हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 41 – घाव करे गंभीर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना घाव करे गंभीर )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 41 – घाव करे गंभीर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

कहानी एक छोटे से गाँव की है, जहाँ हम रामू से मिलते हैं, एक साधारण किसान जो सूरज की तपिश में काम करता है, उसके सपने उसके खेतों की तरह विस्तृत हैं। रामू की ज़िंदगी एक प्रकार की दृढ़ता की मिसाल है, जो पुराने कहावत का जीता-जागता प्रमाण है: “मेहनत का फल मीठा होता है।” सरकार, हमेशा एक दयालु देवता की भूमिका निभाने को तत्पर, मुफ्त शिक्षा, वित्तीय सहायता, और कौशल प्रशिक्षण की बौछार करने का वादा करती है। मीडिया इन पहलों का जश्न मनाते हुए, दीवाली की रात के उत्साह के साथ, उन लोगों की कहानियाँ प्रसारित करती है जिन्होंने अपनी ज़िंदगी बदल दी, जबकि रामू सोचता है कि उसकी बैंक की स्थिति क्यों खाली है।

इसी बीच, नौकरशाही का विशालकाय तंत्र, अपने जटिल प्रक्रियाओं के साथ, एक अनसुना खलनायक बनकर उभरता है। फॉर्म ऐसे जटिल होते हैं जैसे किसी नेता का भाषण, रामू की सहायता के लिए की गई आवेदनों का कोई अता-पता नहीं रहता। हर दिन, वह स्थानीय दफ्तर जाता है, केवल यह जानने के लिए कि वहाँ “आपात” बैठकों के लिए बंद है—जो उन अधिकारियों के चाय के अंतहीन कप का आनंद लेने के लिए निर्धारित होते हैं, जबकि आम आदमी बाहर इंतज़ार करता है। “एक दिन,” वे उसे आश्वासन देते हैं, “आप भी ऊंचा उठेंगे।” रामू केवल कड़वा हंसता है, जानता है कि असली उत्थान तो चाय के गहरे कप और अधिकारियों की आरामदायक कुर्सियों में है।

फिर मीडिया का प्रवेश होता है, जो आशा के संदेश वाहक होते हैं, जो जब एक सफलता की कहानी सामने आती है, तब कैमरा और रिपोर्टर लेकर आते हैं। वे एक चमकदार विज्ञापन प्रदर्शित करते हैं जिसमें एक युवा लड़की की कहानी होती है जो अपनी दृढ़ता के माध्यम से तकनीकी उद्यमी बन जाती है। “रगड़ से रौशनी!” वे चीखते हैं, जबकि रामू का दिल थोड़ा और भारी हो जाता है। उसे स्कूल के साल याद आते हैं, जहाँ उसने बॉलीवुड की भूगोल के बारे में तो ज्यादा सीखा, लेकिन अपने देश के भूगोल के बारे में बहुत कम। यह विडंबना उसके लिए छिपी नहीं है: वही मीडिया जो सफलता का जश्न मनाता है, उन अनसुने नायकों की ओर से बेखबर है जो गरीबी के चक्र में फंसे हुए हैं, स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते हुए।

जब रामू चमचमाते हेडलाइनों को देखता है, तो वह “मेक इन इंडिया” अभियान पर विचार करने से खुद को रोक नहीं पाता, एक चमकदार पहल जो देश को विनिर्माण महाशक्ति बनाने का वादा करती है। लेकिन असलियत में, यह अक्सर उन कारखानों का निर्माण करने के रूप में बदल जाती है जो श्रमिकों का शोषण करते हैं, जिन्हें वे खुद को उठाने का दावा करते हैं। रामू जानता है कि जब कारखाने विदेशी बाजारों के लिए उत्पादों का उत्पादन करते हैं, तो वह और उसके साथी किसान अपने आप को केवल सूखे फसलों और बढ़ते कर्ज में फंसा पाते हैं। “अहा, उत्थान का मीठा स्वाद,” वह व्यंग्यात्मक रूप से सोचता है, जब वह अपनी मेहनत के फल को कॉर्पोरेट लालच में गायब होते देखता है।

फिर भी, रामू आशावादी रहता है, नेताओं की प्रेरणादायक कहानियों से उत्साहित होकर, जो गरीबों के कारण का समर्थन करते हैं। “हम गरीबी को मिटा देंगे!” वे अपने मंचों से घोषणा करते हैं, उनकी आवाज़ें पूरे देश में एक सुखद लोरी की तरह गूंजती हैं। लेकिन जब कैमरे चमकते हैं और भीड़ ताली बजाती है, तो रामू यह नहीं देख सकता कि पास में खड़ी लक्जरी कारें, उनकी चमकती बाहरी चमक उस धूल भरी सड़क के विपरीत हैं, जिस पर वह चलता है। उनकी ज़ुबान से निकलने वाले शब्दों की विडंबना उसकी आँखों के सामने खुलती है, जब वे उन लोगों को उठाने का वादा करते हैं, जिनकी नीतियाँ उन्हें नजरअंदाज करती हैं।

इस उत्थान की भव्य कथा में, कथा का प्रवाह चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ता है: चुनाव। रामू पर वादों की बौछार होती है, हवा में उम्मीद और निराशा का घनत्व होता है। राजनीतिक नेता उसके गाँव में मानसून की तरह बरसते हैं, प्रत्येक एक रातोंरात उसके जीवन को बदलने का वादा करते हैं। “हमारे लिए वोट करो, और हम सड़कें, स्कूल, और अस्पताल बनाएंगे!” वे चिल्लाते हैं, उनकी आँखों में महत्वाकांक्षा और आत्म-स्वार्थ की चमक। विडंबना यह है? रामू के गाँव की सड़कों की मरम्मत लंबे समय बाद वोटों की गिनती के बाद भी नहीं होती, जिससे उसे यह सोचने पर मजबूर कर दिया जाता है कि क्या वह एक अलग भारत में जी रहा है।

जैसे-जैसे साल बीतते हैं, रामू के उत्थान के सपने सुबह की धुंध की तरह dissipate होते जाते हैं। सरकार द्वारा घोषित आंकड़े गरीबी दरों में कमी का प्रचार करते हैं, लेकिन रामू के लिए, हर दिन भाग्य की लहरों के खिलाफ एक निरंतर संघर्ष की तरह महसूस होता है। उत्थान की जीवंत कहानियाँ एक कड़वी याद दिलाती हैं कि सत्ता की बयानबाजी और अस्तित्व की वास्तविकता के बीच कितना बड़ा फासला है।

एक हताशा की स्थिति में, रामू उन सत्ताधारियों के नाम एक पत्र लिखता है, जिसमें वह अपनी पीड़ा को शब्दों में व्यक्त करता है जो अनगिनत अन्य लोगों की भावनाओं का गूंज करते हैं। “प्रिय नेता,” वह शुरू करता है, “आपके उत्थान की कहानियाँ तपती धूप पर एक मृगतृष्णा के समान आनंददायक हैं। जबकि आप भव्य भोज में बैठते हैं, हम आशा के अवशेषों पर जीवन बिताते हैं।” उसके शब्दों की विडंबना हवा में भारी लटकती है, एक महत्वपूर्ण याद दिलाते हुए कि देश में कितनी बड़ी दूरी है।

इस व्यंग्यात्मक उत्थान की कथा का परदा गिरते ही, कोई भी रामू के दिल में भारी दुःख का बोझ महसूस किए बिना नहीं रह सकता। रगड़ से रौशनी का वादा एक दूर का सपना बना रहता है, जो नौकरशाही, मीडिया की सनसनीखेजी, और राजनीतिक पाखंड के कुहासे के पीछे छिपा है। निष्कर्ष? एक गहरी हानि की भावना, यह एहसास कि जबकि सफलता की कहानियों का जश्न मनाया जाता है, अनगिनत जिंदगियों की वास्तविकता केवल इतिहास के पन्नों में एक फुटनोट बनकर रह जाती है।

अंत में, रामू क्षितिज की ओर देखता है, जहां सूरज रंगों के एक चमत्कारी शो में ढलता है, जो उसके सपनों की याद दिलाता है—चमकीला लेकिन अंततः पहुंच से बाहर। भारतीय उत्थान का मिथक सोने की तरह चमकता हो सकता है, लेकिन रामू और उसके जैसे कई लोगों के लिए, यह एक मृगतृष्णा बनकर रह जाता है, जो हमेशा के लिए सामर्थ्य और उत्थान की तलाश में संघर्षरत रहते हैं। जैसे ही वह मुड़ता है, एक बूँद आंसू उसके गाल पर बह जाती है, जो उन लाखों लोगों की मौन संघर्ष की गवाही है जो अक्सर भुला दिए जाते हैं।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 40 – साहब का हंटर और बाबू की बेबसी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना साहब का हंटर और बाबू की बेबसी)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 40 – साहब का हंटर और बाबू की बेबसी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

जब मिस्टर हरगोबिंद लाल (उर्फ हरि बाबू) को सरकारी दफ्तर में नया अफसर बना कर भेजा गया, तो उनके मन में बड़े-बड़े अरमान थे। उन्होंने बचपन से ही सरकारी सिस्टम के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। यह कि सरकारी दफ्तरों में लोग आलसी होते हैं, यह कि कर्मचारियों को सिर्फ वेतन से मतलब होता है और यह कि अफसरों को सख्ती करनी चाहिए। उन्होंने दफ्तर का कार्यभार सँभालते ही मैकेनिक की तरह मशीन को देखना शुरू किया।

मशीन में बड़े-बड़े मंत्री और वरिष्ठ अधिकारी थे, जो किसी और तर्ज़ पर काम कर रहे थे—अर्थात् अपने फायदे की। कर्मचारी इस मशीन के छोटे-छोटे पुर्जे थे, जिन्हें हरगोबिंद लाल सुधारने का ठान चुके थे। उनका सोचना था कि जब ये छोटे पुर्जे ठीक हो जाएंगे, तो पूरी मशीन सुचारू रूप से चलेगी। लेकिन उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि मशीन में सबसे बड़ी समस्या वे बड़े-बड़े मंत्री और अधिकारी खुद थे।

