हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 36 – “अंतिम सम्मान: समय से परे ज्ञान की कहानी” ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना “अंतिम सम्मान: समय से परे ज्ञान की कहानी”)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 36 – “अंतिम सम्मान: समय से परे ज्ञान की कहानी” ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

बुढ़ापा क्या है? एक ऐसा संतत्व जो बिना पूजा, बिना माला, और बिना शांति के थमा दिया जाता है। और इसके साथ मिलता है एक गिफ्ट पैक—उम्मीदों का, तानों का और एक अजीब सा सम्मान जो तंग करता है। ऐसे ही हमारे नायक, 82 साल के जगन्नाथ शर्मा, कानपुर वाले, इस अनचाहे संतत्व के शिकार बन गए।

जगन्नाथ जी का जीवन एक पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर बीतता था—उनका राजसिंहासन। उनका साम्राज्य? एक दो कमरे का फ्लैट, जहां तीन पीढ़ियां एक साथ रहती थीं, लेकिन किसी को उनसे मतलब नहीं था। “दादा जी तो घर का फर्नीचर हैं,” ये सबने मान लिया था।

“बुजुर्गों को सबसे अच्छा तोहफा क्या दे सकते हो? अपनी गैर-मौजूदगी,” उनका पोता, केशव, अक्सर कहा करता था। वो यह कहता हुआ अपने फोन पर ऐसे व्यस्त रहता जैसे प्रधानमंत्री कार्यालय से सीधा आदेश आ रहा हो। “बुजुर्ग तो पूजनीय होते हैं, लेकिन नेटफ्लिक्स भी तो ज़रूरी है,” केशव ने अपना तर्क पूरा किया।

जगन्नाथ जी की कहानी अनोखी नहीं थी। ये एक ऐसा राष्ट्रीय खजाना है जिसे हम सब छुपा कर रखते हैं। जहाँ वेद कहते हैं कि बुजुर्ग भगवान के समान होते हैं, वहीँ आधुनिक परिवार उनकी पूजा योग की तरह करते हैं—कभी-कभार और इंस्टाग्राम पर दिखाने के लिए। उनके बेटे प्रकाश शर्मा, जो ‘पारिवारिक मूल्यों’ पर बड़े-बड़े भाषण देते थे, ने अपने पिता को बचा हुआ खाना और बेपरवाही के साथ जीवन जीने की परंपरा दी थी। “पापा, आदर दिल से होता है, कामों से नहीं। और मेरा दिल साफ है,” प्रकाश ने कहा।

भारतीय संस्कृति संयुक्त परिवारों पर गर्व करती है। ये गर्व अक्सर शादी में भाषणों के रूप में दिखता है, जबकि दादा-दादी को बच्चों के साथ छोड़ दिया जाता है जो उन्हें चलती-फिरती मूर्ति समझते हैं। “दादा जी ताजमहल की तरह हैं,” केशव की छोटी बहन रिया ने कहा। “खूबसूरत, लेकिन दूर से देखने में ही अच्छे लगते हैं।”

एक दिन परिवार ने “वृद्ध दिवस” मनाने की योजना बनाई। योजना क्या थी? जगन्नाथ जी की सलाह को अनसुना करना, उन्हें मसालेदार खाना खिलाना जो उनके पेट के लिए ज़हर था, और सोशल मीडिया पर दिल छू लेने वाले कैप्शन डालना। “हैशटैग ग्रैटीट्यूड,” रिया ने लिखा, जगन्नाथ जी की एक फोटो के साथ जिसमें वो एक प्लेट छोले को देखते हुए उलझन में थे।

प्रकाश ने “त्याग” पर भाषण दिया, लेकिन उस त्याग का ज़िक्र नहीं किया जब उन्होंने जगन्नाथ जी की पुश्तैनी ज़मीन बेच दी थी। “परिवार ही सब कुछ है,” प्रकाश ने जोड़ा, वकील का मैसेज इग्नोर करते हुए जो उनके पिता की पेंशन के केस के बारे में था।

पड़ोसी भी आए। “बुजुर्ग अनमोल होते हैं,” गुप्ता जी ने कहा, जो खुद अपने पिता को वृद्धाश्रम भेजने की गूगल सर्च कर रहे थे। “उनकी बुद्धि तो अनमोल है,” गुप्ता आंटी ने जोड़ा, जो जगन्नाथ जी को पार्क की बेंच से हटाने की शिकायत कर चुकी थीं।

दिन के अंत में, उन्होंने एक तोहफा दिया—ब्लूटूथ हियरिंग ऐड। “तकनीक सब कुछ आसान कर देती है,” केशव ने कहा, जब उनके दादा उसे चालू करने की कोशिश में लगे हुए थे।

सब्र का बांध तब टूटा जब उन्होंने एक केक लाया—जो लाठी के आकार का था। “दादा जी, काटिए!” रिया ने खुशी-खुशी कहा। “क्या शानदार लमहा है,” गुप्ता आंटी ने कहा, केक के साथ सेल्फी लेते हुए, जिसमें उन्होंने जगन्नाथ जी को क्रॉप कर दिया।

जगन्नाथ जी उठ खड़े हुए, ये अपने आप में एक चमत्कार था। “बस बहुत हुआ!” वे चिड़चिड़े हो उठे। “आप लोग मेरा सम्मान वैसे ही करते हैं जैसे ट्रैफिक सिग्नल का—सिर्फ तब, जब पुलिस वाला देख रहा हो!”

परिवार स्तब्ध था। दादा जी ने शायद पहली बार अपने मन की बात कही थी। “आप लोग कहते हैं मैं समझदार हूं, लेकिन रिमोट तक देने में विश्वास नहीं रखते।”

जगन्नाथ जी की ये बातें पड़ोस के व्हाट्सएप ग्रुप पर वायरल हो गईं। उनका नाम पड़ गया—”विप्लवी दादा”। “सच्चे इंसान हैं,” गुप्ता जी ने लिखा, और फिर ग्रुप म्यूट कर दिया। प्रकाश ने अपनी लिंक्डइन प्रोफाइल पर जोड़ लिया, “महापुरुष का बेटा।”

जगन्नाथ जी को आखिरकार शांति अकेलेपन में मिली। “बुढ़ापा एक तोहफा है,” उन्होंने कहा। “लेकिन इस परिवार में, ये बस री-गिफ्टिंग जैसा है।”

और इस तरह, जगन्नाथ शर्मा की कहानी हमें याद दिलाती है कि आदर, चाय की तरह है—गर्म और बिना बनावट के होना चाहिए। लेकिन भारत में बुढ़ापा? वो हमेशा एक आशीर्वाद और एक मजाक के बीच झूलता रहेगा।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 327 ☆ व्यंग्य – “मेड, इन इंडिया…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 327 ☆

?  व्यंग्य – मेड, इन इंडिया…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 मेड के बिना  घर के सारे सदस्य और खासकर मैडम मैड हो जाती हैं.

मेड की महिमा, उसका महात्म्य कोरोना ने हर घर को समझा दिया है. जब खुद झाड़ू पोंछा, बर्तन, खाना नाश्ता, कपड़े, काल बेल बजते ही बाहर जाकर देखना कि दरवाजे पर कौन है, यह सब करना पड़ा तब समझ आया कि इन सारे कथित नान प्राडक्टिव कामों का तो दिन भर कभी अंत ही नही होता. ये काम तो हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ते ही जाते हैं. जो बुद्धिजीवी विचारवान लोग हैं, उन्हें लगा कि वाकई मेड का वेतन बढ़ा दिया जाना चाहिये. कारपोरेट सोच वाले मैनेजर दम्पति को समझ आ गया कि असंगठित क्षेत्र की सबसे अधिक महत्वपूर्ण इकाई होती है मेड. बिना झोपड़ियों के बहुमंजिला अट्टालिकायें कितनी बेबस और लाचार हो जाती हैं, यह बात कोरोना टाईम ने एक्सप्लेन कर दिखाई है. भारतीय परिवेश में हाउस मेड एक अनिवार्यता है. हमारा सामाजिक ताना बाना इस तरह बुना हुआ है कि हाउस मेड यानी काम वाली हमारे घर की सदस्य सी बन जाती है. जिसे अच्छे स्वभाव की, साफसुथरा काम करने वाली, विश्वसनीय मेड मिल जावे उसके बड़े भाग्य होते हैं. हमारे देश की ईकानामी इस परस्पर भरोसे में गुंथी हुई अंतहीन माला सी है. किस परिवार में कितने सालों से मेड टिकी हुई है, यह बात उस परिवार के सदस्यो के व्यवहार का अलिखित मापदण्ड और विशेष रूप से गृहणी की सदाशयता की द्योतक होती है.

विदेशों में तो ज्यादातर परिवार अपना काम खुद करते ही हैं, वे पहले से ही आत्मनिर्भर हैं. पर कोरोना पीरियड ने हम सब को स्वाबलंब की नई शिक्षा बिल्कुल मुफ्त दे डाली है. विदेशो में मेड लक्जरी होती है. जब बच्चे बहुत छोटे हों तब मजबूरी में  हाउस मेड रखी जाती हैं. मेड की बड़ी डिग्निटी होती है. उसे वीकली आफ भी मिलता है. वह घर के सदस्य की तरह बराबरी से रहती है. कुछ पाकिस्तानी, भारतीय युवाओ ने जो पति पत्नी दोनो विदेशो में कार्यरत हैं, एक राह निकाल ली है, वे मेड रखने की बनिस्पत बारी बारी से अपने माता पिता को अपने पास बुला लेते हैं. बच्चे के दादा दादी, नाना नानी को पोते पोती के सानिध्य का सुख मिल जाता है, विदेश यात्रा और कुछ घूमना फिरना भी बोनस में हो जाता है, बच्चो का मेड पर होने वाला खर्च बच जाता है.

