( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “बदलापुर की गाथा”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 41 – बदलापुर की गाथा ☆
बड़े घमंड के साथ, प्रचार – प्रसार द्वारा लगभग लाखों सब्सक्राइबर बना लिए, पर जब भी कोई पोस्ट करते तो बस दस पन्द्रह लाइक ही झोली में आते हैं, अब तो बदलू जी परेशान रहने लगे। हद तो तब हो गयी जब वे बदलापुर के लिए निकल पड़े तो उनके दो अनुयाई भी उनका साथ न देकर, नए नेता की ओर चल दिये। लोटा और पेंदी का साथ बहुत अच्छी बात है, पर जब दोनों अलग हो जाएँ तो बिन पेंदी का लोटा लुढ़कता ही है।
इसी सब में क्षमा के गुणों की चर्चा भी चल निकली। ‘क्षमा वीर आभूषण’ होता कहना और सुनना तो सरल होता है पर जब किसी को क्षमा करना हो तो अहंकार आड़े आ ही जाता है। वो तो भला हो वीरचंद्र का जो सबको संमार्ग ही दिखाते हैं। उन्होंने ने न जाने कितने लोगों को माफ किया और आगे बढ़ चले। सच ही कहा गया है। सिर पर ज्यादा बोझ हो तो चलना मुश्किल होता है ।
मजे की बात ये है कि अधिकांश लोग पूर्वाग्रही होते हैं। वे एक ही रंग का चश्मा पहन कर दुनिया को बदलने चल पड़ते हैं। अरे भई जब तक स्वयं को नहीं बदलोगे तब तक कुछ भी बदलने से रहा। कब तक कुएँ के मेढ़क की तरह उछल कूद करते रहोगे। कभी नदी का सफर भी करो। कैसे वो प्रपात बनाती हुई चलती है। तट का पहरा अवश्य ही उसके ऊपर रहता है। पर अपने लक्ष्य को साधकर आगे बढ़ने में उसे महारत हासिल होती है। सागर में समाहित होकर भी अपना अस्तिव व पहचान बनाए रखती है। उद्गम से चलते हुए न जाने कितनी बाधाओं को पार करना पड़ता है। कई छोटी – बड़ी नदियों के साथ संगम बनाती हुई, रास्ते के कूड़े- करकट, नालियों का पानी सबको आत्मसात कर निरंतर चरैवेति – चरैवेति के सिद्धांत पर अड़िग होकर बढ़ती जाती है ।
सिक्के के एक पहलू से दूसरे पहलू की मित्रता कभी हो ही नहीं सकती ये तो दिन- रात की भांति दिखते हैं। कभी हेड तो कभी टेल बस जिस नज़र से दिखेंगे वही दिखेगा। यहाँ फिर से बात नजरिए पर आ टिकी, सोच बदलो जीवन बदल जायेगा। ये बदलाव भी आखिर क्या चीज है। बदलू जिसे अपनाकर इतिहास रच रहा है। बदला लेने के लिए लोग क्या- क्या नहीं कर बैठते। औरंगजेब को देखिए उसने तो बदले की सभी हदें पार कर दी थीं । अपने पिता शाहजहां को बूंद- बूंद पानी के लिए तरसा दिया था। जरा सोचिए हमारी परंपरा तो प्याऊ लगवाने की रही है वहाँ ऐसा घोर अनाचार, आखिर ये भी तो बदलापुर की बदलागिरी ही लगती है ।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है ।
प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री अलका अग्रवाल सिगतिया जी ( मुंबई ) एवं श्री शशांक दुबे जी ( मुंबई ) के प्रश्नों के उत्तर । )
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 68 ☆
☆ आमने-सामने – 4 ☆
अलका अग्रवाल सिगतिया (मुंबई) –
प्रश्न-
आपने परसाईं जी का साक्षात्कार भी किया है।
उस साक्षात्कार के अनुभव क्या रहे?
आज यह कहा जा रहा है, व्यंग्यकार खुल कर नहीं लिख रहे,अक्सर व्यंग्य चर्चाओं में बहस छोड़ रही है ।
कितने सहमत हैं, आप?
क्या अभिव्यक्ति के खतरे पहले नहीं थे?
आपके लेखन में आप इसे कितना उठाते हैं, या स्टेट बैंक के मुख्य प्रबंधक पद पर रहकर उठाए?
परसाई जी से आप अपने लेखन को लेकर चर्चा करते थे?
जय प्रकाश पाण्डेय –
अलका जी की कहानियां हम 1980 से पढ़ रहे हैं, कहानियां मासिक चयन (भोपाल) पत्रिका में हम दोनों अक्सर एक साथ छपा करते थे। उन्हें परसाई जी का आत्मीय आशीर्वाद मिलता रहा है।
वे परसाई जी के बारे में सब जानतीं हैं। पर चूंकि प्रश्र किया है इसलिए थोड़ा सा लिखने की हिम्मत बनी है।
सुंदर नाक नक्श, चौड़े ललाट,साफ रंग के विराट व्यक्तित्व परसाई जी से हमने इलाहाबाद की पत्रिका कथ्य रूप के लिए इंटरव्यू लिया था। हमने उनकी रचनाओं को पढ़कर महसूस किया कि उनकी लेखनी स्याही से नहीं खून से लेख लिखती थी, व्यंग्य करती थी और हृदय भेदकर रख देती थी। परसाई जी से हमारे घरेलू तालुकात थे, ऐसे विराट व्यक्तित्व से इंटरव्यू लेना बड़े साहस का काम था। इंटरव्यू के पहले परसाई जी कुछ इस तरह प्रगट हुए जैसे अर्जुन के सामने कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया था। उनके विराट रूप और आभामंडल को देखकर हमारी चड्डी गीली हो गई, पसीना पसीना हो गये क्योंकि उनके सामने बैठकर उनसे आंख मिलाकर सवाल पूछने की हिम्मत नहीं हुई, तो टेपरिकॉर्डर छोटा था हमने बहाना बनाया कि टेपरिकॉर्डर पुराना है आवाज ठीक से रिकार्ड नहीं हो रही और हमने उनके सिर के तरफ बैठकर सवाल पूछे। परसाई जी पलंग पर अधलेटे जिस ऊर्जा से बोल रहे थे, हम दंग रह गए थे।
हमारा सौभाग्य था कि हमारी पहली व्यंग्य रचना परसाई ने पढ़ी और पढ़कर शाबाशी दी, और लगातार लिखते रहने की प्रेरणा दी।
आजकल बहुत से व्यंंग्यकार खुल कर नहीं लिख रहे हैं, इस बारे में आदरणीय शशांक दुबे जी के उत्तर में स्पष्ट कर दिया गया है।
श्री शशांक दुबे (मुंबई) –
पाण्डेय जी आपको व्यंग्य के बहुत बड़े हस्ताक्षर हरिशंकर परसाई जी का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। परसाई जी के दौर के व्यंग्यकारों के बौद्धिक व रचनात्मक स्तर में और आज के दौर के व्यंग्यकारों के स्तर में आप कोई अंतर देखते हैं?
