हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ दरार ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा  ”दरार”।)

☆ लघुकथा – दरार ☆

एक माँ ने उसकी बच्ची को रंग बिरंगी पेंसिलें लाकर दीं तो मुन्नी फौरन चित्रकारी करने बैठ गयी. सबसे पहले उसने एक प्यारी सी नदी बनाई. नदी के दोनो ओर हरे भरे पेड़, एक हरी-भरी पहाड़ी, पहाडी़ के पीछे एक ऊगता हुआ सूरज और एक सुंदर सी झोपड़ी.

बच्ची खुशी से नाचने लगी. उसने अपनी माँ को आवाज लगाई- माँ देखिए न मैंने कितनी सुंदर सीनरी बनाई है.

चोके से ही माँ ने प्रशंसा कर बच्ची का मनोबल बढाया. कला जीवंत हो उठी.

थोड़ी देर बाद बच्ची घबराकर बोली- माँ गजब  ह़ो गया. दादा दादी के लिए तो इसमें जगह ही नहीं  है

माँ आवाज आई – आगे आउट हाउस बना दो, दादा दादी वहीं रह लेंगे.

बच्ची को लगा कि सीनरी बदरंग हो गई है. चित्रकारी पर स्याही फिर गयी है.

झोपड़ी के बीच से एक मोटी सी दरार पड़ गयी है.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 52 ☆ लघुकथा – दीवार ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं और स्त्री विमर्श पर आधारित  उनकी लघुकथा ‘दीवार। यह आवश्यक नहीं कि गलती हमेशा छोटों से ही होती हो। कभी-कभी बड़े भी गलतियां कर बैठते हैं। ऐसे में कभी कभी सुधारने का मौका मिल जाता है तो कभी कभी नहीं भी मिल पाता। डॉ डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  स्त्री विमर्श परआधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 52 ☆

☆  लघुकथा – दीवार

रात में साधना बाथरूम जाने को उठी तो उसे पता नहीं कैसे दिशा भ्रम हो गया। जब तक कुछ समझ पाती दीवार से टकराकर गिर गई। घर में वह अकेले ही थी। उसने बहुत कोशिश की उठने की लेकिन दर्द के कारण जगह से हिल भी ना पाई। दीवार के दूसरी तरफ बेटा – बहू रहते हैं, उसने आवाज लगाई, जोर से दीवार धपधपाई कि शायद कोई सुन ले, लेकिन किसी को सुनाई नहीं दिया और अंतत: वह डर और पीडा से बेहोश हो गई। जब उसे होश आया तो वह अस्पताल में बिस्तर पर लेटी थी, पास ही उसकी बहू बैठी थी। सास को होश में आते देखकर वह जल्दी से डॉक्टर को बुला लाई। डॉक्टर ने देखा और बोले – अब चिंता की कोई बात नहीं है ब्लडप्रेशर बढ गया था, अब सब ठीक है, पैर की हड्डी टूट गई है, एक महीने प्लास्टर रहेगा। जाते–जाते डॉक्टर ने कहा – अरे हाँ, इनको  घर में अकेला मत छोडियेगा। जी – बहू ने सहमति में सिर हिलाया। तब तक बेटा भी वहाँ आ गया। डॉक्टर की बात बेटे ने सुन ली थी।

साधना सोच रही थी कि सब कुछ उसका ही तो किया धरा है, दोष दे भी तो किसको? वह अपने आप को कोस रही थी क्या मन में आई बेटे बहू को अलग करने की। पति ने भी बहुत समझाया था – बच्चे हैं माफ कर दो, पर वह तो अड गई थी कि बँटवारा कर दो, बडे से आँगन के बीचोंबीच दीवार बनवा कर ही मानी। सबने कितना मना किया पर उसने किसी की ना सुनी, विनाश काले विपरीत बुद्धि। किस घर में झगडे नहीं होते? ताली दोनों हाथों से बजती है सिर्फ बहू की गल्ती थोडे ही ना है। पति की मृत्यु के बाद से यह अकेला घर अब उसे खाने को दौडता है पर क्या करे? आज उसे समझ में आ रहा था कि अपने पैर पर उसने खुद ही कुल्हाडी मारी है।

