हिंदी साहित्य – व्यंग्य ☆ डंकोत्सव का आयोजन… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ व्यंग्य ☆ डंकोत्सव का आयोजन ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

मैंने अपनी सगी सहेली “ख्याति” से कहा — यार मुझे “डंका ” शब्द बहुत भाता है। बहुत प्यार है इससे। उच्चारण करते ही लगता है कि इसकी गूँज ब्रह्माण्डव्यापी हो गई है और सारी ध्वनियां इसमें समा गई हैं। शब्द में भारी वज़न है।

अब देखो ना, इसमें से “आ” की मात्रा माइनस कर दो तो बन जाता है “डंक”। बिच्छू और ततैया ही नहीं डंक तो कोई भी मार सकता है।

“जो डंकीले हैं वो डंकियाते रहते हैं।” उन्हें इस पराक्रम से कौन रोक सकता है भला। और हां डंक शब्द का एक अर्थ “निब” भी तो होता है।

ख्याति छूटते ही बोली — ये प्यार व्यार सब फालतू बाते हैं। इससे कुछ हासिल नहीं होता। बस बजाना आना चाहिए।

— पर मुझे तो नहीं आता। डंकावादकों की तर्ज पर कोशिश तो की थी पर नतीजा सिफर। मेरे प्यार को तुम प्लेटोनिक लव जैसा कुछ कुछ कह सकती हो।

— सर्च करो रानी साहिबा — बजाना सिखानेवाली क्लासेस गली गली मिल जायेंगी। वह भी निःशुल्क।

— ऐसा क्यों ?

— क्योंकि यह राष्ट्रीय उद्यम है। जो देशभक्त है ,वही डंका बजाने की ट्रेनिंग लेता है। सारा मीडिया अहोरात्र डंका बजाने में मशगूल है। बात सिर्फ इतनी सी है कि डंका बजाओ या बजवाओ। दोनों ही सूरत में ध्वनि का प्रसारण होना है। किसी में तो महारत हो। एक तुम हो “जीरो बटा सन्नाटा।”

चलो मैं तुम्हें विकल्प देती हूं। डंका नहीं तो “ढोल ” बजाओ !

— ‘ख्याति मुझे ढोल शब्द से सख्त नफरत है। कितना बेडौल शब्द है। अव्वल तो पहला अक्षर “ढ “है। मराठी में, बोलचाल में ढ यानी गधा।

— ठीक है बाबा। ढोल नहीं तो डंका पीटो पर तबीयत से पीटो। फिर भी पीटना न आये तो पीटनेवाले या पिटवानेवाले की व्यवस्था करो। और रही बात डंके की कीमत तो इतनी ज्यादा भी नहीं है कि तुम अफोर्ड न कर सको।

लोकतंत्र में कुछ भी पीटने की आजादी सभी को है।

“डंका पीटोगी तभी तो औरों की लंका लगेगी ना।” 

देखो सखी अभी अभी मेरे दिमाग में एक धांसू आइडिया आया है। तुम “डंकोत्सव का आयोजन” क्यों नहीं करतीं। उसमें डंका शब्द की व्युत्पत्ति पर शोध पत्र का वाचन करो। उसमें डंके की चोट पर कुछ उपाधियों का वितरण करो यथा — “डंकेन्द्र”, “डंकाधिपति”, “डंकेश”, “डंकाधिराज”, “डंकेश्वर”, “डंका श्री”, “डंका वाचस्पति”, “डंका शिरोमणि”, “डंका रत्न”, आदि आदि।

सोचो सखी शिद्दत से सोचो। नेकी और पूछ पूछ जुट जाओ आयोजन में। डंके में शंका न करो।

— ‘इतना ताम झाम करके भी डंका ठीक से न बजा तो–‘

— ‘बेसुरा ही सही पर बजाओ — बजाते रहो — बजाते रहो। जब तक जां में जां है। डंका कभी निष्फल नहीं जाता।

डंकाधिपति की जय हो।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ वी आर एस की रजत जयंती… ☆ श्री अ. ल. देशपांडे ☆

श्री अ. ल. देशपांडे

☆ व्यंग्य ☆ वी आर एस की रजत जयंती… ☆ श्री अ. ल. देशपांडे ☆

पच्चीस साल की बेदाग़ सेवाएँ देने के उपरांत बैंक ने हमारे उत्साहवर्धन एवं चुस्त दुरुस्त सेवाएँ देने की हमारी परम्परा को उज्जवल बनाए रखने हेतु चाँदी की तश्तरी से हमें सम्मानित करने का निर्णय लिया था। हालाँकि सराफ़े की अलग अलग 3 दुकानों से हमने ही तीन कोटेशन भरी धूप में तीन दिन में प्राप्त किए थे। हमारे मित्र श्रीवास्तव जी ने एक ही दुकान से अलग अलग लेटर हेड पर तीन कोटेशन तीन मिनट में प्राप्त कर के हमारे पहले ही प्रस्तुत कर हमें व्यवहार ज्ञान सीखने हेतु प्रेरित किया था। कोटेशन प्रस्तुत करने के बाद एक दुकान से चाँदी की तश्तरी ख़रीदने हेतु हमें स्वीकृति मिली थी।

सोने चाँदी की दुकान हमने इसके पहले कभी देखी नहीं थी ना सोना चाँदी। वैसे बचपन में मेरे कान में सोने की बाली तथा पैर में चाँदी का कड़ा था ऐसे घर के बुजुर्ग बताते हैं। हमारे ब्याह के समय पत्नी ने जो गहने मायके से लाए थे वही हमारी संपत्ति थी। इसमे हम रिटायर्ड होने तक कोई इज़ाफ़ा नहीं कर पाए। वास्तव में हमारी सोने जैसी बहुमूल्य पत्नी में ही मुझे अधिक विश्वास था तथा है अतः सोने चाँदी की दुकान की दहलीज़ हमने लांघी नहीं थी।

हमारी जेब मे एक दिन पूर्व, बैंक खाते से आहरित रुपये एक हज़ार मात्र जो रखे थे, का उपयोग कर एक चमचमाती हुई तश्तरी ख़रीदी थी एवं दूसरे दिन तश्तरी तथा रीएमबर्समेंट हेतु पक्की रसीद मैनेजर साहब को सौंप दी थी। उन्होने रसीद रख ली तथा बोले तश्तरी की क्या ज़रूरत है यह तो आप रख लो। मैं असमंजस में पड़ गया मुझे लगा की शाखा में सम्मान समारोह होगा, फूल मालाएँ पड़ेंगी गले में, समोसा रसगुल्ला रहेगा प्लेटों में। मैंने ज़िक्र किया तो मैनेजर साहब बोले “पंडितजी! कहाँ लगे हो? फूल मालाओं के पीछे! आपको समझता नहीं, एक टुकड़ा फेंक कर आपको मार्च के महीने में फूल बनाया जा रहा है।