मेरे एक मित्र तो बहू बेटे को अमेरिका से अपने पास बुलाना ज्यादा पसंद करते हैं, स्वयं वहां जाने की अपेक्षा, क्योंकि यहां जैसे मेड वाले आराम वहां कहां ? बर्तन, कपड़े धोने सुखाने की मशीन हैं जरूर पर मशीन में कपड़े बर्तन डालने निकालने तो पड़ते ही हैं। पराठे रोटी बने बनाए भले मिल जाएं पैकेट बंद पर सारा खाना खुद बनाना होता है। यहां के ठाठ अलग हैं कि चाय भी पलंग पर नसीब हो जाती है मेड के भरोसे । इसीलिए मेड के नखरे उठाने में मैडम जी समझौते कर लेती हैं।

सेल्फ सर्विस वाले अमरीका में होटलों में हमारे यहां की तरह कुनकुने पानी के फिंगर बाउल में  नींबू डालकर हाथ धोना नसीब नहीं, वहां तो कैचप, साल्ट और स्पून तक खुद उठा कर लेना पड़ता है और वेस्ट बिन में खुद ही प्लेट डिस्पोज करनी पड़ती है । मेड की लक्जरी भारत की गरीबी और आबादी के चलते ही नसीब है । मेड इन इंडिया, कपड़े धोने सुखाने प्रेस करने, खाना बनाने से लेकर बर्तन धोने, घर की साफ सफाई, झाड़ू पोंछा फटका का उद्योग है, जिसके चलते रहने से ही साहब साहब हैं और मैडम मैडम । इसलिए मेड, इन इंडिया खूब फले फूले, मोस्ट अनार्गजाइज्ड किंतु वेल मैनेज्ड सेक्टर है मेड, इन इंडिया।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 272 ☆ व्यंग्य – दो हैसियतों का किस्सा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘दो हैसियतों का किस्सा‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 272 ☆

☆ व्यंग्य ☆ दो हैसियतों का किस्सा

बब्बन भाई पुराने नेता हैं। राजनीति के सभी तरह के खेलों में माहिर। लेकिन इस बार वे विवाद में पड़ कर सुर्खियों में आ गये। बात यह हुई कि अपनी जाति के एक सम्मेलन में जोशीला भाषण दे आये कि हमें अपनी जाति की रक्षा करना चाहिए, अपनी जाति के अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए, हमारी जाति का गौरवशाली इतिहास है, हमारी जाति की जानबूझकर उपेक्षा की जा रही है।

अखबारों ने उनके भाषण को उछाल दिया और उनकी लानत-मलामत शुरू कर दी कि बब्बन भाई जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता ने अपनी जाति की वकालत क्यों की। विरोधियों को मौका मिल गया। उन्होंने वक्तव्य दे दिया कि बब्बन भाई जातिवादी, संकीर्ण विचारों वाले हैं और कहा कि वे अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करें।

इसी हल्ले-गुल्ले की पृष्ठभूमि में मैं बब्बन भाई के दर्शनार्थ गया। बब्बन भाई उस वक्त कुछ खिन्न मुद्रा में तख्त पर मसनद के सहारे अधलेटे थे। सामने मेज़ पर पानदान था और उसकी बगल में दो टोपियां तहायी रखी थीं— एक सफेद और दूसरी पीली।

मैंने उनके बारे में उठे विवाद का ज़िक्र किया तो बब्बन भाई कुछ दुखी भाव से बोले,  ‘दरअसल बंधुवर, इस प्रकार के विवाद नासमझी से पैदा होते हैं। अखबार वाले यह नहीं समझते कि आदमी की दो हैसियत होती हैं, एक उसकी निजी हैसियत और दूसरी सामाजिक या सार्वजनिक हैसियत। अब मैं सार्वजनिक जीवन में आ गया तो इसका मतलब यह तो नहीं है कि मेरी निजी हैसियत खत्म हो गयी। यही नासमझी सारे विवाद की जड़ में है।’

मैंने कहा, ‘लेकिन बब्बन भाई, क्या निजी हैसियत और सामाजिक हैसियत अलग-अलग हो सकती है?’

बब्बन भाई आश्चर्य से बोले, ‘क्यों नहीं हो सकती भाई? मैं एक जाति, धर्म में पैदा हुआ। मैंने जाति, धर्म को चुना तो है नहीं। तो जन्म के कारण मेरी धार्मिक, जातिगत हैसियत तो अपने आप बन गयी न? और जब हैसियत बन गयी तो धर्म से, जाति से अलग कैसे रहूंगा भला?’

मैंने कहा, ‘लेकिन आपकी पार्टी तो धर्मनिरपेक्ष और जातिवाद के खिलाफ होने की घोषणा करती है।’

बब्बन भाई मसनद पर मुट्ठी पटक कर बोले, ‘मैं भी वही मानता हूं, एकदम सौ प्रतिशत ।लेकिन सार्वजनिक हैसियत में। सार्वजनिक हैसियत में तो मैं पार्टी के सिद्धान्तों से टस से मस नहीं होता। आपने अभी पंद्रह दिन पहले राजनगर में दिये गये मेरे भाषण की रिपोर्ट नहीं पढ़ी?’

मैंने कहा, ‘बब्बन भाई, यह तो भारी घालमेल है। एक ही शरीर में दो आत्माएं कैसे रहती हैं?’

बब्बन भाई जैसे आहत हो गये, बोले, ‘भैया, कूवत हो तो दो क्या पच्चीस आत्माएं रह सकती हैं। अब आप न समझ सको तो मेरा क्या दोष?’

फिर बोले, ‘वैसे आप जैसे कनफ्यूज़्ड लोगों को समझाने के लिए मैंने रास्ता निकाल लिया है।’

वे उन दो टोपियों की तरफ इशारा करके बोले, ‘ये टोपियां देख रहे हैं न? इनमें से सफेद टोपी मेरी सार्वजनिक हैसियत की टोपी है और पीली टोपी निजी हैसियत की। जब मेरा दृष्टिकोण व्यापक, मानवीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय होता है तब मैं सफेद टोपी लगाता हूं। तब धर्मनिरपेक्षता, आर्थिक-सामाजिक समानता और राष्ट्रीय हितों पर ऐसा भाषण देता हूं कि सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।

‘जब जाति और धर्म की भावना ठाठें मारने लगती है, समानता राष्ट्रीयता की बातें मूर्खता लगने लगती हैं, दूसरे धर्म और दूसरी जातियां अपने खिलाफ खड़े दिखाई देते हैं, तब पीली टोपी लगा लेता हूं। तब जाति और धर्म पर प्राण न्यौछावर करने की बात करता हूं। उस दिन  मैं अपनी जाति की सभा में पीली टोपी लगाये था, लेकिन अखबार वालों ने जबरदस्ती बदनाम कर दिया।’

मैंने कहा, ‘ये तो जैकिल और हाइड वाली कहानी हो गयी।’

बब्बन भाई बोले, ‘ जैकिल और हाइड वाली कहानी कहां हुई,भाई?जैकिल तो दवा पीकर हाइड बनता था। हमारे दोनों रूप तो हमारे जन्म और हमारे सेवा-भाव से पैदा हुए हैं। फिर हाइड तो जैकिल की दुष्ट आत्मा थी। मेरे तो दोनों ही रूप शुभ हैं— एक राष्ट्र के लिए तो दूसरा धर्म और जाति के लिए।’

मैंने कहा, ‘कई बार जाति और धर्म का हित राष्ट्र के खिलाफ चला जाता है।’

वे बोले, ‘बकवास है। यह सब तुम जैसे लोगों के दिमाग का फितूर है। जब समूह का भला होगा तो राष्ट्र का भी भला होगा।’

मैंने कहा, ‘लेकिन विभिन्न समूहों में आपस में विरोध हो तो?’

बब्बन भाई बोले, ‘तो जो समूह ताकतवर हो उसका भला होना चाहिए। इसी में राष्ट्र का हित है। सरकार को भी ऐसे ही समूह का साथ देना चाहिए।’

मैंने कहा, ‘छोटी जातियों के बारे में आपका विचार क्या है?’

बब्बन भाई बोले, ‘सार्वजनिक हैसियत से बोलूं या निजी हैसियत से?’

