हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 15 – गांव नहीं जाना बापू …….☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  “व्यंग्य  –गांव नहीं जाना बापू…..” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 15 ☆

 

व्यंग्य – गांव नहीं जाना बापू ….. 

 

जैसई गंगू खुले में शौच कर लोटे का पानी खाली कर रहा था कि उधर से आते एक परिक्रमावासी बाबा दिख गये, गंगू ने जल्दी जल्दी पजामे का नाड़ा बांधा और हर हर नरमदे कह के बाबा को सलाम ठोंक दिया। परिक्रमावासी हाथ में टेकने की लाठी लिए थे, सफेद गंदी सी चादर ओढ़े और गोल-गोल चश्मा लगाए गंगू से गांव का नाम पूछने लगे। गंगू के बार बार बाबा – बाबा कहने पर वे चिढ़ गए बोले – मुझे बाबा मत कहो मेरा नाम “बापू” है….. इन दिनों दोनों राजनीतिक पार्टी के नेता खूब मंदिरों के दर्शन कर रहे हैं और नर्मदा की परिक्रमा करके राजनीति कर रहे हैं इसलिए मैं भी नर्मदा परिक्रमा के बहाने गांवों के हालात देखने निकला हूँ….. चलो तुम्हारे गांव में कुछ चाय-पानी की हो जाए।

गंगू बापू को लेकर गांव की तरफ चल पड़ा…प्रकृति की सुरम्य वादियों के बीच बैगा बाहुल्य गांव टेकरी में बसा है, पड़ोस में कल – कल बहती पुण्य पुण्य सलिला नर्मदा और चारों ओर ऊंची ऊंची हरी – भरी पहाड़ियों से घिरा गांव पर्यटन स्थल की तरह लग रहा था। रास्ते में गंगू ने बताया – बहुत गरीबी, लाचारी बेरोजगारी और बिना पढ़े लिखे लोगों के इस गांव को सांसद जी ने गोद लिया है गोद लिये तीन साल से हो गए…..?   बापू ने पूछा – सांसद जी कभी तुम्हारे गांव आते हैं?

गंगू ने बताया – दरअसल मंत्री बन जाने से वे बेचारे ज्यादा व्यस्त हो गए तो तीन चार साल से नहीं आ पाए हैं पर जब चुनाव होता है तो थोड़ी देर के लिए हाथ जोड़ने ज़रूर आते हैं।

गंगू को चुहलबाजी में थोड़ा मजा आता है पूछने लगा – बाबा जी, सांसद जी ने अचानक ये गांव क्यों गोद ले लिया जबकि वे तो 30-40 साल से इस एरिया के सांसद हैं ?     बापू फिर नाराज हो गए बोले – तुम से कहा न…. कि बाबा नाम से हमें चिढ़ हो गई है फिर भी तुम बार – बार बाबा – – बाबा कह के चिढ़ाते हो….. हमारा नाम  “बापू” है…

तो सुनो अब तुम्हें विस्तार से बताता हूँ. एक मोहनदास करमचंद गांधी थे उन्होंने ग्राम स्वराज की कल्पना की थी उस गांधी ने चाहा था कि गांव गणतंत्र के लघु रूप हैं इसलिए गांव के गणतंत्र पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की इमारत खड़ी की जाए, अब जे ईवेंट छाप प्रधानमंत्री ने कुछ नया करने के चक्कर में सभी सांसदों को एक – एक गांव विकास के लिए पकड़ा दिया। गांव गोद लो और आदर्श ग्राम बनाओ नही तो बिस्तर लेकर घर जाओ….. अंतरआत्मा से कोई सांसद इस लफड़े में पड़ना नहीं चाहता था तो बिना मन के सांसदों ने गांव गोद ले लिया कई ने तो ऐसा गांव गोद लिया जहां कोई पहुंच न पाए, हालांकि सब जानते हैं कि दिल्ली से गरीबों के उद्धार के लिए चलने वाली योजनाएं नाम तो प्रधानमंत्री का ढोतीं हैं मगर गांव के सरपंच के घर पहुंचते ही अपना बोझा उतार देतीं हैं……… ।

बापू की सब बातें गंगू के सर के ऊपर से निकल रही थीं। गंगू बोल पड़ा – बापू ये आदर्श ग्राम क्या होता है ?

तब बापू ने बताया कि आदर्श ग्राम योजना के अंतर्गत ग्राम के वैयक्तिक, मानवीय, आर्थिक एवं सामाजिक विकास की निरंतर प्रक्रिया चलती है। वैयक्तिक विकास के तहत साफ-सफाई की आदत का विकास, दैनिक व्यायाम, रोज नहाना – धोना और दांत साफ करने की आदतों की सीख दी जानी चाहिए, गांव में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं, स्मार्ट स्कूल में पढ़ाई – लिखाई, सामाजिक विकास के तहत गांव भर के लोगों में विकास के प्रति गर्व और आर्थिक विकास के तहत बीज बैंक, मवेशी हास्टल और खेती – बाड़ी का विकास होना चाहिए….. और बताऊँ कि बस…… ।

गंगू को लगा ये बापू बड़ी ऊंची ऊंची बातें कर रहा है … परिक्रमावासी बाबा जैसा तो लग नहीं रहा है ? फिर….. अरे अभी दो साल पहले गांव में एक परिक्रमावासी बाबा आये थे तो गाँव भर के लड़कों को गांजा – भांग, दारू सिखा गये थे और गांव की अधिकांश नयी उमर की लड़कियों को निकास के भाग गए थे। पर ये बाबा अपने को बापू – बापू कहके बड़ी बड़ी बातें कर रहा है कहीं कोई खोट तो नहीं है ये परिक्रमावासी में…………

गंगू अंदर से थोड़ा डर सा गया पर बापू के कहने पर गांव में बापू के रुकने की जगह तलाशने लगा, पता चला कि पंचायत भवन में सरपंचन बाई की गैया बियानी है तो रुकने के लिए पंचायत भवन में जगह नहीं मिलेगी, हार कर गंगू ने तय किया कि अपने घर की परछी में बापू को सोने की जगह दे दी जाएगी…… घरवाली को पहले से ही हिदायत दे देंगे कि वो बाबा – आबा के चक्कर में पैर – वैर पड़ने बाहर न आये क्योंकि आजकल अधिकांश बाबा लोगों का कोई ठिकाना नहीं है।

जगह तलाशते – तलाशते हारकर गंगू ने बापू से कहा कि गांव में रुकने के लिए कहीं जगह तो है नहीं….. तो एक दिन की बात है बापू हमारे टूटे घर की परछी में रह लेना, पर बापू सच्ची सच्ची बताएं कि आपकी ये ऊंची ऊंची बेसुरी बातें हमारे समझ के बाहर हैं… काहे से कि हमारे गांव में न तो आज तक बिजली लगी, न सड़क बनीं, एक ठो धूल – धूसरित मदरसा जरूर है जिसमें नाक बहाते बिना चड्डी पहने बच्चे पढ़ने को कभी-कभी जाते हैं मास्टर कभी-कभी आता है छड़ी लेकर…. ।

एक  बार जिले से एक बाई बड़ी सी कार में आयी रही तो कह गई थी कि गांव का सिर्फ़ विकास ही विकास होना है इसलिए  तहसील जाकर सब लोग विकास से परिचय कर लेवें। जनधन योजना में खाते खुलवा लें। मजाक सी कर रही थी वो। बैंक यहां से 30-40 किमी दूर हैं कछु कयोस-अयोस का नाम ले रही थी तो वो भी 15-20  किमी दूर सड़क के किनारे खुलो है। गाँव भर में साल भर बीमारी पसरी रहती है, डॉक्टर तो कभी आओ नहीं इस तरफ। जिले वाली बाई जरूर कह गई थी कि गांव में हर हफ्ते डाक्टर आके जांच-पड़ताल करेगा और दवाईयां देगा, पर सालो जे गांव ऐसी जगह बसो है कि कोई आन नहीं चाहत। एक हैंडपंप खुदो तो वा में पानी नहीं निकलो। जिले वाली बाई कह रही थी कि घर -घर में नल लगा देहें…. पर बापू वो दिना के बाद वो बाई का भी कोई अता-पता नहीं मिलो……

