हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #148 ☆ व्यंग्य – साहब की किरकिट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘साहब की किरकिट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 148 ☆

☆ व्यंग्य – साहब की किरकिट

विमल नया नया दफ्तर में भर्ती हुआ है। जोश है, कुछ करने की कुलबुलाहट होती है। अभी उसकी ज़िंदगी का ‘दफ्तरीकरण’ होना शुरू नहीं हुआ है।

दफ्तर में नये साल की पार्टी थी। तभी विमल ने बड़े साहब के सामने प्रस्ताव रख दिया, ‘सर, क्यों न इतवार को दफ्तर के लोगों का एक क्रिकेट मैच हो जाए।’

बड़े साहब को भी कुछ अच्छा लगा। उन्होंने मंजूरी दे दी। विमल ने दौड़-भाग करके क्रिकेट का सामान इकट्ठा कर लिया। दफ्तर के बड़े बाबू अग्रवाल जी ने सुना तो माथा ठोंका, बोले, ‘इन नये नये लौंडों के आने से यही तो गड़बड़ होती है।अब दफ्तर वाले ‘किरकिट’ खेलेंगे। एक इतवार मिलता था घर की सब्जी भाजी लाने के लिए, वह भी गया। खेलो किरकिट।’

गुजराती क्लब के मैदान में इंतज़ाम हुआ। दर्शकों के लिए कुर्सियाँ लगायी गयीं। साहबों की मेम साहबें उन पर आकर विराजीं। लंच का इंतज़ाम किया गया।

दो टीमें बनीं। एक के कप्तान बड़े साहब, दूसरी के छोटे साहब। खेल शुरू हुआ। जैसे बल्लेबाज़, ऐसे ही गेंदबाज़। जो कभी पहले खेलते भी रहे थे उनकी उँगलियाँ अब कलम पकड़ने की ही अभ्यस्त रह गयी थीं। गेंदबाज़ों की गेंद विकेटों से कई फुट दूर से निकल जाती। बल्ला बढ़ाने पर भी गेंद छूने को न मिलती। कभी टप्पा खाकर ऐसे उछलती कि खेलने वाले को अपना चश्मा सँभालना मुश्किल हो जाता। सबको खेल से ज़्यादा अपने हाथ-पाँव बचाने की फिक्र थी। मनोरंजन के पीछे हाथ-पाँव टूटें और दफ्तर से छुट्टी लेना पड़े तो हो गया खेल। चश्मा टूट जाए तो एक हज़ार रुपये की दच्च पड़े।

बड़े साहब खेलने आये तो सब ने तालियाँ बजायीं। छोटी अफसर-पत्नियाँ बड़ी मेम साहब के पास तारीफ करने के लिए सिमट आयीं।

छोटे साहब ने गेंद सँभाली। बहुत सँभल कर गेंद फेंकना शुरू किया, कि न साहब को लगे, न विकेटों को। बड़े साहब हर बार हवा में बल्ला घुमा देते। कभी बल्ला गेंद में लग जाता तो सब फील्डर तालियाँ बजाते, कहते, ‘वाह साहब, क्या बढ़िया शॉट लगाया है।’ अफसर-पत्नियाँ बड़ी मेम साहब से कहतीं, ‘कितना अच्छा खेल रहे हैं। जरूर नई उमर में खूब खेलते रहे होंगे।’ तारीफ करने की होड़ लगी थी। सबने कम से कम एक वाक्य बोला। चुप रहें तो घर लौटने पर पति की लताड़ सुननी पड़े।

श्रीमती वर्मा बोलीं, ‘जब अभी इतना अच्छा खेलते हैं तो नई उमर में तो चैंपियन रहे होंगे।’

बड़ी मेम साहब खुश होकर बोलीं, ‘मेरे को नईं मालूम।’

एक गेंद पर बड़े साहब ने बल्ला घुमाया। संयोग से बल्ला गेंद में लग गया और गेंद चौधरी बाबू की तरफ भागी। चौधरी बाबू ने रोकने का अभिनय करते हुए उसे एक लात लगायी और गेंद चार रन की बाउंड्री की तरफ दौड़ी। बाउंड्री पार करने से पहले ही अंपायर बने बख्शी बाबू ने बाउंड्री का इशारा दे दिया। खूब जोरों की तालियाँ बजीं।।

चौधरी बाबू प्रमुदित होकर बोले, ‘कमाल का शॉट लगाया साहब।’ बख्शी बाबू भी चौका देखकर बहुत खुश थे।

बड़े बाबू ‘किरकिट विरकिट’ भूलकर लंच के इंतज़ाम में लगे थे। भीतर से उन्हें बड़ा संताप था कि दफ्तर के लौंडों ने उनका इतवार खराब कर दिया था। जब साहब के किसी शॉट पर तालियाँ बजतीं तो वे भी घूम कर ताली बजाकर ‘वाह’ बोलते और फिर वापस अपने काम में लग जाते।

बड़े साहब आधे घंटे से जमे थे। उनका आउट होना मुश्किल था क्योंकि कोई उन्हें आउट करना ही नहीं चाहता था।

तभी छोटे साहब ने एक तरफ से गेंद फेंकने का काम विमल को दिया।

विमल बड़े साहब के अभी तक आउट न होने पर कसमसा रहा था। नौकरी की ड्यूटी के अनेक पहलू अभी तक उसकी समझ में नहीं आये थे।

छोटे साहब ने उसे गेंद देते हुए कहा, ‘ठीक से फेंकना।’

विमल बड़े साहब को आउट करके अपना कौशल दिखाना चाहता था। अफसर- पत्नियों पर प्रभाव डालने की भी कुछ ललक थी। उसने धीमी लेकिन सीधी गेंद फेंकी।

पहली गेंद तो विकेटों के ऊपर से निकल गयी, दूसरी ने सब गिल्लियाँ बिखेर दीं। लेकिन अंपायर बख्शी बाबू ने गिल्लियाँ उड़ते ही हाथ उठाकर कहा, ‘नो बॉल।’

विमल कुछ नहीं बोला। अगली गेंद में फिर गिल्लियाँ साफ। बख्शी बाबू फिर हाथ उठाकर बोले, ‘नो बॉल।’ विमल बोला, ‘पहले ही कहना चाहिए था।’ बख्शी बाबू बोले, ‘पहले ही कहा था।’

अगली गेंद फिर गिल्लियाँ ले गयी। बख्शी बाबू फिर हाथ उठाकर बोले, ‘नो बॉल।’ लेकिन बड़े साहब को कुछ शर्म लगी। बल्ला ले कर चल दिये, बोले, ‘नहीं भई, हम आउट हो गये।’

सबको लगा कि खेल का मज़ा ही ख़त्म हो गया। जब बड़े साहब ही मैदान से हट गये तो खेल का मज़ा ही क्या रहा? साहब गये तो जैसे खेल की जान निकाल ले गये।

बड़े बाबू काम छोड़कर दौड़े दौड़े विमल के बाद आये, बोले, ‘तुम अजीब बेवकूफ हो। साहब को आउट करके धर दिया। टेढ़ी-मेढ़ी गेंदें नहीं फेंक सकते थे?’

