हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 279 ☆ व्यंग्य – ये प्रभु और वे प्रभु ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘एक नेक काम‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 279 ☆

☆ व्यंग्य ☆ ये प्रभु और वे प्रभु

चपरासी ने लांबा साहब को सूचना दी कि बाहर छेदी बाबू आये हैं। साहब बाहर आये तो देखा छेदी बाबू दरवाज़े पर माथा धरे दंडवत लेटे हैं। साहब घबराए कि कहीं बेहोश होकर गिर तो नहीं गये। तभी  छेदी बाबू हाथ जोड़े उठकर खड़े हो गये।

साहब ने अन्दर बुलाते हुए कहा, ‘यह क्या है छेदी बाबू ?’

छेदी बाबू बोले, ‘कुछ नहीं है सर। आपके घर को प्रणाम कर रहा था। अभी बताता हूं सर।’

फिर बैठ कर बोले, ‘असल में हुआ क्या, सर, कि परसों गांव से पिताजी आ गये। पूछने लगे कि कभी साहब के बंगले पर गये या नहीं। मैंने कहा मैं तो एक बार भी नहीं गया। उन्होंने, सर, मुझे बहुत डांटा। एकदम डायरेक्ट गधा कहा, सर। कहने लगे कि अपना दफ्तर और अपने साहब का बंगला मन्दिर के समान होते हैं। वहां जाकर प्रणाम करना चाहिए। मैंने भी सोचा कि मैं सचमुच गधा हूं जो इस बात को नहीं समझ पाया। ये एक पाव पेड़े लाया हूं,ग्रहण कर लीजिए सर।’

साहब ने पूछा, ‘ये किस लिए?’

छेदीलाल बोले, ‘मन्दिर में पहली बार आया हूं। खाली हाथ नहीं आना चाहिए।’

साहब ने पूछा, ‘कोई काम है?’

छेदीलाल बोले, ‘अरे राम राम। काहे का काम? मन्दिर जाने में कौन सा काम सर? बस, श्रद्धा हुई और आगये। आप हमारा पेट पालते हैं सर, और पेट पालने वाला भगवान का रूप होता है।’

साहब बोले, ‘पेट पालने के लिए पैसा तो सरकार देती है।’

छेदीलाल बोले, ‘सर, सरकार तो दिल्ली में बैठी है। हमारे भगवान तो आप ही हैं। पुराने जमाने में सरकार दिल्ली में बैठी रहती थी, लेकिन रिआया का लालन-पालन तो जमींदार ही करता था।’

फिर छेदी बाबू ने पूछा, ‘सर, मेरी भाभी जी नहीं दिख रही हैं। उनके आज तक दर्शन नहीं किये। उन्हें भी प्रणाम कर लेता तो यहां आना सफल हो जाता।’

साहब ने पत्नी को बाहर बुलाया। छेदीलाल ने उन्हें देखा तो जुड़े हुए हाथ माथे पर लगाकर ज़मीन तक झुक गये। बोले, ‘वाह, एकदम देवी का रूप हैं। भगवती हैं। प्रणाम स्वीकार कीजिए, भाभी जी। मैं आपका सेवक छेदीलाल। साहब के दफ्तर का छोटा सा कर्मचारी।’

मिसेज़ लांबा कुछ प्रसन्न हुईं,बोलीं, ‘बैठिए, चाय पीकर जाइएगा।’

छेदीलाल हाथ जोड़कर बोले, ‘जरूर। भला देवी की आज्ञा कैसे टाल सकता हूं।’

मिसेज़ लांबा भीतर गयीं तो छेदीलाल बोले, ‘दर्शन करके जी जुड़ा गया सर। एकदम भगवती स्वरूपा हैं। सर, मेरे घर में एक लक्ष्मी जी का कलेंडर है। हूबहू वही रूप है। कभी मेरी कुटिया में चरणधूल दें तो आप खुद देख लें।’

चाय आयी तो छेदीलाल चुस्की लेकर बोले, ‘वाह, एकदम अमृत है। लगता है भगवती ने खुद अपने हाथों से बनायी है।’

एक हफ्ते बाद ही साहब को फिर सूचना मिली कि छेदीलाल आये हैं। बाहर निकले तो देखा कि वह पहले दिन की तरह ही लट्ठे की माफिक उल्टे पड़े हैं। साहब को देखकर हाथ जोड़कर खड़े हुए। साहब ने उस दिन बरामदे में ही बैठाया।

छेदीलाल हाथ जोड़कर बोले, ‘सर, उस दिन से बस ऐसा लगता है जैसे कोई मुझे इधर को खींच रहा हो। अब मन्दिर वन्दिर जाने का मन नहीं होता। इधर ही मन खिंचता है। आपके दर्शन दफ्तर में हो जाते हैं, लेकिन भगवती के दर्शन के बिना मन व्याकुल रहता है, सर।’

लांबा साहब आज उनसे जल्दी मुक्ति चाहते थे। बोले, ‘और कोई काम? मुझे ज़रा बाहर जाना है।’

छेदीलाल बोले, ‘काम क्या सर! प्रभु से क्या काम? प्रभु तो अंतरयामी होते हैं। भक्त के मन की सब बात जानते हैं।’

फिर गंभीर मुद्रा बनाकर बोले, ‘एक बहुत मामूली सा निवेदन जरूर था, सर। बहुत दिनों से सोच रहा था कि कहूं या न कहूं। फिर सोचा प्रभु से कैसा संकोच!

‘सर, एक महीने बाद सुपरिंटेंडेंट साहब रिटायर हो रहे हैं। उस स्थान पर अगर सेवक का प्रमोशन हो जाता तो जीवन भर आपके गुन गाता।’

लांबा साहब के भीतर का अफसर जागृत हुआ। बोले, ‘लेकिन आप तो अभी बहुत जूनियर हैं। आपसे सीनियर तो तीन-चार लोग बैठे हैं। अभी तो उपाध्याय जी सबसे सीनियर हैं।’

छेदीलाल बोले, ‘सर, आप भी मेरे जैसे छोटे आदमी के साथ मजाक करते हैं। आपके लिए क्या मुश्किल है? जो आप कर देंगे वही होगा। सीनियर सुपरसीड हो जाता है और जूनियर ऊपर पहुंच जाते हैं। गोस्वामी जी ने कहा है, समरथ को नहिं दोस गुसाईं। आपकी कलम को कौन काट सकता है सर?

‘मैं तो किसी की बुराई करना पाप समझता हूं, सर, लेकिन यह तो कहना ही पड़ेगा कि उपाध्याय बाबू इस पोस्ट के लिए बिलकुल फिट नहीं हैं। ऑफिस कंट्रोल करना कोई मामूली काम है क्या सर? दिन भर तो कुर्सी पर बैठे सोते हैं, ऑफिस क्या कंट्रोल करेंगे। वे सुपरिंटेंडेंट बन गये तो ऑफिस का भट्ठा बैठ जाएगा। आप तो योग्यता देखिए, सर, सीनियारिटी को गोली मारिए।’

लांबा जी बोले, ‘हमारे पास तो रिपोर्ट है कि आप भी ऑफिस में सोते हैं।’

छेदीलाल चिहुंक पड़े, बोले, ‘कैसी बातें करते हैं, सर! आपको एकदम गलत रिपोर्ट दी गयी है। जरूर मेरे दुश्मनों का काम होगा। सर, बात यह है कि जैसा आपने देखा, मैं धार्मिक किस्म का आदमी हूं। बीच-बीच में आंखें बन्द करके हरि- स्मरण कर लेता हूं। उसी को मेरे दुश्मन गलत ढंग से प्रचारित करते हैं।’

लांबा साहब बोले, ‘खैर, मैं देखूंगा। आप अब कुछ दिन तक यहां मत आइएगा, नहीं तो लोग कहेंगे कि अपनी सिफारिश करने आते हैं।’

छेदीलाल बोले, ‘समझ गया, सर। बिल्कुल नहीं आऊंगा। भगवती के दर्शन किये बिना चैन तो नहीं पड़ेगा, लेकिन फिर भी आपके आदेश को मानूंगा।

‘लेकिन मेरी विनती पर ध्यान दीजिएगा, सर। आप सर्वशक्तिमान हैं, करुणानिधान हैं।आपके चेहरे पर जो करुणा बिराजती है उससे मुझे लगता है कि मुझे निराश नहीं होना पड़ेगा। सेंट परसेंट सफलता मिलेगी।’

