हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 71 – लघुकथा – परिचय ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  लघुकथा  “परिचय।  हम जानते हैं कि शक का कोई इलाज़ नहीं फिर भी उसके शिकार होकर अक्सर हम अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। जब ऑंखें खुलती हैं तब बहुत देर हो जाती है और पश्चाताप होता है। किन्तु, दुर्लभ मानव जीवन और समय लौट कर नहीं आता। सकारात्मक सन्देश देती स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 71 ☆

☆ लघुकथा – परिचय ☆

माया ने आज फिर तकिए से वही पुराना कागज निकाला। जिसमें सुबोध ने लिखा था…. निकल जाओ मेरी जिंदगी से फिर लौट कर कभी नहीं आना.. तंग आ गया हूँ मैं तुम्हारी वजह से। दोनों आँखों से अश्रुओं की धार बह चली। उस का क्या कसूर था, बस इसी सवाल को लेकर फिर वह रोते रोते तकिए पर सर रखकर लेट गई।

जाने कब तरुण ने आकर लाइट जलाया और बाल सँवार कर प्यार से पूछने लगा…. फिर पुरानी बातों में खो गई। बेटा आता होगा, तैयार हो जाओ अच्छा नहीं लगेगा।

माया झटपट मुँह धोकर चेहरे को साफ कर अपने आप को संभालती हुई बाहर आई।

दरवाजे पर बेटे की गाड़ी आकर रुक गई। तरुण और माया बेटे के साथ आज एक अजनबी को  देख रहे थे। जिस की बढ़ी हुई दाढी और फटेहाल दशा बता रही थी कि वह बहुत ही तंग हालत पर है।

पास आने पर माया ने ठिठक कर कुर्सी पकड़ ली। तरुण समझ गया यह वही सुबोध है।

उसी समय बेटे ने कहा मम्मी यह व्यक्ति आप के बारे में पूछ रहा था ऑफिस में। आपसे मिलना है कह रहा था। पुरानी पहचान बता रहा था।

मैं इन्हें घर ले लाया। माया ने तुरंत अपने बेटे को कहा बेटे इन्हें हमारे बैठक में बिठा  दो। यह हमारे दूर के परिचय वाले है। मैं चाय नाश्ता का इंतजाम करती हूं।

सुबोध को इसकी उम्मीद नहीं थी वह देखता रहा अपने को दूर का परिचय वाला।

अंदर तक हिल गया वह। बेटा अपने कमरे में चला गया। माया के अंदर जाने के बाद तरुण ने हाथ जोड सुबोध से बाहर जाने को कहा।

सुबोध समझ चुका उसे उसकी कर्मों की सजा मिली चुकी है। सुबोध और माया पति-पत्नी दोनों ही ऑफिस में काम करते थे। परन्तु, माया को बस से आने में थोड़ी देरी हो जाती थी। बस इसी बात से हमेशा दोनों में लड़ाई हो जाती थी और बसी बसाई गृहस्थी को आग लगाकर अलग हो गया था।

यह भी नहीं देखा कि माया माँ बनने वाली है। बेटे ने बाहर आकर देखा।

मम्मी पापा दोनों एक दूसरे से लिपटे थे और मम्मी की आँसू की धार रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।  बेटे ने सोचा यह कैसा परिचित है, इसका क्या परिचय है। मम्मी-पापा क्यों परेशान होकर रो रहे हैं?

 

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लघुकथा – डर के आगे जीत है ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

पुनर्पाठ-

☆ संजय दृष्टि  ☆ लघुकथा – डर के आगे जीत है ☆

गिरकर निडरता से उठ खड़े होने के मेरे अखंड व्रत से बहुरूपिया संकट हताश हो चला था। क्रोध से आग-बबूला होकर उसने मेरे लिए मृत्यु का आह्वान किया। विकराल रूप लिए साक्षात मृत्यु सामने खड़ी थी।