मैंने कहा, ‘पहले सार्वजनिक हैसियत में बोलिए।’

उन्होंने झट से सफेद टोपी पहन ली और गंभीर मुद्रा बनाकर एक सुर में शुरू हो गये — ‘नीची जातियों का उत्थान हमारा कर्तव्य है। नीची जातियों ने सदियों अपमान और तकलीफ की जिन्दगी गुजारी है। हमारा कर्तव्य है कि उन्हें सुविधाएं देकर राष्ट्र की मुख्यधारा में लायें और अपने पूर्वजों की गलतियों का प्रायश्चित करें। हमें गांधी बाबा के दिखाये रास्ते पर चलना है और इस काम में कोई विरोध हम बर्दाश्त नहीं करेंगे।’

मैंने कहा, ‘अब निजी हैसियत से हो जाए।’

उन्होंने फौरन सफेद टोपी उतार कर पीली टोपी पहन ली। टोपी पहनने के साथ उनकी भवें तन गयीं और स्वर ऊंचा हो गया। गरज कर बोले, ‘ये छोटी जातियां जो हैं, हमारे सिर पर बैठ गयी हैं। ये हमारी सरकार की गलत नीतियों का परिणाम है। आदमी की श्रेष्ठता जन्म से भगवान निश्चित कर देता है। जो श्रेष्ठ है वही श्रेष्ठ रहना चाहिए, उसमें सरकारी हस्तक्षेप महापाप है। पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं, इसी तरह आदमियों में भी अन्तर अनिवार्य है। सभी उच्च जातियों को चाहिए कि एक होकर अपनी श्रेष्ठता और पवित्रता की रक्षा करें और सरकार पर दबाव डालें कि जो व्यवस्था सनातन काल से चली आयी है उसमें बेमतलब हेरफेर करने की कोशिश न करे।’

वे एकदम से चुप हो गये जैसे चाबी खतम हो गयी हो।

मैंने कहा, ‘कमाल है, बब्बन भाई। आपसे तो गिरगिट भी मात खा गया। धन्य हैं आप।’

बब्बन भाई कुछ लज्जित होकर बोले, ‘मजाक छोड़िए। कम से कम आपको यकीन तो हुआ कि आदमी की निजी और सामाजिक हैसियत अलग-अलग हो सकती है।’

आठ दिन बाद सुना कि एक सभा में भाषण देते बब्बन भाई पर विरोधियों ने हमला बोल दिया। उनकी खासी धुनाई हो गयी। देखने गया तो वे जगह  जगह पट्टियां बांधे लेटे थे। चेहरा सूजा था।

मैंने पूछा, ‘किस हैसियत से पिटे, बब्बन भाई?’

बब्बन भाई कराह कर बोले, ‘यह भी कोई पूछने की बात है? सार्वजनिक हैसियत में पिटा। मंच पर राजनीतिक भाषण दे रहा था। सफेद टोपी पहने था।’

मैंने कहा, ‘निजी हैसियत में पिटना कौन सा होता है?’

बब्बन भाई आंखें मींचे हुए बोले, ‘जब जमीन-जायदाद, चोरी-चकारी, बलात्कार के मामले में पिटाई हो तो वह निजी हैसियत में पिटना होता है।’

मैंने कहा, ‘रुकिए, बब्बन भाई, अभी आपकी तकलीफ दूर करता हूं।’

मैंने उन्हें पीली टोपी पहना दी, कहा, ‘मैंने आपकी हैसियत बदल दी है। अब आपकी तकलीफ कम हो जाएगी।’

बब्बन भाई ने नाराज़ होकर टोपी उतार फेंकी। बोले, ‘तकलीफ की भी कोई हैसियत होती है क्या? टोपी बदलने से क्या तकलीफ चली जाएगी? मसखरी करने के लिए यही वक्त मिला था तुम्हें?’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 35 – पंचायत की पगड़ी और पिज्जा का मोल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना पंचायत की पगड़ी और पिज्जा का मोल)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 35 – पंचायत की पगड़ी और पिज्जा का मोल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गाँव हरिपुर में पंचायत का बड़ा आयोजन था। ऐसा कहा जा रहा था कि इस बार ‘विकास’ नामक अमूल्य वस्तु का वितरण होगा। विकास वही जादुई चीज थी, जिसे नेता जी चुनावों के दौरान दिखाते थे लेकिन बाद में वो कहीं गुम हो जाती थी। पंचायत भवन पर बैनर लगा था – “हरिपुर: आधुनिकता की ओर पहला कदम।”

सभा शुरू हुई। नेता जी आए, हाथ जोड़कर मुस्कुराए और बोले, “गाँववालों, इस बार हमने विकास का पूरा खाका तैयार किया है।” फिर वे चुप हो गए, मानो खाका दिखाना भूल गए हों। तभी पीछे से चौधरी रामलाल खड़े हुए और बोले, “नेता जी, खाका तो दिखाइए!”

नेता जी झेंप गए। बोले, “खाका अभी प्रक्रिया में है। लेकिन विकास के लिए हमने दो योजनाएँ बनाई हैं। पहली योजना है ‘हर घर पिज्जा योजना’।”

गाँववालों की आँखें चमक उठीं। पिज्जा का नाम सुनते ही बच्चा-बूढ़ा सब खुश हो गए। किसी ने पूछा, “पिज्जा का क्या मतलब है?”

नेता जी ने समझाया, “पिज्जा का मतलब है बदलाव। बदलाव का स्वाद, जिसे हर घर तक पहुँचाया जाएगा।”

सभा में तालियाँ गूँज उठीं।

दूसरी योजना थी – ‘गड्ढों में गगनचुंबी सपने।’ नेता जी ने कहा, “हम सड़कों पर गड्ढे नहीं भरेंगे। गड्ढे हमारे इतिहास की धरोहर हैं। लेकिन हर गड्ढे के बगल में एक ‘स्वप्न-झूला’ लगाएँगे।”

गाँववालों को समझ नहीं आया कि यह स्वप्न-झूला क्या है। नेता जी ने बताया, “जब आप झूले पर बैठेंगे, तो आपको ऐसा लगेगा कि आप किसी मेट्रो सिटी की सड़क पर चल रहे हैं। यह झूला सस्ती दरों पर किराए पर मिलेगा।”

सभा में हलचल मच गई। लोग आपस में कानाफूसी करने लगे। लेकिन कोई खुलकर विरोध नहीं कर पाया, क्योंकि विरोध करने वाले को नेता जी के चमचों से तुरंत ‘अविकसित’ घोषित कर दिया जाता था।

सभा के अंत में विकास का प्रतीक – ‘पिज्जा बॉक्स’ – हर सरपंच को सौंपा गया। यह पिज्जा बॉक्स असल में खाली था। नेता जी ने मुस्कुराकर कहा, “यह खाली बॉक्स हमारे सपनों का प्रतीक है। आप इसे अपने घर सजाकर रखिए, ताकि हर दिन आपको विकास की याद आए।”

सभा खत्म हुई। पंचायत भवन के बाहर चाय-पकौड़े की दुकान पर लोग चर्चा कर रहे थे।

“ये विकास का पिज्जा तो बड़ा स्वादिष्ट है। न खाने को कुछ और न शिकायत करने का मौका!” रामलाल बोले।

चायवाले ने हँसकर कहा, “गाँव का विकास अब पिज्जा के बक्सों में सिमट गया है। और वो झूले, वो तो बस हवा में सपने देखने का एक और बहाना है।”

नेता जी अपनी गाड़ी में बैठे, हाथ हिलाते हुए बोले, “गाँववालों, अगले चुनाव में मिलते हैं। तब तक झूलते रहिए और पिज्जा का मज़ा लेते रहिए।”

और इस तरह हरिपुर का आधुनिकता की ओर पहला कदम हवा में लटका रह गया।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 325 ☆ व्यंग्य – “कोसने में पारंगत बने…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 325 ☆

?  व्यंग्य – कोसने में पारंगत बने…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

लोकतंत्र है तो अब राजा जी को चुना जाता है शासन करने के लिए। लिहाजा जनता के हर भले का काम करना राजा जी का नैतिक कर्तव्य है। जनता ने पांच साल में एक बार धकियाये धकियाये वोट क्या दे दिया लोकतंत्र ने सारे, जरा भी सक्रिय नागरिकों को और विपक्ष को पूरा अधिकार दिया है कि वह राजा जी से उनके हर फैसले पर सवाल करे।

दूसरे देशों के बीच जनता की साख बढ़ाने राजा जी विदेश जाएँ तो बेहिचक राजा जी पर आरोप लगाइये कि वो तो तफरी करने गए थे। एक जागरूक एक्टीविस्स्ट की तरह राइट ऑफ इन्फर्मेशन में राजा जी की विदेश यात्रा का खर्चा निकलवाकर कोई न कोई पत्रकार छापता ही है कि जनता के गाढ़े टैक्स की इतनी रकम वेस्ट कर दी। किसी हवाले से छपी यह जानकारी कितनी सच है या नहीं इसकी चिंता करने की जरुरत नहीं है, आप किस कॉन्फिडेंस से इसे नमक मिर्च लगाकर अपने दोस्तों के बीच उठाते हैं, महत्व इस बात का है।

 विदेश जाकर राजा जी वहां अपने देश वासियों से मिलें तो बेहिचक कहा जा सकता है कि यह राजा जी का लाइम लाइट में बने रहने का नुस्खा है। कहीं कोई पड़ोसी घुसपैठ की जरा भी हरकत कर दे, या किसी विदेशी खबर में देश के विषय में कोई नकारात्मक टिप्पणी पढ़ने मिल जाये या किसी वैश्विक संस्था में कहीं देश की कोई आलोचना हो जाये तब आपका परम कर्तव्य होता है कि किसी टुटपुँजिया अख़बार का सम्पादकीय पढ़कर आप अधकचरा ज्ञान प्राप्त करें और आफिस में काम काज छोड़कर राजा जी के नाकारा नेतृत्व पर अपना परिपक्व व्यक्तव्य सबके सामने पूरे आत्म विश्वास से दें, चाय पीएं और खुश हों। राजा जी इस  परिस्तिथि का जिस भी तरह मुकाबला करें उस पर टीवी डिबेट शो के जरिये नजर रखना और फिर उस कदम की आलोचना देश के प्रति हर उस शहरी का दायित्व होता है जो इस स्तिथि में निर्णय प्रक्रिया में किसी भी तरह का भागीदार नहीं हो सकता।

