हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 75 – लघुकथा – ऊँचा आसन…. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर सार्थक लघुकथा  “ऊँचा आसन….। प्रत्येक व्यक्ति की सोच भिन्न हो सकती है किन्तु, कई बार कोई बातों बातों में जो कह जाता है वह विचारणीय हो जाता है। एक ऐसी ही विचारणीय रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 75 ☆

? लघुकथा – ऊँचा आसन …. ?

काम वाली बाई उमा का रोज आना होता था, अच्छे संपन्न परिवार में। मेम साहब और साहब भी उसकी बातों से बहुत खुश रहते थे। नाटे कद की सरल स्वभाव की सारे जहां का गम छुपाए वह बहुत मुस्कुरा कर काम करती थी। आते ही ‘किस स्टेशन पर क्या हुआ, कोरोना में कौन मरा, किसके यहां चोरी हुई, किसी की सास ने आज अपनी बहू को खूब खरी-खोटी सुनाई और आज सब्जी का ताजा भाव क्या है’।

इन सब के बीच वह अपनी भी बात कहती जाती:- ” अरे मैम साहब आज मेरा आदमी बिना रोटी खाए चला गया।  घर में आटा जो नहीं था। किसी दिन कहती – आज जी नहीं चला, बच्चों की खूब धुनाई कर कर आई हूं।” और खिलखिला कर हंस पड़ती। पर दिल की बहुत अच्छी थी उमा।

एक दिन घर में मेम साहब अकेली थी। उसको बैठा कर चाय पी रहे थे। अचानक उमा बोल पड़ी :-“मेम साहब मैं तो पढ़ी लिखी नहीं हूं, आप लोग बहुत अच्छे हैं, बहुत पढ़े लिखे लोग हैं, बताइए सभी देवी का मंदिर ऊपर ऊँची पहाड़ी पर या किसी कोने की गुफा पर क्यों बना है? जहां देखो चढ़ैया चढ़कर जाना पड़ता है या गुफा में कठिनाई से छुपकर जाना होता है।”

मेम साहब बोली – “अरे उमा उन्होंने अपना स्थान ऊँचा बनाया है। उनकी अपनी जगह है।”

जोर से उमा हंस पड़ी :-“बस यही तो होता आया है।  स्त्री को पहले भी सताया जाता था। सभी देवी घर छोड़ एकांत में ऊपर चढ़कर बैठ जाती थी और कहती- मना अब मुझे। ऊपर चढ़कर आने में तुझे कितना दर्द और बेचैनी सहनी पड़ती है। मुझ तक पहुंचने में तुझे कितना कष्ट सहना  पड़ता है। देवियों ने ऊंचे पहाड़ पर इसीलिए ऊँचा आसन बनाया अब आओ तुम मेरे पास तब पता चलेगा। नारी को पाना सहज नहीं समझो। “यह कहकर वह चलती बनी।

नारी मन उमा की बात को सोचते-सोचते ‘” क्या आज संसार बदल पाया? तब और अब मैं क्या अंतर है? “‘ इस बात को मेम साहब भी सोचने लगी। देवी और नारी की दशा और दिशा में क्या अंतर आया!!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 57 ☆ लघुकथा – टीचर के नाम एक पत्र ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा ‘टीचर के नाम एक पत्र’।  कुछ शिक्षक कल्पना में ही हैं, इसलिए ऐसा संवाद कल्पना में ही संभव है। और यदि वास्तव में ऐसे शिक्षक अब भी हैं तो वे निश्चित रूप में वंदनीय हैं। मकर संक्रांति पर्व पर एक मीठा एहसास देती लघुकथा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इसअतिसुन्दर लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 57 ☆

☆  लघुकथा – टीचर के नाम एक पत्र

यह पत्र मेरी इंग्लिश टीचर के नाम है। जानती हूँ कि पत्र उन तक नहीं पहुँचेगा पर क्या करूँ इस मन का, मानता ही नहीं, सो लिख रही हूँ।