बापू सुनके सुन्न पड़ गये, काटो तो खून नहीं।

बापू बोले – गंगू…. तुम गांधी जी को जानते हो क्या ? अरे वोई गांधी जिसकी फोटो नोट में छपी रहती है और नोट के पीछे से चश्मे में एक आंख से स्वच्छ देखता है और दूसरी आंख से भारत देख देख के मजाक करता है,   अरे वोई गांधी जिसका नाम ले-लेकर सब नेता लोग अपने अपने बंगले और बड़ी मोटर का जुगाड़ करते हैं और गांव के विकास का पैसा, गरीब के उद्धार का पैसा हजम करके बड़े बड़े पेट बढ़ा लेते हैं……। रोजई – रोज तो गांधी को गोली मारी जाती जाती है।

बापू गांव की उबड़ – खाबड़ गली से गुजरते हुए गंगू के पेट में हवा भरते चल रहे थे, गली में किसी बच्चे के पढ़ने और होमवर्क रटने की आवाज आ रही है.. “मां खादी की चादर ले दे…….. मैं गांधी बन जाऊँ”…… ।

गंगू का घर आ गया था, बापू अंगना में बैठ गए थे,

सरपंच पति वहां से निकले तो गंगू दौड़ के सरपंच पति के कान में खुसरफुसर करते हुए कहने लगा कि खेत में फारिग होने गए थे तो जे परिक्रमावासी टकरा गया, ऊंची ऊंची बात करता है… कहता है मुझे बाबा मत कहो मेरा नाम “बापू” है….. नोट में जो एक डोकरा छपा दिखता है कुछ कुछ उसी के जैसे दिखता है……. और पूंछ रहा था कि गांव में कोई गांधी जी को जानता है कि नहीं……..

सरपंच पति हर हर नरमदे कहते हुए अंगना में बैठ गए। गंगू ने बापू को बताया – जे गांव के सरपंच पति हैं और इनका नाम भी  बापू बैगा है। एक बापू दूसरे बापू को देखकर ऐसे मुस्कराये जैसे पुरानी पहचान हो फिर  बापू बोले – यार सरपंच पति, तुम्हारे गांव में मोबाइल का सिग्नल नहीं मिल रहा है तुम्हारा गांव तो डिजीटल इंडिया को ठेंगा दिखा रहा है।  सरपंच पति ने कहा – बाबा जी, बात जे है कि इस गांव से 20-25 किमी के घेरे में सिग्नल नहीं है गांव के पास एक ऊंची पहाड़ी के ऊपर एक पेड़ में चढ़ने पर मोबाइल के लहराते संकेत कभी कभी मिलते हैं जैई कारण से यहां कयोस-अयोस बैंक नहीं खुल पाई। जनधन खाता के दस बीस खाता खुले थे बैंक वाले पैसा ले गए रसीद भी नहीं दई पासबुक तो दईच नहीं। फसल बीमा के नाम का भी पैसा खा गए।  8-9 लोगन को मुद्रा योजना में एक – एक बकरा लोन में पकड़ा दिया, बकरी की मांग करी तो बोले अभी बकरा से काम चला लो, गांव में एक भी बकरी नहीं है बिना बकरी के सब बकरा मर गए और अब सबको नोटिस भेजन लगे…… ।

बापू सुनके सुन्न पड़ गये काटो तो खून नहीं……. ।

बापू कहन लगे कि सांसद से बताया नहीं कि ऐसे में गांव आदर्श गांव कैसे बन पाएगा। बापू सांसद जी को बताया था वो बोले जो है सब ठीक-ठाक है। पर भाई ऐसे में ये गांधी के सपनों का गांव नहीं बन पाएगा, सांसद से संवाद नहीं है विकास के नाम पर ठेंगा दिख रहा है, आवास योजना में घर नहीं बने, कोई घरवाली को गैस नहीं मिली, मास्टर पढाने आता नहीं, बेरोजगार युवक गांजा दारू में मस्त हैं, शौचालय बने नही और तुम सरपंच पति हो आदर्श ग्राम बनाने का पैसा कहां गया?

सरपंच पति तैश में आ गया बोला – बापू हमको चोर समझते हो? तुमको क्या मतलब हमारे गांव में विकास हो चाहे न हो…… परिक्रमावासी बनके राजनीति करन आये हो…….

गंगू घबरा गया….. हाथ से पानी का गिलास छिटक के दूर गिरा और बापू अचानक बैठे बैठे गायब हो गए……. ।

सरपंच पति और गंगू तब से आज तक यही सोच रहे हैं कि कहीं नोट में छपा डुकरा भूत बनके तो नहीं आया था। उस दिन के बाद से पूरे इलाके में हवा फैल गई कि गांधी जी भूत बनके सांसद का आदर्श ग्राम देखने आए थे।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 18 – व्यंग्य – बड़ेपन का संत्रास ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने बड़ेपन के सुख को ढांकने के पीछे की पीड़ा झेलने की व्यथा की अतिसुन्दर विवेचना की है. उस पीड़ा को झेलने के बाद जो अकेलेपन में हीनभावना से ग्रस्त होते हैं , उनकी अलग ही  व्यथा है.  ऐसे अछूते विषय पर एक सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “बड़ेपन का संत्रास”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 18 ☆

 

☆ व्यंग्य  – बड़ेपन का संत्रास ☆

 

बंधुवर, निवेदन है कि जैसे ‘छोटे’ होने के अपने संत्रास होते हैं वैसे ही ‘बड़़े’ होने के भी कुछ संत्रास होते हैं। बड़ा होते ही आदमी के ऊपर कुछ अलिखित कायदे-कानून आयद हो जाते हैं। मसलन,बड़े आदमी को मामूली आदमी की तरह गाली-गुफ्ता का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए,या सड़क के किनारे ठेलों पर खड़े होकर चाट -पकौड़ी नहीं खाना चाहिए (कार के भीतर खायी जा सकती है), या घर में बीवी से झगड़ा करते वक्त खिड़कियां बन्द कर देना चाहिए और टीवी की आवाज़ तेज़ कर देना चाहिए। यह भी कि मेहनत के काम खुद न करके छोटे लोगों से कराना चाहिए। हमारे समाज में संपन्नता की पहचान यही है कि हाथ-पाँव कम से कम हिलाये जायें। देखकर लगता है ऊपर वाले ने व्यर्थ ही इन्हें हाथ-पाँव दे दिये।

मेरी तुरन्त की पीड़ा यह है कि घर की पानी की मोटर खराब हो गयी है और मुझे कुछ दूर नल से पानी लाना पड़ता है। पानी लाने में खास कायाकष्ट नहीं है लेकिन मुश्किल यह है कि नल से घर तक पानी लाने में तीन-चार घरों के सामने से गुज़रना पड़ता है। भारी बाल्टियां लाने में पायजामा पानी में लिथड़ जाता है। दो-तीन चक्कर लगाने में अपनी इज़्ज़त अपनी ही नज़र में काफी सिकुड़ जाती है। जिस दिन पानी भरता हूँ उस दिन शाम तक हीनता-भाव से ग्रस्त रहता हूँ।

यही संकट गेहूं पिसाने में होता है। पहले जब साइकिल के पीछे कनस्तर रखकर ले जाता था तब एक बार में काफी इज़्ज़त खर्च हो जाती थी। जब से स्कूटर ले लिया तब से पेट्रोल तो ज़रूर खर्च होता है, लेकिन इज़्ज़त कम खर्च होती है।