कैसा लग रहा है माँ अब? – बेटे ने पूछा। कैसे गिर गईं आप? अरे वह तो अच्छा हुआ कि मैं सुबह आ गया था आपको देखने, वरना आप ना जाने कब तक बेहोश पडी रहतीं। साधना बेटे से नजरें ही नहीं मिला पा रही थी। वह हाथ जोडकर बेटे–बहू से बोली – मुझे माफ कर दो। मैंने बहुत बडी गलती की है अपने ही घर को दो टुकडों में बाँटकर। बेटे ने हँसकर कहा- अरे किस बात की माफी मांग रही हैं आप, यह भी कोई बात है क्या? जब दीवार बनाई जा सकती है तो गिराई नहीं जा सकती क्या? साधना भीगी आँखों से मुस्कुरा रही थी, उनके बीच रिश्तों की मजबूत दीवार जो बन रही थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ समाज सेवा ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा समाज सेवा।  

☆ लघुकथा – समाज सेवा ☆

 मेरी परिचित का फोन आया कि क्यों यह जब तक लॉकडाउन है तब तक हम बाइयों को काम करने के लिए नहीं बुला रहे हैं तो तुम तनख्वाह दोगी क्या?

…” मैंने कहा हां नहीं तो उनका गुजारा कैसे चलेगा।”

तो वह बोली ..”नहीं मैं तो नहीं दूंगी पैसे क्या पेड़ पर लगते है ।”

फोन रख कर मैंने सोचा हां ये क्यों देंगी कल ही तो इन्होंने फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्स एप पर एक ग़रीब परिवार के चार लोगों के बीच खाने का 1 पैकेट देते हुए फोटो अपलोड की है इनकी समाज सेवा तो पूरी हो गई ।”

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #83 ☆ लघुकथा – फ्री वाली चाय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक विचारणीय एवं सार्थक कविता  ‘फ्री वाली चाय। इस सार्थक एवं अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 83 ☆

☆ लघुकथा फ्री वाली चाय ☆

देवेन जी फैक्ट्री के पुराने कुशल प्रबंधक हैं. हाल ही उनका तबादला कंपनी ने अपनी नई खुली दूसरी फैक्ट्री में कर दिया.

देवेन जी की प्रबंधन की अपनी शैली है, वे वर्कर्स के बीच घुल मिल जाते हैं, इसीलिये वे उनमें  लोकप्रिय रहते हुये, कंपनी के हित में वर्कर्स की क्षमताओ का अधिकाधिक उपयोग भी कर पाते हैं. नई जगह में अपनी इसी कार्य शैली के अनुरूप वर्कर्स के बीच पहचान बनाने के उद्देश्य से देवेन जी जब सुबह घूमने निकले तो फैक्ट्री के गेट के पास बनी चाय की गुमटी  में जा बैठे. यहां प्रायः वर्कर्स आते जाते चाय पीते ही हैं. चाय वाला उन्हें पहचानता तो नही था किन्तु उनकी वेषभूषा देख उसने गिलास अच्छी तरह साफ कर उनको चाय दी. बातचीत होने लगी. बातों बातों में देवेन जी को पता चला कि दिन भर में चायवाला लगभग २०० रु शुद्ध प्राफिट कमा लेता है. देवेन जी ने उसे चाय की कीमत काटने के लिये ५०० रु का नोट दिया, सुबह सबेरे चाय वाले के पास फुटकर थे नहीं. अतः उसने नोट लौटाते हुये पैसे बाद में लेने की पेशकश की.

उस दिन देवेन का जन्मदिन था, देवेन जी को कुछ अच्छा करने का मन हुआ. उन्होने प्रत्युत्तर में  नोट लौटाते हुये चायवाले से कहा कि वह  इसमें से अपनी आजीविका के लिये  दिन भर का प्राफिट २०० रु अलग रख ले और सभी मजदूरों को निशुल्क चाय पिलाता जाये. चायवाले ने यह क्रम शुरू किया, तो दिन भर फ्री वाली चाय पीने वालों का तांता लगा रहा. मजदूरों की खुशियो का पारावार न रहा.