टीचर! आप जानती हैं कि हम सब आपसे कितना डरते थे? बडा रोबदार चेहरा था आपका। सूती कलफ लगी साडी और आपके बालों में लगा गुलाब का फूल,बहुत अच्छी लगती थीं आप। पर हममें से किसी में साहस कहाँ कि आपके सामने कुछ बोल सकें। आपको देखते ही क्लास में सन्नाटा खिंच जाता था। आप थोडा मुस्कुरातीं तो हम लोगों को हँसने का मौका मिलता। वैसे हँसी तो ईद का चाँद थी आपके चेहरे पर। एक बार आपने मुझसे कहा कि मेरे लिए रोज मेज पर एक गिलास पानी लाकर रखा करो। मैं रोज पानी लाकर रखने लगी, यह देखकर आपने कहा – क्या मुझे रोज पानी पीना पडेगा? मैंने पानी का गिलास रखना बंद कर दिया, तो आपने थोडा डाँटते हुए कहा ‌‌- क्या रोज कहना पडेगा पानी लाने के लिए? मेरी हिम्मत ही कहाँ थी कुछ सफाई देने की? पर आपको अपनी बात याद आ गई थी शायद क्योंकि आप उस समय थोडा मुस्कुराई थीं।

आपके चेहरे की कठोरता तो जानी पहचानी थी लेकिन मन की उदारता का कोना सबसे अछूता था। मैं भी ना जानती अगर आपके घर ट्यूशन पढने ना आती। मेरे पास ट्यूशन फीस देने के पैसे नहीं थे, बडे संकोच से आप से पूछा था कि आप ट्यूशन  पढाएंगी क्या मुझे? आपने कहा – घर आ जाना। मुझे याद है कि आपने कई महीने मुझे ना सिर्फ पढाया बल्कि आने- जाने के रिक्शे के पैसे भी दिए थे। नाश्ता तो बढिया आप कराती ही थीं, आपको याद है ना? ट्यूशन का अंतिम दिन था आपने मुझसे सख्ती से कहा – स्कूल में जाकर गाना गाने की जरूरत नहीं है कि टीचर ने पैसे नहीं लिए, मैं पैसेवालों से फीस जरूर लेती हूँ और जरूरतमंद योग्य बच्चों से कभी पैसे नहीं  लेती। लेकिन इस बात का भी ढिंढोरा नहीं पीटना है। उस समय आपका चेहरा बडा कोमल लग रहा था, आप तब भी मुस्कुराई नहीं थीं पर मैं मुस्कुरा रही थी। टीचर! उस समय आप बिल्कुल मेरी माँ जैसी लग रही थीं।

आपकी एक छात्रा

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 74 – लघुकथा –बेरोजगार …. ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत एकअतिसुन्दर सार्थक लघुकथा  “बेरोजगार….।  समाज में  सस्वचित्र प्रदर्शन या दिखावे की पराकाष्ठा हो गई है जिसे बेहद सुन्दर तरीके से श्रीमती सिद्धेश्वरी जी ने अपनी लघुकथा में वर्णित किया है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लेखनी को सदर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 74 ☆

? लघुकथा – बेरोजगार  …. ?

कड़कड़ाती ठंडक और नर्मदा नदी का किनारा। बड़े ही दान दाता दिखने लगते हैं आजकल।

कुछ थोड़ा बहुत सामान और जरूरत की वस्तु देने से फोटो लेकर और बड़े प्यार से बात कर उसकी गरिमा और बड़ा कर प्रदर्शन का चलन जोरों पर है।

जिससे कोई भी अछूता नहीं है। सदा की भांति एक नर्मदा भक्त जो हमेशा ठंड में कपड़ों का दान किया करता था। ऐसा उनका मानना था। पर दिखावा कभी नहीं किया करता, बस भोले की कृपा और माई नर्मदा की इच्छा कह कर आगे बढ़ता जाता था।

घाट पर ऊपर से नीचे सभी उसको पहचानते थे क्योंकि ठंड बहुत थी और वह उस दिन साड़ी और कुछ गरम स्वेटर लेकर गया हुआ था और कान टोपी मफलर बुजुर्गों के लिए बांट रहा था।

