हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 34 – हैप्पी न्यू इयर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना हैप्पी न्यू इयर)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 34 – हैप्पी न्यू इयर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

सर्द दिनों में सर्द की रातें और सर्द का दिन बदन को तार-तार कर देता है। इस सर्दी के मारे सूर्य मुँह छिपाए फिरता-रहता है। इसी में वह स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है। चारों दिशाओं से सर्द हवाएँ शत्रु देश के हमले से कम नहीं होतीं। जहाँ देखो वहाँ कोहरा ही कोहरा। पता ही नहीं चलता कि इस दुनिया में हमारे सिवाय कोई है भी या नहीं। आजकल टूटते-बिखरते-धुँधलाते रिश्तों के बीच कोहरा हमारी वास्तविकता को आईना दिखाता है। चलिए, इसी बहाने हम से हमारा परिचय हो जाता है।

चारपाई पर लंबी ताने रजाई ओढ़कर सोने का सुख किसी स्वर्ग से कम नहीं है। कहते हैं सर्दियों में रंग-रंग के सपने आते हैं। लड़का है तो राजकुमारी और लड़की है तो उसके सपनों का राजकुमार उसे झट मिलने आ जाता है। सर्दियों में हर कोई एक-दूसरे को धोखा देने की ताक में खड़ा रहता है। हमारे पंचतत्व जैसे हवा अपनी गति भूलकर ठोस बन जाती है, आसमान के नाम पर चारों ओर एक घना परदा छाया रहता है। आग भी अपने स्वभाव को बचाने के लिए कोहरे से जद्दोजहद करती है। पानी का हाल तो पूछिए ही मत। वह अपने हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के बीच सारे रासायनिक समीकरण भूलकर दल-बदलू राजनेताओं के समान मौसम के साथ समझौता कर उसी की तूती बोलने लगता है। जहाँ तक धरती की बात है तो भाई शुक्र मनाइए कि वह हमें रहने-ठहरने की जगह भर दे देती है, वरना रंग बदलने वाले गिरगिट जैसे इंसानों को यह सब भी कहाँ नसीब होता है।

अब तक आप समझ रहे हैं होंगे कि मैं कहाँ का सर्द पुराण खोल बैठा। सच तो यह है कि देश की सारी सच्चाई इसी सर्दी में छिपी हुई है। यह मौसम न केवल वर्षा और गर्मी का मिलन करवाता है बल्कि झूठ और सच के बीच में छिपे मिथ्या का भी पर्दाफाश करता है। वर्षा की बाढ़ और गर्मी के अकाल से बेहाल लोगों को ‘अच्छे दिन’ की आस संजोए रजाइयों में सोने का अवसर देता है। लेकिन इसी सर्द मौसम में छिपी हैं कई ऐसी बातें, जो हमें झकझोर कर रख देती हैं।

यह बात है उस बूढ़े बाबा की जो देश के हर कोने में नकारों की तरह दिखाई पड़ जाते हैं। यह वह बूढ़ा बाबा है जो अपने परिवार के द्वारा ठुकराया गया है। भीख माँगने के लिए उसे तमाशाई दुनिया में ठेल दिया गया है। जब तक गर्मी-बरसात थी तो जैसे-तैसे उसने खुद को बचा लिया। लेकिन यह सर्द मौसम उसकी जान पर आ पड़ा है।  वह ठिठुरता, कराहता, बिलखता परमपिता ईश्वर से गुहार लगाता है- ‘हे खुदा! मुझे इस सर्द मौसम से बचा ले।‘ वह कहता -भैया मैं एक हाथ से लाचार हूँ। आँखें भी मेरा साथ छोड़ चुकी हैं। बूढ़ी जो हो चुकी हूँ! हर दिन यही फटी पुरानी छतरी डाले इस पीपल के पेड़ के नीचे बैठा रहता हूँ। मैं बसों में खिड़की किनारे बैठे लोगों से संतरा खरीदने के लिए गिड़गिड़ा नहीं सकता। न ही सिग्नल के पास रुकी गाड़ियों के शीशे के आगे दस रुपये के तीन कहकर चिल्ला सकता हूँ। मैं सड़े-गले फल की तरह यहाँ पड़ा रहता हूँ। हाँ यह अलग बात है कि आधार कार्ड में यह पता नहीं है। लेकिन मेरा दिल जानता है कि यही वह जगह है जो मेरे जीवन का आधार है। मेरी जिंदगी ढेर हो चुकी है। जब से मेरा इकलौता लड़का मुझे छोड़कर चला गया है तब से यही हाट मेरा बड़ा लड़का है। वह रह-रहकर साहबों के पैर पड़ता है। कई बार बोनी न होने पर अपने आप में रो-रोकर रह जाता है। वह घूम-घूमकर बेचने में लाचार है। उम्र के साथ उसकी कमर भी झुक गयी है। जब तक जिंदा है तब तक जीने के लिए कुछ न कुछ तो करना होगा न! उसमें इतनी जिल्लत सहने की हिम्मत नहीं कि वह भीख माँग सके। इसलिए फल बेच रहा है। वह फलों के सामने बैठता जरूर है, लेकिन भूख लगने पर इन्हें खाती नहीं। हाँ अगर कोई भिखारी आ जाता है तो उसे बिना चिढ़े एक फल उठाकर दे देता है। फुटकर पैसे न होने पर ग्राहक को एक फल ज्यादा दे देता है लेकिन छल-कपट नहीं करता। गायें, बकरियाँ मक्खियों की तरह यहीं चक्कर काटती हैं। वह झल्ला जाता है, लेकिन कभी लकड़ी या पत्थर लेकर मारने की चेष्टा नहीं करता। किंतु कुछ दिन पहले उसका एक मात्र आशियाना पीपल का पेड़ विकास (यदि कोई न मरे तो उसे विकास कहा जाता है) के नाम पर सरकार द्वारा काट दिया गया। इससे देश का क्या विकास हुआ यह देश ही जाने, लेकिन उस बूढ़े बाबा का तो मानो सब कुछ उजड़ गया।

उस दिन से बूढ़े बाबा की लाठी दर-दर ठोकर खाने लगी। कहीं कोई ठिकाना नहीं मिला। अब तो सड़क के किनारे पेड़ अपने आपको लुप्त होते धरोहरों के रूप में देखने लगे हैं। अब तो उनकी जगह बड़े-बड़े कांक्रीट जंगल उग आए हैं। अंतर केवल इतना है पेड़ो वाले जंगलों से ऑक्सीजन मिलता है तो कांक्रीट वाले जंगलों से टूटते-बिखरते रिश्तों का धुआँ निकलता है। बूढ़े बाबा को पेड़ तो दूर अब छांव भी नसीब होना दूभर हो गया था। मैंने किताबों में पढ़ा था कि इंसान बिना पानी के नहीं जी सकता। लेकिन आज मुझे पता चला कि वह पानी के बिना कुछ दिन तो जी सकता है लेकिन आशियाने के बिना एक पल भी नहीं।

बूढ़े बाबा अब दुकानों के सामने भीख माँगने की कोशिश करने लगा। लेकिन दुकान वाले उसे कुत्ते की तरह दुत्कार देते थे। उसे दुकान के पास भीख माँगने से सख्त मना कर देते थे। आशियाना न होने के कारण अब भूख, प्यास और सर्दी उसके सिर पर तांडव करने लगी।

सर्द दिनों में सड़कों पर लोगों की आवाजाही कम होती है। इस कारण अब कोई बूढ़े बाबा पर ध्यान देने वाला नहीं था। अब उसका शरीर जवाब देने लगा था। कमजोरी के कारण आँखें मूँदती जा रही थीं। नसों की तरलता खिंचाव में बदलती जा रही थी। बदन में भूख की आग उसके शरीर की ठंडी को मिटाने में नाकाफ़ी था। अब उसे समझ में आ गया था कि उसका अंत चंद दिनों का मोहताज है। वह भगवान से प्रार्थना करने लगा- ‘हे ऊपरवाले! अब मेरी ईहलीला समाप्त कर दे। मुझसे यह भूख, प्यास, सर्दी, बीमारी सही नहीं जाती।‘