विमल बोला, ‘मैं तो ‘रूल्स’ के हिसाब से ही खेल रहा था।’

बड़े बाबू बोले, ‘बेटा, ‘किरकिट’ के रूल्स तो बहुत जानते हो, अब कुछ नौकरी के रूल्स भी समझ लो, नहीं तो कभी तुम्हारी गिल्लियाँ ऐसी साफ होंगीं कि दुबारा जमाना मुश्किल हो जाएगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #147 ☆ व्यंग्य – तालाब को गंदा करने वाली मछली ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘तालाब को गंदा करने वाली मछली’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 147 ☆

☆ व्यंग्य – तालाब को गंदा करने वाली मछली

शहर के साहित्यिक-जगत में आनंद मंगल है। हर दूसरे चौथे विमोचन, सम्मान, अभिनंदन, लोकार्पण, गोष्ठियाँ होती रहती हैं क्योंकि ज़्यादातर लेखकों की नज़र में यही लेखन की उपलब्धियाँ हैं, भले ही उनका लिखा कोई पढ़े या न पढ़े। गोष्ठी में प्रशंसा हो जाती है तो लेखक का मन एकाध हफ्ता हरा भरा रहता है। लेखक- बिरादरी के लोग एक दूसरे की भरपूर तारीफ करना अपनी ड्यूटी समझते हैं क्योंकि आलोचना लेखक के कोमल मन को दुखी करती है, जो पाप से कम नहीं होता। कोई सिरफिरा रचना की ख़ामियाँ गिना दे तो ज़िन्दगी भर की दुश्मनी हो जाती है। इसलिए एक दूसरे की पीठ खुजाने का काम चलता रहता है।

इस सुकून और सुख भरे वातावरण में नगर के जाने-माने कवि अनोखेलाल ‘उदासीन’ काँटा बने हुए हैं। ‘उदासीन’ जी महाकवि निराला जैसे ही निराले हैं। नगर की साहित्यिक फ़िज़ाँ में वे खपते नहीं। साहित्यिक बिरादरी में वे सनकी माने जाते हैं। सम्मान-अभिनंदन से दूर भागते हैं, प्रशंसा से बिदकते हैं, विमोचन-लोकार्पण को ढोंग और नौटंकी मानते हैं। गोष्ठियों में खरी खरी आलोचना कर देते हैं और लेखक को नाराज़ कर देते हैं। कहते हैं, ‘साहित्यिक कार्यक्रम भटैती और ठकुरसुहाती के लिए नहीं होते। लेखक में आलोचना बर्दाश्त करने का माद्दा होना चाहिए।’ इसीलिए जिस सभा में वे पहुँच जाते हैं वहाँ उपस्थित लेखकों के मुँँह का ज़ायका बिगड़ जाता है। दिल की धड़कन बढ़ जाती है। समझदार लेखक उन्हें अपने कार्यक्रम में आमंत्रित करना ‘भूल’ जाते हैं।

हर गोष्ठी में ‘उदासीन’ जी के खिलाफ शिकायतों का दफ्तर खुल ही जाता है। पिछली गोष्ठी में कवि गिरधारीलाल ‘निर्मोही’ बोले, ‘बहुत बेकार आदमी है यह। मैं कुछ दिन पहले अपनी पंद्रह-बीस कविताएँ दे आया था। सोचा था पढ़ कर तारीफ करेगा। तीन दिन बाद गया तो कविताएँ मेरी तरफ है फेंक दीं। बोला, छठवीं क्लास के बच्चे जैसी कविताएँ लिखते हो और कवि बनने चले हो। अब बताइए, मैं तीस साल से कविताएँ लिख रहा हूँ और किसी ने ऐसी बात नहीं कही। मेरी कविताओं पर तीन छात्र पीएचडी की डिग्री पा चुके हैं और यह आदमी मेरी कविताओं को रद्दी की टोकरी में डाल रहा है।’

एक और कवि मुकुंदी लाल ‘निराश’ बोले, ‘अरे भैया, एक संस्था इनके पास सम्मान का प्रस्ताव लेकर आयी तो पूछने लगे मेरा सम्मान क्यों करना चाहते हो, मेरी कौन सी कविताएँ पढ़ी है, उनमें क्या अच्छा लगा? बेचारे प्रस्ताव करने वाले भाग खड़े हुए। अब बताइए, सम्मान का कोई कारण होता है क्या?’

गोष्ठी में उपस्थित साहित्यकारों ने इस स्थिति को गंभीर और शहर के साहित्यिक वातावरण के लिए नुकसानदेह बताया। ‘उदासीन’ जी के आचरण से दुखी सभी साहित्यकारों ने नगर के सबसे सयाने कवि छैलबिहारी ‘दद्दा’ से अनुरोध किया कि चूँकि अब पानी सर से ऊपर चढ़ चुका है, अतः वे अपने सयानेपन का उपयोग करके ‘उदासीन’ जी को सुधारने की कोशिश करें। उन्हें ज़िम्मेदारी दी गयी कि वे ‘उदासीन’ जी का ‘ब्रेनवाश’ करने का प्रयत्न करें और उन्हें समझायें कि वे चंदन-अभिनंदन से छड़कने-बिदकने के बजाय उसे अंगीकार करने की आदत डालें। दूसरे शब्दों में, वे एक असामान्य साहित्यकार की बजाय एक ‘नॉर्मल’ साहित्यकार बन जाएं। यह सुझाव भी दिया गया कि नये लेखकों को ‘उदासीन’ जी की सोहबत से बचाया जाए क्योंकि एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 106 ☆ योग्य और उपयोगी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  योग्य और उपयोगी। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 106 ☆

☆ योग्य और उपयोगी ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

चलिए इस कार्य को मैं कर देती हूँ मुस्कुराते हुए रीना ने कहा।

अरे भई प्रिंटिंग का कार्य कोई सहज नहीं होता। आपको इसके स्किल पर कार्य करना होगा। स्वयं में कोई न कोई ऐसी विशेषता हो कि लोग आपको याद करें समझाते हुए संपादक महोदय ने कहा।

मैं रचनाओं को एकत्रित करुँगी। संयोजक के रूप में मुझे शामिल कर लीजिए।

देखिए आजकल वन मैन आर्मी का जमाना है। जब हमको ऐसे लोग मिल रहे हैं तो आपके ऊपर समय क्यों व्यर्थ करें।