कुछ दिनों बाद आदेश निकल गया। उपाध्याय जी सुपरिंटेंडेंट हो गये ।

छेदीलाल ने सुना तो बगल की मेज वाले लखेरा बाबू से कहा, ‘जब अफसर में दम- खम नहीं होगा तो यही होगा। गधे-घोड़े में फर्क करने की तमीज भी तो होनी चाहिए।’

फिर उठकर उपाध्याय जी के पास गये। दांत निकाल कर बोले, ‘बहुत-बहुत बधाई। हम तो भाई बड़े खुश हुए। बिलकुल सही प्रमोशन हुआ। हमें एक दिन साहब के घर जाने का मौका मिला तो हमने कहा सर, सीनियारिटी की बात छोड़िए, उपाध्याय बाबू योग्यता में भी किससे कम हैं? आंख मूंद कर उनका प्रमोशन कर दीजिए।’

इसके कुछ दिन बाद ही छेदीलाल को बाज़ार में एक दुकान से निकलती मिसेज़ लांबा दिख गयीं। वे तुरन्त दूसरी दुकान में घुस गये।

घर लौटे तो पत्नी से बोले, ‘आज बाजार में वह लांबा साहब की लांबाइन दिख गयी। ऐसी कि सबेरे सबेरे देख लो तो दिनभर खाना नसीब न हो। जैसा साहब, वैसी ही उसकी बीवी। राम मिलायी जोड़ी।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 42 – बात कम, घोटाला ज़्यादा! ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना बात कम, घोटाला ज़्यादा!)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 42 – बात कम, घोटाला ज़्यादा! ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गांव का चौपाल हमेशा चर्चा का अखाड़ा बना रहता है। चौधरी रामलाल अपनी खटिया पर टाँग पर टाँग रखकर विराजमान थे, और बाकी लोग ज़मीन पर थे—क्योंकि उनकी कुर्सियाँ विकास कार्यों की भेट चढ़ चुकी थीं।

“भइया, ये सड़क कब बनेगी?” रमुआ ने भोलेपन से पूछा।

रामलाल ने मूंछों पर ताव दिया, ज़मीन पर थूककर निशाना लगाया और बोले, “सड़क? अरे बेटा, जरूर बनेगी! पर पहले सरकार ये तय करेगी कि इसका उद्घाटन मंत्री जी करेंगे या उनका भांजा!”

गांववालों ने ठहाका लगाया, क्योंकि अब वे भी व्यंग्य समझने लगे थे।

पहलवान काका, जो अब पहलवानी छोड़कर सरकारी फाइलें उठाने-धरने में एक्सपर्ट हो चुके थे, बोले, “रामलाल, सुना है कि हमारे गांव का नाम विकास योजना में आ गया है!”

रामलाल मुस्कुराए, “बिल्कुल! नाम तो 10 साल पहले भी आया था, तब भी विकास हुआ था… मगर सिर्फ कागजों पर! सरकार बहुत दूर की सोचती है, सड़क बनाने की क्या ज़रूरत? सीधे गड्ढे बना दो! जब सड़क गिरेगी तो मुआवजा जल्दी मिलेगा!”

इतना सुनते ही गंगू काका ने अपनी चिलम सुलगाई और बोले, “हमारे नेताजी भी बड़े कलाकार हैं। पहले जनता को मुसीबत में डालते हैं, फिर उसे हल करने का वादा करके वोट मांगते हैं। मतलब बीमारी भी वही देते हैं और इलाज भी वही बेचते हैं!”

भोलू ने गब्बर सिंह स्टाइल में सवाल दागा, “तो काका, इस बार चुनाव में कौन जीतेगा?”

रामलाल ने कंधे उचकाए, “जिसका घोटाला सबसे नया होगा, वही जीतेगा! पुराने घोटाले तो पुरानी फिल्मों की तरह आउटडेटेड हो जाते हैं। अब बताओ, कोई पुरानी फिल्म बार-बार देखने जाता है क्या?”

अब तक गांववालों का खून खौलने लगा था। हरिया, जो सबसे गरीब था लेकिन सबसे होशियार भी, उठकर बोला, “तो हम क्या करें? कब तक ऐसे ही मूर्ख बनते रहेंगे?”

रामलाल ने ठहाका लगाया, “बेटा, जनता से बड़ा मूर्ख कोई नहीं होता। उसे हर बार ठगा जाता है, और वो फिर भी सोचती है कि अगली बार ईमानदार नेता आएगा! ये वैसा ही है जैसे कोई उम्मीद करे कि अगली बार समुंदर का पानी मीठा होगा!”

गांव के सबसे अनुभवी आदमी, बूढ़े फगुआ काका ने लंबी सांस खींची और बोले, “देखो भइया, हमारे देश में नेता और जूते में फर्क सिर्फ इतना है कि जूते जब पुराने हो जाते हैं, तो लोग उन्हें बदल देते हैं। नेता जब पुराने हो जाते हैं, तो वही हमें बदल देते हैं!”

इतना सुनते ही वहां मौजूद हर आदमी कुछ देर के लिए चुप हो गया। जैसे सत्य उनके सिर पर किसी भारी पत्थर की तरह आ गिरा हो। मगर फिर धीरे-धीरे हर कोई अपनी ज़िंदगी में व्यस्त हो गया, ठीक वैसे ही जैसे हर चुनाव के बाद जनता व्यस्त हो जाती है, अगली ठगी के लिए खुद को तैयार करने में!

क्योंकि आखिर में, “बात कम, घोटाला ज़्यादा!”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 338 ☆ व्यंग्य – “पालिटिकल अरेस्ट में पब्लिक…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक  व्यंग्य –पालिटिकल अरेस्ट में पब्लिक…” ।)     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 338 ☆

?  व्यंग्य – पालिटिकल अरेस्ट में पब्लिक…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

नये समय की नई शब्दावली चलन में है। टूल किट, पालिटिकल गैंगवार, डिजिटल अरेस्ट, मीडिया वार, सोशल हाईजेक, जैसे नये नये हिंग्लिश शब्द अखबारों में फ्रंट पेज हेड लाइंस बन रहे हैं। अब हर कुछ सबसे पहले और सबसे बड़ा होता है। छोटे से छोटी खबर भी ब्रेकिंग न्यूज होती है। सनसनी, झन्नाहट की डिमांड है। अब महोत्सव होते हैं। महा कुम्भ हुआ। महा जाम लगा। बड़े बड़े पढ़े लिखे लोग, दसवीं फेल जामतारा गैंग के सामने ऐसे डिजिटल अरेस्ट हुये कि बिना कनपटी पर गन रखे ही करोड़ो गंवा बैठे। लोग अपने नाते रिश्तेदारों मित्रों के फोन भले इग्नोर कर जाते हों पर अनजान नंबर से आते फोन उठाकर मनी लाउंड्रिंग केस में फंसने के डर को इग्नोर नहीं कर पाते। लोग न जाने किस अपराध बोध से ग्रस्त हैं कि वे जालसाजों के द्वारा ईजाद डिजिटल अरेस्ट जैसे सर्वथा ऐसे शब्द के फेर में उलझ जाते हैं, जो दण्ड संहिता में है ही नहीं। विभिन्न वित्तीय संस्थान जाने कितने बड़े बड़े विज्ञापन देकर सचेत करें पर स्मार्ट फोन और लेपटाप उपयोग करने वाले विद्वान उसे नहीं समझ पाते। लोगों की भय ग्रस्त मनोवृत्ति का दोहन जालसाज सहजता से कर लेते हैं। लोग घोटालेबाज़ के झांसे में फंसते चले जाते हैं और घूस देकर उस कथित डिजिटल अरेस्ट से मुक्त होना चाहते हैं।

