हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 21 ☆ लघुकथा – गले का हार ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और शिक्षाप्रद लघुकथा गले का हार।  कुछ बातें  हम अनुभव से ही सीख पाते हैं।  हम अभी भी बच्चों की छोटी छोटी समस्याओं के लिए नानी के नुस्खे ही आजमाते हैं।  श्रीमती कृष्णा जी ने  इस तथ्य को बड़ी ही सहजता से समझने का सफल प्रयास किया है।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 21 ☆

☆ लघुकथा  – गले का हार ☆

 

मत दिखाओ मोबाइल पूरे समय आँखे दुखने लगेगी और दिमाग पर भी असर होगा……आभा ने अरु को मोबाइल में कार्टून फिल्में न दिखाने के लिये बेटी से कहा..पर बेटी ने उसे ही सुना दिया ..माँ फिर अरु नयी  नयी बातें कैसे सीखेगा?  विज्ञान, ज्ञान और जनरल बातें कैसे सीखेगा ..आभा ने उसे किसी भी काम को करके सीखने का सुझाव दिया पर बेटी ने बात अनसुनी कर दी.  जब भी अरु कुछ ऊधम मचाता  बेटी उसे मोबाइल पकड़ा देती. ठंड के दिन थे उन्हीं दिनो की बात है. एक रात बड़ी देर तक वह कार्टून देखते देखते सो गया तीन बजे रात को अरु बहुत जोर-जोर से रोने लगा. बेटी दामाद उसे चुप कराने लगे पर वह चुप न हुआ.

उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि उसे क्या तकलीफ है? वे बड़े परेशान हो गये.  आभा ने अरु को उठाया और उसके दोनों कानों को अपने दोनों हाथ से कस कर दबा दिया. अरु को अच्छा लगा और वह आभा की गोद मे बैठ गया और हाथ न हटाने दिया.

सब समझ गये उसके कान में तकलीफ है. आभा ने गरम कपड़े से उसके दोनों कान को दबाये रखा. उतनी ही रात को डाक्टर को फोन किया और स्थिति बताई डाक्टर ने बीस से पच्चीस मिनट तक कानों को दबाये रखने और सुबह क्लीनिक लाने की सलाह दी. अरु आभा की ही गोद मे कुछ देर में आराम लगने पर सो गया. डाक्टर ने ठंड लगना और अधिक नींद आने पर बगैर गरम कपड़े ओढे सोने पर यह हुआ. उस दिन से आभा उसके साथ अधिक समय बिताने लगी. वही अब उसक गले का हार बन गया था. उस दिन के बाद से अरु नानी को हर बात बताता और क्या खेलना यह बताता और नानी नाती साथ साथ खेलते घूमते ….

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 43 – लघुकथा – विलुप्त ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक और बाल मन की उत्सुकता, भोलापन एवं  मनोविज्ञान पर आधारित  लघुकथा  “ विलुप्त ।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह  एक  सार्थक एवं  शिक्षाप्रद कथा है  जो  बालमन के माध्यम से संकेतों में हमें विचार करने हेतु बाध्य कराती है । इस सर्वोत्कृष्ट विचारणीय लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 43 ☆

☆ लघुकथा  – विलुप्त

आठ बरस की अवनी लगातार कई महीनों से निर्भया केस के बारे में पेपर में देख और पढ़ रही थी। मम्मी को भी टेलीविजन और पड़ोस की वकील आंटी के साथ चर्चा भी उसी के बारे में करते हुए सुनती थी। अवनी ज्यादा तो समझ नहीं सकी। पर जब भी मम्मी निर्भया का नाम लेती तो ‘दरिंदे जानवर’ कहती थी।

उसके बाल मन पर डायनासोर की छवि उभर कर आती थी, क्योंकि एक बार स्कूल में टीचर ने बताया था कि डायनासोर की उत्पत्ति संसार को विनाश कर सकती थी। अच्छा हुआ दरिन्दे डायनासोर जानवर की प्रजाति ही ईश्वर ने विलुप्त कर दी।

