हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 243 ☆ व्यंग्य – ‘ग़मे-इश्क और ग़मे-रोज़गार’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य  – ग़मे-इश्क और ग़मे-रोज़गार। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 243 ☆

☆ व्यंग्य – ग़मे-इश्क और ग़मे-रोज़गार

आम आदमी के लिए भले ही ‘ग़म’ या ‘दर्द’ या ‘रंज’ नागवार रहा हो, लेकिन शायरों और गीतकारों ने इसे ख़ूब पाला-पोसा है। उनके उनवान से लगता है कि ज़िन्दगी में ग़म न हो तो ज़िन्दगी दोज़ख हो जाए। शायरों और गीतकारों के लिए ग़म ख़ूबसूरत भी है और मीठा भी। फिल्मी गीतों के नमूने देखिए— ‘शुक्रिया अय प्यार तेरा, दिल को कितना ख़ूबसूरत ग़म दिया।’ और, ‘एक परदेसी मेरा दिल ले गया, जाते-जाते मीठा मीठा ग़म दे गया।’

यह ग़म या दर्द शायरों को बेतरह परेशान करता रहा है। न इसका कारण समझ में आता है, न उपचार। प्रमाण के तौर पर ‘ग़ालिब’ को देखें— ‘दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है, आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?’

ज़ाहिर है कि यह ग़म या दर्द इश्क से पैदा होने वाला ग़म है, इसका ग़मे-रोजगार से कोई ताल्लुक़ नहीं है। ग़मे-रोज़गार से उलट यह ग़म सुकून और चैन देने वाला होता है, इसीलिए शायर उससे निजात पाने की ख्वाहिश नहीं रखता।

शायरों,गीतकारों की ज़िन्दगी में ग़मों की आवाजाही बनी रहती है। एक फ़िल्मी गीतकार ने लिखा— ‘घर से चले थे हम तो ख़ुशी की तलाश में, ग़म राह में खड़े थे वही साथ हो लिये।’ हालत यह होती है कि ग़म या दर्द ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा बन जाते हैं। एक फ़िल्मी गीत का मुलाहिज़ा करें—‘मुझे ग़म भी उनका अज़ीज़ है, कि उन्हीं की दी हुई चीज़ है। यही ग़म है अब मेरी ज़िन्दगी,इसे कैसे दिल से जुदा करूँ?’ यानी   महबूबा को प्रेमी का दिया हुआ ग़म भी इतना प्यारा है कि उसे दिल से जुदा करना मुश्किल हो जाता है।

एक और फ़िल्म में नायिका फ़रमाती है— ‘न मिलता ग़म तो बरबादी के अफ़साने कहाँ जाते, अगर दुनिया चमन होती तो वीराने कहाँ जाते?’ मतलब यह कि ज़िन्दगी में बरबादी के अफ़साने ज़रूरी हैं और उनकी पैदावार के लिए ग़मों का होना ज़रूरी है। अगर चमन ज़रूरी हैं तो वीराने भी ज़रूरी हैं।

इसी गीत में आगे देखें—‘तुम्हीं ने ग़म की दौलत दी, बड़ा एहसान फ़रमाया। ज़माने भर के आगे हाथ फैलाने कहाँ जाते?’ यानी ग़म न  हों तो ग़मों को हासिल करने के लिए ज़माने के आगे हाथ फैलाने की नौबत आ सकती है।

एक और नायिका ग़मों से मिली समृद्धि से गद्गद है— ‘दिल को दिये जो दाग़, जिगर को दिये जो दर्द, इन दौलतों से हमने ख़ज़ाने बना लिये।’ यानी, दूसरों के लिए भले ही ग़म या दर्द तक़लीफ़देह हों, नायिका के लिए वे ख़ज़ाने से कम नहीं हैं।

दर्द की स्वाभाविकता के बारे में ‘ग़ालिब’ ने लिखा, ‘दिल ही तो है न संगो-ख़िश्त, दर्द से भर न आये क्यों : रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यों?’ और, ‘दर्द मिन्नत कशे दवा न हुआ, मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ।’

मतलब यह कि मेरे दर्द का अच्छा न होना बेहतर है क्योंकि मुझे दवा का मोहताज नहीं होना पड़ा।

प्रेमी के प्रति नायिका का लगाव इस मयार का है कि नायिका प्रेमी से इल्तिजा करती है कि वह अपने दुख उसे देकर हल्का हो जाए। ‘तुम अपने रंजो-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो।’ और, ‘अगर मुझसे मुहब्बत है, मुझे सब अपने ग़म दे दो।’ वैसे यह समझना मुश्किल है कि ग़मों का स्थानांतरण कैसे हो सकता है। ग़म अगर कर्ज़- वर्ज़ का है तो बात अलहदा है।

हमारे शायरों ने ज़िन्दगी में ग़म को बहुत तरजीह दी। ‘शकील’ साहब ने लिखा— ‘मेरी ज़िन्दगी है ज़ालिम तेरे ग़म से आशकारा, तेरा ग़म है दर हकीकत मुझे ज़िन्दगी से प्यारा।’