राजा जी अच्छे कपड़े पहने तो ताना मारिये कि गरीब देश का नेता महंगे लिबास क्यों पहने हुए है, यदि कपडे साधारण पहने जाएँ तो उसे ढकोसला और दिखावा बता कर कोसना न भूलिये। देश में कभी न कभी कुछ चीजों की महंगाई, कुछ की कमी तो होगी ही, इसे आपदा में अवसर समझिये। विपक्ष के साथ आप जैसे आलोचकों की पौ बारह, इस मुद्दे पर तो विपक्ष इस्तीफे की मांग के साथ जन आंदोलन खड़ा कर सकता है। कथित व्यंग्यकार हर राजा के खिलाफ कटाक्ष को अपना धर्म मानते ही हैं। सम्पादकीय पन्ने पर छपने का अवसर न गंवाइए, यदि आप में व्यंग्य कौशल न हो तो भी सम्पादक के नाम पत्र तो आप लिख ही सकते हैं। राजा जी के पक्ष में लिखने वाले को गोदी मीडिया कहकर सरकारी पुरुस्कार का लोलुप साहित्यकार बताया जा सकता है, और खुद का कद बडा किया जा सकता है। महंगाई ऐसी पुड़िया है जिसे कोई खाये न खाये उसका रोना सहजता से रो सकता है। आपकी हैसियत के अनुसार आप जहां भी महंगाई के मुद्दे को उछालें चाय की गुमटी, पान के ठेले या काफी हॉउस में आप का सुना जाना और व्यापक समर्थन मिलना तय है। चूँकि वैसे भी आप खुद करना चाहें तो भी महंगाई कम करने के लिए आप कुछ कर ही नहीं सकते अतः इसके लिए राजा जी को गाली देना ही एक मात्र विकल्प आपके पास रह जाता है।

राजा जी नया संसदीय भवन बनवाएं तो पीक थूकते बेझिझक इसे फिजूल खर्ची बताकर राजा जी को गालियां सुनाने का लाइसेंस प्रजातंत्र आपको देता है, इसमें आप भ्रष्टाचार का एंगिल धुंध सकें तो आपकी पोस्ट हिट हो सकती है। इस खर्च की तुलना करते हुए अपनी तरफ से आप बेरोजगारी की चिंता में यदि कुछ सच्चे झूठे आंकड़े पूरे दम के साथ प्रस्तुत कर सकें तो बढियाँ है वरना देश के गरीब हालातों की तराजू पर आकर्षक शब्दावली में आप अपने कथन का पलड़ा भारी दिखा सकते हैं।

यदि राजा जी देश से किसी गुमशुदा प्रजाति के वन्य जीव चीता वगैरह बड़ी डिप्लोमेसी से विदेश से ले आएं तो करारा कटाक्ष राजा जी पर किया जा सकता है, ऐसा की न तो राजा जी से हँसते बने और न ही रोते। इस फालतू से लगाने वाले काम से ज्यादा जरुरी कई काम आप राजा जी को अँगुलियों पर गिनवा सकते हैं।

यदि धर्म के नाम पर राजा जी कोई जीर्णोद्धार वगैरह करवाते पाए जाएँ तब तो राजा जी को गाली देने में आपको बड़ी सेक्युलर लाबी का सपोर्ट मिल सकता है। राजा जी को हिटलर निरूपित करने, नए नए प्रतिमान गढ़ने के लिए आपको कुछ वैश्विक साहित्य पढ़ना चाहिए जिससे आपकी बातें ज्यादा गंभीर लगें।

कोरोना से निपटने में राजा जी ने इंटरनेशनल डिप्लोमेसी की। किस तरह के सोशल मीडिया कैम्पेन चलते थे उन दिनों, विदेशों को वेक्सीन दें तो देश की जनता की उपेक्षा की बातें, विपक्ष के बड़े नेताओ द्वारा वेक्सीन पर अविश्वास का भरम वगैरह वगैरह वो तो भला हुआ कि वेक्सीन का ऊँट राजा जी की करवट बैठ गया वरना राजा जी को गाली देने में कसर तो रत्ती भर नहीं छोड़ी गई थी।

देश में कोई बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धि पर राजा जी का बयान आ जाये तो इसे उनकी क्रेडिट लेने की तरकीब निरूपित करना हर नाकारा आदमी की ड्यूटी होना ही चाहिये, और यदि राजा जी का कोई ट्वीट न आ पाए तब तो इसे वैज्ञानिकों की घोर उपेक्षा बताना तय है।

आशय यह है कि हर घटना पर जागरुखता से हिस्सा लेना और प्रतिक्रिया करना हर देशवासी का कर्तव्य होता है। इस प्रक्रिया में विपक्ष की भूमिका सबसे सुरक्षित पोजीशन होती है, “मैंने तो पहले ही कहा था “ वाला अंदाज और आलोचना के मजे लेना खुद कंधे पर बोझा ढोने से हमेशा बेहतर ही होता है। इसलिए राजा जी को उनके हर भले बुरे काम के लिए गाली देकर अपने नागरिक दायित्व को निभाने में पीछे न रहिये। तंज कीजिये, तर्क कुतर्क कुछ भी कीजिये सक्रीय दिखिए। बजट बनाने में बहुत सोचना समझना दिमाग लगाना पडता है। आप तो बस इतना कीजिये कि बजट कैसा भी हो, राजा कोई भी हो, वह कुछ भी करे, उसे गाली दीजिये, आप अपना पल्ला झाड़िये, और देश तथा समाज के प्रति अपने बुद्धिजीवी होने के कर्तव्य से फुर्सत पाइये।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 271 ☆ व्यंग्य – एक प्यारा प्यारा जीव ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘एक प्यारा प्यारा जीव‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 271 ☆

☆ व्यंग्य ☆ एक प्यारा प्यारा जीव

मोहन बाबू को कुत्तों से ‘एलर्जी’ है। सड़क पर कुत्ते को आते देखते हैं तो साइड बदल देते हैं। आसपास कोई कुत्ता आ जाए तो तुरन्त हाथ में पत्थर लेकर ‘दूर-दूर’ करना शुरू कर देते हैं। जिन घरों में कुत्ते हैं उनमें प्रवेश करने से पहले गेट को खटखटाकर गृहस्वामी को बाहर बुला लेते हैं ताकि आदमी से पहले कुत्ते से मुलाकात न हो जाए। ऐसे घरों में भीतर बैठने पर अगर कुत्ता प्रेमवश उनके पास आकर उन्हें सूंघना-सांघना शुरू कर दे तो उनकी रीढ़ में डर की झुरझुरी दौड़ने लगती है और पांव अपने आप ज़मीन से ऊपर हवा में उठ जाते हैं। यह प्रेम-क्रीडा देर तक चली तो वे गुहार लगाना शुरू कर देते हैं, ‘अरे भाई, इसे पकड़ो।’ गृहस्वामी मित्र हुआ तो शिकायत भी कर देते हैं, ‘यह क्या बला पाल ली, यार। घर में बैठना मुश्किल है।’

मोहन बाबू का अपना मकान है। घर में सिर्फ चार प्राणी हैं— खुद,पत्नी, एक पढ़ने वाला बेटा और एक अविवाहित बेटी। दो बड़े बेटे नौकरियों पर बाहर हैं और एक बड़ी बेटी विवाह को प्राप्त हो ससुराल में सुखी है।

रिटायर होने पर मोहन बाबू को इकट्ठी रकम मिली तो ऊपर तीन कमरे बनवाये और ऊपर ही शिफ्ट हो गये। नीचे का बड़ा हिस्सा किराये पर दे दिया। मुहल्ला शहर के भीतर है इसलिए मकानों का किराया तगड़ा है। मोहन बाबू का मकान बीस हज़ार रुपये महीने में उठ गया। किरायेदार वर्मा साहब एक प्राइवेट कंपनी में अधिकारी हैं।
वर्मा साहब के परिवार के आने से पहले उनका सामान आया। सामान को देखकर मुहल्ले वालों ने जांच लिया कि आदमी हैसियत और नफ़ासत वाला है। सामान के बाद कार और  स्कूटरों पर परिवार के सदस्य आये। मोहन बाबू का खून यह देखकर सूख गया कि कार में एक कद्दावर, काली चमकदार चमड़ी वाला श्वान भी विराजमान था। वर्मा जी से पहले उसके बारे में कोई बात नहीं हुई थी। अब कहने से क्या फायदा? मोहन बाबू ने सोचा कि उन्हें तो ऊपर रहना है, उन्हें क्या फर्क पड़ने वाला है। बस नीचे आते-जाते थोड़ा संभल कर चलना होगा।

वर्मा जी सवेरे कुत्ते को टहलाने ले जाते थे। लगता था कि कुत्ता ही उनको टहलाने ले जा रहा है क्योंकि कुत्ता आगे आगे भागता था और वे उसकी जंजीर पकड़े पीछे घिसटते जाते थे। उसी वक्त मुहल्ले  के कुछ और कुत्तों के स्वामी अपने अपने कुत्तों को टहलाने निकलते थे। वर्मा जी के कुत्ते को देखकर दूसरे कुत्तों का शौर्य जागता था और वे भौंकना और उसकी तरफ लपकना शुरू कर देते थे। लेकिन बार-बार लपकने के बाद भी वे उससे सुरक्षित दूरी बनाये रखते थे और शौर्य प्रदर्शन के वक्त भी उनकी दुम टांगों के बीच चिपकी रहती थी। वर्मा जी का कुत्ता उनकी तरफ हिकारत से देखता हुआ, बेपरवाह, अपने रास्ते चला जाता था। अगर कभी वह रुक कर किसी कुत्ते की तरफ देख ले तो वह कुत्ता डर कर अपने मालिक की टांगों के बीच घुस जाता था।