मैंने मैनेजर सहाब का अधिक क़ीमती समय ज़ाया न करते हुए लाल रंग की पन्नी में लिपटी हुई तथा सुनहरे डिब्बे से सुसज्जित चाँदी की चमचमाती प्लेट को घर ले आया। श्रीमती तथा बच्चों को यह उपहार देखकर बेहद प्रसन्नता हुई। उन्हें अब बताया गया कि यह सब हमारी बेदाग़ पच्चीस वर्ष की बैंक सेवा का उपहार है। सब को इस बात पर प्रसन्नता हुई कि रोज़ रात्रि साढ़े आठ/ नौ बजे हमारे पति/पापा बैंक से लौटा करते थे तथा अवकाश के दिनों में दोपहर का खाना भी घर में चैन से नहीं खा पाते थे, को सम्मानित किया गया है। घर का वातावरण एकदम प्रसन्न हो गया। हमने उसी दिन तुरंत बच्चों के साथ बाज़ार जाकर एक अच्छी सी फ्रेम में तश्तरी मढवाने हेतु दुकान में दी। दूसरे दिन वह फ्रेम तथा भगवान बजरंग बली का एक और फ्रेम ख़रीद कर (जो हमें आज तक शक्ति प्रदान करते आ रहे थे) उसे अपने शयनकक्ष में स्थापित किया। सोते तथा जागते समय हमें तश्तरी एवं भगवान अंजनीसुत के दर्शन नियमित रूपसे होने लगे। पच्चीस वर्षों से तन मन तथा ईमानदारी से हम जो सेवाएं देते आ रहे थे उसमें चाँदी की तश्तरी देखकर और इज़ाफ़ा होता रहा। अब हमें विश्वास हो गया कि चाँदी, सोना तथा धन इसका मोह छोड़ने के लिए यह तश्तरी हमें प्रेरित कर रही है।

देखते देखते 31/03/01 को हम आज तक की बची हुई सर्विस बेदाग़ पूरी कर वीआरएस  के अंतर्गत सेवानिवृत्त हो गए। 1 अप्रैल को जब हम सुबह स्वास्थ्य लाभ हेतु टहल रहे थे तो मोहल्ले के एक बुजुर्ग ने हमें पास आकर धीरे से पूछा “कितने लाख मिले हैं?” हमने आख़िर तक हमारी कुल जमा प्राप्ति के बारे में मोहल्ले के बुजुर्गों को हवा नहीं लगने दी थी अतः वे हम से पूर्व में जितना स्नेह रखते थे उससे ज़्यादा दूरी रखने लगे। हिक़ारत की नज़र से देखने लगे। वीआरएस  की इस प्राप्ति से हमारे प्रगाढ़ संबंधों में दरार सी पढ़ने लगी। एक बुज़ुर्ग का ब्लड प्रेशर हमें प्राप्त राशि की सही जानकारी उन्हें न देने के कारण बढ़ गया था तथा नॉर्मल होने की संभावना दूर दूर नज़र नहीं आ रही थी।

हमने सोचा कि हमारी कुल जमा प्राप्ति के बारे में मोहल्ले के बुजुर्गों को बताना इतना आवश्यक हो गया है? इसके पहले प्रतिवर्ष बंद लिफ़ाफ़े में हमारी संपत्ति का विस्तृत ब्योरा बैंक को देने की परंपरा का निर्वाह हम बख़ूबी करते आए थे। लेकिन इन बुज़ुर्गों के समक्ष हमें अपने वीआरएस की प्राप्ति का लिफ़ाफ़ा खोलकर रखना आवश्यक हो गया था जिससे हमारे संबंधों में सुधार परिलक्षित हो।

हमने पेंशनर्स फ़ोरम में, (भोर में चहल कदमी करने वाला झुंड) उनके बहुत ज़ोर देने पर सही सही बताया कि 14.32 प्राप्त हो गए हैं। फ़ोरम के महानुभावों के चेहरे पर हमें प्रसन्नता की लकीर नहीं दिखाई दी उन्होंने अच्छा अच्छा कहकर हमें आगे बढ़ने दिया। मैं पेड़ की आड़ में खड़ा होकर बुजुर्ग वाणी की आहट पाने उत्सुकत था। आपस में वे बतिया रहे थे ‘फला दुबे जी कह रहे थे कि उन्हें 30, श्रीवास्तव जी को 50 और  पांडे जी को 40 लाख प्राप्त हुए हैं तथा उन सबने केवल बैंक एफ़डी में ही सब पैसा रखा है। अरे! यह पंडत झूठ बोल रहा है। निकम्मे थे सभी , तभी तो बैंक ने इन्हें वीआरएस में मुक्ति दिलायी है।

 

© श्री अ. ल. देशपांडे

संपर्क – “मथुरा”, मकान नंबर 4, विनोद स्टेट बैंक कॉलोनी, कैंप, अमरावती, महाराष्ट्र – 444602

मो. 92257 05884

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 47 – सत्यवाद का स्कूल  ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सत्यवाद का स्कूल)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 47 – सत्यवाद का स्कूल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गांव के बीचों-बीच एक पुराना पीपल का पेड़ था। उसी के नीचे सत्यवाद का स्कूल खुला था। नाम था – “अखिल भारतीय झूठ सत्यापन संस्थान।” बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था – “यहां केवल सत्य की जांच होती है, कृपया झूठ लेकर आएं।” गांव के लोग इसे ‘झूठ स्कूल’ कहते थे। गांववालों की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुका था।

गांव के प्रधान, रामभरोसे, उद्घाटन में बोले, “झूठ बोलना तो पुरानी कला है। मगर आजकल झूठ की गुणवत्ता गिर गई है। कोई ऐसा झूठ नहीं बोलता जिसे सुनकर दिल में कुछ हलचल हो। इसलिए यह स्कूल खुला है। यहाँ झूठ को परखकर ही उसे प्रामाणिक माना जाएगा।”

सत्यवाद का स्कूल जल्द ही लोकप्रिय हो गया। यहां गांव के हर व्यक्ति का कोई न कोई झूठ पहुंचता। मंगू काका सबसे ज्यादा चाव से आते थे। उनका एक मशहूर झूठ था, “मेरी गाय दूध देती है, मगर गोबर नहीं करती। उसे गंदगी पसंद नहीं।” हर बार जब मंगू काका यह बयान देते, स्कूल के सत्यापक ‘बूटी बाबू’ उनकी बात पर गहरी सोच में पड़ जाते। सत्यापन का झंडा लेकर वे काका की गाय के पीछे कई दिन तक दौड़ते, लेकिन फिर भी गोबर का एक निशान न मिलता।

गांव के साहूकार हरिराम का सबसे बड़ा झूठ था, “मैं गरीब हूं।” जब उन्होंने यह झूठ पेश किया, बूटी बाबू ने उनके घर की तलाशी ली। घर के अंदर सोने-चांदी के बर्तन, पैसे से भरे संदूक और गहनों का ढेर था। फिर भी हरिराम साहूकार रोते हुए कहता, “मेरे पास जो है, वो सब उधार का है। असली गरीब तो मैं हूं।” स्कूल ने इसे ‘ध्यान खींचने वाला झूठ’ की श्रेणी में डाल दिया।