एक दिलचस्प थियरी हमारे शायरों ने पेश की है, जिस पर आज के औषधि-विशेषज्ञों को तवज्जो देना चाहिए। अनेक शायरों का मत है कि दर्द हद से गुज़र जाए तो ख़ुद ही दवा बन जाता है। ‘ग़ालिब’ ने लिखा— ‘इशरते क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना, दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।’ दूसरी जगह ‘ग़ालिब’ लिखते हैं—‘रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज, मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गयीं।’

शायर का मक़सद शायद यह है कि दर्द या ग़म के हद से गुज़रने पर आदमी उसका आदी हो जाता है, जो बड़ी सीमा तक सच भी है। हर दिल अज़ीज़ गायक तलत महमूद के जिस गीत में ‘ख़ूबसूरत ग़म’ देने के लिए प्यार का शुक्रिया अदा किया गया है, उसी में आगे गीतकार कहता है— ‘आँख को आँसू दिये जो मोतियों से कम नहीं, दिल को इतने ग़म दिये कि अब मुझे कोई ग़म नहीं।’

इसी तबियत के एक गीत की पंक्ति है— ‘ये दर्द दवा बन जाएगा, इक दिन जो पुराना हो जाए।’ लेकिन गीत के रचने वाले ने यह नहीं बताया कि दर्द से निजात देने वाला वह शुभ दिन कब आएगा।

शायर ‘जिगर’ मुरादाबादी एक कदम आगे बढ़ जाते हैं। उन्हें उनका दर्द मज़ा देने लगता है— ‘आदत के बाद दर्द भी देने लगा मज़ा, हँस हँस के आह आह किये जा रहा हूँ मैं।’ इसी रंग के एक फ़िल्मी गीत के बोल हैं— ‘जब ग़मे इश्क सताता है तो हँस लेता हूँ।’

एक दूसरी ग़ज़ल में, जिसे बेगम अख़्तर ने अपना ख़ूबसूरत स्वर दिया, ‘जिगर’ फ़रमाते हैं— ‘तबीयत इन दिनों बेगानए ग़म होती जाती है, मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है।’ यानी ज़िन्दगी में ग़म के न रहने से ख़ुशियाँ भी घटती जाती हैं। ग़रज़ यह कि ख़ुशियाँ ग़मों पर ही मुनहसिर हैं।

ग़ालिब ने लिखा— ‘इश्क से तबीयत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया, दर्द की दवा पायी, दर्द बे-दवा पाया।’ यानी इश्क से ज़िन्दगी का मज़ा भी मिला और दर्द की दवा और  लाइलाज दर्द भी।

प्रेमी के लिए दर्दे-इश्क इतना ज़रूरी है कि सोये दर्द को जगाया जाता है— ‘जाग दर्दे  इश्क जाग। दिल को बेक़रार कर, छेड़ के आँसुओं का राग।’

कहने की ज़रूरत नहीं कि ये ग़म और दर्द इश्के-मजाज़ी से  पैदा होते हैं, इनका ताल्लुक़ ग़मे-रोज़गार से क़तई नहीं है। ग़मे- रोज़गार से यह ख़ूबसूरत और मीठा-मीठा दर्द हासिल होना मुमकिन नहीं है। ‘ग़ालिब’ ने लिखा कि किसी न किसी ग़म में मुब्तिला होना इंसान की नियति है— ‘ग़मे इश्क गर न होता, ग़मे रोज़गार होता।’

लेकिन सब शायर ग़म को ओढ़ने- बिछाने के क़ायल नहीं हैं। उनके लिए ग़म कोई पालने-पोसने की चीज़ नहीं है। शायर जाँनिसार अख़्तर लिखते हैं— ‘ग़म की अँधेरी रात में, दिल को न बेक़रार कर, सुबह ज़रूर आएगी, सुबह का इन्तज़ार कर।’

और वह ‘फ़ैज़’ साहब का सदाबहार शेर— ‘दिल नाउमीद तो नहीं, नाकाम ही तो है। लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है।’

‘ग़ालिब’ के फलसफ़े के अनुसार ग़म ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा हैं, उन्हें ज़िन्दगी से अलग करना मुमकिन नहीं है— ‘क़ैदे हयात बन्दे ग़म अस्ल में दोनों एक हैं, मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों?’

‘फ़ैज़’ साहब की एक और मशहूर नज़्म, जिसे महान गायिका नूरजहाँ ने स्वर देकर अमर बना दिया, का शेर है— ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।’ वहीं एक दूसरी तबियत का, प्यारा शेर, शायर अमीर ‘मीनाई’ का है— ‘ख़ंजर चले किसी पे, तड़पते हैं हम अमीर, सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।’