संकट ने चिल्लाकर कहा, ‘ अरेे मूर्ख! ले मृत्यु आ गई। कुछ क्षण में तेरा किस्सा खत्म! अब तो डर।’ इस बार मैं हँसते-हँसते लोट गया। उठकर कहा,‘ अरे वज्रमूर्ख! मृत्यु क्या कर लेगी? बस देह ले जायेगी न..! दूसरी देह धारण कर मैं फिर लौटूँगा।’

साहस और मृत्यु से न डरने का अदम्य मंत्र काम कर गया। मृत्यु को अपनी सीमाओं का भान हुआ। आहूत थी, सो भक्ष्य के बिना लौट नहीं सकती थी। अजेय से लड़ने के बजाय वह संकट की ओर मुड़ी। थर-थर काँपता संकट भय से पीला पड़ चुका था।

भयभीत विलुप्त हुआ। उसकी राख से मैंने धरती की देह पर लिखा,‘ डर के आगे जीत है।’

©  संजय भारद्वाज 

प्रातः 4.11 बजे, 7.7.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ तीन लघुकथाएं – लड़कियाँ -☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी “तीन लघुकथाएं  – लड़कियाँ –।)

☆ लघुकथा – तीन लघुकथाएं – लड़कियाँ ☆

[1] खब्ती

तुम्हारी पड़ोसन खब्ती है क्या?

क्यों क्या हुआ है?

सुना है उसके यहाँ लड़की हुई है और वह पूरे मुहल्ले में मिठाई बाँट रही है.

 

[2] खूसट

क्यों, तुम अपनी लड़की को कोचिंग कहाँ से दिला रही हो?

अजीब खूसट हो जी तुम, लड़का नहीं है मेरे पास जो लड़की को कोचिंग दिलाकर फिजूलखर्ची करती रहूंगी.

 

[3] करमखोटिटयां

पाँच लड़कियों की मां से किसी महिला ने पूछा-बडी जिगर वाली हो बिना, पांच लड़कियां पैदा करने के बाद भी खुश-खुश नजर आ रही हो.

उत्तर में महिला बोली-न न न यह खुशी तो पाँच लड़कियों के बाद पैदा हुए लड़के की है, वरना इन करम खोटिटयों ने तो मुझे जी्ते जी मार डाला था.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लेखन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लेखन ☆

न दिन का भान, न रात का ठिकाना। न खाने की सुध न पहनने का शऊर।…किस चीज़ में डूबे हो ? ऐसा क्या कर रहे हो कि खुद को खुद का भी पता नहीं।

…कुछ नहीं कर रहा इन दिनों, लिखने के सिवा।

©  संजय भारद्वाज 

प्रातः 4.11 बजे, 7.7.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 54 ☆ लघुकथा – कम्फर्ट जोन ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर एक लघुकथा  ‘कम्फर्ट जोन’। लघुकथा पढ़ते पढ़ते अनायास ही लगा कि कभी माँ के स्थान पर संवेदनशील पिता को रख कर भी देखना चाहिए, पत्नी को घर लाने से बेटी को विदा करते और गृहस्थी बसाते देखते हुए।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  इस  संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 54 ☆

☆  लघुकथा – कम्फर्ट जोन 

कितना अच्छा शब्द है ना कम्फर्ट जोन? सुनते ही आराम का एहसास, वह मुस्कुराई। हर लडकी के लिए  मायका ऐसा ही होता है। कितने साल बीत गए शादी को? उंगलियों पर गिनने लगी – बाईस साल? समय मानों पँख लगाकर उड गया? बेटी की शादी भी हो गई। कैसा होता है ना, बेटी को जान लगाकर प्यार- दुलार से पालो और विदा कर दो किन्हीं अनजान लोगों के साथ। हाँ जानती हूँ आजकल लव मैरिज हो रही है, लडका- लडकी पहले से ही एक – दूसरे को जानते हैं, प्री वेडिंग शूट भी होता है। सब पता है लेकिन यह सब काफी होता है क्या एक – दूसरे को जानने के लिए? असली जीवन तो तब शुरु होता है जब चौबीस घंटे साथ रहना पडता है, तब पता चलता है आटे-दाल का भाव। और शुरु हो जाता है यह कहना- शादी के पहले तो ऐसे नहीं थे तुम, बहुत बदल गए हो। मन ही मन वह मुस्कुराई, ऐसे ही आरोप – प्रत्यारोप लगाते धीरे- धीरे जीवन कट जाता है। समय तो पता नहीं कहाँ फुर्र हो जाता है। फ्लैशबैक की तरह जीवन का एक – एक पल उसकी खुली आँखों के सामने आ रहा था –