एक दिन वह गार्डन में मम्मी के साथ खेल रही थी। अचानक पड़ोस की सभी आंटी और वकील आंटी भी वहां पर आए, और निर्भया के बारे में बात होने लगी। फिर मम्मी ने वही शब्द बोली ‘निर्भया के दरिंदे जानवर’ !!!! बस अवनी थोड़ी देर बच्चों के साथ खेली, परंतु उसका खेल में मन नहीं लगा दौड़कर मम्मी के पास आकर बोली… “मम्मी क्या यह निर्भया के दरिंदों वाले जानवर की प्रजाति विलुप्त नहीं हो सकती। जिससे फिर कोई निर्भया नहीं बन पाए?” सभी एक दूसरे का मुंह देखने लगे, परंतु अवनी को क्या समझाते?

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी – ☆ जानवर ☆ – श्री सदानंद आंबेकर

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित  यह समसामयिक कहानी  ‘जानवर’ हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती है । यह वास्तव में  यह विचारणीय प्रश्न है कि – वसुधैव कुटुम्बकम  एवं वैश्विक ग्राम की परिकल्पना करने वाले हम  मानवों की मानसिकता कहाँ जा रही है।  जो जंगल में रह रहे हैं वे जानवर हैं या कि हम ? बंधुवर  श्री सदानंद जी  की यह कहानी पढ़िए और स्वयं तय करिये। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

 लघुकथा  – जानवर

नंदनवन में सभी पेड़ उदास भाव से अपनी पत्तियां हिला रहे थे, दूधिया झरना भी मंदगति से बह रहा था। मुख्य वन में दो सौ साल पुराने बरगद के नीचे जंगल के सभी जानवर एकत्रित होकर चिंतित भाव से बैठे दिख रहे थे।

एक लंबी उसांस भर कर चीकू खरगोश  ने पूछा – भूरे दादा, आदमियों की इस बस्ती में इतना सन्नाटा क्यों पसरा है ? परसों, वहां से मेरे  दूर के भाई कबरा को उसके मालिक ने छोड दिया तो उसने आकर बताया कि सारे लोग अपने-अपने घरों में बंद होकर बैठे हैं। उसने कहा कि बाहर हवा इतनी साफ और नदी इतनी चमचम कि मुझे लगा मैं नंदनवन में आ गया हूं।

सरकू सांप ने बीच में ही बात छेडी कि अरे मैं भी कल चूहे खाने शहर की सीमा में गया तो मुझे देखकर कोई डरा नहीं और किसी ने भी मुझे मारने की कोशिश नहीं की।

चूहे का नाम आते ही जानवरों में शोर-शराबा शुरू  हो गया। चूहा, चमगादड़ और बंदर एक साथ बोल पड़े हां, हां शहरों में रहने वाले हमारे रिश्तेदारों ने भी हमें बताया है कि एक अत्यंत घृणित देश  में भी हमें खाने की परंपरा एकदम बंद हो गई है, इस पर उन्हें बड़ा आश्चर्य हो रहा है।

इस चख-चख के चलते बूढे़ बरगद दादा ने भी बहुत धीमी आवाज में कहा- हां. . . . . . . . . . . . मैं भी देख रहा हूं कि पिछले कुछ दिनों से इस जंगल में भी पेड काटने कोई नहीं आया है।

उनकी बात सुनकर जंबो हाथी चाचा ने जोर जोर से सिर हिलाकर सूंड उठाकर कहा- अरे वहां तो इतना सन्नाटा है कि अब तो हमारी पत्नी और बच्चे, मेरे अड़ोसी-पड़ोसी, रोज हर की पैडी पर गंगा में नहाने जा रहे हैं। एक दिन तो हम हरिद्वार के बाजार में भी घूम आये पर हमें भगाने के लिये कोई भी आगे नहीं आया ।