कुछ दिन पहले तक सामने वाले घर के अहाते में कई टपरे बने थे। छोटे-मोटे कामों के लिए सामने से किसी को बुला लेते थे, इज़्ज़त बची रहती थी। जब से टपरे टूट गये तब से हम सभी नंगे हो गये। लगता है ये छोटे आदमी ही हमारी इज़्ज़त को ढंके हैं। जिस दिन इनका सहारा नहीं मिलेगा उस दिन बड़े लोग कौड़ी के चार हो जाएंगे।
कभी मेरे नीचे वाले मकान में एक सरकारी अधिकारी रहते थे। एक दिन मैंने उनके घर में एक करिश्मा देखा। शाम को पति और पत्नी आराम से लॉन में टहल रहे थे। पास ही स्कूटर खड़ा था। मैंने देखा कि एकाएक बिजली की तेज़ी से पति महोदय ने स्कूटर का हैंडिल पकड़ा और पत्नी ने पीछे से धक्का दिया। पलक झपकते स्कूटर बरामदे में चढ़ गया। इसके बाद पति-पत्नी फिर उसी तरह लॉन में टहलने लगे। सब काम किसी सिनेमा के दृश्य जैसा हो गया और मैं भौंचक्का देखता रह गया। मैंने सोचा, हाय रे, बड़ापन लोगों को कैसे मारता है। स्कूटर रखना है लेकिन सबके सामने रखने से अफसरी में बट्टा लगता है, इसलिए तरह तरह के कौतुक करने पड़ते हैं।

बहुत से लोग अपने बाप- दादा का बड़ापन कायम रखने में अपनी ज़िंदगी होम कर देते हैं। बाप-दादा का कमाया कुछ बचा नहीं, लेकिन उनकी शान-शौकत बनाये रखने के लिए बची-खुची ज़मीन-ज़ायदाद बेचते रहते हैं और नयी पीढ़ी का भविष्य बरबाद करते रहते हैं।

एक घर में जाता हूँ तो देखता हूँ साहब, मेम साहब और बच्चे तो सजे-धजे हैं लेकिन नौकर का हाफपैंट ऊपर से नीचे तक फटा है। मन होता है साहब से कहूँ कि हुज़ूर, मेरे और अपने जैसे भद्रलोक की खातिर नहीं तो कम से कम मेम साहब की शर्म की खातिर ही इसके शरीर को ढंकने का इंतज़ाम कर दीजिए। इसलिए मेरा अपने वर्ग के सब लोगों से निवेदन है कि यह जो ‘छोटा आदमी’ नाम की चीज़ है उसी पर हमारी इज़्ज़त की यह खुशनुमा इमारत खड़ी है। इसलिए इस चीज़ को ज़रा लाड़-प्यार से रखो ताकि यह चीज़ रहे और इसकी बदौलत हमारी खुशनुमा इमारत बुलन्द बनी रहे।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ बापू कभी इस जेब में कभी उस जेब में ☆ श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री विवेक रंजन  श्रीवास्तव ‘विनम्र’

 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जिन्होने अपना अमूल्य समय देकर इस विशेषांक के लिए यह व्यंग्य प्रेषित किया.  आप एक अभियंता के साथ ही  प्रसिद्ध साहित्यकार एवं व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. आपकी कई पुस्तकें और संकलन प्रकाशित हुए हैं और कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं. )

 

व्यंग्य – बापू कभी इस जेब में कभी उस जेब में

 

शहर के मुख्य चौराहे पर बापू का बुत है, उसके ठीक सामने, मूगंफली, उबले चने, अंडे वालों के ठेले लगते हैं और इन ठेलों के सामने सड़क के दूसरे किनारे पर, लोहे की सलाखों में बंद एक दुकान है, दुकान में रंग-बिरंगी शीशीयां सजी हैं. लाइट का डेकोरम है,अर्धनग्न तस्वीरों के पोस्टर लगे है, दुकान के ऊपर आधा लाल आधा हरा एक साइन बोर्ड लगा है- “विदेशी शराब की सरकारी दुकान” इस बोर्ड को आजादी के बाद से हर बरस, नया ठेका मिलते ही, नया ठेकेदार नये रंग-पेंट में लिखवाकर, तरीके से लगवा देता है . आम नागरिकों को विदेशी शराब की सरकारी दूकान से निखालिस मेड इन इंडिया, देसी माल  भारी टैक्स वगैरह के साथ सरे आम देर रात तक पूरी तरह नगद लेनदेन से बेचा जाता है.  यह दुकान सरकारी राजस्व कोष की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। प्रतिवर्ष गांधी जी के नाम की जन कल्याण योजनाओं  के बजट के लिये जो मदद सरकार जुटाती है, उसका बड़ा भाग शहर-शहर  फैली ऐसी ही दुकानों से एकत्रित होता है। सरकार में एक अदद आबकारी विभाग इन विदेशी शराब की देसी दुकानों के लिये चलाया जा रहा लोकप्रिय विभाग है.  विभाग के मंत्री जी हैं, जिला अधिकारी हैं, सचिव है और इंस्पेक्टर वगैरह भी है। शराब के ठेकेदार है। शराब के अभिजात्य माननीय उपभोक्ता हैं। गांधी जी का बुत गवाह है, देर रात तक, सप्ताह में सातों दिन, दुकान में रौनक बनी रहती है। सारा व्यवसाय गांधी जी की फोटू वाले नोटो से ही नगद होता है. शासन को अन्य कार्यक्रम ऋण बांटकर, सब्सडी देकर चलाने पड़ते है। सर्वहारा वर्ग के मूंगफली, अंडे और चने के ठेले भी इस दुकान के सहारे ही चलते है।

“मंदिर-मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला” हरिवंशराय बच्चन जी की मधुशाला के प्याले का मधुरस यही  है। इस मधुरस पर क्या टैक्स होगा, यह राजनैतिक पार्टियों का चंदा तय करने का प्रमुख सूत्र है। गांधी जी ने जाने क्यों इतने लाभदायक व्यवसाय को कभी समझा नहीं, और शराबबंदी,  जैसे विचार करते रहे। आज उनके अनुयायी कितनी विद्वता से हर गांव, हर चौराहे पर, विदेशी शराब का देसी धंधा कर रहे हैं. गांधी जी का बुत अनजान राहगीर को पता बताने के काम भी आता है, गुगल मैप और हर हाथ में एंड्राइड  फोन आ जाने से यह प्रवृत्ति कुछ कम हुई है, पर अब गांधी जी गूगल का डूडल बन रहे हैं.

राष्ट्रपिता को कोई कभी भी न भूले इसलिये हर लेन देन की हरी नीली, गुलाबी मुद्रा पर उनके चित्र छपवा दिये गये  हैं. ये और बात है कि प्रायः ये हरी नीली गुलाबी मुद्रा बड़े लोगो के पास पहुंचते पहुंचते जाने कैसे बिना रंग बदले काली हो जाती है.

हर भला बुरा काम रुपयो के बगैर संभव नही, तो रुपयो में प्रिंटेड बापू देश के विकास में इस जेब से उस जेब का निरंतर अनथक सफर कर रहे हैं.

भला हो मोदी का जिसने बापू की इस भागम भाग को किंचित विश्राम दिया, रातो रात बापू के करोड़ो को बंडलो को बंडल बंद कर दिया. फिर डिजिटल ट्रांस्फर की ऐसी जुगत निकाली कि अब कौन बनेगा करोड़पति में हर रात अमिताभ बच्चन पल भर में करोड़ो डिजिटली ट्रांस्फर करते दिखते हैं, बिना गांधी जी को दौड़ाये गांधी जी इस खाते से उस खाते में दौड़ रहे हैं.

बापू की रंगीन फोटू हर  मंत्री और बड़े अधिकारी की कुर्सी के पीछे   दीवार पर लटकी हुई है, जाने क्यो मुझे यह बेबस फोटो ऐसी लगती है जैसे सलीब पर लटके ईसा मसीह हों, और वे कह रहे हो, हे राम ! इन्हें माफ करना ये नही जानते कि ये क्या कर रहे हैं.

बापू की समाधि केवल एक है. वह भी दिल्ली में यमुना तीर. यह राजनेताओ के अनशन करने, शपथ लेने,रूठने मनाने,  विदेशी मेहमानो को घुमाने और जलती अखण्ड ज्योति  के दरशनो के काम आती है. लाल किले की प्राचीर से भाषण देने जाने से पहले हर महान नेता अपनी आत्मा की रिचार्जिंग के लिये पूरे काफिले के साथ यहां आता है.अंजुरी भर गुलाब के फूलो की पंखुड़ियां चढ़ाता है और बदले में बापू उसे बड़ी घोषणा करने की ताकत दे देते हैं.

