(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक एवं प्रेरणास्पद लघु व्यंग्य कथा “लाखों में एक”. )
☆ लघु व्यंग्य कथा – लाखों में एक ☆
वे व्यंग्यात्मा हैं, वे व्यंग्य ओढ़ते, बिछाते हैं तथा दिन रात व्यंग्य की ही जुगाली करते हैं । वे हमारे पास आये तो हमने उनसे सहज भाव से पूछ लिया कि ‘अब तक 75 ‘(व्यंग्य संकलन), ‘सदी के 100 व्यंग्यकार’ (व्यंग्य संकलन)’ एवं ‘131 श्रेष्ठ व्यंग्यकार ‘ (व्यंग्य संकलन) प्रकाशित हो चुके हैं लेकिन इनमें आप शामिल नहीं हैं ऐसा क्यों ?
उन्होंने (मन ही मन खिसियाते हुए ) कहा -‘अभी तो संख्या 131 पर ही पहुंची है, और आपको तो मालूम ही है कि हम 100, पांच सौ, या हजार में एक नहीं हैं, हम तो लाखों में एक हैं ।’
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी संस्कृति विमर्श पर आधारित लघुकथा तुम संस्कृति हो ना? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 47 ☆
☆ लघुकथा – तुम संस्कृति हो ना? ☆
शादी की भीड़-भाड़ में अचानक मेरी नजर उस पर पडी। अरे, ये संस्कृति है क्या? पर वह कैसे हो सकती है? मेरा मन मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था। चेहरा तो मिल रहा है लेकिन रहन – सहन? कोई इतना कोई बदल सकता है कि पहचान में ही ना आए? हाँ ये सुना था कि वह विदेश में है और वहीं उसने शादी भी कर ली है। सारी सुनी-सुनाई बातें थी, हम साथ पढे थे और तब से उससे कभी मिलना हुआ ही नहीं। तब फेसबुक होती तो सबके हाल-चाल मिलते रहते पर उस समय कहाँ था ये सब? स्कूल से निकलो तो कुछ सहेलियां तब छूट जाती थीं और कॉलेज के बाद तो कौन कहाँ गया किसकी कहाँ शादी हुई, कुछ अता-पता ही नहीं रहता था। फिर से ध्यान उसकी ओर ही चला गया – – – मन उलझ रहा था।
तब तक उसने मुझे देख लिया, बडी नफासत से मुझसे गले मिली – हाय निशा, बहुत अच्छा लगा यार तुम मिल गईं, कहाँ रहती हो तुम? कितने सालों बाद हम मिल रहे हैं ना ! ना जाने कितनी बातें उसने उस पल बोल दीं और मैं अब भी मानों सकते में थी। उसके पास से परफ्यूम की तेज गंध आ रही थी, चेहरे पर मेकअप की गहरी परत चढ़ी हुई थी जिससे वह अपनी उम्र छुपाने की भरसक कोशिश कर रही थी। कटे हुए स्टाईलिश बालों पर परमानेंट कलर किया हुआ था। अंग्रेजी के लहजे में वह हिंदी बोल रही थी, बहुत बनावटी लग रहा था सब कुछ। मैं खुद को समझा ही नहीं पा रही थी, अपने को संभालते हुए मैंने धीरे से पूछा – तुम संस्कृति ही हो ना? उसे झटका लगा – अरे ! पहचाना नहीं क्या मुझे? मैंने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा – बहुत बदल गई हो तुम, मेरे दिमाग में कॉलेज वाली सीधी – सादी संस्कृति का चेहरा बसा हुआ था।
वह खिलखिला कर हँस पडी – यार पर तुम वैसी की वैसी रहीं, ना लुक्स में बदलीं, ना सोच में। मैं बीस साल से कनाडा में रहती हूँ, जैसा देश वैसा भेष। उन लोगों बीच रहना है तो उनके जैसे ही दिखो, उनकी भाषा बोलो। मैंने नाम भी बदल लिया मुझे सब सैंडी बुलाते हैं, अच्छा है ना? मैंने ओढी हुई मुस्कान के साथ कहा – हाँ, तुम पर सूट कर रहा है पर अपनी पहचान ही बदल दी? अपने बच्चों को हिंदी सिखाई है ना? – मैंने पूछा। उसे मेरा प्रश्न बेमानी लगा, बोली – क्या करेंगें हिंदी सीखकर? कौन- सा अब उन्हें यहाँ वापस आना है। मैं बेमन से उसकी हाँ में हाँ मिला रही थी। मुझे संस्कृति के माता – पिता याद आ रहे थे जो हमेशा अपना भारत देश, बोली – भाषा, खान-पान में देसीपन के इर्द-गिर्द जिया करते थे। उन्होंने अपनी माटी, अपने देश के संस्कार दिए थे इसे फिर भी खरे देसीपन के वातावरण में पली – बढी संस्कृति सैंडी क्यों बन गई?