हाँ ये बात तो है। अब इस पर चिंतन मनन करुँगी। क्या ऐसा हम सबके साथ भी होता है। अगर होता है तो उपयोगी बनें। माना कि उपयोगिता अहंकार को बढ़ावा देती है।अपने आपको सर्वे सर्वा  समझने की भूल करते हुए व्यक्ति कब अहंकार रूपी कार में सवार होकर निकल पड़ता है पता ही नहीं चलता। अपने रुतबे के चक्कर में कड़वे वचन, झूठ की चादर, मंगल को अमंगल करने की कोशिश इसी उधेड़बुन में उलझे हुए जीवन व्यतीत होने लगता है। सब से चिल्ला कर बोलना , खुद को साहब मान कर चिल्लाने से ज्यादा प्रभाव पड़ता है। ध्वनि प्रदूषण से भले ही सामने वाला अछूता रह जाए किन्तु अड़ोसी- पड़ोसी का ध्यानाकर्षण अवश्य हो जाता है।

अपने नाम का गुणगान सुनने की लत; नशे से भी खतरनाक होती है। जिसने भी सत्य समझाने का प्रयास किया वही दुश्मन की श्रेणी में आ खड़ा होता है। उसे दूर करने की इच्छा मन में आते ही आदेश जारी करके अलग- थलग कर दिया जाता है।

बेचारे घनश्याम जी दिन भर माथा पच्ची करते रहते हैं। कोई भी ढंग का कार्य उन्हें नहीं आता बस कार्य को फैलाने के अतिरिक्त कुछ नहीं करते किन्तु अधिकारी उनके इसी गुण के कायल हैं। रायता फैलाने से ज्यादा विज्ञापन होता है। कोई बात नहीं बस नाम हमारा हो, यही इच्छा मौन साधने को बलवती करती है। अपनी खोल में बैठ कर मूक दर्शक बनें रहना और जैसे ही मौका मिला कुछ भी लिखा और पोस्टर लेकर हाजिर। हाजिर जबावी में तो तेनालीराम व बीरबाल का नाम था किंतु यहाँ तो हुजूर सब कुछ खुद करते हुए देखे जा सकते हैं।

सच कहूँ तो ऐसी व्यवस्था से ही कार्यालय चलते हैं। आपसी सामंजस्य तभी होता है जब माँग और पूर्ति बनी रहे। एक दूसरे को आगे बढ़ाते हुए चलते जाना  ही जीत का मूल मंत्र होता है।

जो कुछ करेगा उसे जीत का सेहरा अवश्य मिलेगा। बस रस्सी की तरह पत्थर पर निशान बनाने को आतुर होना पड़ेगा। हर जगह लोग कर्म के पुजारी बन रहे हैं। कुछ लगातार स्वयं को अपडेट कर रहे हैं तो कुछ भूतकाल में जीते हुए डाउनग्रेड हो रहे हैं। अब आपके ऊपर है कि आप किस तरह की जीवनशैली के आदी हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 28 ☆ अपरान्ह तीन से पाँच बजे तक ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “अपरान्ह तीन से पाँच बजे तक”। ) 

☆ शेष कुशल # 28 ☆

☆ व्यंग्य – “अपरान्ह तीन से पाँच बजे तक” – शांतिलाल जैन ☆ 

“यह सबसे अच्छा समय था, यह सबसे खराब समय था”

इन पंक्तियों के लेखक ब्रिटिश उपन्यासकार चार्ल्स डिकन्स कभी भारत आए थे या नहीं मुझे पक्के से पता नहीं मगर पक्का-पक्का अनुमान लगा सकता हूँ कि वे भारत आए ही होंगे और उज्जैन भी। दोपहर में दाल-बाफले-लड्डू सूतने के बाद तीन बजे के आसपास उन्होने ये पंक्तियाँ लिखीं होंगी। पेंच फंस गया होगा – इधर चेतना पर खुमारी तारी हो रही है उधर आयोजक साहित्यिक समारोह की अध्यक्षता करवाने के लिए लेने आए हैं। कैच-22 सिचुएशन। आयोजक तुम्हें सोने नहीं देंगे और चढ़ती नींद तुम्हें वहाँ जाने नहीं देगी डिकन्स।  

भारतवर्ष में तीन बजे का समय सबसे अच्छा और सबसे खराब समय माना गया है। अच्छा तो इस कदर कि आपको बिस्तर तकिये की जरूरत नहीं होती, नाईट सूट भी नहीं पहनना पड़ता. झपकी सूट-बूट में भी ले सकते हैं. कहीं भी ले सकते हैं, दफ्तर की कुर्सी पर, सोफ़े पर, दुकान में, चलती बस की सीट पर बैठे बैठे, यहाँ तक कि दोनों ओर की सीटों के बीच ऊपर लगी रेलिंग पकड़ कर खड़े खड़े खर्राटे वाली नींद ले सकते हैं. नींद का वो क्षण स्वर्णिम क्षण होता है जब चलती बस में आपका सर गर्दन से झोल खाकर सहयात्री की खोपड़ी से बार-बार टकराता है. तराना-माकड़ोन बस में ही नहीं दिल्ली-चेन्नाई फ्लाईट में भी टकराता है. बहरहाल, खोपड़ी उसकी गरम हो आपको क्या, आप तो गच्च नींद के मजे लीजिये. सावधानी रखिएगा, सहयात्री “शी” हो तो सैंडिल पड़ने के पूरे चांस होते हैं.

भारत में क्रिकेट अंग्रेज़ लाए. आने से पहले डिकन्स ने उनको समझा दिया होगा कि टेस्ट क्रिकेट में टी-टाईम का प्रावधान जरूर रखना. मिड ऑफ पर खड़ा फील्डर बेचारा झपकी ले कि कैच पकड़े.

दोपहर की नींद समाजवादी होती है, वो संसद से सड़क तक, मंत्री से लेकर मजदूर तक, सबको आती है और जो जहां है वहीं आ जाती है.  मंत्रीजी विधायिका में सो जाते हैं, कहते हैं गहन विचार प्रक्रिया में डूबे हैं. ऐसी ही गहन विचार प्रक्रिया से बाहर आकर राजू टी स्टॉल की गोल्डन कट चाय की चुस्कियाँ लेते हुवे डिकन्स ने सोचा होगा “यह सबसे अच्छा समय था”, मगर जब ध्यान आया होगा कि नींद के चक्कर में ट्रेन छूटने का समय हो गया है तब लिखा होगा – “यह सबसे खराब समय था”।

तीन से पाँच की नींद इस कदर मोहपाश में जकड़ लेती है कि प्रियतमा का कॉल भी उठाने का मन नहीं करता। अभी गहरी नींद लगी ही है कि कोरियर ने घंटी बाजा दी है। वो सुपुर्दगी के दस्तखत आपसे ही चाहता है। बाल नोंच लेते हैं आप। अंकलजी ने तो गेट पर लिखवा रखा है – ‘कृपया तीन से पाँच के बीच घंटी न बजाएँ’।