दूसरे दिन सुबह सुबह ही एक पत्रकार इस खबर की सच्चाई जानने, चाय की गुमटी पर आ पहुंचा, जब उसे सारी घटना पता चली तो उसने चाय वाले की फोटो खींची और जाते जाते अपनी ओर से मजदूरों को उस दिन भी फ्री वाली चाय पिलाते रहने के लिये ५०० रु दे दिये. बस फिर क्या था फ्री वाली चाय की खबर दूर दूर तक फैलने लगी. कुछ लोगों को यह नवाचारी विचार बड़ा पसंद आ रहा था, पर वे ५०० रु की राशि देने की स्थिति में नहीं थे, अतः उनकी सलाह पर चाय वाले ने  काउंटर पर एक डिब्बा रख दिया, लोग चाय पीते, और यदि इच्छा होती तो जितना मन करता उतने रुपये डिब्बे में डाल देते. दिन भर में डिब्बे में पर्याप्त रुपये जमा हो गये. अगले दिन चायवाले ने डिब्बे से निकले रुपयों में से अपनी आजीविका के लिये २०० रु अलग रखे और शेष रु गिने तो वह राशि ५०० से भी अधिक निकली. फ्री वाली चाय का सिलसिला चल निकला. अखबारों में चाय की गुमटी की फोटो छपी, चाय पीते लोगों के मुस्कराते चित्र छपे. सोशल मीडिया पर  फ्री वाली चाय वायरल हो गई. देवेन ने मजदूरों के बीच सहज ही  नई पहचान बना ली, अच्छाई के इस विस्तार से देवेन मन ही मन मुस्करा उठे.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 70 – लघुकथा – आंवला भात☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  आंवला/इच्छा नवमी पर विशेष लघुकथा  “आंवला भात।  हमारी संस्कृति में प्रत्येक त्योहारों का विशेष महत्व है। वैसे ही यदि हम गंभीरता से देखें तो  आंवला नवमी / इच्छा नवमी पर्व हमें पारिवारिक एकता, वृक्षारोपण, पर्यावरण संरक्षण का सन्देश देते हैं। ऐसे में ऐसी कथाएं हमें निश्चित ही प्रेरणा देती हैं।  शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है।  सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिपेक्ष्य में रचित इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 70 ☆

☆ आंवला/इच्छा नवमी विशेष ☆ लघुकथा – आंवला भात ☆

पुरानी कथा के अनुसार आंवला वृक्ष के नीचे कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी को आंवला वृक्ष की पूजन करने से मनचाही इच्छा पूरी होती है। आज आंवला नवमी को पूजन करते हुए कौशल्या और प्रभु दयाल अपने आंगन के आंवला वृक्ष को देखते हुए बहुत ही उदास थे। कभी इसी आंगन पर पूरे परिवार के साथ आंवला भात बनता था। परंतु छोटे भाई के विवाह उपरांत खेत और जमीन जायदाद के बंटवारे के कारण सब अलग-अलग हो गया था।

प्रभुदयाल के कोई संतान नहीं थे। यह बात उनके छोटे भाई समझते थे। परंतु उनकी पत्नी का कहना था कि “हम सेवा जतन नहीं कर पाएंगे।” छोटे भाई के तीनों बच्चो की परवरिश में कौशल्या का हाथ था।

अचानक छत की मुंडेर पर कौवा कांव-कांव की रट लगा इधर-उधर उड़ने लगा। प्रभुदयाल ने कौशल्या से कहां “अब कौन आएगा हमारे यहां सब कुछ तो बिखर गया है।” गांव में अक्सर कौवा बोलने से मेहमान आने का संदेशा माना जाता था। अचानक चश्मे से निहारती कौशल्या दरवाजे की तरफ देखने लगी। दरवाजे से आने वाला और कोई नहीं देवर देवरानी अपने दोनों पुत्र और बहूओं के साथ अंदर आ रहे थे। प्रभुदयाल सन्न सा खड़ा देखता रहा।

छोटे भाई ने कहा – “आज हमारी आंखें खुल गई भईया। मेरे बेटों ने कहा.. कि हम दोनों भाइयों का भी बंटवारा कर दीजिए क्योंकि अब हम यहां कभी नहीं आएंगे। आप लोग समझते हैं कि आप त्यौहार अकेले मनाना चाहते हैं तो मनाइए। हम भी अपने दोस्त यार के साथ शहर में रह सकते हैं। हमें यहां क्यों बुलाया जाता है।”

“मुझे माफ कर दीजिए भईया। परिवार का मतलब बेटे ने अपनी मां को बहुत खरी खोटी सुनाकर समझाया है। वह दोनों हमसे रिश्ता रखना नहीं चाहते। वे आपके पास रहना चाहते हैं। इसलिए अब सभी गलतियों को क्षमा कर। आज आंवला भात हमारे आंगन में सभी परिवार समेत मिलकर खाएंगे।”