सुबह 7:00 बजे का समय था ठंड से सभी सिकुड़े, जो भी  फटे कपड़े रखे थे। कोई सोया कोई बैठा सभी के हाथ पांव ढके हुए थे।

महानुभाव बांटते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे। सभी हाथ आगे बढ़ा कर ले रहे थे। अचानक दो हाथ आगे फटे कंबल से बाहर आए। महानुभाव ने पूछा… आप महात्मा है या साध्वी? आपको कौन सा कपड़ा दूं, तो अंदर से आवाज आई… मैं एक पढ़ा-लिखा ‘बेरोजगार’ हूँ। क्या? मेरे लिए कुछ कर सकते हैं? बांटने वालों को जोरदार झटका लगा वह बिना कुछ कहे आगे चल पड़े।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ हॉर्न ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “धन बनाम ज्ञान ”)

☆ लघुकथा – हॉर्न ☆

विनोद और राजन दोनों जल्दी में थे। उन्हें अस्पताल पहुंचना था जहाँ उनका एक दोस्त ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रहा था। सड़क दुर्घटना में वह बुरी तरह से घायल हो चुका था और इस समय उसके पास कोई नहीं था, एक अनजान आदमी ने उसे वहां तक पहुँचाया था। अत: उन दोनों की वहां उपस्थिति, रुपए-पैसे से उसकी सहायता और खून देने जैसी कई जरूरतों को पूरा करने के लिए बहुत जरूरी थी। इसलिए भीड़ भरी सड़क पर भी उनकी गाड़ी तेजी से दौड़ रही थी।

अचानक सड़क पर ही अपने आगे उन्हें एक बारात जाती दिखी। बारात में बहुत सारे लोग थे, जिन्होंने पूरी सड़क पर कब्ज़ा कर रखा था। दो-पहिया, ति-पहिया वाहन तो जैसे-तैसे निकल रहे थे, परन्तु कार या अन्य बड़े वाहनों के निकलने की गुंजाइश अत्यंत कम थी।

राजन ने जोर-जोर से कई बार हॉर्न भी दिया, परन्तु कुछ तो बैंड-बाजे की तेज़ आवाज और कुछ शादी में शामिल होने का नशा, बारातियों के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी।

राजन को क्रोध आ गया, “जी तो करता है सालों पर गाड़ी ही चढ़ा दूं। उधर हमारा दोस्त मर रहा है और इन्हें नाच-गाने की पड़ी है। बाप की सड़क समझ रखी है…।” राजन का चढ़ता पारा देख विनोद तुरंत कार से नीचे उतर गया, “हॉर्न मारने से कुछ नहीं होगा, बेमतलब में झगडा जरूर हो जाएगा। तू रुक मैं देख कर आता हूँ…।”

वहां जाते ही वह जोर-शोर से नृत्य करता हुआ उन बारातियों में शामिल हो गया। बाराती एक नए व्यक्ति को नृत्य में शामिल हुआ देख थोड़ा चौंक से गए और सभी कुछ पल में ही अपना नृत्य छोड़ उसे देखने लगे। विनोद ने मौका देख कर कहा, “नाचो यार, आप लोग क्यों रुक गए, नाचो। ऐसे मौके बार-बार थोड़े आते हैं। मुझे देखो, मेरा दोस्त अस्पताल में पड़ा है, जीवन-मृत्यु से जूझ रहा है, पर मैं फिर भी नाच रहा हूँ। भई ख़ुशी के समय ख़ुश और गम के समय दुखी दोनों होने चाहियें।”

भीड़ में सन्नाटा छा गया। विनोद हाथ जोड़ कर आगे बोला, “पर भाइयों और बहनों, एक विनती जरूर है मेरी कि थोड़ा सा रास्ता आने-जाने वालों को जरूर दे दें, कहीं आपकी वजह से वहां कोई दूसरा दम न तोड़ दे, धन्यवाद।” कह कर वह कार की तरफ चल पड़ा।