थोड़ी ही देर में वह जमीन पर ऐसा धराशायी हुआ जैसे किसी शिकारी के बाण से हिरण। दुकानवाले उसकी इस हालत को देखकर उसे अनदेखा कर दिया। इतना अनदेखापन तो जानवरों के साथ भी नहीं होता होगा। मानवता ह्रास हो रहा था।

सर्द मौसम में ग्राहकी कम होने के कारण दुकानदार दक्षिण भारत की यात्रा कर अब धीरे-धीरे लौटने लगे थे। साल का अंत होने वाला था। युवाओं में नए साल को लेकर बड़ा जोश था। इसी बीच चार युवा उस दुकान पर पहुँचे जहाँ पर यह बूढ़े बाबा लेटे थे। बड़ी मुश्किल से उन युवाओं की उम्र बीस-इक्कीस की होगी। नए साल मनाने को लेकर उनका जोश सातवें आसमान में था। बूढ़े बाबा को लगा कि शायद ये लोग उसे खाने-पीने को कुछ दें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन युवाओं ने जमीन पर पड़े बूढ़े बाबा को देखकर भी अनदेखा कर दिया। उन्होंने दुकानों से शराब की बोतलें, केक, बिरयानी और न जाने क्या-क्या खरीदा। खरीददारी कर अपनी कीमती बाइकों पर रफू चक्कर हो गए।

उन युवाओं के ओझल हो जाने से एक पल के लिए लगा कि धरती माँ अब पहले की तरह नहीं रही। एकदम बदल गयी है। वैश्वीकरण के नाम पर मोबाइलों, लैपटॉप और कंप्यूटरों में सिमट गयी है। अब वह गोल नहीं सपाट हो गई। एक छोटा सा डिजिटल गाँव हो गई है। कार्पोरेट दुनिया की गुलाम हो गई है। गूगल, फेसबुक, अमेजान की मोहताज हो गई है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के घेरे में रोबोट बनकर खेल रही है। कभी ड्रोन तो कभी क्लाउड की दुनिया में घूम रही है। आंकड़े, दस्तावेज, श्रव्य-दृश्य सामग्री भंडारण करने वाली गोदाम हो गई है। ऊबर-ओला टैक्सी बनकर इधर-उधर चक्कर काट रही है। टिक-टॉक, वाट्सएप, ट्विटर, यूट्यूब, इस्टाग्राम जैसी सूचना प्रौद्योगिकी के मोहजाल में बांध दी गई है। कुछ कहने के लिए वोडाफोन, एयरटेल, जियो और रहने के लिए एप्पल, सैमसंग, वीवो, ओप्पो, वन प्लस का मुँह ताकती है। अब उसका वैलिडिटी पीरियड भी फिक्स्ड होने लगा है। प्री-पेड और पोस्ट पेड की तरह जीने की आदी हो चुकी हो। कॉर्पोरेट कॉरिडोर के आंगन में इलेक्ट्रॉनिक गजटों से खेलने लगी है। धीरे-धीरे खत्म होने लगी है। दुर्भाग्य यह है कि उसकी सेटिंग्स में कंट्रोल जेड का बटन भी नहीं है। वह चाहकर भी पहले जैसी नहीं बन सकती।

रात के समय उन युवाओं ने दोस्तों के साथ मिलकर पार्टी-शार्टी की। नशे में धुत्त बाईक चलाते हुए सड़क पर आते-जाते लोगों को हैपी न्यू ईयर कहते हुए चिल्ला रहे थे। नए साल का स्वागत करते हुए एक से बढ़कर एक संकल्प लेने लगे। कोई महीने में एक बार किसी गरीब को सहायता करने की बात कहता, तो कोई सिगरेट, दारू छोड़ने और मन लगाकर पढ़ने की।   

अगली सुबह अपने संकल्पों को साकार रूप देने और किसी की सहायता करने के मकसद से वे लोग उस बूढ़ा बाबा के पास पहुँचे…

लेकिन मैं अब क्या लिखूँ? कलम की स्याहियत हमारी बर्बर मानवता से कहीं अच्छी है। उसे कम से कम इतना तो पता है कि उसे क्या लिखना है और क्या नहीं। सच तो यह है कि अब वह बूढ़ा पुराने साल के साथ-साथ इस संसार को भी अलविदा कह चुका था

चलिए भाई, यह तो राज-काज है। यह तो हर जगह होता ही रहता है। अभी तो हमें बहुत सारे जरूरी काम है। हमें चाय की चुस्की लेते हुए देश को बदलना है। बिना हाथ बढ़ाये देश की रूपरेखा बदलनी है। लंबी-लंबी हाँकना है। बाईकों पर सवार होकर आते-जाते लोगों को छेड़ना है। अभी तो बहुत काम है….

ऐ जाते हुए लमहे अलविदा।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – हास्य-व्यंग्य ☆ नववर्ष के  मेरे संकल्प… ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार प्रदत्त।

आज प्रस्तुत है एक अप्रतिम हास्य-व्यंग्य ‘नववर्ष के  मेरे संकल्प…’।)

 ☆ हास्य व्यंग्य ☆ नववर्ष के  मेरे संकल्प… ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆

नए वर्ष की पूर्व संध्या पर अपने ने भी कुछ संकल्प ठाने थे। उनमें पहला था, प्रातःकाल सैर हेतु उद्यान जाएंगे। फलतः प्रातः होते ही पत्नी ने झिंझोड़ा, ‘‘घूमने जाइए।’’

रजाई में मूंसोड हुई स्थिति में स्थित रहते हुए पूछा, ‘‘धूप निकली?’’

‘‘अभी कहां? अगर निकली तो बारह बजे के बाद ही निकलेगी।’’

‘‘तो जिस दिन जल्दी निकलेगी, उस दिन जाएंगे।’’ मैं, अपना रजाई तप भंग नहीं करना चाह रहा था कि श्रीमतीजी ने रजाई खींच कर एक ओर डाल दी, ‘‘मैं चाय बना लायी हूं। नहीं पीनी हो तो बाद में खुद बना लेना।’’ अपन को अब, अहसास हुआ कि कल रात बेगम को अपना संकल्प बता कर कितनी बड़ी भूल कर बैठे थे? लिहाजा, हमने धूजणी से कंपकंपाते एक हाथ से कप थामा और दूसरे हाथ से रजाई को सीने से लगाया। तीन चार घूंट सुड़कने के बाद थोड़ी गर्मी प्रतीत हुई तो दूसरे हाथ में मोबाइल थाम लिया।

बेगम साहिबा सामने बैठ कर चाय की चुस्कियां ले रही थी। हाथ में मोबाइल सेट देख कर ताना मारा, ‘‘क्योंजी, कल तो प्रतिज्ञा ली थी कि सुबह से दो घंटे तक मोबाइल को छुएंगे भी नहीं।’’

‘‘घूमने जाता तो साथ थोड़े ही ले जाता?’’ मैं कुतर्क को उतर आया था। फिर तनिक संभल कर बोला, ‘‘सिटी एप पर लोकल न्यूज देख लेता हूं।’’

पहला समाचार पढते ही बेसाख्ता निकला, ’’शाबाश! बहादुरों।’’

‘‘क्या फिर कोई सर्जिकल स्ट्राइक हो गया है?’’ अर्द्धांगिनी ने जिज्ञासा जतायी।

‘‘नहीं। चोरों ने शहर में चार जगह चोरियां की और एक जगह ए.टी.एम. तोडा है। पुलिस के अनुसार रात के तीन से पांच बजे के दरम्यान ये सब हुआ।’’

‘‘अरे…इसमें बहादुरी की क्या बात हुई, भला?’’ बेटरहॉफ, बेटर खुलासा चाह रही थी। मैं बोला, ‘‘मैडम! चुहाते कोहरे की धुंधयायी रात में, जब शीत लहर तीखे नश्तर की माफिक बदन को भेदे जा रही हो, उस समय ठंड से अकड़ी अंगुलियों से सर्द पाइप को पकड़ कर मंजिल-दर-मंजिल चढना। बे आवाज रोशनदान या खिड़की काटना। दरवाजों के ताले तोड़ना अथवा सेंध लगाना। दुकानों की शटर या एटीएम को काटना-मोड़ना-तोड़ना। किसी की नींद में खलल नहीं डालते हुए पहरेदारों, पुलिस और कुत्तों से बचते हुए, मंद प्रकाश में कीमती सामान बटोर कर उसी मार्ग से हवा हो जाना, कोई कम बूते की बात है? और इनका नए साल का संकल्प तो देखो कि पिछले साल चोरी का औसत तीन चोरियां प्रतिदिन रहा लेकिन नए वर्ष का आगाज होते ही दो पायदान चढ गए हैं, पठ्ठे!’’

