हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विनिमय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  विनिमय

…जानते हैं, कैसा  समय था उन दिनों! राजा-महाराजा किसी साम्राज्य से संधि करने या लाभ उठाने के लिए अपने कुल की कन्याओं का विवाह शत्रु राजा से कर दिया करते थे।  आदान-प्रदान की आड़ में हमेशा सौदे हुए।

…अत्यंत निंदनीय। मैं तो सदा कहता आया हूँ कि हमारा अतीत वीभत्स था। इस प्रकार का विनिमय मनुष्यता के नाम पर धब्बा है, पूर्णत: अनैतिक है।

पहले ने दूसरे की हाँ में हाँ मिलाई। यहाँ-वहाँ से होकर बात विषय पर आई।

…अच्छा, उस पुरस्कार का क्या हुआ?

…हो जाएगा। आप अपने राज्य में हमारा ध्यान रख लीजिएगा, हमारे राज्य में हम आपका ध्यान रख लेंगे।

विषय पूरा हो चुका था। उपसंहार के लिए वर्तमान, अतीत की आलोचनाओं में जुटा था।  भविष्य गढ़ा जा रहा था।

 

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 7:17 बजे, 18.5.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 31 ☆ लघुकथा – स्वाभिमानी माई ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक, आत्मसम्मान -स्वाभिमान से परिपूर्ण भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  “  स्वाभिमानी माई”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 31☆

☆ लघुकथा –  स्वाभिमानी माई

कर्फ्यू के कारण बाजार में आज बहुत दिन बाद दुकानें खुली थीं , थोडी चहल – पहल दिखाई दे रही थी . उसने भी  अपनी दुकान का रुख किया . मन में  सोचा  कर्फ्यू  के बाद ग्राहक तो कितने आयेंगे पर घर से निकलने का मौका  मिलेगा  और घर के झंझटों से भी छुटकारा . दुकान खुलेगी तो ग्राहक भी धीरे- धीरे आने ही लगेंगे . दो महीने से दुकान बंद थी  . दुकान पर काम करनेवाले लडकों को बुलायेगा तो पगार देनी पडेगी,  कहाँ से देगा ? छोटी सी दुकान है वह भी अपनी नहीं ,  दुकान का मालिक किराया थोडे ही छोडेगा ?  कितना कहा मालिक से कि दो महीने से दुकान बंद है कोई कमाई नहीं है , आधा किराया ले ले ,  पर कहाँ सुनी उसने , सीधे कह दिया किराया नहीं दे सकते तो  दुकान खाली कर दो . वह  मन ही मन झुंझला रहा था , खैर छोडो उसने खुद को समझाया , इस महामारी ने पूरे विश्व को संकट में डाल दिया , मैं अकेला थोडे ही हूँ . कैसा ही समय हो कट ही जाता है . वह दुकान की सफाई में लग गया .

बेटा –  उसे किसी स्त्री की बडी कमजोर सी आवाज सुनाई दी .  उसने सिर उठाकर देखा ,  कैसी हो माई , बहुत दिन बाद दिखी ? उसने पूछा .

दो महीने से बाजार बंद था बेटा , क्या करते यहाँ आकर ? उसने बडी दयनीयता से कहा .

हाँ ये बात तो है . बूढी माई घूम – घूमकर सब दुकानों से रद्दी सामान इक्ठ्ठा किया करती  थी . दुकान के बाहर आकर चुपचाप खडी हो जाती थी  ,लोग अपने आप ही उसके बोरे में रद्दी सामान डाल दिया करते थे . अपनी जर्जर काया पर  बोरे का भारी बोझ उठाए वह मंद गति से अपना काम करती रहती थी . कुछ मांगना तो दूर , वह कभी किसी से एक कप चाय भी न लेती थी . कागज की पुडिया में अपने साथ खाने पीने का  सामान रखती , कहीं बैठकर खा लेती और काम पर चल देती . दुकानदार उसे अकडू माई  कहा करते थे पर उसके लिए वह स्वाभिमानी थी .