हरि बाबू के ऑफिस में अधिकतर कर्मचारी बुजुर्ग हो चुके थे। सरकार ने सालों से नई भर्ती नहीं की थी, और पुराने कर्मचारियों की रिटायरमेंट उम्र बढ़ा-बढ़ा कर काम चलाया जा रहा था। ये सभी अपनी कुर्सियों से ऐसे चिपके हुए थे, मानो यह उनकी पुश्तैनी जागीर हो। जब भी कोई सरकारी कार्यक्रम होता, तो मंच के सामने सफेद बाल, नकली दाँत और मोटे चश्मे पहने हुए कर्मचारियों की अच्छी-खासी प्रदर्शनी लग जाती।

हरगोबिंद लाल ने पहला आदेश जारी किया—”काम का समय सुबह 10 बजे से शाम 6 बजे तक रहेगा। कोई देर से नहीं आएगा, और कोई बिना काम किए नहीं जाएगा।”

कर्मचारियों ने उनकी ओर देखा और मुस्कुराए। उन्होंने अफसरों के बदलने की आदत डाल ली थी। कोई अफसर नया-नया आता, गर्मी दिखाता और कुछ ही महीनों में ठंडा पड़ जाता।

हरि बाबू ने जब कर्मचारियों से बातचीत शुरू की, तो उन्हें अलग ही जवाब मिले।

“सर, जब हमने नौकरी जॉइन की थी, तब से यही सुन रहे हैं कि फला योजना बहुत जरूरी है, अला योजना बहुत महत्वपूर्ण है। जब कोई नई फाइल आती है, तो कहा जाता है कि इसे तुरंत निपटाना है। साहब, हमारी हड्डियाँ अब थक चुकी हैं। पहले भी बहुत दौड़ चुके हैं, अब और नहीं दौड़ा जाता।”

हरि बाबू ने गुस्से में कहा, “यह सब बहानेबाजी नहीं चलेगी। इन्क्रीमेंट, डी.ए., प्रमोशन चाहिए, तो काम भी पूरा करना होगा। छुट्टी के दिन भी आना होगा। देर रात तक रुकना होगा। और अगर किसी ने लापरवाही की, तो इज्जत से रिटायर नहीं होने दूँगा।”

बुजुर्ग कर्मचारियों ने एक-दूसरे को देखा और ठंडी आह भरी।

तभी पुराने बाबू रामदयाल ने कहा, “हुजूर, मेरी हालत देखिए। उम्रदराज हो चुका हूँ। खाल पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं, आँखें कमजोर हो चुकी हैं, खुर घिस चुके हैं। बहुत दिन हुए खरैरा नहीं हुआ है। पहले वाले अफसर ने कहा था कि फलाँ मंजिल तक पहुँचना जरूरी है। मैंने जान लगा दी और किसी तरह हाँफते-हाँफते पहुँच भी गया। लेकिन वहाँ पहुँचते ही नया मिशन दे दिया गया। यह सिलसिला चलता ही जा रहा है। अब और नहीं दौड़ा जाता, हुजूर।”

हरि बाबू ने हँसते हुए कहा, “तुम लोगों की आदतें बिगड़ चुकी हैं। अब यह आलसीपन नहीं चलेगा।”

कर्मचारियों ने सिर हिलाया और बेमन से काम में जुट गए।

लेकिन जल्दी ही हरि बाबू को अहसास हुआ कि सरकारी दफ्तर का सिस्टम सच में एक अजीबोगरीब मशीन है। एक दिन उन्होंने एक फाइल तेजी से आगे बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन बाबू मोहनलाल ने बड़ी मासूमियत से कहा, “साहब, यह काम कल हो जाएगा।”

“कल क्यों? आज क्यों नहीं?”

“क्योंकि आज तक कभी कोई फाइल एक ही दिन में आगे नहीं बढ़ी, साहब। ऐसा पहली बार होगा, इसलिए सिस्टम को समय चाहिए।”

हरि बाबू ने माथा पीट लिया।

धीरे-धीरे उन्हें समझ आने लगा कि यह सिस्टम अपने आप में एक अलग ही जीव है। यहाँ लोग दिनभर काम करने का दिखावा करते थे, लेकिन असली काम तब होता था जब कोई मिठाई का डिब्बा लेकर आता था। जब तक जेब गरम नहीं होती, तब तक कोई काम आगे नहीं बढ़ता।

हरि बाबू ने रिश्वतखोरी खत्म करने का संकल्प लिया। लेकिन जल्दी ही उन्हें एहसास हुआ कि यह कार्य लगभग असंभव है। उन्होंने एक बाबू को पकड़कर डाँटा, “तुम फाइल आगे बढ़ाने के लिए पैसे क्यों लेते हो?”

बाबू ने सहजता से जवाब दिया, “साहब, आप अफसर हैं, आपको तनख्वाह के अलावा गाड़ी, बंगला, टी.ए.-डी.ए. सब मिलता है। लेकिन हमें क्या मिलता है? सिर्फ सैलरी, और वो भी इतनी कम कि गुजारा मुश्किल है। इसलिए हमें अपनी ‘इन्क्रीमेंट’ खुद बनानी पड़ती है।”

हरि बाबू के पास कोई जवाब नहीं था।

फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने कर्मचारियों पर सख्ती बरती। इसका असर यह हुआ कि कुछ कर्मचारी डर के मारे काम में लग गए, लेकिन कुछ ने बीमार पड़ने का बहाना बना लिया।

धीरे-धीरे समय बीतता गया। हरि बाबू ने बहुत कुछ सुधारने की कोशिश की, लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, उनकी ऊर्जा भी कम होने लगी।

एक दिन वे सुबह-सुबह ऑफिस पहुँचे, तो देखा कि पुराना चपरासी शिवराम कुर्सी पर बैठा सुस्ता रहा था।

“शिवराम, तुम अभी तक सेवानिवृत्त नहीं हुए?”

“नहीं, साहब। सरकार हमारी उम्र बढ़ाती जा रही है। अब सुना है कि रिटायरमेंट की उम्र और बढ़ेगी।”

हरि बाबू ने अपना माथा पीट लिया।

उन्होंने आखिरकार समझ लिया कि यह नौकरी नहीं, बल्कि एक जाल है, जिसमें घुसने के बाद आदमी पूरी उम्र फँसा रहता है। यह नौकरी एक ऐसी ठगनी है, जो आदमी की जवानी खा जाती है, उसके बुढ़ापे को भी चैन से जीने नहीं देती।

हरि बाबू ने ठंडी आह भरी और सोचा, “कबीर दास जी सच ही कह गए हैं—

नौकरी महा ठगनी हम जानी,

करें नौकरी, वही पछतानी।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 48 ☆ व्यंग्य – “पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट है लिट्फेस्ट…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  “पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट है लिट्फेस्ट…” ।)

☆ शेष कुशल # 47 ☆

☆ व्यंग्य – “पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट है लिट्फेस्ट…” – शांतिलाल जैन 

‘मैं लिट्फेस्ट में गया था, वहाँ…..’  पिछले दस दिनों में दादू कम से कम दो सौ बार बता चुका है. सौ पचास बार तो मेरे सामने ही बता चुका है. साथ में तो मैं भी गया था. हर बार बताते समय उसका सीना छप्पन इंच से कुछ ही सेंटीमीटर कम फूला हुआ होता है. आमंत्रित रचनाकारों में दादू की वाईफ़ के मौसाजी के कज़िन भी थे जो सुदूर लखनऊ से आए थे. उत्सव की साईडलाईंस में हम उनसे मिलने और मौसी के लिए लौंग की सेव, घर की बनी मठरी, ठण्ड के करंट लड्डू और नींबू के आचार की बरनी देने गए थे. दादू को सपत्नीक जाना था मगर एनवक्त पर भाभीजी को माईग्रेन हो गया. वह मुझे साथ ले गया. वह राजनीति का मंजा हुआ ख़िलाड़ी है, मजबूरी में किए गए काम का भी क्रेडिट लेने और गर्व अभिव्यक्त करने के अवसर में बदल सकता है. ‘स्तरीय अभिरुचि’ और ‘साहित्य की श्रीवृद्धि में अकिंचन योगदान’ जैसे भावों से भरा दादू घूम घूम कर सबको बता रहा है ‘मैं लिट्फेस्ट में गया था, वहाँ…..’.

लिट्फेस्ट में कुछ लोग इंट्री फीस के साथ आए थे कुछ डोनेशन से मिलनेवाले वीआईपी ‘पास’ से. दादू ने इंट्री के लिए जुगाड़ से वीआईपी ‘पास’ का इंतज़ाम किया हुआ था. इंट्री सशुल्क रही हो या निःशुल्क, कुछ लोग अपने पसंदीदा लेखकों को सुनने, पुस्तकों पर हस्ताक्षर करवाने आए थे, शेष तो बस तफ़रीह को. रचनाकारों के हाथों में लगभग बिना ढक्कन का पेन होता था  जो लिखने के काम आता तो नहीं दिखा, किताब पर हस्ताक्षर करने के काम अवश्य आ रहा था, उसी से उन्होंने रसीदी-टिकट पर दस्तख़त करने जैसा महत्पूर्ण कार्य संपन्न किया. आईएफएससी कोड, अकाउंट नंबर, बैंक डिटेल्स वे घर से लिखकर लाए थे. पेन उपकरण तो सरस्वतीजी का था मगर अपने स्वामी लेखक को लक्ष्मीजी तक पहुँचाने में उसकी महती भूमिका थी. 