इसके बात दूसरी न्यूज बलात्कार की थी। उसे पढकर मैंने टिप्पणी की, ‘‘वाह! यह हुई, मर्दानगी।’’

‘‘अब, किसने मर्दानगी दिखा दी?’’

‘‘डीयर! कल रात एक बलात्कार भी हो गया, शहर में।’’

‘‘कैसे आदमी हो ऐसी खबरों पर आनंदित हो रहे हो?’’

‘‘हौंसले की बात है, मैडम! हमसे दूसरी रजाई में नहीं घुसा जाता और ये घोर शीत में दूसरे के घरों में जा घुसते हैं।’’ धत्त…बोलकर बीवी ने चाय का ट्रे उठाते हुए कहा, ‘‘ये निगेटिव समाचार पढना छोड़ो। रजाई भी छोड़ो और फिर से घुसे तो खैर नहीं।’’

खैर, अपन शौचालय को चले। कब्ज तथा बबासीर से सदा की भांति पीड़ा दी। जब हम ही नहीं बदले तो शरीर ने भांग थोड़े ही खायी है, जो बदल ले। खुद को बदलने का ख्याल छोड़ बाहर आए कि देखें नए साल में जग में कुछ बदला? सूर्यदेव पिछले वर्ष की भांति कोहरे में लिपटे हुए आराम फरमा रहे थे। पवन देव विगत वर्ष की तरह सन्ना रहे थे। पांचवे मकान में सास-बहू की रार का शाश्वत संवाद चल रहा था और उसका पूरे मोहल्ले में ब्रॉड-कॉस्ट हो रहा था। कचरा संग्रह करने वाली पिक-अप तीन दिन की तरह आज भी नदारद थी। दाएं पड़ोसी ने अपना कचरा प्रेमपूर्वक मेरे द्वार के आगे सरका दिया था लेकिन मैं उसे आगे नहीं ठेल सकता था क्योंकि बाएं वाले ने सदा की तरह अपनी कार को इस कदर स्नान कराया कि मेरे घर के आगे एक लघु तालाब बन गया था।  विडंबना ये कि एक बदहाल वर्ष गुजार कर हम पुन: नई आशा और सपनों के साथ नए में प्रवेश करने जा रहे हैं। इस आशंका के साथ कि हंसने, रोने या गाने पर जी. एस. टी. तो न लगा दिया जाएगा। कसम से जब जब जी. एस. टी. काउंसिल की बैठक होती है दिल बैठने लगता है। पहले डाक सेवाओं पर टैक्स लगा फिर बुक पोस्ट सेवाएं हटा दी गई। नए साल में पत्रिकाएं/किताबें पढ़ने पर टैक्स न लग जाए ?

कहीं कुछ नहीं बदला, बस कलैंडर बदला है। जब हम ही नहीं बदले तो जमाने से उम्मीद बेमानी है, यह सोचकर अपन पुन: रजाई शरणम् गच्छामि हो गए।

© प्रभाशंकर उपाध्याय

सम्पर्क : 193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन- 322001

मो. 9414045857, 8178295268

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 270 ☆ व्यंग्य – पान और पीकदान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘पान और पीकदान‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 270 ☆

☆ व्यंग्य ☆ पान और पीकदान

कई बरस पहले मुंबई की जहांगीर आर्ट गैलरी में नीदरलैंड्स के कुछ मसखरे कलाकार आये। उन्होंने ‘कला’ के कुछ ऐसे नमूने पेश किये जो पवित्रतावादियों के लिए खासे तकलीफदेह थे। उन्होंने गैलरी में एक साफ सफेद कपड़ा रख दिया,  उसके बाद अपने खर्चे पर दर्शकों को पान पेश किये, और कपड़े पर थूकने को कहा । इस तरह कला की रचना हुई और बहुत से ‘आशु’ कलाकार पैदा हुए। मुश्किल यह हुई कि उत्साही दर्शकों की पीकें कपड़े की सीमा का अतिक्रमण करके गैलरी की दीवारों पर चित्रकारी करने लगीं। तब गैलरी के प्रबंधक को यह अभिनव कला-प्रयोग रोक देना पड़ा।

हमारे देश में भी लोगों को चीज़ों को बिगाड़ने का शौक कम नहीं है, यह बात अलग है कि गरीब देश होने की वजह से हम विदेश में घूम कर अपनी कला का प्रदर्शन नहीं कर पाते। देश के भीतर हमसे जितना बनता है अपना विनम्र योगदान देते रहते हैं। यहां आदमी बड़े शौक से घर की पुताई कराता है और तीन दिन बाद दीवार पर लिखा होता है, ‘जन-जन के चहेते पाखंडीलाल की पेटी में वोट देना न भूलें’ या ‘मर्दाना कमजोरी से छुटकारा पाने के लिए खानदानी हकीम निर्बलशाह के शफाखाने पर तशरीफ लायें’। भीतर बढ़िया बंगला बना होता है और सामने चारदीवारी पर भद्दी लिखावट में दस चीज़ों के विज्ञापन लिखे होते हैं। मुफ्त विज्ञापन का मौका कोई छोड़ना नहीं चाहता। आजकल मकान अपना होता है और चारदीवारी जनता जनार्दन की। चाहे वह उस पर लिखे, चाहे पान थूके।

यहां लोग खड़ी फसल के बीच में घुसकर, बेशर्मी से दांत निपोरते, फसल को रौंदते, चने के झाड़ उखाड़ लाते हैं। सार्वजनिक टोटियों को तोड़ देते हैं और फिर प्रशासन पर चढ़ बैठे हैं कि वह उन्हें ठीक नहीं करता और अमूल्य पानी का ‘अपव्यय’ हो रहा है। आगरा जाकर हम ताजमहल की दीवारों पर कोयले से अपना और अपनी महबूबा का नाम लिख आते हैं ताकि सनद रहे और इतिहास के काम आवे।

नीदरलैंड्स के कलाकारों ने गलती की जो दर्शकों को अपने पास से पान दिये। अगर वे दर्शकों से कह देते कि अपने पैसे से पान खाओ और फिर थूको, तब भी उन्हें हज़ारों स्वयंसेवक मिल जाते, क्योंकि इस देश में थूकने और चीज़ों को बिगाड़ने का शौक जुनून की हद तक है। यहां लोग अकारण ही इतना थूकते हैं कि देखकर ताज्जुब होता है। यहां लोग हर चीज़ पर थूकते चलते हैं— परंपराओं पर, ईमानदारी पर, न्याय पर और इंसानियत पर।

हमारे देशवासियों को यह भी याद नहीं रहता कि अब सड़क पर साइकिलों के अलावा मोटर और स्कूटर भी चलते हैं। साइकिल वाला चलते-चलते अपने दाहिने तरफ जगह खाली पाकर मुंह घुमा कर थूक देता है, तभी किस्मत का मारा स्कूटर वाला उसके बगल में पहुंचता है। आगे क्या होता है इसकी कल्पना आप पर छोड़ता हूं। साइकिल वाले का प्रेमोपहार पाने के बाद स्कूटर वाला सिर्फ उससे सड़क पर कुश्ती लड़कर हास्यास्पद ही बन सकता है। साइकिल वाले महाशय का तीर तो कमान से छूट चुका होता है, वापस नहीं हो सकता।

