हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अफ़सोस ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “अफ़सोस)

☆ लघुकथा – अफ़सोस ☆

“क्या बात है विष्णु, इतना परेशान-सा क्यों है यार?” रविंदर ने पूछा।

“परेशान नहीं यार, पर गुस्सा आ रहा है।” विष्णु बोला।

“किस बात का, बता तो?” रविंद्र ने फिर पूछा।

“मुझे मलेशिया में हो रही अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय खेल प्रतियोगिताओं के लिए अलग-अलग विश्वविद्यालयों से खिलाड़ियों का चयन करके ले जाना है।” विष्णु ने कहा, जो चयन करने वाली कमेटी का प्रधान था।

“तो इसमें परेशानी क्या है? वह तो तुम परफॉर्मेंस के आधार पर चयन कर लो सीधा-सीधा।” रविंद्र ने कंधे उचकाते हुए कहा।

“क्या खाक चयन कर लूं? दो-चार को छोड़कर लगभग सभी उन खिलाड़ियों के नाम विश्वविद्यालयों द्वारा भेजे गए हैं, जिनकी बड़े-बड़े लोगों की सिफारिशें हैं। बाहर जाने का मौका कोई नहीं छोड़ना चाहता, पदक आए या ना आए, उनकी बला से,” विष्णु ने खीझ कर कहा, “और जो सही में प्रतिभावान हैं और पदक ला सकते हैं, उनका नाम ही नहीं है।”

“यार तुम्हारी बात से बचपन की एक बात याद आ गई,” रविंद्र ने हंसते हुए कहा, “जब भी घर में कोई चीज जैसे मिठाई वगैरह आती थी, तो हम सभी भाई बहन अलग-अलग से चोरी-चोरी, चुपके-चुपके एक-एक टुकड़ा उठा-उठा कर, यह सोचकर खाते रहते थे कि किसी को क्या पता चलेगा, एक ही टुकड़ा तो लिया है, और इस तरह सारा डब्बा खाली हो जाया करता था। बाद में मां-बाबूजी से डांट भी खानी पड़ती थी।”

“यही तो चिंता का विषय है मेरे लिए। मेरे देश का भी यही हाल हो रहा है। थोड़ा-थोड़ा करके सभी लोग भ्रष्टाचार करते जा रहे हैं, और सोच रहे हैं कि क्या फर्क पड़ेगा, और इधर पूरा देश भ्रष्टाचारी और खोखला होता जा रहा है,” विष्णु कह रहा था, “और अफसोस इस बात का है कि यहां कोई मां-बाबूजी भी नहीं हैं, रोकने या डांटने-फटकारने वाले…।”

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – कहानियाँ ☆ श्री हरभगवान चावला

श्री हरभगवान चावला

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत।sअब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा ‘कहानियाँ’।)

☆ लघुकथा – कहानियाँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

माँ के पास सैंकड़ों कहानियाँ थीं। हर कहानी में एक राजा होता। राजा पर संकट आते, वह हर संकट को हराता और ख़ुशी-ख़ुशी राज करने लगता। कहानी के अंत में माँ कहती- जैसे वो राजा ख़ुश बसा, वैसे ही हम भी ख़ुश बसें।

कुछ सालों बाद- कहानी का अन्तिम वाक्य तो यही बना रहा, पर जैसे ही माँ कहती- जैसे वो राजा ख़ुश बसा, वैसे ही हम भी ख़ुश बसें- उसके होठों पर एक धिक्कारती सी हँसी आ विराजती।

कुछ और सालों बाद- कहानी के अन्तिम वाक्य में अचानक ही हम की जगह तुम आ गया। अब माँ कहती- जैसे वो राजा ख़ुश बसा, वैसे ही तुम भी ख़ुश बसो। खुशियों की इस मनवांच्छित नगरी से माँ के आत्मनिर्वासन को हम बूझ ही नहीं पाए।