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक हाइबन “रतनगढ़ का हमाम”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन # 66 ☆
☆ रतनगढ़ का हमाम ☆
चित्तौड़गढ़ से 70 किलोमीटर पूर्व में अरावली की पहाड़ी पर तीनों ओर गहरी खाई के घुमावदार हिस्से पर रतनगढ़ का किला 11 वीं शताब्दी का बना हुआ है। इसे राजा रतनसिंह के नाम पर रतनगढ़ का किला कहते हैं। इसी से गांव का नाम रतनगढ़ पड़ा है।
यह रतनगढ़ सिंगोली तहसील जिला नीमच मध्यप्रदेश में स्थित है। पूर्व में यह जागीर ग्वालियर रियासत को इंदौर रियासत द्वारा स्थानांतरित की गई थी।
खंडहर हो चुके किले में एक अद्भुत हमाम घर है। यह हमामघर रूपी बावड़ी आज भी बनी हुई है । जिसमें 12 महीने पानी आज भी भरा रहता है । इसकी बनावट, तकनीकी व खुबसूरती से जमीन के अंदर की निर्माण कला की उत्कृष्टता का बखूबी समझा जा सकता है। जब यह बावड़ी सह हमाम घर आज के समय यह इतना बेजोड़ और उम्दा है तो उस जमाने में कैसा रहा होगा ?
प्राचीन समय में जमीन से इतनी ऊपर पहाड़ी पर इतनी जोरदार वास्तुकला की यह बावड़ी आधुनिक स्विमिंग पूल को भी मात देती है । यह ऊंची पहाड़ी पर समतल जमीन से तीन मंजिला नीचे दो भागों में विभाजित स्विमिंग पुल यानी पुराना हमामघर बहुत ही उत्कृष्ट ढंग से बनाया गया है।
इसी किले पर बड़ी-बड़ी धान भरने की गोलाकार कोठियां बनी हुई है । जिनका दीवारों पर लगा चिकना प्लास्टर आज भी विद्यमान है । कई शताब्दी बीत जाने के बाद भी यह कोठियां आज भी बेहतर हालत में विद्यमान है। इससे भारतीय कामगारों की उत्कृष्टता और गुणवत्ता युक्त सामग्री का अंदाजा लगाया जा सकता है।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ बेटियों से जुड़ी दो लघुकथायें ☆
एक : परंपरा
-मां , इस लोहे की पेटी को रोज रोज क्यों खोलती हो ?
– तेरी खातिर । मेरी प्यारी बच्ची ।
– मेरी खातिर ?
– तू नहीं समझेगी ।
-बता न मां ।
– जब मैं छोटी थी मेरी मां भी पेटी खोलती और बंद करती रहती थी । तब मैं भी नहीं जानती थी । क्यों ?
-मैं देखती रहती हूं कि जैसा दहेज मेरी मां ने मुझे दिया था , वैसा ही मैं तेरे लिए जुटा भी पाऊंगी ।
– छोड़ो न मां । मैं ब्याह ही नहीं करवाऊंगी ।
– मैं भी यही कहती थी पर शादी और दहेज एक दूसरे से जुड़े हुए हैं कि इन्हें अलग करना मुश्किल है । मैं क्या करूं ?
एक : फासला
-अजी सुनते हो ?
-हूं , कहो ।
-आपकी बहन का संदेश आया है ।
-क्या ?
-वही पुराना राग गाया है ।
-यानी ?
-रक्षाबंधन का त्यौहार आ रहा है । आकर मिल जाओ ।
-अब शादी को इतने वर्ष हो गये । पर यह त्यौहारों पर आकर मिलने का संदेश अभी तक मिल रहा है ।
-चलो , जहां इतने वर्ष किया है , वहां इस वर्ष भी कुछ भेंट , उपहार दे आओ ।
-एक बात बताओगी ?
-पूछिए ।
-कभी हम अपनी बहन को मिलने बिना उपहार के गये हैं ?