फिर, गांव की चंडाल चौकड़ी आई। उनका झूठ था, “हम चोरी नहीं करते। हम ईमानदार लोग हैं।” बूटी बाबू ने उनकी गुप्त ‘सामान संग्रह कुटिया’ देखी, जहाँ उनके सारे चुराए हुए सामान सहेजे हुए थे। मगर सत्यापन के बाद यह तय हुआ कि चोरों का दावा सच था—वे चोरी को ‘सामाजिक सेवा’ मानते थे।

स्कूल के सबसे सम्मानित सदस्य थे पंडित जी, जो झूठ को सत्य की चादर में लपेटकर पेश करते। उनका एक बयान था, “मैं रोज चार घंटे पूजा करता हूं और आधे घंटे उपदेश देता हूं।” बूटी बाबू ने जांच की तो पाया कि पंडित जी पूजा के नाम पर मेवे खा रहे थे और उपदेश के नाम पर सपने देख रहे थे। सत्यवाद स्कूल ने इसे ‘सपनों की पूजा’ के तहत प्रमाणित किया।

फिर आई बारी सरकार की। तहसीलदार साहब ने एक झूठ भेजा, “हमारी योजनाएं लोगों की भलाई के लिए हैं।” सत्यवाद स्कूल के अध्यापक बूटी बाबू ने महीनों तक योजना के दस्तावेजों की जांच की। उन्होंने पाया कि योजना का फंड ‘लाल किले के रंगाई-पुताई’ में खर्च हो चुका था। मगर सत्यवाद स्कूल ने इसे ‘लाल झंडे वाला झूठ’ घोषित कर दिया।

झूठों की इस अद्भुत प्रदर्शनी ने सत्यवाद स्कूल को इतने प्रसिद्ध कर दिया कि अखबारों में खबरें छपने लगीं। एक दिन एक विदेशी पत्रकार गांव में आया और पूछा, “आपके गांव में झूठ बोलने की कला इतनी अद्भुत कैसे है?” बूटी बाबू ने उत्तर दिया, “हमारे गांव में झूठ बोलने को कला माना जाता है। सच तो हर कोई कहता है, मगर झूठ बोलना मेहनत का काम है। इसे रचने में कल्पनाशक्ति चाहिए, तर्क चाहिए और थोड़ा-सा पागलपन भी।”

पत्रकार ने यह सुनकर गांव को ‘झूठों का वैश्विक केंद्र’ का नाम दे दिया। सत्यवाद का स्कूल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर हो गया। लेकिन बूटी बाबू ने अंत में घोषणा की, “झूठ बोलना कला है, मगर सच सुनना साधना। झूठ की सीमाओं को समझना और सत्य के प्रकाश को ग्रहण करना ही हमारी अंतिम शिक्षा है।”

और इसी शिक्षा के साथ, सत्यवाद का स्कूल एक परंपरा बन गया। गांववालों ने झूठ को कला माना, मगर सच को जीवन का आधार। इस हास्य और व्यंग्य के बीच, हरिशंकर परसाई की शैली में यह कथा बताती है कि सत्य और झूठ के बीच का सफर, इंसान की आदतों और समाज की विडंबनाओं का खूबसूरत आईना है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 49 ☆ व्यंग्य – “ब्लर्बसाज़ों को चिंतिंत करती एक ख़बर…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  ब्लर्बसाज़ों को चिंतिंत करती एक ख़बर…” ।)

☆ शेष कुशल # 49 ☆

☆ व्यंग्य – “ब्लर्बसाज़ों को चिंतिंत करती एक ख़बर…” – शांतिलाल जैन 

वे एक नामचीन ब्लर्बसाज़ हैं. इन दिनों कुछ डिस्टर्ब चल रहे हैं. जिस खबर से वे सशंकित हैं उसे बताने से पहले हम आपको उनके बारे में थोड़ा सा विस्तार से बताना चाहते हैं.

कभी वे हिंदी के नामचीन लेखक रहे हैं मगर इन दिनों वे सिर्फ नई किताबों के ब्लर्ब भर लिखते हैं. प्रति सप्ताह औसतन दो से तीन ब्लर्ब तो लिख ही मारते हैं. प्रकाशकों के स्टाल पर सजी हुई हर तीसरी किताब का ब्लर्ब आपको उन्ही का लिखा मिलेगा. जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारों. जिस लेखक को कोई ब्लर्ब लेखक नहीं मिलता उनके लिए वे भगवान हैं.  ब्लर्बसाज़ी एक नशा है और वे उसके एडिक्ट. जिस सप्ताह उनके पास ब्लर्ब लिखने के लिए कोई किताब नहीं होती वो अपनी ही किसी पुरानी किताब का ब्लर्ब लिख मारते है. मुझसे बोले – “सांतिबाबू, जितने ब्लर्ब तुमने पढ़े नहीं होंगे उससे ज्यादा तो मैं लिख चुका हूँ.”

समय का सदुपयोग करना कोई उनसे सीखे. किसी परिचित का फ्यूनरल चल रहा हो तो एक ओर साईड में जाकर गूगल पर वॉईस इनपुट से बोलकर ब्लर्ब सेंड कर देते हैं. तकनीक ने उनका काम आसान कर दिया है. ब्लर्ब लेखन की दुनिया में उन्होंने वो मकाम हासिल कर लिया है कि नए लेखक खुद अपनी किताब का ब्लर्ब लिखकर ले आते हैं, वे उस पर सिग्नेचर जड़ देते हैं. कभी कभी उन्हें लटकती तलवार के नीचे बैठकर मंत्री जी की पीए से लेकर थानेदार साब की जोरू-मेहरारू तक की  किताब के लिए भी ब्लर्ब लिखना पड़ता है. ‘ना’ कह कर मुसीबत मोल लेने से बेहतर है कुछ मीठे नफीसतारीफों से भरे जुमले लिख दिए जाएँ. एक बार उन्होंने थानेदार की वाईफ़ की किताब पर लिख दिया – “कहानियाँ इतनी रोमांचक है कि पाठक सांस रोक पढ़ने को विवश हो जाता है.” उनकी बीड़ के पाठक चालाक निकले, उन्होंने पुलिस की नज़र बचाकर बीच बीच में सांस ले ली और मरने से बच गए. वे स्वयं सीवियर अस्थमेटिक रहे हैं, सांस रुक जाने के डर से उन्होंने भी इसे नहीं पढ़ा, मगर लिखने में क्या जाता है. वे मनुहार के कच्चे हैं. आग्रह हसीन हो, वाईफ की छोटी सिस्टर की किताब हो, बॉस की अपनी लिखी कविताओं की किताब हो तो मधुर-झूठ बोलने का पाप माथे लेने में वे कोई हर्ज़ नहीं समझते.