मैंने एक बार अपने घर की छत सौजन्यवश एक विवाह-भोज के लिए अर्पित की थी। बारातियों ने ऊपर भोजन किया और ऊपर ही पान खाये, जो आतिथ्य का ज़रूरी अंग है। लड़की वालों को चाहिए यह था कि वे पान बारातियों को नीचे उतरने पर पेश करते, लेकिन इतनी दूर तक उनका दिमाग नहीं गया। नतीजा वही हुआ जो होना था। बारातियों ने उतरते वक्त सीढ़ी के मोड़ पर मुक्त भाव से थूका। वैसे भी बाराती लड़की वाले की हर चीज़ को इस्तेमाल या नष्ट करने का अपना पुश्तैनी हक मानते हैं, भले ही वह चीज़ किराये की हो। सवेरे सीढ़ी का कोना पान की पीक से दमक रहा था। कई बार पुताई कराने पर भी वे पीक के दाग पेन्ट की सब तहें फोड़कर झांकते रहे।

वैसे थूकने पीकने की परंपरा हमारे देश में बहुत पुरानी है। राजाओं नवाबों के ज़माने में पान का खासा चलन था। हर दरबार और संभ्रांत घर में गिलौरीदान, पीकदान और उगालदान ज़रूरी थे। ज़्यादातर राजाओं नवाबों को कुछ काम धंधा होता नहीं था, इसलिए गिलौरी चबाना और पीक करना अनवरत चलते थे। कहते हैं कि नवाब वाजिदअली शाह का पान खाकर लोग बौरा जाते थे। उन दिनों पान का उपयोग प्रेम-आदर दिखाने के लिए भी होता था और ज़हर देने के लिए भी। अब न वे पान रह गये, न वे  पीकदान। रह गये नमक तेल लकड़ी के लिए भागते हम जैसे नामुराद लोग। इसीलिए अगर कुछ लोग पुराने ज़माने को याद करके अब तक सिर धुनते हैं तो कोई ग़लत काम नहीं करते।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 33 – गाँव के चौराहे पर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना गाँव के चौराहे पर)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 33 – गाँव के चौराहे पर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गाँव के चौराहे पर ‘शहरी विकास योजना’ की चर्चा के नाम पर एक भव्य सभा का आयोजन किया गया। अध्यक्ष महोदय अपने फोल्डिंग कुर्सी पर विराजमान थे, जबकि बाकी जनता खड़े-खड़े ताली बजाने में व्यस्त थी। “दोस्तों,” अध्यक्ष ने माइक संभालते हुए कहा, “हमारा गाँव अब विकास की ओर अग्रसर है।” पीछे से किसी ने व्यंग्य में फुसफुसाया, “हाँ, विकास की ओर तो जा रहे हैं, पर पैर में जूते कहाँ हैं?”

सभा में पहली पंक्ति में बैठे रामलाल, जो चाय की दुकान के मालिक थे, अपनी बहादुरी के किस्से सुनाने में व्यस्त थे। “भाई, मैंने तो दिल्ली जाकर देखा, वहाँ की लड़कियाँ जीन्स पहनती हैं। हमारे गाँव में तो अब भी घूँघट में ही दुनिया बसी है।” उनकी बात सुनकर सामने बैठा नत्थू हँस पड़ा, “अरे भाई, दिल्ली की लड़कियाँ तो इतनी समझदार हैं कि अंग दिखाने और छिपाने दोनों में पारंगत हैं। तुम तो चाय बेचते रहो।”

चाय की दुकान पर दूसरा मुद्दा था, जानवरों के नाम पर होने वाले ताने। मुनिया ने बड़े गुस्से से कहा, “अगर कोई मुझे कुत्ता कहे तो मैं उसे थप्पड़ मार दूँगी, लेकिन शेरनी कहे तो गर्व महसूस होगा।” चमेली ने तुरंत जवाब दिया, “अरे मुनिया, तू ये क्यों भूलती है कि शेरनी भी जानवर ही है? तारीफ चाहिए, सच्चाई से डर लगता है।”

दूसरी तरफ, ठाकुर साहब अपनी नई गाड़ी लेकर गाँव में घूम रहे थे। उनके हाथ में हीरे जड़ी अंगूठी चमक रही थी। गाड़ी रोककर उन्होंने जेब से छोटा सा दर्पण निकाला और खुद को निहारने लगे। “ठाकुर साहब, हीरा धारण किया है, फिर बार-बार दर्पण क्यों देखते हैं?” रामलाल ने पूछ लिया। ठाकुर साहब हँसते हुए बोले, “हीरा तो दूसरों को दिखाने के लिए है, लेकिन अपनी शक्ल देखने के लिए दर्पण चाहिए।”

शांता, जो शादी के बाद गाँव लौटी थी, अपनी सहेली से कह रही थी, “पिता की गरीबी सह ली, पर पति की गरीबी बर्दाश्त नहीं होती। हर दिन उधार का रोना लेकर आते हैं।” उसकी सहेली ने मुस्कुराते हुए कहा, “बहन, यही तो हमारी संस्कृति है। शादी के बाद औरतों का अधिकार है कि पति की गरीबी पर व्यंग्य करें।”

सभा के पीछे एक शराब की दुकान पर लंबी लाइन लगी थी। वहीं पास में एक खंडहर पड़ा था, जहाँ कभी अस्पताल हुआ करता था। नत्थू ने रामलाल से कहा, “अगर इस खंडहर को फिर से अस्पताल में बदल दिया जाए, तो गाँव का जीवन बदल जाएगा।” रामलाल ने चाय का कप उठाते हुए कहा, “तू सही कहता है। लेकिन लोग डॉक्टर को भगवान मानते हैं और शराब को दोस्त। दोस्त को कौन छोड़ता है?”

अध्यक्ष महोदय ने सभा के अंत में घोषणा की, “हम गाँव में पाँच नई शराब की दुकानें खोलेंगे।” जनता ने जोरदार तालियाँ बजाईं। पीछे से किसी ने चुटकी ली, “और अस्पताल का क्या?” अध्यक्ष ने मुस्कुराते हुए कहा, “अस्पताल की जरूरत तभी पड़ती है, जब शराब नहीं होती।”

सभा खत्म हुई, पर नत्थू वहीं खड़ा सोच रहा था। “हम सब कितने अजीब हैं। दूसरों की गलतियाँ गिनाने में माहिर, पर अपनी कमियों को छिपाने में और भी ज्यादा।” और चौराहे पर विकास का तमाशा जारी रहा।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #198 – व्यंग्य- इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 198 ☆

☆ व्यंग्य- इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग इंटरनेट मीडिया का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस इंटरनेट मीडिया में भी फेसबुक सबसे ज्यादा प्रचलित, लोकप्रिय और मोबाइल के कारण तो जेब-जेब तक पहुंचने वाला माध्यम हो गया है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।

उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्र-पत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर इंटरनेट मीडिया पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।

‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है। मगर उसकी चर्चा इंटरनेट मीडिया पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पोस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।

ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज पांच से सात घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकाना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है। कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वे छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकाना उन्हें नहीं आता है। वे इंटरनेट मीडिया से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है। जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।

तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा इंटरनेट मीडिया पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।

चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में इंटरनेट मीडिया पर बने रहते हैं।

ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।

पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है, जितनी रचना छप जाती है। उसे इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।

छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं, जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।

कहने का तात्पर्य यह है कि इंटरनेट मीडिया के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह इंटरनेट मीडिया पर अपना ‘फेस’ चमकते रहते हैं।

इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

01-12-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 269 ☆ व्यंग्य – फूलचन्द का बचत-प्रचार अभियान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘फूलचन्द का बचत-प्रचार अभियान‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 269 ☆

☆ व्यंग्य ☆ फूलचन्द का बचत-प्रचार अभियान

फूलचन्द भला आदमी है। उसे समाज- सेवा का ख़ब्त है। कुछ न कुछ करने में लगा रहता है। लेकिन उसकी समाज-सेवा माल-कमाऊ समाज-सेवा नहीं होती, जैसा आजकल बहुत से होशियार लोग कर रहे हैं। यानी सरकार से अनुदान लेना और समाज से ज़्यादा खुद अपना और अपने प्रिय परिवार का उत्थान करना। फूलचन्द अपना घर बिगाड़ कर समाज सेवा करता है, यानी बुद्धू और नासमझ है।