जैसे नमकीन के पैकेट से थोड़ा सा नमकीन खाकर यदि स्वाद जीभ पर लग जाये तो फिर डायटिंग के सारे नियम अपने आप किनारे हो जाते हैं और पैकेट खत्म होते तक चम्मच दर चम्मच नमकीन खत्म होता ही जाता है कुछ वैसे ही इन दिनों मोबाइल पर सर्फिंग करते हुये जाने अनजाने में टिक टाक और रील्स में हम उलझ जाते हैं। समय का भान ही नहीं रहता। अच्छे भले चरित्रवान स्वयं वस्त्र उतारती रमणियों में रम जाते हैं। लिंक दर लिंक फेसबुक से इंस्टाग्राम यू ट्यूब तक मोबाइल चलता चला जाता है। कुछ इसी तरह सारी दुनियां में आम आदमी राजनेताओ के चंगुल में पालिटिकल अरेस्ट में हैं। आम और खास में अंतर की खाई हर जगह गहरी हैं। सरकारें उन्हीं आम लोगों से टैक्स वसूलती हैं जो उन्हें चुनकर खुद पर हुक्म चलाने के लिये कुर्सी पर बैठाते हैं। कम्युनिस्ट देशों में जनता का भरपूर शोषण कर देश का मुस्कराता चेहरा दुनियां को दिखाया जाता है। लोकतांत्रक सत्ताओ में केपेटेलिस्ट पूंजीपतियों को सरकार का हिस्सा बनाया जा रहा है। इसका छीनकर उसको फ्री बीज के रूप में बांटा जाता है। धर्म के नाम पर, आतंक, माफिया अथवा सैन्य ताकत या मुफ्तखोरी के जरिये आम लोगों के वोट बैंक बनाये जाते हैं। ये वोट बैंक पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ते रहते हैं। जनता को कट्टरपंथ का नशा पिलाकर देश भक्त बनाये रखने में लीडर्स का भला छिपा होता है। अपोजीशन का काम जनता को बरगला कर यही सब खुद करने के लिये अपने लीडर्स देना होता है। पक्ष विपक्ष जनता की अपनी तरफ खींचातानी के लिये नित नये लुभावने स्लोगन, आकर्षक वादे, तरह तरह के जुमले, सुनहरे सपने, दिखाकर भ्रम का मकड़जाल बनाते नहीं थकते। जनता की बुद्धि हाईजैक करना नेता भलिभांति जानते हैं। पब्लिक की नियति पालिटिकल अरेस्ट में  उलझे रहना है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 277 ☆ व्यंग्य – बलिहारी गुरु आपने ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – बलिहारी गुरु आपने  इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 277 ☆

☆ व्यंग्य – बलिहारी गुरु आपने

कुंभ-स्नान के लिए नहीं जा पाया। दिल में बहुत मलाल है। गंगा मैया क्षमा करें। कारण यह है कि जाड़े में घर में ही स्नान मुल्तवी हो जाता है, भीड़-भाड़ और धक्का-मुक्की में प्रयागराज पहुंचकर इस कंचन काया को ठंडे पानी में कैसे डुबाया जाए? सयाने  कह गये हैं कि ‘काया राखे धरम’ होता है। एक बाबाजी कुंभ-स्नान के लिए न पहुंचने वालों को ‘देशद्रोही’ की संज्ञा दे चुके हैं। डर लगता है कि कहीं शासन बाबाजी के कहने के हिसाब से कार्यवाही न करने लगे। आजकल बाबाओं की बड़ी कद्र है। देश के बेरोज़गार युवकों को भी बाबागिरी में अच्छा विकल्प दिख रहा है। इसमें किसी डिग्री की दरकार नहीं है और इज़्ज़त के साथ दक्षिणा भरपूर है।

धर्माचार्य कह रहे हैं कि कुंभ में नहाने से मोक्ष मिलेगा। मतलब यह कि मेरे जैसे स्नान-भीरु लोगों को बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। मोक्ष नहीं मिलेगा। दूसरों की तो मैं नहीं जानता, लेकिन अपने मन की बात बताऊं कि अभी मोक्ष की इच्छा नहीं है। यह दुनिया कंबख़्त इतनी दिलकश है कि बार-बार जन्म लेने की इच्छा होती है। बस शर्त यह है कि जन्म मनुष्य के रूप में और ऊंची जाति में मिले। नीची जाति में जन्म लेकर फजीहत झेलने से तो मोक्ष अच्छा। मनुष्य की ऊंची जाति में जन्म के साथ यह भी ज़रूरी होगा कि पैसा-कौड़ी का अभाव न रहे। कोई मलाईदार पद मिलता रहे तो सोने में सुहागा होगा।

कुंभ के दृश्य टीवी पर देखते देखते एक बाबा ने ध्यान खींचा। कद 3 फुट 8 इंच, नाम छोटू बाबा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि छोटू बाबा ने 32 साल से स्नान नहीं किया है। उनके दर्शन से मन में भक्ति उमड़ पड़ी। मोक्ष के अयोग्य होने की ग्लानि एकदम छंट गयी। मनोबल ठाठें मारने लगा। लगा कि ऐसे ही गुरू को मैं अरसे से तलाश रहा था। अब जाकर तलाश पूरी हुई।

छोटू बाबा ने बताया कि उन्होंने कोई व्रत लिया था और उसके पूरा होने पर वे उज्जैन में स्नान करेंगे। मेरे दिमाग में सवाल उठा कि जब उन्हें नहाना नहीं था तो  वे कुंभ में किस लिए पधारे थे?

जो भी हो, अपने न नहाने के व्रत की बात उजागर करने के बाद भी लोग छोटू बाबा को पूज रहे थे, उन्हें दक्षिणा दे रहे थे, उनके फोटो खींच रहे थे, उनका आशीर्वाद ले रहे थे। देखकर मुझे लगा कि नहाने से परहेज़ करना कोई शर्म की बात नहीं है। बिना नहाये भी आदमी अपने मनोबल को ऊंचा रख सकता है और दुनिया से वैराग्य होने पर सन्त महन्त का दर्ज़ा पा सकता है। सोच लिया कि अब यदि न नहाने को लेकर घर में लानत- मलामत होगी तो छोटू बाबा को सामने रखकर पुख्ता जवाब दे सकूंगा।

टीवी पर छोटू बाबा के दर्शन होने के बाद मन में बड़ी बेचैनी है। बलवती इच्छा है कि कुंभ की गहमा-गहमी और सर्दी कुछ हल्की हो तो छोटू बाबा को ढूंढ़ कर उनके चरण पकड़ूं और मुझे अपना शिष्य बना लेने की प्रार्थना करूं। मेरे लिए उनसे बेहतर गुरू हो नहीं सकता। मैंने भी व्रत ले लिया है कि अपना अगला स्नान गुरू जी के साथ उज्जैन में ही करूंगा। महाजनो येन गत: स पंथा:।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 41 – घाव करे गंभीर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना घाव करे गंभीर )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 41 – घाव करे गंभीर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

कहानी एक छोटे से गाँव की है, जहाँ हम रामू से मिलते हैं, एक साधारण किसान जो सूरज की तपिश में काम करता है, उसके सपने उसके खेतों की तरह विस्तृत हैं। रामू की ज़िंदगी एक प्रकार की दृढ़ता की मिसाल है, जो पुराने कहावत का जीता-जागता प्रमाण है: “मेहनत का फल मीठा होता है।” सरकार, हमेशा एक दयालु देवता की भूमिका निभाने को तत्पर, मुफ्त शिक्षा, वित्तीय सहायता, और कौशल प्रशिक्षण की बौछार करने का वादा करती है। मीडिया इन पहलों का जश्न मनाते हुए, दीवाली की रात के उत्साह के साथ, उन लोगों की कहानियाँ प्रसारित करती है जिन्होंने अपनी ज़िंदगी बदल दी, जबकि रामू सोचता है कि उसकी बैंक की स्थिति क्यों खाली है।

इसी बीच, नौकरशाही का विशालकाय तंत्र, अपने जटिल प्रक्रियाओं के साथ, एक अनसुना खलनायक बनकर उभरता है। फॉर्म ऐसे जटिल होते हैं जैसे किसी नेता का भाषण, रामू की सहायता के लिए की गई आवेदनों का कोई अता-पता नहीं रहता। हर दिन, वह स्थानीय दफ्तर जाता है, केवल यह जानने के लिए कि वहाँ “आपात” बैठकों के लिए बंद है—जो उन अधिकारियों के चाय के अंतहीन कप का आनंद लेने के लिए निर्धारित होते हैं, जबकि आम आदमी बाहर इंतज़ार करता है। “एक दिन,” वे उसे आश्वासन देते हैं, “आप भी ऊंचा उठेंगे।” रामू केवल कड़वा हंसता है, जानता है कि असली उत्थान तो चाय के गहरे कप और अधिकारियों की आरामदायक कुर्सियों में है।

फिर मीडिया का प्रवेश होता है, जो आशा के संदेश वाहक होते हैं, जो जब एक सफलता की कहानी सामने आती है, तब कैमरा और रिपोर्टर लेकर आते हैं। वे एक चमकदार विज्ञापन प्रदर्शित करते हैं जिसमें एक युवा लड़की की कहानी होती है जो अपनी दृढ़ता के माध्यम से तकनीकी उद्यमी बन जाती है। “रगड़ से रौशनी!” वे चीखते हैं, जबकि रामू का दिल थोड़ा और भारी हो जाता है। उसे स्कूल के साल याद आते हैं, जहाँ उसने बॉलीवुड की भूगोल के बारे में तो ज्यादा सीखा, लेकिन अपने देश के भूगोल के बारे में बहुत कम। यह विडंबना उसके लिए छिपी नहीं है: वही मीडिया जो सफलता का जश्न मनाता है, उन अनसुने नायकों की ओर से बेखबर है जो गरीबी के चक्र में फंसे हुए हैं, स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते हुए।