कोई यूं ही ब्लर्बसाज़ नहीं बन जाता है. किताब  के बाबत ऐसा ज़ोरदार लिखना पड़ता है कि गंजा भी कंघी खरीद ले. कुनैन की गोली को स्वीट-कैंडी बताने की कला विकसित करनी पड़ती है. हालाँकि वे घोषित प्रगतिशील हैं मगर मन ही मन बैकुंठ की आस पाले रहते हैं सो हर दिन सुबह ब्रम्ह मुहूर्त में उठकर पिछले दिन ब्लर्ब पर लिखे गए झूठ की प्रभु से क्षमा मांग लेते हैं. कुछ लोग इसे झांसा देने की साहित्यिक कला मानते हैं. एक बार एक किताब के ब्लर्ब पर उन्होंने लिख दिया ‘लेखक नया है मगर उसमें स्पार्क है.’ नामचीन लेखक के कहे गए इस वाक्य को  पढ़कर पाठकों ने पुस्तक मेले के स्पेशल ट्वेंटी परसेंट डिस्काउंट में किताब खरीद तो ली मगर कुछ पन्ने पढ़ने के बाद ही उसमें स्पार्क ढूँढने लगे कि मिले तो उसी से जला दें इस किताब को.

वे किताबों की हसीन दुनिया के जॉन अब्राहम हैं. भोलाभाले पाठक ब्लर्ब पर उनका नाम, कभी कभी फोटो भी, देखकर ही क्यूआर कोड से यूपीआई पेमेंट कर डालते हैं. थोड़ा सा पढ़ने के बाद उन्हें वैसी ही निराशा हुआ करती है जैसी अमिताभ बच्चन के कहने पर आपको नवरतन तेल खरीद लेने पर हुआ करे है. मगर इससे न अमिताभ की सेहत पर कोई फर्क पड़ता है न ब्लर्बसाज़ की.

किताब के बकवास निकल जाने पर कंज्यूमर कोर्ट में क्षतिपूर्ति के दावे नहीं लगा करते. ऐसी ठगी से किताब के उपभोक्ता को बचाने के लिए पिछले दिनों एक सुखद खबर अमेरिका से आई है और वही हमारे ब्लर्बसाज़ जी के डिस्टर्ब होने का सबब बनी हुई है. खबर यह है कि साइमन और शूस्टर नामक एक अमेरिकी प्रकाशक ने तय किया है अब से वह किताबों पर ब्लर्ब नहीं छापा करेगा. न रहेगा बांस न बजेगी बाँसुरी. न ब्लर्ब रहेगा न उस पर ‘अद्भुत’ लिखे जाने के भ्रामक दावे. ‘जागो पाठक जागो’ आन्दोलन के प्रणेताओं के लिए भले ही यह खबर सुकून देनेवाली हो मगर उनके तो हाथों के तोते उड़ने के लिए रेडी हैं. गर-चे भारत के प्रकाशकों ने ब्लर्ब न छापने का फैसला कर लिया तो ‘हम जी कर क्या करेंगे’. मन में वे एक आस पाले हुए हैं कि अपने आप में विधा बन चुका उनका विपुल ब्लर्ब लेखन उन्हें एक दिन ज्ञानपीठ सम्मान दिलवाएगा. अब उन्हें अपने सपनों पर पानी फिरता नज़र आ रहा है. भगवान् अमेरिकी प्रकाशक के फैसले जैसा समय भारत में कभी न आने दे. आमीन.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 2 – हास्य-व्यंग्य – “अब वर – वधू भी ढूंढेगी सरकार !” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  ब वर – वधू भी ढूंढेगी सरकार !)

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 2 ☆

☆ हास्य-व्यंग्य ☆ “अब वर – वधू भी ढूंढेगी सरकार !” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

मैं सुबह अपने कम्पाउन्ड में बैठा शेविंग कर रहा था तभी पड़ोसी वर्मा जी ने प्रवेश करते हुए कहा – भाई साहब कुछ सुना आपने। मैंने कहा हां भाई जी सुना है – “बटोगे तो कटोगे”।

वर्माजी हंसते हुए बोले – भाई साहब आप भी मजाक करते हैं, मैं उसकी बात नहीं कर रहा। मैंने कहा फिर तो आप ही सुना डालें। वर्मा जी जैसे ही अपना मुंह मेरे कान के पास लाए, मैंने कहा, बहुत गोपनीय बात है क्या ? उन्होंने दांत निपोरते हुए कहा – नहीं ऐसा तो नहीं। फिर कान में नहीं सामने बैठकर सुनाओ।

उन्होंने कुर्सी सम्हालते हुए कहा – भाई साहब गजब हो गया। मैंने कहा भाई आप हर बात गजब हो गया से शुरू क्यों करते हैं ? हो सकता है कि जो आपके लिए गजब हो वो मेरे लिए गजब न हो। जब तक आपकी बात न सुन लूं, कैसे मान लूं कि गजब हुआ है।

वे फिर हंसे और बोले – उत्तर प्रदेश के महोबा के बीजेपी विधायक ब्रजभूषण राजपूत एक पेट्रोल पंप पर तेल भरवाने पहुंचे। जैसे ही एक कर्मचारी ने विधायक जी को देखा तो तुरंत दौड़ कर उनके पास पहुंचा। उसने कहा कि मैंने आपको वोट दिया है। अब आप लड़की ढूंढ कर मेरी शादी करवा दो। विधायक जी ने हंसते हुए जल्द ही उसकी शादी करवाने का आश्वासन दिया। इसका वीडीयो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है।

बात सुनकर मैंने कहा भाई जी इतनी मामूली बात को आप गजब हो गया कह कर प्रस्तुत कर रहे थे ! मेरा जवाब सुनकर वे मायूस हो गए। मैंने कहा भाई जी क्या आपको पता नहीं कि नेता भाजपा का हो या किसी और पार्टी का वो अपने मतदाता की प्रत्येक मांग को पूरा करने का आश्वासन विश्वास के साथ देता है। नेताओं का वश चले तो वे सरकारी खर्चे से अपने मतदाताओं को चंद्रमा और मंगल ग्रह की यात्रा करवा दें। वर्मा जी के मुंह पर बेचैनी झलक रही थी। मेरे चुप होते ही वे बोले – लेकिन भाई साहब क्या अब विधायक अपने क्षेत्र के अविवाहितों का विवाह करवाने लड़के/लड़कियां भी ढूंढेंगे ?

मैंने कहा भाई जी – राजनीति में लोग समाज सेवा की भावना से आते हैं। क्या आप अविवाहितों का विवाह करवाना समाज सेवा नहीं मानते ?