तीन बजे जब मम्मी गहरी नींद में होती है तब कान्हा फ्रीज़ में से आईसक्रीम, चॉकलेट, गुलाबजामुन चुरा कर खा सकता है, मोबाइल पर गेम खेल सकता है, कार्टून नेटवर्क देख सकता है, दरवज्जा धीरे से ठेलकर बाहर जा सकता है। प्रार्थना करता है हे भगवान ! मम्मी पाँच बजे से पहले उठ न जाए वरना कूट देगी। बच्चों के लिए यह सर्वश्रेष्ठ समय होता है, नौकरीपेशा आदमी के लिए सबसे खराब। खासकर तब जब कान्फ्रेंस में पोस्ट-लंच सत्र में लंबा, उबाऊ, बोझिल भाषण चल रहा हो, आपकी गर्दन बार बार आगे की ओर झोल खा रही हो, वक्ता सीजीएम रैंक का हो और वो बार बार आपको ही नोटिस कर रहा हो। कोढ़ में खाज ये कि उसी साल आपका प्रमोशन ड्यू है। सीआर बिगड़ने का डर आपको सोने नहीं देता और लेविश-लंच आपको जागने नहीं देता। ये आपके लिए सबसे अच्छा समय होता है, ये आपके लिए सबसे खराब समय होता है।

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #146 ☆ व्यंग्य – उदर-रोग आख्यान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘उदर-रोग आख्यान’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 146 ☆

☆ व्यंग्य – उदर-रोग आख्यान

सेवा में सविनय निवेदन है कि मैं पेट का ऐतिहासिक मरीज हूँ। मर्ज़ अब इतना पुराना हो गया है कि मेरे व्यक्तिगत इतिहास में लाख टटोलने पर भी इसकी जड़ें नहीं मिलतीं। अब तक इस रोग के नाना रूपों और आयामों में से गुज़र चुका हूँ।

पेट का रोग संसार में सबसे ज़्यादा व्यापक है। शायद इसका कारण यह है कि अल्लाह ने भोजन करने का काम तो हमारे हाथ में दिया है लेकिन आगे के सारे विभाग अपने हाथ में ले रखे हैं। काश कोई ऐसा बटन होता जिसे दबाते ही भोजन अपने आप पच जाता और शरीर का सारा कारोबार ठीक से चलता रहता। कमबख्त पेट की गाड़ी ऐसी होती है जो एक बार पटरी से उतरी सो उतरी। फिर आप पेट के मरीज़ होने का गर्व करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते।

एक विद्वान ने कहा है कि जिसे हम अक्सर आत्मा का रोग समझ लेते हैं वह वास्तव में पेट का मर्ज़ होता है। जो लोग दार्शनिक या कवि जैसे खोये खोये बैठे रहते हैं यदि उनकी दार्शनिकता की तह में प्रवेश किया जाए तो कई लोग पेट के रोग से ग्रस्त मिलेंगे। इसीलिए दार्शनिकों और कवियों की पूरी जाँच होना चाहिए ताकि पता लगे कि कितने ‘जेनुइन’ कवि हैं और कितनों का कवित्व ‘मर्ज़े मैदा’ से पैदा हुआ है।

पेट का मरीज़ मेहमान के रूप में बहुत ख़तरनाक होता है। वह जिस घर में अतिथि बनता है वहाँ भूचाल पैदा कर देता है। उसे तली चीज़ नहीं चाहिए, धुली हुई दाल नहीं चाहिए, नींबू चाहिए, काला नमक चाहिए, दही चाहिए, अदरक चाहिए। ‘बिटिया, शाम को तो मैं खिचड़ी खाऊँगा। ईसबगोल की भूसी हो तो थोड़ी सी देना और ज़रा पानी गर्म कर देना।’ ऐसा मेहमान मेज़बान को कभी पूरब की तरफ दौड़ाता है, कभी पच्छिम की तरफ। ऐसी चीजें तलाशना पड़ती हैं जिनका नाम सुनकर दूकानदार हमारा मुँह देखता रह जाता है। घर के बाथरूम पर मेहमान का पूरा कब्ज़ा होता है। वे दो बार, चार बार, छः बार, जितने बार चाहें वहाँ आते जाते रहते हैं। कई लोग जो आठ बजे घुसते हैं तो फिर दस बजे तक पुनः दर्शन नहीं देते।

पेट का मरीज़ अपने साथ दुनिया भर का सरंजाम लेकर चलता है— नाना प्रकार के चूर्ण, लहसुन वटी, चित्रकादि वटी, द्राक्षासव, और जाने कितने टोटके। दवाइयों के हजारों कारखाने पेट के रोगियों के लिए चलते हैं। पेट के रोगी का बिगड़ा हुआ पेट बहुत से पेट पालता है।

पेट के रोगी के साथ मुश्किल यह होती है कि उसकी दुनिया अपने पेट तक ही सीमित रहती है। वह हर चार घंटे पर अपने पेट के स्वास्थ्य का बुलेटिन ज़ारी करता है। जिस दिन उसका पेट ठीक रहता है वह दिन उसके लिए स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य होता है। जब बाकी सब लोग अफगानिस्तान और ईरान की समस्या की बातें करते हैं तब वह बैठा अपना पेट बजाता है।

पेट का रोगी बड़ा चिड़चिड़ा, बदमिजाज़ और शक्की हो जाता है। इसलिए पेट के रोगी को कभी ज़िम्मेदारी के पद पर नहीं बैठाना चाहिए। ऐसा आदमी जज बन जाए तो रोज़ दो चार को फाँसी पर लटका दे, अफसर बन जाए तो रोज़ दो चार को डिसमिस करे, और किसी देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन जाए तो ज़रा सी बात पर जंग का नगाड़ा बजवा दे। घर और पड़ोस के लोग पेट के रोगी से त्रस्त रहते हैं क्योंकि वह हर बात पर काटने को दौड़ता है। उसका चेहरा बारहों महीने मनहूस बना रहता है।

पेट के रोग का यह वृतांत एक किस्से के साथ समाप्त करूँगा। एक दिन जब डॉक्टर के दवाखाने से पेट की दवा लेकर चला तो एक रोगी महोदय मेरे पीछे लग गये। वे स्वास्थ्य की जर्जरता  में मुझसे बीस थे।

उन्होंने मुझसे पूछा, ‘आप पेट के रोगी हैं?’

मेरे ‘हाँ’ कहने पर उन्होंने पूछा, ‘कितने पुराने रोगी हैं?’