यह सब सुनते हुये भूरे भालू दादा ने बडे गंभीर स्वर में कहा- सुनो-  मैं बताता हूं तुम्हें, इन सबके पीछे क्या कारण है। मनुष्यों  में इन दिनों कोई बहुत गंभीर बीमारी फैल रही है, असल में मनुष्य  भी बहुत ही गलत आदतों में डूब गया था, पर मुझे ये बिलकुल ठीक नहीं लग रहा है। मनुष्य  और हम जानवर  इस धरती पर ख़ुशी-ख़ुशी  रहने के लिये बनाये गये हैं, अगर वे हमें मारते-परेशान करते हैं तो क्या, उन्हें यह बात अब समझ आ गई है। इसलिये आओ- हम सब मिल कर वनदेवी से प्रार्थना करते हैं कि इन मनुष्यों  को इस मुसीबत से छुटकारा दिलवा दे। बेचारे बहुत ही कष्ट में हैं, इनके लिये अब  इतनी सजा ही काफी है।

भूरे दादा की बात सबको समझ आ गई और प्रार्थना करने के लिये हाथी चाचा ने सूंड लंबी कर के ऐसी जोरदार चिंघाड लगाई कि पूरा जंगल हिल गया और मैं भी पलंग से नीचे गिर पड़ा और मेरी नींद खुल गई।

थोड़ा सचेत होते ही इस सपने को याद कर के मैं यह सोचने लगा कि जंगली जानवर वे हैं या हम मनुष्य  ??

 

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार ( उत्तराखंड )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 42 ☆ कितना बदल गया इंसान ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  दो जमानों को जोड़ती और विश्लेषित करती एक  लघुकथा   “कितना बदल गया इंसान” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की  रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 42

☆ लघुकथा – कितना बदल गया इंसान ☆ 

गांव का खपरैल स्कूल है ,सभी बच्चे टाटपट्टी बिछा कर पढ़ने बैठते हैं।  फर्श गोबर से बच्चे लीप लेते हैं,  फिर सूख जाने पर टाट पट्टी बिछा के पढ़ने बैठ जाते हैं।  मास्टर जी छड़ी रखते हैं और टूटी कुर्सी में बैठ कर खैनी से तम्बाकू में चूना रगड़ रगड़ के नाक मे ऊंगली डालके छींक मारते हैं, फिर फटे झोले से सलेट निकाल लेते हैं। बड़े पंडित जी जैसई पंहुचे सब बच्चे खड़े होकर पंडित जी को प्रणाम करते हैं।  हम सब ये सब कुछ दूर से खड़े खड़े देख रहे हैं। पिता जी हाथ पकड़ के बड़े पंडित जी के सामने ले जाते हैं ,पहली कक्षा में नाम लिखाने पिताजी हमें लाए हैं अम्मा ने आते समय कहा उमर पांच साल बताना ,  सो हमने कह दिया  पांच साल………….बड़े पंडित जी कड़क स्वाभाव के हैं पिता जी उनको दुर्गा पंडित जी कहते हैं । दुर्गा पंडित जी ने बोला पांच साल में तो नाम नहीं लिखेंगे।  फिर उन्होंने सिर के उपर से हाथ डालकर उल्टा कान पकड़ने को कहा  कान पकड़ में नहीं आया।  तो कहने लगे हमारा उसूल है कि हम सात साल में ही नाम लिखते हैं।  सो दो साल बढ़ा के नाम लिख दिया गया।  पहले दिन स्कूल देर से पहुंचे तो घुटने टिका दिया गया।  सलेट नहीं लाए तो गुड्डी तनवा दी, गुड्डी तने देर हुई तो नाक टपकी, मास्टर जी ने खैनी निकाल कर चैतन्य चूर्ण दबाई फिर छड़ी की ओर और हमारी ओर देखा बस यहीं से जीवन अच्छे रास्ते पर चल पड़ा।  अपने आप चली आयी नियमितता, अनुशासन की लहर, पढ़ने का जुनून, कुछ बन जाने की ललक। पहले दिन गांधी को पढ़ा। कई दिन बाद परसाई जी का “टार्च बेचने वाला” पढ़ा,  फिर पढ़ते रहे और पढ़ते ही गए ………