देवरानी की शर्मिंदगी को देखते हुए कौशल्या ने आगे बढ़ कर गले लगा लिया और स्नेह से आंखे भर रोते हुए बोली -“आज नवमी (इच्छा नवमी) मुझे तो मेरे सब सोने के आंवले मिल गए। इन्हें मैं सहेज कर तिजोरी में रखती हूं।” सभी बहुत खुश हो गए।

प्रभुदयाल अपने परिवार को फिर से एक साथ देख कर इच्छा नवमी को मन ही मन धन्यवाद कर प्रणाम करते दिखें।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ किताबें ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा  ”किताबें ”। )

☆ लघुकथा – किताबें ☆ 

वे पाँच थे. पाँचों मिलकर अपनी-अपनी तरह से किताबों की व्याख्या कर रहे थे.

पहला बोला- “किताबें भविष्य की निर्माणी हैं. समय की चाबी हैं. किस्मत का दरवाजा यानी खुल जा सिम- सिम हैं.”

दूसरा बोला – “दरअसल हम किताबें नहीं पढ़ते बल्कि किताबें हमें पढ़ती हैं.”

तीसरा – “समय की पहरुयें है किताबें.”

चौथा – “किताबें हूर हैं.”

पांचवा – “चलो जी, अब बहुत हो गई किताबों की चमचागिरी. कल से पेट में दाना नहीं गया है. खाली पेट किताबें नहीं पढ़ी जा सकती. ये बोरे में भरी किताबें कबाड़ी को बेचने जा रहा हूँ, ताकि भोजन का ताना बाना बुना जा सके.”

किताबें भूख की बलि चढा दी गई.

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 69 ☆ लघुकथा – कोठे की शोभा ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं उनकी एक सार्थक लघुकथा  “कोठे की शोभा। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 69 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – कोठे की शोभा ☆

हर वर्ष की तरह इस बार भी कालेज में डांस कंपटीशन  हुआ । हर बार की तरह   प्रतिभाओं की भी कोई कमी नहीं थी।  परन्तु  स्निग्धा उन सबसे अलग साबित हुई । उसके  नृत्य ने सबका मन मोह लिया ।इतनी छोटी सी उम्र में उसके पांवों की थिरकन और वाद्यों की सुरताल के साथ उनका सामंजस्य अदभुत था । निर्णायको ने एक मत से उसे विजेता घोषित करने में जरा भी देर नहीं की । कालेज का खचाखच भरा हाल इस निर्णय पर देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा । इतना ही नहीं उसे अंतर्विश्वविद्यालयीन  प्रतियोगिता के लिए भी नामांकित कर दिया गया ।

पुरस्कार देते समय मंच पर जज महोदय ने कहा ‘बेटा  ! इस अवसर पर हम चाहते हैं कि आपकी माता जी को भी सम्मानित किया जाय क्योंकि आपकी इस प्रतिभा को निखारने में उनका योगदान निश्चय ही सबसे अधिक रहा होगा ।यदि वे यहां उपस्थित हों तो उन्हें भी मंच पर बुलाइए । उस महान हस्ती से हम भी  मिलना चाहेंगे । ”

तभी  नीचे से आवाज आईं ,” सर , स्निग्धा  डांस इसलिए अच्छा करती है , क्योंकि इनकी माता जी किसी कोठे की शोभा हैं । वे स्निग्धा के किसी कार्यक्रम में नहीं जातीं क्योंकि ,  कोठे की शोभा कोठे में ही शोभा देती है।”

जजों के साथ ,सारा कक्ष इस सूचना से हतप्रभ था ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 51 ☆ लघुकथा – चकनाचूर सपनें ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं और स्त्री विमर्श पर आधारित  उनकी लघुकथा ‘चकनाचूर सपनें। ऋचा जी के ही शब्दों में –  “महिलाओं  के  शोषण का यह रूप भी समाज में देखने को मिलता है  । भावनात्मक शोषण  का यह रूप बहुत भयावह होता है क्योंकि अपने ही परिवारजनों द्वारा होने वाले इस कृत्य की  कहीं शिकायत  भी  नही  की जाती   है ।  माँ  पुत्र मोह में  बेटियों के भविष्य का विचार नहीं करती।”डॉ डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण और स्त्री विमर्श परआधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 51 ☆

