हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#4 – [1] अजीब श्राप [2] स्वर्गलोक ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “अजीब श्राप“एवं “स्वर्गलोक”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा।)

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#5 – [1] अजीब श्राप  [2] स्वर्गलोक

[1]

अजीब श्राप

वृद्धा का सामान आँगन में बिखरा पड़ा था। उसे वृद्धाश्रम भेजने की पूरी पूरी तैयारी थी । पुत्र के साथ पुत्र वधु भी सहयोग कर रही थी।

तब तक उसकी बेटी वहां आ पहूंची। बोली- ‘मैं तेरी सेवा करुँगी माँ। देख तो तेरे दामाद बाबू भी तो आए हैं।’

वृद्धा का सब्र का बाँध टूट गया। वह हिचकियाँ लेकर रोने लगी। रोते – रोते वह श्राप दे रही थी – मेरी तो एक लड़की थी जो मुझे लेने आ गयी। मैं तुम्हें श्राप देती हूँ कि तुझे लड़के ही लड़के हों ताकि वृद्धाश्रम भेजते  समय तेरी कोई लड़की ही न हो।

बेटा बहू ऐसे अजीब श्राप को सुनते ही सकते में आ गए।

 

[2]

स्वर्गलोक

एक पढ़ी लिखी नौकरी करती लड़की ने अपने पिताश्री को फोन किया, एक अमेरिकी लड़का भारत आ रहा है। मेरी कंपनी का ही जूनियर है। मुझसे शादी करना चाहता है।

पिता ने कहा-‘ बेटी तुम समझदार हो, तुम्हारे फैसला हमें हर हाल में मंजूर होगा।’

बेटी बोली- ‘पापा अब इंडिया भी कोई रहने लायक है। अमेरिका स्वर्गलोक है। दरअसल मैं अब वहीँ सेट होना चाहती हूँ । आप उसे पास कर देना प्लीज़।’

पिता बोले- ‘हमें कोई पागल कुत्ते ने काटा है, जो हम मना कर देंगे। इस धूल धक्कड़ से जितने जल्दी पीछा छूटे उतना अच्छा।’

मैं तो अभी से अमेरिका के सपने देखने लगा हूँ जो है सो।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#4 – [1] अमीरी  [2] पैकेज ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “अमीरी “एवं “पैकेज”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#4 – [1] अमीरी  [2] पैकेज ☆

[1]

अमीरी 

एक लग्ज़री कार—नकदी— जेवर- अच्छा फर्नीचर, अमीर घराने में लड़की ब्याहने में करोड़ सवा करोड़ तो लगेंगे —इतना तो कर सकेंगे न?

दलाल हो क्या जो लड़का पार्टी का गुणगान कर रहे हो ?

मुझे वर नहीं खरीदना है, कितना कमीशन तय हुआ था?

लड़की के पिता ने अमीरी ठुकरा दी।

 

[2]

पैकेज  

‘सुनती हो, लड़का विदेश में है। अठारह लाख का पैकेज है,कहो तो बात चलाऊं’?

‘हमारी लड़की का चौबीस का है, पच्चीस का हो तभी बताना, अभी तो न न न है।’

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 84 – लघुकथा- मैरीज होली विशेज़ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  होली पर्व पर  एक विशेष लघुकथा  “मैरीज होली विशेज।  इस  धर्मनिरपेक्ष एवं सर्वधर्म सद्भाव पर आधारित भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 84 ☆

?? लघुकथा- मैरीज होली विशेज ??

नंदिनी अपनी शादी के बाद पहली होली खेलने अपने पतिदेव के साथ मायके आई हुई थी। अभी- अभी पड़ोस में एंग्लो- इंडियन क्रिस्चियन परिवार रहने आया था। ज्यादा जान पहचान नहीं हुई थी हाव भाव हैलो हाय हो रहा था।

चूंकि हमारी भारतीय परंपरा रही है कि होली पर सभी के माथे पर तिलक लगा, मिलकर होली की शुभकामना कह कर बड़ों से आशीर्वाद और छोटों को प्यार दिया जाता है। नंदिनी भी सुबह से चाहक रही थी क्योंकि अपने पतिदेव के साथ मायके की पहली होली बहुत ही यादगार और प्रभाव पूर्ण बनाना चाहती थी।

गुलाल के कई रंगों की पुड़िया लिए निकल पड़ी अपने अपार्टमेंट में होली खेलने। रंगों से लिपि पुती बस उन्हीं के यहाँ नहीं गई क्योंकि उसको लगा शायद यह थोड़े बुजुर्ग आंटी अंकल है। और क्रिस्चियन है, तो पता नहीं अभी आए हैं और होली का तिलक लगाएंगे भी या नहीं।