जय प्रकाश पाण्डेय –
आदरणीय भाई दुबे जी, वास्तविकता तो ये है कि जब परसाई जी बहुत सारा लिख चुके थे, उन्होंने 1956 में वसुधा पत्रिका निकाली, उसके दो साल बाद हमारा धरती पर आना हुआ। बड़ी देर बाद परसाई जी के सम्पर्क में आए 1979 से। पर हां 1979से 1995 तक उनका आत्मीय स्नेह और आशीर्वाद मिला।
परसाई और जोशी जी के दौर के व्यंंग्यकार त्याग, तपस्या, संघर्ष की भट्टी में तपकर व्यंग्य लिखते थे,उनका जीवन यापन व्यंग्य लेखन से होता था, उनमें सूक्ष्म दृष्टि, गहरी संवेदना, विषय पर तगड़ी पकड़ के साथ निर्भीकता थी ।आज के समय के व्यंग्यकारों में इन बातों का अभाव है। परसाई जी, जोशी जी के दिमाग राडार के गुणों से युक्त थे,वे अपने समय के आगे का ब्लु प्रिंट तैयार कर लेते थे, उन्हें पुरस्कार और सम्मान की भूख नहीं थी। बड़े बड़े पुरस्कार उनके दरवाजे चल कर आते थे।आज के अधिकांश व्यंग्यकार अवसरवादी, सम्मान के भूखे, पकौड़े छाप जैसी छवि लेकर पाठक के सामने उपस्थित हैं और इनके अंदर बर्र के छत्ते को छेड़ने का दुस्साहस कहीं से नहीं दिखता।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य उल्लू जिंदाबाद ! इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 80 ☆
☆ व्यंग्य – उल्लू जिंदाबाद ! ☆
अमेरिका में गधे और हाथी की रेस में गधे जीत गए बाईडेंन का चुनाव चिन्ह गधा था, और ट्रम्प का हाथी।
चुनावो के समय अपने देश मे भी अचानक २००० रुपयो की गड्डियां बाजार से गायब होने की खबर आती है, मैं अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहा होता हूं कि २००० के गुलाबी नोट धीरे धीरे काले हो रहे हैं.
अखबार में पढ़ा था, गुजरात के माननीय १० ढ़ोकलों में बिके. सुनते हैं महाराष्ट्र में पेटी और खोको में बिकते हैं. राजस्थान में ऊंटों में सौदे होते हैं।
सोती हुई अंतर आत्मायें एक साथ जाग जाती हैं और चिल्ला चिल्लाकर माननीयो को सोने नही देती. माननीयो ने दिलों का चैनल बदल लिया , किसी स्टेशन से खरखराहट भरी आवाजें आ रही हैं तो किसी एफ एम से दिल को सुकून देने वाला मधुर संगीत बज रहा है, सारे जन प्रतिनिधियो ने दल बल सहित वही मधुर स्टेशन ट्यून कर लिया. लगता है कि क्षेत्रीय दल, राष्ट्रीय दल से बड़े होते हैं, सरकारो के लोकतांत्रिक तख्ता पलट, नित नये दल बदल, इस्तीफे, के किस्से अखबारो की सुर्खियां बन रहे हैं. हार्स ट्रेडिंग सुर्खियों में है। यानी घोड़ो के सौदे भी राजनीतिक हैं।
रेस कोर्स के पास अस्तबल में घोड़ों की बड़े गुस्से, रोष और तैश में बातें हो रहीं थी. चर्चा का मुद्दा था हार्स ट्रेडिंग ! घोड़ो का कहना था कि कथित माननीयो की क्रय विक्रय प्रक्रिया को हार्स ट्रेडिंग कहना घोड़ो का सरासर अपमान है. घोड़ो का अपना एक गौरव शाली इतिहास है. चेतक ने महाराणा प्रताप के लिये अपनी जान दे दी, टीपू सुल्तान, महारानी लक्ष्मीबाई की घोड़े के साथ प्रतिमाये हमेशा प्रेरणा देती है. अर्जुन के रथ पर सारथी बने कृष्ण के इशारो पर हवा से बातें करते घोड़े, बादल, राजा, पवन, सारंगी, जाने कितने ही घोड़े इतिहास में अपने स्वर्णिम पृष्ठ संजोये हुये हैं. धर्मवीर भारती ने तो अपनी किताब का नाम ही सूरज का सातवां घोड़ा रखा. अश्व शक्ति ही आज भी मशीनी मोटरो की ताकत नापने की इकाई है. राष्ट्रपति भवन हो या गणतंत्र दिवस की परेड तरह तरह की गाड़ियो के इस युग में भी, जब राष्ट्रीय आयोजनो में अश्वारोही दल शान से निकलता है तो दर्शको की तालियां थमती नही हैं. बारात में सही पर जीवन में कम से कम एक बार हर व्यक्ति घोड़े की सवारी जरूर करता है. यही नही आज भी हर रेस कोर्स में करोड़ो की बाजियां घोड़ो की ही दौड़ पर लगी होती हैं. फिल्मो में तो अंतिम दृश्यो में घोड़ो की दौड़ जैसे विलेन की हार के लिये जरूरी ही होती है, फिर चाहे वह हालीवुड की फिल्म हो या बालीवुड की. शोले की धन्नो और बसंती के संवाद तो जैसे अमर ही हो गये हैं. एक स्वर में सभी घोड़े हिनहिनाते हुये बोले ये माननीय जो भी हों घोड़े तो बिल्कुल नहीं हैं. घोड़े अपने मालिक के प्रति सदैव पूरे वफादार होते हैं जबकि प्रायः नेता जी की वफादारी उस आम आदमी के लिये तक नही दिखती जो उसे चुनकर नेता बना देता है.