बापू से जुड़े सारे स्थल नये भारत के नये पर्यटन स्थल बना दिये गये हैं. सेवाग्राम, वर्धा,वगैरह स्थलो पर देसी विदेशी मेहमानो की सरकारी असरकारी मेहमान नवाजी होती है. इस पर्यटन का प्रभाव यह होता है कि कभी कोई बुलेट ट्रेन दे जाता है, तो कभी परमाणु ईधन की कोई डील हो पाये ऐसा माहौल बन जाता है.

इन दिनो बापू  को हाईजैक करने के जोरदार अभियान हो रहे हैं. ट्रम्प ने बापू से फादर आफ नेशन की जिम्मेदारी छीन मोदी को पकड़ाने की कोशिश कर दिखाई है।

कांग्रेस बेबस रह गई और मोदी जी ने गांधी जी से उनकी सफाई की जिम्मेदारी ही छीन ली. वह भी उनके जन्म दिन पर, उन्होने सारे देशवासियो पर यह जिम्मेदारी ट्रांस्फर कर दी है. अब देश में मार्डन साफ सफाई दिखने लगी है. हरे नीले पीले कचरे के डिब्बे जगह जगह रखे दिखते हैं. वैक्यूम क्लीनर से हवाई अड्डो और रेल्वे स्टेशनो पर वर्दी पहने कर्मचारी साफ सफाई करते दिखते हैं. थियेटर,  माल वगैरह में पेशाब घर में तीखी बद्बू की जगह ओडोनिल की खुश्बू आती है. कचरा खरीदा जा रहा है और उससे महंगी बिजली बनाई जा रही है.  ये और बात है कि गांधी जी के बुत पर जमी धूल नियमित रूप से हटाने और उन पर बैठे कबूतरो को उड़ाने के टेंडर अब तक किसी नगर पालिका ने नही किये हैं.

बापू का एक और शाश्वत उपयोग है, जिस पर केवल बुद्धिजीवीयो का एकाधिकार है. गांधी भाषण माला, पुरस्कार व सम्मान,  गांधी जयंती, पुण्यतिथी या अन्य देश प्रेम के मौको पर गांधी पर, उनके सिद्धांतो पर किताब छापी जा सकती है, जो बिके न बिके पढ़ी जाये या नही पर उसे सरकारी खरीद कर पुस्तकालयो में भेजा जाना सुनिश्चित होता है. गांधी जी, बच्चो के निबंध लिखने के काम भी आते हैं और जो बच्चा उनके सत्य के प्रयोगो व अहिंसा के सिद्धांतो के साथ ही तीन बंदरो की कहानी सही सही समझ समझा लेता है उसे भरपूर नम्बर देने में मास्साब को कोई कठिनाई नही होती. फिल्म जगत भी जब तब गांधी जी को बाक्स आफिस पर इनकैश कर लेता है, कभी “मुन्ना भाई ” बनाकर तो कभी “गांधी” बनाकर. जब जब देश के विकास के शिलान्यास, उद्घाटन होते हैं लाउडस्पीकर चिल्लाता  है ” साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना भाल. ”

सच है ! गांधी से पहले, गांधी के बाद, पर हमेशा गांधी के साथ देश प्रगति पथ पर अग्रसर है. गुजरे हुये बापू भी देश के विकास में पूरे सवा लाख के हैं !

150 वे जन्मदिन पर हमारा यही कहना है हैप्पी बर्थडे बापू।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ हे राम ! ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा संस्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए  प्रसिद्ध. 

 

व्यंग्य कविता – हे राम! ☆

 

हे राम!

तुम

कितने काम के थे

यह राम जानें

किसी के लिए

किसी काम के थे भी या नहीं

यह भी राम जानें

पर

तुम्हारे आशीष से

बदले हुए देश में

हम जो देखते हैं वह ये है

कि तुम्हारी एक सौ पचासवीं जयंती पर

बड़ी रौनक है/धूम है

मेले लगे हैं जगह-जगह

प्रदर्शनी में

खूब बिक रहे हैं

फैशन में भी हैं

तुम्हारी लाठी और चश्मे

जहाँ देखो

तुम्हारे बंदरों की ही नहीं

हर आंख पर तुम्हारा ही चश्मा है

हर हाथ में तुम्हारी ही लाठी

लेकिन खरीदने वालों को

इनके इस्तेमाल का पता नहीं

आयोजकों का भी नहीं है कोई स्पष्ट निर्देश

कि कब और कैसे करें इस्तेमाल

इसीलिये ‘ सूत न कपास’ फिर भी लट्ठम लट्ठा है

बाकी तो सब ठीक-ठाक है

तुम्हारे इस देश में

बस खादी के कुर्ते और टोपियाँ

‘खादी भण्डार’ के बाहर धरने पर हैं

और रेशमी धागों वाली कीमती मालाएँ

सजी हैं भीतर

तुम्हारे नाम की एक माला

हमारे गले में भी

उतनी ही शोभती है जितनी

कि तुम्हारे नाम के पेटेंट धारकों के

(तथाकथित सुधारकों के)

इसी माला को पहनकर

हम बड़े मज़े से

मुर्गा उदरस्थ कर अहिंसा पर बोलते हैं

और इस तरह आपके हृदय परिवर्तन पर

‘सत्य और अहिंसा के साथ प्रयोग’करते हैं

सुना है

पहनकर तुम्हारा गोल-गोल चश्मा और

हाथ में लाठी लेकर

कोई

माँगने वाला है

शन्ति का नोबेल पुरस्कार

तुम्हारे लिए

इसी 2अक्तूबर को

यकीन मानिये बापू!

तुम्हारी अहिंसा में बहुत दम है

तुमने बस एक बार किया था माफ़

अपने हत्यारे को

पर लाल-लाल कलंगी वाला मुर्गा

हमें रोज़ माफ़ करने हमारे घर आता है

खुद ही

‘हे राम’ कहकर अपनी खाल उतरवाता है

और हांडी में पक जाता है

अहिंसा का ऐसा उदात्त उदाहरण

क्या किसी और देश में मिल पाता है

आके देखना कभी राजघाट

अपनी नंगी आंखों से

कि जिसने किया था तुम्हारे लहू से तिलक

वही बिना नागा

हर 30 जनवरी को

तुम्हारी समाधि पर फूल चढ़ाता है।

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -2☆ कहाँ चल दिए बापू ☆ श्री विनोद कुमार ‘विक्की’

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-2

श्री विनोद कुमार ‘विक्की’

 

(श्री विनोद कुमार ‘विक्की’ जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. श्री विनोद कुमार जी स्वतंत्र  युवा लेखक सह व्यंग्यकार हैं. आप व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आप कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं. आपकी कृतियां – हास्य व्यंग्य की भेलपूरी (व्यंग्य संग्रह),मूर्खमेव जयते युगे युगे(व्यंग्य संग्रह),सिसकता दर्द (लघुकथा संग्रह) प्रसिद्ध हैं.  इस विशेषांक के लिए श्री विनोद कुमार जी के व्यंग्य के लिए हार्दिक आभार.)

 

व्यंग्य – कहाँ चल दिए  बापू  ☆

 

वाक़या इस गांधी जयंती की है। रात्रि स्वप्न में टहलते हुए बापू मिल गए। अरे भाई …. आसाराम बापू नहीं मोहन दास करमचंद बापू। वही 1947 वाला लुक आंखों पर गोल चश्मा,एक धोती पर ढ़का हुआ शरीर, हाथ में लाठी…….हाँ दाएँ-बाएँ कन्याए नजर नहीं आ रही थी।

औपचारिक अभिवादन के बाद सोचा आज बापू का इंटरव्यू ले लूँ यही सोच कर  मै उनसे पूछ बैठा-” हैप्पी बर्थडे बापू…. कैसे हो “?

बापू ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- “मैं तो ठीक हूँ पर मेरा भारत कैसा है”! उन्होंने क्रास क्वेशचन किया।

भारत बोले तो मनोज कुमार और सात हिन्दुस्तानी अमिताभ ……एक दम मजे में हैं  दो साल पहले भारत को और इस  बार सात हिन्दुस्तानी को  दादा साहब फाल्के भी मिला  ……”

“अरे नहीं रे…. मेरी बात को बीच में काटते हुए लाठी टेक कर बापू आगे बोले ये तेरा इंडिया कैसा है”?