नई नवेली दुल्हन अपने घर से एक ऐसे परिवार में आ जाती है, जहाँ हर कोई अनजान है, सब कुछ नया। नई – नई बातें, परंपराओं का बदला रूप, नए- नए व्यंजन, तौर-तरीके और ना जाने क्या क्या सीखती है वह। वह सम्भालती है अपने आपको, अपनी आदतों को और अपनी यादों को भी, कभी आँसू भरी आँखों को ठंडे पानी के छींटे मारकर तो कभी बाथरूम में बिना मतलब पानी चलाकर। हर लडकी से यही उम्मीद की जाती है कि जितनी जल्दी हो सके सब कुछ अपना ले। अनकहा सा स्वर गूँजता है उस नए माहौल में – बदलो अपने आप को, खाना – पीना बदलो, बोलो भी उनकी तरह उनके तौर – तरीकों से, यहाँ तक कि सोचो भी वैसे ही। हर घर में यह अलग ढंग से होता है, कहीं उसे परंपराओं की फेहरिस्त पकडा दी जाती  है तो कहीं आदेश – यहाँ जैसे कहा जाए वैसे ही रहना है।

उसका मन कब अपने जीवन की यादों से हटकर बेटी से जुड गया उसे खुद पता ही ना चला। उसका अंश उससे अलग है ही कहाँ, वह बेटी को नए माहौल में, नए रूप में ढलते देख रही थी। सब के बीच घुल – मिलकर भी उसे सुरक्षित रखना है अपना अस्तित्व, अपनी पहचान।

कितना कठिन है ना? पर औरतों को अब सीखना ही होगा यह सब।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ बहू हो तो ऐसी ☆ श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ ‘अशोक’

श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’

(श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’जी साहित्य की सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। प्रकाशन – 4 पुस्तकें प्रकाशित 2 पुस्तकें प्रकाशनाधीन 3 सांझा प्रकाशन। विभिन्न मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं में लघु कथाएं, कविता, कहानी, व्यंग्य, यात्रा वृतांत आदि प्रकाशित होते रहते हैं । कवि सम्मेलनों, चैनलों, नियमित गोष्ठियों में कविता आदि  का पाठन तथा काव्य  कृतियों पर समीक्षा लेखन। कई सामाजिक कार्यक्रमों में सहभागिता। भोपाल की प्राचीनतम साहित्यिक संस्था ‘कला मंदिर’ के उपाध्यक्ष। प्रादेशिक / राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों / अलंकरणों  से  पुरस्कृत /अलंकृत। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर  एवं विचारणीय लघुकथा ‘बहू हो तो ऐसी‘। )

☆ लघुकथा  – बहू हो तो ऐसी ☆

रामसेवक ने सुबह-सुबह नहाया – धोया और प्रतिदिन की भांति पूजा करने मंदिर चले गए। रास्ते में सोचते जा रहे थे :-

“कल रात की सब्जी अच्छी ना होने के कारण भोजन से पेट नहीं भरा । खाने में दाल अथवा रसीली सब्जी होने पर सुविधा हो जाती है । दांत कमजोर हो गए हैं । सूखी सब्जी में अब  दाँत साथ नहीं देते । बहू से कहना उचित नहीं है।”

मंदिर से लौटकर घर आने पर रामसेवक सीधे भोजन पर बैठते थे । घर आने पर उन्हें थाली लगी मिली ।

थाली देखते ही सोचा – अरे, थाली में तो दाल,  सब्जी वगैरह सब कुछ है। सब्जी भी करेले की, जो मुझे बहुत पसंद है। राम सेवक ने कहा :-