बहरहाल, वहाँ चार से छह सत्र एक साथ चल रहे थे. मेरी-गो राऊंड. इधर से घुसकर उधर निकल जाईए, उधर से घुसकर और उधर, उधर से और भी उधर, उधरतम स्तर पर पहुंचकर फिर इधर आ जाईए. दुनिया गोल है. सचमुच. सत्र होरीझोंटल ही नहीं वर्टिकल भी चल रहे थे. बैक-टू-बैक सत्र की खूबसूरती यह थी कि दर्शकों को एक ही लेखक को बहुत देर तक झेलना नहीं पड़ रहा था. अगले टाईम स्लॉट की मॉडरेटर अपने उतावले पेनल के साथ पास ही तैयार खड़ी थी. उसने आज ही अपने हेयर्स स्ट्रेट करवाए थे. उन्हें संभालते-संभालते वह शी…शी… की छोटी छोटी ध्वनियों से स्टेज जल्दी खाली करने के संकेत प्रेषित कर रही थी. यूं तो लेखक संकेत-इम्यून होता है, उसे पीछे से कुर्ता-खींच कर दिए गए संदेशों से निपटने का उसे पर्याप्त अनुभव होता है, मगर यहाँ उसे अगलीबार नाम कट जाने का डर का सता रहा था सो मन मारकर बैठ गया.

लिट्फेस्ट एक अलग तरह का अनुभव था. आप जितना आश्चर्य इस बात पर करते हैं कि आप कहाँ आ गए हैं उससे ज्यादा आश्चर्य इस बात पर होता है कि साहित्य कहाँ आ पहुँचा है! कुछ समय पहले के रचनाकारों ने कथा कविता को आमजन की चौक-चौपालों से उठाकर साहित्यिक संगोष्ठियों में पहुँचाया, वहाँ से प्रायोजकों की बैसाखियों पर चलकर लिटरेचर फेस्टिवल में आ पहुँचा है. सितारा होटलों, वातानुकूलित प्रेक्षागृहों, लकदक सजावट से घिरे अंतरंग कक्षों, रंगीन पर्दों से सजे बहिरंगों में गाँव की, मजदूर की, गरीब की कथा-कविता तो मिली, किसान, मजदूर या गरीब कहीं नहीं दिखा. कथा-कविता में खेत में बहते पसीने की गंध सुनाई दी, मगर उसने नाक में घुसकर हमारा मूड ख़राब नहीं किया. हैवी रूम-फ्रेशनर जो मार दिया गया था, हमने इत्मीनान से गहरी सांसें खींची. आप भी जा सकते हैं वहाँ. इयर-ड्रम्स के चोटिल होने का भी कोई ख़तरा नहीं. अहो-अहो और वाह-वाह के नक्कारखाने में प्रतिरोध की तूती सुनाई नहीं देगी. कुछ आमंत्रित लेखक बुलाए जाने पर सीना फुलाए फुलाए घूम रहे थे. कुछ जाऊँ, न जाऊँ की उहापोह में रहे होंगे, अब जब आ ही गए थे तो कह रहे थे – ‘कोई सुने न सुने तूती बोल तो रही है.’ सफाई भी, जस्टिफाई भी. यही क्या कम है कि निज़ाम ने अभी तक तूती की वोकल कार्ड को मसक नहीं दिया है. खैर, आयोजकों ने भी फेस सेविंग का पूरा इंतज़ाम किया हुआ था, चार अनुकूल रचनाकारों के पैनल में एक विपरीत विचार का रखकर बेलेंसिंग की गई थी. शहरी कुलीनताओं और एलिट अंग्रेज़ी साहित्य के सत्रों के बीच हर दिन एक दो सत्र हिंदी के और हिंद के शोषितों पर केंद्रित कर के भी रखे गए थे.

बहरहाल, अगर आप लिट्फेस्ट में बतौर श्रोता पहलीबार जा रहे हैं तो कुछ मशविरा आपके लिए.

एक तो अपनी पसंद के लेखक को ब्रोशर पर छपे फोटो या उनकी किताब के पीछे छपे फोटो से मिलान करके ढूँढने की गलती मत कीजिएगा. फोटो में वे एम एस धोनी जैसे बालों में हो सकते हैं और हकीकत में गंजे. हमें भी मौसाजी के कज़िन को ढूँढने में परेशानी हुई. फोटो उन्होंने अपनी जवानी का अवेलेबल कराया रहा होगा या शी-कलीग्स की पसंद का. जैसे वे ब्रोशर में थे सच में नहीं, जैसे सच में थे पोस्टर पर नहीं. मिलान करने के लिए आप चैट जीपीटी या डीपसीक की मदद ले सकते हैं. तब तक ऐसा करें कि थोड़े से खाली खाली खड़े लेखक के साथ सेल्फी लेते चलिए और वाट्सअप स्टेटस पर डालते चलिए. रील भी बना सकते हैं. अगर आप किसी लेखिका के संग सेल्फी लेना चाहते हैं तो अलर्ट रहिए और सत्र समाप्ति के दो तीन मिनिट में ही ले लीजिए, उसे मृगनयनी शो रूम से साड़ी खरीदने के लिए भागने की जल्दी जो होगी.

दूसरे, अपने रिश्तेदार से मिलने आप लंच टाईम के आसपास मत जाईएगा. बाउंसर आपको भोजन के तम्बू में बिना ‘पास’  के घुसने नहीं देगा और आपके मेहमान गुलाबजामुन की सातवीं किश्त का लुत्फ़ लिए बगैर बाहर आएँगे नहीं. साहित्य आपके ऑफिस की आधे दिन की सेलेरी कटवा देगा.

वैसे तो इन दिनों सनातन के बिना विमर्श के आयोजन पूरे होते नहीं, सो बजरिए मानस रामचर्चा का सत्र भी रखा गया है. लेकिन अगर आप महज़ मज़े के लिए जाना चाहते हैं तो शाम के सत्रों में पहुँचिएगा. सुबह गंभीर लेखकों से चलकर शाम होते होते विमर्श बॉलीवुड, ओटीटी, पॉपुलर बैंड, मंचीय कविता और स्टेंड-अप कॉमेडी के सेलेब्रिटीज तक पहुँच चुका होगा. मनोरंजन का नया डेस्टिनेशन! लिट्फेस्ट. अगर आप मक्सी, देवास, हरदा, इटारसी या बाबई में रहते हैं तो लिट्फेस्ट तो आप अपने शहर में एन्जॉय नहीं कर पाएँगे. इन शहरों में ये तब तक नहीं आएगा जब तक यहाँ साहित्य का बाज़ार विकसित नहीं हो जाता. लिटरेचर टूरिज्म बाज़ार का नया फंडा है. आप अपने हॉली-डेज जयपुर लखनऊ, भोपाल, दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नाई, कोझिकोड के लिए प्लान कर सकते हैं. पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट हैं लिट्फेस्ट. मीडिया मुग़ल, कारोबारी या अफसर उठता है और लिट्फेस्ट नामक जलसा आयोजित कर डालता है. जाने भी दो यारों, एन्जॉय दी फेस्ट.

और हाँ एक झोला लेते हुए जाईएगा. लौटते में आपके हाथों में कुछ पुस्तकें होंगी. कुछ भेंट में, मिलेंगी. कुछ आप उम्दा पसंदगी की नुमाईश करने के प्रयोजन से खरीदेंगे ही. दादू ने तो किताबों के साथ फोटो लेकर प्रोफाइल और स्टेटस पर लगा दी है. आप भी शान से कह पाएँगे – ‘मैं लिट्फेस्ट में गया था, वहाँ…..’

और हाँ, कहते समय शर्ट का ध्यान रखें, सीना फूल जाने से बटन टूट जाने का खतरा रहता है.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ जुगाड़ ☆ श्री रमाकांत ताम्रकार ☆

श्री रमाकांत ताम्रकार

☆ व्यंग्य – जुगाड़ ☆ श्री रमाकांत ताम्रकार 

वह बहुत गरीब था किन्तु जैसे तैसे कर उसने ग्रेजुएशन कर राज्य सिविल सेवा में अधिकारी का पद पा लिया था। उसने सरकारी नौकरी में आने से पहले यह शपथ ली थी कि वह तन-मन से देश की सेवा करेगा और मजलूमों का सहारा बनेगा, पूरी मेहनत से अपने कर्तव्य को अंजाम देगा।

अब प्रदेश के जिलों संभागों में नौकरी करने के बाद उसकी पदस्थापना मंत्रालय में हो गई। वह मेहनत तो बहुत करता किन्तु मंत्रालय का कल्चर जिला और संभाग के कल्चर से अलग ही होता है क्योंकि यहां प्रदेश के मुख्यमंत्री, मंत्री और शीर्षस्थ अधिकारियों का राज होता ही है बल्कि यहां तो छुट भैया नेताओं का भी राज होता है, उनका कहना मानना भी नौकरी का एक हिस्सा होता है, वह भी डरते डरते मंत्रालय के कल्चर में ढल रहा था और यहां कि बारीकियां भी कुछ हद तक सीख गया था। किन्तु अभी तक वह ढर्रे में ढल नहीं पा रहा था। वह यहां के कल्चर में भी डेड ईमानदार बने रहना चाहता था किन्तु किन्तु किन्तु…

उसकी पत्नी आए दिन उसे ताने मारती और कहती देखो तुम्हारे साथ के लोगों ने कितनी तरक्की कर ली है उनके पास खुद का मकान है फार्म है गाड़ियां है नौकर चाकर है लड़के बच्चों के लिए अलग से कारें और रोजगार है पर तुम्हारे पास क्या है एक खटारा गाड़ी उसमें भी कभी कभी धक्का लगाना पड़ जाता है सोचो रिटायरमेंट के बाद क्या किराये के घर में ही रहोगे। अभी भी समय है कुछ कर गुजरों जिससे बुढ़पा आराम से कट जाए। वह विचार करता किन्तु कर कुछ नहीं पाता। वह पत्नी के बातों से तंग आकर कभी कभी कुछ कुछ सोचने लगता।