“एकदम रापचीक बापू अब तो डिजिटल हो रहा है”। मैने जवाब दिया।

“हाँ दिख रहा है…. मुस्कुराते हुए बोले  अरे….मेरे सपनो का भारत रे….” इतना बोल बापू लाठी टिकाकर वहीं बैठ गए।

“अरे बापू आपको तो खुश होना चाहिए आप ने गुलाम भारत को भी देखा और आजाद भारत को भी देखा है” मैने उनका हौसला बढाया।

“सच कह रहे हो बेटा मैं अकेला हूँ जिसने परतंत्र भारत में भारतीयों पर गैर भारतीयों के अत्याचार को देखा और आज स्वतंत्र भारत में तस्वीर/मूर्तियों के माध्यम से भारतीयों पर भारतीयों द्वारा हो रहे अत्याचार को देख रहा हूँ”। इतना कह बापू खामोश हो गए।

“और बताओ बापू तुम्हारे तीन बंदर कहीं नहीं दिखाई दे रहे “! मैने बात आगे बढाते हुए पूछा।

बापू गम्भीरता से हाथों से नाक पर चश्मा टिकाते हुए बोले-” मुझे तो पुरे देश में लोगों की बजाय उसी तीनों बंदर के वंशज नजर आ रहें है बेटा…… बस  उद्देश्य बदल गया है उनका।

उनमें से एक बंदर का वंशज जनता का प्रतिनिधि  बन गया है जिसे प्रजा का दुख दिखाई नहीं देता और वो जनता के प्रति हो रहे अत्याचार/अन्याय को देखकर आंखें मूंद लेता है….. दूसरे का वंशज प्रशासन बन गया है जो जनता की परेशानी/व्यथा/ तकलीफ सुनने की बजाय कान मूंद लेता है…..तीसरे का वंशज स्वयं आम जनता है जो अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की बजाय खामोशी से मुंह बंद कर लेता है और चुपचाप सब सह लेता है …….मेरे विचार और मूल्य रहें कहाँ मेरे भारत में”।

बापू की गंभीरता को देखते हुए मै बोला- “ऐसा नहीं है बापू आप हिन्दुस्तान में हर जगह हो थाना से लेकर सभी सरकारी कार्यालय में दीवारों पर आप फिक्स हो। प्रायः हर चौक चौराहे पर सर्दी, गर्मी, बरसात में आप खड़े हो और अपने भारत को देख रहे हो। जितनी सेवा आपने अपने जीवनकाल में इस देश की नहीं कि होगी उतनी तो आपके जाने के बाद आपकी तस्वीर, मूर्ति आदि 365 दिन कर रहे है”।

“फिर भी दुख है आज के नागरिक मुझे नहीं जान रहे”! दर्द छिपाते हुए बापू बोले।

आहत बापू को ढांढस बंधाते हुए मै बोला-“बापू लगता है आपको किसी ने रांग इन्फोर्मेशन दे दिया है पूरे देश में आप ही आप हो बापू  गली-मोहल्ले,स ड़क से लेकर शहर तक के नाम पर आपका  ही कॉपीराइट है। आपके नाम पर सफाई स्वच्छता अभियान चल रहा है ये और बात है एक देश में सफाई करके विदेश भ्रमण को जाते है जबकि दूसरा देश की सफाई कर विदेश पलायन कर जाता है।

आप तो हर जगह छाए हो और तो और दस से दो हजार के नोट पर भी आपका ही पासपोर्ट साइज फोटो छपा हुआ है।

बच्चे भले अपने बाप का  नाम नहीं जानते हो लेकिन अक्खा कंट्री के बाप के बारे में जरूर जानते है”।

” फोटो से याद आया वो नोट के फोटो पर भी राजनीति होने लगी है भाई….. उसे भी हटाकर मेरे जूनियर भगत, सुभाष एवं चंद्रशेखर की फोटो चिपकाने की बात हो रही है”। बापू आगे बोले।

“अरे इसमें टेंशन क्या है बापू वो लोग भी तो आजादी को लेकर…… शहीद भी हुए…. आजाद भारत  की सुबह-शाम नहीं देख पाए आने दो उनकी भी तस्वीरें नोट पर। वैसे भी आप तो बड़े महान दयालू और त्यागी हो, ये तो महज नोट पर फोटो वाली ही बात है”।

मेरे इस बात पर बापू फूर्ति से उठते हुए बोले-“बेटा तुम मेरी ले रहो हो…..”

मैने बिना पूरी बात सुने ही कहा -“सही समझे बापू मै आपका इंटरव्यू ही ले रहा हूँ।

“लेकिन बेटा इन दिनों बड़ी असहिष्णुता है देश में एक संप्रदाय दूसरे का जान का दुश्मन बना हुआ है राजनेता इसे रोकने की बजाय और बढ़ावा देते है ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सनमति दे भगवान’ ।वे निराश भाव से आगे बोले।

मैने उनको टोका-“ये मै नहीं मानने वाला बापू ये सांप्रदायिक भेदभाव गुलाम भारत से ही है”।

“नहीं बेटा हमारे समय तो हिंसा रक्तपात केवल अंग्रेज ही करते थे राजनेता नहीं सभी भारतीय प्रेम से रहते थे बिना भेदभाव के”। बापू ओवर कांफिडेंस में बोले।

“तो1946 का प्रत्यक्ष भी अंग्रेजों की ही देन थी बापू”!

मेरे इस सवाल पर बापू धीरे से बोले-“अच्छा भाई अब चलता हूँ “।

” अरे रूको बापू कहाँ चल दिए …. अरे थोड़ा रूको” चिल्लाते चिल्लाते मेरी नींद खुल गई। सपना फूर्र हो गया और बापू जयंती मनाने सरकारी कार्यालय को निकल लिए।

 

© विनोद कुमार ‘विक्की’ 

द्वारा स्व. श्री ओमप्रकाश गुप्ता, सुमित किराना स्टोर

ग्रा+ पो.-महेशखूंट बाजार जिला: खगड़िया 851213(बिहार) मो 9113473167

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष -1☆ सपने में बापू ☆ डॉ कुन्दन सिंह परिहार

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(पूर्व प्राचार्य एवं वरिष्ठ  साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं  तथा समय समय पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं  / आकाशवाणी में आपकी रचनाएँ प्रकाशित / प्रसारित होती रहती हैं.  हम डॉ कुंदन सिंह परिहार जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने  इस अवसर पर विशेष व्यंग्य  “सपने में बापू” प्रेषित किया.)
व्यंग्य – सपने में बापू  

उस रात सपने में बापू दिखे। बहुत कमज़ोर और परेशान। लाठी टेकते, कदम कदम पर रुकते। देख कर ताज्जुब और दुख हुआ। पहले भी दो चार बार दिखे थे। तब खूब स्वस्थ और प्रसन्न दिखते थे। आशीर्वाद की मुद्रा में हथेली उठी रहती थी।

थके-थके से बैठ गये। मैंने हाल-चाल पूछा तो करुण स्वर में बोले, ‘भाई, मैं यह कहने आया हूँ कि तुम लोग तो फेसबुक-वेसबुक इस्तेमाल करते हो। मेरी एक अपील डाल दो। मैं अब राष्ट्र पिता और बापू नामों से मुक्ति चाहता हूँ। मैं बहुत परेशान और दुखी हूँ। जीवित रहते तो मुझ पर एक ही बार गोली चली थी, अब तो रोज़ मेरी आत्मा को छेदा जा रहा है। कभी मेरी मूर्ति की नाक तोड़ी जा रही है, कभी चश्मा तोड़ा जा रहा है, कभी सिर ही तोड़ दिया जाता है। देश के लोगों से किसने कहा था कि मेरी मूर्तियाँ लगवायें? मूर्तियाँ लगवाकर मेरी दुर्गति की जा रही है।’