फिर एक दिन कहानी में से राजा ग़ायब हो गया। हममें से किसी ने माँ से नहीं पूछा कि राजा कहाँ गया? हमने राजा की गुमशुदगी को चुपचाप स्वीकार कर लिया।

और फिर एक दिन राजा की कहानियाँ भी गुम हो गईं। हमें पता ही नहीं चला कि हम ख़ुद कब ऐसी कहानियों में तब्दील हो गये थे, जिन्हें कोई सुनना नहीं चाहता था।

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 98 – लघुकथा – प्रेम का सुख ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “प्रेम का सुख।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 98 ☆

☆ लघुकथा — प्रेम का सुख ☆ 

” इतनी खूबसूरत नौकरानी छोड़कर तू उसके साथ।”

” हां यार, वह मन से भी साथ देती है।”

” मगर तू तो खूबसूरती का दीवाना था।”

” हां। हूं तो?”

” तब यह क्यों नहीं,”  मित्र की आंखों में चमक आ गई, ” इसे एक बार……”

” नहीं यार। यह पतिव्रता है।”

” नौकरानी और पतिव्रता !”

” हां यार, शरीर का तो कोई भी उपभोग कर सकता है मगर जब तक मन साथ ना दे…..”

” अरे यार, तू कब से मनोवैज्ञानिक बन गया है?”

” जब से इसका संसर्ग किया है तभी समझ पाया हूं कि इसका शरीर प्राप्त किया जा सकता है, मगर प्रेम नहीं। वह तो इसके पति के साथ है और रहेगा।”

यह सुनकर मित्र चुप होकर उसे देखने लगा और नौकरानी पूरे तनमन से चुपचाप रसोई में अपना काम करने लगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-08-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – हरि की माँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – हरि की माँ ??

हरि को गोद में आए केवल दस महीने हुए थे, जब हरि का बाप उसे हमेशा के लिए छोड़कर चला गया। हरि की माँ ने हिम्मत नहीं हारी। हरि की माँ हरि के लिए डटकर खड़ी रही। हरि की माँ को कई बार मरने के हालात से गुज़रना पड़ा पर हरि की माँ नहीं मरी।

हरि की माँ बीते बाईस बरस मर-मरकर ज़िंदा रही। हरि की माँ मर सकती ही नहीं थी, उसे हरि को बड़ा जो करना था।

हरि बड़ा हो गया। हरि ने शादी कर ली। हरि की घरवाली पैसेवाली थी। हरि उसके साथ, अपने ससुराल में रहने लगा। हरि की माँ फिर अकेली हो गई।

हरि की माँ की साँसें उस रोज़ अकस्मात ऊपर-नीचे होने लगीं। हरि की माँ की पड़ोसन अपनी बेटी की मदद से किसी तरह उसे सरकारी अस्पताल ले आई। हरि की माँ को जाँचकर डॉक्टर ने बताया, ज़िंदा है, साँस चल रही है।

हरि की माँ नीमबेहोशी में बुदबुदाई, ‘साँस चलना याने ज़िंदा रहना होता है क्या?’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथाएं – लघुकथाएं – [1] शौक  [2] कितना बड़ा दुख … ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा-कहानी ☆ लघुकथाएं – [1] शौक  [2] कितना बड़ा दुख … ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

[1]

शौक

-सुनो यार , हर समय बगल में कैसी डायरी दबाए रखते हो ?

-यह …यह मेरा शौक है ।

-यह कैसा अजीब शौक हुआ ?

-मेरे इस शौक से कितने जरूरतमंदों का भला होता है ।

-वह कैसे ?

-इस डायरी में  सरकारी अफसरों के नाम, पते, फोन नम्बरों के साथ साथ उनके शौक भी दर्ज हैं ।

-इससे क्या होता हैं ?