वर्मा जी ने कहा – लेकिन….। मैंने कहा काहे का लेकिन, संख्या बल के कारण मतदाता का जो वर्ग सरकार बनाने में सक्षम नहीं है उसे ठेंगा और जो सक्षम है उसे मुफ्त राशन, सस्ते आवास, लाडलियों, बेरोजगारों को मासिक धनराशि, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त किताबें, साइकिल, स्कूटी, कन्या विवाह, गर्भवती महिलाओं को पौष्टिक खुराक, अस्पतालों में मुफ्त जजकी, मुफ्त तीर्थ यात्रा, फ्री बिजली – पानी, वृद्धावस्था पेंशन, पांच लाख तक का मुफ्त इलाज आदि आदि, , , अब क्या क्या गिनाऊं ! वर्मा जी जब सरकार गरीबों के हाथ – पैर जाम करने उनकी इतनी सारी सेवाएं मुफ्त कर रही है तो चुनाव जिताने में सक्षम मतदाताओं की मांग पर वह अविवाहितों के लिए योग्य लड़के लड़कियां भी खोजने लगेगी। जो वर्ग वोट बैंक कहलाते हैं उनकी मांग पर, उन्हें लुभाने, उनका हमदर्द बनने क्या नहीं किया जा रहा ? भविष्य में “विवाह मंत्रालय” बना कर किसी को मंत्री पद भी सौंपा जा सकता है। अब यह न पूछना कि विवाह के इच्छुकों से रिश्वत में क्या क्या मांगा जा सकता है?

अब आप गजब कर रहे हैं भाई साहब कहते हुए वर्मा जी उठ कर चल दिये।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 283 ☆ व्यंग्य – गुस्ताख़ हंसी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘गुस्ताख़ हंसी‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 283 ☆

☆ व्यंग्य ☆ गुस्ताख़ हंसी

भरोसेमन्द सूत्रों से जानकारी मिली है कि देश के बड़े कारोबारियों ने सरकार को एक पत्र भेजा है जिसमें अपनी कुछ तकलीफों का ज़िक्र किया गया है। पत्र में सरकार से दरख्वास्त की गयी है कि उनकी तकलीफों का मुनासिब इलाज जल्दी खोजा जाए।

पत्र भेजने वालों ने लिखा है वे इस बात से बहुत दुखी हैं कि उन्हें ज़िन्दगी में मुश्किल से हंसने का मौका मिलता है, जबकि मामूली हैसियत वाले खुलकर हंसते हैं, हंस हंस कर दुहरे होते रहते हैं।उन्होंने लिखा है कि वे खु़द कमाने-गंवाने, अपनी संपत्ति संभालने,अपनी पांच-छः पीढ़ियों का इन्तज़ाम करने, हिसाब-किताब रखने, झूठे आंकड़े बनाने, मुकदमेबाज़ी, पारिवारिक कलह वगैर: में इतना मसरूफ़ और परेशान रहते हैं कि हंसने की फुर्सत ही नहीं मिलती। कभी-कभी दूसरों को दिखाने के लिए झूठ-मूठ ओंठ फैला लेते हैं, लेकिन भीतर कुछ नहीं होता।

उन्होंने लिखा कि  उनमें से कई लोग मजबूरी में लाफ्टर-क्लब जैसे समूह में शामिल हो जाते हैं, लेकिन वह राहत थोड़ी देर की होती है। लिखा कि उनके एक साथी हिम्मतलाल चूनावाला लाफ्टर-क्लब में हंसते-हंसते हार्ट-अटैक का शिकार हो गये और पल भर में अपनी सारी ज़र- ज़मीन छोड़कर जन्नत की तरफ रवाना हो गये। तबसे ज़्यादातर रसूखदार लाफ्टर-क्लब में जाने से कतराने लगे हैं।

पत्र में यह भी लिखा गया कि दरख़्वास्त करने वाले सभी हैसियतदारों के घरों में काम करने वालों के लिए ज़ोर से हंसने की मुमानियत है। वजह यह कि ऊंची हंसी सुनकर घर के लोग डिप्रेशन में आ जाते हैं। वैसे भी ऊंची हैसियत वालों को ज़ोर से हंसना घटिया और स्तरहीन लगता है।  इसीलिए बंगलों में काम करने वालों के लिए हंसी का डेसिबेल तय कर दिया गया है। उससे ऊपर जाने पर तनख्वाह में कटौती की सज़ा दी जाती है।

पत्र में लिखा गया कि बड़े कारोबारियों पर धन और संपत्ति के वितरण में ग़ैरबराबरी की तोहमत लगायी जाती है। कहा जाता है कि उन्होंने देश का ज़्यादातर धन बटोर लिया है। इसके लिए उन्हें गालियां सुननी पड़ती हैं, लेकिन यह नहीं देखा जाता कि उनके हिस्से बहुत कम खुशियां आती हैं। ज़्यादातर खुशियां दो कौड़ी के लोग समेट ले जाते हैं। जब संपत्ति के बराबर वितरण की मांग की जाती है तो खुशियों के बराबर वितरण पर भी तवज्जो दी जानी चाहिए।

सरकार के पास इस दरख़्वास्त के पहुंचते ही धड़ाधड़ कार्यवाही शुरू हो गयी और आदेश निकल गया कि सामान्य लोग अपनी हंसी पर काबू रखें और हैसियतदारों के बंगलों के पास से गुज़रते हुए ज़ोर से हंसने की गुस्ताख़ी न करें। मतलब यह कि रसूखदारों के भवनों से गुज़रते हुए वैसा ही आचरण करें जैसा पीसा की झुकती हुई मीनार के आसपास निर्धारित है।आदेश में यह भी कहा गया कि इसके लिए जल्दी ही हंसी का डेसिबेल तय किया जाएगा और उल्लंघन करने वालों के लिए सज़ा मुकर्रर की जाएगी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 647 ⇒ धोबी का कुत्ता ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “धोबी का कुत्ता ।)

?अभी अभी # 646 ⇒  धोबी का कुत्ता ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या आपने कभी किसी धोबी के कुत्ते को देखा है ? मैंने तो नहीं देखा। मैंने धोबी का घर भी देखा है, और घाट भी। लेकिन वह बहुत पुरानी बात है। तब शायद धोबी और कुत्ते का कुछ संबंध रहा हो।

धोबी को आज कुत्ते की ज़रूरत नहीं ! वह खुद ही आजकल घाट नहीं जाता तो कुत्ते को क्या ले जाएगा। वैसे धोबी कुत्ता क्यों रखता था, यह प्रश्न कभी न तो धोबी से पूछा गया, न कुत्ते से।।

पहले की तरह आज धोबी-घाट नहीं होते ! सुबह 5 बजे से ही कपड़ों के पटकने की आवाज़ें वातावरण में गूँजने लगती थीं। कपड़ों की दर्द भरी आवाज़ों के साथ ही धोबी के मुँह से भी एक सीटी जैसी आवाज़ निकलती थी, जो सामूहिक होने से संगीत जैसा स्वर पैदा करती थी। कपड़े चूँकि सूती होते थे, अतः उनकी तबीयत से धुलाई होती थी। बाद में उन्हें सुखाने का स्नेह सम्मेलन होता था। तब शायद कुत्ता उनकी रखवाली करता हो।