जब रामू चमचमाते हेडलाइनों को देखता है, तो वह “मेक इन इंडिया” अभियान पर विचार करने से खुद को रोक नहीं पाता, एक चमकदार पहल जो देश को विनिर्माण महाशक्ति बनाने का वादा करती है। लेकिन असलियत में, यह अक्सर उन कारखानों का निर्माण करने के रूप में बदल जाती है जो श्रमिकों का शोषण करते हैं, जिन्हें वे खुद को उठाने का दावा करते हैं। रामू जानता है कि जब कारखाने विदेशी बाजारों के लिए उत्पादों का उत्पादन करते हैं, तो वह और उसके साथी किसान अपने आप को केवल सूखे फसलों और बढ़ते कर्ज में फंसा पाते हैं। “अहा, उत्थान का मीठा स्वाद,” वह व्यंग्यात्मक रूप से सोचता है, जब वह अपनी मेहनत के फल को कॉर्पोरेट लालच में गायब होते देखता है।

फिर भी, रामू आशावादी रहता है, नेताओं की प्रेरणादायक कहानियों से उत्साहित होकर, जो गरीबों के कारण का समर्थन करते हैं। “हम गरीबी को मिटा देंगे!” वे अपने मंचों से घोषणा करते हैं, उनकी आवाज़ें पूरे देश में एक सुखद लोरी की तरह गूंजती हैं। लेकिन जब कैमरे चमकते हैं और भीड़ ताली बजाती है, तो रामू यह नहीं देख सकता कि पास में खड़ी लक्जरी कारें, उनकी चमकती बाहरी चमक उस धूल भरी सड़क के विपरीत हैं, जिस पर वह चलता है। उनकी ज़ुबान से निकलने वाले शब्दों की विडंबना उसकी आँखों के सामने खुलती है, जब वे उन लोगों को उठाने का वादा करते हैं, जिनकी नीतियाँ उन्हें नजरअंदाज करती हैं।

इस उत्थान की भव्य कथा में, कथा का प्रवाह चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ता है: चुनाव। रामू पर वादों की बौछार होती है, हवा में उम्मीद और निराशा का घनत्व होता है। राजनीतिक नेता उसके गाँव में मानसून की तरह बरसते हैं, प्रत्येक एक रातोंरात उसके जीवन को बदलने का वादा करते हैं। “हमारे लिए वोट करो, और हम सड़कें, स्कूल, और अस्पताल बनाएंगे!” वे चिल्लाते हैं, उनकी आँखों में महत्वाकांक्षा और आत्म-स्वार्थ की चमक। विडंबना यह है? रामू के गाँव की सड़कों की मरम्मत लंबे समय बाद वोटों की गिनती के बाद भी नहीं होती, जिससे उसे यह सोचने पर मजबूर कर दिया जाता है कि क्या वह एक अलग भारत में जी रहा है।

जैसे-जैसे साल बीतते हैं, रामू के उत्थान के सपने सुबह की धुंध की तरह dissipate होते जाते हैं। सरकार द्वारा घोषित आंकड़े गरीबी दरों में कमी का प्रचार करते हैं, लेकिन रामू के लिए, हर दिन भाग्य की लहरों के खिलाफ एक निरंतर संघर्ष की तरह महसूस होता है। उत्थान की जीवंत कहानियाँ एक कड़वी याद दिलाती हैं कि सत्ता की बयानबाजी और अस्तित्व की वास्तविकता के बीच कितना बड़ा फासला है।

एक हताशा की स्थिति में, रामू उन सत्ताधारियों के नाम एक पत्र लिखता है, जिसमें वह अपनी पीड़ा को शब्दों में व्यक्त करता है जो अनगिनत अन्य लोगों की भावनाओं का गूंज करते हैं। “प्रिय नेता,” वह शुरू करता है, “आपके उत्थान की कहानियाँ तपती धूप पर एक मृगतृष्णा के समान आनंददायक हैं। जबकि आप भव्य भोज में बैठते हैं, हम आशा के अवशेषों पर जीवन बिताते हैं।” उसके शब्दों की विडंबना हवा में भारी लटकती है, एक महत्वपूर्ण याद दिलाते हुए कि देश में कितनी बड़ी दूरी है।

इस व्यंग्यात्मक उत्थान की कथा का परदा गिरते ही, कोई भी रामू के दिल में भारी दुःख का बोझ महसूस किए बिना नहीं रह सकता। रगड़ से रौशनी का वादा एक दूर का सपना बना रहता है, जो नौकरशाही, मीडिया की सनसनीखेजी, और राजनीतिक पाखंड के कुहासे के पीछे छिपा है। निष्कर्ष? एक गहरी हानि की भावना, यह एहसास कि जबकि सफलता की कहानियों का जश्न मनाया जाता है, अनगिनत जिंदगियों की वास्तविकता केवल इतिहास के पन्नों में एक फुटनोट बनकर रह जाती है।

अंत में, रामू क्षितिज की ओर देखता है, जहां सूरज रंगों के एक चमत्कारी शो में ढलता है, जो उसके सपनों की याद दिलाता है—चमकीला लेकिन अंततः पहुंच से बाहर। भारतीय उत्थान का मिथक सोने की तरह चमकता हो सकता है, लेकिन रामू और उसके जैसे कई लोगों के लिए, यह एक मृगतृष्णा बनकर रह जाता है, जो हमेशा के लिए सामर्थ्य और उत्थान की तलाश में संघर्षरत रहते हैं। जैसे ही वह मुड़ता है, एक बूँद आंसू उसके गाल पर बह जाती है, जो उन लाखों लोगों की मौन संघर्ष की गवाही है जो अक्सर भुला दिए जाते हैं।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 40 – साहब का हंटर और बाबू की बेबसी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना साहब का हंटर और बाबू की बेबसी)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 40 – साहब का हंटर और बाबू की बेबसी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

जब मिस्टर हरगोबिंद लाल (उर्फ हरि बाबू) को सरकारी दफ्तर में नया अफसर बना कर भेजा गया, तो उनके मन में बड़े-बड़े अरमान थे। उन्होंने बचपन से ही सरकारी सिस्टम के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। यह कि सरकारी दफ्तरों में लोग आलसी होते हैं, यह कि कर्मचारियों को सिर्फ वेतन से मतलब होता है और यह कि अफसरों को सख्ती करनी चाहिए। उन्होंने दफ्तर का कार्यभार सँभालते ही मैकेनिक की तरह मशीन को देखना शुरू किया।

मशीन में बड़े-बड़े मंत्री और वरिष्ठ अधिकारी थे, जो किसी और तर्ज़ पर काम कर रहे थे—अर्थात् अपने फायदे की। कर्मचारी इस मशीन के छोटे-छोटे पुर्जे थे, जिन्हें हरगोबिंद लाल सुधारने का ठान चुके थे। उनका सोचना था कि जब ये छोटे पुर्जे ठीक हो जाएंगे, तो पूरी मशीन सुचारू रूप से चलेगी। लेकिन उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि मशीन में सबसे बड़ी समस्या वे बड़े-बड़े मंत्री और अधिकारी खुद थे।

हरि बाबू के ऑफिस में अधिकतर कर्मचारी बुजुर्ग हो चुके थे। सरकार ने सालों से नई भर्ती नहीं की थी, और पुराने कर्मचारियों की रिटायरमेंट उम्र बढ़ा-बढ़ा कर काम चलाया जा रहा था। ये सभी अपनी कुर्सियों से ऐसे चिपके हुए थे, मानो यह उनकी पुश्तैनी जागीर हो। जब भी कोई सरकारी कार्यक्रम होता, तो मंच के सामने सफेद बाल, नकली दाँत और मोटे चश्मे पहने हुए कर्मचारियों की अच्छी-खासी प्रदर्शनी लग जाती।

हरगोबिंद लाल ने पहला आदेश जारी किया—”काम का समय सुबह 10 बजे से शाम 6 बजे तक रहेगा। कोई देर से नहीं आएगा, और कोई बिना काम किए नहीं जाएगा।”