-इससे यह होता हैं कि जैसा अफसर होता हैं वैसा जाल डाला जाता हैं । जिससे जरूरतमंद का काम आसानी से हो जाता हैं ।

-तुम कैसे आदमी हो ?

-आदमी नहीं । दलाल ।

और वह अपने शौक पर खुद ही बड़ी बेशर्मी से हंसने लगा ।

[2] 

कितना बड़ा दुख … 

-लाइए बाबू जी । पांच हजार रुपये दीजिए ।

-किसलिए ?

-यह ऊपर की फीस है रजिस्ट्री करवाने की । यदि यह अदा न की गयी तो रजिस्ट्री पर कोई न कोई आब्जेक्शन लग जायेगा और मामला फंसा रहेगा ।

दरअसल मैं प्रॉपर्टी डीलर के साथ अपने प्लाॅट की रजिस्ट्री करवाने गया था तहसील दफ्तर । इससे पहले प्रॉपर्टी डीलर नीचे के बाबुओं को सौ सौ रुपये देने को कहता रहा और मैं देता गया । पर अब एकसाथ पांच हजार ? दिल धक्क् से रह गया । आखिर मैंने फैसला किया ।

-अब आप ये कागज़ मुझे दो । मैं जाता हूं तहसीलदार के पास ।

-बाबू जी । काम बिगड़ जायेगा ।

-कोई बात नहीं । बहुत हो गया और आपने बहुत खुश कर लिया बाबुओं को । अब लाओ कागज़ मैं देखता हूं ।

प्रॉपर्टी डीलर ने कागज़ कांपते हाथों से मुझे सौंप दिये ।

मैंने अपना कार्ड भेजा और बुलावा आ गया साहब का ।

-बताइए क्या काम है ?

-यह मेरी रजिस्ट्री है । प्रॉपर्टी डीलर पांच हजार देने को कह रहा है । क्या ये देने ही पड़ेंगे?

साहब ने मेरा विजिटिंग कार्ड देखा और पत्रकार पढ़ते ही चौंके और मेरा काम धाम पूछा और चाय भी मंगवाई । चाय की चुस्कियों के बीच कागज़ के बिल्कुल टाॅप पर हरे पेन से निशान लगा मानो ग्रीन सिग्नल दे दिया और कागज़ लौटाते हुए कहा -किसी को कुछ देने की जरूरत नहीं । जाइए अपनी रजिस्ट्री करवाइए ।

मैं प्रॉपर्टी डीलर के साथ अगली विंडो पर पहुंचा । वहां एक सुंदर सलोनी महिला विराजमान थी । उसने ग्रीन सिग्नल देखते ही ज़ोर से अपना माथा पीटा और बोली -आज साहब को पता नहीं क्या हो गया है ? यह दूसरी रजिस्ट्री है जो मुफ्त में की जा रही है ।

मैं हैरान था उस सुंदरी के इतने बड़े दुख को जानकर…

 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 79 ☆ उसका सच…. ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है ट्रांसजेंडर विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘उसका सच’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 79 ☆

☆ लघुकथा – उसका सच…. ! ☆

सूरज की किरणें उसके कमरे की खिडकी से छनकर भीतर आ रही हैं। नया दिन शुरू हो गया पर बातें वही पुरानी होंगी उसने लेटे हुए सोचा। मन ही नहीं किया बिस्तर से उठने का। क्या करे उठकर, कुछ बदलनेवाला थोडे ही है? पता नहीं कब तक ऐसे ही चलेगा यह लुकाछिपी का खेल। बहुत घुटन होती है उसे। घर में वह कैसे समझाए सबको कि जो वह दिख रहा है वह नहीं है, इस पुरुष वेश में कहीं एक स्त्री छिपी बैठी है। वह हर दिन  इस मानसिक अंतर्द्वंद्व को झेलता है। उसके शरीर का सच और घरवालों की आँखों को दिखता सच। दोनों के बीच में वह बुरी तरह पिस रहा है। तब तो अपना सच उसे भी नहीं समझा था, छोटा ही था,  स्कूल में रेस हो रही थी। उसने दौडना शुरू किया ही था कि सुनाई दिया – अरे! महेश को देखो, कैसे लडकी की तरह दौड रहा है। गति पकडे कदमों में जैसे अचानक ब्रेक लग गया हो, वह वहीं खडा हो  गया, बडी मुश्किल से सिर झुकाकर धीरे धीरे चलता हुआ भीड में वापस आ खडा हुआ। क्लास में आने के बाद भी बच्चे उसे बहुत देर तक लडकी – लडकी  कहकर चिढाते रहे। तब से वह कभी दौड ही नहीं सका, चलता तो भी कहीं से आवाज आती ‘लडकी है‘  वह ठिठक जाता।