सूती कपड़ों की जगह टेरीकॉट और टेरिलीन ने ले ली ! घर घर महिलाओं के लिए वाशिंग मशीन और डिटेर्जेंट की बहार आ गई। कपड़े ड्रायर से ही सूखकर बाहर आने लगे। और तो और, घर की स्त्रियाँ घर पर ही कपडों की इस्त्री करने लगी। अब कुत्ते का धोबी खुद ही न घर का रहा न घाट का।।

मैं कपड़ों पर इस्त्री करवाने धोबी के घर जाता था, लेकिन उसके कुत्ते से मुझे डर लगता था। लकड़ी के कोयलों की बड़ी सारी इस्त्री होती थी, जो एक ही हाथ में कपड़ों की सलवटें दूर कर देती थी। कपड़ों की तह भी इतने सलीके से की जाती थी कि देखते ही बनता था। 25 और 50 पैसे प्रति कपड़े की इस्त्री आज कम से कम 6-7 रुपये में होती है। सब जगह बिजली की प्रेस जो आ गई है। ज़बरदस्त पॉवर खींचती है भाई।

बेचारे देसी लावारिस कुत्ते, निर्माणाधीन मकानों के चौकीदारों के परिवार के साथ सपरिवार अपने दिन काट रहे हैं। रात भर चौकीदारी करते हैं, दिन भर सड़कों पर घूमते हैं। विदेशी नस्ल के कुत्तों ने न कभी धोबी देखा न धोबी घाट। कभी मालिक अथवा मालकिन के साथ मॉर्निंग वॉक पर देसी कुत्तों से दुआ सलाम हो जाती है। एक दूसरे पर गुर्रा लेते हैं, और अपने अपने काम पर लग जाते हैं।।

आज की राजनीति में मतदाता की स्थिति भी धोबी के कुत्ते जैसी हो गई है। चुनाव सर पर आ रहे हैं, मानो लड़की की शादी करनी है, और अभी लड़का ही तय नहीं हुआ। ढंग के लड़के एक बार मिल जाएं, लेकिन मनमाफिक उम्मीदवार मिलना मुश्किल है।

उम्मीदवारों का बाज़ार सजा है। मन-लुभावन नारे हैं, वायदे हैं, संकल्प हैं। एक तरफ कुआं, एक तरफ खाई, मतदाता जाए तो किधर जाए ! फिर भी वह चौकन्ना रहेगा। आखिर वही तो सच्चा चौकीदार है भाई।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 46 – आम आदमी की खोज में ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना आम आदमी की खोज में)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 46 – आम आदमी की खोज में ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

सुबह-सुबह दरवाज़े पर दस्तक हुई। आँखें मलते हुए दरवाज़ा खोला, तो सामने एक आदमी खड़ा था। कुर्ता फटा हुआ, बाल बिखरे हुए और चेहरे पर ऐसा भाव, जैसे पूरी दुनिया का बोझ उसी के कंधों पर हो। मैंने पूछा, “कौन हो भाई?”

वह बोला, “मैं आम आदमी हूँ।”

मुझे झटका लगा। आम आदमी? यह तो वही प्राणी है, जिसका ज़िक्र नेता चुनावी भाषणों में करते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही उसे भूल जाते हैं। मैं चौंक कर बोला, “अरे वाह! तुम सच में आम आदमी हो? सुना है, अब तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं बचा। तुम्हें तो सरकारों ने योजनाओं में उलझा दिया, नीतियों में घुमा दिया, और विकास में दबा दिया। फिर तुम यहाँ कैसे?”

वह लंबी साँस लेकर बोला, “बस, जैसे-तैसे ज़िंदा हूँ। कभी महँगाई मुझे मारती है, कभी बेरोज़गारी। कभी कोई योजना मेरे नाम पर बनती है और फिर फाइलों में गुम हो जाती है। कभी मुझे सब्सिडी का सपना दिखाकर लूट लिया जाता है। पर मैं फिर भी जी रहा हूँ।”

मैंने उसे अंदर बुलाया और कुर्सी पर बैठने को कहा। लेकिन उसने कुर्सी को घूरकर देखा और फर्श पर बैठ गया। मैंने कहा, “अरे भाई, कुर्सी पर बैठो।”

वह कड़वा हँसा और बोला, “कुर्सी मेरी किस्मत में नहीं है। मैं तो हमेशा ज़मीन पर ही बैठता आया हूँ। कुर्सी तो नेताओं और अफसरों के लिए बनी है। मैं जब भी कुर्सी की ओर बढ़ता हूँ, कोई न कोई मुझसे पहले उस पर बैठ जाता है।”

मैं उसकी व्यथा समझने लगा। मैंने पूछा, “खैर, बताओ, कैसे आना हुआ?”

वह बोला, “सुनो, मैं परेशान हूँ। मुझे समझ नहीं आता कि मैं आखिर जाऊँ तो जाऊँ कहाँ? सरकार कहती है कि सबके लिए रोज़गार है, लेकिन जब मैं नौकरी के लिए आवेदन करता हूँ, तो फॉर्म की फीस ही इतनी होती है कि नौकरी से पहले ही कंगाल हो जाता हूँ। इंटरव्यू तक पहुँचता हूँ, तो कोई न कोई मेरा हक़ मार लेता है। कहते हैं, आरक्षण की व्यवस्था है, लेकिन मेरी स्थिति ऐसी हो गई है कि मैं आरक्षित भी नहीं हूँ और सामान्य भी नहीं। मैं एक लावारिस जाति का आदमी हूँ, जिसका कोई माई-बाप नहीं।”

मैंने सिर हिलाया, “बात तो सही है, लेकिन सरकारें तो कहती हैं कि वे आम आदमी के लिए बहुत कुछ कर रही हैं। योजनाएँ बना रही हैं, मुफ्त अनाज बाँट रही हैं, डिजिटल इंडिया बना रही हैं।”

आम आदमी हँसा, “हाँ, यही तो विडंबना है। अनाज बाँटते हैं, लेकिन पहले टैक्स के नाम पर मेरी कमाई काट लेते हैं। कहते हैं, गैस सब्सिडी देंगे, लेकिन पहले दाम इतना बढ़ा देते हैं कि सब्सिडी भी मज़ाक लगती है। डिजिटल इंडिया बना रहे हैं, लेकिन नेटवर्क ऐसा है कि जब ज़रूरत होती है, तब ग़ायब हो जाता है। और फिर, मोबाइल तो खरीद लिया, लेकिन रीचार्ज के पैसे नहीं बचे।”

मैंने चाय बनाई और उसे दी। उसने कप को घूरकर देखा, जैसे उसमें कोई गूढ़ रहस्य छिपा हो। मैंने पूछा, “क्या हुआ?”