यह सोच कर वह घर आ गई। नहा-धोकर तैयार हो गई। उसी समय उनके घर का काम करने वाला नंदिनी से आकर बोला – “मैडम और सर ने आपको बुलाया है।” नंदिनी ने आवाक होकर देखती रही। पतिदेव के साथ थोड़ी ही देर में उसके घर पहुंच गई।

आपस में बातचीत हुई। बहुत ही सुंदर वातावरण। आंटी ने एक थाली में थोड़ा सा चाँवल,गुलाल, लिफाफा और एक सुंदर सी साड़ी लेकर बाहर निकली। अंग्रेजी में बात करने लगी, बोली -” हम जानते हैं कि तुम्हारी यह पहली होली है। हमको तुम्हारे यहां का रिवाज पूरी तरह मालूम नहीं है। अभी सर्वेंट से पूछा तो उसने बताया। यह हमारी तरफ से आप का पहला होली का गिफ्ट है और “Wish you a very Happy Holi” कह कर गुलाल लगाई और चाँवल को आँचल में डाल, गिफ्ट दे गले लगा ली।

नंदिनी ने आंटी को कसकर गले लगा लिया। ‘मैरी आंटी’ आंटी का नाम मैरी था। “आपका गिफ्ट मुझे हमेशा याद रहेगा। आपने मेरी और मेरे पतिदेव की होली की खुशी को यादगार बना कई गुना अधिक कर दिया है।” (I will always remember your gift. You have made my and my husband’s happiness of Holi memorable many times more.)

खुशी के मारे मैरी आंटी-अंकल गदगद हो गये और वे बोली – “अब जब भी घर आओगी, घर आना हमारे पास। हम तुम्हारा इंतजार करेंगे। “गुलाल से सरोबार करते पतिदेव ने भी मैरी आंटी – अंकल को खूब हँसाया। मैरी विश पाकर नंदिनी खिल उठी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#3 – [1] नहीं  [2] मिनिस्टर ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में आज से शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “नहीं “एवं “मिनिस्टर ”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#3 – [1] नहीं  [2] मिनिस्टर ☆

[1]

नहीं

लड़की सयानी हुई तो रिश्तेदारनीउसका रिश्ता लेकर आई। बोलो- पांच भाइयों में से एक बड़े की तरफ लड़की का रिश्ता चलाएँ?

अपनी रिश्तेदारनी की बात सुनकर लड़की बोली- न जी न बुआजी । चार देवरानियां ब्याहते –  ब्याहते बूढ़ी हो जाऊंगी। छोटे से ब्याह रचाएंगी तो भारी भरकम गिफ्ट देने से बचूँगी। सबका प्यार भी पाती रहूंगी, अभी तो किसी तरह भी नहीं।

[2]

मिनिस्टर

लड़की को देखने वाले आए। बोले- आपकी लड़की का होनै वाला ससुर मिनिस्टर है। लड़की दिल्ली रहेगी। नौकरों की फौज रहेगी। अपने हाथ से गिलास भरकर पानी भी नहीं पिएगी ।?

‘मिनिस्टर है कोई युधिष्ठिर नहीं’.. वहाँ तो सच सुनने को तरस जाऊँगी। मुझे तो ऐसा घर चाहिए जहां  मेरी पूछ परख हो। मेरी पाक कला की पूछ हो, घर की नींव खून पसीने की हो। अपनत्व हो…. दिखावटीपन मुझे पसंद नहीं।

लड़के वाले दांत पीसकर रह गये।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#2 – [1] लक्ष्मी जी [2] भुतहा घर ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में आज से शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “लक्ष्मी जी “एवं “भुतहा घर”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह#2 – [1] लक्ष्मी जी [2] भुतहा घर ☆

[1]

लक्ष्मी जी

सदियों से नारी को जेवर एवं गृहलक्ष्मी का ओहदा देकर औरत को बना रहा था आदमी।

अब वह सब खत्म। लक्ष्मी जी तो वह अब बनी है। बड़े बड़े ओहदे पर है। बड़ी बड़ी तनख्वाहें पा रही है।अब उसके पास बंगला है, कार हैं, बैंक बैलेंस है।अब आदमी औरत के सामने बौना हो गया है।

दो औरतें बिंदास चर्चा कर रही थीं। अपने सोने के मोटे मोटे कंगन एक दूसरे को दिखा रही थीं।

[2]

भुतहा घर

‘सास नहीं ससुर नही। देवर ननद, भाई भौजाई कुछ नहीं। लड़की राज करेगी’ माँ बोलीं।

‘तो मैं क्या भूतों के संग रहूँगी?  पति क्या चौबीस घंटे घर में रहा आएगा?’