गांव के उसी स्कूल की खबरें अखबारों में अक्सर पढने मिलती हैं कि

“मास्टर जी ने बच्चे का कान पकड़ लिया तो हंगामा हो गया ….. स्कूल का बालक मेडम को लेकर भाग गया………. स्कूल के दो बच्चों के बीच झगड़े में छुरा चला”

आज के अखबार में उसी स्कूल की ताजी खबर ये है कि स्कूल के मास्टर ने कोरोना वायरस के कारण बंद स्कूल के क्लासरूम में ग्यारहवीं में पढ़ने वाली छात्रा की इज्जत लूटी और लाॅक डाऊन का उल्लंघन किया…….

अखबार को दोष दें या ऐन वक्त पर कोरोना को दोष दें या अपने आप को दोष दें कि ऐसे समाचार रुचि लेकर हर व्यक्ति क्यों पढ़ता है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 45 ☆ लघुकथा – आचार्य का हृदय-परिवर्तन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है लघुकथा  ‘आचार्य का हृदय-परिवर्तन ’। डॉ परिहार जी ने प्रत्येक चरित्र को इतनी खूबसूरती से शब्दांकित किया है कि हमें लगने लगता  है जैसे हम भी पूरे कथानक में  कहीं न कहीं मूक दर्शक बने खड़े हैं। ऐसी अतिसुन्दर लघुकथा के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 45 ☆

☆ लघुकथा – आचार्य का हृदय-परिवर्तन ☆

 

हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान, भाषा-शास्त्र में डी.लिट.,आचार्य रसेन्द्र झा मेरे शहर में एक शोध-छात्र का ‘वायवा’ लेने पधारे थे। पता चला कि वे मेरे गुरू डा. प्रसाद के घर रुके थे जो उस छात्र के ‘गाइड’ थे। उनकी विद्वत्ता की चर्चा से अभिभूत मैं उनके दर्शनार्थ सबेरे सबेरे डा. प्रसाद के घर पहुँचा। देखा तो आचार्य जी गुरूजी के साथ बैठक में नाश्ता कर रहे थे।

मैं आचार्य जी और गुरूजी को प्रणाम करके बैठ गया। गुरूजी ने आचार्य जी को मेरा परिचय दिया।कहा, ‘यह मेरा शिष्य है। बहुत कुशाग्र है। इसका भविष्य बहुत उज्ज्वल है।’

आचार्य जी ने उदासीनता से सिर हिलाया, कहा, ‘अच्छा, अच्छा।’

मैंने कहा, ‘आचार्य जी, आपकी विद्वत्ता की चर्चा बहुत सुनी थी। आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी, इसी लिए चला आया।’

आचार्य जी ने जमुहाई ली,फिर कहा, ‘ठीक है।’

इसके बाद वे डा. प्रसाद की तरफ मुड़कर अपने दिन के कार्यक्रम की चर्चा करने लगे। मेरी उपस्थिति की तरफ से वे जैसे बिलकुल उदासीन हो गये। मुझे बैठे बैठे संकोच का अनुभव होने लगा।

बात चलते चलते उनके यूनिवर्सिटी के टी.ए.बिल पर आ गयी।

डा. प्रसाद ने मेरी तरफ उँगली उठा दी। कहा, ‘यह सब काम देवेन्द्र करेगा। यह टी.ए.बिल निकलवाने से लेकर सभी कामों में निष्णात है। आप देखिएगा कि आपका भुगतान कराने से लेकर आपको ट्रेन में बैठाने तक का काम किस कुशलता से करता है।’

आचार्य जी का मुख मेरी तरफ घूम गया। अब उनके चेहरे पर मेरे लिए असीम प्रेम का भाव था। उदासीनता और अजनबीपन के सारे पर्दे एक क्षण में गिर गये थे और वे बड़ी आत्मीयता से मेरी तरफ देख रहे थे।