…अब उनकी गाड़ी फिर सरपट अस्पताल की तरफ दौड़ रही थी।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 56 ☆ लघुकथा – ऐसे थे दादू ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा ‘ऐसे थे दादू’।  एक अतिसुन्दर शब्दचित्र। लघुकथा पढ़ने मात्र से पात्र ‘दादू ‘ की आकृति साकार हो जाती है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इसअतिसुन्दर लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 56 ☆

☆  लघुकथा – ऐसे थे दादू

दादू की फोटो और शोक सम्वेदना के संदेश कॉलेज के व्हाटसएप समूह पर दिख रहे थे, उन्हें पढते- पढते  मेरे कानों में आवाज गूंज रही थी –  नमस्कार बाई साहेब और इसी के साथ दादू का चेहरा मेरी आँखों के सामने आ गया- बडी – बडी आँखें, सिर पर अस्त–व्यस्त दिखते घुंघराले बाल। मुँह में तंबाखू भरा रहता और चेहरे की झुर्रियां उसकी उम्र गिना सकती थीं। दादू हमारे कॉलेज का एक बुजुर्ग सफाई कर्मचारी जो हमेशा सफाई करता ही दिखाई देता था। आप कहेंगे कि सफाई कर्मचारी  है तो साफ- सफाई ही करेगा ना ? इसमें बडी बात क्या है ? बडी बात है दादू का मेहनती स्वभाव। जो उम्र आराम से घर में बैठने की थी उसमें वह निरंतर काम कर रहा था। दादू के रहते कॉलेज के रास्ते हमेशा साफ – सुथरे ही दिखाई देते। कभी – कभी जो सामने दिख जाता उससे वह पूछता – कोई कमी तो नहीं है साहब ? सारे पत्ते साफ कर दिए हैं। पगार लेता हूँ तो काम में कमी क्यों करना ? आजकल के छोकरे काम नहीं करना चाहते बस पगार चाहिए भरपूर। काम पूरा होने के बाद ही वह कॉलेज परिसर में कहीं बैठा हुआ दिखता या डंडेवाली लंबी झाडू कंधे पर रखकर चाय पीने कैंटीन की ओर जाता  हुआ। दादू  के कंधे अब झुकने लगे थे, झाडू कंधे पर रखकर जब वह चलता तो लगता झाडू के बोझ से गर्दन  झुकी जा रही है। रास्ते में चलते समय बीच –बीच में चेहरा उठाकर ऊपर देखता, सामने किसी टीचर के दिखने पर बडे अदब से हाथ उठाकर नमस्कार करता। उसकी मेहनत के कायल हम उसे अक्सर चाय पिलाया करते थे। कभी- कभी वह खुद ही कह देता – बाई साहेब बहुत दिन से चाय नहीं पिलाई आपने। मैं संकेत समझ जाती और उसे चाय – नाश्ता करवा देती।

दादू  के बारे में एक विद्यार्थी ने बडी रोचक घटना बताई – कॉलेज के एक कार्यक्रम के लिए दादू  ने काफी देर काम किया था। मैंने उस विद्यार्थी के साथ दादू को  नाश्ता करने के लिए कैंटीन भेजा।  कैंटीन में जाने के बाद दादू खाने की चीजें मंगाता ही जा रहा था समोसा, ब्रेड वडा और भी ना जाने क्या – क्या। विद्यार्थी परेशान  कि पता नहीं कितने पैसे देने होंगे, मैडम को क्या जबाब दूंगा। भरपेट नाश्ता करने के बाद  दादू ने पूरा बिल अदा कर दिया और साथ आए विद्यार्थी से बोला – बेटा ! बस पचास रुपए दे दो, नाश्ता उससे ज्यादा का थोडे ही ना होता है, पर क्या करें आज सुबह से कुछ खाया नहीं था तो भूख लगी थी। ऐसे थे दादू।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 73 – हस्ताक्षर सेतु ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “ हाइबन – हस्ताक्षर सेतु। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 73☆

