे में एक बार और सोच लेती बेटी,” पिता बोले, “माना कि अभी शादी को एक बसंत भी नहीं बीता है मगर इस बच्चे के बारे में कुछ तो सोच लेती।”

“हां बेटी,” कब से चुप बैठी सासु ने कहा, “शादी के फैसले थोड़े दिनों के लिए टाल दो बेटी?”

“नहीं सासु मां, अब मैं इसे नहीं टाल सकती हूं। मैं तो शादी करने जा रही हूं,” कहते हुए शहीद की विधवा ने एक पत्र आगे बढ़ा दिया, “यह रहा मेरा विवाह का अनुबंध पत्र।”

उस अनुबंध पत्र को पढ़कर ससुर का हाथ आशीर्वाद के लिए उठ गया। वह अनुबंध पत्र नहीं फौज में विधवा की नियुक्ति का पत्र था।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31-01-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- बुतयुग ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – लघुकथा- बुतयुग  ??

सारे बदहवास थे। इस तरह की बीमारी इससे पहले न देखी, न सुनी। उस लेटे हुए आदमी के अंग एक-एक कर धीरे-धीरे पत्थर होते जा रहे थे।

अचानक एक औरत की चीख सन्नाटे को चीरने लगी। एक आदमी बालों से पकड़कर औरत को लात, मुक्कों से बेदम मार रहा था। वह चीख रही थी, मदद की गुहार लगा रही थी। भीड़ चुप थी। आदमी ने हैवान की मानिंद चाकू से कई वार औरत पर किए।

औरत अब लोथड़ा थी। आदमी जा चुका था। भीड़ मर चुकी थी।

उधर शोर उठा, ‘ अरे आदमी बुत में बदल गया, आदमी बुत में बदल गया।’ लेटा हुआ आदमी ऊपर से नीचे तक पूरा पत्थर हो चुका था।

बुत युग की यह शुरुआत थी।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 17 – परम संतोषी भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 17 – परम संतोषी भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

जब संतोषी साहब उर्फ सैम अंकल ब्रांच में घुलमिल गये तो उनको पता चला कि यहाँ ३ और ६ दोनों तरह के महापुरुष पाये जाते हैं. 3 याने मिलनसार, मस्तमौला और मनोरंजक व्यक्तित्व के स्वामी और दूसरे विमुख और विरक्त रहने वाले आत्मकेंद्रित पुरुष जिन्हें ६ भी कहा जाता है. ३ अंक वाले तो जहाँ होते हैं, महफिलें गुलजार हो जाती हैं, विनोदप्रियता इनका सहज स्वभाव होता है जो मनोरंजन के साथ साथ सहजता भी संप्रेषित करता रहता है. लोग इनका सानिध्य और उन्मुक्त स्वभाव पसंद करते हैं. संतोषी जी स्वयं भी इसकी जीती जागती मिसाल थे और स्वाभाविक रूप से ऐसी कंपनी पसंद भी करते थे पर वे, इसे आप गुण या दुर्गुण कुछ भी कहें पर ६ अंक वालों को “मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए, मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो” गाना गाने का मौका कभी नहीं देते थे.

ऐसे ६ अंक वाले सज्जन “सेल्फ कंप्लेंट सेक्शन” का प्रमुख पद पाने की योग्यता के धनी होते हैं. इनकी शिकायतें शायद जन्म से ही शुरु हो जाती हैं पर माता इसे स्वाभाविक शिशु रुदन मानकर इन्हें दुग्धपान कराते रहती हैं और पिताजी इनकी हर उचित/अनुचित मांग पूरी करते रहते हैं कि बच्चा अब तो खुश होगा. पर बच्चा कभी खुश नहीं होता क्योंकि उसका फोकस पाने से ज्यादा नहीं पा सकने पर रहता है. शिकायत करना पहले मनचाहा फल पाने का प्रयास होता है जो बाद में स्वभाव कब बन जाता है, पता नहीं चलता.ऐसे लोगों का जन्म से यह विश्वास बन जाता है कि अगर रोयेंगे नहीं तो मां दूध नहीं पिलायेगी. असंतोष अपने साथ ईर्ष्या भी लेकर आता है जब सामने वाले की उपलब्धियां इन्हें कुंठित कर देती हैं और ये कभी मानने को तैयार ही नहीं होते कि सफलता हमेशा निष्ठा, योग्यता और श्रम का ही वरण करती है. जो सफल होते हैं, उच्च पदों को सुशोभित करते हैं वे वास्तव में चयनकर्ताओं और चयन प्रक्रिया में उपलब्ध व्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ ही होते हैं. ये बात अलग है कि ६अंक वालों का नेगेटिव एटीट्यूड इसे मानने को तैयार नहीं होता और उन्हें अयोग्य मानकर उनका उपहास करता रहता है. पर जीतने वाला ही सिकंदर कहलाता है भले ही ६ अंक वालों की नज़र में वो मुकद्दर का सिकंदर हो. ऐसे लोगों को हमेशा सैम अंकल यही कहते कि रेस में दौड़ने से ही जीत मिलती है, धावकों की आलोचना करने से नहीं. अगर यह क्षेत्र तुम्हारे लायक नहीं है तो रेस का मैदान बदलने का हक और मौका हमेशा सबके पास होता है. या तो फिर जहाँ रहो जो मिला उस पर मेरी तरह खुश रहो या अपने अंदर मैदान बदलने का साहस पैदा करो.सुरक्षा कायरों का कवच होती है, अभिमन्यु साहस का प्रतीक थे जो महाभारत में अपनी चक्रव्यूह भेदने की अधूरी शिक्षा के बाद भी रणभूमि में कूद गये और अपने कर्तव्य का पालन किया. युद्ध हमेशा सैनिकों के साहस, आशा, उम्मीद और कर्त्तव्य परायणता की भावना से लड़े जाते हैं. इसलिए ही शहीद, अमरत्व और सम्मान दोनों पाते हैं.