उन्होंने अपनी दाहिनी भुजा मेरी ओर उठायी और प्रेमसिक्त स्वर में कहा, ‘अरे वाह! इतनी दूर क्यों बैठे हो बेटे? इधर आकर मेरी बगल में बैठो।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ लॉकडाउन ☆ श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’

( ई- अभिव्यक्ति में  श्री अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’जी का हार्दिक स्वागत है।साहित्य की सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर। प्रकाशन – 4 पुस्तकें प्रकाशित 2 पुस्तकें प्रकाशनाधीन 3 सांझा प्रकाशन। विभिन्न मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं में लघु कथाएं, कविता, कहानी, व्यंग्य, यात्रा वृतांत आदि प्रकाशित होते रहते हैं । कवि सम्मेलनों, चैनलों, नियमित गोष्ठियों में कविता आदि  का पाठन तथा काव्य  कृतियों पर समीक्षा लेखन। कई सामाजिक कार्यक्रमों में सहभागिता। भोपाल की प्राचीनतम साहित्यिक संस्था ‘कला मंदिर’ के उपाध्यक्ष। प्रादेशिक / राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों / अलंकरणों  से  पुरस्कृत /अलंकृत। आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक प्रेरक लघुकथा ‘लॉकडाउन ‘. )

☆ लघुकथा  – लॉकडाउन ☆

सीमा ने अपना पर्स उठाया और बच्ची सानू से कहा:-

” सानू, खाना खा लेना। मुझे देर हो रही है। आज चार बत्ती चौराहे पर मेरी ड्यूटी है। वहां कुछ लोग इकट्ठे हो रहे हैं। लाकडाउन टूटने की पूरी- पूरी संभावना है। यदि एक भी संक्रमित व्यक्ति वहां पहुंच गया तो कोरोना के फैलने का 100% खतरा है।”

सीमा स्वास्थ्य विभाग की कर्मचारी थी तथा हमीदिया अस्पताल में सीनियर नर्स के रूप में काम करती थी। सेवा क्षेत्र में उसका बड़ा नाम था। उसकी वरिष्ठता और कार्य के प्रति समर्पण के कारण आज संवेदनशील स्थान पर ड्यूटी लगाई गई थी।

“पर मम्मी! लाकडाउन चल रहा है। लाकडाउन में किसी को भी घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं है। यह कोरोना वायरस किसी को भी चपेट में ले सकता है। मम्मी! प्लीज , तुम ड्यूटी पर मत जाओ। अपनी तबीयत खराब की सूचना अस्पताल में दूरभाष पर दे दो।  विभाग कोई और व्यवस्था कर लेगा।”-सानू ने स्कूटी बाहर निकालती हुई मम्मी से कहा।

” बेटा, ऐसा ही सब करने लगें तो फिर शासन-प्रशासन का काम कैसे चलेगा? जब देश पर शत्रु देश आक्रमण करता है तो सभी फौजियों की छुट्टियां निरस्त हो जाती हैं। सारे फौजी देश की रक्षा के लिए स्वयं उपस्थित हो जाते हैं। आजकल तो जो यह महामारी फैली है , यह युद्ध से भी ज्यादा खतरनाक है। कोई देश एक दूसरे की सहायता नहीं कर पा रहा है। जब देश को हमारी आवश्यकता हो और उसी समय हम छुट्टी ले लें। इससे बड़ा पाप और देश के प्रति गद्दारी का कार्य और कुछ नहीं हो सकता।”- सीमा ने अपनी बेटी सानू को समझाया।

“लेकिन मम्मी, टीवी पर जो खबर आ रही है, वह बहुत ही खतरनाक है। जिन बीमारों को बचाने के लिए आप लोग जाते हैं, वही आप लोगों पर थूकते हैं, मारने के लिए दौड़ते हैं, इस तरह से तो आप सभी लोग भी संक्रमित हो जाएंगे। दूसरों को बचाने के लिए जानबूझकर संकट क्यों बुलायें? मम्मी कुछ लोग बहुत खतरनाक हैं। आप लोग इनकी जान बचायें और ये आप लोगों की जान लेने पर आमादा हो जाएं। नहीं ! नहीं !! मम्मी प्लीज, आप ऐसे लोगों के बीच मत जाइए।”