‘नेवर – नो -‘

‘घर अकेले से नहीं रिश्तेदारों से भरता है। मायके वाले ही रिश्तों की गलत नींव रखते हैं।’

माँ चुप्पी लगा गयी।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#48 – कौन सा रास्ता सही? ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#48 – कौन सा रास्ता सही? ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक गरीब युवक, अपनी गरीबी से परेशान होकर, अपना जीवन समाप्त करने नदी पर गया, वहां एक साधू ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। साधू ने, युवक की परेशानी को सुन कर कहा, कि मेरे पास एक विद्या है, जिससे ऐसा जादुई घड़ा बन जायेगा जो भी इस घड़े से मांगोगे, ये जादुई घड़ा पूरी कर देगा, पर जिस दिन ये घड़ा फूट गया, उसी समय, जो कुछ भी इस घड़े ने दिया है, वह सब गायब हो जायेगा।

अगर तुम मेरी 2 साल तक सेवा करो, तो ये घड़ा, मैं तुम्हे दे सकता हूँ और, अगर 5 साल तक तुम मेरी सेवा करो, तो मैं, ये घड़ा बनाने की विद्या तुम्हे सिखा दूंगा। बोलो तुम क्या चाहते हो, युवक ने कहा, महाराज मैं तो 2 साल ही आप  की सेवा करना चाहूँगा , मुझे तो जल्द से जल्द, बस ये घड़ा ही चाहिए, मैं इसे बहुत संभाल कर रखूँगा, कभी फूटने ही नहीं दूंगा।

इस तरह 2 साल सेवा करने के बाद, युवक ने वो जादुई घड़ा प्राप्त कर लिया, और अपने घर पहुँच गया।

उसने घड़े से अपनी हर इच्छा पूरी करवानी शुरू कर दी, महल बनवाया, नौकर चाकर मांगे, सभी को अपनी शान शौकत दिखाने लगा, सभी को बुला-बुला कर दावतें देने  लगा और बहुत ही विलासिता का जीवन जीने लगा, उसने शराब भी पीनी शुरू कर दी और एक दिन नशें में, घड़ा सर पर रख नाचने लगा और ठोकर लगने से घड़ा गिर गया और फूट गया.

घड़ा फूटते ही सभी कुछ गायब हो गया, अब युवक सोचने लगा कि काश मैंने जल्दबाजी न की होती और घड़ा बनाने की विद्या सीख ली होती, तो आज मैं, फिर से कंगाल न होता।

“ईश्वर हमें हमेशा 2 रास्ते पर रखता है एक आसान -जल्दी वाला और दूसरा थोडा लम्बे समय वाला, पर गहरे ज्ञान वाला, ये हमें चुनना होता है की हम किस रास्ते पर चलें?”

“कोई भी काम जल्दी में करना अच्छा नहीं होता, बल्कि उसके विषय में गहरा ज्ञान आपको अनुभवी बनाता है।”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह – [1] नासमझ [2] ऊपरी कमाई ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में आज से शादी-ब्याह विषय पर हम  प्रतिदिन  आपकी दो लघुकथाएं धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं  “नासमझ “एवं “ऊपरी कमाई”।  हमें पूर्ण आशा है कि आपको यह प्रयोग अवश्य पसंद आएगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – शादी-ब्याह – [1] नासमझ [2] ऊपरी कमाई ☆

[1]

नासमझ

‘नहीं माँ, मैं लिव इन में रह लूँगी पर ब्याह नहीं करुँगी.’

‘क्या कह रही रही है बेटी तू?’

‘पति की गुलामी, बच्चों की गुलामी, घर गृहस्थी की सेवा संभाल करते-करते आज की औरत तंगहाल है माँ, उसका स्व कुछ नहीं रह गया है.’

आजाद ख्याल बच्ची को नासमझ  कहने के सिवाय उसके पास शेष कुछ रह नहीं गया था.

 

[2]

ऊपरी कमाई

बिचौलिया कह रहा था ‘लड़के की तनख्वाह जरूर कम है पर ऊपरी आमदनी, बाबा रे बाबा , लड़की कार चढ़ेगी.’