बापू कमज़ोरी के कारण थोड़ा रुके, फिर बोले, ‘दरअसल इस देश की हालत उन गुरू जी जैसी हो गयी है जिन्होंने अपनी दो टाँगों की सेवा का जिम्मा अलग अलग दो शिष्यों को दिया था। शिष्यों में आपस में झगड़ा हो गया और उन्होंने बदला लेने के लिए एक दूसरे के हिस्से की टाँग पर लाठी बरसाना शुरू कर दिया। नतीजतन गुरू जी की दोनों टाँगें टूट गयीं। इसी तरह इस देश में लोग एक दूसरे के हिस्से की मूर्ति तोड़ रहे हैं। एक दिन इस देश में देवताओं की मूर्ति के सिवा कोई मूर्ति नहीं बचेगी।’

बापू फिर थोड़ा सुस्ता कर बोले, ‘अब इस देश को आज़ादी मिले सत्तर साल हो गये हैं। यह देश अब सयाना हो गया है। लोग भी सयाने, ज्ञानी हो गये हैं। अब इस देश को किसी पथप्रदर्शक या प्रेरणा-पुरुषों की ज़रूरत नहीं है। अब सब मूर्तियों को उठाकर संग्रहालयों में रख देना चाहिए। यहाँ मूर्तियाँ टूटती हैं तो सारी दुनिया देखती है और हम पर हँसती है। अपने हाथों अपनी फजीहत कराने से क्या फ़ायदा?’

बापू दुख में सिर झुकाकर आगे बोले, ‘अब लोग टीवी पर खुलकर बोलते हैं कि वे मुझे राष्ट्र पिता नहीं मानते। मुझ पर दोष लगाते हैं कि मैंने देश को बँटने दिया। मुझ पर गोली चलाने वालों की मूर्तियाँ और मन्दिर बन रहे हैं। मेरे चित्रों वाले नोटों का इस्तेमाल रिश्वत के लेनदेन में और काला धन बनाने में धड़ल्ले से हो रहा है। मेरी समाधि पर दुनिया भर का पाखंड हो रहा है। मेरी मूर्तियों के नीचे रोज़ धरने और मनमानी नारेबाज़ी हो रही है। इसलिए अब मुझे मुक्ति मिल जाये तो हल्का हो जाऊँगा।’

मैं भारी मन से उनकी बात सुनता रहा। वे फिर बोले, ‘यह मेरी अपील ज़रूर डाल देना। मुझे और दुखी मत करना। मुझे तुम पर भरोसा है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ घोडा, न कि …. ☆ डॉ सुरेश कान्त

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक -1

डॉ सुरेश कान्त

 

(हम प्रख्यात व्यंग्यकार डॉ सुरेश कान्त जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने इस अवसर पर अपने अमूल्य समय में से हमारे लिए यह व्यंग्य रचना प्रेषित की. आप  व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं. वर्तमान में हिन्द पाकेट बुक्स में सम्पादक हैं। आप भारतीय स्टेट बैंक के राजभाषा विभाग मुंबई में  उप महाप्रबंधक पद पर थे।  महज 22 वर्ष की आयु में ‘ब’ से ‘बैंक जैसे उपन्यास की रचना करने वाले डॉ. सुरेश कान्त जी  ने बैंक ही नहीं कॉर्पोरेट जगत की कार्यप्रणाली को भी बेहद नजदीक से देखा है। आपकी कई  पुस्तकें प्रकाशित।)

☆ व्यंग्य – घोड़ा, न कि… ☆

 

शहर के बीचोबीच चौक पर महात्मा गांधी की मूर्ति लगी थी।

एक दिन देर रात एक राजनीतिक बिचौलिया, जिसकी मुख्यमंत्री तक पहुँच थी, उधर से गुजर रहा था कि अचानक वह ठिठककर रुक गया।

उसे लगा, मानो मूर्ति ने उससे कुछ कहा हो।

नजदीक जाकर उसने महात्मा से पूछा कि उन्हें कोई परेशानी तो नहीं, और कि क्या वह उनके लिए कुछ कर सकता है?

महात्मा ने उत्तर दिया, “बेटा, मैं इस तरह खड़े-खड़े थक गया हूँ। तुम लोगों ने सुभाष, शिवाजी वगैरह को घोड़े दिए हैं…मुझे भी क्यों कुछ बैठने के लिए नहीं दे देते?…क्या तुम मुझे भी एक घोड़ा उपलब्ध नहीं करा सकते?”

बिचौलिए को दया आई और उसने कुछ करने का वादा किया।

अगले दिन वह मुख्यमंत्री को ‘शिकायत करने वाले’ महात्मा का चमत्कार दिखाने के लिए वहाँ लेकर आया।

मूर्ति के सामने खड़ा होकर वह बोला, “बापू, देखो मैं किसे लेकर आया हूँ! ये आपकी समस्या दूर कर सकते हैं।”

महात्मा ने मुख्यमंत्री को देखा और फिर नाराज होकर बिचौलिये से बोले, “मैंने तुमसे घोड़ा लाने के लिए कहा था, न कि…!”

 

© डॉ सुरेश कान्त

दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ तेरा गांधी, मेरा गांधी; इसका गांधी, किसका गांधी! ☆ श्री प्रेम जनमेजय

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

श्री प्रेम जनमेजय

(-अभिव्यक्ति  में श्री प्रेम जनमेजय जी का हार्दिक स्वागत है. शिक्षा, साहित्य एवं भाषा के क्षेत्र में एक विशिष्ट नाम.  आपने न केवल हिंदी  व्यंग्य साहित्य में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है अपितु दिल्ली विश्वविद्यालय में 40 वर्षो तक तथा यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्ट इंडीज में चार वर्ष तक अतिथि आचार्य के रूप में हिंदी  साहित्य एवं भाषा शिक्षण माध्यम को नई दिशाए दी हैं। आपने त्रिनिदाद और टुबैगो में शिक्षण के माध्यम के रूप में ‘बातचीत क्लब’ ‘हिंदी निधि स्वर’ नुक्कड़ नाटकों  का सफल प्रयोग किया. दस वर्ष तक श्री कन्हैयालाल नंदन के साथ सहयोगी संपादक की भूमिका निभाने के अतिरिक्त एक वर्ष तक ‘गगनांचल’ का संपादन भी किया है.  व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर. आपकी उपलब्धियों को कलमबद्ध करना इस कलम की सीमा से परे है.)

 

☆ तेरा गांधी, मेरा गांधी; इसका गांधी, किसका गांधी! ☆

 

मैं बीच चौराहे पर बैठा था। मेरे साथ गांधी जी भी चौराहे पर थे। जहां गांधी, वहां देश। देश भी चौराहे पर था। इसे आप देश का गांधी चौराहा भी कह सकते हैं। मैं जिंदा था और किसी उजबक- सा आती -जाती भीड़ को देख रहा था। गांधी जी मूर्तिवान थे और भीड़ में से कुछ उजबक उन्हें देख रहे थे। और देश..! सत्तर वर्षीय देश को जो करना चाहिए वही कर रहा था। या कह सकते हैं जो करवाया जा रहा वह कर रहा था। सत्तर की उम्र होती ही ऐसी है।

मैं देश की आजादी के डेढ़ वर्ष बाद पैदा हुआ हूँ, और गांधी जी को पैदा हुए डेढ़ सौ वर्ष होने वाले हैं। अभी दो अक्टूबर दूर था इसलिये चौराहे पर साफ -सफाई कम थी और सजावट, विरोधी पार्टी-सी, खिसियाई हुई थी। मूर्ति पर बाढ़ का असर नहीं पड़ा था अतः धुलनी शेष थी।

देखा एक मार्ग से पांडेय जी आ रहे हैं। शेयर बाजार के सैंसेक्स-सी तेजी में थे।चेहरा आर्थिक मंदी में मिली राहत -सा प्रसन्न था।  मुझे देख मेरे पास आए, हाउडी किया और बोले–सब बढ़िया हो गया।’’

मैंने पाकिस्तानी स्वर में पूछा- क्या बढ़िया हो गया?’’