कर्मचारियों ने उनकी ओर देखा और मुस्कुराए। उन्होंने अफसरों के बदलने की आदत डाल ली थी। कोई अफसर नया-नया आता, गर्मी दिखाता और कुछ ही महीनों में ठंडा पड़ जाता।

हरि बाबू ने जब कर्मचारियों से बातचीत शुरू की, तो उन्हें अलग ही जवाब मिले।

“सर, जब हमने नौकरी जॉइन की थी, तब से यही सुन रहे हैं कि फला योजना बहुत जरूरी है, अला योजना बहुत महत्वपूर्ण है। जब कोई नई फाइल आती है, तो कहा जाता है कि इसे तुरंत निपटाना है। साहब, हमारी हड्डियाँ अब थक चुकी हैं। पहले भी बहुत दौड़ चुके हैं, अब और नहीं दौड़ा जाता।”

हरि बाबू ने गुस्से में कहा, “यह सब बहानेबाजी नहीं चलेगी। इन्क्रीमेंट, डी.ए., प्रमोशन चाहिए, तो काम भी पूरा करना होगा। छुट्टी के दिन भी आना होगा। देर रात तक रुकना होगा। और अगर किसी ने लापरवाही की, तो इज्जत से रिटायर नहीं होने दूँगा।”

बुजुर्ग कर्मचारियों ने एक-दूसरे को देखा और ठंडी आह भरी।

तभी पुराने बाबू रामदयाल ने कहा, “हुजूर, मेरी हालत देखिए। उम्रदराज हो चुका हूँ। खाल पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं, आँखें कमजोर हो चुकी हैं, खुर घिस चुके हैं। बहुत दिन हुए खरैरा नहीं हुआ है। पहले वाले अफसर ने कहा था कि फलाँ मंजिल तक पहुँचना जरूरी है। मैंने जान लगा दी और किसी तरह हाँफते-हाँफते पहुँच भी गया। लेकिन वहाँ पहुँचते ही नया मिशन दे दिया गया। यह सिलसिला चलता ही जा रहा है। अब और नहीं दौड़ा जाता, हुजूर।”

हरि बाबू ने हँसते हुए कहा, “तुम लोगों की आदतें बिगड़ चुकी हैं। अब यह आलसीपन नहीं चलेगा।”

कर्मचारियों ने सिर हिलाया और बेमन से काम में जुट गए।

लेकिन जल्दी ही हरि बाबू को अहसास हुआ कि सरकारी दफ्तर का सिस्टम सच में एक अजीबोगरीब मशीन है। एक दिन उन्होंने एक फाइल तेजी से आगे बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन बाबू मोहनलाल ने बड़ी मासूमियत से कहा, “साहब, यह काम कल हो जाएगा।”

“कल क्यों? आज क्यों नहीं?”

“क्योंकि आज तक कभी कोई फाइल एक ही दिन में आगे नहीं बढ़ी, साहब। ऐसा पहली बार होगा, इसलिए सिस्टम को समय चाहिए।”

हरि बाबू ने माथा पीट लिया।

धीरे-धीरे उन्हें समझ आने लगा कि यह सिस्टम अपने आप में एक अलग ही जीव है। यहाँ लोग दिनभर काम करने का दिखावा करते थे, लेकिन असली काम तब होता था जब कोई मिठाई का डिब्बा लेकर आता था। जब तक जेब गरम नहीं होती, तब तक कोई काम आगे नहीं बढ़ता।

हरि बाबू ने रिश्वतखोरी खत्म करने का संकल्प लिया। लेकिन जल्दी ही उन्हें एहसास हुआ कि यह कार्य लगभग असंभव है। उन्होंने एक बाबू को पकड़कर डाँटा, “तुम फाइल आगे बढ़ाने के लिए पैसे क्यों लेते हो?”

बाबू ने सहजता से जवाब दिया, “साहब, आप अफसर हैं, आपको तनख्वाह के अलावा गाड़ी, बंगला, टी.ए.-डी.ए. सब मिलता है। लेकिन हमें क्या मिलता है? सिर्फ सैलरी, और वो भी इतनी कम कि गुजारा मुश्किल है। इसलिए हमें अपनी ‘इन्क्रीमेंट’ खुद बनानी पड़ती है।”

हरि बाबू के पास कोई जवाब नहीं था।

फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने कर्मचारियों पर सख्ती बरती। इसका असर यह हुआ कि कुछ कर्मचारी डर के मारे काम में लग गए, लेकिन कुछ ने बीमार पड़ने का बहाना बना लिया।

धीरे-धीरे समय बीतता गया। हरि बाबू ने बहुत कुछ सुधारने की कोशिश की, लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, उनकी ऊर्जा भी कम होने लगी।

एक दिन वे सुबह-सुबह ऑफिस पहुँचे, तो देखा कि पुराना चपरासी शिवराम कुर्सी पर बैठा सुस्ता रहा था।

“शिवराम, तुम अभी तक सेवानिवृत्त नहीं हुए?”

“नहीं, साहब। सरकार हमारी उम्र बढ़ाती जा रही है। अब सुना है कि रिटायरमेंट की उम्र और बढ़ेगी।”

हरि बाबू ने अपना माथा पीट लिया।

उन्होंने आखिरकार समझ लिया कि यह नौकरी नहीं, बल्कि एक जाल है, जिसमें घुसने के बाद आदमी पूरी उम्र फँसा रहता है। यह नौकरी एक ऐसी ठगनी है, जो आदमी की जवानी खा जाती है, उसके बुढ़ापे को भी चैन से जीने नहीं देती।

हरि बाबू ने ठंडी आह भरी और सोचा, “कबीर दास जी सच ही कह गए हैं—

नौकरी महा ठगनी हम जानी,

करें नौकरी, वही पछतानी।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 48 ☆ व्यंग्य – “पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट है लिट्फेस्ट…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  “पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट है लिट्फेस्ट…” ।)

☆ शेष कुशल # 47 ☆

☆ व्यंग्य – “पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट है लिट्फेस्ट…” – शांतिलाल जैन 

‘मैं लिट्फेस्ट में गया था, वहाँ…..’  पिछले दस दिनों में दादू कम से कम दो सौ बार बता चुका है. सौ पचास बार तो मेरे सामने ही बता चुका है. साथ में तो मैं भी गया था. हर बार बताते समय उसका सीना छप्पन इंच से कुछ ही सेंटीमीटर कम फूला हुआ होता है. आमंत्रित रचनाकारों में दादू की वाईफ़ के मौसाजी के कज़िन भी थे जो सुदूर लखनऊ से आए थे. उत्सव की साईडलाईंस में हम उनसे मिलने और मौसी के लिए लौंग की सेव, घर की बनी मठरी, ठण्ड के करंट लड्डू और नींबू के आचार की बरनी देने गए थे. दादू को सपत्नीक जाना था मगर एनवक्त पर भाभीजी को माईग्रेन हो गया. वह मुझे साथ ले गया. वह राजनीति का मंजा हुआ ख़िलाड़ी है, मजबूरी में किए गए काम का भी क्रेडिट लेने और गर्व अभिव्यक्त करने के अवसर में बदल सकता है. ‘स्तरीय अभिरुचि’ और ‘साहित्य की श्रीवृद्धि में अकिंचन योगदान’ जैसे भावों से भरा दादू घूम घूम कर सबको बता रहा है ‘मैं लिट्फेस्ट में गया था, वहाँ…..’.

लिट्फेस्ट में कुछ लोग इंट्री फीस के साथ आए थे कुछ डोनेशन से मिलनेवाले वीआईपी ‘पास’ से. दादू ने इंट्री के लिए जुगाड़ से वीआईपी ‘पास’ का इंतज़ाम किया हुआ था. इंट्री सशुल्क रही हो या निःशुल्क, कुछ लोग अपने पसंदीदा लेखकों को सुनने, पुस्तकों पर हस्ताक्षर करवाने आए थे, शेष तो बस तफ़रीह को. रचनाकारों के हाथों में लगभग बिना ढक्कन का पेन होता था  जो लिखने के काम आता तो नहीं दिखा, किताब पर हस्ताक्षर करने के काम अवश्य आ रहा था, उसी से उन्होंने रसीदी-टिकट पर दस्तख़त करने जैसा महत्पूर्ण कार्य संपन्न किया. आईएफएससी कोड, अकाउंट नंबर, बैंक डिटेल्स वे घर से लिखकर लाए थे. पेन उपकरण तो सरस्वतीजी का था मगर अपने स्वामी लेखक को लक्ष्मीजी तक पहुँचाने में उसकी महती भूमिका थी. 