जब मैंने पंद्रह वर्ष का अनुभव बताया तो वे प्रसन्न हो गये। उन्होंने बड़े जोश में मुझसे हाथ मिलाया। बोले, ‘मैं भी अठारह वर्ष की हैसियत का पेट का रोगी हूँ। मेरा नाम बी.के. वर्मा है।’

मैंने प्रसन्नता ज़ाहिर की तो वे बोले, ‘आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई। दरअसल हमने इस शहर में ‘एक उदर रोगी संघ’ बनाया है। उसकी मीटिंग इतवार को शाम को होती है। मैं चाहता हूँ कि आप भी इसमें शामिल हों।’

इतवार की शाम उनके बताये पते पर पहुँचा। वह घर उनके संघ के अध्यक्ष का था जो पैंतालीस वर्ष की हैसियत के उदर रोगी थे।वहाँ अलग अलग अनुभव वाले लगभग पच्चीस उदर रोगी एकत्रित थे। उन्होंने बड़े जोश से मेरा स्वागत किया, जैसे उन्हें ‘बढ़त देख निज गोत’ खुशी हुई हो।

उस सभा में पेट के रोगों के कई आयामों की चर्चा हुई। कई नई औषधियों का ब्यौरा दिया गया। वहाँ उदर रोग के मामले में ‘सीनियर’ ‘जूनियर’ का भेद स्पष्ट दिखायी दे रहा था। जो जितना सीनियर था वह उतने ही गर्व में तना था।

उस दिन के बाद मैं उदर-रोगी संघ की मीटिंग में नहीं गया। करीब पंद्रह दिन बाद दरवाज़ा खटका तो देखा वर्मा जी थे। वे बोले, ‘आप उस दिन के बाद नहीं आये?’

मैंने उत्तर सोच रखा था। कहा, ‘क्या बताऊँ वर्मा जी। अबकी बार मैंने जो दवा ली है उससे मेरा उदर रोग काफी ठीक हो गया है। इसीलिए मैं आपके संंघ के लिए सही पात्र नहीं रह गया।’

वर्मा जी का मुँह उतर गया। वे बोले, ‘तो आपका रोग ठीक हो गया?’

मैंने कहा, ‘हाँ, लगता तो कुछ ऐसा ही है।’

वे बोले, ‘इतनी जल्दी कैसे ठीक हो सकता है?’

मैंने कहा, ‘मुझे अफसोस है। लेकिन बात सही है।’

वर्मा जी बड़ा मायूस चेहरा लिये हुए मुड़े और मेरे घर और मेरी ज़िंदगी से बाहर हो गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 105 ☆ कोशिशों की कशिश ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “कोशिशों की कशिश”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 105 ☆

☆ कोशिशों की कशिश ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

संवेदना की वेदना को सहकर सफ़लता का शीर्ष तो मिलता है पर सुकून चला जाता है  लेकिन फिर भी हम दौड़े  जा रहे हैं एक ऐसे पथ पर जहाँ के आदि अंत का पता नहीं। अपनी फोटो को अखबारों में देखकर जो सुकून मिलता है क्या उसे किसी पैरामीटर में नापा जा सकता है। अखबारों की कटिंग इकठ्ठा करते हुए पूरी उम्र बीत गयी किन्तु आज तक मोटिवेशनल कॉलम लिखने को नहीं मिला  और मिलेगा भी नहीं क्योंकि जब तक विजेता का टैग आपके पास नहीं होगा तब तक कोई पाठक वर्ग आपको भाव नहीं देगा।

माना अच्छा लिखना और पढ़ना जरूरी होता किन्तु प्रचार- प्रसार की भी अपनी उपयोगिता होती है। कड़वा बोलकर जो आपकी उन्नति का मार्ग बनाता  वो सच्चा गुरु होता है, बिना दक्षिणा लिए आपको जीवन का पाठ पढ़ा देते हैं। ऐसे कर्मयोगी समय- समय पर राह में शूल  की तरह चुभते हैं  , ये आप पर है कि आप उसे फूल के रक्षक के रूप में देखते हैं या काँटे की चुभन को ज्यादा प्राथमिकता देकर विकास का मार्ग अवरुद्ध कर लेते हैं।

बातों ही बातों में रवि , कवि,  अनुभवी से भी बलवान मतलबी निकला  जो अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु कुछ भी कर सकता है,  कुछ भी सह सकता है  पर सफलता का स्वाद नहीं भूल सकता।

बहुत ही  सच्ची और अच्छी बात जिसने भी ये लिखा अवश्य ही वो ज्ञानी विज्ञानी है। ध्यान से चिन्तन करें तो पायेंगे कि जैसी हमारी मनोदशा होती है वैसे ही शब्दों के भाव हमें दिखने लगते हैं यदि मन प्रसन्न है तो सामने वाला जो भी बोलेगा हमें मीठा ही लगेगा किन्तु यदि मन अप्रसन्न है तो सीधी बात भी उल्टी लगती है और बात का बतंगड़ बन झगड़ा शुरू हो  जाता है।मजे की बात जब जेब में पैसे की गर्मी हो तो वाणी अंगारे उगलने से नहीं चूकती है। बस सारी हकीकत सामने आते हुए समझौते को नकार कर केवल अपने सिक्के को चलाने का जुनून सिर पर सवार हो जाता है। लगातार कार्य करते रहें तो अवश्य ही मील का पत्थर बना जा सकता है। केवल थोड़े दिनों की चमक में गुम होने से आशानुरूप परिणाम नहीं मिलते। जो भी करें करते रहें। जब समाज के हितों की बात होगी तो राह और राही दोनों मिलने लगेंगे। बस सबको साथ लेकर आगे चलें, लीडर का गुण आगे बढ़ते हुए सारी जिम्मेदारी को अपने ऊपर लेकर महत्वपूर्ण निर्णयों पर एक सुर से आवाज उठाना होता है।

अंततः यही कहा जा सकता है कि धैर्य रखें, हमेशा सकारात्मक चिन्तन करें। सफ़लता स्थायी नहीं होती अतः कर्म करते रहें  और  तन मन धन से समर्पित हो  सबके  मार्ग को सहज बनावे। आप कर्ता नहीं हैं केवल कर्मयोगी हैं कर्ता मानने की भूल ही आपको अवसाद के  मार्ग तक पहुँचा देने में सक्षम है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #145 ☆ व्यंग्य – प्रेम और पाकशास्त्र ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘प्रेम और पाकशास्त्र। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 145 ☆

☆ व्यंग्य – प्रेम और पाकशास्त्र

बात उन दिनों की है जब शीतल भाई जवान थेऔर अधिकतर युवाओं की तरह प्रेम के रोग में फँसे थे। प्रेम-रोग के कारण उन्हें संपूर्ण जगत प्रेमिकामय दिखायी देता था। सभी रोमांटिक प्रेमियों की तरह वे भी अपनी प्रेमिका की आँखों में आँखें डाले दुनिया जहान को भूले रहते थे। सभी की तरह वे भी अपनी प्रेमिका के मुख, आँखों और ओठों की तुलना चाँद, सितारों, गुलाब वगैरः वगैरः से किया करते थे। उन दिनों उनकी नींद कम हो गयी थी और उनका मन किसी काम में नहीं लगता था। ऑफिस में फाइल खोलते ही पन्ने पर प्रेमिका बैठ जाती थी, और वे सिर पकड़े उसी पन्ने को देखते बैठे रहते थे।