वाक्जाल से, उसूलो से उल्लू बनाने की तकनीक नेता जी बखूबी जानते हैं. अंतर्आत्मा की आवाज वगैरह वे घिसे पिटे जुमले होते हैं जिनके समय समय पर अपने तरीके से इस्तेमाल करते हुये वे स्वयं के हित में जन प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने किये गलत को सही साबित करने के लिये इस्तेमाल करते हैं. नेताजी बिदा होते हैं तो उनकी धर्म पत्नी या पुत्र कुर्सी पर काबिज हो जाते हैं. पार्टी अदलते बदलते रहते हैं पर नेताजी टिके रहते हैं. गठबंधन तो उसे कहते हैं जो सात फेरो के समय पत्नी के साथ मेरा, आपका हुआ था. कोई ट्रेडिंग इस गठबंधन को नही तोड़ पाती. यही कामना है कि हमारे माननीय भी हार्स ट्रेडिंग के शिकार न हों आखिर घोड़े कहां वो तो “वो” ही हैं !
वो उल्लू होते हैं, और उल्लू लक्ष्मी प्रिय हैं, वे रात रात जागते हैं, और सोती हुईं गाय सी जनता के काम पर लगे रहते हैं । इसलिए अपना नारा है, उल्लू जिंदाबाद!
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक समसामयिक एवं सार्थक व्यंग्य आश्वासन के सम्मान में वोट । इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक रंजन जी का हार्दिकआभार। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 79 ☆
☆ व्यंग्य – आश्वासन के सम्मान में वोट ☆
हम भारत के लोग सदा से आश्वासन का सम्मान करते आये हैं. प्रत्येक चुनाव में हर पार्टी के घोषणा पत्र निखालिस आश्वाशन ही तो होते हैं, जिनके सम्मान में नेता जी सादर चुन लिये जाते हैं. सरकारें बन जाती हैं फिर आश्वाशन पूरे हों न हों यह जनता के भाग्य पर निर्भर करता है. हम स्वयं अपने वोट से उत्साह पूर्वक अपने ही उपर राज करने के लिये चार किंबहुना समान चेहरो मे से किसी न किसी को चुन ही लेते हैं वह भी केवल उसके आश्वाशन का सम्मान करते हुये.
डाक्टर मरीज को आश्वासन देता है और बीमार महंगी दवाइयों पर भरोसा कर लेता है. बच्चे को माता पिता ईनाम का आश्वासन देते हैं और वह उसके सम्मान में मन लगाकर पढ़ने बैठ जाता है. पति पत्नी एक दूसरे को रोज दिये जाते आश्वासनो की पूर्ति में दाम्पत्य की इबारत लिखते रहते हैं. मालिक नौकर को वेतन बढ़ाने का आश्वासन देते हैं और वह उसके सम्मान में एक आशा के साथ महीनों निकाल देता है. मतलब हम सदा से आश्वासन का सम्मान करते आये हैं.
सामान्यतः सम्मान पोस्टपेड एक्टिविटी होती है. पहले लोग अपना सर्वस्व दांव पर लगा देते हैं, एक जुनून के पीछे. तब कहीं व्यक्ति के कार्य फलीभूत होते हैं और जब धरातल पर प्रयास कार्य में परिणित हो जाते हैं तब जब समाज उनका मूल्यांकन करता है तब बारी आती है सम्मान की. पर संयुक्तराष्ट्र संघ ने चैम्पियन्स आफ अर्थ का प्रतिष्ठापूर्ण सम्मान हमारे प्रधान मंत्री जी को प्रदान किया है. वास्तव में यह हर भारत वासी के लिये गर्व की बात है. मैं भी बहुत प्रसन्न हुआ. न केवल इसलिये कि प्रधानमंत्री जी के सम्मान से दुनियां में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है बल्कि इसलिये भी कि संयुक्त राष्ट्र संघ आश्वासन पर यह सम्मान देता है. यह सम्मान कार्य होने से पहले ही कार्य के आश्वासन का है. हमारे प्रधानमंत्री जी ने एक संकल्प, एक ढ़ृड़ता एक कमिटमेंट प्रदर्शित किया है कि २०२२ तक एकल उपयोग वाली सभी तरह की प्लास्टिक को भारत से हटा दिया जावेगा.इसी तरह उन्होने सोलर पावर के उपयोग के प्रति भी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की है यह असाधारण नेतृत्व क्षमता सचमुच सम्मान योग्य है. संयुक्त राष्ट् संघ ने प्रधानमंत्री जी के इस महत्वपूर्ण कमिटमेंट को चेंपियन्स आफ अर्थ पुरस्कार से रिकगनाईज किया है.
ऐसे पुरस्कारो से सम्मान करने वाली संस्थाओ को प्रेरणा लेनी चाहिये.मतलब यह कि न केवल परिणामो का सम्मान हो बल्कि परिणामो के लिये प्रतिबद्धता का भी सम्मान किया जाना चाहिये. सम्मान केवल काम करने पर ही नही अब काम करने की योजनाओ पर भी दिये जाने शुरू कर दिये जाने चाहिये जिससे समाज में और रचनात्मक व सकारात्मक वातावरण बने.
यानी मैं उन अकादिमियो की ओर आशा भरी निगाहो से देख रहा हूं जो सम्मान के लिये प्रविष्टियां बुलाती हैं. नामांकन में आवेदन के प्रारूप में प्रकाशित पुस्तको की प्रतियां मांगती हैं. अब इसमें संशोधन की गुंजाइश है. किताब लिखने के संकल्प पर, लेखन के कमिटमेंट पर भी संयुक्त राष्ट्र संघ का अनुकरण करते हुये पुरस्कार दिया जा सकता है.
खैर लेखन के आश्वासन पर जब पुरस्कार मिलेंगे तब की तब देखेंगे, फिलहाल फ्री वेक्सीन, फ्री लैपटाप, लाखों नौकरियो के आश्वासनो के सम्मान में न सही अवार्ड कम से कम वोट तो दे ही रहे हैं हम.
( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “बदलू और बदलागिरी”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 40 – बदलू और बदलागिरी☆
वक्त बदलता है ये तो सही है, पर पूरा कार्य करवाने के बाद न पहचानना,ये खूबी कुछ लोगों में ही पायी जाती है। ऐसी ही कहानी है बदलू की, जो दलबदल करने वाले लोगों से भी एक हाथ आगे जाकर अपनी रणनीति बनाता है। नीति कोई भी हो, शोध की हद पार करते ही सबको समझ में आने लगती है। कुछ लोग मौनव्रत धारी होते हैं। ठीक समय पर हाजिर होकर हाजिरी लगवाई और चलते बनें।
हाजिरी लेने वाले भी ऐसे लोगों से ही दोस्ती रखते हैं। आखिर शो बाजी का जमाना जो ठहरा। थोड़ा बहुत दिखावा किया और शो मैन बनकर चलते बनें। काम करने वाला करता रहे, उससे किसी को कोई लेना देना नहीं होता। बदलू जी के पास वैसे भी कोई ज्यादा देर टिकता ही नहीं है।
दूध से मक्खी की तरह निकाल कर फेंकने में इन्हें महारथ हासिल है। पर मक्खी तो स्वभाव से ही मीठे पर मंडराने वाली होती है। सो भिन- भिन करती हुई उड़ती रहती है। कुछ लोग जो बैठे हारे मक्खी मारते रहते हैं, वे तो हमेशा ऐसा ही करेंगे पर बदलू अपनी बात पर अड़िग ही नहीं रह सकता सो कोई न कोई नया आयोजन करता रहता है। सच तो ये है जब कोई कार्य अच्छा हो तो उसे अपना बनाकर आधिपत्य हासिल करने में जो मजा है वो और कहीं नहीं हो सकता। ऐसे ही ये क्रम चलता चला आ रहा है क्योंकि लोग बदलागिरी से दूर रहकर शांति प्रिय जीवन जीना चाहते हैं।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है ।
प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री मुकेश राठौर जी , खरगोन के प्रश्नों के उत्तर । )
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 67 ☆
☆ आमने-सामने – 3 ☆
श्री मुकेश राठौर (खरगौन) –
प्रश्न-१
आप परसाई जी की नगरी से आते है| परसाई जी ने अपनी व्यंग्य रचनाओं में तत्कालीन राजनेताओं,राजनैतिक दलों और जातिसूचक शब्दों का भरपूर उपयोग किया | क्या आज व्यंग्यलेखक के लिए यह सम्भव है या फ़िर कोई बीच का रास्ता है ?ऐसा तब जबकि रचना की डिमांड हो सीधे-सीधे किसी राजनैतिक दल,राजनेता या जाति विशेष के नामोल्लेख की|
प्रश्न- २
कथा के माध्यम से किसी सामाजिक, / नैतिक विसंगति की परतें उधेड़ना। बग़ैर पंच, विट, ह्यूमर के |ऐसी रचना कथा मानी जायेगी या व्यंग्य?
जय प्रकाश पाण्डेय १ –
मुकेश भाई, व्यंग्य लेखन जोखिम भरा गंभीर कर्म है, व्यंग्य बाबा कहता है जो घर फूंके आपनो, चले हमारे संग। व्यंग्य लेखन में सुविधाजनक रास्तों की कल्पना भी नहीं करना चाहिए, लेखक के लिखने के पीछे समाज की बेहतरी का उद्देश्य रहता है। परसाई जी जन-जीवन के संघर्ष से जुड़े रहे,लेखन से जीवन भर पेट पालते रहे,सच सच लिखकर टांग तुड़वाई,पर समझौते नहीं किए, बिलकुल डरे नहीं। पिटने के बाद उन्हें खूब लोकप्रियता मिली, उनकी व्यंग्य लिखने की दृष्टि और बढ़ी।लेखन के चक्कर में अनेक नौकरी गंवाई। व्यंंग्य तो उन्हीं पर किया जाएगा जो समाज में झूठ, पाखंड,अन्याय, भ्रष्टाचार फैलाते हैं, व्यंग्यकार तटस्थ तो नहीं रहेगा न, जो जीवन से तटस्थ है वह व्यंंग्यकार नहीं ‘जोकर’ है। यदि आज का व्यंग्य लेखक तत्कालीन भ्रष्ट अफसर या नेता या दल का नाम लेने में डरता है तो वह अपने साथ अन्याय करता है। आपने अपने सवाल में अन्य कोई बीच के रास्ते निकाले जाने की बात की है, तो उसके लिए मुकेश भाई ऐसा है कि यदि ज्यादा डर लग रहा है तो उस अफसर या नेता की प्रवृत्ति से मिलते-जुलते प्रतीक या बिम्बों का सहारा लीजिए, ताकि पाठक को पढ़ते समय समझ आ जाए। जैसे आप अपने व्यंग्य में सफेद दाढ़ी वाला पात्र लाते हैं तो पाठक को अच्छे दिन भी याद आ सकते हैं।पर आपके कहने का ढंग ऐसा हो, कि ऐसी स्थिति न आया…….