आज भी वह वैसी ही खडी थी, ना  कुछ मांगा, ना कुछ  कहा .थोडी देर हालचाल पूछने के बाद  वह कहने ही जा रहा था कि माई !  रद्दी तो नहीं है आज, लेकिन उसका मुर्झाया चेहरा देख शब्द मुँह में ही अटक गए .  उसके चेहरे पर  गहरी उदासी  और आँखों में बेचारगी  थी . उसने सौ का नोट बूढी माई को देना चाहा . मेहनत करने का आदी हाथ मानों आगे बढ ही नहीं रहा था . धोती के पल्ले से आँसू पोंछते हुए नोट लेकर  उसने माथे से लगाया . धीरे से बोली – बेटा ! घर में कमाने वाला कोई नहीं है रद्दी बेचकर  अपना पेट पाल लेती थी. तुम लोगों की दुकाने खुली रहती थीं तो हमें भी पेट भरने को कुछ मिल  जाता था , अब तो सब खत्म . बूढी माई का स्वाभिमान  आँसू बन बह रहा था .

उसे अपनी परेशानियां अब फीकी लग रही थीं .

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ मालामाल ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज  इसी अंक में प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की कविता  “ चुप्पियाँ“ का अंग्रेजी अनुवाद  Silence” शीर्षक से ।  हम कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी  हैं  जिन्होंने  इस कविता का अत्यंत सुन्दर भावानुवाद किया है। )

☆ संजय दृष्टि  ☆  मालामाल

ऐसी ऊँची भाषा  लिखकर तो हमेशा कंगाल ही रहोगे।….सुनो लेखक, मालामाल कर दूँगा, बस मेरी शर्तों पर लिखो।

लेखक ने भाषा को मालामाल कर दिया जब उसने ‘शर्त’ का विलोम शब्द ‘लेखन’ रचा।

 

# दो गज की दूरी, है बहुत ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

रात्रि 12:47, 19.5.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 49 – परम्परा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “परीक्षा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 49 ☆

☆ लघुकथा –  परम्परा☆

“रीना तूने ये क्या किया ? तेरी शादी मैं राकेश से धूमधाम से करने वाला था. फिर कोर्ट मैरिज करने की क्या जरुरत थी ?”

“पिताजी ! मैंने आप की बात सुन ली थी. आप मम्मी से कह रहे थे. मेरे पास इतने ही रूपए है कि मैं या तो रीना की शादी कर सकूं, या अपनी किडनी का इलाज करवा कर जिदा रह सकूं. फिर तुम तो जानती है की हरेक व्यक्ति को कभी न कभी मरना है. कोई जल्दी मरेगा तो कोई देर से.”

“क्या कह रही हो बेटी ?”

“सही कह रही हूँ पापा . तभी आप ने ही निर्णय किया था की आप मेरी शादी धूमधाम से करेगे, इलाज तो होता रहेगा. तभी मैंने आप की बातें सुन कर निर्णय कर लिया था कि मैं आप का इलाज करवा कर रहूंगी. इसलिए मैंने ..” वह आगे कुछ बोल नहीं पाई और पिताजी के चरण स्पर्श करने के लिए उनके कदमों में झुक गई .

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 47 – लघुकथा – सहोदर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी  एक अप्रतिम लघुकथा  “सहोदर ।  एक कहावत है कि- शक के इलाज की दवा तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी। वास्तव में कुछ अपवाद छोड़ दें तो हमारी समवयस्क पीढ़ी ने जिस तरह से मुंहबोले रिश्ते निभाए हैं,  वैसी अगली पीढ़ी किस स्तर तक निभा पाएंगी , भविष्य ही बताएगा। एक अतिसंवेदनशील विषय पर लिखी गई एक अतिसंवेदनशील सफल लघुकथा।  इस सर्वोत्कृष्ट  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 47 ☆

☆ लघुकथा  – सहोदर

खन्ना साहब और वर्मा जी की गहरी दोस्ती थी।

दोनों एक ही मोहल्ले में घर के आस-पास रहते थे। एक हादसे में अचानक वर्मा जी और उनका साल भर का बेटा दुनिया से चल बसा। दोस्त की पत्नी और रिश्ते में बहन बन चुकी, वर्मा जी की  पत्नी ममता की जिम्मेदारी खन्ना साहब पर आ गई।

कुछ दिनों बाद खन्ना साहब की धर्मपत्नी को जुड़वा संतान हुए।

उन्होंने एक उठाकर ममता की आंचल पर डाल दिया। भरा पूरा परिवार खुश रहने लगा और ममता भी अपना दर्द भूल गई। सुधीर ममता के पास धीरे-धीरे बड़ा होने लगा और गुस्सैल स्वभाव के होने के कारण कुछ ना कुछ बातें हो जाती थी। अक्सर मां बेटे में कहा सुनी होती थी।