वह कभी झुग्गी-झोपड़ी वालों को परिवार-नियोजन का महत्व समझाने निकल जाता है, कभी अस्पताल जाकर मरीज़ों की सहायता में लग जाता है, कभी शहर की सफाई के लिए कोशिश में लग जाता है। सब अच्छे कामों की अगुवाई के लिए फूलचन्द हमेशा उपलब्ध है। कोई दुर्घटना होते ही फूलचन्द सबसे पहले पहुंचता है। सब पुलिस वाले, डॉक्टर, नर्सें उसे जानते हैं। संक्षेप में फूलचन्द उन लोगों में से है जिनकी नस्ल निरन्तर कम होती जा रही है।

आजकल फूलचन्द पर ख़ब्त सवार है कि लोगों को बचत के लिए समझाना चाहिए।
उसने कहीं पढ़ा है कि हमारे देश के लोग बहुत फिज़ूलखर्ची करते हैं—गहने ज़ेवर खरीदने में, फालतू संपत्ति खरीदने में, दिखावे में,अंधविश्वास में, शादी-ब्याह में, जन्म-मृत्यु में। उसका कहना है कि वह लोगों को प्रेरित करेगा कि फ़िज़ूलखर्ची रोककर अपना पैसा ऐसे कामों में लगायें जिनसे खुद उनका भी भला हो और देश का भी। उसने यह जानकारी इकट्ठी कर ली है कि किन-किन कामों में पैसा लगाना ठीक होगा।

एक दिन वह अपने अभियान पर मुझे भी पकड़ ले गया। हम जिस घर में घुसे वह दुमंजिला था। सामने ‘टी. प्रसाद’ की तख्ती लगी थी। मकान से समृद्धि की बू आती थी। वह कर्ज़- वर्ज़ लेकर मर मर कर बनाया गया मकान नहीं दिखता था। दो-तीन स्कूटर थे, झूला था, फूल थे, दीवारों पर अच्छा रंग-रोगन था।

घंटी बजाने पर सबसे पहले एक कुत्ता भौंका, जैसा कि हर समृद्ध घर में होता है। उसके बाद 50-55 की उम्र के एक सज्जन प्रकट हुए। वे हमें ससम्मान भीतर ले गये।

भीतर भी सब चाक-चौबन्द था। रंगीन टीवी, फोन, दीवारों पर पेंटिंग। पेंटिंग शान के लिए लगयी जाती है। कई बार खरीदने वाला खुद नहीं जानता है कि उसमें बना क्या है, या वह उल्टी टंगी है या सीधी। जो जानते हैं वे उन्हें खरीद नहीं पाते।

उन सज्जन ने प्रेम से हमें बैठाया। फूलचन्द ने उन्हें अपने आने का मकसद बताया तो वे प्रसन्न हुए, बोले, ‘मैं आपकी बात से पूरा इत्तफाक रखता हूं। हमें बचत करना चाहिए, फिज़ूलखर्ची रोकना चाहिए और अपने पैसे को उपयोगी कामों में लगाना चाहिए।’ फूलचन्द प्रसन्न हुए।

वृद्ध सज्जन, जो  खुद टी.प्रसाद थे, बोले, ‘मुझे आपको यह बताने में खुशी है कि मैंने इस सिद्धान्त पर जिन्दगी भर अमल किया है। आपको जानकर ताज्जुब होगा मैंने अपनी चौबीस साल की नौकरी में से बीस साल लगातार अपनी पूरी तनख्वाह बचायी है।’

सुनकर हम चौंके। फूलचन्द ने आश्चर्य से पूछा, ‘बीस साल तक पूरी तनख्वाह बचायी है?’ टी.प्रसाद गर्व से बोले, ‘हां, पूरी तनख्वाह बचायी है।’ फूलचन्द ने कहा, ‘तो आपकी आमदनी के और ज़रिये रहे होंगे।’ प्रसाद जी ने जवाब दिया, ‘नहीं जी, और ज़रिये कहां से होंगे? सवेरे दस से पांच तक दफ्तर की नौकरी के बाद ज़रिये कहां से पैदा करेंगे? फिर मैं तो संतोषी रहा हूं। ज्यादा हाथ पांव फेंकना मुझे पसन्द नहीं।’

फूलचंद ने पूछा, ‘फिर आपका खर्च कैसे चलता रहा होगा?’

प्रसाद जी बोले, ‘मेरी भी समझ में नहीं आता कि मेरा खर्च कैसे चलता रहा। सब ऊपर वाले का करिश्मा है। इसीलिए मेरी भगवान में बड़ी आस्था है।’ वे चुप होकर मुग्ध भाव से ज़मीन की तरफ देखते रहे जैसे मनन कर रहे हों। फिर बोले, ‘आपने कहानियां पढ़ी होंगी कि कैसे कोई आदमी रात को जब सोया तो गरीब था और सवेरे उठा तो अमीर हो गया। पहले मुझे ऐसी कहानियों पर यकीन नहीं होता था, बाद में जब मेरे साथ होने लगा तो यकीन हो गया। मैं सवेरे दफ्तर जाता था तो मेरी जेब में फूटी कौड़ी नहीं होती थी। शाम को कुर्सी से उठता तो हर जेब में नोट होते थे। मेज़ की दराज़ में भी नोट। मेरी खुद समझ में नहीं आता था कि ये नोट कहां से आ जाते थे। अब भी यही होता है। नतीजा यह हुआ कि अपने आप पूरी तनख्वाह बचती रही।’

फूलचन्द बोला, ‘फिर तो आपके पास बहुत पैसा इकट्ठा हो गया होगा?’

टी. प्रसाद बोले, ‘हां जी, होना ही था। मैं क्या करता? मेरा कोई बस नहीं था।’

फूलचन्द ने फिर पूछा, ‘तो फिर आपने उस बचत का क्या किया?’

टी. प्रसाद बोले, ‘उसे अलग-अलग कामों में लगाया ताकि अपना भी फायदा हो और देश की भी तरक्की हो। देश की फिक्र करना हमारा फ़र्ज़ है, इसीलिए उसका कोई गलत इस्तेमाल नहीं किया।’

फूलचंद चक्कर में था। उसका बचत- प्रचार अभियान गड़बड़ा रहा था। बोला, ‘आपकी संतानें क्या कर रही हैं?’

टी. प्रसाद ने उत्तर दिया, ‘तीन बेटे हैं जी। दो नौकरी में हैं और दोनों होनहार हैं। दोनों मेरी तरह अपनी तनख्वाह बचा रहे हैं। मुझे उन पर फख्र है। तीसरा अभी पढ़ रहा है, लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि वह भी इसी तरह बचत करेगा और अपने पैसे का गलत इस्तेमाल नहीं करेगा।’

फूलचन्द परेशानी के भाव से बोला, ‘आपके दफ्तर में सभी ऐसी ही बचत करते हैं?’

प्रसाद जी बोले, ‘हां जी, ज्यादातर ऐसा ही करते हैं। नये लोग ज़रूर नासमझ होते हैं। उन्हें बचत के तरीके समझने में टाइम लगता है। एक दो ऐसे नासमझ भी होते हैं जो अपने कपड़ों में जेब ही नहीं रखते, मेज़ का दराज़ बन्द रखते हैं। अब उन पर प्रभु की कृपा कहां से होगी? जब लक्ष्मी के लिए दरवाजा नहीं रखोगे तो लक्ष्मी कहां से आएगी? ऐसे लोग बचत नहीं कर पाते। ऐसे लोगों से देश का कोई भला नहीं होता। सीनियर होने के नाते मैं सबको समझा ही सकता हूं, ज़बरदस्ती नहीं कर सकता। मैं तो चाहता हूं कि सब बचत करें।’

हम बदहवास से वहां से उठे। टी. प्रसाद बोले, ‘आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं जी। लोगों को बचत के लिए समझा रहे हैं। आप कहें तो दफ्तर के बाद मैं भी आपके साथ चलकर लोगों को समझा सकता हूं। मुझे बड़ी खुशी होगी। समाज- सेवा करना चाहिए।’

फूलचन्द घबरा कर बोला, ‘नहीं नहीं। आपको कष्ट करने की कोई ज़रूरत नहीं है। आप दफ्तर में ही काफी बचत करवा रहे हैं, बाहर का काम हम कर लेंगे।’