5 Interesting Facts To Know About Delhi's Iconic Signature Bridge

☆  हाइबन- हस्ताक्षर सेतु ☆

मनुष्य को अद्वितीय चीजों से प्यार होता है। यही कारण है कि वह एफिल टावर पर खड़े होकर शहर की खूबसूरती का नजारा देखने में आनंद का अनुभव करता है। अब यही सुखद अनुभव आप हस्ताक्षर सेतु के सबसे ऊंचे हिस्से में जाकर आप भी उठा सकते हैं। इसके लिए आप को भारत से बाहर जाने की जरूरत नहीं है।

11 साल के लंबे इंतजार के बाद उत्तरी दिल्ली को उत्तर-पूर्वी दिल्ली से जोड़ने वाला दिल्ली का सबसे ऊंची इमारतों से भी ऊंचा सेतु बनकर तैयार हो गया है । इस सेतु की 154 मीटर ऊंचाई पर स्थित दर्शक दीर्घा से आप दिल्ली के लौकिक और अलौकिक नजारे को देख सकते हैं। 15 तारों पर झूलते हुए इस सेतु में ऊंचाई पर जाने के लिए 4 लिफ्ट लगाई गई है।

350 मीटर लंबे इस सेतु की दर्शक दीर्धा से पर झूलते हुए सेतु को एक साथ 50 दर्शक यहां का खुबसूरत नजारा देख सकते हैं। इस सेतु की ऊंचाई दिल्ली के कुतुब मीनार से भी ऊंची है । इस सेतु के निर्माण ने दिल्ली के हजारों व्यक्तियों के रोजमर्रा के जीवन के 30 मिनट बचा दिए हैं। यमुना नदी पर बना अनोखा हस्ताक्षर सेतु है । इसे सिग्नेचर ब्रिज भी कहते हैं।

चांदनी रात~

सिग्नेचर की लिफ्ट

में फंसे वृद्ध।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

23-12-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बोध कथा – स्वामीनिष्ठा ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी

☆ जीवनरंग ☆ बोध कथा – स्वामीनिष्ठा ☆ अनुवाद – अरुंधती अजित कुळकर्णी ☆ 

||कथासरिता||

(मूळ –‘कथाशतकम्’  संस्कृत कथासंग्रह)

? लघु बोध कथा?

कथा १४ . स्वामीनिष्ठा

विशालपूर नगरात एक राजा होता. तो शूर  राज्यकर्ता होता. धर्माचे पालन करीत  न्यायानुसार प्रजेचे व राज्याचे संरक्षण करीत होता.एकदा त्याला जिंकण्याची इच्छा करणाऱ्या  शत्रूने त्याच्या नगरावर आक्रमण केले.  युद्धात राजाला पराजित व्हावे लागले. या पराजयाचे त्याला अतोनात दुःख झाले. तो  नगराचा त्याग केलेला  व केवळ एकाच मंत्र्याची साथ लाभलेला राजा अरण्यात  आला.   तिथेसुद्धा तो शत्रूच्या भयाने कुठेही अधिक काळ थांबू शकत नव्हता.  काट्याकुट्यातून, तीक्ष्ण दगडांवरून पादत्राणे-विरहित, चालण्यास असमर्थ असलेला, तहान-भुकेने व्याकूळ झालेला, ‘पुढे काय करावे?’ या विचाराने चिंताग्रस्त झालेला तो राजा एका तलावाकाठी विश्रांतीसाठी थांबला. आपल्यावर ओढवलेल्या या घोर संकटातही आपली साथ न सोडता आपल्याबरोबर येणाऱ्या त्या मंत्र्याला पाहून राजाच्या डोळ्यांतून अश्रूधारा वाहू लागल्या व त्याला खूप वाईटही वाटले.

“हे  मंत्रिवर, माझे संपूर्ण राज्य नष्ट झाले. माझे हत्ती, घोडे, रथ, सैन्यही राहिले नाही. माझ्यावर फार मोठे संकट ओढवले आहे. आता मला जगण्याची इच्छाच राहिली नाही. पराजित होऊन अशा मरणयातना भोगण्यापेक्षा जलसमाधी घ्यावी किंवा कड्यावरून दरीत उडी घ्यावी किंवा अग्निप्रवेश करावा असे मला वाटत आहे” अशा प्रकारे विलाप करणाऱ्या राजाचे ते बोलणे ऐकून मंत्र्याचे हृदय विदीर्ण झाले.