“बेटा, आदमी कैसे भी हों , हैं  तो अपने ही देश के नागरिक। उन्हें कोई गलतफहमी हो गई है। धीरे-धीरे सब समझ जाएंगे और फिर बेटा ऐसा ही फौज में युद्ध के समय होता है।  यह तय होता है कि किसी ना किसी दुश्मन की गोली से सैनिक को मरना है। अब यह सोचकर सैनिक मोर्चे पर ना जाए , क्या यह संभव और उचित है ? युद्ध के समय तो सैनिक के अंदर देश की रक्षा के लिए दोहरी ताकत काम करने लगती है। वह खुशी-खुशी मोर्चे पर जाने के लिए उपस्थित हो जाता है। ना …..ना ……..बेटा ! तुम पाप कर्म के लिए मुझे प्रेरित मत करो। अपना ध्यान रखना। घर से बाहर मत निकलना और खाना समय पर खा लेना।”– यह कहते-कहते सीमा ने अपनी स्कूटी स्टार्ट कर ली।

“मम्मी, एक मिनट रुकना। मैं अभी आई। यह कह कर सानू ने घर के अंदर दौड़ लगा दी और घर से कुछ फूल हाथों में लाकर उसने मम्मी के ऊपर बरसा दिये। अब वह मुस्कुराते हुए मम्मी को ड्यूटी के लिए विदा कर रही थी।

 

© अशोक कुमार धमेंनियाँ  ‘अशोक’

भोपाल म प्र

मो0-9893494226

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कालजयी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – कालजयी ☆

…कितना धीरे धीरे चढ़ते हैं आप! देखो, मैं कैसे फटाफट दो-दो सीढ़ियाँ एक साथ चढ़ रहा हूँ..! लिफ्ट खराब होने के कारण धीमी गति से घर की सीढ़ियाँ चढ़ रहे दादा जी से नौ वर्षीय पोते ने कहा। दादा जी मुस्करा दिए। अनुभवी आँख के एक हिस्से में अतीत और दूसरे में भविष्य घूमने लगा।

अतीत ने याद दिलाया कि बरसों पहले, अपने दादा जी को मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ाते समय यही बात उन्होंने अपने दादा जी से कही थी। उनके दादा जी भी मुस्कुरा दिए थे।

भविष्य की पुतली दर्शा रही थी कि लगभग छह दशक बाद उनके पोते का पोता या पोती भी उससे यही कहेंगे। दादा जी दोबारा मुस्कुरा दिए।

जगत के पटल पर एक ही कथा का अनादि काल से मंचन हो रहा है। पात्र, श्रोता, दर्शक, पाठक निरंतर बदलते रहे हैं। कविता हो या कहानी, लघुकथा या  उपन्यास, जो सर्वदा समकालीन हो, वही साहित्य कालजयी कहलाता है।

 

# स्वस्थ रहें, घर पर रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

11.39 बजे, 8.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ डायरी के पन्ने मात्र नहीं हैं जिंदगी ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक अत्यंत प्रेरक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा डायरी के पन्ने मात्र नहीं हैं जिंदगी। निःशब्द, अतिसुन्दर लघुकथा, कथानक एवं कथाशिल्प। यह सत्य है कि यदि हम डायरी लिखते हैं ,तो वे दो डायरियां होती हैं। एक वह जो हम  कागज के पन्नों पर लिखते हैं और उसे आप पढ़ सकते हैं। दूसरी वह जो हम ह्रदय के पन्नों पर लिखते हैं जिसे सिर्फ हम ही पढ़ सकते हैं । ऐसी शख्सियत बिरली होती है जिनकी दोनों डायरियां एक सी होती हैं।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

☆ लघुकथा – डायरी के पन्ने मात्र नहीं हैं जिंदगी

सामने रखी पुरानी डायरी के पन्ने फड़ फडा़ रहे थे और जबरन दबाई गयी यादें उससे भी अधिक उफन रहीं थीं।