कभी वर्मा जी का कुत्ता जंजीर से छूटकर सड़क पर आ जाए तो आसपास के घरों में हड़कंप मच जाता था। पड़ोसियों के दरवाजे़ फटाफट बन्द हो जाते, और वे तभी खुलते जब कुत्ते को पकड़ कर फिर से जंजीर से बांध दिया जाता। घरों के आसपास खड़े लोग दौड़कर भीतर घुस जाते और सड़कें सूनी हो जातीं। मोहन बाबू ऊपर इन बातों से अप्रभावित रहते थे।

अन्त में पास-पड़ोस के लोग एक ‘डेलिगेशन’ लेकर मोहन बाबू के पास पहुंचे। उन्हें उस खूंखार कुत्ते के आने से पैदा हुए संकट के बारे में बताया और उन्हें सलाह दी कि  उन्हें अच्छे पड़ोसी का धर्म निबाहते हुए इस संकट का समाधान करना चाहिए। चूंकि अकेले कुत्ते को मुहल्ले से निष्कासित नहीं किया जा सकता, इसलिए उसके स्वामी से ही कोई दूसरा घर देख लेने के लिए कहना चाहिए। किरायेदारों की क्या कमी है? वर्मा जी जाएंगे तो दूसरा आ जाएगा।

मोहन बाबू धर्मसंकट में पड़ गये। बात सही थी। कुत्ते से लोग खासे आतंकित थे। उसकी वजह से लोग ऐसे चौकन्ने रहते थे जैसे मुहल्ले में कोई शेर आ गया हो। बच्चों को मोहन बाबू के घर से दूर रहने की हिदायत थी। कुत्ते के दर्शन मात्र से लोगों की रीढ़ में कंपकंपी दौड़ जाती थी। मोहन बाबू को खुद भी कुत्ते से परेशानी होती थी। कुत्ता रोज़ सवेरे बड़ी देर तक भौंकता रहता था। मोहन बाबू सवेरे रामायण का पाठ करते थे। कुत्ते के भौंकने के कारण उनकी रामायण गड़बड़ हो जाती थी।

उन्होंने पड़ोसियों को आश्वासन दिया कि वे वर्मा जी से बात करेंगे।

वर्मा जी ने पड़ोसियों के दल को देखकर स्थिति को भांप लिया था और मोहन बाबू का बुलावा आने से पहले उन्होंने अपनी रणनीति तैयार कर ली थी। यह मुहल्ला उनके लिए सुविधाजनक था और वे किसी भी कीमत पर उसे छोड़ना नहीं चाहते थे।

मोहन बाबू ने वर्मा जी को बुलाया। उनके आने पर संकोच से बोले, ‘मुहल्ले के कुछ लोग आये थे।’

वर्मा जी सावधानी से बोले, ‘हां मैंने देखा था।’

मोहन बाबू बोले, ‘आपके कुत्ते को लेकर एतराज़ कर रहे थे।’

वर्मा जी ने आश्चर्य व्यक्त किया, कहा, ‘अच्छा। टाइगर तो बड़ा भला जानवर है। कभी किसी को तंग नहीं करता। वैसे भी हम उसको बांधकर रखते हैं।’

मोहन बाबू हंसे, बोले, ‘हां, लेकिन लोग उसकी शक्ल-सूरत से डरते हैं।’

वर्मा जी बोले, ‘अब इसके लिए क्या कीजिएगा? अगर कोई कुत्ते के फोटो या उसके खिलौने से डरने लगे तो उसका क्या इलाज है? यहां के लोग भी खूब हैं।’

फिर उन्होंने अपना अस्त्र निकाला। बोले, ‘मुझे आपसे एक बात करनी थी। आपके घर में मुझे सब सुविधा मिल रही है। अच्छा मकान मालिक खुशकिस्मती से मिलता है। मुझे लग रहा है कि आपने अपनी भलमनसाहत की वजह से मकान का किराया कम रखा है। मुझे हाल में तरक्की मिली है। सोचता हूं किराया दो हज़ार रुपये बढ़ा दूं।’

मोहन बाबू गद्गद हुए। लक्ष्मी जी बिना पूर्व सूचना के आ गयीं। बोले, ‘आप बड़े सज्जन व्यक्ति हैं। अपने मन से भला कौन  किरायेदार किराया बढ़ाता है?’

अस्त्र की सफलता के बारे में निश्चिन्त होने के बाद वर्मा जी बोले, ‘आप टाइगर के बारे में कुछ कह रहे थे?’

मोहन बाबू बोले, ‘उसके बारे में अब क्या कहना। वह तो बड़ा प्यारा जीव है। इन मुहल्ले वालों का दिमाग मुफ्त ही खराब होता रहता है।’

वर्मा जी मोहन बाबू को चित्त करके नीचे उतर आये।

मुहल्ले वालों ने जब देखा कि वर्मा जी मोहन बाबू के घर में अंगद के पांव से जमे हैं तो पुराने डेलिगेशन के एक दो सदस्य मोहन बाबू के पास पहुंचे।

पूछा, ‘आपने उस मामले में कोई कार्यवाही नहीं की?’

मोहन बाबू ने भोलेपन से पूछा, ‘किस मामले में?’

वे बोले, ‘हमने आपसे कहा था न कि वर्मा जी को दूसरा घर देख लेने के लिए कह दीजिए।’

मोहन बाबू याद करने का अभिनय करते हुए बोले, ‘अरे वाह! मैंने उस पर विचार किया था। अब,भाई, मुश्किल यह है कि मैं सभी जीवों से बहुत प्रेम करता हूं। और फिर यह कुत्ता तो बड़ा ही प्यारा है। देखने में भले ही डरावना लगे लेकिन है बड़ा सीधा-सादा। आज तक किसी को नहीं काटा।

‘दूसरी बात यह है कि कुत्ते को जरूरी इंजेक्शन लगे हुए हैं। धोखे से काट भी लेगा  तो कोई नुकसान नहीं होगा। मरहम-पट्टी तो वर्मा जी करा ही देंगे। बड़े भले आदमी हैं। ऐसे किरायेदार बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। आप लोग बेकार ही कुत्ते को लेकर परेशान हो रहे हैं।’

पड़ोसी बोले, ‘आप उस कुत्ते के पीछे मुहल्ले वालों से बुराई ले रहे हैं।’

मोहन बाबू ने सन्तों की वाणी में जवाब दिया, ‘बुराई तो आप लोग ही बेकार में पाल रहे हैं। मैं तो सब मुहल्ले वालों से प्रेम करता हूं। आप जीव-दया के सिद्धान्त से हटकर मुझे परेशानी में डाल रहे हैं। दूसरे देशों में लोग पशु- पक्षियों को बचाने में लगे हैं, यहां आप एक कुत्ते के पीछे लाठी लेकर पड़े हैं।’

मुहल्ले वाले कुपित होकर उठ गये और मोहन बाबू उनसे मुक्ति पाकर गुनगुनाते हुए अपने काम में लग गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 34 – हैप्पी न्यू इयर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना हैप्पी न्यू इयर)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 34 – हैप्पी न्यू इयर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

सर्द दिनों में सर्द की रातें और सर्द का दिन बदन को तार-तार कर देता है। इस सर्दी के मारे सूर्य मुँह छिपाए फिरता-रहता है। इसी में वह स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है। चारों दिशाओं से सर्द हवाएँ शत्रु देश के हमले से कम नहीं होतीं। जहाँ देखो वहाँ कोहरा ही कोहरा। पता ही नहीं चलता कि इस दुनिया में हमारे सिवाय कोई है भी या नहीं। आजकल टूटते-बिखरते-धुँधलाते रिश्तों के बीच कोहरा हमारी वास्तविकता को आईना दिखाता है। चलिए, इसी बहाने हम से हमारा परिचय हो जाता है।

चारपाई पर लंबी ताने रजाई ओढ़कर सोने का सुख किसी स्वर्ग से कम नहीं है। कहते हैं सर्दियों में रंग-रंग के सपने आते हैं। लड़का है तो राजकुमारी और लड़की है तो उसके सपनों का राजकुमार उसे झट मिलने आ जाता है। सर्दियों में हर कोई एक-दूसरे को धोखा देने की ताक में खड़ा रहता है। हमारे पंचतत्व जैसे हवा अपनी गति भूलकर ठोस बन जाती है, आसमान के नाम पर चारों ओर एक घना परदा छाया रहता है। आग भी अपने स्वभाव को बचाने के लिए कोहरे से जद्दोजहद करती है। पानी का हाल तो पूछिए ही मत। वह अपने हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के बीच सारे रासायनिक समीकरण भूलकर दल-बदलू राजनेताओं के समान मौसम के साथ समझौता कर उसी की तूती बोलने लगता है। जहाँ तक धरती की बात है तो भाई शुक्र मनाइए कि वह हमें रहने-ठहरने की जगह भर दे देती है, वरना रंग बदलने वाले गिरगिट जैसे इंसानों को यह सब भी कहाँ नसीब होता है।