एक दिन उसकी पत्नी ने कहा ’देखो जी टाॅमी को कितनी गर्मी लग रही है इसकी कुछ व्यवस्था करो।’ उसने कहा ’अभी तनख्वाह नहीं हुई है हो जाएगी तो एक पंखा खरीद लायेगें।’ इस बात पर उसकी और पत्नी में बहुत बहस हुई।

वह आफिस तो आ गया पर वह बहुत ही उखड़ा हुआ था। आफिस का बड़ा बाबू बड़ा ही घाघ था वह उसकी स्थिति को देखकर समझ गया कि साहब आज किसी बात से बड़े परेशान है। वह लोगों से कहता था कि मैं इस मंत्रालय की दाई हूॅ मुझसे कुछ छुप नहीं सकता। उसकी चिड़चिड़ाहट को देखकर आफिस के बड़े बाबू ने उससे पूछा ’क्या बात है सर यदि किसी बात से परेशान है तो मुझे बताईए मैं हल करने की कोशिश कर आपकी परेशानी खत्म कर दूंगा। ’ बड़े बाबू की आत्मीयता उसे पहले दिन से ही प्रभावित कर रही थी। बड़े बाबू के प्यार भरे शब्द सुनकर उसने बड़े बाबू को सारी बात विस्तार से बताई। इस पर बड़े बाबू ने कहा ’सर मैं आपके घर दो ए.सी. भिजवा देता हूँ  एक आप उपयोग कीजिए और दूसरा टाॅमी के लिए लगवा दीजिए।’

’टाॅमी के लिए ए.सी…।’

’हाँ सर, ए.सी.।’

’पर ऐसा होगा कैसे, हम रिकार्ड में क्या शो करेंगे’ उसने कहा। तब बड़े बाबू ने बड़े ही इत्मीनान से कहा – ’आप बिल्कुल चिन्ता न करें सर, एक ए.सी. मंत्री जी के यहां तथा दूसरा ए.सी. बड़े साहब के घर में लगा हुआ रिकार्ड में शो कर देंगे, न मंत्री से कोई पूछ सकता है और न ही बड़े साहब से।’

वह इस जुगाड़ से हतप्रभ था।

© श्री रमाकान्त ताम्रकार

संपर्क – 423 कमला नेहरू नगर, जबलपुर। 

मोबाइल 9926660150

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’   ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 39 – धूल भरी सड़कें और टूटे हुए सपने ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना धूल भरी सड़कें और टूटे हुए सपने)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 39 – धूल भरी सड़कें और टूटे हुए सपने ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

शिवपुर के छोटे से गाँव में जीवन हमेशा सादगी और संघर्ष की एक मधुर धुन रहा है। यहाँ, सूरज गेहूं के सुनहरे खेतों को चूमता है, और हल्की हवा गाँव के कुएं के पास खेलते बच्चों की हंसी को लेकर आती है। लेकिन इस अद्भुत दृश्य के बीच खड़े हैं मास्टर विनय, एक समर्पित शिक्षक, जिनका जीवन सरल नहीं था। सालों से, उन्होंने अपने छात्रों में ज्ञान की रौशनी बिखेरी, उनके सपनों को संजोया। लेकिन जैसे-जैसे मौसम बदला, शिक्षा विभाग की मनमानी और नौकरशाही ने उनके समर्पण पर भारी पड़ना शुरू कर दिया। हर बार जब उन्होंने ट्रांसफर की अर्जी लिखी, वह फाइलों के गर्त में खो जाती, जैसे व्यस्त बाजार में एक भूला हुआ बच्चा। यह विडंबना भरी बात थी; वह सिस्टम, जो शिक्षा को ऊपर उठाने का वादा करता था, वह असल में शिक्षकों के कल्याण से ज्यादा कागजी कार्यवाही में उलझा था।

एक भाग्यशाली सुबह, एक पत्र आया जिसने विनय के जीवन के संतुलन को चूर-चूर कर दिया। उस लिफाफे पर शिक्षा विभाग का निशान था, जो झूठी आशा की एक चमक की तरह था। उनका दिल तेजी से धड़कने लगा जब उन्होंने उसे खोला, और उसमें शहर में ट्रांसफर की घोषणा थी—एक ऐसा स्थान, जो धूल, कंक्रीट, और तेज गति से भरा हुआ था, जो उनके शांत गाँव के साथ कड़ा विरोधाभास था। विनय का दिल टूट गया जब उन्होंने शहर की सड़कों की कल्पना की, जहाँ उनके छात्रों की हंसी की जगह कारों की हार्नेस और फाइलों की खड़खड़ाहट ले लेगी। उनकी पत्नी, सुषमा देवी, हमेशा उनके लिए ताकत का स्तंभ रही थी, लेकिन इस खबर ने उसे विश्वास और निराशा के बीच झूलने पर मजबूर कर दिया। उसकी आँखों में भरी आँसू हजारों अनकही डर की पीड़ा को दर्शाते थे: क्या वह सच में चले जाएंगे? उनके बच्चों के लिए एक बेहतर भविष्य बनाने के सपनों का क्या होगा? जब उन्होंने सुषमा के आँसू भरे चेहरे की ओर देखा, तो उन्हें एहसास हुआ कि इस ट्रांसफर की असली कीमत उनकी नौकरी की हानि से कहीं अधिक थी; यह एक परिवार, एक समुदाय, और एक शिक्षक की अटूट प्रतिबद्धता का टूटना था।

उनके जाने का दिन भारी दिल के साथ आया। विनय अपनी पुरानी साइकिल पर चढ़े, जिसका जंग लगा ढांचा उनके अनकहे दुख के बोझ की तरह कराह रहा था। नए स्कूल का रास्ता असहनीय लंबा लग रहा था, हर पैडल उन्हें याद दिला रहा था कि वे क्या छोड़ने जा रहे हैं। बच्चे उनका इंतजार कर रहे थे, उनकी मासूम आँखें उम्मीद और अनिश्चितता से चमक रही थीं। उनके छोटे हाथों में रंगीन चित्र थे, जो उन्होंने अपने प्रिय शिक्षक के लिए बनाए थे, एक ऐसे भविष्य की चित्रण जो उन्हें शामिल करता था। लेकिन खुशी की बजाय, विनय के दिल में एक दर्द महसूस हुआ। वह कैसे बता सकते थे कि वह उनके सपनों को छोड़ रहे हैं, कि शिक्षा प्रणाली ने युवा मनों की परवरिश के बजाय नौकरशाही के ट्रांसफर की सुविधा को चुन लिया है? उन्होंने कक्षा में प्रवेश किया, उनका दिल दुःख से भरा हुआ था, और ब्लैकबोर्ड पर लिखा, “शिक्षा केवल ज्ञान देने के बारे में नहीं है, बल्कि दिलों को जोड़ने के बारे में भी है।” ये शब्द खोखले लगे जब बच्चे उनकी ओर देख रहे थे, उनके चेहरों पर वही उलझन और डर था जो सुषमा के चेहरे पर था। वे पूरी तरह से नहीं समझते थे, लेकिन वे आने वाली हानि का अनुभव कर रहे थे, जो केवल भौगोलिक परिवर्तन से कहीं ज्यादा गहरी थी।

उस रात, जब विनय सुषमा के साथ भोजन कर रहे थे, उन्होंने एक निर्णय लिया जो सब कुछ बदल देगा। “मैं नहीं जाऊंगा, सुषमा। मैं उन्हें छोड़ नहीं सकता,” उन्होंने कहा, उनके विश्वास का वजन उनकी थकी हुई आँखों में रोशनी भर रहा था। सुषमा का चेहरा निराशा से विश्वास और फिर उम्मीद की झलक में बदल गया, लेकिन अज्ञात का डर अभी भी था। जब जोड़े ने अपने सपनों और डर साझा किए, विनय का संकल्प और मजबूत होता गया। अगली सुबह, जबकि शिक्षा विभाग के क्लर्क उसकी ट्रांसफर आदेश के लिए फाइलों की खोज कर रहे थे, वह स्कूल के मैदान में थे, उस छोटे पौधे की देखभाल करते हुए जिसे उन्होंने सालों पहले लगाया था—एक प्रतीक जो शिवपुर में उनकी जड़ों का प्रतीक था। शिक्षक का दिल भारी था, लेकिन यह अपने छात्रों और समुदाय के प्रति प्रेम से भरा था। उन्होंने सीखा कि सच्ची शिक्षा संबंध और प्रतिबद्धता में फलती-फूलती है, न कि नौकरशाही के ट्रांसफर में। उस पल, सुनहरे गेहूं के खेतों और बच्चों की हंसी के बीच, उन्हें एहसास हुआ कि परिवर्तन का मौसम सरकार द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि वह अपने दिल में धारण किए गए प्रेम और समर्पण से होता है। और जब सूरज शिवपुर के ऊपर अस्त हो रहा था, सुनहरी चमक के साथ, विनय ने समझा कि कभी-कभी, ठहरना और अपने सपनों को पोषित करना सबसे साहसी कार्य होता है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #203 – व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 203 ☆

☆ व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मन नहीं मान रहा था। स्वयं के लिए स्वयं प्रयास करें। मगर, पुरस्कार की राशि व पुरस्कार का नाम बड़ा था। सो, मन मसोस कर दूसरे साहित्यकार से संपर्क किया। बीस अनुशंसाएं कार्रवाई। जब इक्कीसवे से संपर्क किया तो उसने स्पष्ट मना कर दिया।

“भाई साहब! इस बार आपका नंबर नहीं आएगा।” उन्होंने फोन पर स्पष्ट मना कर दिया, “आपकी उम्र 60 साल से कम है। यह पुरस्कार इससे ज्यादा उम्र वालों को मिलता है।”