घर में फिर अचानक जोर जोर से बातचीत और सामान फेंकने की आवाज आ रही थी। खन्ना साहब जो कीआर्मी से रिटायर हो चुके थे। दौड़ कर ममता के घर पहुंचे। सुधीर अपने मां के साथ फिर से झगड़ा कर रहा था। कह रहा था…. कि हमेशा मेरी सही गलत पर यह खन्ना क्यों टांग अडाता है, मैं क्या पढ़ता हूं, भविष्य में क्या बनूंगा, इसकी जिम्मेदारी वह लेने वाला कौन होता है? ना वह हमारा सगा संबंधी, ना रिश्तेदार, और ना ही हमारे कोई हितैषी!!!! पापा रहे नहीं तो दोस्त भी नहीं है। आपके साथ उनका क्या????? संबंध है आज मैं जानना चाहता हूं। युवा वर्ग होने के कारण वह बौखला गया था। घर में खन्ना जी के दखल अंदाजी उसको परेशान कर रही थी। अपने बेटे की बात सुन आज ममता बर्दाश्त न कर सकी। उसने सारा बर्तन अलमारी कपड़े सभी फेंक दिए। बर्तनों की आवाज से खन्ना साहब और उनकी धर्मपत्नी दौड़कर आए।

जैसे ही उन्होंने यह माजरा सुना कसकर एक जोरदार थप्पड़ दिया उनका हाथ लगते ही.. सुधीर और जोर जोर से बोलने लगा…. क्या रिश्ता है हमारी मां के साथ आपका। अब तो खन्ना आंटी जोर से चिल्ला कर बोली…. बेटा है तू हमारा मैंने तुझे जन्म दिया है। बंटी का जुड़वा भाई है तू सहोदर है उसका।

सुधीर  तो जैसे कटे पेड़ की तरह दम से गिर धरती पर बैठ गया। सुधीर की मां बोली…. नहीं नहीं यह आपने क्या कह दिया। इसकी मां तो मैं ही हूं और रोते – रोते  वह सुधीर को गले लगा ली।

सुधीर इन सब बातों से अंजान कभी अपनी मां और कभी खन्ना अंकल आंटी को देखने लगा पश्चाताप से भरा हुआ।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #48 ☆ सीढ़ियां ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # सीढ़ियां ☆

(दो दिन पूर्व ‘सीढ़ियाँ’ शीर्षक से अपनी एक कविता साझा की थी। पुनर्पाठ में आज पढ़िए इसी शीर्षक की एक लघुकथा।)

“ये सीढ़ियाँ जादुई हैं पर खड़ी, सपाट, ऊँची, अनेक जगह ख़तरनाक ढंग से टूटी-फूटी हैं। इन पर चढ़ना आसान नहीं है। कुल जमा सौ के लगभग हैं। सारी सीढ़ियों का तो पता नहीं पर प्राचीन ग्रंथों, साधना और अब तक के अनुसंधानों से पता चला है कि 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच एक दरवाज़ा है। यह दरवाज़ा एक गलियारे में खुलता है जो धन-संपदा से भरा है। इसे ठेलकर भीतर जानेवाले की कई पीढ़ियाँ अकूत संपदा की स्वामी बनी रहती हैं।

20वीं से  35वीं सीढ़ी के बीच कोई दरवाज़ा है जो सत्ता के गलियारे में खुलता है। इसे खोलनेवाला सत्ता काबिज़ करता है और टिकाए रखता है।

साधना के परिणाम बताते हैं कि 35वीं से 50वीं सीढ़ी के बीच भी एक दरवाज़ा है जो मान- सम्मान के गलियारे में पहुँचाता है। यहाँ आने के लिए त्याग, कर्मनिष्ठा और कठोर परिश्रम अनिवार्य हैं। यदा-कदा कोई बिरला ही पहुँचा है यहाँ तक”…, नियति ने मनुष्यों से अपना संवाद समाप्त किया और सीढ़ियों की ओर बढ़ चली। मनुष्यों में सीढियाँ चढ़ने की होड़ लग गई।

आँकड़े बताते हैं कि 91 प्रतिशत मनुष्य 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच भटक रहे हैं। ज़्यादातर दम तोड़ चुके। अलबत्ता कुछ को दरवाज़ा मिल चुका, कुछ का भटकाव जारी है। कुबेर का दरवाज़ा उत्सव मना रहा है।