ऐसा लगा अभी कल ही की तो बात है जब पिताजी ने कक्षा एक में नाम लिखवाया था – – कुछ दिनों पहले ही तो भैय्या ने रिजल्ट्स के पहले ही दोस्तों के पूछने पर कह दिया था कि राजी तो फ़र्स्ट क्लास पास हो गई है – कई बार ऊंचे खानदानों के रिश्ते  – -पिताजी ने लौटा दिए यह  कह कर कि “मेरी होनहार मेरिट वाली बिटिया है उसे चूल्हे चौके की भट्टी में नहीं झोंकना है उसे तो मैं बडी अफसर बनाऊंगा” – – – इतना भरोसा, इतना विश्वास, इतनी तमन्नाएं जहां जुड़ी हों वहां यकायक कैसे कह दे राजी कि वह पढाई अधूरी छोड़ कर दूसरी जाति के शिवम  के साथ सात फेरे ले चुकी है – – कि शिवम के वृद्ध बीमार माता-पिता की सेवा में उसे जीवन की रवानी मिल रही है

इसी उहापोह में एक दिन राजी ने डायरी में लिखा “भैय्या, मां और पिताजी बिस्तर पर पडे़ कराहते रहते हैं – टीनू मीनू गंदी यूनिफार्म में ही कई बार रोती हुई स्कूल चली जाती हैं। सबेरे नौ से पांच की ड्यूटी के बाद थक कर चूर भाभी बिखरे घर को समेटने में बेहाल सी लगी रहतीं हैं और रात को सोने से पहले पढीलिखी महिला की तरह डायरी लिखती हैं “आज का प्यारा दिन बीत गया – – आदि आदि। लेकिन भैया मैं ऐसा झूठा सच नहीं बनना चाहती। पढ लिख कर कामकाजी महिला की डायरी का झूठा पन्ना नहीं बनना चाहती। आप लोगों ने मुझे पढा लिखा कर बढ़िया पद पर कार्यरत महिला बनाने का सपना संजोया है लेकिन मखमली सपनों को कांटो के ताज में बदलते देखा है मैंने बुआ, भाभी और दीदी की जिंदगी में।

मैंने जीवन की डायरी का सच्चा पन्ना बनना स्वीकार किया है भैया। शिवम को उसके माता-पिता और बहन की चिंता से मुक्त करके उनके बिखरे घर को समेटने का संकल्प लिया है। आशीर्वाद दें कि मैं जिंदगी की इस परीक्षा में फर्स्ट क्लास फर्स्ट पास  होती रहूँ – – मैं डायरी का झूठा पन्ना नहीं बनना चाहती भैया आशीर्वाद दें कि जिंदगी का सच्चा प्रमाण पत्र बनूं”

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 42 ☆ समय की धार ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है एक सार्थक लघुकथा  समय की धार।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 42 – साहित्य निकुंज ☆

☆ समय की धार

इंदू की बाहर पोस्टिंग हो जाने बाद आज उसका फोन आया. वहां के सारे हालचाल सुनाए और निश्चितता से कहा बहुत मजे से जिंदगी चल रही है.

हमने ना चाहते भी पूछ लिया अब शादी के बारे में क्या ख्याल है यह सुनते ही उसका गला भर आया.

उसने कहा..” मां बाबूजी भी इस बारे में बहुत फोर्स कर रहे हैं लेकिन मन गवाही नहीं दे रहा कि अब फिर से वही जिंदगी शुरू की जाए पुराने दिन भुलाए नहीं भूलते.”

हमने समझाया ” सभी एक जैसे नही होते, हो सकता है कोई इतना बढ़िया इंसान मिले कि तुम पुराना सब कुछ भूल जाओ.”

“दी कैसे भूल जाऊं वह यादें… ,कितना गलत था मेरा वह निर्णय, पहले उसने इतनी खुशी दी और उसके बाद चौगुना दर्द , मारना -पीटना, भूखे रखना. उसकी मां जल्लादों जैसा व्यवहार करती थी.