☆  लघुकथा – चकनाचूर सपनें

दिन भर मशीन की तरह वह एक के बाद एक घर के  काम निपटाती जा रही  थी। उसका चेहरा भावहीन था, सबसे बातचीत भले ही कर रही थी पर आवाज में कुछ उदासी थी। जैसे मन ही मन झुंझला रही हो। उसके छोटे भाई की शादी थी। घर में हँसी मजाक चल रहा था लेकिन वह उसमें शामिल नहीं थी,  शायद वह वहाँ रहना ही नहीं चाहती थी।  कुमुद ऐसी तो नहीं थी, क्या हो गया इसे? मैंने उसकी अविवाहित बडी बहन से पूछा, अरे कोई बात नहीं है, बहुत मूडी है। उसने बात टाल दी। मुझे यह बात खटक रही थी कि दो बडी बहनों के रहते छोटे भाई की शादी की जा रही है। कुमुद के मन में भी शायद ऐसा ही कुछ चल रहा हो? लडकियाँ खुद ही शादी करना ना चाहें तो बात अलग है पर जानबूझकर उनकी उपेक्षा करना? उनकी भी तो कुछ इच्छाएं, कुछ सपने होंगे? खैर छोडो, दूसरे के फटे में पैर कौन अड़ाए ?

शादी के घर में रिश्तेदारों का जमावड़ा हो और आपस में निंदा – पुराण ना हो, ऐसा कभी हो सकता है क्या? महिला संगीत चल रहा था और साथ में महिलाओं की खुसपुसाहट भी – जवान बहनें बिनब्याही बैठी हैं और छोटे भाई की शादी कर रहे हैं माँ – बाप। बड़ी तो अधेड़ हो गई है, कुमुद के लिए तो देखना चाहिए। ढोलक की थाप के साथ नाच – गाने तो चल ही रहे थे, निंदा रस भी खुलकर बरस रहा था। अरे कुमुद ! अबकी तू उठ, बहुत दिन से तेरा नाच नहीं देखा, ससुराल जाने के लिए थोडी प्रैक्टिस कर ले – बुआ ने हँसते हुए कहा। भाभी अब कुमुद के लिए लड़का देखो, नहीं तो यह भी कोमल की तरह बुढ़ा जाएगी नौकरी करते- करते, फिर कोई दूल्हा ना मिलेगा इसे। ढोलक की थाप थम गई और बात चटाक से लगी घरवालों को। नाचने के लिए उठते कुमुद के कदम मानों वहीं थम गए लेकिन चेहरा खिल गया। ऐसा लगा मानों किसी ने तो उसके दिल की बात कह दी हो । वह उठी और दिल खोलकर नाचने लगी।

कुमुद की माँ अपनी ननद रानी से उलझ रही थीं – बहन जी आपको रायता फैलाने की क्या जरूरत थी सबके सामने ये सब बात छेड़कर। इत्ता दान दहेज कहाँ से लाएं दो – दो लडकियों के हाथ पीले करने  को। ऐरे – गैरे घर में जाकर किसी दूसरे की जी- हजूरी करने से तो अच्छा है अपने छोटे भाई का परिवार पालें। छोटे को सहारा हो जाएगा, उसकी नौकरी भी पक्की ना है अभी। कोमल तो समझ गई है ये बात, पर इस कुमुद के दिमाग में ना बैठ रही। खैर समझ जाएगी यह भी —

कुमुद मगन मन नाच रही थी। ढोलक की थाप और तालियों के शोर में माँ की बात उसे  सुनाई नहीं दे रही थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ जगह ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

( संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में लगातार लेखन का अनुभव हैं। अब तक ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। वरिष्ठतम  साहित्यकारों ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं सार्थक लघुकथा  ”जगह”। )

☆ लघुकथा – जगह ☆ 

उसके पास कुल  जमा ढाई कमरे ही तो हैं.  एक कमरे में बहू बेटा सोते हैं तो दूसरे में वे बूढ़ाऔर बूढ़ी. उनके  हिस्से में एक पोती  भी है जो पूरे पलंग पर लोटती रहती है. बाकी बचे आधे कमरे में उनकी रसोई और उसी में उनका घर गृहस्थी का सामान  ठूंसा पड़ा रहता है.