ग़म को पालने-पोसने वाला क्लासिक पात्र मशहूर अंग्रेज़ उपन्यासकार चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशंस’ में मिस हैविशाम के रूप में मिलता है। मिस हैविशाम का प्रेमी उन्हें धोखा देकर उस वक्त भाग जाता है जब वे शादी की पूरी तैयारियों के साथ उसका इंतज़ार कर रही थीं। उसके धोखे की ख़बर पाकर मिस हैविशाम ने समय को उसी क्षण पर रोक देने की कोशिश की। घर की घड़ियाँ उसी क्षण पर रोक दी गयीं, वे जीवन भर शादी की वही पोशाक पहने रहीं, शादी की केक पर मकड़जाले तन गये, एक जूता पैर में और एक मेज़ पर ही रहा। लेकिन उनकी सारी कोशिशों के बावजूद वक्त उनकी बन्द मुट्ठी से रिसता गया और धीरे-धीरे वे बूढ़ी हो गयीं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 6 – शहर में झूठ का  पता ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना शहर में झूठ का पता।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 6 – शहर में झूठ का  पता ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆व

आए दिन हर कोई घर-जमीन गांव सब छोड़-छाड़ कर या बेच-बांचकर शहर की ओर कदम बढ़ाता है। पता नहीं शहर में ऐसा कौन सा चुंबक होता है जो लोहे के बदले इंसान को अपनी ओर खींचता है। शहर की चमचमाती सड़कों को देख चमचमाने का कीड़ा बड़ा उछल-कूद करता है। छोटे-छोटे गांवों में शहरी लालच की बड़ी अट्टालिका का निर्माण बिना ईट, सीमेंट, रेत और पानी के हो जाता है। वह क्या है न कि सच्चाई का डाकिया शहर में झूठ का पता कभी नहीं ढूँढ़ सकता। फिर एक दिन इसके-उसके मुँह हमें एक ही बात सुनने को मिलती है- डाकिया ही चल बसा शहर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते। सच कहें तो शहर कुछ लोगों को शह देता है तो कुछ लोगों को हर लेता है।

हमारे गांव में फलां पिछड़ा बाबू रहा करते थे। आजकल शहर में विकास बाबू बनकर हमारे बीच धाक जमा रहे हैं। उन्हीं का नाम ले लेकर गांव में कइयों का जीना हराम हो गया है। मैंने निर्णय किया कि विकास बाबू के यहां जाकर दो-चार दिन ठहरूँगा और अपनी योग्य कोई नौकरी तलाश करूँगा। किंतु जैसे ही मैं शहर पहुंचा वहां विकास बाबू को देखकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। गांव में खुद को सॉफ्टवेयर कंपनी का कर्मचारी बताने वाले विकास बाबू के कर्म और आचार में बड़ा अंतर दिखाई दिया। वे सॉफ्टवेयर कंपनी में नहीं किसी अपार्टमेंट के वॉचमैन की नौकरी करते थे। पूछने पर बताया कि गांव में खुद की जमीन जायदाद होने के बावजूद वह सम्मान नहीं मिल पा रहा था जो सम्मान शहर में आकर झूठ बोलकर मिल रहा है। आज मेरी झूठमूठ की सॉफ्टवेयर की नौकरी से सचमुच की खूबसूरत अप्सरा जैसी पत्नी, लाखों का दहेज, चार चक्का गाड़ी और ऊपर से इज्जत अलग मिल रही है।

मैंने पूछा कि क्या तुम्हें झूठ के पर्दाफाश होने का डर नहीं है? इस पर उन्होंने किसी दार्शनिक की तरह जवाब दिया – कैसा झूठ? कहां का झूठ? यहाँ हर कोई झूठ में जी रहा है। गांव की सच्चाई छोड़ लोग शहर के झूठ की ओर दौड़ रहे हैं। शहर में रहने वाले अपनी सच्चाई छोड़कर महानगरों की झूठी चकाचौंध के पीछे-पीछे दौड़े जा रहे हैं। महानगर में रहने वाले अमेरिका, इंग्लैंड की झूठी दुनिया में जाना चाहते हैं। और वहां रहने वाले चंद्रमा की झूठी दुनिया में घूमना चाहते हैं। यह दुनिया बड़ी अजीब है। सच को लतियाती और झूठ को पुचकारती है। सच्ची दुनिया में झूठे लोग रह सकते हैं लेकिन झूठी दुनिया में सच्चे लोग कतई नहीं रह सकते। यह दुनिया झूठ बोलने वालों को सिर पर और सच बोलने वालों को पैरों तले रखती है। वॉचमैन की नौकरी करने वाले विकास बाबू सच में सॉफ्टवेयर कर्मचारी थे। उन्होंने दुनिया की सच्चाई को बड़े ही सॉफ्ट ढंग से मेरे बदन के हार्डवेयर में उतार दिया था।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 242 ☆ व्यंग्य – ‘नैतिकता का तक़ाज़ा’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य  – नैतिकता का तक़ाज़ा। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 242 ☆

☆ व्यंग्य – नैतिकता का तक़ाज़ा

पार्टी दफ्तर में गहमागहमी है। पार्टी के द्वारा चुनाव के लिए उम्मीदवार की घोषणा होनी है। पिछली बार के उम्मीदवार नाहर सिंह को लेकर असमंजस है क्योंकि, अदालत के निर्णय के अनुसार, उनकी शूरवीरता के कारण उनके दो विरोधी स्वर्गलोक को प्रस्थान कर गये थे। परिणाम स्वरूप उन्हें दो साल कारागार में काटने पड़े,यद्यपि उनकी पार्टी और उनके भक्त उन्हें पूरी तरह दूध का धुला मानते हैं। फिलहाल वे ज़मानत पर हैं। नाहर सिंह अपने इलाके के बाहुबली के रूप में विख्यात रहे हैं और इलाके में उनकी छवि रॉबिन हुड की रही है।