पांडेय जी आर्टीकल 370 के हटने की प्रसन्नता वाले स्वर में चहके-गांधी जी पर सेमिनार का बड़ा बजट अप्रूव हो गया।  बड़े-बड़े लोगों को बुलाऊंगा  और बड़े हॉल में गांधी जी पर बड़ा सेमिनार करवाऊंगा। बड़े लोग हवाई जहाज से आऐंगे, बढ़िया होटल में ठहरेंगे।  जल्दी में हूँ फिर मिलता हूँ… देखता हूं… तुझे भी शायद बुलाऊँ  … विराट आयेजन होगा ।’’ पांडेय जी ने मेरी ओर चुनावी आश्वासन-सा टुकड़ा फेंका। मुझे आज तक माता के विराट जगरातों के निमंत्रण मिले थे,… गांधी पर विराट आयोजन…

पांडेय जी सेमिनार प्रस्ताव के मार्ग से आए थे और विराट आयोजन की ओर चल दिए। मैं वहीं का वहीं चौराहे पर था। तभी देखा राधेलाल जी बगल में गांधी के विचारों की किताबों के बंडल से लदे आ रहे हैं। बोझ से इतने दबे थे कि ढेंचू भी नहीं बोल पा रहे थे। मैंने पूछा -अरे ! पूरी लाइब्रेरी लिए कहाँ जा रहे हैं?’’

गांधीवादी तोता बोला -कम्पीटिशनवा की तैयारी कर रहे हैं,न। गांधी पर बहुत कुछ पूछा जाने वाला है। बहुत कुछ रटना है। टाईमों नहीं है। कुछ जुगाड़ जमा सकते हो तो बोलो, रुक जाते हैं। हमका किसी तरह पास करवा दो …’’

मैंने कहा – आप तो जानते हैं राधेलाल जी कि मैं…’’

– हम खूब जानते हैं आपको मास्टर जी! आप तो गांधी के सिद्धांत ही पढ़ा सकते हो… बकरी की मेंमने हो… चलते हैं।’’

तोता जी चले गए और देशसेवा मार्ग से सेवक जी आ गए। सेवक जी शाम को स्कॉचमय होते हैं, इस समय खादीमय हो रहे थे, । दो अक्टूबर को हाथ भी नहीं लगाते। सब सेवक उन जैसे नहीं हैं। कुछ ने तो गांधी जी के आदर्श पर चलते पूरी तरह अपनी शराब बंदी कर ली है पर सत्ता का नशा नहीं त्यागा जाता। गांधी जी ने बहुत मार्ग बताए हैं, चलने के लिए। सब पर चलना कोई जरूरी है? अब गांधी जी ने कहा कि आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी भंग कर दी जाए… अब पार्टी भंग हो जाएगी तो हमारी देशसेवा का क्या होगा? प्रजातंत्र बर्बाद नहीं हो जाएगा!

दो मिनट मौन जैसा, सादगीपूर्ण  गांधी होना बहुत है। एक सौ पचासवें पर भी हो लेंगें। हर देशसेक अपनी पसंद के गांधी की महक से स्वयं को महका रहा है। गांधी जी का सत्य एक था पर गांधीवादियों के सत्य अनेक हैं। गांधीवादी अनेक हैं पर अनुयायी इक्का- दुक्का हैं। गांधी वोट-भिक्षा का साधन बन रहे हैं।

ब्लैक कैट से घिरे सेवक जी ने मुझ गरीब की ओर हाथ हिलाया और मुस्कराए जैसे बरसों से जानते हों। इससे पहले कि मैं उनके अभिवादन का उत्तर देता वे तेज कदम एक सौ पचास वाले राजमार्ग की ओर चल दिए।

चौराहे के चौथे मार्ग पर कुछ कुछ वीरानगी थी। उत्सुकतावश मैं उठा और उधर चल दिया। वहां जर्जर पड़ा आश्रम-सा मिला। जर्जर से आश्रम में जर्जर मनुष्य-से दिख रहे थे। वे न तो गांधीवादी थे और न गांधी के अनुयायी। इन अज्ञानियों को गांधी का ज्ञान भी न था, डेढ़ सौ वर्षीय उत्सव का ज्ञान कैसे होता! पर वे जी गांधी-सा जीवन रहे थे। वे अपना पखाना खुद साफ कर रहे थे। वे केवल लंगोटी जैसा कुछ पहने थे। वहां इक्का दुक्का बकरी भी मिमिया रही थी। वे आजादी से पहले के गांधी को, बिना जाने, जी रहे थे और आजाद हिंदुस्तान के  वोटर थे।

 

©  प्रेम जनमेजय

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ राजघाट का मूल्य ☆ श्री संजीव निगम

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1

श्री संजीव निगम

(सुप्रसिद्ध एवं चर्चित रचनाकार श्री संजीव निगम जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है. आप अनेक सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध हैं एवं सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सामाजिक सेवाएं प्रदान करते हैं. महात्मा गांधी पर केंद्रित लेखों से चर्चित. आप  हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के निदेशक हैं.  हिंदी के चर्चित रचनाकार. कविता, कहानी,व्यंग्य लेख , नाटक आदि विधाओं में सक्रिय रूप  से  लेखन कर रहे हैं. हाल में  व्यंग्य लेखन के लिए  महाराष्ट्र राज्य  हिंदी साहित्य अकादमी का आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार प्राप्त। कुछ टीवी धारावाहिकों का लेखन भी किया है. इसके अतिरिक्त 18  कॉर्पोरेटफिल्मों का लेखन भी। गीतों का एक एल्बम प्रेम रस नाम से जारी हुआ है.आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से 16 नाटकों का प्रसारण. एक फीचर फिल्म का लेखन भी.)

 

☆ व्यंग्य –राजघाट का मूल्य

 

बापू की समाधि पर एक मिनट मौन की मुद्रा में खड़े बाबू राम बिल्डर – सह- पार्टी पदाधिकारी ने अपनी झुकी गर्दन से टेढ़ी निगाहें चारों तरफ फेरीं और उनके कलेजे पर बोफोर्स दग गयी। करोड़ों रुपये की ज़मीन फ़ोकट में हथियाये क्या आराम से लेटे हैं बापूजी। यूँ जब तक जिए शरीर पर लंगोटी लपेटे देश की दरिद्रता का विज्ञापन बने रहे और मरने के बाद बड़े से कीमती पत्थर के नीचे लेट कर इतनी बेशकीमती ज़मीन पर पैर पसार लिए।

दिल्ली के बीचों बीच पड़ी इस भूमि का मूल्य आँकते आँकते बाबू राम जी के मुँह में मिनरल वाटर भर आया। ‘अगर ये ज़मीन हत्थे आ जाये तो क्या कहने? एक विशाल कमर्शियल सेंटर खड़ा हो जाए, स्विस बैंक में नए खाते खुल जाएँ और अरबों रुपये के करोड़ों डॉलर बन जाएँ।’

‘ पर यह सब इतना आसान कहाँ? ‘ बाबू राम जी का मौन समाप्त हो चुका था। उन्होंने मुँह ऊपर उठा कर खद्दर के कुर्ते से अपनी आँखों में उतर आयीं निराशा की बूंदों को पोंछा। उनकी इस मुद्रा पर कैमरे किलके और समाचार पत्रों में छपने के लिए एक बेहतरीन फोटो तैयार हो गया, शीर्षक ” बापू की स्मृति को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि”.