वह बोला, “चाय महँगी हो गई है। पहले पाँच रुपए में आती थी, अब बीस की हो गई है। ऐसा लगता है कि सरकार हमें चाय के बहाने आर्थिक सुधारों की चुस्कियाँ पिला रही है।”

मैं हँस पड़ा, “तुम्हारा कटाक्ष बड़ा तीखा है।”

वह गंभीर हो गया, “कटाक्ष ही तो कर सकता हूँ। हक़ की बात करूँ, तो कोई सुनता नहीं। कोर्ट जाऊँ, तो केस सालों तक चलता है। अफसरों के पास जाऊँ, तो फाइलों में उलझ जाता हूँ। और अगर गलती से नेता के पास चला जाऊँ, तो वह मुझे वोट बैंक समझने लगता है। मैं शिकायत नहीं कर सकता, क्योंकि शिकायत करने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है।”

मैंने उसकी आँखों में देखा। वहाँ एक गहरी थकान थी। यह वही थकान थी, जो किसी भी आम आदमी के चेहरे पर दिखती है, जब वह सुबह ट्रेन में धक्के खाता है, दिनभर काम करता है और शाम को खाली जेब लेकर घर लौटता है।

मैंने कहा, “तो फिर अब क्या करोगे?”

वह उठ खड़ा हुआ और बोला, “फिर से कोशिश करूँगा। यही तो मेरी नियति है। मैं हर बार गिरता हूँ, लेकिन उठकर फिर से चल पड़ता हूँ। मुझे कोई नहीं पूछता, लेकिन पूरा देश मेरे नाम पर चलता है। बजट बनता है, तो कहा जाता है कि आम आदमी के लिए है। योजनाएँ बनती हैं, तो दावा किया जाता है कि आम आदमी को फायदा होगा। और चुनाव आते ही सब मुझे भगवान बना देते हैं, लेकिन जैसे ही चुनाव खत्म होते हैं, मैं फिर से सड़क पर आ जाता हूँ।”

मैंने उसे जाते हुए देखा। वह धीरे-धीरे भीड़ में गुम हो गया। मैंने सोचा, यह आम आदमी किसी एक का नहीं है। यह हम सबका चेहरा है, जो कभी किसी बस में धक्के खाता है, कभी राशन की लाइन में खड़ा होता है, कभी महँगाई से परेशान होता है और कभी अपने ही देश में खुद को बेगाना महसूस करता है। यह देश आम आदमी का नहीं, बल्कि आम आदमी के नाम पर चलने वालों का है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 1 – व्यंग्य – “यहां सभी भिखारी हैं” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

अब आप प्रत्येक सोमवार को श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी के साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  “यहां सभी भिखारी हैं)

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 1

☆ व्यंग्य ☆ “यहां सभी भिखारी हैं” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

यों तो मनुष्यों और अन्य प्राणियों की शारीरिक संरचना, आवास, खानपान, बल आदि में बहुत से अंतर हैं किंतु मुख्य अंतर है बुद्धि का। मनुष्य को बुद्धिमान प्राणी माना जाता है जबकि अन्य प्राणियों को बुद्धिहीन अथवा अल्पबुद्धि वाला। हां, एक प्रमुख अंतर और है भिक्षा मांगने का। मनुष्य के अतिरिक्त संसार का अन्य कोई प्राणी भिक्षा नहीं मांगता। कुत्ता, गाय, घोड़ा, तोता आदि वे प्राणी जिन्हें मनुष्य का सत्संग या कुसंग प्राप्त हुआ वे अवश्य ही भोजन की मूक भीख मांगना सीख गए हैं।

भीख मांगने की प्रवृत्ति संभवतः तब शुरू हुई जब मनुष्य ने ईश्वर रूपी परम शक्ति को खोजा अथवा गढ़ा। भीख पाने के लिए या अच्छे शब्दों में कहें तो वरदान, उपहार, मदद पाने के लिए मनुष्य ने भक्ति या स्तुति का मार्ग अपनाया। चतुर-चालक लोग भक्ति और स्तुति के द्वारा सम्पन्न लोगों के कृपा पात्र बनकर उनसे भी तरह-तरह की भीख प्राप्त करने लगे। कटोरा लेकर भीख मांगने को समाज में  घृणित और शर्मनाक माना जाता है किंतु स्तुति करके मांगी गई भीख को वरदान अथवा कृपा कह कर सम्मान दिया जाता है यह बात अलग है कि कुछ लोग इसे चमचागिरी का प्रतिफल मानते हुए इसे हेय दृष्टि से देखते हैं, किंतु इसमें उनकी संख्या अधिक होती है जिनसे चमचागिरी नहीं बनती। आखिर चमचागिरी भी कठिन साधना है।

बात भीख की चल रही है तो बता दें कि किसी जमाने में नगरों की सीमा के बाहर रहकर जनकल्याण की भावना से ईश्वर की आराधना करने वाले और गुरुकुल वासी छात्र ही “भिक्षाम् देही” कहते हुए भीख मांगते थे। इन्हें लोग सहर्ष भिक्षा देते भी थे, किंतु भीख मांगना अब लाभ दायक व्यवसाय बन गया है। भिखारियों की गैंग/ यूनियन होती है इनका प्रमुख होता है। इनके कार्यक्षेत्रों का वितरण होता है। सफल भिखारियों के बैंक खातों में लाखों, करोड़ों रुपए जमा हैं। मंदिरों-मस्जिदों, नदी किनारों, बाजारों में बढ़ती भिखारियों की भीड़, बिना श्रम इनकी अच्छी आमदनी से ईर्ष्या और आमजन को होती तकलीफ के कारण मध्यप्रदेश के इंदौर और भोपाल शहर में भीख लेने-देने पर रोक लगा दी गई है। आश्चर्य है कि देश में अपनी मांग के लिए विरोध प्रदर्शन/आंदोलन करने की सुविधा होने के बाद भी इन शहरों के भिखारियों ने अब तक भिक्षावृत्ति बंद करने के खिलाफ कोई आंदोलन क्यों नहीं छेड़ा। हो सकता है कि राष्ट्रीय पार्टियों के प्रमुखों को उनके पार्टीजन इस मुद्दे को उनके संज्ञान में न  ला पाये हों अथवा वे हमारे प्रदेश की सीमा पर अवश्य ही भिखारियों का आंदोलन खड़ा करवा देते।