स्वाभाविक रूप से आपके मन में यह जिज्ञासा उठेगी कि शीतल भाई तो अधेड़ावस्था को प्राप्त हुए, किन्तु उनकी इस प्रेमिका का हश्र क्या हुआ। अतः यह स्पष्ट कर दूँ कि आज जो महिला उनके घर में पत्नी के रूप में प्रतिष्ठित है वही उन दिनों उनकी प्रेमिका हुआ करती थी। यह बात आपको आज अविश्वसनीय भले ही लगे लेकिन यह है बिल्कुल सच।

शीतल भाई की पत्नी नीरा जी बताती हैं कि प्रेम के उस दौर में भी वे शीतल भाई को एक दो बार दबी ज़ुबान से बता चुकी थीं कि उन्हें भोजन बनाना नहीं आता, लेकिन शीतल भाई रोमांस के बीच में भोजन जैसी टुच्ची चीज़ का प्रवेश देखकर दुखी हो जाते थे। वे कहा करते थे, ‘तुम भी कैसी घटिया बात लेकर बैठ गयीं। तुम कहो तो मैं तुम्हारे चेहरे की तरफ देखते हुए सारी ज़िन्दगी भूखे प्यासे गुज़ार सकता हूँ। प्रेम दैवी चीज़ है, उसका भला भोजन जैसी भौतिक चीज़ से क्या संबंध?’

जब कभी शीतल भाई नीरा जी के घर जाते थे तो वे उन्हें चाय बना कर ज़रूर पिलाती थीं। लेकिन अक्सर यह होता कि उन्हें चाय देने के बाद नीरा जी ठुड्डी पर हाथ रखकर कहतीं, ‘हाय! मैं चीनी डालना तो भूल ही गयी।’ और शीतल भाई मुग्ध नेत्रों से उनकी तरफ देख कर कहते,’चीनी की ज़रूरत नहीं है। तुम सिर्फ अपनी उँगली चाय में डालकर हिला दो। चाय मीठी हो जाएगी।’ नीरा जी दुबारा ठुड्डी पर उँगली रख कर कहतीं, ‘ हाय! मेरी उँगली जल नहीं जाएगी?’ और शीतल भाई उनकी इस अदा पर निहाल हो जाते। वे मिठास के लिए नीरा जी की तरफ देखते हुए बिना शकर की चाय पी जाते।

इसी प्रकार शीतल भाई का प्रेम फलता फूलता रहा और अन्त में वे दोनों शादी को प्राप्त हो गये। शादी के बाद भोजन बनाने की समस्या सामने आयी। शीतल भाई भी महसूस करने लगे कि खाली प्रेम की ख़ूराक पर ज़िन्दगी ज़्यादा दिन नहीं चल सकती। मुश्किल यह थी नीरा जी पाक कला में बिल्कुल ही अनाड़ी थीं। उनसे न सब्ज़ी काटते बनता, न आटा गूँधते। आग पर रखे बर्तन वे हाथों से ही उठा लेतीं और फिर ‘हाय माँ’ कह कर उन्हें ऊपर से छोड़ देतीं।

एकाध बार जब शीतल भाई ने उनसे पूछा कि बर्तन कैसे गिर गया तो उन्होंने नूरजहाँ की तरह दुबारा पटक कर बता दिया कि कैसे गिर गया। लेकिन शीतल भाई के साथ दिक्कत यह थी कि वे सलीम की तरह कोई राजकुँवर नहीं थे।वे मध्यवर्गीय परिवार के थे और बर्तनों के गिरने से उनके दिमाग में झटका लगता था।

आरंभ में उन्हें पत्नी का पाक कला में  अनाड़ीपन नहीं अखरा। वे हँसते हुए होटल से भोजन ले आते और अपने हाथों से पत्नी को खिलाते थे। लेकिन जब आधी से ज़्यादा तनख्वाह पेट में जाने लगी तब शीतल भाई की प्रेमधारा का पाट कुछ सँकरा होने लगा। अब वे धीरे से कुनमुना कर पत्नी से कहते कि उसे भोजन बनाना सीखना चाहिए था। लेकिन पत्नी अभी तक अपने को प्रेमिका ही समझे बैठी थी। वह उनकी बात पर मुँह चिढ़ा कर सबेरे नौ बजे तक आराम से सोती रहती।

अन्ततः प्रेमशास्त्र में अर्थशास्त्र की दीमक लगने लगी। अब शीतल भाई खुलकर पत्नी से कहने लगे कि वह कौन सा बाप के घर से दहेज ले कर आयी है जो वे उसे होटल से ला ला कर खिलाते रहें। अब पत्नी उनकी बात सुनकर आँसू बहाती। वह रसोईघर में जाकर कुछ खटपट भी करती, लेकिन बात कुछ खास बनी नहीं।

अन्त में अंग्रेजी कहावत के अनुसार उनकी गृहस्थी की नाव पानी से निकलकर चट्टान पर चढ़ने लगी, अर्थात उसके टूटने की नौबत आने लगी। जब नीरा देवी को यह खतरा स्पष्ट दिखायी देने लगा तब उन्होंने घबराकर मेरी पत्नी की शरण ली।

हमने चुपचाप उन्हें पाकशास्त्र का प्रशिक्षण दिया। जब वे कुछ दक्ष हो गयीं तो हमने शीतल भाई को बिना कुछ बताये उनका बनाया भोजन खिलाया। जब शीतल भाई ने उस भोजन की प्रशंसा की तो हमें बात कुछ बनती हुई लगी। उसके बाद हमने नीरा जी की पकायी हुई वस्तुएँ उन्हीं के घर भेजीं और शीतल भाई ने उनकी भी खूब तारीफ की। तब हमने उन्हें बताया कि वे वस्तुएँ किसने बनायी थीं। परिणाम यह हुआ कि शीतल भाई की सूखती हुई प्रेम-बेल फिर हरी हो गयी और उनकी गृहस्थी की नाव फिर चट्टान से उतर कर पानी में तैरने लगी।

चूँकि अब नीरा देवी अपने पति के हृदय प्रदेश पर पुनः आधिपत्य कर चुकी हैं, अतः वे शीतल भाई को आड़े हाथों लेने से चूकती नहीं हैं। वे साफ-साफ कहती हैं कि शीतल भाई के हृदय में पहुँचने का रास्ता उनके पेट से होकर जाता है। शीतल भाई यह सुनकर शर्मा कर हँस देते हैं।

अन्त में एक बात और।अब इतिहास अपने को दुहरा रहा है। जिस तरह पचीस तीस वर्ष पहले शीतल भाई प्रेम-पीड़ित थे उसी तरह अब उनका बड़ा पुत्र भी आजकल एक कन्या के प्रेम में गिरफ्तार है। वह भी आजकल चाँद सितारों की दुनिया में रहता है। शीतल भाई इस बात को लेकर परेशान हैं।