महेश! उठ कब तक सोता रहेगा?  माँ ने आवाज लगाई।‘ कॉलोनी के सब लडके  क्रिकेट खेल रहे हैं तू क्यों नहीं खेलता उनके साथ ? कितनी बार कहा है लडकों के साथ खेला कर। घर में बैठा रहता है लडकियों की तरह।‘

‘मुझे अच्छा नहीं लगता क्रिकेट खेलना।‘

माँ के ज्यादा कहने पर वह साईकिल लेकर निकल पडा और पैडल पर गुस्सा उतारता रहा। सारा दिन शहर में घूमता रहा बेवजह। पैडल जितनी तेजी से चल रहे थे, विचार भी उतनी तेज उमड रहे थे। बचपन से लेकर बडे होने तक ना जाने कितनी बार लोगों ने उसे ताने मारे। कब तक चलेगा यह सब ? लोगों को दोष किसलिए देना? अपना सच वह जानता है, उसे स्वीकारना है बस सबके सामने। घर नजदीक आ रहा है। बस, अब और नहीं। घर पहुँचकर उसने साईकिल खडी की, कमरे में जाकर अपनी पसंद का शॉल निकाला और उसे दुप्पटे की तरह ओढकर सबके बीच में आकर बैठ गया। सूरज की किरणों ने आकाश पर अधिकार जमा लिया था।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 96 – लघुकथा – भ्रष्टाचार पर विजय ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “भ्रष्टाचार पर विजय।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 96 ☆

☆ लघुकथा — भ्रष्टाचार पर विजय ☆ 

मोहन ने कहा,” अपना ठेकेदारी का व्यवसाय है। इसमें दलाली, कमीशन, रिश्वत खोरी के बिना काम नहीं चल सकता है।”

रमन कब पीछे रहने वाला था,” भाई! मुझे आरटीओ के यहां से लाइसेंस बनवाने का काम करवाना पड़ता है। लोग बिना ट्रायल के लाइसेंस बनवाते हैं। यदि पैसा ना दूं तो काम नहीं चल सकता है।”

” वह तो ठीक है,” कमल बोला,” व्यापार अपनी जगह है पर रिश्वतखोरी हो तो बुरी है ना। नेता लोग करोड़ों डकार जाते हैं। बिना रिश्वत के रेल का बर्थ रिजर्व नहीं होता है। डॉक्टर बनने के लिए लाखों करोड़ों की रिश्वत देना पड़ती है। तब बच्चा डॉक्टर बनता है। यह तो गलत है ना।”

” हां हां, हम रिश्वत क्यों दें।” एक साथ कई आवाजें गुंजीं,” हमें अन्ना के आंदोलन का साथ देना चाहिए।”

तब काफी सोचविचार व विमर्श के बाद यह तय हुआ कि कल सभी औरतें अपने हाथों में मोमबत्ती जलाकर रैली निकालेगी और अंत में रिश्वत नहीं देने की शपथ लेगी। सभी ने यह प्रस्ताव पारित किया और अपनी-अपनी पत्नियों को रैली में सम्मिलित कराने हेतु घर की ओर चल दिए।

सभी के चेहरे पर भ्रष्टाचार पर विजय पाने की मुस्कान तैर रही थी।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-08-2011

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 105 – लघुकथा – प्रायश्चित ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “बेटी बचाओ ” जैसे अभियान जो पोस्टर एवं बयानों तक ही सीमित रह जाते हैं , पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “प्रायश्चित। इस विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 105 ☆

? लघुकथा – प्रायश्चित ?