प्रसाद जी हाथ जोड़कर बोले, ‘जैसी आपकी मर्जी। वैसे मेरी कभी ज़रूरत पड़े तो बताइएगा। देश के काम के लिए मैं हमेशा तैयार हूं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 557 ⇒ बादाम के दाम ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बादाम के दाम।)

?अभी अभी # 557 ⇒ बादाम के दाम ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सभी जानते हैं, यह आम का नहीं, बादाम का मौसम है, और बादाम का जन्म आम आदमी के लिए नहीं हुआ है। जब से यह आम भी कुछ खास हुआ है, बादाम भी थोड़ा थोड़ा आम हुआ है। आम आदमी भी आजकल, कम से कम, मैंगो शेक और बादाम शेक तो पीने लायक हो ही गया है।

आम अगर फलों का राजा है, तो बादाम सिर्फ़ एक ड्राई फ्रूट यानी सूखा मेवा! ड्राई फ्रूट मतलब रस हीन फल! जिनका जीवन वैसे ही नीरस है, उनका काम ड्राई फ्रूट अथवा सूखे मेवे से नहीं चलता, और जिन्हें अपना गला तर करना होता है, वहाँ देश, काल और परिस्थिति नहीं देखी जाती और अंगूर की बेटी का हाथ थाम लिया जाता है। एक बार जब गला तर होता है, तो कुछ चखना भी पड़ता है। जिन्होंने कभी चखी ही नहीं, वे क्या जानें चखना का स्वाद! हां, जहां माले मुफ़्त बेरहम होता है वहां भुने हुए काजू बादाम भी चखना का ही काम करते हैं।।

लेकिन जो रसिक और शौकीन चखने में विश्वास नहीं रखते, उनके लिए अगर ठंड में बादाम के जलवे हैं, तो गर्मी में हमारे आम के भी ठाठ निराले हैं। गर्मी में अगर आमरस पूड़ी, तो ठंड में बादाम का हलवा। लेकिन बस आम आदमी बादाम के दाम सुनकर ही बिदक जाता है।

आम के आम और गुठलियों के दाम! लेकिन आम आदमी गुठलियों के दाम की चिंता नहीं करता, आम चूसता है और छिलका और गुठली फेंक देता है। बेचारी बादाम, क्या नहाए और क्या निचोड़े! उसका तो छिलका क्या निकला, वह सिर्फ बादाम की गिरी बनकर रह गई। लेकिन उसके दाम के कारण ही उसे समाज में वह इज्जत और सम्मान प्राप्त है जो फलों के राजा को भी नहीं।।

बादाम के दाम चुकाने के बाद भी अगर हम बादाम के गुणों की तारीफ नहीं करें, तो हम उसके साथ न्याय नहीं कर रहे। पांच वर्ष की उम्र से हम सुनते आ रहे हैं कि रोज सुबह पांच भीगी हुई बादाम खाना चाहिए उससे सेहत और मस्तिष्क दोनों स्वस्थ रहते हैं। आम आपको एक आम इंसान ही बनाए रखता है जब कि बादाम आपको बुद्धिमान भी बनाती है।।

जब हमारे बादाम खाने के दिन थे, तब हम भुने हुए चने और मूंगफली खाकर ही अपनी सेहत बनाते थे। जब सर पर बाल ना हों, और मुंह में दांत, और याददाश्त भी जवाब दे गई हो, तब बादाम की याद आ ही जाती है। देर आयद दुरुस्त आयद।

क्या आप जानते हैं, बादाम का भी तेल निकलता है। कैसा लगता होगा इतनी महंगी बादाम को, जब उसका भी तेल निकलता होगा। हम तो यह सोचकर ही हैरान हैं कि जो बादाम ही इतनी महंगी है, उसका तेल कितना महंगा होगा।

यहां तो सरसों, मूंगफली और सोयाबीन के तेल के भाव ही आसमान छू रहे हैं। लेकिन अगर कॉस्मेटिक्स के विज्ञापन देखें तो वहां ककड़ी, आंवला, मेंहदी, क्रीम और बादाम साथ साथ नजर आयेंगे। कहीं फेसवॉश तो कहीं मॉइश्चराइजर। पूरा समाजवाद है सौंदर्य जगत के उत्पादों में।।

भले ही इंसान का तेल निकल जाए फिर भी कुछ लोग नियमित रूप से बादाम का तेल सर में लगाते हैं और उसी तेल से बदन की मालिश भी करते हैं। जान है तो जहान है। यह जनम ना मिलेगा दोबारा। पैसे को हाथ का मैल यूं ही नहीं कहा गया है। अगर आप अफोर्ड कर सकते हैं तो हम कोई आपको फोर्ड खरीदने का नहीं कह रहे, सिर्फ एक चम्मच बादाम का तेल गर्मागर्म दूध में लेकर देखें। बादाम में दम है ..! !

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 32 – बिल्ली का गाना ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना बिल्ली का गाना)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 32 – बिल्ली का गाना ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

यह कहानी है एक ऐसे गांव की, जहां की हर चीज़ अनोखी थी। गांव का नाम था “गायबपुर”, जहां लोग अजीबोगरीब शौक रखते थे। इस गांव में एक बिल्ली थी, जिसका नाम था “म्याऊं-सर”। म्याऊं-सर का एक खास शौक था – वह हर सुबह बांग्ला गाने गाने का शौक रखती थी। अब सवाल यह था कि एक बिल्ली गाने गा सकती है? लेकिन गायबपुर के लोग तो अपने मजेदार शौक के लिए जाने जाते थे, इसलिए उन्होंने इसे गंभीरता से ले लिया।

गांव के लोग म्याऊं-सर के गाने को सुनने के लिए हर सुबह एकत्र होते। पहले तो गांव के लोग समझ नहीं पाए कि यह क्या हो रहा है, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें इसकी आदत हो गई। म्याऊं-सर जब गाना शुरू करती, तो गांव में हलचल मच जाती। अब यह तो तय था कि गाना किसी इंसान का नहीं था, लेकिन लोग इसे सुनने के लिए बेताब रहते थे।

गांव के कुछ लोग इस स्थिति पर चिंता कर रहे थे। “क्या यह बिल्ली सच में गाना गा रही है?” एक बुजुर्ग ने कहा। “क्या हमें इसे गायक का दर्जा देना चाहिए?” दूसरे ने कहा। सब लोग एक-दूसरे की तरफ देखते रहे। अंततः गांव के प्रधान ने यह तय किया कि म्याऊं-सर को एक पुरस्कार देना चाहिए। उन्होंने घोषणा की कि म्याऊं-सर को “सर्वश्रेष्ठ गायिका” का खिताब दिया जाएगा।

गांव के लोग इस फैसले से खुश थे, लेकिन कुछ लोग इसके खिलाफ थे। उन्होंने कहा, “यह सब बेतुकी बात है! एक बिल्ली को कैसे गायिका माना जा सकता है?” लेकिन प्रधान ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने म्याऊं-सर के लिए एक विशेष समारोह आयोजित किया, जिसमें गांव के सभी लोग शामिल हुए।

समारोह में म्याऊं-सर को एक स्वर्ण पदक और एक बड़ी सी मछली का तोहफा दिया गया। म्याऊं-सर ने गाने का काम जारी रखा और गांव के लोग उसकी प्रशंसा करने लगे। लेकिन इसके साथ ही, गांव में कुछ नई समस्याएं भी आ गईं। अब गांव के लोग रोज म्याऊं-सर के गाने के लिए पैसे देने लगे थे। कुछ लोग तो म्याऊं-सर के गाने को सुनने के लिए अपनी जमीन तक बेचने लगे।

गायबपुर में यह स्थिति धीरे-धीरे बढ़ती गई। अब तो गांव के बच्चे भी म्याऊं-सर के गाने के दीवाने हो गए थे। वे उसके गाने को सुनने के लिए स्कूल नहीं जाते थे। लेकिन फिर एक दिन, म्याऊं-सर अचानक गायब हो गई। गांव में हड़कंप मच गया। सब लोग म्याऊं-सर की तलाश में निकल पड़े। कुछ लोगों ने कहा, “शायद म्याऊं-सर किसी बड़े संगीत कार्यक्रम में भाग लेने गई होगी!” जबकि दूसरों ने कहा, “शायद वह अब गाना नहीं गाना चाहती।”