8 प्रतिशत अधिक महत्वाकांक्षी निकले। वे 20वीं से 35वीं सीढ़ी के बीच अपनी नियति तलाश रहे हैं। दरवाज़े की खोज में वे लोक-लाज, नीति सब तज चुके। सत्ता की दहलीज़ शृंगार कर रही है। शिकार के पहले सत्ता, शृंगार करती है।

1 प्रतिशत लोग 35 से 50 के बीच की सीढ़ियों पर आ पहुँचे हैं। वे उजले लोग हैं। उनके मन का एक हिस्सा उजला है, याने एक हिस्सा स्याह भी है। उजले के साथ इस अपूर्व ऊँचाई पर आकर स्याह गदगद है।

संख्या पूरी हो चुकी। 101वीं सीढ़ी पर सदियों से उपेक्षित पड़े मोक्षद्वार को इस बार भी निराशा ही हाथ लगी।

# घर में रहें। सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 8 ☆ सन्नाटा ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  आपकी एक सामयिक लघुकथा  “सन्नाटा”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 8 ☆ 

☆ लघुकथा –  सन्नाटा ☆ 

घन् घन्, टन् टन्, ठक् ठक्, पों पों… सुबह से शाम तक आवाजें ही आवाजें।

चौराहे के केंद्र में खड़ी वह पूरी ताकत के साथ सीटी बजाती पर शोरगुल में सीटी की आवाज दबकर रह जाती।

बचपन से बाँसुरी की धुन उसे बहुत पसंद थी। श्रीकृष्ण जी के बाँसुरीवादन के प्रभाव के बारे में पढ़ा था। हरिप्रसाद चौरसिया जी का बाँसुरी वादन सुनती तो मन शांति अनुभव करता।

यातायात पुलिस में शहर के व्यस्ततम चौराहे पर घंटों रुकने-बढ़ने का संकेत देने से हुई थकान वह सहज ही सह लेती पर असहनीय हो जाता था सैंकड़ों वाहनों के रुकने-चलने, हॉर्न देने का शोर सहन कर पाना। बहुधा कानों में रुई लगा लेती पर वह भी बेमानी हो जाती।

अकस्मात कोरोना महामारी का प्रकोप हुआ। माननीय प्रधानमंत्री जी के चाहे अनुसार शहरवासी घरों में बंद हो गए। वह चौराहे के आसपास के इलाके में कानून-व्यवस्था का पालन करा रही है कि कोई अकारण बाहर न घूमे। अब तक शोर से परेशान उसे याद आ रहे हैं पिछले दिन और असहनीय प्रतीत हो रहा है सन्नाटा।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 30 ☆ लघुकथा – इंसानियत ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

 

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक , भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  “ इंसानियत ”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 30☆

☆ लघुकथा – इंसानियत

 

प्लीज अंकल, दो महीने से मुझे सैलेरी नहीं मिल रही है जैसे ही मिलेगी मैं आपको किराया दे दूंगी .

मुझे कुछ नहीं पता, रहना हो तो  किराया दो, नहीं तो मकान खाली कर दो.

इस समय मुझे यहीं रहने दीजिए. आप ही बताइए ना मैं कहाँ जाऊँ इस समय ?   .

मुझे कुछ नहीं पता – बडे रूखेपन से मकान मालिक ने जबाब दिया

अंकल !  आपको पता है ना कोरोना के कारण देश का क्या हाल है. मुझे  मकान कहाँ मिलेगा किराए पर इस समय – उसने बडी मायूसी से कहा

मुझे इससे कोई मतलब नहीं,  मैंने पहले ही कहा था कि किराया समय पर देना होगा.

रिया ने बहुत समझाने की कोशिश  की लेकिन मकानमालिक ने एक ना सुनी, साफ कह दिया कि किराया दो या मकान खाली करो. रिया ने  परेशान होकर अपने लिए मकान देखना शुरू किया . दोस्तों के परिचय से मकान मिल तो गया अब समस्या यह थी कि नए घर में सामान कैसे पहुँचाया जाए ? लॉकडाउन के कारण कोई आ नहीं सकता था, बालकनी में खडी सोच रही थी कि सडक पर कुछ लडकों को जाते देखा, सबके कंधों पर बैग लदे थे, हाथों में भी सामान था. सबके चेहरों पर बडी थकान दिख रही थी. रिया ने बडे सकुचाते हुए उन्हें अपनी परेशानी बताई और  पूछा – मुझे नए घर में सामान शिफ्ट करना है आप लोग मेरी मदद कर देंगे क्या ? मेरे पास पैसे भी थोडे ही हैं.