अब नाहर सिंह का टिकट खटाई में है, लेकिन किसी अज्ञात कारण से वे मायूस नहीं हैं। पूछने वालों से हाथ जोड़कर कहते हैं, ‘हम पार्टी के अनुशासित सिपाही हैं। पार्टी का निर्णय हमारे सिर माथे। हम तो जनता के सेवक हैं, टिकट नहीं मिलेगा तब भी सेवा में लगे रहेंगे।’

पार्टी के प्रवक्ता कई बार कह चुके हैं कि उन्हें पार्टी की छवि की फिकर है। उम्मीदवार एकदम उज्ज्वल छवि वाला होना चाहिए,एकदम बेदाग। गड़बड़ छवि वाला बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

अब दफ्तर में नये उम्मीदवार की घोषणा की तैयारी है। कार्यकर्ताओं और मीडिया के द्वारा तरह-तरह के अनुमान लगाये जा रहे हैं। सस्पेंस चरम पर है। सब तरफ खुसुर-फुसुर है। पार्टी के नेता और प्रवक्ता रहस्य धारण किये हैं।

आखिरकार घोषणा होने का क्षण आ गया। नेता और प्रवक्ता स्टेज पर आ गये। कार्यकर्ताओं की टकटकी लगी है, कान खड़े हैं। प्रवक्ता कहते हैं, ‘भाइयो, आपको पता है कि हमारे पिछले उम्मीदवार नाहर सिंह को एक झूठे केस में फँसा कर उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास किया गया है। हमारी पार्टी नैतिकता के ऊँचे सिद्धान्त पर चलती है, हम नैतिकता के मामले में कोई समझौता नहीं करते, चाहे कितना नुकसान हो जाए। हमें भरोसा है कि भाई नाहर सिंह इस केस से बाइज्ज़त बरी होंगे। लेकिन अभी हम विरोधियों को आलोचना का मौका नहीं देना चाहते। इसलिए हम नाहर सिंह जी के स्थान पर पार्टी के नये उम्मीदवार की घोषणा करते हैं।’

फिर उन्होंने हाथ के इशारे से पीछे खड़े एक युवक को आगे बुलाया। युवक बिलकुल नाहर सिंह का युवा संस्करण लगता था। आगे आकर हाथ जोड़े खड़ा हो गया। प्रवक्ता जी उसके कंधे पर हाथ रख कर बोले, ‘ये भाई नाहर सिंह के सुपुत्र केहर सिंह हैं। अब यही पार्टी के उम्मीदवार होंगे। इनकी छवि एकदम उज्ज्वल है। दो चार मारपीट की घटनाओं में इनका नाम आया था, लेकिन वह सब ऊपर ऊपर निपट गया। रिकॉर्ड एकदम साफ-सुथरा है।’

केहर सिंह पब्लिक की तरफ हाथ जोड़कर माइक पर बोले, ‘हम पार्टी के बहुत आभारी हैं कि वह हमें जनता की सेवा का मौका दे रही है। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम आपकी सेवा उतनी ही लगन से करेंगे जैसे हमारे पिताजी करते रहे। हम उन्हीं के बताये रास्ते पर चलेंगे। आप हमें अपना आसिरबाद दें ताकि हम कभी आपकी सेवा से पीछे न हटें।’

सामने खड़ी जनता ने ‘नाहर भैया जिन्दाबाद’, ‘केहर भैया जिन्दाबाद’ के गगनभेदी नारे लगाये। स्टेज पर पीछे खड़े भैया नाहर सिंह ने प्रसन्न मुख से हाथ उठाकर जनता को धन्यवाद दिया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 5 – फेंकू ज्ञान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना फेंकू ज्ञान)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 5 – फेंकू ज्ञान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆व

“आप रहने ही दीजिए। आपसे नहीं हो पाएगा। भैया जी आज के जमाने में लोगों को ज्ञान देने के लिए उन्हें अज्ञानी बनाना जरूरी है। केवल वाट्सप ग्रुप बनाकर एडमिन बने रहने से सिर्फ घांस छील पाओगे। ऐसा करते रहोगे तो समझो हो गया, कारवाँ गुज़र जाएगा और आप गुबार में ही फसें रहोगे। टुकड़ों में यहाँ-वहाँ से बटोरने से कुछ नहीं होता। यह फेंकू ज्ञान है। असली ज्ञान से भी ज्यादा कीमती। असली ज्ञान की तथ्यता स्रोतों, संदर्भों, इंटरनेट से सिद्ध हो जायेंगे। लेकिन फेंकू ज्ञान को जलेबीदार उलझाऊ बातों से सिद्ध करना पड़ता है। समझे बरखुरदार! मैं और मेरे जैसे अनेक बंधु ताजमहल, ज्ञानवापी, कुतुब मीनार, जामा मस्जिद, लाल किला देखकर लौट भी आये और अब खुदाई करने वालों सहित सब को अपना ज्ञान रोजाना परोस रहे हैं और आप यहीं व्यंग्य जैसी बेकार चीज़ लिख रहे हैं। आपने कल देखा नहीं कि ऊधर खोजी लोग ज्ञानवापी पहुँचे कि नहीं इधर ज्ञान की सहस्त्रधारा चहुँ ओर बह निकलीं थीं।”