राजाला दुःखातून बाहेर काढण्याच्या उद्देशाने मंत्री म्हणाला, “महाराज, कालवशात आपले राज्य नष्ट झाले तरी मरण पत्करणे हा त्यावर उपाय नाही. तेव्हा मरणाचे विचार मनात येऊ देऊ नका. जे आपले शत्रू आहेत तसेच ह्या शत्रूराजाचे देखील शत्रू असणारच. त्यांच्याशी मैत्री करून, युद्धाची सज्जता करून, शत्रूचा पाडाव करून पुन्हा नवे राज्य स्थापित करा. नष्ट झालेले राज्य पुनश्च प्राप्त होत नाही असे मुळीच नाही. अमावास्येच्या दिवशी चंद्राच्या सर्व कला क्षीण होतात. तोच चंद्र पुन्हा शुक्लपक्षात वृद्धिंगत होतोच ना? अशाच प्रकारे आपलाही उज्ज्वल काळ येणार व परमेश्वराच्या कृपेने आपलेही मनोरथ पूर्ण होणारच!”

मंत्र्याच्या ह्या प्रेरणादायी वचनांनी राजाचे नैराश्य एकदम दूर झाले. तो प्रफुल्लित झाला. योग्य प्रयास करून, सर्व सैन्य एकत्रित करून राजा युद्धासाठी सज्ज झाला. युद्धात शत्रूला नमवून पुन्हा राजपदी आरूढ झाला. त्या मंत्र्यासह त्याने चिरकाळ राजेपद उपभोगले.

तात्पर्य –  राजाच्या पदरी बुद्धिमान व निष्ठावान मंत्री असले तर ते ओढवलेल्या संकटांवर योग्य उपायांद्वारे मात करू शकतात.

अनुवाद – © अरुंधती अजित कुळकर्णी

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लघुकथा – तिलिस्म ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆  लघुकथा – तिलिस्म ☆

….तुम्हारे शब्द एक अलग दुनिया में ले जाते हैं। ये दुनिया खींचती है, आकर्षित करती है, मोहित करती है। लगता है जैसे तुम्हारे शब्दों में ही उतर जाऊँ। तुम्हारे शब्दों से मेरे इर्द-गिर्द सितारे रोशन हो उठते हैं। बरसों से जिन सवालों में जीवन उलझा था, वे सुलझने लगे हैं। जीने का मज़ा आ रहा है। मन का मोर नाचने लगा है। महसूस होता है जैसे आसमान मुट्ठी में आ गया है। आनंद से सराबोर हो गया है जीवन।

…सुनो, तुम आओ न एक बार। जिसके शब्दों में तिलिस्म है, उससे जी भरके बतियाना है। जिसके पास हमारी दुनिया के सवालों के जवाब हैं, उसके साथ उसकी दुनिया की सैर करनी है।

…..कितनी बार बुलाया है, बताओ न कब आओगे?

लेखक जानता था पाठक की पुतलियाँ बुन लेती हैं तिलिस्म और दृष्टिपटल उसे निरंतर निहारता है। तिलिस्म का अपना अबूझ आकर्षण है लेकिन तब तक ही जब तक वह तिलिस्म है। तिलिस्म में प्रवेश करते ही मायावी दुनिया चटकने लगती है।

लेखक जानता था कि पाठक की आँख में घर कर चुके तिलिस्म की राह उसके शब्दों से होकर गई है। उसे पता था अर्थ ‘डूबते को तिनके का सहारा’ का। उसे भान था सूखे कंठ में पड़ी एक बूँद की अमृतधारा से उपजी तृप्ति का। लेखक परिचित था अनुभूति के गहन आनंद से। वह समझता था महत्व उन सबके जीवन में आनंदानुभूति का। लेखक जानता था तिलिस्म, तिलिस्म के होने का। लेखक जानता था तिलिस्म, तिलिस्म के बने रहने का।