वैसे तो ये कथा बैंक के प्रांगण की कहानी है पर इसके माध्यम से जीवन और मानव स्वभाव पर भी कलम चल रही है.

कथा रंग ला रही है तो रंग में भंग होगा नहीं. विश्वास रखिए जारी रहेगी, दवा के डोज़ के रूप में ….

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 94 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ –5 – दोई दीन से गए … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी #94 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 5- दोई दीन से गए … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

॥ दोई दीन से गए पाँडे , हलुवा मिला ना माँडे ॥

इस कहावत का अर्थ है  दोनों इच्छाओं में से किसी  एक भी का पूर्ण न होना और इसके पीछे जो कहानी है वह इस प्रकार है: 

गाँव में एक  पाण्डेजी  रहते थे । ज्यादा पड़े लिखे न थे अत: पूजा पाठ में तो न बुलाए जाते पर जब कभी आसपास के गावों में ब्राह्मण भोजन होता तो उन्हे भी बुलावा भेजा जाता। ऐसा ही एक निमंत्रण  पांडेजी को अपने गाँव से कुछ दूर स्थित दूसरे गाँव से मिला।  रास्ते भर वे सुस्वादु भोजन की कल्पना करते जा रहे थे कि आज हलुवा और पूरी को भोग लगेगा। पांडेजी को रास्ते में चलते चलते अचानक चावल बनने की खुशबू आई और चावल का माँड, जो उन्हे अत्यंत प्रिय था, पीने की लालच में  उस घर की ओर मुड़ गए। गृह मालकिन ने किवाड़ की ओट से पांडेजी को पायं लागी करी और आने का मंतव्य पूंछा। पांडेजी ने  घर तक पहुँचने की बात बताते हुये माँड पीने की इच्छा बताई। गृह मालकिन कुछ कह पाती तभी पांडेजी ने गाँव में आयोजित भोज की चर्चा करते हुये कुछ लोगों को सुना और वे उन्ही के पीछे पीछे भोज स्थल की ओर चल पड़े।  भोज स्थल पर लोगों ने पांडेजी को देखा और कह उठे अरे ये तो फलाने के दरवाजे पर खड़े थे और उसके यहाँ  माँड पीने की बात कर रहे थे। इतना सुनना था की भोज के लिए आमंत्रित अन्य ब्राह्मणों ने पांडेजी को खान पान की मर्यादाओं का पालन न करने का दोषी मानते हुये उनके साथ  भोजन करने का  बहिष्कार कर दिया और पांडेजी भोजन करने से वंचित हो गए।  इस प्रकार उन्हे न तो माँड पीने मिला और ना ही हलुवा खाने। तभी से यह कहावत चलन में है कि

॥ दोई दीन से गए पाँडे, हलुवा मिला ना माँडे ॥

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆☆ लघुकथा – सार्थक ☆☆ श्री सदानंद आंबेकर

श्री सदानंद आंबेकर

 

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की समसामयिक विषय पर आधारित एक विशेष लघुकथा  “सार्थक”। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन । 