बहरहाल, वहाँ चार से छह सत्र एक साथ चल रहे थे. मेरी-गो राऊंड. इधर से घुसकर उधर निकल जाईए, उधर से घुसकर और उधर, उधर से और भी उधर, उधरतम स्तर पर पहुंचकर फिर इधर आ जाईए. दुनिया गोल है. सचमुच. सत्र होरीझोंटल ही नहीं वर्टिकल भी चल रहे थे. बैक-टू-बैक सत्र की खूबसूरती यह थी कि दर्शकों को एक ही लेखक को बहुत देर तक झेलना नहीं पड़ रहा था. अगले टाईम स्लॉट की मॉडरेटर अपने उतावले पेनल के साथ पास ही तैयार खड़ी थी. उसने आज ही अपने हेयर्स स्ट्रेट करवाए थे. उन्हें संभालते-संभालते वह शी…शी… की छोटी छोटी ध्वनियों से स्टेज जल्दी खाली करने के संकेत प्रेषित कर रही थी. यूं तो लेखक संकेत-इम्यून होता है, उसे पीछे से कुर्ता-खींच कर दिए गए संदेशों से निपटने का उसे पर्याप्त अनुभव होता है, मगर यहाँ उसे अगलीबार नाम कट जाने का डर का सता रहा था सो मन मारकर बैठ गया.

लिट्फेस्ट एक अलग तरह का अनुभव था. आप जितना आश्चर्य इस बात पर करते हैं कि आप कहाँ आ गए हैं उससे ज्यादा आश्चर्य इस बात पर होता है कि साहित्य कहाँ आ पहुँचा है! कुछ समय पहले के रचनाकारों ने कथा कविता को आमजन की चौक-चौपालों से उठाकर साहित्यिक संगोष्ठियों में पहुँचाया, वहाँ से प्रायोजकों की बैसाखियों पर चलकर लिटरेचर फेस्टिवल में आ पहुँचा है. सितारा होटलों, वातानुकूलित प्रेक्षागृहों, लकदक सजावट से घिरे अंतरंग कक्षों, रंगीन पर्दों से सजे बहिरंगों में गाँव की, मजदूर की, गरीब की कथा-कविता तो मिली, किसान, मजदूर या गरीब कहीं नहीं दिखा. कथा-कविता में खेत में बहते पसीने की गंध सुनाई दी, मगर उसने नाक में घुसकर हमारा मूड ख़राब नहीं किया. हैवी रूम-फ्रेशनर जो मार दिया गया था, हमने इत्मीनान से गहरी सांसें खींची. आप भी जा सकते हैं वहाँ. इयर-ड्रम्स के चोटिल होने का भी कोई ख़तरा नहीं. अहो-अहो और वाह-वाह के नक्कारखाने में प्रतिरोध की तूती सुनाई नहीं देगी. कुछ आमंत्रित लेखक बुलाए जाने पर सीना फुलाए फुलाए घूम रहे थे. कुछ जाऊँ, न जाऊँ की उहापोह में रहे होंगे, अब जब आ ही गए थे तो कह रहे थे – ‘कोई सुने न सुने तूती बोल तो रही है.’ सफाई भी, जस्टिफाई भी. यही क्या कम है कि निज़ाम ने अभी तक तूती की वोकल कार्ड को मसक नहीं दिया है. खैर, आयोजकों ने भी फेस सेविंग का पूरा इंतज़ाम किया हुआ था, चार अनुकूल रचनाकारों के पैनल में एक विपरीत विचार का रखकर बेलेंसिंग की गई थी. शहरी कुलीनताओं और एलिट अंग्रेज़ी साहित्य के सत्रों के बीच हर दिन एक दो सत्र हिंदी के और हिंद के शोषितों पर केंद्रित कर के भी रखे गए थे.

बहरहाल, अगर आप लिट्फेस्ट में बतौर श्रोता पहलीबार जा रहे हैं तो कुछ मशविरा आपके लिए.

एक तो अपनी पसंद के लेखक को ब्रोशर पर छपे फोटो या उनकी किताब के पीछे छपे फोटो से मिलान करके ढूँढने की गलती मत कीजिएगा. फोटो में वे एम एस धोनी जैसे बालों में हो सकते हैं और हकीकत में गंजे. हमें भी मौसाजी के कज़िन को ढूँढने में परेशानी हुई. फोटो उन्होंने अपनी जवानी का अवेलेबल कराया रहा होगा या शी-कलीग्स की पसंद का. जैसे वे ब्रोशर में थे सच में नहीं, जैसे सच में थे पोस्टर पर नहीं. मिलान करने के लिए आप चैट जीपीटी या डीपसीक की मदद ले सकते हैं. तब तक ऐसा करें कि थोड़े से खाली खाली खड़े लेखक के साथ सेल्फी लेते चलिए और वाट्सअप स्टेटस पर डालते चलिए. रील भी बना सकते हैं. अगर आप किसी लेखिका के संग सेल्फी लेना चाहते हैं तो अलर्ट रहिए और सत्र समाप्ति के दो तीन मिनिट में ही ले लीजिए, उसे मृगनयनी शो रूम से साड़ी खरीदने के लिए भागने की जल्दी जो होगी.

दूसरे, अपने रिश्तेदार से मिलने आप लंच टाईम के आसपास मत जाईएगा. बाउंसर आपको भोजन के तम्बू में बिना ‘पास’  के घुसने नहीं देगा और आपके मेहमान गुलाबजामुन की सातवीं किश्त का लुत्फ़ लिए बगैर बाहर आएँगे नहीं. साहित्य आपके ऑफिस की आधे दिन की सेलेरी कटवा देगा.

वैसे तो इन दिनों सनातन के बिना विमर्श के आयोजन पूरे होते नहीं, सो बजरिए मानस रामचर्चा का सत्र भी रखा गया है. लेकिन अगर आप महज़ मज़े के लिए जाना चाहते हैं तो शाम के सत्रों में पहुँचिएगा. सुबह गंभीर लेखकों से चलकर शाम होते होते विमर्श बॉलीवुड, ओटीटी, पॉपुलर बैंड, मंचीय कविता और स्टेंड-अप कॉमेडी के सेलेब्रिटीज तक पहुँच चुका होगा. मनोरंजन का नया डेस्टिनेशन! लिट्फेस्ट. अगर आप मक्सी, देवास, हरदा, इटारसी या बाबई में रहते हैं तो लिट्फेस्ट तो आप अपने शहर में एन्जॉय नहीं कर पाएँगे. इन शहरों में ये तब तक नहीं आएगा जब तक यहाँ साहित्य का बाज़ार विकसित नहीं हो जाता. लिटरेचर टूरिज्म बाज़ार का नया फंडा है. आप अपने हॉली-डेज जयपुर लखनऊ, भोपाल, दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नाई, कोझिकोड के लिए प्लान कर सकते हैं. पूंजी, सत्ता, और बाज़ार का प्रॉडक्ट हैं लिट्फेस्ट. मीडिया मुग़ल, कारोबारी या अफसर उठता है और लिट्फेस्ट नामक जलसा आयोजित कर डालता है. जाने भी दो यारों, एन्जॉय दी फेस्ट.

और हाँ एक झोला लेते हुए जाईएगा. लौटते में आपके हाथों में कुछ पुस्तकें होंगी. कुछ भेंट में, मिलेंगी. कुछ आप उम्दा पसंदगी की नुमाईश करने के प्रयोजन से खरीदेंगे ही. दादू ने तो किताबों के साथ फोटो लेकर प्रोफाइल और स्टेटस पर लगा दी है. आप भी शान से कह पाएँगे – ‘मैं लिट्फेस्ट में गया था, वहाँ…..’