सुलोचना आज पुरानी पेटी से शादी का जोड़ा निकाल कर देख रही थी। बीते 25 वर्षों से वह अपनी नन्ही सी परी को लेकर पतिदेव से अलग हो चुकी थी। परी ने आवाज लगाई… मम्मी फिर वही पुरानी बात भूल जाओ, मैं अब बड़ी हो गई हूँ। मैं अपनी मम्मी को किसी प्रकार का कष्ट होने नहीं दूंगी।    

 माँ ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा… तुम बेटी हो न, इसी बात को लेकर मुझे चिंता होती है। तुम्हारे पापा सहित ससुराल में सभी ने मुझे बेटी हुई है, और उन्हें बेटा चाहिए था, यह कह कर मुझे घर से निकाल दिया था।

परी ने देखा मां की आंखें नम हो चली थी । उसने कहा.. अच्छा चलो मैं ही तुम्हारा बेटा हूँ मैं आपको छोड़कर कहीं भी नहीं जाऊंगी।

माँ ने कहा… यह संभव नही है। हमारी संस्कृति है कि बेटियों को एक दिन ससुराल जाना पड़ता है। बात करते-करते सुलोचना अपना काम कर रही थी और परी अपना बैग उठा ऑफिस के लिए निकल गई।

शाम को उसके साथ एक नौजवान आया परी ने कहा… मम्मी इनसे मिलिए ये संदेश हैं और इनको मैं बारात लेकर ब्याह कर लाऊंगी।  यह हमारे साथ घर पर रहेंगे क्योंकि इनकी यही इच्छा है जो लड़की इनको पसंद करेगी। यह उनके घर ही रहेंगे।

आपकी समस्या का समाधान हो गया। चाय नाश्ता चल ही रहा था कि डोर बेल बज उठी। मां ने दरवाजा खोला। देखा सामने जाना पहचाना चेहरा और मुस्कुराती आंखों पर आंसू.. पतिदेव ने कहा… सुलोचना तुम्हारे जाने के बाद मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ ‘प्रायश्चित’ करने के लिए मैं इसी दिन का इंतजार कर रहा था।

यह हमारे ऑफिस में काम करता है इसका कोई नहीं है मैं इसे जानता हूं। मैं अपना कोई अधिकार नहीं जमा रहा हूँ पर मुझे एक मौका दो और माफ कर सको तो मेरा प्रायश्चित हो जाएगा और एक परिवार फिर से बन संवर जाएगा। संदेश और परी दूर से यह सब देख रहे थे।

सारा खेल अब सुलोचना को समझ आने लगा। मन अधीर हो उठा। परी सचमुच बड़ी हो गई है।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 78 ☆ अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘अब अहिल्या को राम नहीं मिलते ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 78 ☆

☆ लघुकथा – अब अहिल्या को राम नहीं मिलते   ☆

पुलिस की रेड पडी थी। इस बार वह पकडी गई। थाने में महिला पुलिस फटकार लगा रही थी – ‘शर्म नहीं आती तुम्हें शरीर बेचते हुए? औरत के नाम पर कलंक हो तुम।‘ सिर नीचा किए सब सुन रही थी वह। सुन – सुनकर पत्थर सी हो गई है। पहली बार नहीं पडी थी यह लताड, ना जाने कितनी बार लोगों ने उसे उसकी औकात बताई है। वह जानती है कि दिन में उसकी औकात बतानेवाले रात में उसके दरवाजे पर खडे होते हैं पर —।