हमें तो विश्वास नहीं हुआ। ऐसा भी होता है। तब उधर से जवाब आया, “भाई साहब, वरिष्ठता भी तो कोई चीज होती है। इसलिए आप ‘उनकी’ अनुशंसा कर दीजिए। अगली बार जब आप ‘सठिया’ जाएंगे तो आपको गारंटीड पुरस्कार मिल जाएगा।”

बस! हमें गारंटी मिल गई थी। अंधे को क्या चाहिए? लाठी का सहारा। वह हमें मिल गया था, इसलिए हमने उनकी अनुशंसा कर दी। तब हमने देखा कि कमाल हो गया। वे सठियाए ‘पट्ठे’ पुरस्कार पा गए। तब हमें मालूम हुआ कि पुरस्कार पाने के लिए बहुत कुछ करना होता है।

हमारे मित्र ने इसका ‘गुरु मंत्र’ भी हमें बता दिया। उन्होंने कहा, “आपने कभी विदेश यात्रा की है?” चूंकि हम कभी विदेश क्या, नेपाल तक नहीं गए थे इसलिए स्पष्ट मना कर दिया। तब वे बोले, “मान लीजिए। यह ‘विदेश’ यात्रा यानी आपका पुरस्कार है।”

“जी।” हमने न चाहते हुए हांमी भर दी। “वह आपको प्राप्त करना है।” उनके यह कहते ही हमने ‘जी-जी’ कहना शुरू कर दिया। वे हमें पुरस्कार प्राप्त करने की तरकीबें यानी मशक्कत बताते रहे।

सबसे पहले आपको ‘पासपोर्ट’ बनवाना पड़ेगा। यानी आपकी कोई पहचान हो। यह पहचान योग्यता से नहीं होती है। इसके लिए जुगाड़ की जरूरत पड़ती है। आप किस तरह इधर-उधर से अपने लिए सभी सबूत जुटा सकते हैं। वह कागजी सबूत जिन्हें पासपोर्ट बनवाने के लिए सबसे पहले पेश करना होता है।

सबसे पहले एक काम कीजिए। यह पता कीजिए कि पुरस्कार के इस ‘विदेश’ से कौन-कौन जुड़ा है? कहां-कहां से क्या-क्या जुगाड़ लगाना लगाया जा सकता है? उनसे संपर्क कीजिए। चाहे गुप्त मंत्रणा, कॉफी शॉप की बैठक, समीक्षाएं, सोशल मीडिया पर अपने ढोल की पोल, तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें वोट दूंगा, तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा, जैसी सभी रणनीति से काम कीजिए। ताकि आपको एक ‘पासपोर्ट’ मिल जाए। आप कुछ हैं, कुछ लिखते हैं। जिनकी चर्चा होती है। यही आपकी सबसे बड़ी पहचान है। यानी यही आपका ‘पासपोर्ट’ होगा।

अब दूसरा काम कीजिए। इस पुरस्कार यानी विदेश जाने के लिए अर्थात पुरस्कार पाने के लिए वीजा का बंदोबस्त कीजिए। यानी उस अनुशंसा को कबाडिये जो आपको विदेश जाने के लिए वीजा दिला सकें। यानी आपने जो पासपोर्ट से अपनी पहचान बनाई है उसकी सभी चीजें वीजा देने वाले को पहुंचा दीजिए। उससे स्पष्ट तौर पर कह दीजिए। आपको विदेश जाना है। वीजा चाहिए। इसके लिए हर जोड़-तोड़ व खर्चा बता दे। उसे क्या-क्या करना है? उसे समझा दे।

सच मानिए, यह मध्यस्थ है ना, वे वीजा दिलवाने में माहिर होते हैं। वे आपको वीजा प्राप्त करने का तरीका, उसका खर्चा, विदेश जाने के गुण, सब कुछ बता देंगे। बस आपको वीजा प्राप्त करने के लिए कुछ दाम खर्च करने पड़ेंगे। हो सकता है निर्णयको से मिलना पड़े। उनके अनुसार कागज पूर्ति, अनुशंसा या कुछ ऐसा वैसा छपवाना पड़ सकता है जो आपने कभी सोचा व समझ ना हो। मगर इसकी चिंता ना करें। वे इसका भी रास्ता बता देंगे।

बस, आपको उनके कहने अनुसार दो-चार महीने कड़ी मेहनत व मशक्कत करनी पड़ेगी। हो सकता है फोन कॉल, ईमेल, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि पर इच्छित- अनिच्छित व अनुचित चीज पोस्ट करनी पड़े। इसके लिए दिन-रात लगे रहना पड़ सकता है। कारण, आपका लक्ष्य व इच्छा बहुत बड़ी है। इसलिए त्याग भी बड़ा करना पड़ेगा।

इतना सब कुछ हो जाने के बाद, जब आपको विदेश जाने का रास्ता साफ हो जाए और वीजा मिल जाए तब आपको यात्रा-व्यय तैयार रखना पड़ेगा। तभी आप विदेश जा पाएंगे।

उनकी यह बात सुनकर लगा कि वाकई विदेश जाना यानी पुरस्कार पाना किसी पासपोर्ट और वीजा प्राप्त करने से कम नहीं है। यदि इसके बावजूद विदेश यात्रा का व्यय पास में न हो तो विदेश नहीं जा पाएंगे। यह सुनकर हम मित्र की सलाह पर नतमस्तक हो गए। वाकई विदेश जाना किसी योग्यता से काम नहीं है। इसलिए हमने सोचा कि शायद हम इस योग्यता को भविष्य में प्राप्त कर पाएंगे? यही सोचकर अपने आप को मानसिक रूप से तैयार करने लगे हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29-01- 2025

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 275 ☆ व्यंग्य – साहित्य और ‘सुधी पाठक’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘साहित्य और ‘सुधी पाठक’ ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 275 ☆

☆ व्यंग्य ☆ साहित्य और ‘सुधी पाठक’

हर भाषा के साहित्य से जुड़े कुछ लोग होते हैं जिन्हें ‘सुधी पाठक’ कहा जाता है। ‘सुधी पाठक’ वे पाठक होते हैं जिनकी सुध या याददाश्त बड़ी तगड़ी होती है। किसी भी भाषा में निकलने वाली पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं और लेखकों की पिछले 25-50 साल की जानकारी सुधी पाठकों के पास मिल जाती है। इसलिए कोई लेखक जनता- जनार्दन की याददाश्त कमज़ोर मानकर कुछ लाभ लेने की कोशिश करता है तो सुधी पाठक लपक कर उसकी गर्दन थाम लेते हैं। हमला इतना अचानक होता है कि लेखक को जान छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। इसलिए जिन लोगों को अपनी इज़्ज़त प्यारी है उन्हें सुधी पाठकों से ख़बरदार रहना ज़रूरी है।

कुछ  समय पहले एक प्रतिष्ठित कथा-पत्रिका में एक वरिष्ठ कथाकार की कहानी छपी। ज़्यादातर लोगों को उसमें कुछ भी गड़बड़ नज़र नहीं आया, लेकिन महीने भर के भीतर ही दो सुधी पाठक अपनी बहियों की धूल झाड़ते हुए मैदान में आ गये। लेखक पर आरोप लगा कि उनकी वह कहानी 25 साल पहले एक पत्रिका में छप चुकी है। उन सुधी पाठकों ने पत्रिका का नाम, संपादक का नाम, सन् वगैरह सब गिना दिया। लेखक के लिए सब दरवाज़े बन्द करते हुए उन्होंने लिखा कि उस पुरानी पत्रिका की प्रति उनके पास सुरक्षित है। दो में से एक सुधी पाठक ने बताया कि उन्होंने उस कहानी के भूतकाल में प्रकाशन का पता अपने व्यक्तिगत पत्रिकालय और पुस्तकालय को छान मारने के बाद लगाया। जहां ऐसे जागरूक और चुस्त पाठक हों वहां लेखक को हमेशा फूंक-फूंक कर पांव रखना होगा।

कुछ साल पहले सुधी पाठकों ने एक स्थापित कथा-लेखिका को संकट में डाल दिया था। लेखिका ने भी अपनी एक कहानी दुबारा कहीं छपा ली थी। बस, सुधी पाठकों ने अपनी बहियां पटकनी शुरू कर दीं और लेखिका को उन्हीं ‘याद नहीं’, ‘शायद भूल से’ वाले धराऊ बहानों की ओट लेनी पड़ी। मुश्किल यह है कि एक बार पकड़ में आने के बाद फिर कोई बहाना काम नहीं आता। सब जानते हैं कि कोई ‘भूल’ नहीं होती। लेखक जितने बहाने करता है उतने ही उसके झूठ के कपड़े टपकते जाते हैं।

कई साल पहले एक और कलाकार हिन्दी साहित्य में उभरे थे। वे दूसरों की कहानियों को कुछ समय बाद अपने नाम से छपा लेते थे। इतनी मौलिकता उनमें ज़रूर थी कि रचना का शीर्षक और पात्रों के नाम बदल देते थे। बड़े बहादुर और आला दर्ज़े के बेशर्म थे। रचना के साथ बाकायदा अपना फोटो और परिचय छपाते थे। कुछ भी पोशीदा नहीं रखते थे। लेकिन ज़माने से उनका सुख न देखा गया और एक दिन वे पकड़ में आ गये। मरता क्या न करता। उन्होंने बहाना गढ़ा कि वे कहानियों का संग्रह करने के आदी थे और उनकी पत्नी ने गलती से वह कहानी उनका नाम लिखकर पत्रिका को भेज दी थी। इस देश में वीर पुरुषों पर जब जब बड़ा संकट आता है तब तब वे बेचारी पत्नी को आगे कर देते हैं। कभी पत्नी के बल पर दया प्राप्त करने की कोशिश करते हैं, तो कभी पत्नी को जाहिल और मूर्ख बता कर अपनी करनी उसके सिर थोप देते हैं। बहरहाल, उन लेखक महोदय का यह बहाना चला नहीं और उनके उज्ज्वल साहित्यिक जीवन का असमय ही अन्त हो गया। साहित्य की इस बेवफाई के बाद अब वे शायद किसी और क्षेत्र में अपना हस्तलाघव दिखा रहे होंगे। अगर सुधी पाठक उनके पीछे न पड़ते तो अपनी जोड़-तोड़ के बल पर वे अब तक दो-चार साहित्यिक पुरस्कार अपनी झोली में डाल चुके होते।