“अरे बहू, घर में करेले तो थे ही नहीं । तुमने करेले की सब्जी कैसे बना डाली ? ”

“पापा! आपको करेले पसंद है ना । मुझे मालूम है रात में आपने भरपेट खाना नहीं खाया । आप जब मंदिर गए थे तो मैंने बाहर जाकर ठेले से करेले खरीदे ताकि आपको सब्जी पसंद आए और आप भरपेट भोजन कर सकें । शाम को आप क्या खाएंगे , यह भी बता दीजिए ताकि आपको खाने में असुविधा ना हो । ”

रामसेवक भावुक हो गए । उनकी आँखें नम हो गईं। उन्हें उनकी फिक्र करने वाली बहू जो मिली थी।

© अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’

भोपाल म प्र

मो0-9893494226

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ किराये का घर ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी लघुकथा  “लघुकथा – किराये का घर ।)

☆ लघुकथा – किराये का घर ☆

घर इज्जत है. परिवार के सिर पर एक घर का साया जरूर होना चाहिए. जिनके पास घर नहीं है, व्यथा- कथा जरा उनसे पूछें.

फुटपाथों पर सोते सोते असमय ही काल कवलित हो गये.

लड़की ब्याहने वाला आजकल लड़के से पहले घर देखता है. घर रहने से बेरोजगार को भी लड़की ब्याह देता है.

लड़के वाले भी कम नहीं होते. किराये के घर को अपना बताकर लड़की ब्याह लेते हैं

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ माँ की सीख ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा माँ की सीख।  

☆ लघुकथा – माँ की सीख ☆

दुल्हन बनी कविता को दूसरे शहर विदा करते माँ ने कहा था…” बेटा अब ससुराल ही तुम्हारा परिवार है।”

लेकिन कविता ने आते ही अलग घर बसा लिया।

पति के टूर पर जाते ही वो पास पड़ोस की सहेलियों के साथ पार्टियों में मस्त हो जाती क्योंकि उसे सहेलियां बनाने का बड़ा क्रेज था ।

लॉक डाऊन की एक शाम सीढ़ियों से पैर फिसला होश अगले दिन हॉस्पिटल में आया ।

नर्स बोली..” बहुत खून निकला सिर से, कई टांके आए हैं तुम्हारे सास ससुर ननद देवर कल से यही है तुम्हारे पास है।”

सास बोली…”यह तो अच्छा हुआ बेटा तुम्हारी बाजू वाली सहेली ने अपने छत से तुम्हे गिरते देख लिया था तो हम लोगों को फोन कर दिया।

कविता ने आंखें बंद कर ली और सोचा माँ की जिस सीख पर मैंने ध्यान नहीं दिया था।

कोरॉना ने एहसास दिला दिया कि अपना परिवार हर हाल में अपना होता है।

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ वास्तु दोष ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी लघुकथा  “लघुकथा – वास्तु दोष ।)

☆ लघुकथा – वास्तु दोष ☆

अच्छा भला घर था. अच्छे भले लोग थे. अपना सुंदर सा घर पाकर घर वाले खूब खुश थे. उनकी खुशी पड़ोसी से नहीं देखी गई. वास्तु दोष निकालते हुए उसने घर के मुखिया से कहा- बहुत बड़ा वास्तु दोष है. उसमें परिवर्तन की जरूरत है, वरना घर के किसी सदस्य के मरने का अंदेशा है.

घर का बदलाव करते करते घरवाला सड़क पर आ गया. आधा घर टूटा पड़ा है. आधा टूटने वाला है. मकान मालिक का दिल कितनी जगह से टूटा है. यह कोई नहीं जानता है.