उन्होंने एक दूसरे की तरफ देखा. अरे दीदी काहे नहीं करेंगे मदद – मुस्कुराता हुआ एक लडका बोला, हमें आदत है मेहनत – मजूरी करने की. सबने अपना सामान एक किनारे रखा और लग गये रिया की मदद करने.सामान पहुँचाने के बाद रिया ने उन्हें पैसे देने चाहे तो  एक मजदूर हाथ जोडकर बोला –  दीदी पैसे की  बात ना करना, हम समझते हैं सबके  हालात, देखो ना हम भी तो  मारे – मारे घूम रहे हैं. बस इतनी दुआ करना कि हम अपने घर पहुँच जाएं अपनों के पास  —  उसकी आँखें भर आईं.

रिया को  इंसान में भगवान के दर्शन हो गये थे.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 48 – परीक्षा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “परीक्षा। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 48 ☆

☆ लघुकथा –  परीक्षा☆

मैंने परीक्षा कक्ष में जा कर मैडम से कहा, “अब आप बाथरूम जा सकती है.”मैडम ने  “थैं” कहा और बाहर चली गई.  मैं परीक्षा कक्ष में घूमने लगा. मगर, मेरी निगाहे बरबस छात्रों की उत्तरपुस्तिका पर चली गई थी. सभी छात्रों ने वैकल्पिक प्रश्नों के सही उत्तर कांट कर गलत उत्तर लिख रखे थे.

यानी सभी छात्रों ने एक साथ नकल की थी. छात्रों के 20 अंकों के उत्तर गलत थे.  मुझ से  रहा नहीं गया.  एक छात्र से पूछ लिया, “ये गलत उत्तर किस ने बताएं है ?”
सभी छात्र आवाक रह गए. और एक छात्र ने डरते डरते कहा, “मैडम ने !”

“ये सभी उत्तर गलत है,” मैं जोर से चिल्लाया, “अपने उत्तर कांट कर अपनी मरजी से उत्तर लिखों. वरना, इस परीक्षा में सब फेल हो जाओगे.”

तभी केंद्राध्यक्ष ने आ कर कहा, “क्यों भाई ! क्यों चिल्ला रहे हो ? जानते नहीं हो कि ये परीक्षा है.”

मैं चुप हो गया. क्या जवाब देता. ये परीक्षा है ?

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०१/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 45 ☆ व्यवहार ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  आज के सामाजिक परिवेश में जीवन के कटु सत्य को उजागर करती एक लघुकथा  “व्यवहार। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 45 – साहित्य निकुंज ☆

☆ व्यवहार ☆

मंजू कॉलेज और घर का सब काम करते हुए साथ में सास की सेवा भी तल्लीनता से कर रही थी पतिदेव भी प्रोफेसर है। पता नहीं क्यों वह मंजू में इंटरेस्ट नहीं लेते हैं।

 मंजू ने एक दिन पूछ लिया..” क्या बात है आखिर हमारे दो-दो बच्चे हो गए हैं सब की शादी हो गई है। अब बुढ़ापा हम दोनों का ही साथ में कटेगा आपको क्या हो गया है। आप हमसे बात क्यों नहीं करते।”

पतिदेव ने कहा..” देखो हमें पता है तुम्हारा मन मुझमें नहीं लगता तुम्हारा मन बाहर लगता है। इसलिए अब हमें  तुमसे कोई संबंध नहीं रखना।”

मंजू ने कहा ..”यह आपसे किसने कहा।”

“माताजी बता रही थी कि उन्होंने तुमको बात करते सुना है…।”

मंजू ने कहा.. “कॉलेज के लोगों से तो 10 तरह की बातें होती हैं अब उन्होंने क्या समझ लिया यह तो वही जाने।”

मंजू की आंखों में आंसू छलक पड़े कि जिस सास  के दुर्व्यवहार के बावजूद भी इतने बरसों से उसकी सेवा कर रही है।आज वही अंतिम समय में अपनी बहू को घर से निकालने पर तुली हुई है याने उसके व्यवहार में आज भी कोई परिवर्तन नहीं आया।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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