और हाँ, कहते समय शर्ट का ध्यान रखें, सीना फूल जाने से बटन टूट जाने का खतरा रहता है.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ जुगाड़ ☆ श्री रमाकांत ताम्रकार ☆

श्री रमाकांत ताम्रकार

☆ व्यंग्य – जुगाड़ ☆ श्री रमाकांत ताम्रकार 

वह बहुत गरीब था किन्तु जैसे तैसे कर उसने ग्रेजुएशन कर राज्य सिविल सेवा में अधिकारी का पद पा लिया था। उसने सरकारी नौकरी में आने से पहले यह शपथ ली थी कि वह तन-मन से देश की सेवा करेगा और मजलूमों का सहारा बनेगा, पूरी मेहनत से अपने कर्तव्य को अंजाम देगा।

अब प्रदेश के जिलों संभागों में नौकरी करने के बाद उसकी पदस्थापना मंत्रालय में हो गई। वह मेहनत तो बहुत करता किन्तु मंत्रालय का कल्चर जिला और संभाग के कल्चर से अलग ही होता है क्योंकि यहां प्रदेश के मुख्यमंत्री, मंत्री और शीर्षस्थ अधिकारियों का राज होता ही है बल्कि यहां तो छुट भैया नेताओं का भी राज होता है, उनका कहना मानना भी नौकरी का एक हिस्सा होता है, वह भी डरते डरते मंत्रालय के कल्चर में ढल रहा था और यहां कि बारीकियां भी कुछ हद तक सीख गया था। किन्तु अभी तक वह ढर्रे में ढल नहीं पा रहा था। वह यहां के कल्चर में भी डेड ईमानदार बने रहना चाहता था किन्तु किन्तु किन्तु…

उसकी पत्नी आए दिन उसे ताने मारती और कहती देखो तुम्हारे साथ के लोगों ने कितनी तरक्की कर ली है उनके पास खुद का मकान है फार्म है गाड़ियां है नौकर चाकर है लड़के बच्चों के लिए अलग से कारें और रोजगार है पर तुम्हारे पास क्या है एक खटारा गाड़ी उसमें भी कभी कभी धक्का लगाना पड़ जाता है सोचो रिटायरमेंट के बाद क्या किराये के घर में ही रहोगे। अभी भी समय है कुछ कर गुजरों जिससे बुढ़पा आराम से कट जाए। वह विचार करता किन्तु कर कुछ नहीं पाता। वह पत्नी के बातों से तंग आकर कभी कभी कुछ कुछ सोचने लगता।

एक दिन उसकी पत्नी ने कहा ’देखो जी टाॅमी को कितनी गर्मी लग रही है इसकी कुछ व्यवस्था करो।’ उसने कहा ’अभी तनख्वाह नहीं हुई है हो जाएगी तो एक पंखा खरीद लायेगें।’ इस बात पर उसकी और पत्नी में बहुत बहस हुई।

वह आफिस तो आ गया पर वह बहुत ही उखड़ा हुआ था। आफिस का बड़ा बाबू बड़ा ही घाघ था वह उसकी स्थिति को देखकर समझ गया कि साहब आज किसी बात से बड़े परेशान है। वह लोगों से कहता था कि मैं इस मंत्रालय की दाई हूॅ मुझसे कुछ छुप नहीं सकता। उसकी चिड़चिड़ाहट को देखकर आफिस के बड़े बाबू ने उससे पूछा ’क्या बात है सर यदि किसी बात से परेशान है तो मुझे बताईए मैं हल करने की कोशिश कर आपकी परेशानी खत्म कर दूंगा। ’ बड़े बाबू की आत्मीयता उसे पहले दिन से ही प्रभावित कर रही थी। बड़े बाबू के प्यार भरे शब्द सुनकर उसने बड़े बाबू को सारी बात विस्तार से बताई। इस पर बड़े बाबू ने कहा ’सर मैं आपके घर दो ए.सी. भिजवा देता हूँ  एक आप उपयोग कीजिए और दूसरा टाॅमी के लिए लगवा दीजिए।’

’टाॅमी के लिए ए.सी…।’

’हाँ सर, ए.सी.।’

’पर ऐसा होगा कैसे, हम रिकार्ड में क्या शो करेंगे’ उसने कहा। तब बड़े बाबू ने बड़े ही इत्मीनान से कहा – ’आप बिल्कुल चिन्ता न करें सर, एक ए.सी. मंत्री जी के यहां तथा दूसरा ए.सी. बड़े साहब के घर में लगा हुआ रिकार्ड में शो कर देंगे, न मंत्री से कोई पूछ सकता है और न ही बड़े साहब से।’

वह इस जुगाड़ से हतप्रभ था।

© श्री रमाकान्त ताम्रकार

संपर्क – 423 कमला नेहरू नगर, जबलपुर। 

मोबाइल 9926660150

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’   ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 39 – धूल भरी सड़कें और टूटे हुए सपने ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना धूल भरी सड़कें और टूटे हुए सपने)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 39 – धूल भरी सड़कें और टूटे हुए सपने ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

शिवपुर के छोटे से गाँव में जीवन हमेशा सादगी और संघर्ष की एक मधुर धुन रहा है। यहाँ, सूरज गेहूं के सुनहरे खेतों को चूमता है, और हल्की हवा गाँव के कुएं के पास खेलते बच्चों की हंसी को लेकर आती है। लेकिन इस अद्भुत दृश्य के बीच खड़े हैं मास्टर विनय, एक समर्पित शिक्षक, जिनका जीवन सरल नहीं था। सालों से, उन्होंने अपने छात्रों में ज्ञान की रौशनी बिखेरी, उनके सपनों को संजोया। लेकिन जैसे-जैसे मौसम बदला, शिक्षा विभाग की मनमानी और नौकरशाही ने उनके समर्पण पर भारी पड़ना शुरू कर दिया। हर बार जब उन्होंने ट्रांसफर की अर्जी लिखी, वह फाइलों के गर्त में खो जाती, जैसे व्यस्त बाजार में एक भूला हुआ बच्चा। यह विडंबना भरी बात थी; वह सिस्टम, जो शिक्षा को ऊपर उठाने का वादा करता था, वह असल में शिक्षकों के कल्याण से ज्यादा कागजी कार्यवाही में उलझा था।

एक भाग्यशाली सुबह, एक पत्र आया जिसने विनय के जीवन के संतुलन को चूर-चूर कर दिया। उस लिफाफे पर शिक्षा विभाग का निशान था, जो झूठी आशा की एक चमक की तरह था। उनका दिल तेजी से धड़कने लगा जब उन्होंने उसे खोला, और उसमें शहर में ट्रांसफर की घोषणा थी—एक ऐसा स्थान, जो धूल, कंक्रीट, और तेज गति से भरा हुआ था, जो उनके शांत गाँव के साथ कड़ा विरोधाभास था। विनय का दिल टूट गया जब उन्होंने शहर की सड़कों की कल्पना की, जहाँ उनके छात्रों की हंसी की जगह कारों की हार्नेस और फाइलों की खड़खड़ाहट ले लेगी। उनकी पत्नी, सुषमा देवी, हमेशा उनके लिए ताकत का स्तंभ रही थी, लेकिन इस खबर ने उसे विश्वास और निराशा के बीच झूलने पर मजबूर कर दिया। उसकी आँखों में भरी आँसू हजारों अनकही डर की पीड़ा को दर्शाते थे: क्या वह सच में चले जाएंगे? उनके बच्चों के लिए एक बेहतर भविष्य बनाने के सपनों का क्या होगा? जब उन्होंने सुषमा के आँसू भरे चेहरे की ओर देखा, तो उन्हें एहसास हुआ कि इस ट्रांसफर की असली कीमत उनकी नौकरी की हानि से कहीं अधिक थी; यह एक परिवार, एक समुदाय, और एक शिक्षक की अटूट प्रतिबद्धता का टूटना था।

उनके जाने का दिन भारी दिल के साथ आया। विनय अपनी पुरानी साइकिल पर चढ़े, जिसका जंग लगा ढांचा उनके अनकहे दुख के बोझ की तरह कराह रहा था। नए स्कूल का रास्ता असहनीय लंबा लग रहा था, हर पैडल उन्हें याद दिला रहा था कि वे क्या छोड़ने जा रहे हैं। बच्चे उनका इंतजार कर रहे थे, उनकी मासूम आँखें उम्मीद और अनिश्चितता से चमक रही थीं। उनके छोटे हाथों में रंगीन चित्र थे, जो उन्होंने अपने प्रिय शिक्षक के लिए बनाए थे, एक ऐसे भविष्य की चित्रण जो उन्हें शामिल करता था। लेकिन खुशी की बजाय, विनय के दिल में एक दर्द महसूस हुआ। वह कैसे बता सकते थे कि वह उनके सपनों को छोड़ रहे हैं, कि शिक्षा प्रणाली ने युवा मनों की परवरिश के बजाय नौकरशाही के ट्रांसफर की सुविधा को चुन लिया है? उन्होंने कक्षा में प्रवेश किया, उनका दिल दुःख से भरा हुआ था, और ब्लैकबोर्ड पर लिखा, “शिक्षा केवल ज्ञान देने के बारे में नहीं है, बल्कि दिलों को जोड़ने के बारे में भी है।” ये शब्द खोखले लगे जब बच्चे उनकी ओर देख रहे थे, उनके चेहरों पर वही उलझन और डर था जो सुषमा के चेहरे पर था। वे पूरी तरह से नहीं समझते थे, लेकिन वे आने वाली हानि का अनुभव कर रहे थे, जो केवल भौगोलिक परिवर्तन से कहीं ज्यादा गहरी थी।