अब तक आप समझ रहे हैं होंगे कि मैं कहाँ का सर्द पुराण खोल बैठा। सच तो यह है कि देश की सारी सच्चाई इसी सर्दी में छिपी हुई है। यह मौसम न केवल वर्षा और गर्मी का मिलन करवाता है बल्कि झूठ और सच के बीच में छिपे मिथ्या का भी पर्दाफाश करता है। वर्षा की बाढ़ और गर्मी के अकाल से बेहाल लोगों को ‘अच्छे दिन’ की आस संजोए रजाइयों में सोने का अवसर देता है। लेकिन इसी सर्द मौसम में छिपी हैं कई ऐसी बातें, जो हमें झकझोर कर रख देती हैं।

यह बात है उस बूढ़े बाबा की जो देश के हर कोने में नकारों की तरह दिखाई पड़ जाते हैं। यह वह बूढ़ा बाबा है जो अपने परिवार के द्वारा ठुकराया गया है। भीख माँगने के लिए उसे तमाशाई दुनिया में ठेल दिया गया है। जब तक गर्मी-बरसात थी तो जैसे-तैसे उसने खुद को बचा लिया। लेकिन यह सर्द मौसम उसकी जान पर आ पड़ा है।  वह ठिठुरता, कराहता, बिलखता परमपिता ईश्वर से गुहार लगाता है- ‘हे खुदा! मुझे इस सर्द मौसम से बचा ले।‘ वह कहता -भैया मैं एक हाथ से लाचार हूँ। आँखें भी मेरा साथ छोड़ चुकी हैं। बूढ़ी जो हो चुकी हूँ! हर दिन यही फटी पुरानी छतरी डाले इस पीपल के पेड़ के नीचे बैठा रहता हूँ। मैं बसों में खिड़की किनारे बैठे लोगों से संतरा खरीदने के लिए गिड़गिड़ा नहीं सकता। न ही सिग्नल के पास रुकी गाड़ियों के शीशे के आगे दस रुपये के तीन कहकर चिल्ला सकता हूँ। मैं सड़े-गले फल की तरह यहाँ पड़ा रहता हूँ। हाँ यह अलग बात है कि आधार कार्ड में यह पता नहीं है। लेकिन मेरा दिल जानता है कि यही वह जगह है जो मेरे जीवन का आधार है। मेरी जिंदगी ढेर हो चुकी है। जब से मेरा इकलौता लड़का मुझे छोड़कर चला गया है तब से यही हाट मेरा बड़ा लड़का है। वह रह-रहकर साहबों के पैर पड़ता है। कई बार बोनी न होने पर अपने आप में रो-रोकर रह जाता है। वह घूम-घूमकर बेचने में लाचार है। उम्र के साथ उसकी कमर भी झुक गयी है। जब तक जिंदा है तब तक जीने के लिए कुछ न कुछ तो करना होगा न! उसमें इतनी जिल्लत सहने की हिम्मत नहीं कि वह भीख माँग सके। इसलिए फल बेच रहा है। वह फलों के सामने बैठता जरूर है, लेकिन भूख लगने पर इन्हें खाती नहीं। हाँ अगर कोई भिखारी आ जाता है तो उसे बिना चिढ़े एक फल उठाकर दे देता है। फुटकर पैसे न होने पर ग्राहक को एक फल ज्यादा दे देता है लेकिन छल-कपट नहीं करता। गायें, बकरियाँ मक्खियों की तरह यहीं चक्कर काटती हैं। वह झल्ला जाता है, लेकिन कभी लकड़ी या पत्थर लेकर मारने की चेष्टा नहीं करता। किंतु कुछ दिन पहले उसका एक मात्र आशियाना पीपल का पेड़ विकास (यदि कोई न मरे तो उसे विकास कहा जाता है) के नाम पर सरकार द्वारा काट दिया गया। इससे देश का क्या विकास हुआ यह देश ही जाने, लेकिन उस बूढ़े बाबा का तो मानो सब कुछ उजड़ गया।

उस दिन से बूढ़े बाबा की लाठी दर-दर ठोकर खाने लगी। कहीं कोई ठिकाना नहीं मिला। अब तो सड़क के किनारे पेड़ अपने आपको लुप्त होते धरोहरों के रूप में देखने लगे हैं। अब तो उनकी जगह बड़े-बड़े कांक्रीट जंगल उग आए हैं। अंतर केवल इतना है पेड़ो वाले जंगलों से ऑक्सीजन मिलता है तो कांक्रीट वाले जंगलों से टूटते-बिखरते रिश्तों का धुआँ निकलता है। बूढ़े बाबा को पेड़ तो दूर अब छांव भी नसीब होना दूभर हो गया था। मैंने किताबों में पढ़ा था कि इंसान बिना पानी के नहीं जी सकता। लेकिन आज मुझे पता चला कि वह पानी के बिना कुछ दिन तो जी सकता है लेकिन आशियाने के बिना एक पल भी नहीं।

बूढ़े बाबा अब दुकानों के सामने भीख माँगने की कोशिश करने लगा। लेकिन दुकान वाले उसे कुत्ते की तरह दुत्कार देते थे। उसे दुकान के पास भीख माँगने से सख्त मना कर देते थे। आशियाना न होने के कारण अब भूख, प्यास और सर्दी उसके सिर पर तांडव करने लगी।

सर्द दिनों में सड़कों पर लोगों की आवाजाही कम होती है। इस कारण अब कोई बूढ़े बाबा पर ध्यान देने वाला नहीं था। अब उसका शरीर जवाब देने लगा था। कमजोरी के कारण आँखें मूँदती जा रही थीं। नसों की तरलता खिंचाव में बदलती जा रही थी। बदन में भूख की आग उसके शरीर की ठंडी को मिटाने में नाकाफ़ी था। अब उसे समझ में आ गया था कि उसका अंत चंद दिनों का मोहताज है। वह भगवान से प्रार्थना करने लगा- ‘हे ऊपरवाले! अब मेरी ईहलीला समाप्त कर दे। मुझसे यह भूख, प्यास, सर्दी, बीमारी सही नहीं जाती।‘

थोड़ी ही देर में वह जमीन पर ऐसा धराशायी हुआ जैसे किसी शिकारी के बाण से हिरण। दुकानवाले उसकी इस हालत को देखकर उसे अनदेखा कर दिया। इतना अनदेखापन तो जानवरों के साथ भी नहीं होता होगा। मानवता ह्रास हो रहा था।

सर्द मौसम में ग्राहकी कम होने के कारण दुकानदार दक्षिण भारत की यात्रा कर अब धीरे-धीरे लौटने लगे थे। साल का अंत होने वाला था। युवाओं में नए साल को लेकर बड़ा जोश था। इसी बीच चार युवा उस दुकान पर पहुँचे जहाँ पर यह बूढ़े बाबा लेटे थे। बड़ी मुश्किल से उन युवाओं की उम्र बीस-इक्कीस की होगी। नए साल मनाने को लेकर उनका जोश सातवें आसमान में था। बूढ़े बाबा को लगा कि शायद ये लोग उसे खाने-पीने को कुछ दें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन युवाओं ने जमीन पर पड़े बूढ़े बाबा को देखकर भी अनदेखा कर दिया। उन्होंने दुकानों से शराब की बोतलें, केक, बिरयानी और न जाने क्या-क्या खरीदा। खरीददारी कर अपनी कीमती बाइकों पर रफू चक्कर हो गए।

उन युवाओं के ओझल हो जाने से एक पल के लिए लगा कि धरती माँ अब पहले की तरह नहीं रही। एकदम बदल गयी है। वैश्वीकरण के नाम पर मोबाइलों, लैपटॉप और कंप्यूटरों में सिमट गयी है। अब वह गोल नहीं सपाट हो गई। एक छोटा सा डिजिटल गाँव हो गई है। कार्पोरेट दुनिया की गुलाम हो गई है। गूगल, फेसबुक, अमेजान की मोहताज हो गई है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के घेरे में रोबोट बनकर खेल रही है। कभी ड्रोन तो कभी क्लाउड की दुनिया में घूम रही है। आंकड़े, दस्तावेज, श्रव्य-दृश्य सामग्री भंडारण करने वाली गोदाम हो गई है। ऊबर-ओला टैक्सी बनकर इधर-उधर चक्कर काट रही है। टिक-टॉक, वाट्सएप, ट्विटर, यूट्यूब, इस्टाग्राम जैसी सूचना प्रौद्योगिकी के मोहजाल में बांध दी गई है। कुछ कहने के लिए वोडाफोन, एयरटेल, जियो और रहने के लिए एप्पल, सैमसंग, वीवो, ओप्पो, वन प्लस का मुँह ताकती है। अब उसका वैलिडिटी पीरियड भी फिक्स्ड होने लगा है। प्री-पेड और पोस्ट पेड की तरह जीने की आदी हो चुकी हो। कॉर्पोरेट कॉरिडोर के आंगन में इलेक्ट्रॉनिक गजटों से खेलने लगी है। धीरे-धीरे खत्म होने लगी है। दुर्भाग्य यह है कि उसकी सेटिंग्स में कंट्रोल जेड का बटन भी नहीं है। वह चाहकर भी पहले जैसी नहीं बन सकती।

रात के समय उन युवाओं ने दोस्तों के साथ मिलकर पार्टी-शार्टी की। नशे में धुत्त बाईक चलाते हुए सड़क पर आते-जाते लोगों को हैपी न्यू ईयर कहते हुए चिल्ला रहे थे। नए साल का स्वागत करते हुए एक से बढ़कर एक संकल्प लेने लगे। कोई महीने में एक बार किसी गरीब को सहायता करने की बात कहता, तो कोई सिगरेट, दारू छोड़ने और मन लगाकर पढ़ने की।   

अगली सुबह अपने संकल्पों को साकार रूप देने और किसी की सहायता करने के मकसद से वे लोग उस बूढ़ा बाबा के पास पहुँचे…

लेकिन मैं अब क्या लिखूँ? कलम की स्याहियत हमारी बर्बर मानवता से कहीं अच्छी है। उसे कम से कम इतना तो पता है कि उसे क्या लिखना है और क्या नहीं। सच तो यह है कि अब वह बूढ़ा पुराने साल के साथ-साथ इस संसार को भी अलविदा कह चुका था

चलिए भाई, यह तो राज-काज है। यह तो हर जगह होता ही रहता है। अभी तो हमें बहुत सारे जरूरी काम है। हमें चाय की चुस्की लेते हुए देश को बदलना है। बिना हाथ बढ़ाये देश की रूपरेखा बदलनी है। लंबी-लंबी हाँकना है। बाईकों पर सवार होकर आते-जाते लोगों को छेड़ना है। अभी तो बहुत काम है….