एक दिन मेरे ही सामने शीतल भाई पुत्र से कहने लगे, ‘भैया, यह पता तो लगा लो कि वह खाना बनाना जानती है या नहीं।’

उनका पुत्र ताव खाकर बोला, ‘पापाजी, मैं आपसे कई बार कह चुका हूँ कि आप मुझसे ऐसी घटिया बात न किया करें, लेकिन आप मानते ही नहीं।’

और शीतल भाई बड़ी करुण मुद्रा बनाकर मेरी तरफ देखने लगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 104 ☆ स्थिति परिवर्तन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  स्थिति परिवर्तन । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 104 ☆

स्थिति परिवर्तन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

जिस तरह दो स्थितियाँ हमारे सामने होती हैं उसी तरह दो लोग भी होते हैं। एक तो वे जो हमारे अनुरूप कार्य करें और दूसरे वे जो क्रिएटिव तो हों किन्तु मनमानी करें। जिस समय जो चाहिए यदि वो उपलब्ध नहीं होगा। तो ऐसे व्यक्तियों का क्या फायदा। हमें चाहिए आम और वे लोग पपीता ला रहे हैं। तर्क भी ऐसा कि माथे पर बल आना स्वाभाविक है। जब मैंगो शेक  पीने की इच्छा हो और पपीता शेक आए तो गिलास फेंकने का मन करेगा। परन्तु धैर्य रखते हुए सब बर्दाश्त करना पड़ता है। बहुत सुंदर कहते हुए सुखीराम जी आम की खोज में निकल पड़े। अब सच्चे मन से जो चाहो वो मिल  जाता है सो उनको भी मिल गया। 

ये सही है कि इन स्थितियों से बैचेनी बढ़ती है कि सामने वाला आपके अनुसार नहीं अपने अनुसार चल कर मनमानी कर रहा है। प्यास लगने पर पानी ही चाहिए, अच्छा भोजन किसी ने सामने रखा है पर गला सूख रहा है तो पानी ही प्यास बुझायेगा। अब आपकी टीम में ऐसे लोगों की भरमार हो जो मनमर्जी सरकार चलाने में माहिर हों तो जाहिर सी बात है, ऐसे लोग काँटे की तरह चुभेंगे। किसी और कि वफादारी करते हुए ऊल- जुलूल निर्णय कभी  हितकारी नहीं होते। अगर टीम के साथ एकजुटता रखनी है तो सबको अपनी कार्यशैली बदलनी होगी। जिस समय जो कहा जाए वही पूरा हो, बहाने बाजी आसानी से समझ में आ जाती है। एकबार जो व्यक्ति मन से उतरा तो समझो दिमाग़ उसे उतारने में एक पल भी लगाता। आखिर कचरा जमा करने का ठेका थोड़ी ले रखा है।

कोई भी कार्य बिना कुशल नेतृत्व के नहीं होगा। अब ये टीम लीडर की जिम्मेदारी है कि वो सही पहचान करते हुए समय- समय पर खरपतवार जैसे लोगों की छटनी करता रहे। वैसे भी अवांछित वस्तुएँ कबाड़ी को देने का चलन सदियों से चला आ रहा है। मौसम के अनुरूप बदलाव करना उचित होता है किंतु गिरगिट बन जाना किसी को शोभा नहीं देता। टीम में जब तक मेहनती, बुद्धिमान व शीघ्रता से कार्य करने वाले लोग नहीं होंगे तब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा। अक्सर देखने में आता है कि शीर्ष अधिकारी जबर्दस्ती कामचोरों को भी टिका देते जिन्हें समझाते- समझाते पूरा समय बीत जाता है और परिणाम आशानुरूप नहीं आता है। 

जब भी लक्ष्य बड़ा हो तो छोटे-छोटे कदम बढ़ाते हुए सबको साथ लेना चाहिए। क्या पता कौन कब उपयोगी हो। टीम लीडर को अच्छा संयोजक भी होना चाहिए। ऐसे समय मे रहीम दास जी का यह दोहा सार्थक सिद्ध होता है –

रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।

रहिमन फिर -फिर पोइए, टूटे मुक्ताहार।।

खैर समयानुसार निर्णय लिए जाते हैं। टीम चयन करते समय ही ठोक- पीट कर लगनशील व्यक्ति का चयन होना चाहिए क्योंकि जो लगातार कार्य करेगा उसे अवश्य ही सफलता मिलेगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #144 ☆ व्यंग्य – भूत जगाने वाले ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘भूत जगाने वाले’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 144 ☆

☆ व्यंग्य – भूत जगाने वाले

उस दिन घर में नया सीलिंग फैन आया था। पत्नी और मैं खुश थे। पंखे को फिट कराने के बाद हम उसके नीचे बैठे उसे अलग-अलग चालों पर दौड़ा रहे थे— कभी दुलकी, सभी सरपट। तभी कहीं से घूमते घामते सुखहरन जी आ गये। कुर्सी पर बैठकर उन्होंने ऊपर की तरफ देखा, बोले, ‘ओहो, नया पंखा लगवाया है?’

मैंने खुश खुश कहा, ‘हाँ।’

उन्होंने पूछा, ‘कितने का खरीदा?’

मैंने जवाब दिया, ‘अठारह सौ का।’

वे मुँह बिगाड़कर बोले, ‘तुम बहुत जल्दी करते हो। हमसे कहते हम आर्मी कैंटीन से दिलवा देते। कितने मेजर, कर्नल और ब्रिगेडियर अपनी पहचान के हैं। कम से कम दो तीन सौ की बचत हो जाती।’

हमारे उत्साह की टाँगें टूट गयीं। पत्नी ने मेरी तरफ मुँह फुला कर देखा और कहा, ‘सचमुच आप बहुत जल्दबाजी करते हो। सुखहरन भैया से कहते तो कुछ पैसे बच जाते।’

हमारा मूड नाश हो गया। अब हम अपने उत्साह को बार-बार पूँछ पकड़ कर ऊपर उठाते थे और वह गरियार बैल की तरह नीचे बैठ जाता था। सुखहरन हमारा सुख हर कर आराम से बैठे पान चबा रहे थे। पंखे की ठंडी हवा अब हमें लू की तरह काट रही थी।

इसके बाद जब एक ऑटोमेटिक प्रेस खरीदने की ज़रूरत हुई तो मैंने सुखहरन को पकड़ा। वे मेजरों और ब्रिगेडियरों की चर्चा करके मुझे कई दिन बहलाते रहे, लेकिन वे मुझे प्रेस नहीं दिलवा पाये। उस दिन ज़रूर वे हमारी खुशी को ग्रहण लगा गये।