बिअंग भैया जैसे व्यंग्यकार के भीतर से व्यंग्य का कीड़ा निकालने की कसम खाए फेंकूराम ने कहा- “हम वॉट्सऐपियों ने ही बताया कि ज्ञानवापी के तहखाने में शिवलिंग दैदीप्यमान की तरह चमक रहा है। एक से बढ़कर एक छवियाँ क्रॉप करके धड़ल्ले से पोस्ट कर डाले। सामने वाले की गैलरिया चुटकियों में फुल कर डाले। वह ससुरा इसी में उलझा रहेगा कि तस्वीरें देखें या गैलरी साफ करे। किसी की जगह पर कोई दूसरा कुछ बनाएगा तो खोजबीन होगी ही। आगे तेजोमहल का भी यही हाल होने वाला है। सारा इतिहास हम अपने व्हाट्सप में धरकर चलते हैं।  ज्ञानवापी से शिवलिंग की ली गयी पहली तस्वीर को खोजियों को प्राप्त करने, देखने और जारी करने के पहले ही हम व्हाट्सपवीरों ने उसे सोशल मीडिया में वायरल कर दिया था। सारी दुनिया जैसा करती है, वैसा आप भी किया करो बिअंग भाई। जानते नहीं, हाथी के दाँत दिखाने के कुछ और तथा खाने के कुछ और होते हैं। भीड़ तंत्र का हिस्सा बनो भीड़ तंत्र का। गधा भी अपने को कभी गधा नहीं बोलता, वह चुप रहने के बजाय मौका मिलते ही अपने को घोड़ा साबित करने पर तुल जाता है चाहे उसका ढेंचू-ढेंचू पसंद किया जाये या न किया जाए।

फेंकूराम ने कहा तुम मूरख के मूरख रहोगे। तुम्हारे काले अक्षर भैंस बराबर नहीं सारी दुनिया की कालिख बराबर है। तुम हमेशा अपनी मुर्गी की डेढ़ टांग पर अटक जाते हो। किसी चीज़ को समझने का प्रयास नहीं करते। अरे भाई जी, कुछ समझ में आये न आये, तो भी इस देश की पितृ भाषा अंग्रेजी में बोला करिये – यस, करेक्ट, सब समझ गया, आई कनो, आई कनो ऑल वैरी वेल। बिअंग भैया आपको कहीं भी ‘नो’ याने ‘नहीं’ तो भूल के भी नहीं बोलना है। ‘नो’ के स्थान पर ‘कनो’ चलेगा, दौड़ेगा। जानते हैं न, आजकल सोशल मीडिया में सब कुछ दौड़ रहा है। सारी दुनिया दौड रही है, आप भी उस मैराथान दौड की भीड़ में शामिल हो जाइए। आप ये जताइए कि आप को सब आता है।” बिअंग भैया इससे आगे नहीं सुन सकते थे। उन्होंने हाथ जोड़े और फेंकूराम की सुबह को शाम और शाम को सुबह बोलने का वादा कर वहाँ नौ दो ग्यारह हो गए।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 40 ☆ व्यंग्य – “वे छोटा कुछ सोच ही नहीं पाते हैं…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  वे छोटा कुछ सोच ही नहीं पाते हैं.…”।) 

☆ शेष कुशल # 40 ☆

☆ व्यंग्य – “वे छोटा कुछ सोच ही नहीं पाते हैं…” – शांतिलाल जैन 

एक था मुल्क. मुल्क का था एक बादशाह. आईन से गद्दीनशीन हुआ था. बैलट बॉक्स से निकला हुआ. नए दौर में लिखें तो ईवीएम् से निकला था. बड़े सपने देखता था. कहता था – ‘मैं छोटा कुछ सोच ही नहीं पाता हूँ.’ बड़ा मुल्क, बड़ा बादशाह, बड़ी सोच, बड़े सपने तो गरीब और गरीबी छोटी कैसे रह पाती! जब उसने कहा कि मेरा मुल्क सबसे ऊपर रहना चाहिए तब उसका मतलब रहा आया कि दुनिया में सबसे ज्यादा गरीब हों तो उसके मुल्क में हों. डंका बजे तो उसके मुल्क की गरीबी का बजे. इसके लिए उसने गरीबों को और अधिक गरीब बनाने में कोई कसर बाकी उठा न रखी थी.