गांव के लोगों ने बहुत कोशिश की, लेकिन म्याऊं-सर का कोई सुराग नहीं मिला। लोगों ने कई दिन तक उसके लिए पूजा-पाठ किया, लेकिन वह वापस नहीं आई। अंत में, गांव के लोग इस बात को मानने लगे कि शायद म्याऊं-सर गाने का शौक छोड़ चुकी है। उन्होंने अपने-अपने काम में लगना शुरू किया।

कुछ महीने बाद, एक नया शख्स गांव में आया। उसका नाम था “गायकीपुर”, और वह खुद एक गायक था। उसने गांव वालों को बताया कि वह म्याऊं-सर की गायकी के बारे में सुन चुका है और उसे जानने के लिए आया है। गांव वालों ने उसे म्याऊं-सर की कहानी सुनाई और बताया कि कैसे उसने उन्हें अपनी गायकी से प्रभावित किया।

गायकीपुर ने कहा, “यह तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि असली गायकी क्या होती है?” गांव वालों ने चौंकते हुए कहा, “क्या मतलब?” गायकीपुर ने उन्हें समझाया, “गायकी तो इंसानों का काम है। बिल्ली का गाना तो एक मजाक है।”

गांव के लोगों ने इस पर गंभीरता से विचार किया। उन्होंने महसूस किया कि वे एक बिल्ली की वजह से अपने जीवन की अहमियत को भूल गए थे। म्याऊं-सर की गायकी एक मजाक बनकर रह गई थी, जबकि असली गायकी और संगीत की महत्वता को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया था।

इस घटना के बाद, गांव के लोग म्याऊं-सर को भूल गए और अपने असली सपनों की ओर बढ़ने लगे। गायबपुर ने फिर से अपने असली रंगों में लौटने की कोशिश की। और इस बार, कोई भी बिल्ली के गाने की बात नहीं करता। म्याऊं-सर अब केवल एक याद बन गई थी, एक हास्यास्पद लेकिन महत्वपूर्ण कहानी, जो इस बात की याद दिलाती थी कि कभी-कभी हम बेतुके शौक और हास्यास्पद चीज़ों में अपने असली लक्ष्यों को भूल जाते हैं।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 268 ☆ व्यंग्य – तलाश बकरों की ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘तलाश बकरों की’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 268 ☆

☆ व्यंग्य ☆ तलाश बकरों की

सरकार के सब विभागों ने ज़ोर-शोर से विज्ञापन निकाले हैं। विज्ञापन बकरों के लिए है, ऐसे लोगों के लिए जो हर विभाग में किसी बड़े लफड़े के लिए ज़िम्मेदारी लेंगे। दे विल टेक द ब्लेम फ़ाॅर एवरी बिग स्कैम ऑर मिसडूइंग।

दरअसल कई दिनों से विभागों में यह चर्चा चल रही थी कि सरकारी विभागों में कोई न कोई लफड़ा, कोई न कोई भ्रष्टाचार होता ही रहता है, जिससे बच पाना बहुत मुश्किल है। कौटिल्य के शब्द अक्सर दुहराए जाते रहे कि ‘जैसे जीभ पर रखा रस इच्छा हो या न हो, चखने में आ ही जाता है, इसी प्रकार राज्य के आर्थिक कार्यों में नियुक्त अधिकारी, इच्छा हो या न हो, राजकोष का कुछ न कुछ तो अपहरण करते ही हैं।’ आर्थिक भ्रष्टाचार के अलावा रेल दुर्घटनाएं, पुलों का ध्वस्त होना, परीक्षा- पेपर लीकेज जैसी घटनाएं होती हैं जिससे मंत्री-अफसर संकट में पड़ते हैं और ज़िम्मेदारी थोपने के लिए बकरे की तलाश की जाती है।

यह बात भी चलती थी कि जब लफड़ा  उजागर होता है तो आखिरी छोर पर बैठे सबसे जूनियर और सबसे निर्बल कर्मचारी के ऊपर ठीकरा फोड़ दिया जाता है और ऊपर के लोग चैन की सांस लेते हैं। कारण यह है कि नेताओं-मंत्रियों पर तो हाथ डाला नहीं जा सकता क्योंकि पार्टी की छवि खराब होगी और वोट खतरे में पड़ेंगे। अफसरों को पकड़ेंगे तो शासन चलाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए जूनियरमोस्ट को बलि का बकरा बना देना ही सबसे सुरक्षित होता है। इसी झंझट से मुक्ति पाने के लिए बकरों की सीधी भर्ती का निर्णय लिया गया।

अंग्रेज़ी में बलि के बकरे के लिए ‘स्केपगोट’ शब्द है जिसमें ‘गोट’ यानी ‘बकरा’ शब्द निहित है। ‘स्केपगोट’ शब्द की उत्पत्ति प्राचीन इज़राइल में हुई जहां पवित्र दिन पर एक बकरे के सिर पर समाज के सारे पाप आरोपित कर दिये जाते थे और फिर उसे जंगल में छोड़ दिया जाता था। इस तरह समाज साल भर के लिए पापमुक्त हो जाता था। यानी, ‘स्केपगोट’ वहां वही काम करता था जो हमारे यहां गंगाजी करती हैं।

गरीब, निर्बल लोग हमेशा रसूखदारों की गर्दन बचाने के लिए ‘स्केपगोट’ बनते रहे हैं। जैसे देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि दी जाती थी, ऐसे ही किसी दुर्घटना के बाद जनता के गुस्से को शान्त करने के लिए किसी मरे- गिरे बकरे को सूली पर चढ़ा दिया जाता है। कहीं पढ़ा था कि रसूखदार लोग मजबूर लोगों को अपनी जगह जेल में सज़ा काटने के लिए स्थापित करवा देते हैं।

अंग्रेज़ी में एक और दिलचस्प शब्द ‘व्हिपिंग बाॅय’ आता है जो कई देशों में उन लड़कों के लिए प्रयोग होता था जो राजकुमारों और रसूखदार लोगों के बालकों के साथ स्कूल भेजे जाते थे और जिन्हें रसूखदार बच्चों की गलतियों की सज़ा दी जाती थी। कारण यह था कि मास्टर साहब की हैसियत रसूखदारों के बच्चों को सज़ा देने की नहीं होती थी।

विज्ञापन में लिखा गया कि बकरा सिर्फ बारहवीं पास हो ताकि दस्तखत  वस्तखत कर सके। उसे दफ्तर के बाबू के बराबर तनख्वाह मिलेगी। उसे दफ्तर आने-जाने से छूट मिलेगी, दो-चार दिन में कभी भी आकर हाज़िरी रजिस्टर में दस्तखत कर सकेगा।

उसकी ड्यूटी सिर्फ इतनी होगी कि जब विभाग में कोई बड़ा लफड़ा हो जिसमें अफसर और दूसरे कर्मचारियों के फंसने का डर हो तो वह बहादुरी से अपनी गर्दन आगे बढ़ाये और कहे, ‘सर, आई एम द कलप्रिट। आई टेक द ब्लेम।’

विज्ञापन में यह ज़िक्र किया गया कि नियुक्ति से पहले बकरे की मनोवैज्ञानिक जांच होगी ताकि वह ऐन मौके पर डर कर ज़िम्मेदारी लेने से पीछे न हट जाए।

विज्ञापन में यह भी बयान किया गया कि बकरे के सस्पेंड होने पर उसकी पगार में कोई कटौती नहीं की जाएगी और जेल जाने की नौबत आने पर पूरी तनख्वाह उसकी फेमिली को पहुंचायी जाएगी। इसके अलावा उसके फंसने पर उसे बचाने के लिए महकमे की तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी।

इस नीति के बारे में पूछे जाने पर आला अफसर भारतेन्दु हरिश्चंद्र के नाटक ‘अंधेर नगरी’ का हवाला देते हैं जिसमें फांसी का फन्दा उसी के गले में डाला जाता था जिसके गले में वह अंट सकता था।