ऐ जाते हुए लमहे अलविदा।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – हास्य-व्यंग्य ☆ नववर्ष के  मेरे संकल्प… ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार प्रदत्त।

आज प्रस्तुत है एक अप्रतिम हास्य-व्यंग्य ‘नववर्ष के  मेरे संकल्प…’।)

 ☆ हास्य व्यंग्य ☆ नववर्ष के  मेरे संकल्प… ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆

नए वर्ष की पूर्व संध्या पर अपने ने भी कुछ संकल्प ठाने थे। उनमें पहला था, प्रातःकाल सैर हेतु उद्यान जाएंगे। फलतः प्रातः होते ही पत्नी ने झिंझोड़ा, ‘‘घूमने जाइए।’’

रजाई में मूंसोड हुई स्थिति में स्थित रहते हुए पूछा, ‘‘धूप निकली?’’

‘‘अभी कहां? अगर निकली तो बारह बजे के बाद ही निकलेगी।’’

‘‘तो जिस दिन जल्दी निकलेगी, उस दिन जाएंगे।’’ मैं, अपना रजाई तप भंग नहीं करना चाह रहा था कि श्रीमतीजी ने रजाई खींच कर एक ओर डाल दी, ‘‘मैं चाय बना लायी हूं। नहीं पीनी हो तो बाद में खुद बना लेना।’’ अपन को अब, अहसास हुआ कि कल रात बेगम को अपना संकल्प बता कर कितनी बड़ी भूल कर बैठे थे? लिहाजा, हमने धूजणी से कंपकंपाते एक हाथ से कप थामा और दूसरे हाथ से रजाई को सीने से लगाया। तीन चार घूंट सुड़कने के बाद थोड़ी गर्मी प्रतीत हुई तो दूसरे हाथ में मोबाइल थाम लिया।

बेगम साहिबा सामने बैठ कर चाय की चुस्कियां ले रही थी। हाथ में मोबाइल सेट देख कर ताना मारा, ‘‘क्योंजी, कल तो प्रतिज्ञा ली थी कि सुबह से दो घंटे तक मोबाइल को छुएंगे भी नहीं।’’

‘‘घूमने जाता तो साथ थोड़े ही ले जाता?’’ मैं कुतर्क को उतर आया था। फिर तनिक संभल कर बोला, ‘‘सिटी एप पर लोकल न्यूज देख लेता हूं।’’

पहला समाचार पढते ही बेसाख्ता निकला, ’’शाबाश! बहादुरों।’’

‘‘क्या फिर कोई सर्जिकल स्ट्राइक हो गया है?’’ अर्द्धांगिनी ने जिज्ञासा जतायी।

‘‘नहीं। चोरों ने शहर में चार जगह चोरियां की और एक जगह ए.टी.एम. तोडा है। पुलिस के अनुसार रात के तीन से पांच बजे के दरम्यान ये सब हुआ।’’

‘‘अरे…इसमें बहादुरी की क्या बात हुई, भला?’’ बेटरहॉफ, बेटर खुलासा चाह रही थी। मैं बोला, ‘‘मैडम! चुहाते कोहरे की धुंधयायी रात में, जब शीत लहर तीखे नश्तर की माफिक बदन को भेदे जा रही हो, उस समय ठंड से अकड़ी अंगुलियों से सर्द पाइप को पकड़ कर मंजिल-दर-मंजिल चढना। बे आवाज रोशनदान या खिड़की काटना। दरवाजों के ताले तोड़ना अथवा सेंध लगाना। दुकानों की शटर या एटीएम को काटना-मोड़ना-तोड़ना। किसी की नींद में खलल नहीं डालते हुए पहरेदारों, पुलिस और कुत्तों से बचते हुए, मंद प्रकाश में कीमती सामान बटोर कर उसी मार्ग से हवा हो जाना, कोई कम बूते की बात है? और इनका नए साल का संकल्प तो देखो कि पिछले साल चोरी का औसत तीन चोरियां प्रतिदिन रहा लेकिन नए वर्ष का आगाज होते ही दो पायदान चढ गए हैं, पठ्ठे!’’

इसके बात दूसरी न्यूज बलात्कार की थी। उसे पढकर मैंने टिप्पणी की, ‘‘वाह! यह हुई, मर्दानगी।’’

‘‘अब, किसने मर्दानगी दिखा दी?’’

‘‘डीयर! कल रात एक बलात्कार भी हो गया, शहर में।’’

‘‘कैसे आदमी हो ऐसी खबरों पर आनंदित हो रहे हो?’’

‘‘हौंसले की बात है, मैडम! हमसे दूसरी रजाई में नहीं घुसा जाता और ये घोर शीत में दूसरे के घरों में जा घुसते हैं।’’ धत्त…बोलकर बीवी ने चाय का ट्रे उठाते हुए कहा, ‘‘ये निगेटिव समाचार पढना छोड़ो। रजाई भी छोड़ो और फिर से घुसे तो खैर नहीं।’’

खैर, अपन शौचालय को चले। कब्ज तथा बबासीर से सदा की भांति पीड़ा दी। जब हम ही नहीं बदले तो शरीर ने भांग थोड़े ही खायी है, जो बदल ले। खुद को बदलने का ख्याल छोड़ बाहर आए कि देखें नए साल में जग में कुछ बदला? सूर्यदेव पिछले वर्ष की भांति कोहरे में लिपटे हुए आराम फरमा रहे थे। पवन देव विगत वर्ष की तरह सन्ना रहे थे। पांचवे मकान में सास-बहू की रार का शाश्वत संवाद चल रहा था और उसका पूरे मोहल्ले में ब्रॉड-कॉस्ट हो रहा था। कचरा संग्रह करने वाली पिक-अप तीन दिन की तरह आज भी नदारद थी। दाएं पड़ोसी ने अपना कचरा प्रेमपूर्वक मेरे द्वार के आगे सरका दिया था लेकिन मैं उसे आगे नहीं ठेल सकता था क्योंकि बाएं वाले ने सदा की तरह अपनी कार को इस कदर स्नान कराया कि मेरे घर के आगे एक लघु तालाब बन गया था।  विडंबना ये कि एक बदहाल वर्ष गुजार कर हम पुन: नई आशा और सपनों के साथ नए में प्रवेश करने जा रहे हैं। इस आशंका के साथ कि हंसने, रोने या गाने पर जी. एस. टी. तो न लगा दिया जाएगा। कसम से जब जब जी. एस. टी. काउंसिल की बैठक होती है दिल बैठने लगता है। पहले डाक सेवाओं पर टैक्स लगा फिर बुक पोस्ट सेवाएं हटा दी गई। नए साल में पत्रिकाएं/किताबें पढ़ने पर टैक्स न लग जाए ?

कहीं कुछ नहीं बदला, बस कलैंडर बदला है। जब हम ही नहीं बदले तो जमाने से उम्मीद बेमानी है, यह सोचकर अपन पुन: रजाई शरणम् गच्छामि हो गए।

© प्रभाशंकर उपाध्याय

सम्पर्क : 193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन- 322001

मो. 9414045857, 8178295268

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 270 ☆ व्यंग्य – पान और पीकदान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘पान और पीकदान‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 270 ☆

☆ व्यंग्य ☆ पान और पीकदान

कई बरस पहले मुंबई की जहांगीर आर्ट गैलरी में नीदरलैंड्स के कुछ मसखरे कलाकार आये। उन्होंने ‘कला’ के कुछ ऐसे नमूने पेश किये जो पवित्रतावादियों के लिए खासे तकलीफदेह थे। उन्होंने गैलरी में एक साफ सफेद कपड़ा रख दिया,  उसके बाद अपने खर्चे पर दर्शकों को पान पेश किये, और कपड़े पर थूकने को कहा । इस तरह कला की रचना हुई और बहुत से ‘आशु’ कलाकार पैदा हुए। मुश्किल यह हुई कि उत्साही दर्शकों की पीकें कपड़े की सीमा का अतिक्रमण करके गैलरी की दीवारों पर चित्रकारी करने लगीं। तब गैलरी के प्रबंधक को यह अभिनव कला-प्रयोग रोक देना पड़ा।