‘ऊपरी कमाई ऊपर के ऊपर उड़ जाएगी, साथ में मेरे जेवर भी बेच खाएगी. शराब जुआँ संग ले आएगी, लगे हाथ सौत भी खिची चलीआएगी, घर भी बेच खाएगी. बचेगा निल बटे सन्नाटा-टा-टा.’

लड़की मुँहमोड़ गयी.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – गीलापन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – लघुकथा – गीलापन ?

‘उनके शरीर का खून गाढ़ा होगा। मुश्किल से थोड़ा बहुत बह पाएगा। फलत: जीवन बहुत कम दिनों का होगा। स्वेद, पसीना जैसे शब्दों से अपरिचित होंगे वे। देह में बमुश्किल दस प्रतिशत पानी होगा। चमड़ी खुरदरी होगी। चेहरे चिपके और पिचके होंगे। आँखें बटन जैसी और पथरीली होंगी। आँसू आएँगे ही नहीं।

उस समाज में सूखी नदियों की घाटियाँ संरक्षित स्थल होंगे। इन घाटियों के बारे में स्कूलों में पढ़ाया जाएगा ताकि भावी पीढ़ी अपने गौरवशाली अतीत और उन्नत सभ्यता के बारे में जान सके। अशेष बरसात, अवशेष हो जाएगी और ज़िंदा बची नदियों के ऊपर एकाध दशक में कभी-कभार ही बरसेगी। पेड़ का जीवाश्म मिलना शुभ माना जाएगा। ‘हरा’ शब्द की मीमांसा के लिए अनेक टीकाकार ग्रंथ रचेंगे। पानी से स्नान करना किंवदंती होगा। एक समय पृथ्वी पर जल ही जल था, को कपोलकल्पित कहकर अमान्य कर दिया जाएगा।

धनवान दिन में तीन बार एक-एक गिलास पानी पी सकेंगे। निर्धन को तीन दिन में एक बार पानी का एक गिलास मिलेगा। यह समाज रस शब्द से अपरिचित होगा। गला तर नहीं होगा, आकंठ कोई नहीं डूबेगा। डूबकर कभी कोई मृत्यु नहीं होगी।’

…पर हम हमेशा ऐसे नहीं थे। हमारे पूर्वजों की ये तस्वीरें देखो। सुनते हैं उनके समय में हर घर में दो बाल्टी पानी होता था।

..हाँ तभी तो उनकी आँखों में गीलापन दिखता है।

…ये सबसे ज्यादा पनीली आँखोंवाला कौन है?

…यही वह लेखक है जिसने हमारा आज का सच दो हजार साल पहले ही लिख दिया था।

…ओह ! स्कूल की घंटी बजी और 42वीं सदी के बच्चों की बातें रुक गईं।

समुद्र मंथन से अमृत निकला था। आज का अमृत, जल है। स्मरण रहे, जल है तो कल है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 88 ☆ लघुकथा – विश्वास ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “विश्वास। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 88 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – विश्वास ☆

देश का माहौल बहुत खराब है।इस कोरोना महामारी ने सबका सुख चैन छीन लिया है। आज उनको काम से यू.पी. जाना है और रास्ते में थे, तभी पता चला लॉक डाउन में कुछ ढील है तो सारे लोग सड़क पर उतर आए। रास्ते जाम हो गए। तभी नजर पड़ी एक राहगीर रास्ते में बेहोश पड़ा है और उसके सर से खून बह रहा है। इतनी भीड़ में पैदल चल रहे राहगीर को कोई टक्कर मार गया होगा। कोरोना के भय से कोई भी हाथ लगाने को तैयार नहीं लेकिन उनका मन नहीं माना। उनको  विश्वास था कि  हो सकता है इस बेचारे की जान बच जाए। वह पानी और सैनिटाइजर लेकर नीचे उतरे। उस पर पानी का छिड़काव किया। उसमें कुछ हरकत हुई तब उन्होंने पुलिस को फोन किया। एंबुलेंस बुलाई। उसका फोन दूर गिरा था उन्होंने उसे सैनेटाईज किया। जानना चाहा कि आखरी फोन  किसे किया था। इत्तेफाक से वह इसके पिता का नंबर  था। सारी जानकारी दे दी गई। उसे बस्ती के अस्पताल में भर्ती करवा दिया और वह खतरे से बाहर है।उनका दृढ़ विश्वास और बढ़ गया।