“कहीं दूसरा बच्चा आ गया तो…” पलंग पर दादी अपनी  पोती  को खिसकाकर देखती है.

“बच्चे के फैल पसरकर सोने से हममें से एक को जागना पड़ता है” – दादा कहता है.

“दूसरे बच्चे के आने पर तो हम दोनों को ही जागना पड़ेगा” – दादी बोलती है.

“तब तो हमारे लिए पलंग पर जगह ही नहीं बचेगी”.- दोनों एक साथ बोलते हैं.

“भागयवान सारा झगड़ा इस जगह का ही तो है. जब तीसरी पीढ़ी जगह बनाती है, तो पहली जगह गँवाती है”.

“न जाने कैसी  हवा चली है कि आजकल बहुएं बच्चों को अपने पास नहीं सुलाती, वरना थोड़ी जगह हम बूढा-बूढ़ी को भी नसीब न हो जाती”.

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 69 – दूजा राम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं भाई बहिन के प्यार की अनुभूति लिए एक अतिसुन्दर लघुकथा  “दूजा राम।  कई बार त्योहारों पर और कुछ विशेष अवसरों पर हम अपने रिश्ते  निभाते कुछ नए रिश्ते अपने आप बना लेते हैं। शिक्षाप्रद लघुकथाएं श्रीमती सिद्धेश्वरी जी द्वारा रचित साहित्य की विशेषता है। इस सार्थक  एवं  भावनात्मक लघुकथा  के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 69 ☆

☆ लघुकथा – दूजा राम ☆

वसुंधरा का ससुराल में पहला साल। भाई दूज का त्यौहार। अपने मम्मी-पापा के घर दीपावली के बाद भाई दूज को धूमधाम से मनाती थी। परंतु ससुराल में आने के बाद पहली दीपावली पर घर की बड़ी बहू होने के कारण दीपावली का पूजन बड़े उत्साह से अपने ससुराल परिवार वालों के साथ मनाई।

ससुराल का परिवार भी बड़ा और बहुत ही खुशनुमा माहौल वाला। सभी की इच्छा और जरूरतों का ध्यान रखा जाता। हमउम्र ननद और देवर की तो बात ही मत कहिए। दिन भर घर में मौज-मस्ती का माहौल बना रहता।

परंतु भाई दूज के दिन सुबह से ही अपने छोटे भाई की याद में वसुंधरा का मन बहुत उदास था। दिन भर घर में भाई के साथ किए गए शैतानी और बचपन की यादों को याद कर वह मन ही मन उदास हो उसकी आँखों में आंसू भर भर जा रहे थे। क्योंकि ये पहला साल हैं जब वह अपने भाई से दूर है।

पतिदेव की बहनें और ननदें अपने भैया को दूज का टीका लगा हँसी ठिठोली कर रहीं  थी।

परंतु बस अपनी भाभी वसुंधरा के चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं ला पा रहे थे। सासु माँ और पतिदेव भी परेशान हो रहे थे। आठ दस ननद देवर भाभी को थोड़ा परेशान देखकर सभी अनमने से थे।

सभी टीका लगा कर उठ रहे थे परंतु एक राम जिनका नाम था बहुत ही समझदार, नटखट और मासूम सा देवर बैठा रहा।

सभी ने कहा… “भाई क्यों बैठा है उठ प्रोग्राम खत्म हो गया।” और एक बार फिर से ठहाका लगा गया।

परंतु अचानक सब शांत हो गए राम ने अपनी भाभी की तरफ ईशारा कर कहा…. “भाभीश्री दूज का चाँद तो मैं नहीं बन पाऊंगा, आपके भाई जैसा, परंतु मुझे दूजा राम समझकर ही टीका लगाओ। तभी मैं यहाँ से उठूंगा।”

वसुंधरा भाभी के बड़े-बड़े नैनों से अश्रुधार बहने लगी।  वह दौड़ कर पूजा की थाली ले आई। दूज का टीका लगाने चल पड़ी। और अपने इस अनोखे रिश्ते को निभाने तैयार हो गई।

तिलक लगा ईश्वर से सारी दुआएं मांगी। घर में सभी बड़े ताली बजाकर आशीष देने लगे। देखते-देखते ही वसुंधरा का चेहरा खिल उठा।

उसे ससुराल में अपने देवर के रुप में भाई दूज पर अपना भाई जो मिल गया दूज का चाँद।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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