-नहीं ।
– हम भाई-बहन दूर तो नहीं रहते पर उपहारों ने फासला इतना बढा दिया कि चाह कर भी मिलने नहीं जा सकते । कभी बहन का खुश चेहरा देख पाएंगे या यह हसरत ही रह जाएगी ?
(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक एवं प्रेरणास्पद लघुकथा “रंगमंच”. )
☆ लघुकथा – रंगमंच ☆
मनोहर रंगमंच का कलाकार था। स्थानीय स्तर पर होने वाले नाटकों में वह विभिन्न पात्रों को बखूबी निभाता था। उसके अभिनय की बहुत प्रशंसा होती थी।
विगत 6 माहों से वह घर पर ही बैठा था। इस विषम काल में नाटकों का मंचन भी बंद था। वह मानसिक अवसाद की स्थिति में पहुंच गया था, उसे महसूस हो रहा था कि उसकी कला में जंग लग रही है।
एक दिन वह शहर के रंगमंच हाल में पहुंच गया। मंच के आगे पीछे सन्नाटा पसरा हुआ था। कुर्सियां भी दर्शकों के अभाव में टिमटिमाते बल्ब की रोशनी में ऊँघती सी प्रतीत होरही थीं। यह वही हाल था जो कभी रोशनी से जगमगाता रहता था जिसमें दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट गूंजती रहती थी। अब न दर्शक, न श्रोता और न कोई नायक न खलनायक, बस आज चारों ओर खामोशियाँ पसरी पड़ी थीं।
मंच के ऊपर लगी दीवार घड़ी अब भी टिकटिक की आवाज करती चल रही थी। समय निरंतर अपनी गति से भाग रहा था। उसे महसूस हुआ कि ऊपर बैठा सबसे बड़ा नाटककार उससे कह रहा है – समय गतिशील है, आज का यह समय भी निकल जायेगा धैर्य रखो। समय की डोर अपने हाथों में थामे रखो। अचानक उसके अंदर नई ऊर्जा का संचार हुआ और वह जिंदगी के रंगमंच में अपनी नई भूमिका निभाने तेज कदमों से आगे बढ़ गया।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की अगली कड़ी में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी की एक सार्थक लघुकथा – विसर्जन । )
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 64 ☆
☆ लघुकथा – विसर्जन ☆
एक बार कबूतरों के झुंड से एक कबूतर को निकाल दिया गया, तो उस कबूतर ने एक तखत में कब्जा कर प्रवचन देने प्रारंभ कर दिए,श्रोता जुड़ते गए… अच्छा विचार विमर्श होता रहता।
जीवन में अनुशासन और मर्यादा की खूब बातें होती, फिर प्रवचन देने का काम बारी बारी से दो और कबूतर करने लगे। बढ़िया चलने लगा, तखत से नये नये प्रयोग होने लगे, और ढेर सारे कबूतर श्रोता बनके जुड़ने लगे, अनुशासन बनाए रखने की तालीम होती रहती,नये नये विषयों पर शानदार प्रवचनों से श्रोता कबूतरों को नयी दृष्टि मिलने लगी, विसंगतियों और विद्रूपताओं पर ध्यान जाने लगा।
एक कबूतरी पता नहीं कहां से आई, और सबके रोशनदान से घुसकर गुटरगू करने लगी, सबको खूब मज़ा आने लगा, प्रवचन देने वाले पहले कबूतर का ध्यान भंग हो गया, कबूतर अचानक संभावनाएं तलाशने लगा, कबूतरी महात्वाकांक्षी और अहंकारी थी, आत्ममुग्धता में अनुशासन और मर्यादा भूल जाती थी।
एक दिन प्रवचन चालू होने वाले थे तखत में प्रवचन करने वाले दोनों कबूतर बैठ चुके थे ,क्रोध में चूर कबूतरी तखत के चारों ओर उड़ने लगी, प्रवचन चालू होने के पहले बहसें होने लगीं, श्रोता कबूतरों ने कहा ये तो महा अपकुशन हो गया, शुद्ध तखत के चारों तरफ अशुद्ध कबूतरी को चक्कर नहीं लगाना था। फिर उसी रात को ऐसी आंधी आयी कि जमा जमाया तखत उड़ गया। सारे कबूतर उड़ गए, दो दिन बाद किसी ने बताया कि भीषण आंधी से तखत उड़ कर टूट गया था इसीलिए उसका विसर्जन कर दिया गया।
☆ जीवनरंग ☆ गांधींना येऊ दे ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆
`वर्मा सर, आपण या कार्यालयात सगळ्यात ईमानदार ऑफीसर म्हणून सुप्रसिद्ध आहात. म्हणूनच आपण आपल्या केबीनमध्ये गांधिजींच्या दोन तसबिरी लावल्या आहेत का? एक मागे आणि एक पुढे? वर्मांच्या हाताखाली काम करणारे शर्मा आपल्या वरिष्ठांना विचारत होते.