☆ कथा कहानी  ☆ लघुकथा –  सार्थक ☆ श्री सदानंद आंबेकर

देश  स्वतंत्र हुये 75 वर्ष  बीत रहे थे, ऐसे में स्वर्ग में महात्मा गांधी जी को लगा कि चलो, एक बार चल कर मेरे भारत को देख आया जाये। ईश्वर से विशेष अनुमति लेकर बापू एक अत्यंत वृद्ध के वेश में भारत में आये। दो मिनट बाद जब नेत्र खोले तो देखा एक विशालकाय खंभों वाले पुल के नीचे वे खडे हैं। ऊपर अचानक कुछ ध्वनि सुनाई दी तो देखा पांच छह डिबों वाली ट्रामनुमा रेल बड़ी तेजी में निकल गई। उन्होंने देखा इसमें तीसरे दर्जे का डिब्बा तो है ही नहीं, फिर सोचा कि ट्राम है-मतलब मैं कलकत्ता आ गया हूं। धोती लाठी को संभालते हुये आगे बढे कि एक बस उनके बाजू से निकली जिस पर संसद भवन से कनॉट प्लेस लिखा था तो वे एकदम प्रसन्न हो गये अरे, ये तो दिल्ली है। वाह, कितनी बदल गई है मेरी दिल्ली।

गला सूखने लगा तो आसपास नजर दौडाई, सोचा- हमारे जमाने में धर्मार्थ प्याऊ थे उनमें से कोई तो बचा होगा। इधर-उधर खोजा तो एक भी नहीं दिखा, थोड़ी दूर उन्हें एक दुकान से कुछ लोग कांच की बोतलें ले जाते हुये दिखे तो बापू ने सोचा शायद शीतल पेय की दुकान है चलो कुछ मिल जायेगा। पास गये तो देखा वह बीयर की दुकान थी, नीचे पते में लिखा था गांधी रोड दिल्ली। दुखी होकर सूखा गला लेकर लाठी टेकते चल दिये।

धूप और प्यास से थक गये तो सोचा रिक्शा कर लिया जाये, कुछ समय प्रतीक्षा की तो एक रिक्शे वाला आया जिसे रोक कर बापू बोले भैया थोड़ा आसपास घुमा फिरा दो और पहले कहीं ठंडा पानी पिला दो। बूढे़ बाबा को देखकर रिक्शेवाले को भी दया आई बोला- बैठो दादा मैं सब दिखा दूंगा। कहां से आये हो, यूपी से या बिहार से ? अकेले ही इस उमर में निकल पड़े ?

अपनी बोतल से पानी पिला कर रिक्शावाला चल पड़ा। बापू ने भी उत्सुक दृष्टि से आसपास देखना शुरू किया।    

थोड़ा चलने के बाद बापू ने उससे पूछा भैया, यहां गांधी की जितनी जगहें हैं वे जरूर दिखाना, रिक्शेवाले ने पूछा – राजीव या श्रीमती इंदिरा गांधी की ? बापू ने कहा- ये कौन हैं, क्या बापू के रिश्तेदार हैं? रिक्शेवाला हंसा और बोला- कौन देहात से हो बाबा, चुपैचाप बैठे रहो मैं सब दिखा दूंगा।

चलते चलते एक विशाल चौराहे पर उनकी मूर्ति के नीचे सफेद टोपीधारी धरने पर बैठे थे, बापू ने सोचा वाह, मेरा सत्याग्रह अभी भी चलता है। धन्य हो भारत ! पास से गुजरे तो देखा सब धरने वाले हंसी ठिठोली कर रहे हैं, सिगरेट चाय, अंडे, समोसे खाये जा रहे हैं। उन्होंने दूसरी ओर दृष्टि कर ली।

बात करने के हिसाब से रिक्शेवाले से पूछा भैया तुम रिक्शा चलाते हो तो कुछ काम धंधा या नौकरी क्यों नहीं करते हो ? उसने बड़े उखडे़ स्वर में कहा क्या करें दादा, कॉलेज पढे़ हैं पर हम आरक्षण वर्ग से नहीं हैं तो हमें कहां काम मिलेगा, खेती बाडी है नहीं तो पेट पालने के लिये रिक्शा खींचते हैं। मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। यह कहावत सुनकर गांधी जी सन्न रह गये। आरक्षण किस बात का है यह उन्हें समझ ही नहीं आया।

चलते चलते एक मैदान में नेता जोर जोर से भाषण दे रहा था उसके स्वर उन तक भी पहुंच रहे थे। वह कह रहा था- हम गांधीजी के अनुयायी हैं, अगर आपने मुझे जिता दिया तो मैं उनके नाम पर बड़ी बड़ी  वातानुकूलित बंगलों की कॉलोनी  आपके लिये बनवा दूंगा, सबके लिये कैंब्रिज जैसे इंगलिश स्कूल कॉलेज बनवा दूंगा, गांधी इंटरनेशनल मॉल में आपको सारा आयातित सामान मिला करेगा। बापू ने रिक्शेवाले से कहा भैया कहीं और ले चलो।