लेखक ने तिलिस्म को तिलिस्म रहने दिया और वह कभी नहीं गया, उन सबके पास।

# हमारे शब्द आनंद का अविरल स्रोत बनें।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पुढचं पाऊल (अनुवादीत कथा) ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ जीवनरंग ☆ पुढचं पाऊल (अनुवादीत कथा) ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

`दोन वर्ष किंवा त्यापेक्षा जास्त ज्या आमदार-खासदारांना शिक्षा झाली असेल,  त्यांचं विधानसभा वा संसदेतील सदस्यत्व आपोआप रद्द होईल. ‘ सुप्रीम कोर्टाने जाहीर केले

`राजकारणातील अपराध्यांचं वर्चस्व कमी करण्यासाठी सुप्रीम कोर्टाने हे चांगले पाऊल आहे.’ एक कार्यकर्ता दुसर्‍यायाला म्हणाला.

`हा निर्णय राजकीय पक्षांनी मानला तर ना! उमेदवारांना तिकीट देण्याची वेळ आली की ते म्हणणार, जिंकणार्‍या उमेदवारालाच तिकीट देण्याचा विचार केला जाईल. ‘

`हां! हेही खरं आहे.’

`असं कळतं, कोणत्याच गोष्टीबाबत एकमत न होणारे सर्व राजकीय एकत्र येऊन त्यांनी  बैठक घेऊन निर्णय घेतलाय की याच सत्रात सरकार सुप्रीम कोर्टाचा आदेश निष्प्रभ बनवण्यासाठी संशोधन विधेयक मांडणार आहे. त्या विधेयकाचं सर्वच राजकीय पक्षांनी समर्थन करावं. राजकीय पक्ष गुन्हेगारांच्या पकडीत आहे आणि संसद राजकीय पक्षांच्या. त्यामुळे संशोधन विधेयक पारीत होणारच!’

`तर मग संसदेच्या पुढल्या सत्रात संसद आणि विधानसभेत अपराध्यांसठी काही सीटचं आरक्षण असावं, असंही विधेयक मांडलं जाईल.’ दोघांचं बोलणं ऐकणारा सामान्य माणूस म्हणाला.

 

मूळ कथा – ‘अगला कदम’ –  मूळ लेखिका – श्री अतुल मोहन प्रसाद

अनुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 55 ☆ लघुकथा – दमडी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर एक लघुकथा ‘दमडी’। आज की लघुकथा हमें मानवीय संवेदनाओं, मनोविज्ञान एवं  विश्वास -अविश्वास  के विभिन्न परिदृश्यों से अवगत कराती है।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  इस  संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 55 ☆

☆  लघुकथा – दमडी

माँ! देखो वह दमडी बैठा है, कहाँ ? सहज उत्सुकता से उसने पूछा।  बेटे ने संगम तट की ढलान पर पंक्तिबद्ध बैठे हुए भिखारियों की ओर इशारा किया। गौर से देखने पर वह पहचान में आया – हाँ लग तो दमडी ही रहा है पर कुछ ही सालों में कैसा दिखने लगा ? हड्डियों का ढांचा रह गया है। दमडी नाम सुनते ही  मानों किसी ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। दमडी की दयनीय अवस्था देखकर दया और क्रोध का भाव एक साथ माँ के मन में उमडा। दमडी ने किया ही कुछ ऐसा था। बीती बातें बरबस याद आने लगीं – दमडी मौहल्ले में ही रहता था, सुना था कि वह दक्षिण के किसी गांव का है। कद काठी में लंबा पर इकहरे शरीर का। बंडी और धोती उसका पहनावा था। हररोज गंगा नहाने जाता था। एक दिन घर के सामने आकर खडा हो गया, बोला –बाई साहेब रहने को जगह मिलेगी क्या ? आपके घर का सारा काम कर दिया करूँगा। माँ ने उसे रहने के लिए नीचे की एक कोठरी दे दी। दमडी  के साथ उसका एक तोता भी आया, सुबह चार बजे से दमडी  उससे बोलना शुरू करता – मिठ्ठू बोलो राम-राम। इसी के साथ उसका पूजा पाठ भी चलता रहता। सुबह हो जाती और दमडी  गंगा नहाने निकल जाता।  सुबह शाम उसके मुँह पर राम-राम ही रहता। माँ खुश थी कि घर में पूजा पाठी आदमी आ गया है। वह घर के काम तो करता ही बच्चों की देखभाल भी बडे प्यार से करता। दमडी  की दिनचर्या और उसके व्यवहार से हम सब उससे हिलमिल गए थे। दमडी  अब हमारे घर का हिस्सा हो गया। यही कारण था कि उसके भरोसे पूरा घर छोडकर हमारा पूरा परिवार देहरादून शादी में चला गया। माँ पिताजी के मन में यही भाव रहा होगा कि दमडी  तो है ही फिर घर की क्या चिंता।