`ते अशासाठी शर्मा, माझ्यासमोर बसलेल्या अपरिचिताने माझ्यामागे लावलेला गांधीजींचा फोटो बघून खोटे बलू नये आणि मी जेव्हा खोटे बोलेन, तेव्हा निश्चिंत असेन, की मला खोटं बोलताना गांधीजी बघत नाही आहेत. ‘आता काय सांगायचं, दहात आठ वेळा तरी मला खोटं बोलावं लागतं’ वर्मांच्या मनात आलं, पण ते बोलले नाहीत.
`पण सर, गांधीजींचा फोटो तर आपल्या पुढेही लावलेला आहे. त्याचं काय?’
`त्याचं काय आहे, मी. शर्मा, तुम्ही बघितलं असेल, की मी शिपायाला वारंवार बोलावून फोटो स्वच्छ पुसून आणायला सांगतो.’
`होय! बर्याचवेळा… म्हणूनच आपल्या समोरील फोटावर कधी धूळ दिसत नाही. पण मागचा फोटो मात्र धुळीनं भरलेला आहे.’
`त्याचं असं आहे शर्मा, जेव्हा मला खोटं बोलण्याची वेळ येते, तेव्हा, त्यापूर्वी मी शिपायाला बोलवून फोटो स्वच्छ पुसून आणायला सांगतो. शिपाई तसंही कुठलंही काम दोन तासांच्या आधी करतच नाही. भिंतीवरून फोटो हटवला जाताच, मी दोन-तीन फ्रॉड ठेके निपटून टाकतो.
‘वा:! काय बोललात! आता यावर चहा झालाच पाहिजे.’
`जरा थांबा. गांधीजी येऊ देत. तसंही कुठल्याही सरकारी कार्यालयात चहा पिण्याइतकं खरं काम दुसरं कोणतं होत असेल?’ आणि दोघेही हास्य-विनोदात बुडून गेले.
मूळ हिंदी कथा – गांधी को आने दो मूळ लेखिका- मृदुला श्रीवास्तव
भावानुवाद – श्रीमती उज्ज्वला केळकर
176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.- 9403310170
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक हाइबन “जलमहल”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन # 65 ☆
☆ जलमहल ☆
चित्तौड़गढ़ का किला जितना अद्भुत है उतनी ही अद्भुत पद्मिनी की कहानी है। कहते हैं कि रानी पद्मिनी अति सुंदर ही थी। जिसकी एक झलक देखने के लिए अलाउद्दीन खिलजी बेताब था। उस ने सब तरह के यतन किए। तब वह अंततः रानी पद्मिनी को देखने की अनोखी तरकीब के कारण कामयाब हुआ था।
उस तरकीब के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी को पद्मिनी रानी के दर्शन कराए गए थे । रानी पद्मिनी की विश्व प्रसिद्ध महल में पद्मिनी रानी बैठी थी । पास के कमल जल तालाब में स्वच्छ पानी भरा था । अलाउद्दीन खिलजी को इसी तालाब के पानी में रानी के प्रतिबिंब यानी छायाकृति दिखाई गई थी।
यहां के महल की अद्भुत कृतित्व और रानी पद्मिनी के अद्वितीय सौंदर्य ने उस समय अलाउद्दीन खिलजी को अभिभूत कर दिया था। उस के मन में रानी पद्मिनी को पाने की उत्कट इच्छा जागृत हो गई थी। जिस की परिणति युद्ध में हुई थी।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ दो लघुकथायें ☆
एक : अपने आदमी
यह तीसरी बार हो रहा था ।
मैंने तीसरी बार किसी लड़के को नकल करते पकड़ा था औ, बदकिस्मती से वह भी किसी मास्टर, का अपना आदमी निकल आया था। मुझे फिर ठंडी चेतावनी ही मिली थी।
पहली बार हैड का लड़का ही मेरी पकड़ में आ गया था । जब मैं उसे किसी विजयी भावना में लिए जा रहा था तो पीठ पीछे सभी साथी मुस्कुरा रहे थे । नया होने की वजह से मुझे किसी के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था । और वे जानते बूझते मुस्कुरा रहे थे । हैड ने उसे यह कह कर छोड़ दिया था कि अपना शरारती बेटा है , आपसे मज़ाक कर रहा होगा ।
दूसरी बार मैंने फिर ईमानदारी से ड्यूटी करते हुए एक लड़के को रंगे हाथों नकल करते लपका था । उसकी वजह से मुझे उस प्राइवेट स्कूल के मैनेजर का सामना करना पड़ा था । वह उनका सुपुत्र जो था और मुझे नौकरी करनी थी ।
तीसरी बार खेल प्रशिक्षक भागे चले आए थे और मेरे कंधे पर आत्मीयता का भाव लादते हुए बता गये थे कि वह स्कूल का श्रेष्ठ खिलाड़ी है ।
अब मैंने कातर दृष्टि से अपने आसपास देखना शुरू कर दिया है कि जिससे मुझे मालूम हो जाये कि अपने आदमी कहां नहीं हैं ,,,
तब से मैं एक भी आदमी पर उंगली नहीं रख पाया हूं ,,,
दो : राजनीति के कान
– मंत्री जी , बड़ा कहर ढाया है ,,,आपने ।
-किस मामले में भाई?