रिक्शेवाले ने समय बचाने के लिये एक पतली गली में रिक्शा मोड़ दिया उसे देख कर बापू को वे दिन याद आये जब वे ऐसी ही गलियों में लोगों के घर जाते थे। उस गली में घर, दरवाजे, दीवारें सब हरे रंग में रंगे हुये थे, पर वहां उन्हें कहीं भी अपनी कोई मूर्ति आदि नहीं दिखाई दी।

उनका मन खट्टा हो आया। गली पार करते करते रास्ते में भीड़ दिखाई दी, बाजू से रिक्शा निकला तो देखा दो तीन दाढी वाले और धोती कुर्ता पहने युवा मारपीट कर रहे थे। बापू से नहीं रहा गया, रिक्शा रुकवा कर भीड में घुसे और सबको अलग किया। समझाते हुये बोले बेटे झगडे़ मारपीट से कोई हल नहीं निकलता है, दोनों एक दूसरे की बात शांति से मान लो समस्या हल हो जायेगी। एक युवा ने आंखे तरेर कर कहा बूढे़ बाबा ज्यादा गांधीगिरी हमें मत सिखाओ, अब तो समय है एक मारे तोे लौट कर दो मारो, समझे आप! गांधी के जमाने गये, और अब आप भी  निकल लो यहां से।

बापू ने लंबी सांस भरी और सोचा इस देश को आजादी दिलाने के लिये हजारों वीरों ने अपना जीवन होम दिया, क्या हमारी आहुति सार्थक हुई ? बहुत भारी मन से रिक्शे वाले से कहा- भैया किसी खाली जगह पर हमें उतार दो, अब हम बहुत थक गये हैं।

रिक्शावाले ने मंद गति से रिक्शा खींचना शुरू किया। दूर क्षितिज में सूर्य अस्त हो रहा था, थोड़ी दूर पर बापू ने देखा कि एक छोटा बच्चा आंखों पर पतली कमानी का चश्मा, सिर पर सफेद टोपी लगाये, अटपटी धोती लपेटे हाथ में लाठी और कागज का तिरंगा लिये नारा लगा रहा था- अंग्रेजों भारत छोडो, भारत माता की जय, महात्मा गांधी की जय। रिक्शेवाले ने कहा दादा, कल दो अक्टूबर है ना तो बच्चे उसकी ही तैयारी कर रहे हैं।

बापू ने मन ही मन कहा नहीं,  हमारा त्याग सार्थक हुआ है। आकाश की ओर देख कर प्रभु से प्रार्थना की और अदृश्य हो गये।

 

©  सदानंद आंबेकर

भोपाल, मध्यप्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – इतना बदलाव कैसे? ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “इतना बदलाव कैसे?)

☆ लघुकथा – इतना बदलाव कैसे? ☆

राजू और दिनेश स्कूटर से कहीं जा रहे थे कि अचानक आगे से एक कार उनके ठीक सामने आ कर रुक गयी। दोनों ने एकदम से ब्रेक न लगाए होते तो अवश्य ही टक्कर हो जाती। राजू ने एक भद्दी-सी गाली निकाली, और गुस्से में स्कूटर से उतरकर कार वाले की तरफ कदम बढ़ाने ही लगा था, कि दिनेश ने उसे रोक दिया, “छोड़ न यार, हो जाता है कभी-कभी। अब सड़क पर चलेंगे तो इतना तो चलता ही रहेगा।”

“यार सीधी टक्कर हो जानी थी अभी। साले के आंखें नहीं हैं क्या? चलानी नहीं आती तो घर से निकलते ही क्यों हैं?” राजू ने फिर एक भद्दी-सी गाली दे दी।

दिनेश ने उसे चुप कराते हुए कहा, “चल रहने दे न, जाने दे। अब इतनी बड़ी गाड़ी को रास्ता भी तो चाहिए होता है उतना। यह तो मोड़ भी ऐसा है कि पता ही नहीं चलता कि आगे से कौन आ रहा है। गलती से हो गया”, दिनेश ने कार वाले को जाने का इशारा करते हुए राजू से कहा, “लिहाज किया कर कार वालों का…।”     

राजू हैरानी से दिनेश को देख रहा था, और सोच रहा था, ‘यह वही दिनेश है, जो अगर कोई जरा-सा भी उसको या उसके स्कूटर-मोटरसाइकिल को छू भी जाता था, तो कार वाले से पूरी गाली-गलौच करता था, और मरने-मारने पर उतारू हो जाता था। फिर अब ऐसा क्या हो गया?’

दिनेश ने उसे स्कूटर पर बैठने का इशारा करते हुए कहा, “चल बैठ, समझ गया कि तू क्या सोच रहा है। अब अपने पास भी कार है यार, इसलिए…। थोड़ी इज्जत कर लिया कर कार वालों की, समझा।”

‘तभी मैं कहूं कि इतना बदलाव कैसे?…।’ राजू ने अपना सिर हिला दिया।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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