दरअसल जब लेखक के प्रेरणास्रोत सूखने लगते हैं तब मजबूरी में पुरानी रचनाओं को ‘रिसाइकिल’ करना पड़ता है। कारण यह है कि शोहरत का चस्का आसानी से छूटता नहीं। ‘छुटती नहीं है काफ़िर मुंह से लगी हुई’। एक और बात यह है कि दुबारा छपाने का काम अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण रचनाओं के साथ ही हो सकता है क्योंकि महत्वपूर्ण रचनाएं सुधी पाठकों के ज़ेहन और ज़ुबान पर ज़्यादा रहती हैं। फिर भी सुधी पाठक का कोई भरोसा नहीं। जिस रचना को लेखक दो गज़ ज़मीन के नीचे दफ़न मान लेता है उसी को कंधे पर लादे सुधी पाठक दौड़ता चला आता है और लेखक इस साहित्यिक डिटेक्टिव का करिश्मा देखकर अपनी मूर्खता पर पछताता रह जाता है। लेकिन यह सब सामर्थ्यहीन लेखक ही करते हैं। जो सामर्थ्यवान होते हैं वे ‘न लिखने का कारण’ पर बहस भी चला लेते हैं और उस पर पुस्तक भी छपवा लेते हैं। यानी ‘चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरी’।  कुछ लोग ज़िन्दगी भर ‘कागद कारे’ करके भी गुमनामी में डूबे रहते हैं और कुछ लिखने से मिली शोहरत को न लिखने का कारण बता कर उसे और लंबा कर लेते हैं। सामर्थ्यवान और सामर्थ्यहीन के बीच के फ़र्क का इससे बेहतर नमूना भला क्या होगा?

जो भी हो, यह ‘सुधी पाठक’ नाम का जीव खासा ख़तरनाक होता है। वह साहित्यिक नैतिकता का चौकीदार, साहित्य का ‘ओम्बड्समैन’ होता है। वह बड़े-बड़े लेखकों को भी नहीं बख्शता। सब लेखकों की कर्मपत्री उसके पास सुरक्षित होती है। उसकी नज़र जॉर्ज ऑरवेल के ‘बिग ब्रदर’ की नज़र से ज़्यादा तेज़ होती है। लेखक अपनी मर्यादा से तनिक भी दाएं-बाएं हुआ कि भारतवर्ष के किसी दूरदराज़ के कस्बे से एक सुधी पाठक हाथ उठाकर खड़ा हो जाता है। जिन लेखकों को अपनी रचनाओं की चोरी-बटमारी का डर हो वे सुधी पाठक के भरोसे निश्चिन्त सो सकते हैं।

चुनांचे, जिन लेखकों की स्याही सूख चुकी है उनके लिए सम्मान का मार्ग यही है कि सुधी पाठक को नमस्कार करके मंच से उतर जाएं। नयी बोतल में पुरानी शराब भरेंगे तो सुधी पाठक बोतल लेखक के मुंह पर मार देगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ फिर न कहियेगा प्रकाशक नहीं मिलते ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆

श्री धर्मपाल महेंद्र जैन

संक्षिप्त परिचय

जन्म : 1952, रानापुर, जिला: झाबुआ, म. प्र. शिक्षा : भौतिकी, हिन्दी एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर. टोरंटो (कनाडा) : 2002 से कैनेडियन नागरिक.

प्रकाशन :  “गणतंत्र के तोते”, “चयनित व्यंग्य रचनाएँ”, “डॉलर का नोट”, “भीड़ और भेड़िए”, “इमोजी की मौज में” “दिमाग वालो सावधान” एवं “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” (7 व्यंग्य संकलन) एवं Friday Evening, “अधलिखे पन्ने”, “कुछ सम कुछ विषम”, “इस समय तक” (4 कविता संकलन) प्रकाशित। तीस से अधिक साझा संकलनों में सहभागिता।

स्तंभ लेखन : चाणक्य वार्ता (पाक्षिक), सेतु (मासिक), विश्वगाथा व विश्वा में स्तंभ लेखन।

नवनीत, वागर्थ, दोआबा, पाखी, पक्षधर, पहल, व्यंग्य यात्रा, लहक, समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती आदि में रचनाएँ प्रकाशित।

श्री धर्मपाल जी के ही शब्दों में अराजकता, अत्याचार, अनाचार, असमानताएँ, असत्य, अवसरवादिता का विरोध प्रकट करने का प्रभावी माध्यम है- व्यंग्य लेखन।” आज प्रस्तुत है आपका अप्रतिम व्यंग्य फिर न कहियेगा प्रकाशक नहीं मिलते। 

☆ फिर न कहियेगा प्रकाशक नहीं मिलते ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆

लोग घोड़ा देखते हैं तो उस पर बैठने की आशा संजो लेते हैं। यदि कुँआरे घोड़े पर बैठ जाएँ तो मंडप तक पहुँचे बिना उतरते नहीं। वैसे ही जब कोई लेखक किताबों के प्रकाशक को देखता है तो दुल्हे जैसे सपने देखने लगता है। ऐसे मीठे सपने कि प्रकाशक उसकी किताब छापेगा। कहानियों की किताब छपी तो उन कहानियों पर फिल्में बनेंगी और वे ऑस्कर जीतेंगी। कविताओं की किताब छपी तो किशोर कुमार घराने के लोग उसके गीत गाएँगे और उसके एल्बम इतने टॉप पर होंगे कि ग्रैमी अवार्ड वाले उसका घर ढूंढते-ढूंढते आ जाएँगे। रेल्वे प्लेटफॉर्मों और हवाईअड्डों के बुक स्टोर वाले उसकी किताब ‘डिस्प्ले’ पर रखेंगे। साहित्य के आलोचक उसकी किताब को चाहे महत्व नहीं दें पर राज्य अकादमियों के लोग प्रशंसा की गोटियाँ डालने लगेंगे। साहित्य के छोटे-बड़े फेस्टिवल में वह अपनी किताब के अंश सुना सकेगा। पांडुलिपि तैयार है, बस कोई ढंग का प्रकाशक नहीं मिल रहा। लेखक को प्रकाशक तो कई मिल रहे हैं, पर उसे ऐसा प्रकाशक चाहिए जो उसके जूतों में पैर रख कर उसके जैसे सपने देख सके। हर नया प्रकाशक नई उम्मीद का लॉलीपॉप देता है। प्रकाशक पांडुलिपि देखने की बजाय उस लेखक का वजन देखता है, लेखक के कपड़े देखता है। फिर लेखक के कपड़े उतरवाना शुरू करता है, कुछ मालमत्ता दिखा तो छिलाई शुरू करता है। धीरे-धीरे नव-प्रकाशक और लेखक का संबंध खानदानी बनने लगता है। कुछ महीनों बाद वह लेखक समझ पाता है कि उसने जो उम्मीदें बाँधी थीं वे एकदम झाँसा थीं। नया प्रकाशक भी उसे उल्लू बना गया। लेखक व्यंग्यकार है, इसका मतलब यह तो नहीं कि वह उल्लू ही है। व्यंग्य लिख-लिख कर जब अजीर्ण हो जाता है तब बेचारा लेखक ऐसे झाँसा-प्रकाशक को दिन-रात कोसता रहता है तब कहीं उसकी रोटी हजम होती है।

अब लेखक चिरोंजीलालजी को ले लें। वह सूखे मेवे जैसे लेखक हैं, चमकदार बर्नियों में सजाए जाते हैं। महंगे बिकते हैं पर कम मात्रा में उठाए जाते हैं। सड़ा मेवा फ्री में मिले तो भी लोग नहीं चखते। उनकी किताबों का यही हाल है। वे जब पांडुलिपि प्रकाशक को सौंपते हैं तो प्रकाशक उनसे धन रूपी मेवा रखवा लेता है। गूगल के सौजन्य से प्राप्त मुफ्तिया सामग्री से किताब का आकर्षक कवर बनते देर नहीं लगती। चिरोंजीलालजी, प्रकाशक को और मेवा देते हैं। कुछ और पेज छपवाने में लेखक का मेवा खतम हो जाता है। अंततः, लेखक के हाथ में शगुन की पाँच प्रतियाँ आ जाती हैं। उन्हीं से विमोचन हो जाता है, उन्हीं से तीन-चार लोकार्पण, और दस-बीस जगह समीक्षाएँ हो जाती हैं। वे पाँच प्रतियाँ सदा सुहागन की तरह लेखक के कब्जे में रहती हैं। प्रकाशक, किताब के कवर पेज को हर पोर्टल पर चिपका कर रखता है ताकि किसी दिन बिल्ली के भाग्य से अमेजॉन पर कोई ऑर्डर आ जाए और वह ऑन डिमांड प्रिंट निकाल कर किताब की पहली प्रति बेच सके। चिरोंजीलाल जी अपनी लेखकीय प्रति हरदम अपने साथ रखते हैं। हर मंच पर उसकी मार्केटिंग करते हैं, किताब का टाइटल बताते हैं, उसे खोल कर प्रकट करते हैं और श्रोताओं को उनसे मिलने के लिए उकसाते हैं। मजाल, कोई भी सभ्य-असभ्य श्रोता उनके टोने-टोटके से प्रभावित हो जाए और समीप आ कर उनकी किताब के कवर पेज पर उनका नाम पढ़ ले।