– अपने इलाके के एक मास्टर की ट्रांस्फर करके ।
-अरे , वह मास्टर ? वह तो विरोधी पार्टी के लिए भागदौड़,,,
-क्या कहते हैं हुजूर ?
– उस पर यही इल्जाम है ।
– ज़रा चल कर कार तक पहुंचने का कष्ट करेंगे?
– क्यों ?
– अपनी आंखों से उस मास्टर को देख लीजिए । जो चल कर आप तक तो पहुंच नहीं पाया । बदकिस्मती से उसकी दोनों टांगें बेकार हैं । और भागदौड़ करना उसके बस की बात कहां ? जो अपने लिए भागदौड़ नहीं कर सकता , वह किसी के विरोध में क्या भागदौड़ करेगा ?
– अच्छा भाई । तुम तो जानते हो कि राजनीति के कान बहुत कच्चे होते हैं और आंखें तो होती ही नहीं । खैर । आपने कहा है तो मैं इस गलती को दुरुस्त करवा दूंगा ।
खिसियाए हुए मंत्री जी ने कहा जरूर लेकिन आंखों में कहीं पछतावा नहीं था ।
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादकश्री विजय कुमार जी की लघुकथा “आशीर्वाद ”।)
☆ लघुकथा – आशीर्वाद ☆
“अरे वाह मीनू, तुम्हारे तो ऑफिस के सारे के सारे लोग पहुंचे हुए हैं, रौनक लगवा दी तुमने तो,” अनिल ने कहा।
“बुलाने का तरीका होता है, ऐसे थोड़े ही कोई आता है,” मीनू ने मुस्कुराते हुए कहा।
“वह कैसे?” अनिल ने उत्सुकता से पूछा।
मीनू ने बताया, “मैं अपने ऑफिस में कार्ड के साथ सभी को मिठाई का डिब्बा दे रही थी। मैंने अपने सभी साथियों से कहा था, ‘मेरी बेटी की शादी में उसे आशीर्वाद देने अवश्य ही आइयेगा।’
इस पर सुशील बोला, ‘शायद मैं न आ पाऊँ, पर मैं प्रताप के हाथों शगुन का लिफाफा अवश्य ही भेज दूंगा।‘
इस पर मैंने कहा, ‘यदि आप नहीं आ सकते तो न आएं, किन्तु शगुन का लिफाफा भी मत भेजिएगा। मैं यह कार्ड और मिठाई शगुन के लिफाफे के लिए नहीं दे रही हूँ। ये मेरी अपनी ख़ुशी है जो मैं आप सब से साझा कर रही हूँ, और इसलिए दे रही हूँ कि यदि आप आएंगे तो मेरी बेटी की शादी में रौनक बढ़ेगी और उसे आप सबका आशीर्वाद भी मिलेगा। इसलिए मेरा निवेदन है कि आप सभी लोग शादी में अवश्य आएं। और हां, शगुन का लिफाफा मैं सिर्फ उसी से लूंगी जो मेरी बेटी को शादी में उसे आशीर्वाद देने पहुंचेगा, अन्यथा नहीं।‘
“तभी आज शादी में ऑफिस के सभी लोग बेटी को आशीर्वाद देने आए हुए हैं।” अनिल मुस्कुरा दिया।