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#47 – आधा किलो आटा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#47 – आधा किलो आटा ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक नगर का सेठ अपार धन सम्पदा का स्वामी था। एक दिन उसे अपनी सम्पत्ति के मूल्य निर्धारण की इच्छा हुई। उसने तत्काल अपने लेखा अधिकारी को बुलाया और आदेश दिया कि मेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति का मूल्य निर्धारण कर ब्यौरा दीजिए, पता तो चले मेरे पास कुल कितनी सम्पदा है।

सप्ताह भर बाद लेखाधिकारी ब्यौरा लेकर सेठ की सेवा में उपस्थित हुआ। सेठ ने पूछा- “कुल कितनी सम्पदा है?” लेखाधिकारी नें कहा – “सेठ जी, मोटे तौर पर कहूँ तो आपकी सात पीढ़ी बिना कुछ किए धरे आनन्द से भोग सके इतनी सम्पदा है आपकी”

लेखाधिकारी के जाने के बाद सेठ चिंता में डूब गए, ‘तो क्या मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मरेगी?’ वे रात दिन चिंता में रहने लगे।  तनाव ग्रस्त रहते, भूख भाग चुकी थी, कुछ ही दिनों में कृशकाय हो गए। सेठानी द्वारा बार बार तनाव का कारण पूछने पर भी जवाब नहीं देते। सेठानी से हालत देखी नहीं जा रही थी। उसने मन स्थिरता व शान्त्ति के किए साधु संत के पास सत्संग में जाने को प्रेरित किया। सेठ को भी यह विचार पसंद आया। चलो अच्छा है, संत अवश्य कोई विद्या जानते होंगे जिससे मेरे दुख दूर हो जाय।

सेठ सीधा संत समागम में पहूँचा और एकांत में मिलकर अपनी समस्या का निदान जानना चाहा। सेठ नें कहा- “महाराज मेरे दुख का तो पार नहीं है, मेरी आठवी पीढ़ी भूखों मर जाएगी। मेरे पास मात्र अपनी सात पीढ़ी के लिए पर्याप्त हो इतनी ही सम्पत्ति है। कृपया कोई उपाय बताएँ कि मेरे पास और सम्पत्ति आए और अगली पीढ़ियाँ भूखी न मरे। आप जो भी बताएं मैं अनुष्ठान, विधी आदि करने को तैयार हूँ”

संत ने समस्या समझी और बोले- “इसका तो हल बड़ा आसान है। ध्यान से सुनो सेठ, बस्ती के अन्तिम छोर पर एक बुढ़िया रहती है, एक दम कंगाल और विपन्न। उसके न कोई कमानेवाला है और न वह कुछ कमा पाने में समर्थ है। उसे मात्र आधा किलो आटा दान दे दो। अगर वह यह दान स्वीकार कर ले तो इतना पुण्य उपार्जित हो जाएगा कि तुम्हारी समस्त मनोकामना पूर्ण हो जाएगी। तुम्हें अवश्य अपना वांछित प्राप्त होगा।”

सेठ को बड़ा आसान उपाय मिल गया। उसे सब्र कहां था, घर पहुंच कर सेवक के साथ कुन्तल भर आटा लेकर पहुँच गया बुढिया के झोपडे पर। सेठ नें कहा- “माताजी मैं आपके लिए आटा लाया हूँ इसे स्वीकार कीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा आटा तो मेरे पास है, मुझे नहीं चाहिए”

सेठ ने कहा- “फिर भी रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “क्या करूंगी रख के मुझे आवश्यकता नहीं है”

सेठ ने कहा- “अच्छा, कोई बात नहीं, कुन्तल नहीं तो यह आधा किलो तो रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, आज खाने के लिए जरूरी, आधा किलो आटा पहले से ही  मेरे पास है, मुझे अतिरिक्त की जरूरत नहीं है”

सेठ ने कहा- “तो फिर इसे कल के लिए रख लीजिए”

बूढ़ी मां ने कहा- “बेटा, कल की चिंता मैं आज क्यों करूँ, जैसे हमेशा प्रबंध होता है कल के लिए कल प्रबंध हो जाएगा”  बूढ़ी मां ने लेने से साफ इन्कार कर दिया।

सेठ की आँख खुल चुकी थी, एक गरीब बुढ़िया कल के भोजन की चिंता नहीं कर रही और मेरे पास अथाह धन सामग्री होते हुए भी मैं आठवी पीढ़ी की चिन्ता में घुल रहा हूँ। मेरी चिंता का कारण अभाव नहीं तृष्णा है।

वाकई तृष्णा का कोई अन्त नहीं है। संग्रहखोरी तो दूषण ही है। संतोष में ही शान्ति व सुख निहित है।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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