आज एक प्रकाशक मुझे ‘भवन’ के अहाते में प्रसन्न मुद्रा में मिल गए। वे भरे पेट लग रहे थे। प्रकाशक दो ही स्थितियों में इतना प्रसन्न हो सकता है। या तो पिछले साल की बकाया राशि का संस्थान ने उसे चेक दे दिया हो या बचे हुए बजट को निपटाने के चक्कर में थोक ऑर्डर दे दिया हो। मैंने प्रसन्नचित्त प्रकाशक से पूछा- आपने आज किसकी किताब कांजी हाउस में चरा दी। वे हाथ जोड़ कर प्रणाम मुद्रा में बोले -आप भी अपनी पांडुलिपि दे दीजिए, हमें यहाँ गठ्ठर सप्लाय करना है। आपकी घास भी चरने डाल देंगे। और खुश खबर ये कि हम एग्रीमेंट करेंगे, बिक्री का हिसाब देंगे और सुप्रबंधन कर इसे अमेजॉन की टॉप टेन लिस्ट में चढ़वा देंगे। मैंने उन्हें हाथ जोड़ते हुए कहा “आपने किसी लेखक से कभी एग्रीमेंट किया हो तो बताएँ। किसी को रॉयल्टी में कुछ दिया हो तो बताएँ। दूध होगा तो दूध दिख जाएगा।” वे हं, हं, हं, करने लगे। झाँकी जमाने आए थे, यहाँ-वहाँ झाँक कर वे विजयी हो गए। सुना है विभाग ने राज्य भर में नई अलमारियों की आपूर्ति के लिए टेंडर निकाला है और फर्नीचर वाले गुप्त जी पुस्तक चयन समिति के खासमखास बनाए गए हैं।

मेरे दूसरे मित्र सुप्रसिद्ध लेखक हैं, कचौड़ीलाल। वह जब प्रकाशित होते हैं तो फूले-फूले, तेल चढ़े होते हैं। प्रकाशक एक झारे में जितनी कचौड़ियाँ समा सकता है, वह उतनी किताबें छाप कर रख देता है। किताबी कचौड़ियों का जब तक कहीं गणित नहीं जमता, वे प्रकाशक के खोमचे में पड़ी-पड़ी महकती रहती हैं। फिर प्रकाशक इन कचौड़ियों पर चटनी डालता है, दही डालता है, और महंगी मिठाई खरीदने वालों को मुफ्त में कचौड़ियाँ टेस्ट करवाता है। दो-चार कचौड़ियाँ बच जाए तो वह कचौड़ियों का नया संस्करण ले आ आता है। पुरानी कचौड़ियाँ उनमें मिक्स कर दी जाती हैं। ऐसे प्रकाशक मुझे अच्छे लगते हैं। पुराना माल नया होता रहे और बाजार में बना रहे तो लेखक के जिंदा बचे रहने की आस बंधी रहती है। इस बहाने लेखक अपने दोस्तों और परिचितों को दस परसेंट डिस्काउंट में अपनी किताब बिकवा तो सकता है। अन्यथा, उसके जीते-जी ही उसकी किताब काल-कलवित हो गई तो वह बेचारा विधुर लेखकों की पंगत में बैठा दिया जाएगा।

खेद, सारे प्रकाशक ऐसे निष्ठुर, हृदयहीन और टटपूँजिया किस्म के नहीं होते। आपको पता होगा, घेवरमलजी के प्रकाशक भोजनालय किस्म के हैं। किताब छापने का पैकेज साफ-साफ बता देते हैं, ताकि किसी लेखक को परोपकार का भ्रम नहीं रहे। उनका पैकेज वस्तुनिष्ठ होता है, तेरा तुझको अर्पण शैली वाला। वे निश्छल बता देते हैं, पैकेज में चार रोटी, दाल-सब्जी, नींबू-कांदा, पापड़ आदि से सजी आधी थाली मिलेगी, किफायती और स्टैंडर्ड। नगर पालिका के नल का देसी पानी मिलेगा। लिमिटेड थाली में सब थोड़ा-थोड़ा मिलेगा, लिमिट में। किताब छपवाने की भूख मिट जाएगी, प्यास बुझ जाएगी पर अमर होने की लालसा बनी रहेगी।  वे कहते हैं, अपने लेखन पर गुमान हो और उसका इसी जन्म में लुत्फ उठाना हो तो रॉयल पैकेज ले लो। उस पैकेज में वे किताब छापेंगे, उसकी मार्केटिंग करेंगे, साथ ही किसी पुराने चावल से भूमिका लिखवा लाएँगे, समारोह पूर्वक विमोचन करवाएँगे, प्रशस्तिपूर्ण समीक्षाएँ छपवाएँगे, मेले में नाच-नचनिया के साथ लेखक को नचवाएँगे, लायब्रेरियों के गोडाउनों में भरवाएँगे, विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में लगवाएँगे और फिर छोटी-बड़ी सफेद रेशमी शाल में लेखक और किताब दोनों को लिपटवा कर दम लेंगे। वे आपसे कहेंगे, हे लेखक तुम रचना का बीज बो दो, धन की खाद डालते जाओगे तो वे बीज से वृक्ष तान देंगे। वृक्ष का समय-समय पर रख-रखाव होता रहेगा तो उसे वटवृक्ष बनने में देर नहीं लगेगी। समझदार लेखक को इससे बड़ा इशारा कोई प्रकाशक नहीं कर पाएगा।

मेरे कुछ लेखक मित्रों को निहायत शरीफ प्रकाशक भी मिले हैं। उनसे कोई लेखक एक रोटी माँगे तो वे एक रोटी का ही चार्ज लेते हैं। खाली पेट में कोई निवाला भी डाल दे तो वह जनम-जनम का पूज्य बन जाता है। ये शरीफ प्रकाशक ई-बुक की लौ सुलगा कर लेखक (माफ करें, लेखक की मशाल) को जलाए रखते हैं। किंडल जैसे प्रकाशक भी हैं, मुफ्त में छाप देते हैं, मुफ्त में बेच देते हैं। वे कहते हैं यहाँ उपलब्ध लाखों किताबों के ढेर में लेखक तुम्हारी भी एक किताब सही। जिस दिन कयामत आएगी, कब्रों से निकल कर मुर्दे जिंदा हो जाएँगे, तब तुम्हारी किताब जरूर पढ़ी जाएगी। वर्तमान दुनिया के बाजार के लिए कृपया क्षमा करें। इस काल में पाठकों से ज्यादा लेखक हो गए हैं। आप जानते ही हैं, लेखक का काम केवल लिखना है, उन्हें खुद का लिखा पढ़ने की फुरसत नहीं है तो दूसरों का लिखा कब और कैसे पढ़ेंगे?

कुछ परंपरागत प्रकाशक हैं, उनकी अपनी धुन है और अपना राग।  उनके पास पहले से ही गोडाउन भरे पड़े हैं। उनके पास जो पुराना है वह दुर्लभ किस्म का है और वे नया छापते हैं उसे भी दुर्लभ बनाने के हिसाब से छापते हैं। इनके द्वारा जो टिफिन भरे जाते हैं उनके खाने वाले बंधे हुए हैं। वे अपना माल उन्हीं को खिलाते हैं और उन्हीं से कमाते हैं। वे उन संस्थानों को माल बेचते हैं जो वांछित भाव देते हैं। इन खरीददारों की हालत यह है कि उधार मिल रहा है तो बासी माल खाने में कैसा परहेज! कहीं से दान या अनुदान मिलेगा तो बकाया सुलट जाएगा। मैंने आपको हिंदी के लेखकों के लिए उपलब्ध प्रकाशकों के कुछ ‘सेम्पल बताए’। बड़े शहरों विशेषकर राजधानियों में चार-पाँच स्टार वाले रेस्टोरेंटनुमा प्रकाशक होते हैं। इनके पास आधार सामग्री तो वही रहती है ठेले वाली, पर कटलरी उम्दा होती है, साज-सज्जा मनमोहक होती है। इनके लोग आगंतुकों को झुक-झुक कर किताबें परोसते हैं, पहले मेनू बताते हैं, खिलाते-पिलाते हैं, फिर बिल थमा देते हैं। ये इतनी शालीनता से जेब खाली करवाते हैं कि ग्राहक को लगता है वे इन किताबों को पढ़कर भारत के गुरूर, थरूर बन सकते हैं।

मैं यह व्यंग्य पोस्ट करने वाला ही था कि राजधानी के प्रतिष्ठित स्व-नाम धन्य लेखक मेरी टोह लेते आ गए और इसे पढ़ कर बोले – ‘किस जमाने में रहते हैं आप। मेरे प्रकाशकों को देखिए, रोज बारी-बारी से शाम को मेरे घर पर अपना कमोड छोड़ जाते हैं और दो-तीन दिन में ले जाते हैं। इतने समय में जितना उत्पादन होता है, सब छप जाता है और पूरे देश की लाइब्रेरियों में खप जाता है। जुगाड़ बैठ जाए तो विदेशी लाइब्रेरियों में भी अपना माल धकेला जा सकता है। मैंने ऐसा काँटा बिठाया हुआ है कि आठ-दस बड़ी भारतीय भाषाओं में मेरी किताब के अनुवाद शाया हो जाते हैं। लेखक को लिखने के अलावा दुनियादारी की कुछ समझ हो तो अपार काम है। लिखने वाला थक जाए पर प्रकाशक कभी न थके। गूगल पर सर्च के देख लो, मैंने कितने प्रकाशकों को धन्य किया है।’ अच्छा हुआ सिर पर मैला ढोने की प्रथा खत्म हो गई और लेखक के घर पर कमोड जड़ा कर साहित्य छापने का काम संस्थागत हो गया। मैं जानता हूँ वे मेरे लेखक मित्र पद से पूजे जाते हैं, पद न हो तो उनका पैंदा ही नहीं रहे। वे संस्थागत चल निकले हैं। यदि लेखक, लेखन के ही भरोसे रहे तो सम्मान महोत्सवों में भी जूते खाए। जो सच था वह आपको बता दिया, फिर न कहियेगा कि कोई प्रकाशक नहीं मिलता! बस जो मिल जाए उसे ढंग का बनाना आपका काम है।

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© श्री धर्मपाल महेंद्र जैन

संपर्क – 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

वेब पृष्ठ : www.dharmtoronto.com

फेसबुक : https://www.facebook.com/djain2017

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 330 ☆ व्यंग्य – “गए थे कुंभ नहाने, मिल गई मोनालिसा…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 330 ☆

?  व्यंग्य – गए थे कुंभ नहाने, मिल गई मोनालिसा…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

धन्य हैं वे श्रद्धालु जो कुंभ में गंगा दर्शन की जगह मोनालिसा की चितवन लीला की रील सत्संग में व्यस्त हैं. स्त्री की आंखों की गहरी झील में डूबना मानवीय फितरत है. मेनका मिल जाएं तो ऋषि मुनियों के तप भी भंग हो जाते हैं. हिंदी लोकोक्तियाँ और कहावतें बरसों के अध्ययन और जीवन दर्शन, मनोविज्ञान पर आधारित हैं. “आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’ एक प्रचलित लोकोक्ति है. इसका अर्थ है कि किसी विशेष उद्देश्य से हटकर किसी अन्य कार्य में व्यस्त हो जाना. बड़े लक्ष्य तय करने के बाद छोटे-मोटे इतर कामों में भटक जाना”.