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 53 ☆ लघुकथा – वह झांसी की झलकारी थी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी ऐतिहासिक लघुकथा ‘वह झांसी की झलकारी थी’। ऐसे कई ऐतिहासिक चरित्र हैं जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं किन्तु, उन्हें हमारी आने वाली पीढ़ियां नहीं जानती। ऐसे ऐतिहासिक चरित्र की चर्चा वंदनीय है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 53 ☆

☆  लघुकथा – वह झांसी की झलकारी थी

उसकी उम्र कुछ ग्यारह वर्ष के आसपास रही होगी, घर में खाना बनाने के लिए वह रोज जंगल जाती और लकडियां बीनकर लाती थी। बचपन में ही माँ का देहांत हो गया था। घर की जिम्मेदारी उस पर आ गई थी। एक दिन ऐसे ही वह लकडियां लाने जंगल जा रही थी कि सामने से बाघ आ गया, वहीं थोडी दूर पर ही एक छोटा बच्चा खेल रहा था। वह जरा भी ना घबराई, उसने अपने तीर कमान निकाले और बाघ को मार डाला। बच्चे को सुरक्षित देख गाँववालों की जान में जान आई, वे सब इसकी जय-जयकार करने लगे। डरना तो उसने सीखा ही नहीं था, साहस उसकी पूंजी थी। भले ही वह शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाई थी लेकिन उसके पिता ने उसे तलवार चलाना, घुडसवारी करना सिखा दिया था। पिता जितनी रुचि से सिखाते बेटी उससे ज्यादा उत्साह से सीखती। बुंदेलखंड की इस बेटी ने देश के लिए  अपना जीवन न्यौछावर कर दिया, ऐसी थी वीरागंना झलकारीबाई।

पहली बार जब रानी लक्ष्मीबाई ने झलकारी को देखा तो आश्चर्यचकित रह गईं क्योंकि वह साहसी तो थी ही, दिखती भी रानी लक्ष्मीबाई जैसी ही थी। उसका साहस और लगन देखकर रानी ने उसे अपनी दुर्गा सेना का सेनापति बना दिया। अपने अनेक गुणों के कारण झलकारी बहुत जल्दी रानी लक्ष्मीबाई की विश्वासपात्र ही नहीं बल्कि उनकी अच्छी सहेली बन गई। शत्रु को चकमा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध किया करती थीं।

अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा करने के लिए चाल चली कि निसंतान रानी लक्ष्मीबाई अपना उत्तराधिकारी गोद नहीं ले सकतीं।  रानी लक्ष्मीबाई अपनी झांसी इतनी आसानी से  अंग्रेजों को कैसे दे सकती थी ? उसकी सेना में झलकारी  और उसके साहसी पति पूरन जैसे योद्धा थे जो अपने देश के लिए मर मिटने को तैयार थे। अंग्रेजों की सेना ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। जब ऐसा लगा कि अब इन अंग्रेजों से जीतना कठिन है, और किला छोडना पड सकता है, तो  झलकारी बाई ने रानी को कुछ सैनिकों के साथ युद्ध छोड़कर जाने की सलाह दी। इस संकटपूर्ण समय में वीरांगना झलकारी बाई ने एक योजना बनाई। वह लक्ष्मीबाई का भेष धारणकर  सेना का नेतृत्व करती रही और युद्ध में अंग्रेजों को उलझाए रखा। तब तक रानी लक्ष्मीबाई अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं।  ब्रिटिश सैनिक समझ ही नहीं पाए कि रानी लक्ष्मीबाई  किले से कब सुरक्षित बाहर निकल गईं। बाद में अंग्रेजों को पता चला कि जिस वीरांगना ने उन्हें कई दिनों तक युद्ध में घेरकर रखा था, वह रानी लक्ष्मीबाई नहीं बल्कि उनकी हमशक्ल झलकारी बाई थी।

सन् 1857 के स्वाधीनता संग्राम में झलकारी बाई ने अपने बहादुरी और साहस से ब्रिटिश सेना को नाकों चने चबवा दिए थे। झलकारी बाई का पति पूरन सिंह वीर सैनिक था, युद्ध करते हुए वह भी वीरगति को प्राप्त हुआ। अपने पति की मृत्यु का समाचार जानकर भी झलकारी विचलित नहीं हुई। पति की मृत्यु का  शोक ना मनाकर वह तुरंत ही ब्रिटिशों को चकमा देने की नई योजना बनाने लगी थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

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