एक रोज़ उसने महल की छत पर खड़े होकर एक नज़र अपनी रियाया और रियासत पर डाली. मुतमईंन हुआ. दूर, जहाँ तक नज़र जा पाती शहर की झुग्गी-बस्तियों से लेकर गांवों की झोपड़ियों तक में गरीब ही गरीब नज़र आते. अस्सी करोड़ गरीब. अनाज़ के शाही गोदामों से निकली खैरात से पेट पालती रियाया. उसने व़जीर-ए-खज़ाना से पूछा गरीबी में हम कब तलक अव्वल रह सकते हैं? उसने कहा – ‘जान की अमान हो जहाँपनाह, इसे आप इस तरह समझिए कि हमारे मुल्क की किसी कंपनी का सबसे ऊँचा ओहदेदार अपनी तनख्वाह से एक साल में जितना कमाता है उसी फैक्ट्री में न्यूनतम मजदूरी पाने वाले एक मुलाज़िम को उतना कमाने में नौ सौ इकतालीस बरस लगेंगे.’

‘नौ सौ इकतालीस बरस!! और इस बीच रियाया बग़ावत कर बैठी तो?’

‘पेट में अन्न पड़ा रहेगा तो इन सालों को सालों क्रांति की याद भी नहीं आएगी.  कभी लड़ें भी तो मज़हब, जाति, कौम के नाम पर आपस में लड़ जाएँगे, निज़ाम से नहीं लड़ पाएँगे. आप नाहक परेशान न हों आलम पनाह, जब तक आपका निज़ाम कायम है तब तक आपका इक़बाल बुलंद है.’

बादशाह को तसल्ली हुई. बड़ा मुल्क, बड़ा बादशाह, बड़ी सोच, बड़े सपने. बड़ा होने की तमन्ना ठहरती कब है ज़नाब. उसने फिर से रियाया और रियासत पर नज़र दौड़ाई. गरीबी के दरिया के बीच समृद्धि के चंद टापू नज़र आए. मुल्क की रियाया के महज़ एक फ़ीसद लोग संपत्ति की चालीस फ़ीसदी पर काबिज़. आलीशान और मालामाल. बादशाह ने वजीर-ए-खज़ाना की ओर सवालिया नज़र से देखा तो उसने धीरे से अर्ज़ किया – ‘नहीं, हम अव्वल नहीं है जहाँपनाह. अरबपतियों की संख्या में हमारा मुल्क अभी नंबर तीन पर है.’

एक लेडी होने के चलते बच गई वजीर-ए-खज़ाना वर्ना इतनी चूक पर बादशाह वजीर की खाल में भूस भरवा देता. उसने बस इतना ही कहा – ‘अगले पाँच बरस में सबसे ज्यादा अरबपति भी हमारे मुल्क में होने चाहिए.’

‘आपका परचम बुलंद रहे जहाँपनाह, काम जारी है.’ – हुकुम सर आँखों पर धरते हुवे मोहतरमा ने कहा –‘सदी की शुरुआत में दुनिया के अरबपतियों की फेहरिस्त में अपन के मुल्क से दस से भी कम अमीर शामिल हो पाए थे, आज सैंकड़ा पार कर गए हैं. बेफिक्र रहें आप, जरूरत पड़ी तो आईन बदल देंगे मगर आपका कौल पूरा हो कर रहेगा. शाही खजाने से निकलती धाराएँ, नीतियों की नहरों से होती हुई, उनकी तिजोरियों की ओर घुमा दी गई हैं.  बहाव अब और तेज़ किए जाएँगे. रेल अड्डे, बस अड्डे, हवाई अड्डे, बंदरगाहें, खानें-खदानें, जल, जंगल, जमीनें, बहाव कोई सा भी हो किधर से भी गुजरे – समाएगा तो उन्हीं की तिजोरियों में जाकर. पहले एशिया के सबसे अधिक रईसों में शुमार, फिर दुनिया के अव्वल सौ में, फिर दस में. और एक दिन दुनिया का सबसे धनवान, अपन के मुल्क का शहरी.’

बादशाह ने राहत की सांस ली. गरीबी तेज़ी से बढ़ रही है तो अमीरी भी. उसे फ़ख्र महसूस हुआ. सही दिशा में जा रहा है उसका निज़ाम. मालियात के फैसलों को विकास की सड़क पर बायीं ओर चलने से रोकना ही पड़ता है. आल्वेज कीप राईट. जब तक अमीर और अधिक अमीर नहीं होंगे तब तक गरीब और अधिक गरीब कैसे होंगे!!

शाम ढलने को थी. उसने निशान-ए-मुल्क के चार में एक शेर के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और धीरे से पूछा – ‘माय डियर पत्थर के सनम, ठीक चल रहा ना!’ शेर को मन ही मन बादशाह पर दया आई. उसने कहना चाहा कि कितने सम्राटों, चक्रवर्तियों, बादशाहों ने ये भूल की है. जिस दिन मुल्क के अमीर-उमरावों की इमारतों की ऊँचाई शाही महल की ऊँचाई से ऊपर निकल गई, उस दिन निज़ाम उनका होगा तुम्हारा नहीं बादशाह. मगर वो चुप रहा.