हमारे देश में भी लोगों को चीज़ों को बिगाड़ने का शौक कम नहीं है, यह बात अलग है कि गरीब देश होने की वजह से हम विदेश में घूम कर अपनी कला का प्रदर्शन नहीं कर पाते। देश के भीतर हमसे जितना बनता है अपना विनम्र योगदान देते रहते हैं। यहां आदमी बड़े शौक से घर की पुताई कराता है और तीन दिन बाद दीवार पर लिखा होता है, ‘जन-जन के चहेते पाखंडीलाल की पेटी में वोट देना न भूलें’ या ‘मर्दाना कमजोरी से छुटकारा पाने के लिए खानदानी हकीम निर्बलशाह के शफाखाने पर तशरीफ लायें’। भीतर बढ़िया बंगला बना होता है और सामने चारदीवारी पर भद्दी लिखावट में दस चीज़ों के विज्ञापन लिखे होते हैं। मुफ्त विज्ञापन का मौका कोई छोड़ना नहीं चाहता। आजकल मकान अपना होता है और चारदीवारी जनता जनार्दन की। चाहे वह उस पर लिखे, चाहे पान थूके।

यहां लोग खड़ी फसल के बीच में घुसकर, बेशर्मी से दांत निपोरते, फसल को रौंदते, चने के झाड़ उखाड़ लाते हैं। सार्वजनिक टोटियों को तोड़ देते हैं और फिर प्रशासन पर चढ़ बैठे हैं कि वह उन्हें ठीक नहीं करता और अमूल्य पानी का ‘अपव्यय’ हो रहा है। आगरा जाकर हम ताजमहल की दीवारों पर कोयले से अपना और अपनी महबूबा का नाम लिख आते हैं ताकि सनद रहे और इतिहास के काम आवे।

नीदरलैंड्स के कलाकारों ने गलती की जो दर्शकों को अपने पास से पान दिये। अगर वे दर्शकों से कह देते कि अपने पैसे से पान खाओ और फिर थूको, तब भी उन्हें हज़ारों स्वयंसेवक मिल जाते, क्योंकि इस देश में थूकने और चीज़ों को बिगाड़ने का शौक जुनून की हद तक है। यहां लोग अकारण ही इतना थूकते हैं कि देखकर ताज्जुब होता है। यहां लोग हर चीज़ पर थूकते चलते हैं— परंपराओं पर, ईमानदारी पर, न्याय पर और इंसानियत पर।

हमारे देशवासियों को यह भी याद नहीं रहता कि अब सड़क पर साइकिलों के अलावा मोटर और स्कूटर भी चलते हैं। साइकिल वाला चलते-चलते अपने दाहिने तरफ जगह खाली पाकर मुंह घुमा कर थूक देता है, तभी किस्मत का मारा स्कूटर वाला उसके बगल में पहुंचता है। आगे क्या होता है इसकी कल्पना आप पर छोड़ता हूं। साइकिल वाले का प्रेमोपहार पाने के बाद स्कूटर वाला सिर्फ उससे सड़क पर कुश्ती लड़कर हास्यास्पद ही बन सकता है। साइकिल वाले महाशय का तीर तो कमान से छूट चुका होता है, वापस नहीं हो सकता।

मैंने एक बार अपने घर की छत सौजन्यवश एक विवाह-भोज के लिए अर्पित की थी। बारातियों ने ऊपर भोजन किया और ऊपर ही पान खाये, जो आतिथ्य का ज़रूरी अंग है। लड़की वालों को चाहिए यह था कि वे पान बारातियों को नीचे उतरने पर पेश करते, लेकिन इतनी दूर तक उनका दिमाग नहीं गया। नतीजा वही हुआ जो होना था। बारातियों ने उतरते वक्त सीढ़ी के मोड़ पर मुक्त भाव से थूका। वैसे भी बाराती लड़की वाले की हर चीज़ को इस्तेमाल या नष्ट करने का अपना पुश्तैनी हक मानते हैं, भले ही वह चीज़ किराये की हो। सवेरे सीढ़ी का कोना पान की पीक से दमक रहा था। कई बार पुताई कराने पर भी वे पीक के दाग पेन्ट की सब तहें फोड़कर झांकते रहे।

वैसे थूकने पीकने की परंपरा हमारे देश में बहुत पुरानी है। राजाओं नवाबों के ज़माने में पान का खासा चलन था। हर दरबार और संभ्रांत घर में गिलौरीदान, पीकदान और उगालदान ज़रूरी थे। ज़्यादातर राजाओं नवाबों को कुछ काम धंधा होता नहीं था, इसलिए गिलौरी चबाना और पीक करना अनवरत चलते थे। कहते हैं कि नवाब वाजिदअली शाह का पान खाकर लोग बौरा जाते थे। उन दिनों पान का उपयोग प्रेम-आदर दिखाने के लिए भी होता था और ज़हर देने के लिए भी। अब न वे पान रह गये, न वे  पीकदान। रह गये नमक तेल लकड़ी के लिए भागते हम जैसे नामुराद लोग। इसीलिए अगर कुछ लोग पुराने ज़माने को याद करके अब तक सिर धुनते हैं तो कोई ग़लत काम नहीं करते।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 33 – गाँव के चौराहे पर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना गाँव के चौराहे पर)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 33 – गाँव के चौराहे पर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गाँव के चौराहे पर ‘शहरी विकास योजना’ की चर्चा के नाम पर एक भव्य सभा का आयोजन किया गया। अध्यक्ष महोदय अपने फोल्डिंग कुर्सी पर विराजमान थे, जबकि बाकी जनता खड़े-खड़े ताली बजाने में व्यस्त थी। “दोस्तों,” अध्यक्ष ने माइक संभालते हुए कहा, “हमारा गाँव अब विकास की ओर अग्रसर है।” पीछे से किसी ने व्यंग्य में फुसफुसाया, “हाँ, विकास की ओर तो जा रहे हैं, पर पैर में जूते कहाँ हैं?”

सभा में पहली पंक्ति में बैठे रामलाल, जो चाय की दुकान के मालिक थे, अपनी बहादुरी के किस्से सुनाने में व्यस्त थे। “भाई, मैंने तो दिल्ली जाकर देखा, वहाँ की लड़कियाँ जीन्स पहनती हैं। हमारे गाँव में तो अब भी घूँघट में ही दुनिया बसी है।” उनकी बात सुनकर सामने बैठा नत्थू हँस पड़ा, “अरे भाई, दिल्ली की लड़कियाँ तो इतनी समझदार हैं कि अंग दिखाने और छिपाने दोनों में पारंगत हैं। तुम तो चाय बेचते रहो।”

चाय की दुकान पर दूसरा मुद्दा था, जानवरों के नाम पर होने वाले ताने। मुनिया ने बड़े गुस्से से कहा, “अगर कोई मुझे कुत्ता कहे तो मैं उसे थप्पड़ मार दूँगी, लेकिन शेरनी कहे तो गर्व महसूस होगा।” चमेली ने तुरंत जवाब दिया, “अरे मुनिया, तू ये क्यों भूलती है कि शेरनी भी जानवर ही है? तारीफ चाहिए, सच्चाई से डर लगता है।”

दूसरी तरफ, ठाकुर साहब अपनी नई गाड़ी लेकर गाँव में घूम रहे थे। उनके हाथ में हीरे जड़ी अंगूठी चमक रही थी। गाड़ी रोककर उन्होंने जेब से छोटा सा दर्पण निकाला और खुद को निहारने लगे। “ठाकुर साहब, हीरा धारण किया है, फिर बार-बार दर्पण क्यों देखते हैं?” रामलाल ने पूछ लिया। ठाकुर साहब हँसते हुए बोले, “हीरा तो दूसरों को दिखाने के लिए है, लेकिन अपनी शक्ल देखने के लिए दर्पण चाहिए।”

शांता, जो शादी के बाद गाँव लौटी थी, अपनी सहेली से कह रही थी, “पिता की गरीबी सह ली, पर पति की गरीबी बर्दाश्त नहीं होती। हर दिन उधार का रोना लेकर आते हैं।” उसकी सहेली ने मुस्कुराते हुए कहा, “बहन, यही तो हमारी संस्कृति है। शादी के बाद औरतों का अधिकार है कि पति की गरीबी पर व्यंग्य करें।”

सभा के पीछे एक शराब की दुकान पर लंबी लाइन लगी थी। वहीं पास में एक खंडहर पड़ा था, जहाँ कभी अस्पताल हुआ करता था। नत्थू ने रामलाल से कहा, “अगर इस खंडहर को फिर से अस्पताल में बदल दिया जाए, तो गाँव का जीवन बदल जाएगा।” रामलाल ने चाय का कप उठाते हुए कहा, “तू सही कहता है। लेकिन लोग डॉक्टर को भगवान मानते हैं और शराब को दोस्त। दोस्त को कौन छोड़ता है?”

अध्यक्ष महोदय ने सभा के अंत में घोषणा की, “हम गाँव में पाँच नई शराब की दुकानें खोलेंगे।” जनता ने जोरदार तालियाँ बजाईं। पीछे से किसी ने चुटकी ली, “और अस्पताल का क्या?” अध्यक्ष ने मुस्कुराते हुए कहा, “अस्पताल की जरूरत तभी पड़ती है, जब शराब नहीं होती।”

सभा खत्म हुई, पर नत्थू वहीं खड़ा सोच रहा था। “हम सब कितने अजीब हैं। दूसरों की गलतियाँ गिनाने में माहिर, पर अपनी कमियों को छिपाने में और भी ज्यादा।” और चौराहे पर विकास का तमाशा जारी रहा।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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