मां बाप की बात को अनसुना करके बिना उनकी इजाजत के कोर्ट मैरिज कर ली और हमारे जन्म के संबंध एक पल में टूट गये.”

“देखो इंदु , अब तुम बीती बातों को भुला दो और अब यह आंसू बहाना बंद कर दो.”

दी यह मैं जान ही नहीं पाई कि जो व्यक्ति इतना चाहने वाला था वह शादी के बाद ही गिरगिट की तरह रंग कैसे बदलने लगा.”

“इंदु  अब तुम सारी बातों को समय की धार में छोड़ दो.”

“नहीं दी यह मैं नहीं भूल सकती मैंने अपने माता पिता को बहुत कष्ट दिया,

इसका उत्तर भगवान ने हमें दे दिया.”

“इंदु एक बात ध्यान रखना माता -पिता भगवान से बढकर है, वे अपनी संतान को हमेशा मांफ कर देते है.”

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 25 ☆ लघुकथा – सोच — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “सोच —-”।  यह लघुकथा हमें  एक सकारात्मक सन्देश देती है।  परिवार के सभी सदस्यों को अपनी सोच बदलने की  आवश्यकता  है। वैसे  इस मंत्र को आज सभी  ने महसूस किया है एवं उसका अनुपालन भी हो रहा है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद खूबसूरत सकारात्मक रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 25 ☆

☆ लघुकथा – सोच —-

माँ ! भाभी की मीटिंग तो खत्म ही नहीं हो रही है.

तो तुझे क्या करना है? कुछ काम है भाभी से?

अरे नहीं,  लॉकडाउन की वजह से खाना बनानेवाली काकी तो नहीं आएगी ना? बर्तन, कपडे, झाडू-पोंछा सब करना पडेगा हमें?

हाँ, तो क्या हुआ? पहले नहीं करते थे क्या हम सब? कामवाली बाईयां तो अब कोरोना महामारी  खत्म होने के बाद ही आएगी. लॉकडाउन की वजह से कोई कहीं आ-जा नहीं सकता है.

हाँ वही तो मैं भी कह रही हूँ और भाभी हर समय अपने ऑफिस के काम में ही लगी रहती हैं, घर के काम कौन करेगा? निधि ने मुँह बनाते हुए कहा.

ओह, तो अब समझ आया कि तुझे भाभी की इतनी याद क्यों आ रही है – सुनयना मुस्कुराती हुई बोली- ये बता जब तक तेरे भैया की शादी नहीं हुई थी तो घर के काम कौन करता था ?

मैं और तुम, हाँ छुट्टी वाले दिन पापा और भैया भी हमारी मदद कर दिया करते थे.

तो आज भाभी का इतना इंतजार क्यों हो रहा है? हम सब आराम से घर में बैठे हैं और वो बेचारी सुबह से लैपटॉप पर आँखें गडाए काम कर रही है. उसमें से भी जब समय मिलता है तो उठकर घर के काम निपटा देती है. उसका भी तो मन करता होगा ना थोडा आराम करने का, वह इंसान नहीं है क्या ? चल उठ, हम दोनों जल्दी से रसोई का काम निपटा देते है. सबको मिलकर काम करना चाहिए,  बहू अकेले कितना काम करेगी?

शुभा आज बहुत थक गई थी, सिर में दर्द भी हो रहा था.  आठ दस घंटे काम करने के बाद भी मैनेजर का मुँह चढा ही रहता है, इसी बात को लेकर मैनेजर से झिक-झिक भी हो गई थी. कोरोना के कारण लोग घर बैठकर बिना काम के बोर हो रहे थे पर आई टी वालों को तो घर से काम करना था. वह अपने कमरे से निकल ही रही थी कि उसे अपनी सास और नंद निधि की बातचीत सुनाई दी. उसकी आँखें भर आईं वह सोचने लगी काश! ऐसी ही सोच समाज में सबकी हो जाए?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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