रहिमन जिव्हा बावरी, कह गई सरग-पताल।
आप तो कह भीतर गई, जूती खात कपाल।
जय प्रकाश पाण्डेय – २
मुकेश जी, व्यंग्य वस्तुत:कथन की प्रकृति है कथ्य की नहीं।कथ्य तो हर रचना की आकृति देने के लिए आ जाता है। आपके प्रश्न के अनुसार यदि कथा के ऊपर कथन की प्रकृति मंडराएंगी तो वह व्यंग्यात्मक कथा का रुप ले लेगी।
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “सॉरी का चलन ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 39 – सॉरी का चलन ☆
कुछ लोगों को ये शब्द इतना पसंद आता है, कि वे कामचोरी करने के बाद इसका प्रयोग यत्र-तत्र करते नजर आ जाते हैं। उम्मीदों की गठरी थामकर जब कोई चल पड़ता है, तो सबसे पहले इसी शब्द से उसका पाला पड़ता है। जिसकी ओर भी उम्मीद की नज़र से देखो वो अपना पल्ला झाड़कर,आगे बढ़ जाता है। अब क्या किया जाए कार्य तो निर्धारित समय पर करना ही है, सो बढ़ते चलो, जो मेहनती है, वो अवश्य ही अपने उदेश्य में सफल होगा ।
क्षमा कीजिए का स्थान सॉरी शब्द ने तेजी के साथ हड़प लिया है। सनातन काल से ही क्षमा को वीरों का अस्त्र व आभूषण कहा जाता रहा है। इसका प्रयोग कमजोर लोग नहीं कर पाते हैं, वे क्रोधाग्नि में आजीवन जलकर रह सकते हैं किंतु अपना हृदय विशाल कर किसी को माफ नहीं कर सकते। जैन धर्म में तो क्षमा पर्व का आयोजन किया जाता है। जिसमें वे एक दूसरे से हाथों को जोड़कर अपनी जानी – अनजानी गलतियों के प्रति प्रायश्चित करते हुए दिखते हैं।
अच्छा ही है, अपनी पुरानी भूलों को भूलकर आगे बढ़ना ही तो सफल जिंदगी का पहला उसूल होता है। पापों को धोने की परंपरा तो अनादिकाल से चली आ रही है। पवित्र नदियों में डुबकी लगाकर हम यही तो करते चले आ रहे हैं।
क्षमा की बात हो और महात्मा गांधी जी का नाम न आये ये तो बिल्कुल उचित नहीं है। जिनका मन सच्चा होता है वे किसी के प्रति भी कोई दुराग्रह नहीं रखते हैं। हो सकता है किसी व्यस्तता के चलते आज उन्होंने सॉरी कहा हो पर जैसे ही अच्छे दिनों की दस्तक होगी अवश्य ही हाँ कहेंगे, “अरे भई मेरी ओर भी निहारा कीजिए, हम भी लाइन में खड़े होकर कब से दस्तक दे रहे हैं।”
समय पर समय का साथ भले ही छूट जाए पर ये शब्द कभी नहीं छूटना चाहिए। आज वो सॉरी कह रहे हैं कल सफ़लता हासिल करने के बाद आप भी इसे बोल सकते हैं। जिस तरह ब्रह्मांड में ऊर्जा घूमती रहती है, कभी नष्ट नहीं होती, ठीक वैसे ही ये शब्द व्यक्ति, स्थान, भाव, उदेश्य को बदलता हुआ इस मुख से उस मुख तक चहलकदमी करता रहता है। लोगों को तो अब इसका अभ्यास हो चुका है। बात- बात पर सॉरी कहा औरआगे बढ़ चले।
बस कहते – सुनते हुए आगे बढ़ते रहें यही हम सबका मुख्य लक्ष्य होना चाहिए।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है ।
आज से प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत आमने -सामने शीर्षक से आप सवाल सुप्रसिद्ध व्यंग्यकारों के और जवाब श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के पढ़ सकेंगे। इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ ललित लालित्य जी के प्रश्नों के उत्तर । )
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 67 ☆
☆ आमने-सामने – 2 ☆
डॉ ललित लालित्य (दिल्ली)
1- पांडेय जी आप चुपचाप काम करने वाले व्यंग्यकार हैं जबकि आपके जूनियर कहाँ से कहाँ पहुँच गए ।
2- क्या आप मानते है कि व्यंग्यकार को ईमानदार होना चाहिए,चुगलखोर या ईर्ष्यालु नहीं ?
3- क्या जीते जी व्यंग्यकार मंदिर बनवा कर पूजे जाएं यह कहाँ की भलमान्सियत है ?
जय प्रकाश पाण्डेय –
1- सर जी, लेखन में कोई जूनियर, सीनियर या वरिष्ठ, कनिष्ठ या गरिष्ठ नहीं होता, ऐसा हमारा मानना है। ईमानदारी और दिल से जितना कुछ संभव हो, वही संतुष्टि देता है। यदि कोई कहां से कहां पहुंच भी गया तो खुशी की बात है, उसकी प्रतिभा उसका अध्ययन उसे और ऊपर ले जाएगा।
2- ईमानदार और दीन-दुखी जन जन के साथ खड़ा लेखक ही असली व्यंंग्यकार कहलाने का हकदार है, जैसे आप हर दिन आम आदमी की दैनिक जीवन में आने वाली विसंगतियों और पाखंड पर रोज लिखकर आम आदमी के साथ खड़े दिखते हो। समाज की बेहतरी के लिए व्यंंग्यकार की ईमानदार कोशिश होनी चाहिए, ईमानदार प्रयास ही इतिहास में दर्ज होते हैं, फोटो और बोल्ड लेटर के नाम पानी के बुलबुले हैं। भाई,व्यंंग्यकार ही तो है जो जुगलखोरी और ईर्षालुओं के विरोध में लिखकर उनके चरित्र में बदलाव की कोशिश करता है।
3- ऐसे लोगों को तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए जो आत्म प्रचार और आत्ममुग्धता के नशे में जीते जी मंदिर बनवाने की कल्पना करते हैं। ऐसे लेखक के अंदर खोट होती है, वे अंदर से अपने प्रति भी ईमानदार नहीं होते, जो लोग ऐसे लोगों के मंदिर बनवाने में सहयोग देते हैं वे भी साहित्य के पापी कहलाने के हकदार हो सकते हैं।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर व्यंग्य रचना ‘साहित्यिक किसिम के दोस्त’। इस सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 70 ☆
☆ व्यंग्य – साहित्यिक किसिम के दोस्त ☆
सबेरे सात बजे फोन घर्राता है। आधी नींद में उठाता हूँ।
‘हेलो।’
‘हेलो नमस्कार। पहचाना?’
‘नहीं पहचाना।’
‘हाँ भई, आप भला क्यों पहचानोगे! एक हमीं हैं जो सबेरे सबेरे भगवान की जगह आपका नाम रट रहे हैं।’
‘हें, हें, माफ करें। कृपया इस मधुर वाणी के धारक का नाम बताएं।’
‘मैं धूमकेतु, दिल्ली का छोटा सा कवि। अब याद आया? सन पाँच में लखनऊ के सम्मेलन में मिले थे।’
याद तो नहीं आया,लेकिन शिष्टतावश वाणी में उत्साह भरकर बोला,’अरे, आप हैं? खू़ब याद आया। वाह वाह। कहाँ से बोल रहे हैं?’
‘यहीं ठेठ आपकी नगरी से बोल रहा हूँ।’
‘कैसे पधारना हुआ?’
‘विश्वविद्यालय ने बुलाया था एक कार्यशाला में।’
‘वाह! मेरा फोन नंबर कहाँ से मिला?’