महिला पुलिस की बातों का उसके पास कोई जवाब नहीं था। उसे अपनी बात कहने का हक  है कहाँ? यह अधिकार तो समाज के तथाकथित सभ्य समाज को  ही है। उसे तो गालियां ही सुनने को मिलती हैं। वह एक कोने में सिर नीचे किए चुपचाप बैठी रही। बचपन में माँ गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या की कहानी सुनाती थी। एक दिन जब ऋषि कहीं बाहर गए हुए थे तब इंद्र गौतम ऋषि का रूप धरकर उनकी कुटिया में पहुँच गए। अहिल्या इंद्र को अपना पति ही समझती रही। गौतम ऋषि के वापस आने पर सच्चाई पता चली। उन्होंने गुस्से में अहिल्या को शिला हो जाने का शाप दे दिया। पर अहिल्या का क्या दोष था इसमें? वह आज फिर सोच रही थी, दंड  तो इंद्र को मिलना चाहिए।

उसने जिस पति को जीवन साथी माना था, उसी ने इस दलदल में ढकेल दिया। जितना बाहर निकलने की कोशिश करती, उतना धँसती जाती। अब  जीवन भर इस शाप को ढोने को मजबूर है। सुना है अहिल्या को राम के चरणों के स्पर्श से मुक्ति मिल गई थी। हमें मुक्ति क्यों नहीं मिलती? उसने सिर उठाकर चारों तरफ देखा। इंद्र तो बहुत मिल जाते हैं जीती- जागती स्त्री को बुत बनाने को, पर कहीं कोई राम क्यों नहीं मिलता?

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 95 – लघुकथा – बने रहो…. ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “बने रहो….।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 95 ☆

☆ लघुकथा — बने रहो…. ☆ 

मोहन को चार डाक बना कर देना थी। महेश से कहा तो महेश बोला,” लाओ कागज ! अभी बना देता हूं,” कह कर  महेश ने कागज लिया। जानकारी भरी।  जोड़ लगाई ।

” 9 धन  6 बराबर 14 ।” फिर अचानक बोला, ” अरे ! यह तो गलत हो गया। 9 धन 6 बराबर 16 होता है।” कहते हुए उसने जोड़ के आंकड़े को घोटकर 14 के ऊपर 16 बना दिया।

तभी अचानक माथे पर हाथ रख कर बोला, ” साला !  दिमाग भी कहां जा रहा है ? 9 धन 6 तो 15 होते हैं।”

” हां, यह ठीक है।” जैसे ही महेश ने यह कहा तो मोहन बोला, ”  यह क्या किया सर ? जानकारी में काटपीट ?”

” कोई बात नहीं सर । एक कागज और दीजिए । अभी नई बना देता हूं, ” कह कर महेश ने दूसरा कागज लिया। कॉलम खींचे। मगर यह क्या ? एक कालम छूट गया था।

” सर!  यह क्या किया?  आपने तो एक कालम ही छोड़ दिया?”

यह सुनकर महेश बोला,” अच्छा!  देखें। कौन सा कॉलम छूटा है ?” कहकर महेश ने माथे पर हाथ रख कर कहा,” अरे! यार एक और कागज दो ।अभी बना देता हूं।”

बहुत देर से पत्रवाहक यह सब देख रहा था । वह खड़ा होते वह बोला, ”  सर!  मुझे देर हो रही है । आप डाक बनाकर भेज दीजिएगा। मैं चलता हूं।” 

” अरे! नहीं सर जी। मोहन ने हड़बड़ा कर कहा, ” आप थोड़ी देर बैठिए।  मैं स्वयं बनाकर दे देता हूं।”

मोहन के यह कहते हुए ही महेश हमेशा की तरह मुस्कुरा कर अपने तकिया कलाम वाक्य को धीरे से सीटी बजा कर दोहराने लगा, “बने रहो पगला, काम करेगा अगला।”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

26-09-2020

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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