कुम्भ में इंदौर की जो मोनालिसा रुद्राक्ष और 108 मोतियों वाली जप मालाएं बेचती हैं उनकी मुस्कान से अधिक उनकी भूरी आंखों की चर्चा है. वे शालीन इंडियन ब्लैक ब्यूटी आइकन बन गई हैं. यह सब सोशल मीडिया का कमाल है. एक विदेशी युवती सौ रुपए लेकर कुंभ यात्रियों के साथ सेल्फी खिंचवा रही है. दिल्ली में वड़ा पाव बेचने वाली सोशल मीडिया से ऐसी वायरल हुई कि रियल्टी शो में पहुंच गई. मुंबई के फुटपाथ पर लता मंगेशकर की आवाज में गाने वाली सोशल मीडिया की कृपा से रातों रात स्टार बन गई. जाने कितने उदाहरण हैं सोशल मीडियाई ताकत के कुछ भले, कुछ बुरे. बेरोजगारी का हल सोशल इन्फ्लूएंसर बन कर यू ट्यूब और रील से कमाई है.

तो कुंभ में मिली मोनालिसा की भूरी चितवन इन दिनों मीडिया में है. यद्यपि इतालवी चित्रकार लियोनार्दो दा विंची की विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग मोनालिसा स्मित मुस्कान के लिए सुप्रसिद्ध है. यह पेंटिंग 16वीं शताब्दी में बनाई गई थी. यह पेंटिंग फ़्लोरेंस के एक व्यापारी फ़्रांसेस्को देल जियोकॉन्डो की पत्नी लीज़ा घेरार्दिनी को मॉडल बनाकर की गई थी. यह सुप्रसिद्व पेंटिंग आजकल पेरिस के लूवर म्यूज़ियम में रखी हुई है. इस पेंटिंग को बनाने में लिओनार्दो दा विंची को 14 वर्ष लग गए थे. पेंटिंग में 30 से ज़्यादा ऑयल पेंट कलर लेयर्स है. इस पेंटिंग की स्मित मुस्कान ही इसकी विशेषता है. यूं भी कहा गया है कि अगर किसी परिस्थिति के लिए आपके पास सही शब्द न मिलें तो सिर्फ मुस्कुरा दीजिये, शब्द उलझा सकते है किन्तु मुस्कुराहट हमेशा काम कर जाती है.

तो अपना कहना है कि मुस्कराते रहिए. माला फ़ेरत युग गया, माया मिली न राम, कुंभ स्नान से अमरत्व मिले न मिले, पाप धुले न धुलें, किसे पता है. पर राम नामी माला खरीदिए, मोनालिसा के संग सेल्फी सत्संग कीजिए, इसमें त्वरित प्रसन्नता सुनिश्चित है. हमारे धार्मिक मेले, तीज त्यौहार और तीर्थ समाज के व्यवसायिक ताने बाने को लेकर भी तय किए गए हैं. आप भी कुंभ में डुबकी लगाएं.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 38 – निःशुल्क वस्तुओं का जाल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 38 – निःशुल्क वस्तुओं का जाल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

आजकल भारत में एक नई संस्कृति प्रचलित हो गई है – ‘फ्रीबी कल्चर।’ जैसे ही चुनावों का मौसम आता है, नेता लोग निःशुल्क वस्तुओं का जाल बुनने लगते हैं। अब ये निःशुल्क वस्तुएँ क्या हैं? एकबारगी तो यह सुनकर आपको लगेगा कि ये किसी जादूगर की जादुई छड़ी का कमाल है, लेकिन असल में यह तो केवल राजनैतिक चालाकी है।

राजनीतिक पार्टी के नेता जब मंच पर चढ़ते हैं, तो उनका पहला वादा होता है: “आपको मुफ़्त में ये मिलेगा, वो मिलेगा।” जैसे कि कोई जादूगर हॉटकेक बांट रहा हो। सोचिए, अगर मुहावरे में कहें, तो “फ्री में बुरा नहीं है।” पर सवाल यह है कि ये निःशुल्क वस्तुएँ हमें कितनी आसानी से मिलेंगी?

एक बार मैंने अपने मित्र से पूछा, “तूने चुनावों में ये निःशुल्क वस्तुएँ ली हैं?” वह हंसते हुए बोला, “लेता क्यों नहीं, बही खाता है।” जैसे कि मुफ्त में लड्डू खाने के लिए किसी ने उसे आमंत्रित किया हो। उसकी बात सुनकर मुझे लगा, हम सभी मुफ्तखोर बन गए हैं।

फिर मैंने सोचा, आखिर ये नेता किस प्रकार का जादू कर रहे हैं? क्या ये सब्जियों की दुकान से खरीदकर ला रहे हैं या फिर फलों की टोकरी से निकालकर हमें थमा रहे हैं? नहीं, ये सब तो हमारे कर के पैसे से ही आता है। तो जब हम मुफ्त में कुछ लेते हैं, तो क्या हम अपने ही पैसों को वापस ले रहे हैं? यह एक प्रकार का आत्मा का हंसी मजाक है, जहां हम अपने ही जाल में फंसे हुए हैं।

और जब हम फ्रीबी की बात करते हैं, तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ये फ्रीबी कोई बिस्किट का पैकेट नहीं है, यह तो एक ऐसे लोन का जाल है, जिसका भुगतान हमें भविष्य में करना है। यह एक नारा है – “हम आपको देंगे, लेकिन इसके लिए आप हमें अपनी आवाज़ दें।” इसलिए, जब भी कोई निःशुल्क वस्तु मिलती है, हमें उस पर दो बार सोचना चाहिए।

आधुनिकता के इस दौर में, मुफ्त में चीजें लेना जैसे एक नया धर्म बन गया है। लोग अपनी गरिमा को भूलकर उन मुफ्त वस्तुओं की कतार में लग जाते हैं। और नेता भी इस बात का फायदा उठाते हैं। वे यह सोचते हैं कि “अगर हम मुफ्त में कुछ देते हैं, तो हमें वोट मिलेंगे।” तो क्या हम अपनी आत्मा को बिकने के लिए तैयार कर रहे हैं? यह तो जैसे अपने घर की दीवारों को बेचने जैसा है।

इस फ्रीबी संस्कृति के चलते, हमने अपनी मेहनत की कीमत कम कर दी है। अब लोग काम करने के बजाय मुफ्त में चीजें पाने की तलाश में रहते हैं। और नेता? वे खुश हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि हम मुफ्त में चीजें लेकर खुश हैं। यह एक चक्रव्यूह है, जिसमें हम सभी फंसे हुए हैं।

मैंने तो सुना है कि कुछ जगहों पर लोग मुफ्त में शराब और सिगरेट भी पाने के लिए वोट देते हैं। तो क्या हम अपनी सेहत की भीख मांग रहे हैं? यह एक ऐसी स्थिति है, जहां हम अपने स्वास्थ्य का सौदा कर रहे हैं। हमें यह समझना चाहिए कि “फ्रीबी” का मतलब सिर्फ मुफ्त में चीजें लेना नहीं है, बल्कि यह हमारे भविष्य को दांव पर लगाना है।

और तो और, जब ये नेता अपने वादों को पूरा नहीं कर पाते, तो हमें याद दिलाते हैं कि “देखो, हमने तो फ्रीबी दी थी।” तो क्या यह हम पर निर्भर नहीं है कि हम अपने अधिकारों के लिए खड़े हों? हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी कि मुफ्त में मिले सामान का मतलब यह नहीं कि हमने अपनी आवाज़ बेच दी है।

अब सवाल यह उठता है कि क्या हमें फ्रीबी की संस्कृति को खत्म करना चाहिए? या फिर हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा? हम केवल इसलिए मुफ्त में चीजें नहीं ले सकते क्योंकि यह हमें आसान लगती है। हमें अपने वोट की कीमत समझनी होगी और उसे केवल मुफ्त वस्तुओं के बदले नहीं बेचना चाहिए।

समाप्ति में, मैं यह कहूंगा कि फ्रीबी लेना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन हमें यह समझना होगा कि यह एक सतत चक्र है। हमें अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी और अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहना होगा। तब ही हम इस निःशुल्क वस्तुओं के जाल से बाहर निकल पाएंगे। और जब हम इस जाल से बाहर निकलेंगे, तब हम वास्तविकता का सामना कर पाएंगे। इसलिए, फ्रीबी को छोड़कर, अपने मेहनत के पैसे पर भरोसा करना ही बेहतर है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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