ताज़ा ख़बर यह है कि सिंधुदुर्ग में शिवाजी की 35 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित होने के एक साल के भीतर ज़मींदोज़ हो गयी है और उसके लिए मूर्तिकार की गिरफ्तारी हो गयी है। अब मूर्ति का प्रसाद पाने वाले ऊपर बैठे लोग निश्चिन्त हो सकते हैं। अब 60 फीट ऊंची नयी मूर्ति का टेंडर ज़ारी हो गया है। टेंडर में यह शर्त है कि मूर्ति 100 साल खड़ी रहनी चाहिए। उम्मीद है कि नये मूर्तिकार इस शर्त को खुशी-खुशी मान लेंगे क्योंकि 100 साल में वे खुद मूर्ति बनने लायक हो जाएंगे। बकौल  ‘ग़ालिब’, ‘ख़ाक हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक।’

उधर बिहार में पुल जितनी तेज़ी से बन रहे हैं उससे ज़्यादा तेज़ी से गिर रहे हैं। नतीजतन छोटे-मोटे बकरों को पकड़ कर लाज बचायी जा रही है, और जनता मजबूरी में नावों पर सवार होकर उनके पलटने से मर रही है। जब तक ज़िम्मेदारी ओढ़ने के लिए बकरे उपलब्ध हैं तब तक कोई चिन्ता की बात नहीं है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – हास्य-व्यंग्य ☆ “पुलिस अपने बाप की भी नहीं…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक हास्य-व्यंग्य  पुलिस अपने बाप की भी नहीं…)

☆ हास्य – व्यंग्य ☆ “पुलिस अपने बाप की भी नहीं…” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

मैं सुबह अपने कम्पाउंड में पेड़ों को पानी दे रहा था । “भाई साहब कुछ पढ़ा आपने”, कहते हुए वर्माजी ने मेरे घर में प्रवेश किया ।

मैंने कहा – भाई जी आप तो हमेशा “कुछ सुना आपने” कहते हुए आया करते थे । आज “कुछ पढ़ा आपने” कहते हुए आ रहे हैं ? उन्होंने कोशिश करके हँसते हुए कहा- भाई साहब आपने तो बात ही पकड़ ली ।

मैंने कहा- प्यारे भाई इस समय तो मैं पानी का पाइप पकड़े हूँ और आप कह रहे हैं कि बात पकड़ ली !

उन्होंने कुछ रूठने के अंदाज में कहा- “भाई साहब आप भी”, मैंने कहा बस बस…इसके आगे “बड़े वो हैं” मत कहना ।

वर्मा जी ने खुलकर ठहाका लगाया । इसी समय मेरी श्रीमती जी चाय लेकर आ गईं । वर्मा जी ने सुर्र.. की लंबी आवाज के साथ चाय की पहली चुस्की मारी फिर कहा- भाई जी कुछ पढ़ा आपने ।

मैंने कहा- हाँ भाई, अभी अभी फेसबुक पर आदरणीय कुंदनसिंह परिहार जी का एक शानदार व्यंग्य पढ़ा है । एक बलात्कार पर चल रही राजनीति की ख़बरें भी पढ़ी हैं।

वे बोले- लेकिन आपने वो नहीं पढ़ा जिस पर मैं आपसे चर्चा करने आया हूँ ।

मैंने कहा- आप ही बता दें श्रीमान । वे बोले- एक अख़बार में छपे समाचार के अनुसार एक नेता जी ने कहा है कि “पुलिस की सुस्ती के कारण देश में महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ रही हैं । उन्होंने पत्रकारों से कहा कि “पुलिस वालों की नैतिकता ही ख़त्म हो गई है ।” पुलिस वाले खुद ही कहते हैं कि-“पुलिस वाले अपने बाप के भी नहीं होते ।” भाई साहब बताएं कि- पुलिस वालों की नैतिकता ख़त्म क्यों हो जाती है ? वे अपने बाप के भी क्यों नहीं होते ?

मैंने कहा- भाई जी लगता है आप मेरे हितैषी नहीं हैं इसलिए मुझसे ऐसे टेढ़े सवाल का जवाब चाहते हैं । लेकिन आपने पूछा है तो बताना ही पड़ेगा । मेरी बात सुनने वर्मा जी ने अपनी कुर्सी मेरे पास सरका ली । मैंने कहा- भाई जी आज सत्य-अहिंसा, धर्म-अधर्म, नैतिकता- अनैतिकता की सर्वमान्य परिभाषाएं नहीं रह गईं, लोगों ने इन्हें अपने अपने हिसाब से तैयार कर लिया है । इसलिए हो सकता है कि नेता जी और पुलिस की नैतिकता की परिभाषा में अंतर हो । नेता जी अपनी सोच के अनुसार सही हों और पुलिस अपनी सोच के अनुसार । वो आपने सुना नहीं- “फूलहिं फलहिं न बेत” का अर्थ भिन्न-भिन्न विद्वान भिन्न-भिन्न बताते हैं । कुछ लोग कहते हैं बेत अर्थात बांस फूलता तो है, किन्तु फलता नहीं जबकि कुछ लोग कहते हैं कि बांस न फूलता है न फलता है । “फूलहिं फलहिं न”, अब आप किसे सच कहेंगे किसे झूठ ! दूसरी बात यह है वर्मा जी कि साधू और शैतान की संगत के अलग-अलग प्रभाव होते हैं । पुलिस की संगत में तो ज्यादातर अपराधी और नेता ही रहते हैं । अब आप ही सोचें कि पुलिस कैसी होगी ।

वर्मा जी बोले- भाई साहब आपने पुलिस के नैतिकता संबंधी सवाल को तो बढ़ी सफाई से निपटा दिया, किन्तु यह तो बताएं की ऐसा क्यों कहा जाता है कि “पुलिस वाले अपने बाप के भी नहीं होते?”

मैंने कहा- भाईजी आज कितने प्रतिशत बच्चे अपने बाप के होते हैं ? गलत न समझें, मेरा मतलब है अपने बाप के लिए समर्पित होते हैं । हम कितनी ख़बरें पढ़ते रहते हैं कि शराब के लिए, मकान-जमीन के लिए अथवा बुढ़ापे में देखरेख से बचने के लिए बेटे ने बाप को छोड़ दिया, उसे वृद्धाश्रम के हवाले कर दिया या उसकी हत्या कर दी । पुलिस वाले भी तो हमारे ही समाज के अंग हैं । बाप हो या भाई, उन पर तो निष्पक्ष रहने की शपथ भी चढ़ी रहती है । अब शपथ का कितना पालन होता है यह मत पूछना । “सत्यमेव जयते” के ठिकानों पर क्या क्या होता है सब जानते हैं । आप बताएं कि लोग “मजबूरी में गधे को बाप बनाते हैं कि नहीं?”

वर्मा जी बोले- भाई साहब, कहावत तो है ।

मैंने कहा- भाई जी कहावतों के पीछे वर्षों का अध्ययन और सच्चाई होती है । आखिर पुलिस वाले भी सरकारी कर्मचारी हैं और यदि उन्हें बिना परेशानी नौकरी करना है, प्रशंसा और प्रमोशन पाना है, मलाईदार थाने में बने रहना है, लाइन अटैच नहीं होना है तो अधिकारी रूपी या नेता रूपी गधों को बाप बनाना ही पड़ता है । इसीलिये ज्यादातर कलयुगी लोग पैदा करने वाले बाप से ज्यादा मान सम्मान उस बाप को देते हैं जिससे उन्हें तात्कालिक लाभ मिलता है । लाभ मिलना बंद हुआ तो ये बाप बदलने में देर नहीं लगाते । कल तक जो कल के नेता को सेल्यूट करके उनकी ड्यूटी बजाते थे आज किसी और के इशारे पर काम कर रहे हैं । सिर्फ पुलिस वाले नहीं वरन बहुत से अन्य विभागीय अधिकारी-कर्मचारी भी ऐसा ही करते हैं । यही सब कारण हैं जिनके आधार पर कहा जाता है कि “पुलिस वाले अपने बाप के भी नहीं होते।”

वर्मा जी ने आश्चर्य के भाव लिए मुझसे विदा मांगी जिसे मैंने तत्काल स्वीकृत कर लिया ।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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