‘अब यह सब छोड़िए। जहाँ चाह वहाँ राह। हमें आपसे मुहब्बत है, इसीलिए हमने हाथ-पाँव मारकर प्राप्त कर लिया।’
‘वाह वाह! क्या बात है!तो फिर?’
‘तो फिर, भई, यहाँ तक आकर आपसे मिले बिना थोड़इ जाएंगे। आपके लिए पलकें बिछाये बैठे हैं।’
मुझे खाँसी आ गयी। गला साफ करके बोला,’कहाँ रुके हैं?’
‘यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में। कमरा नंबर 15 ।’
‘ठीक है। मैं आता हूँ।’
‘ऐसा करें। शाम को कहीं बैठ लेते हैं। शहर के चार छः साहित्यिक मित्रों को बुला लें। परिचय हो जाएगा और चर्चा भी हो जाएगी। एक दो पत्रकारों को भी बुला लें तो और बढ़िया। आकाशवाणी वाले आ जाएं तो सोने में सुहागा। इतनी व्यवस्था कर लें तो मेरा आपके नगर में आना सार्थक हो जाए। मैं शाम छः बजे के बाद आपका इंतजार करूँगा। जैसे ही आप आएंगे, मैं चल पड़ूँगा।’
मैं चिन्ता में पड़ गया। कहा,’ठीक है, मैं कोशिश करता हूँ।’
‘अजी, कोशिश क्या करना! आप फोन कर देंगे तो शहर के सारे साहित्यकार दौड़े आएंगे। आपकी कूवत को जैसे मैं जानता नहीं। आप के लिए क्या मुश्किल है? तो फिर मैं शाम को आपका इंतजार करूँगा।’
‘ठीक है।’
मैंने फोन रखकर पहले अपने संकोची स्वभाव को जी भरकर कोसा, फिर अपने दिमाग़ को दबा दबा कर उसमें से धूमकेतु जी को पैदा करने की कोशिश में लग गया। बड़ी जद्दोजहद के बाद एक झोलाधारी कवि की याद आयी जो लखनऊ सम्मेलन में सब तरफ घूमते और खास लोगों को अपना कविता-संग्रह बाँटते दिखते थे। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो भारी से भारी सम्मेलन में भी अपने तक ही कैद रहते हैं—अपनी चर्चा, अपनी प्रशंसा, अपनी कविता। धूमकेतु जी भी पूरी तरह आत्मप्रचार में लगे थे। तभी उनसे संक्षिप्त परिचय हुआ था। फिर दिल्ली के अखबारों में कभी कभी उनकी कविताएँ देखी थीं।
मैं फँस गया था। आयोजन-अभिनन्दन के मामले में मैं बिलकुल फिसड्डी हूँ और शायद इसीलिए अब तक लोगों ने मुझे अभिनन्दन के लायक नहीं समझा।
लेकिन साहित्य के क्षेत्र में संभावनाओं की कमी नहीं है। बहुत से साहित्यकर्मी चन्दन-अभिनन्दन को ही असली साहित्य समझते हैं। इसलिए मैंने एक स्थानीय स्तर के साहित्यकार ज्ञानेन्द्र को इन्तज़ाम का सारा भार सौंप दिया और उन्होंने सहर्ष कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार भी कर लिया। उन्होंने एक सांध्यकालीन अखबार के प्रतिनिधि को भी खानापूरी के लिए पकड़ लिया। मैं निश्चिंत हुआ।
शाम को धूमकेतु जी की सेवा में उपस्थित हुआ तो उन्होंने दोनों बाँहें फैलाकर मुझे भींच लिया। फिर अपना बाहुपाश ढीला करके बोले, ’हमारे प्यार की कशिश देखी? हमने आपको ढूँढ़ ही निकाला। वो जो चाहनेवाले हैं तेरे सनम, तुझे ढूँढ़ ही लेंगे कहीं न कहीं।’
हमने उनके मुहब्बत के जज़्बे की दाद दी, फिर उन्हें कार्यक्रम की तैयारी की रिपोर्ट दी। वे प्रसन्न हुए, बोले, ’स्थानीय लोगों से मेल-मुलाकात न हो तो कहीं जाने का क्या फायदा?’
मैं उन्हें स्कूटर पर लेकर रवाना हुआ। कार्यक्रम-स्थल पर आठ दस भले लोग आ गये थे। हर शहर में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो हर साहित्यिक कार्यक्रम की शोभा होते हैं। कार्यक्रम के आयोजक उन्हें याद करना कभी नहीं भूलते। वे हर कार्यक्रम को संभालने वाले स्तंभ होते हैं। उड़ती हुई सूचना भी उनके लिए पर्याप्त होती है। ऐसे ही तीन चार रत्न इस कार्यक्रम में भी डट गये थे।
कार्यक्रम बढ़िया संपन्न हुआ। ज्ञानेन्द्र ने धूमकेतु जी को कोने में ले जाकर उनका बायोडाटा लिख लिया था। धूमकेतु जी ने मुहल्ला-स्तर से लेकर अपनी सारी उपलब्धियों का विस्तृत ब्यौरा लिखा दिया था। उनको गुलदस्ता भेंट करने के बाद उनका परिचय हुआ और फिर आज की कविता पर उनका वक्तव्य हुआ। फिर जनता की फरमाइश पर उन्होंने अपनी पाँच छः कविताएं सुनायीं जिन पर हमने शिष्टतावश भरपूर दाद दी। फिर कुछ श्रोताओं ने हस्बमामूल उनके कृतित्व के बारे में कुछ सवाल पूछे और इस तरह कार्यक्रम सफलतापूर्वक मुकम्मल हो गया। धूमकेतु जी गदगद थे। विदा होते वक्त एक बार फिर मुझे भींचकर उन्होंने इज़हारे-मुहब्बत किया। जाते वक्त हाथ हिलाकर बोले, ’स्नेह-भाव बनाये रखिएगा।’
पाँच छः माह बाद दिल्ली जाने का सुयोग बना। पहुँचकर मैंने उमंग से धूमकेतु जी को फोन लगाया। उधर से उनकी आवाज़ आयी,’हेलो।’
मैंने कहा,’मैं सूर्यकान्त। जबलपुर वाला।’
वे स्वर में प्रसन्नता भर कर बोले,’अच्छा,अच्छा। कहाँ से बोल रहे हैं?’