ऐसे भूत जगाने वाले बहुत मिलते हैं। चतुर्वेदी जी के घर जाता हूँ तो वे अक्सर बीस साल पहले हुई अपनी शादी का रोना लेकर बैठ जाते हैं। उन्हें अपनी पत्नी से बहुत शिकायत है। पत्नी को सुनाकर कहते हैं, ‘क्या बताएं भैया, हमारे लिए दुर्जनपुर से द्विवेदी जी का रिश्ता आया था। डेढ़ लाख नगद दे रहे थे और साथ में एक मोटरसाइकिल भी कसवा देने को कह रहे थे। लेकिन अपने भाग में तो ये लिखी थीं।’ वे पत्नी की तरफ हाथ उठाते हैं।

मैं उनके चंद्रमा के समान असंख्य  गड्ढों से युक्त चेहरे और उनकी घुन खाई काया को देखता हूँ और कहता हूँ, ‘सचमुच दुर्भाग्य है।’ फिर युधिष्ठिर की तरह धीरे से जोड़ देता हूँ, ‘तुम्हारा या उनका?’

मेरे एक और परिचित संतोख सिंह परम दुखी इंसान हैं। वैसे खाते-पीते आदमी हैं, कोई अभाव नहीं है। लेकिन वेदना यह है कि उन्हें बीस पच्चीस साल पहले एक रुपये फुट के हिसाब से एक ज़मीन मिल रही थी जो उन्होंने छोड़ दी।अब वही ज़मीन डेढ़ सौ रुपए फुट हो गयी। संतोख सिंह इस बात को लेकर व्यथित हैं कि वे उस ज़मीन को लेने से क्यों चूक गये। लेकिन असल बात यह है संतोख सिंह परले सिरे के मक्खीचूस हैं और उस वक्त यदि स्वयं गुरु बृहस्पति भी उन्हें वह ज़मीन खरीदने की सलाह देते तब भी वे अपनी टेंट ढीली न करते।

ऐसे ही भूत जगाने वाले बहुत से राजा रईस हैं। उनका ज़माना लद गया, लेकिन उनमें से बहुत से अभी अपने को राजा और जनता को अपनी प्रजा समझते हैं। अपने घर में पुरानी तसवीरों और धूल खाये सामान से घिरे वे मुर्दा हो गये वक्त को इंजेक्शन लगाते रहते हैं।खस्ताहाल हो जाने पर भी अपने सिर पर दो चार नौकर लादे रहते हैं। अपने हाथ से काम न खुद करते हैं न अपने कुँवरों को करने देते हैं। ऐसा ही प्रसंग लखनऊ की एक बेगम साहिबा का है जो अपने पुत्र, पुत्री, पाँच छः नौकरों और दस बारह कुत्तों के साथ कई साल तक दिल्ली स्टेशन के एक वेटिंग रूम में पड़ी रहीं।

चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशंस’ में एक प्रसिद्ध चरित्र मिस हविशाम का है। मिस हविशाम को उनके प्रेमी ने धोखा दिया और वह ऐन उस वक्त गायब हो गया जब मिस हविशाम शादी के लिए तैयार बैठीं उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं। मिस हविशाम पर इस बात का ऐसा असर हुआ कि उन्होंने समय को उसी क्षण रोक देने का निश्चय कर लिया। उन्होंने घर की सब घड़ियाँ रुकवा दीं। वह ज़िंदगी भर अपनी शादी की पोशाक पहने रहीं। घर की सब चीजे़ं वैसे ही पड़ी रहीं जैसी वे उस दिन थीं। शादी की केक पर मकड़जाले तन गये। लेकिन इस सब के बावजूद समय मिस हविशाम की उँगलियों के बीच से फिसलता गया और धीरे-धीरे वे बूढ़ी हो गयीं।

एक अंग्रेज कवि ने कहा है, ‘भूत को अपने मुर्दे दफन करने दो। वर्तमान में रहो।’ लेकिन भूत जगाने वालों को यह बात समझा पाना बहुत मुश्किल है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 103 ☆ भावना में संभावनाओं का खेल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “भावना में संभावनाओं का खेल”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 103 ☆

☆ भावना में संभावनाओं का खेल ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

कहते हैं मन पर विजय प्राप्त हो जाए तो सब कुछ अपने वश में किया जा सकता है। पर क्या किया जाए यही तो चंचल बन मारा- मारा फिर रहा है। समस्या कितनी भी बड़ी क्यों न हो वो अपने साथ समाधान लेकर चलती है। आज नहीं तो कल व्यक्ति लक्ष्य को हासिल कर ही लेगा बस ध्यान में ये रखना होगा कि हमें सकारात्मक चिंतन करते हुए सबको एक सूत्र में जोड़ते हुए चलना है।

ये सही है कि रहिमन इस संसार में भाँति- भाँति के लोग किन्तु हमें अपनी मंजिल को पाना ही होगा। भावनाओं का महत्व अपनी जगह सही है लेकिन हर जगह इसकी उपस्थित खटकती है। हमको मिलकर आगे बढ़ना होगा। कटीले तारों की बाड़ी बनाकर खेतों की रक्षा की जाती है परन्तु पैदावार बढ़ाने हेतु खाद का सहारा लेना पड़ता है। जीवन के निर्णय भी इन कार्यों से अछूते नहीं हैं। समय- समय पर परीक्षा देनी होती है। एक तरह कुँआ तो दूसरी ओर खाई ऐसे में कुशल खिलाड़ी तेजी दौड़ते हुए कुछ कदम पीछे की ओर करता है फिर पूरे मन से जोर लगाते हुए लक्ष्य की ओर पहुँच जाता है।

ऐसा ही होना चाहिए। कुछ करो या मरो जैसा जज़्बा रखने वालों को मंजिल मिलती है। अनावश्यक मोबाइल पर रोजगार सर्च करने में समय लगाने से बेहतर है किसी स्किल पर कार्य करें।

सफल व्यक्ति कार्य करते नहीं है वे तो टीम  बनाते हैं जो उनके लिए कार्य करती रहती है। टीम को मोटिवेट व विल्डअप करते हुए टीम लीडर स्वयं की पहचान बनाने लगता है। लगातार किसी कार्य को करते रहें अवश्य ही विजयी भवः का आशीर्वाद प्रकृति देने लगती है।

संख्या बल की उपयोगिता को समझते हुए समय- समय पर समझौते भी करने पड़ते हैं क्योंकि समय पर जब सचेत नहीं होंगे तो थोड़े -थोड़े लोग आपस में जुड़कर लकड़ी का गट्ठा बना लेंगे जो एकता और शक्ति दोनों के बलबूते पर बिना दिमाग़ के कार्यों की ओर भी प्रवत्त हो सकता है।समय रखते अच्छे विचारों को एक प्लेटफॉर्म पर सच्चाई व सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा हेतु आगे आना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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