आज़ादी के तुरंत बाद बाबू राम जी के स्वर्गीय पिताश्री ने नेहरू जी की अगुवाई में देश के पुनर्निर्माण का बीड़ा उठाया था एक छोटी सी गैरकानूनी रिहायशी कॉलोनी बनाकर। उस  बस्ती के निर्माण के साथ ही उनकी जो विकास यात्रा आरम्भ हुई वह संकरी गली के एक कमरे से चलकर किराए के बंगले के चौराहे से घूमती हुई एक बड़ी किलेनुमा कोठी में जाकर समाप्त हुई।  अपनी भवन निर्माण संस्था की एक शाखा का स्वर्ग में उद्घाटन करने से पूर्व उन्होंने बाबू राम जी समेत पूरे परिवार को इस कर्मभूमि में पूरी ताकत के साथ झोंक दिया था।

उनके स्वर्गीय होने पर बाबू राम जी ने मोर्चा सम्भाला था।

बाबू राम जी ने अपने सेनापतित्व में अपने उद्योग को राजनीति  से बड़ी बारीकी से जोड़ते  हुए अपने विकास प्रवाह को अखंड सौभाग्य का गौरव प्रदान किया था।  उद्योग व राजनीति के इस गठबंधन ने बड़े बड़े विरोधी बिल्डरों के सिर घोटालों की तरह से फोड़ दिए और बाबू राम जी उन्हें रौंदते हुए आगे बढ़ते रहे।  इसी क्रम में वे हर बार सत्ता में आई पार्टी के प्रमुख व्यक्ति बने रहे और साथ साथ अन्य पार्टियों को भी समान भाव से उपकृत करते रहे।  इसलिए उनके द्वारा प्रस्तुत भवन निर्माण के प्रस्ताव हमेशा सर्व सम्मति से पास होते रहे।

इन्हीं सफलताओं की पृष्ठभूमि में बाबू राम जी की पीड़ा अधिक हो गयी। सिर पर रखी गाँधी टोपी उतार कर उससे पसीना पोंछा और टोपी वापस सिर पर रखने की बजाय जेब में डाल ली। जब गाँधी जी मरने के बाद भी इतना दुःख पहुँचा रहे  हैं तो उनके नाम वाली टोपी का बोझ ढोने का क्या मतलब है ?

एक बार उनके मन में आया भी कि  यह अनुपम योजना पास खड़े शहरी आवास मंत्री के कान में फूंक दें पर फिर यह सोच कर चुप रह गए कि आज़ादी के पचास साल और पाँच चुनाव लड़ने के बाद भी गाँधी के नाम की धुन बजाते रहने वाला यह राजनैतिक बैंडवाला अभी ज़ोर ज़ोर से ‘ पूज्य बापूजी, पूज्य बापूजी ‘ का ढोल पीटने लगेगा और सबके सामने अपने आपको चड्ढी बनियान की गहराई तक गाँधीवादी साबित करने लगेगा।  इस तरह यहाँ तो सबके सामने बेइज़्ज़त कर देगा, बाद में भले ही रात को घर आकर पैर छू लेगा तथा इतने अच्छे प्रस्ताव के लिए कुछ न कर पाने के गम में काजू के साथ दारु निगलेगा।

समाधि पर भजन चल रहे थे।  देश  के जागरूक नागरिक दरियों पर बैठे ऊँघ रहे थे पर बाबू राम जी थे कि अफ़सोस भरी आँखें फाड़े चारों तरफ बिछी इस शस्य श्यामला भूमि को निहार रहे थे।  काश यह ज़मीन उनके हाथ आ जाए तो कितना भव्य ‘ गाँधी कमर्शियल  सेंटर’ तैयार हो जाए जिसके बेसमेंट में गाँधी जी की समाधि रखी जाए।  इसी बहाने कमर्शियल सेंटर तक विदेशी पर्यटक भी  खूब आएँगे।

निकट भविष्य में तो उन्हें अपनी यह योजना सफल होती नज़र नहीं आ रही है। इसलिए राजघाट से घर वापिस लौटते समय उन्होंने सोचा कि यह योजना गोपनीय रूप से अपने बच्चों -पोतों के लिए विरासत में छोड़ जाएँगे। यदि कभी रूस से साम्यवाद की तरह से इस देश से गाँधीवाद सिमटा तो उनकी यह परिवार कल्याण योजना अवश्य सफल होगी और उनके बच्चे पोते उनकी स्मृति में सोने के पिंड दान करेंगे।

 

© संजीव निगम

मोबाईल : 09821285194
ईमेल.: [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ गांधी जिन्दा हैं और रहेंगे ☆ श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक -1

श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

 

(श्रीमती सुसंस्कृति परिहार जी पूर्व प्राचार्या एवं प्रसिद्ध  साहित्यकार हैं .  आप प्रलेसं सचिव मंडला सदस्य  हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. अपना अमूल्य समय देने के लिए आपका हार्दिक आभार. )

व्यंग्य – गांधी जिन्दा हैं और रहेंगे

 

2 अक्टूवर 2019को हम महात्मा गांधी का 150वां जन्मदिन मना रहे हैं । हेप्पी बर्थ डे गांधी जी । बहुत बहुत बधाई आपको । क्या कहा -आपने भला मरने के बाद कोई ज़िंदा रहता है! हां, पर गांधी ज़िंदा है । वे अमर हैं । अभी आपने देखा नहीं वे अमरीका के ह्यूस्टन में हाऊडी मोदी कार्यक्रम में प्रकट हो गये । जहां भी जाते गांधी जी तन के खड़े हो जाते । भयातुर हो वे जल्दी जल्दी माला पहिनाते और परे हट जाते । भला सच के सामने झूठ आंख कैसे टिका सकता है ।

बहरहाल हम सब जानते हैं उन्हें एक हिंदुत्ववादी नाथूराम गोडसे ने प्रार्थना सभा में जाते हुए गोलियों से भून दिया था । उनका देहान्त हो गया । वे धरा पर प्राप्त अपना पूरा जीवन नही जी पाए । हमारे यहां कहा जाता है कि जो हत्या या आत्महत्या से मरता है उसकी आत्मा भटकती रहती है । सचमुच गांधी की आत्मा भटक रही है ।लगता है उनका तर्पण तब तक नहीं होगा जब तक गांधी अपने देश को खुशहाल नहीं देख लेते !

इधर देश के हालात देखकर तो यह कयास लगाया जा सकता है कि वे लंबी अवधि तक टस से मस होने वाले नहीं हैं । सत्य  अहिंसा का पुजारी सत्य देख रहा है। नैतिकताओं का कहीं ओर-छोर नहीं । आदर्श तो उपहास की विषयवस्तु बन गया है । भाई-चारा की धज्जियां उड़ रहीं हैं। वैष्णव जन पराई पीर बढ़ाने में रत है । संवेदनाएं उड़न छू हो गई हैं । वर्ग भेद के क्या कहने! सफाई अभियान का नज़ारा तो इतना भयातुर कर गया कि दो दलित बच्चों पर कहर बरपा गया । जहां तक शांति का सवाल है चहुंओर दहशतज़दा शांति है, बड़ी संख्या में  सियार और कुत्तों की आवाजें सुनाई दे रही है । कई बाबा जैसे महात्मा जेल में सुकून से हैं । बलात्कार के अपराधी बेल पर हैं और बलात्कार पीड़िता जेल में हैं । मीडिया बिकाऊ है । अभिव्यक्ति पर पहरा है। लेखक पत्रकारों की कलम की ताकत को चट करने उतारू है । नन्हीं बच्चियों से लेकर वृद्ध महिला भी हवस का सामान है । बेरोजगारी  चरम पर है ।  मंहगाई और अमीर बनने की कामना ने इंसानी रिश्तों को तार तार कर रखा है । आपके रामराज्य की चूलें हिला दी गई हैं । कितना बदल गया हिंदुस्तान !अब न्यू इंडिया बन रहा है । तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं अपना स्वरुप बदल रही हैं ।

हरि अनन्त हरि कथा अनंता । ये शिकायत है कि हमारे हर कार्य में आप बाधक हैं । कैसे करें देश का भला । अब आप सोचिए आपसे राष्ट्र पिता का दर्जा भी छिनने की पूरी तैयारी है आपको जनता ने ख़िताब बख्शा और…. । साम-दाम दंड-भेद की नीति को सब  बख़ूबी जानते हैं । कैसे आपका सपना यहां पूरा होगा ?

होगा ज़रूर होगा । आकाश वाणी हुई । मैं समझ गई गांधी कहीं नहीं जाने वाले। उनका इस्तकबाल करें । बेशक विचार कभी नहीं मरते और जनगर्जन जब होता है तो बड़े-बड़े सूरज अस्त हो जाते हैं । गांधी ज़िंदा है और सर्वदा रहेंगे । जन्मदिन मुबारक बापू ।

 

© श्रीमती सुसंस्कृति परिहार

मंडला

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