मैंने कहा, ’दिल्ली से ही। काम से आया था।’
वे बोले, ’वाह! बहुत बढ़िया! तो कब मिल रहे हैं?’
मैंने कहा, ’जब आप कहें। मैंने तो पहुँचते ही आपको फोन लगाया।’
वे जैसे कुछ उधेड़बुन में लग गये। थोड़ा रुककर बोले,’अभी तो मैं थोड़ा काम से निकल रहा हूँ। आप शाम चार बजे फोन लगाएं। मैं आपको बता दूँगा।’
मेरा उत्साह कुछ फीका पड़ गया। चार बजे फिर फोन लगाया। उधर से धूमकेतु जी की आवाज़ आयी,’हेलो।’
मैंने कहा,’मैं सूर्यकान्त।’
आवाज़ बोली, ’मैं धूमकेतु जी का बेटा बोल रहा हूँ। पिताजी एक साहित्यिक कार्य से अचानक बाहर चले गये हैं।’
मैंने कहा,’लेकिन यह आवाज़ तो धूमकेतु जी की है।’
जवाब मिला,’धूमकेतु जी की नहीं, धूमकेतु जी जैसी है। हम पिता पुत्र की आवाज़ एक जैसी है। कई लोग धोखा खा जाते हैं।’
मैंने पूछा,’कब तक लौटेंगे?
आवाज़ ने पूछा,’आप कब तक रुकेंगे?’
मैंने कहा,’मैं परसों वापस जाऊँगा।’
आवाज़ ने कहा,’वे परसों के बाद ही आ पाएंगे। प्रणाम।’
उधर से फोन रख दिया गया। मैं खासा मायूस हुआ।
जबलपुर वापस पहुँचा कि दूसरे ही दिन धूमकेतु जी का फोन आ गया—‘क्यों भाई साहब! दिल्ली आये और बिना मिले लौट गये? ऐसी भी क्या बेरुखी।’
मैंने कहा,’आपसे मिलना भाग्य में नहीं था, इसीलिए तो आप बाहर चले गये थे।’
वे बोले,’चले गये थे तो आप एकाध दिन हमारी खातिर रुक नहीं सकते थे? कैसी मुहब्बत है आपकी?’
मैंने कहा,’हाँ, लगता है हमारी मुहब्बत में कुछ खोट है।’
वे दुखी स्वर में बोले,’हमने सोचा था कि आपके सम्मान में छोटी मोटी गोष्ठी कर लेते। कुछ आपकी सुनते, कुछ अपनी सुनाते।’
मैंने कहा,’क्या बताऊँ! मुझे खुद अफसोस है।’
वे बोले,’खैर छोड़िए। वादा कीजिए कि अगली बार दिल्ली आएंगे तो मिले बिना वापस नहीं जाएंगे।’
मैंने कहा,’पक्का वादा है,भाई साहब। आपसे मिले बिना नहीं लौटूँगा। आप दुखी न हों।
(ई- अभिव्यक्ति में प्रसिद्ध साहित्यकार श्री बसंत कुमार शर्मा जी का हार्दिक स्वागत है।आप वर्तमान में वरिष्ठ मंडल वाणिज्य प्रबंधक, जबलपुर मंडल, पश्चिम मध्य रेल हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आज प्रस्तुत है आपकी एक व्यंग्य रचना “वजन नहीं है”।)
प्रिय लेखन विधाएँ – गीत, नवगीत, दोहा, ग़ज़ल, व्यंग्य, लघुकथा
प्रकाशन – विभिन्न साझा संकलनों एवं पत्र/पत्रिकाओं में दोहा, गीत, नवगीत, ग़ज़ल, व्यंग्य, लघुकथा आदि का सतत प्रकाशन
पुस्तक प्रकाशन – बुधिया लेता टोह – गीत नवगीत संग्रह – 2019 – काव्या प्रकाशन, दिल्ली
☆ व्यंग्य – वजन नहीं है ☆
हमें नया नया कवितायें लिखने का शौक लगा, जैसे तैसे तुकबंदी कर हमने एक गजल लिखी और हमने अपने परम मित्र को सुनाई, और कोई शायद सुनने को तैयार न होता, तो वे बोले कि गजल तो ठीक है लेकिन मतले यानी गजल के पहले शेर में वजन नहीं है. लोग शायर के वजन के साथ साथ हर शेर में भी वजन ढूंढते रहते हैं. मैं सोचता हूँ कि शेर में वजन की क्या जरूरत, अगर वजन की जरूरत होती तो शायर शेर का नाम शेर न रखकर हाथी रख लेते. हाथी तो काफी वजनदार होता है. मुझे एक चुटुकला याद आता है जिसके लेखक का नाम मुझे ज्ञात नहीं, चुटुकलों के लेखक अधिकतर अज्ञात ही होते हैं,जिसे बचपन में कभी सुना था, आप भी सुन लीजिये “एक बार एक कवि सम्मलेन चल रहा था जिसमें एक नौसिखिये कवि को काव्य पाठ करने को अचानक कह दिया, उन नए कवि को को तो कुछ आता ही नहीं था, उन्होंने कहा भी कि श्रीमान मुझे कुछ नहीं आता, लेकिन वरिष्ठ कविगण कहाँ मानने वाले उन्होंने कहा नहीं भाई एक शेर तो बनता है, तो मायूसी से नव कवि उठ कर खड़ा हुआ और बोला “मुम्बई से दिल्ली तक….., दिल्ली से मुंबई तक….” एक श्रोता बीच में चिल्लाया “गुरू शेर में वजन नहीं है”. यह सुनकर कवि जो हूट होने की कगार पर खड़ा था, बोला “बैठ जाओ भाई, बैठ जाओ, रफ़्तार नहीं दिख रही तुम्हें, हमेशा वजन नहीं देखना चाहिए, कभी कभी रफ़्तार भी देख लिया करो”. खैर अब हम पूरी कोशिश कर रहे हैं, शायरी या कविता जो भी कह लो उसमें रफ़्तार के साथ साथ पर्याप्त वजन भी हो.