फ़िलवक्त बादशाह मुतमईन है. उसका निज़ाम अमीरों की संख्या में अव्वल नंबर होने को है तो गरीबों की संख्या में भी वही तो है. अव्वल नंबर होना उसे सबसे ज्यादा सुहाता है.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 4 – अंतर्मन का भाषण ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अंतर्मन का भाषण)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 4 – अंतर्मन का भाषण ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

एक मंत्री जी अपने जीवन की अंतिम साँसें गिन रहे थे। उनके पास अधिक समय नहीं था। सो उन्होंने अपने लड़के को पास बुलाया और कहा – “मुझे नहीं पता कि मैं और कितनी देर जी पाऊँगा। मैं चंद पलों का मेहमान हूँ। तुमने मेरे कई भाषण सुने हैं। ये सभी बाहरी भाषण हैं। इन्हें हर कोई सुन सकता है। लेकिन मैं तुम्हें आज एक भाषण सुनाऊँगा जो तुम्हें बाहर नहीं अपने अंतर्मन में हमेशा दोहराना होगा। यदि तुम इस भाषण का गूढ़ार्थ समझ गए तो तुम्हें किसी चीज़ की कमी नहीं खटकेगी। सफलता तुम्हारे क़दम चूमेगी। तो ध्यान से सुनो–

भाइयो और बहनो! मैं सबको हाथ जोड़कर सिर झुकाए प्रणाम करता हूँ। आपको पता है कि मेरे पिता ने किस तरह विश्वास दिलाकर, वोट हथियाकर, विधायक बने, फिर मंत्री बनकर करोड़ो रुपए डकार गए। आपको भनक तक नहीं लगने दी। दूधमुँहे बच्चों के दूध से लेकर पूँजीपतियों को ज़मीन मंजूर करने तक की हर स्कीम में एक से बढ़कर एक स्कैम किए, इन स्कैमों के चलते जो नाम कमाया है, वह किसी से छिपा नहीं है। उनका नाम टाइप करने भर से गूगल का सर्च इंजन काँपने लगता है। धरती फटने लगती है। उसी फटी धरती में खुद धरती माँ समाने के लिए मचलने लगती है। सरकार ने मेरे पिता को एक सौ करोड़ रुपए देकर गरीबों के लिए घर बनाने को कहा तो उन्होंने आपको झुग्गी-झोपड़ियाँ बनाकर दी। अब आप पूछेंगे कि वे सौ करोड़ रुपए कहाँ गए, तो मैं उसका पूरा हिसाब लेकर आया हूँ। तो सुनिए, पचास करोड़ में हमारे लिए दिल्ली में सभी ऐशो-आराम वाला गेस्ट हाऊस बनवाया। शेष बचे रुपयों से अपनी रखैल के लिए शॉपिंग मॉल बनवाया। आप लोगों से आऊटर रिंग रोड के नाम पर खेती करने वाली ज़मीनें छीनकर प्राइवेट कंपनियों के मालिकों को बेच डाला। इतना सब करने के बावजूद किसी ने मेरे पिता को भ्रष्टाचारी कहने की हिम्मत नहीं की। न जाने कितनी हत्याएँ कीं, बलात्कार किए, ज़मीन हड़पी लेकिन किसी ने चूँ तक नहीं की। बल्कि उनके लिए आप विरोधियों से लड़ गए। चुनाव के समय एक दारू की बोतल, बिरयानी पैकट और एक हरी पत्ती फेंकने पर कुत्तों से भी अधिक दुम हिलाकर विश्वास दिखाने वाली आपकी कला पर हमें गर्व है।

मेरे देशवासियों चिंता मत कीजिए। पिता जी नहीं रहे तो क्या हुआ, मैं तो हूँ न। मेरे पिता द्वारा स्थापित कीर्तिमान को साक्षी मानते हुए मैं आपसे प्रण करता हूँ कि अंतरिक्ष में जितने तारे हैं, मैं उनसे भी ज्यादा स्कैम करूँगा। मैं अपने पिता को किसी भी सूरत में निराश नहीं होने दूँगा। उन्होंने आपके लिए कम से कम झुग्गी-झोपड़ियाँ तो बनवाईं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपकी झुग्गी-झोपड़ियाँ नेस्तनाबूद करके आप सभी को मंदिरों की चौखट पर भीख माँगने के लिए मजबूर कर दूँगा। मेरे पिता जी ने आऊटर रिंग रोड के नाम पर आपकी आधी ज़मीनें छीन लीं। मैं उन्हीं का बेटा हूँ। मुझमें उन्हीं का असली खून दौड़ता है। मैं बिना हड़पे कैसे रह पाऊँगा। मैं एयरपोर्ट के नाम पे झूठा वादा करके बाकी बची ज़मीनें भी छीन लूँगा।