भिक्षावृत्ति चाहे किसी भी स्वरूप में हो डायरेक्ट कटोरा लेकर अथवा स्तुति/आराधना या चमचागिरी करके यह हमारे देश की परम्परा है, हमारा अधिकार है और अधिकारों का हनन नहीं किया जाना चाहिए। कौन भिखारी नहीं है? कोई ईश्वर से धन दौलत, प्रतिष्ठा, प्रेमिका – पत्नी, पुत्र, स्वास्थ्य, सुख-शांति, ट्रांसफर, प्रमोशन, मुकदमे में जीत की भीख मांगता है तो कुछ लोग ईश्वर, खुदा, यीशु का नाम लेते हुए नेता/मंत्री बनने के लिए जनता से वोटों की भीख मांगते हैं। सभी भिखारी हैं। अलग – अलग नामों से भिक्षा पूरी दुनिया में मांगी जा रही है । भीख मांगने से मना नहीं किया जा सकता, हां भीख देना ऐच्छिक हो सकता है । कोई भी हो चाहे ईश्वर अथवा व्यक्ति, याचक को भीख देने में विलम्ब कर सकता है, पूरी तरह से इन्कार भी कर सकता है किंतु मांगने के अधिकार पर प्रतिबंध नहीं लगा सकता । एक लोकप्रिय मंत्री ने भिन्न कामों को लेकर उनके पास अर्जी लगाने वालों को जो बोला उसका आशय भिखारी समझ कर लोगों ने बखेड़ा खड़ा कर दिया। कल जिन लोगों ने उनके करबद्ध आग्रह पर उन्हें अपना बहुमूल्य वोट दिया था वे उनके इस कथन से हतप्रभ हैं। विपक्षी उनके बयान के विरोध में जमीन आसमान एक कर रहे हैं। मंत्री जी को चाहिए कि वे मांगने वालों को मांगने दें। देना उनकी मर्जी पर है चाहें तो अन्य नेताओं/मंत्रियों की तरह चीन्ह – चीन्ह कर दें अथवा न दें। वैसे अब तो वोटों की भीख पाने चुनाव के पूर्व सरकार और सभी विपक्षी दल बिना भीख मांगे लोगों पर मोतियों की वर्षा करने लगे है। वोटरों को क्या-क्या फ्री मिल रहा है आप जानते ही हैं।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 282 ☆ व्यंग्य – कवि की भार्या ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘कवि की भार्या’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 282 ☆

☆ व्यंग्य ☆ कवि की भार्या

छोटेलाल ‘अनमने’  होलटाइम कवि हैं, 24 गुणा 7 वाले। वे सारे समय कविता में रसे-बसे रहते हैं। नींद में भी कविता उनके दिमाग में घुड़दौड़ मचाये रहती है। नींद खुलते ही सबसे पहले सपने में आयी कविताओं को रजिस्टर में उतारते हैं, उसके बाद ही बिस्तर छोड़ते हैं। सड़क पर चलते भी कविता में डूबे रहते हैं। कई बार एक्सीडेंट की चपेट में आ चुके हैं, लेकिन गनीमत रही कि कोई हड्डी नहीं टूटी।

‘अनमने’ जी कविता पढ़ते अपनी फोटू फेसबुक पर डालते रहते हैं— कभी नदी किनारे, कभी पहाड़ पर, कभी रेल की पटरी पर, कभी पुराने किलों और स्मारकों पर। कोई महत्वपूर्ण जगह उनके कविता-पाठ से अछूती नहीं रहती।

‘अनमने’ जी अपने झोले में अपने कविता-संग्रह की दो-तीन प्रतियां हमेशा रखते हैं। कोई परिचित मिलते ही उसके हाथ में अपनी किताब देकर फोटू खींच लेते हैं और फेसबुक पर डाल देते हैं। कैप्शन होता है— ‘अमुक जी मेरी कविताएं पढ़ते हुए।’ इस मामले में बच्चे भी नहीं बख्शे जाते। वे भी ‘अनमने’ जी के पाठक बन जाते हैं। ‘अनमने’ जी कई राजनीतिज्ञों को भी अपनी किताब पकड़ाकर फोटू डाल चुके हैं। राजनीतिज्ञ भी खुश हो जाते हैं क्योंकि मुफ्त में साहित्य-प्रेमी होने का प्रचार हो जाता है।

चौंतीस साल के ‘अनमने’ जी अभी तक कुंवारे हैं। लड़कियां तो कई देखीं, लेकिन सर्वगुण-संपन्न होने के बावजूद उनमें साहित्य-प्रेम का अभाव ‘अनमने’ जी को हर बार खटकता रहा। अन्ततः एक कन्या उन्हें भा गयी। हिन्दी में एम.ए.। ‘अनमने’ जी ने उससे पूछा, ‘कौन-कौन से कवि पढ़े हैं?’ कन्या  ने निराला, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल के नाम बताये तो ‘अनमने’ जी ने पूछा, ‘महाकवि अनमने को नहीं पढ़ा?’ कन्या ने भोलेपन से पूछा, ‘ये कौन हैं?’ ‘अनमने’ जी ने जवाब दिया, ‘पता चल जाएगा। इनको पढ़ोगी तो सब कवियों को भूल जाओगी।’

विवाह हो गया। पति-पत्नी के मिलन की पहली रात को नववधू पति की प्रतीक्षा में कमरे में बैठी थी। ‘अनमने’ जी ने कमरे में प्रवेश किया, हाथ में कविता की पोथी। थोड़ी देर की औपचारिक बातचीत के बाद पत्नी से बोले, ‘तुम भाग्यशाली हो कि तुम्हारी शादी एक बड़े कवि से हुई। अब तुम्हें मेरी हर कविता की पहली श्रोता बनने का मौका मिलेगा। आज मैं बहुत प्रसन्न हूं। इस अवसर पर कुछ बेहतरीन कविताएं तुम्हारे सामने पेश करता हूं। उन्हें सुनकर तुम समझोगी कि तुम्हारा पति कितना बड़ा कवि है।’

वे पोथी खोलकर शुरू हो गये। एक के बाद दूसरी कविता। हर रस की कविता। पत्नी  सुनते सुनते कब नींद में लुढ़क गयी कवि को पता ही नहीं चला।

भोर हो गयी। मुर्गे बांग देने लगे। घर में बातचीत और बर्तनों की खटर-पटर सुनायी देने लगी, लेकिन ‘अनमने’ जी की कविता बिना  रुके  प्रवाहित हो रही थी। अचानक नववधू उठी और तेज़ी से कमरे से बाहर हो गयी। ‘अनमने’ जी अकबकाये उसे देखते रह गये।

थोड़ी देर में पता चला कि नववधू सड़क से ऑटो पकड़कर कहीं चली गयी। उसका मायका लोकल था। घर में हल्ला मच गया। किसी की कुछ समझ में नहीं आया।

डेढ़ दो घंटे बाद वधू के बड़े भाई का फोन आया। बोले, ‘बहन यहां आ गयी है। उसकी तबीयत ठीक नहीं है। अनमने जी ने रात भर कविता सुना कर उसकी तबीयत बिगाड़ दी है। आगे के लिए उनसे बात करने के बाद ही बहन को भेजेंगे। हमने बहन को कविता सुनने के लिए नहीं ब्याहा है।’

तब से ‘अनमने’ जी बहुत दुखी हैं। पत्नी को अपनी कविता का स्थायी श्रोता बनाने का उनका प्लान खटाई में पड़ता नज़र आ रहा है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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