बचपन में हम सरकंडे जैसे दुबले पतले थे, माँ कहती रहती थी कि दूध, दही, घी और माखन खाओ जिससे तुम्हारा वजन थोड़ा सा बढ़ जाये, बचपन में तो वजन बढ़ नहीं पाया लेकिन आजकल जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है, वजन भी बढ़ रहा है. ज्यादातर लोगो के साथ ऐसा ही होता है. एक बार हमें सर्दी जुकाम हुआ, हम डॉक्टर साहिबा के पास गए, हमारी श्रीमती जी साथ में ही थीं. श्रीमती जी ने डॉक्टर साहिबा को ये भी बता दिया कि इनका वजन अचानक से 8-10 किलो कम हो गया है और वो भी एक हफ्ते में. डॉक्टर साहिबा ने खतरे को भांपते हुए तुरंत हमारा थाइराइड टेस्ट करवा दिया, पता चला कि हमें वजन कम करने वाला थाइराइड हो गया है. थाइराइड की बीमारी भी अजीब है जो वजन बढ़ाना चाहता है उसका कम और जो कम करना चाहता है उसका बढ़ा देती है, याने ज्यादातर उल्टे ही काम करती है. यह भी अधिकतर देखा गया है कि श्रीमती जी को वजन बढ़ाने वाला थाइराइड होता है और श्रीमान जी को वजन कम करने वाला. दोनों आपस में चाह कर भी इसे बदल नहीं सकते. हमने सोचा हो सकता इसी कारण से हमारी शायरी में वजन नहीं आ पा रहा था. खैर डॉक्टर साहिबा और ऊपर वाले की दुआओं से अब सब कुछ नियंत्रण में आ गया है, कम से कम कुछ लोग तो यह कहने लगे हैं कि आपकी शायरी में थोड़ा वजन आ गया है, यानी दमदार हो रही है. हमारा वजन कम होना भी रुक गया है. उन सभी मित्रों का शुक्रिया कि जिन्होंने कठिन समय में हमारा साथ दिया, जिन्होंने नहीं दिया उनका भी शुक्रिया. पुरानी कहावत है जो दे उसका भला जो न दे उसका भी भला.
हलकी चीजें आसानी से चल सकती हैं, दौड़ सकती हैं, उड़ सकतीं हैं. भारी चीजों को ज्यादा ताकत लगानी पड़ती है. लेकिन साहब सरकारी कार्यालयों में तो उल्टा ही होता है, फाइल पर वजन न हो तो आगे चलना तो दूर, खिसकती भी नहीं. सभी तरह के आवेदन हवा में ही उड़ जाते हैं और रद्दी की टोकरी में विराजमान होकर अपनी सद्गति को प्राप्त होते हैं. ये अलग बात हैं कि सरकार आवेदनों को उड़ने से बचने के लिए पेपरवेट खरीदने पर भी बजट का कुछ हिस्सा खर्च करती है, लेकिन सरकारी लोग, कभी कभी उनका इस्तेमाल टेबल पर गोल-गोल घुमाकर फिरकी का आनंद लेते हुए दिख जाते हैं.
एक और बात आजकल देखने में आती है कि नेताओं के भाषणों में एक आध बात पसंद आ जाती है तो खुसुर पुसुर होने लगती है कि नेताजी की इस बात में तो कुछ वजन है, इसी वजन के आधार पर कुछ वोटों का जुगाड़ हो जाता है और उन्हें चुनाव में जीत हासिल हो जाते है, हालांकि उनका वह थोड़ा सा वजन भी, ज्यादातर भाषण तक ही सीमित रह जाता है. चुनाव के बाद सारे नेता और उनके चमचे ही क्रमश: वजनदार होते चले जाते हैं. जनता क्रमश: और भी दुबली होती चली जाती है, फिर हवा में यहाँ से वहाँ रद्दी कागज़ की तरह उड़ती रहती है. आप को कुछ भी करवाना हो तो वजनदार होना या साथ में वजनदार की सिफारिश होना या वजनदार लिफाफा होना जरूरी है. यह वजन कुछ खास लोगों के पास ही होता है, बाकी तो राम ही राखे.
जब लोग अपने बेटे के लिए दुल्हन तलाशने निकलते हैं तो उन्हें दुल्हन वजन में कम और दहेज़ वजन में ज्यादा चाहिए होता है. शादी होकर नई बहू जब घर में आती है, तो घर की वजनदार महिलायें दहेज़ में मिले या उपहार में आये गहनों को हाथ में ले उन्हें उछाल उछाल कर वजन का अनुमान लगाने और यह पता लगाने का प्रयास करते हुए देखी जा सकतीं हैं कि वजनदार रिश्तेदारों, मित्रों और शुभचिन्तकों ने अपने वजन के हिसाब से गहने दिए हैं कि नहीं. उपरोक्तानुसार वजन के हिसाब से ही फिर बहू को ससुराल में इज्जत प्रदान की जाती है. जो दुलहन वजनी दहेज़ के साथ ससुराल नहीं आती कभी कभी समय से पूर्व ही भगवान को प्यारी हो जाती हैं.
अमीरों और गरीबों के वजन के शौक भी अलग अलग किस्म के होते हैं.यहाँ पर मैं शरीर के वजन की बात कर रहा हूँ. जिनके शरीर का वजन ज्यादा होता है उन्हें हर कोई कुतूहल की दृष्टि से देखता है, रिक्शा, टैक्सी, बसों और खासकर कहीं लाइन में लगे भारी आदमी को मुसीबत का सामना करना पड़ता है, यदि वो महिला हुई तो उसकी परेशानी और विकराल रूप धारण कर लेती है. जहाँ अमीर अपना वजन कम करने के लिए महँगे-मंहगे जिम या घर पर विशिष्ट किस्म के उपकरणों का इस्तेमाल कर अपना वजन कम करने का प्रयास करते रहते हैं,कुछ अति उत्साही लोग आजकल वजन कम करने के लिए ऑपरेशन भी करवाने लगे हैं.उनका वजन कम होता हो या न होता हो, उनका धन अवश्य कम हो जाता है. वहीँ गरीब लोग पेट में दो रोटी का वजन डालने के लिए धूप में मेहनत कर दो रोटी के वजन के बराबर पसीना निकाल देता है और साथ में गाली खाता है सो अलग. अंतत: अमीर और गरीब दोनों ही अपने अपने प्रयासों में असफल होते है. न अमीर का वजन कम होता है न गरीब का बढ़ता है. प्रभु की लीला अपरम्पार, पाया नहीं किसी ने पार.