उस रात, जब विनय सुषमा के साथ भोजन कर रहे थे, उन्होंने एक निर्णय लिया जो सब कुछ बदल देगा। “मैं नहीं जाऊंगा, सुषमा। मैं उन्हें छोड़ नहीं सकता,” उन्होंने कहा, उनके विश्वास का वजन उनकी थकी हुई आँखों में रोशनी भर रहा था। सुषमा का चेहरा निराशा से विश्वास और फिर उम्मीद की झलक में बदल गया, लेकिन अज्ञात का डर अभी भी था। जब जोड़े ने अपने सपनों और डर साझा किए, विनय का संकल्प और मजबूत होता गया। अगली सुबह, जबकि शिक्षा विभाग के क्लर्क उसकी ट्रांसफर आदेश के लिए फाइलों की खोज कर रहे थे, वह स्कूल के मैदान में थे, उस छोटे पौधे की देखभाल करते हुए जिसे उन्होंने सालों पहले लगाया था—एक प्रतीक जो शिवपुर में उनकी जड़ों का प्रतीक था। शिक्षक का दिल भारी था, लेकिन यह अपने छात्रों और समुदाय के प्रति प्रेम से भरा था। उन्होंने सीखा कि सच्ची शिक्षा संबंध और प्रतिबद्धता में फलती-फूलती है, न कि नौकरशाही के ट्रांसफर में। उस पल, सुनहरे गेहूं के खेतों और बच्चों की हंसी के बीच, उन्हें एहसास हुआ कि परिवर्तन का मौसम सरकार द्वारा निर्धारित नहीं होता, बल्कि वह अपने दिल में धारण किए गए प्रेम और समर्पण से होता है। और जब सूरज शिवपुर के ऊपर अस्त हो रहा था, सुनहरी चमक के साथ, विनय ने समझा कि कभी-कभी, ठहरना और अपने सपनों को पोषित करना सबसे साहसी कार्य होता है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #203 – व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 203 ☆

☆ व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मन नहीं मान रहा था। स्वयं के लिए स्वयं प्रयास करें। मगर, पुरस्कार की राशि व पुरस्कार का नाम बड़ा था। सो, मन मसोस कर दूसरे साहित्यकार से संपर्क किया। बीस अनुशंसाएं कार्रवाई। जब इक्कीसवे से संपर्क किया तो उसने स्पष्ट मना कर दिया।

“भाई साहब! इस बार आपका नंबर नहीं आएगा।” उन्होंने फोन पर स्पष्ट मना कर दिया, “आपकी उम्र 60 साल से कम है। यह पुरस्कार इससे ज्यादा उम्र वालों को मिलता है।”

हमें तो विश्वास नहीं हुआ। ऐसा भी होता है। तब उधर से जवाब आया, “भाई साहब, वरिष्ठता भी तो कोई चीज होती है। इसलिए आप ‘उनकी’ अनुशंसा कर दीजिए। अगली बार जब आप ‘सठिया’ जाएंगे तो आपको गारंटीड पुरस्कार मिल जाएगा।”

बस! हमें गारंटी मिल गई थी। अंधे को क्या चाहिए? लाठी का सहारा। वह हमें मिल गया था, इसलिए हमने उनकी अनुशंसा कर दी। तब हमने देखा कि कमाल हो गया। वे सठियाए ‘पट्ठे’ पुरस्कार पा गए। तब हमें मालूम हुआ कि पुरस्कार पाने के लिए बहुत कुछ करना होता है।

हमारे मित्र ने इसका ‘गुरु मंत्र’ भी हमें बता दिया। उन्होंने कहा, “आपने कभी विदेश यात्रा की है?” चूंकि हम कभी विदेश क्या, नेपाल तक नहीं गए थे इसलिए स्पष्ट मना कर दिया। तब वे बोले, “मान लीजिए। यह ‘विदेश’ यात्रा यानी आपका पुरस्कार है।”

“जी।” हमने न चाहते हुए हांमी भर दी। “वह आपको प्राप्त करना है।” उनके यह कहते ही हमने ‘जी-जी’ कहना शुरू कर दिया। वे हमें पुरस्कार प्राप्त करने की तरकीबें यानी मशक्कत बताते रहे।

सबसे पहले आपको ‘पासपोर्ट’ बनवाना पड़ेगा। यानी आपकी कोई पहचान हो। यह पहचान योग्यता से नहीं होती है। इसके लिए जुगाड़ की जरूरत पड़ती है। आप किस तरह इधर-उधर से अपने लिए सभी सबूत जुटा सकते हैं। वह कागजी सबूत जिन्हें पासपोर्ट बनवाने के लिए सबसे पहले पेश करना होता है।

सबसे पहले एक काम कीजिए। यह पता कीजिए कि पुरस्कार के इस ‘विदेश’ से कौन-कौन जुड़ा है? कहां-कहां से क्या-क्या जुगाड़ लगाना लगाया जा सकता है? उनसे संपर्क कीजिए। चाहे गुप्त मंत्रणा, कॉफी शॉप की बैठक, समीक्षाएं, सोशल मीडिया पर अपने ढोल की पोल, तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें वोट दूंगा, तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा, जैसी सभी रणनीति से काम कीजिए। ताकि आपको एक ‘पासपोर्ट’ मिल जाए। आप कुछ हैं, कुछ लिखते हैं। जिनकी चर्चा होती है। यही आपकी सबसे बड़ी पहचान है। यानी यही आपका ‘पासपोर्ट’ होगा।

अब दूसरा काम कीजिए। इस पुरस्कार यानी विदेश जाने के लिए अर्थात पुरस्कार पाने के लिए वीजा का बंदोबस्त कीजिए। यानी उस अनुशंसा को कबाडिये जो आपको विदेश जाने के लिए वीजा दिला सकें। यानी आपने जो पासपोर्ट से अपनी पहचान बनाई है उसकी सभी चीजें वीजा देने वाले को पहुंचा दीजिए। उससे स्पष्ट तौर पर कह दीजिए। आपको विदेश जाना है। वीजा चाहिए। इसके लिए हर जोड़-तोड़ व खर्चा बता दे। उसे क्या-क्या करना है? उसे समझा दे।

सच मानिए, यह मध्यस्थ है ना, वे वीजा दिलवाने में माहिर होते हैं। वे आपको वीजा प्राप्त करने का तरीका, उसका खर्चा, विदेश जाने के गुण, सब कुछ बता देंगे। बस आपको वीजा प्राप्त करने के लिए कुछ दाम खर्च करने पड़ेंगे। हो सकता है निर्णयको से मिलना पड़े। उनके अनुसार कागज पूर्ति, अनुशंसा या कुछ ऐसा वैसा छपवाना पड़ सकता है जो आपने कभी सोचा व समझ ना हो। मगर इसकी चिंता ना करें। वे इसका भी रास्ता बता देंगे।

बस, आपको उनके कहने अनुसार दो-चार महीने कड़ी मेहनत व मशक्कत करनी पड़ेगी। हो सकता है फोन कॉल, ईमेल, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि पर इच्छित- अनिच्छित व अनुचित चीज पोस्ट करनी पड़े। इसके लिए दिन-रात लगे रहना पड़ सकता है। कारण, आपका लक्ष्य व इच्छा बहुत बड़ी है। इसलिए त्याग भी बड़ा करना पड़ेगा।

इतना सब कुछ हो जाने के बाद, जब आपको विदेश जाने का रास्ता साफ हो जाए और वीजा मिल जाए तब आपको यात्रा-व्यय तैयार रखना पड़ेगा। तभी आप विदेश जा पाएंगे।

उनकी यह बात सुनकर लगा कि वाकई विदेश जाना यानी पुरस्कार पाना किसी पासपोर्ट और वीजा प्राप्त करने से कम नहीं है। यदि इसके बावजूद विदेश यात्रा का व्यय पास में न हो तो विदेश नहीं जा पाएंगे। यह सुनकर हम मित्र की सलाह पर नतमस्तक हो गए। वाकई विदेश जाना किसी योग्यता से काम नहीं है। इसलिए हमने सोचा कि शायद हम इस योग्यता को भविष्य में प्राप्त कर पाएंगे? यही सोचकर अपने आप को मानसिक रूप से तैयार करने लगे हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29-01- 2025

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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