उस समय  मोबाईल फोन था नहीं और घर के हालचाल जानने की जरूरत भी नहीं समझी किसी ने। शादी निपटाकर हम खुशी खुशी घर आ गए। कुछ दिन लगे सफर की थकान उतारने में फिर घर की चीजों पर ध्यान गया। कुछ चीजें जगह से नदारद थी, माँ बोली अरे रखकर भूल गए होगे तुम लोग। एक दिन सिलने के लिए सिलाई मशीन निकाली गई, देखा उसका लकडी का कवर और नीचे का हिस्सा तो था पर सिलाई मशीन गायब। अब स्थिति की गंभीरता समझ में आई और चीजें देखनी शुरु की गई तो लिस्ट बढने लगी। अब पता चला कि सिलाई मशीन, ट्रांजिस्टर, टाईपराईटर, बहुत से नए कपडे और भी बहुत सा सामान  गायब था। दमडी  तो घर में ही था उसका  मिठ्ठू बोलो राम-राम भी हम रोज सुन रहे थे। सब कमरों में ताले वैसे ही लगे थे, जैसे हम लगा गए थे, फिर सामान गया कहाँ ? दमडी को  बुलाया गया वह एक ही बात दोहरा रहा था—बाईसाहेब  मुझे कुछ नहीं पता। कोई आया था घर में, नहीं बाई, तो घर का सामान गया कहाँ ? हारकर पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई। पुलिस मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी पूरी कर रही थी, रोज शाम को पुलिसवाले आ जाते, चाय – नाश्ता करते और दमडी की पिटाई होती। पुलिस की मार से दमडी चिल्लाता और हम बच्चे पर्दे के पीछे खडे होकर रोते। रोज के इस दर्दनाक ड्रामे से घबराकर पुलिस के सामने पिताजी ने हाथ जोड लिए। इस पूरी घटना का एक भावुक पहलू यह था कि चोरी गया ट्रांजिस्टर मेरे मामा का दिया हुआ था जिनका बाद में अचानक देहांत हो गया था। माँ दमडी के सामने रो रोकर कह रही थी हमारे भाई की आखिरी निशानी थी बस वह दे दो, किसी को बेचा हो तो हमसे पैसे ले लो, खरीदकर ला दो। माँ के आँसुओं से भी दमडी टस से मस ना हुआ। उसने अंत तक कुछ ना कबूला और माँ ने उसे यह कहकर घर से निकाल दिया कि तुम्हें देखकर हमें फिर से सारी बातें याद आयेंगी।

इसके बाद कई साल दमडी का कुछ पता ना चला। कोई कहता कि मोहल्ले के लडकों ने उससे चोरी करवाई थी, कोई कुछ और कहता। हम भी धीरे धीरे सब भूलने लगे। आज अचानक उसे इतनी दयनीय स्थिति में देखकर माँ से रहा ना गया पास जाकर बोली – कैसे हो दमडी ? बडी क्षीण सी आवाज में हाथ जोडकर वह बोला – माफ करना बाईसाहेब। माँ वहाँ रुक ना सकी, सोच रही थी पता नहीं इसकी क्या मजबूरी रही होगी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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