सोचिए देशवासियों  मैं यह सब आपको क्यों बता रहा हूँ। इसलिए कि मैंने आप जैसी मूरख जनता कहीं नहीं देखी है। मेरे पिता ने लाख स्कैम किए, बलात्कार किए, हत्याएँ कीं, फिर भी आप उन्हें जिताते रहे। जब तक आप जैसे भेड़ हैं तब तक मुझ जैसे लकड़बग्घों का चुनाव में खड़ा होना ज़रूरी है।  मुझे और मेरे परिवार को पता चल गया है कि आपमें शर्म-हया नाम की चीज़ नहीं बची है। मैं आपके खून-पसीने की कमाई से विदेश में महंगी पढ़ाई के साथ-साथ मौज मस्ती करता रहा और आप थे कि अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के लिए भी तरस गए। मेरे पिता अक्सर कहा करते थे कि मूरख जनता को मूरख न बनाना हमारी मूरखता होगी। उन्होंने कहा था कि नेता के पेट से नेता और गरीब के पेट से गरीब ही पैदा होता है। विधायक से मंत्री बनना मेरे पिता का खानदानी बिजनेस है। मैं उसी बिजनेस की परंपरा निभा रहा हूँ। इस बार मैं चुनाव में खड़ा हूँ। विश्वास है कि बगैर बुद्धिमानी दिखाए अपनी मूरखता से मुझे अवश्य विजयी बनाओगे। मूरखता दिखाना आपकी खानदानी आदत है तो उसे भुनाना हमारी। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि यह परंपरा यहाँ नहीं रुकेगी। आज मैं जीतूँगा तो कल मेरा बेटा जीतेगा। आज मैं विधायक बनूँगा तो कल मेरा बेटा विधायक बनेगा। आज मैं मंत्री बनूँगा तो कल मेरा बेटा मंत्री बनेगा। और आप पहले भी भेड़ थे, आज भी भेड़ हैं और आगे भी भेड़ रहेंगे।”

इतना कहते हुए मंत्री जी ने दम तोड़ दिया।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 3 – एक फैले हुए पेट की चर्बी कथा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना एक फैले हुए पेट की चर्बी कथा।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 3 – एक फैले हुए पेट की चर्बी कथा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

न मैं आकाश अंबानी हूँ। न अच्छी-खासी सैलरी वाला इंसान। मैं निरा मोटू हूँ। सौ कैरट शुद्ध सोने की तरह शुद्ध सौ फीसदी चर्बी वाला मोटू। मोटुओं के लिए जीने की जिम्मेदारी बड़ी चैलेंजिंग होती है। उससे भी बड़ा भैया बनने का ख्याल। जब लड़कियाँ मुझ जैसे मोटुओं को देखती हैं, तो उन्हें लगता है कि इन्हें सच्चे प्यार के बजाय खाना पसंद है। शायद इसीलिए वे मोटुओं को देखते ही “भैया” कह देती हैं। पर क्या वे जानती हैं कि मोटुओं का भी दिल होता है, और उनमें भी प्यार के ख्वाब होते हैं? यह जानकर मुझे भी विचार आता है कि कहीं भैया बनने का ख्याल परमानेंट न हो जाए, क्या मुझे प्यार करने का अधिकार नहीं है? यह सब इसलिए बता रहा हूँ कि मैं बहुत मोटू हूँ। मोटुओं की परेशानियाँ मोटू ही जानते हैं। जिस तरह महात्मा गांधी देश के राष्ट्रपिता हैं, ठीक उसी तरह हर मोटू लड़का देश भर की लड़कियों के लिए भैया होते हैं।  पता नहीं क्यों लड़की मुझे देखते ही भैया कह देती है। क्या उसे नहीं पता कि मेरा भी एक मन होता है। मुझे भी प्यार करने की इच्छा होती है। जब से खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है, मुहावरा सुना है, तब से लड़कियाँ तो लड़कियाँ बड़ी-बूढ़ी महिलाएँ भी मुझे भैया कहकर दूर बैठने की सलाह देती हैं। मानो ऐसा लगता है मुझ जैसे मोटुओं को देखते ही उनके भीतर की ऐसी ग्रंथियाँ जो गबरू जवान को पहचानकर नैन मटक्का करने लगती हैं, तुरंत संस्कारों में बदलकर दुनियाभर का सम्मान परोसने पर आमादा हो जाती हैं। मेरा हाल तो उस समय और बुरा हो जाता जब माँ की उम्र सी लगने वाली महिला जिसके बाल चूने की सफेदी से चुनौती लेने के लिए मचल उठते हैं, वे भी मुझे भैया कहकर बुलाने में कोई झिझक महसूस नहीं करती हैं। मुझे भी लगा कि उन्हें माँ कहकर पुकारूँ, लेकिन मैं उनकी तरह खुले विचारों वाला नहीं था।

मुझ जैसों का एक फेवरेट ड्रेस होता है। एक इसलिए क्योंकि मोटुओं के लिए कंपनियाँ ड्रेसेस ही नहीं बनातीं। न जाने इनको किसने सिखा दिया कि मोटुओं के लिए सिलेंडर टाइप का कुछ बना दो उसी में वे खुद को अडजस्ट कर लेंगे। न हमारे लिए कोई कलर की च्वाइस होती है न कोई डिजाइन की। कभी-कभी तो लगता  है कि इन कंपनियों को आग लगा दूँ। फिर सोचता हूँ कि ऐसा करने पर जो एकाध ड्रेस मिल रहा है, वह भी भला देने वाला कौन बचेगा। शॉपिंग मॉल जाकर ड्रेस खरीदने की पीड़ा शब्दों में बयान करना मुश्किल है। सेल्समैन चुहल करने की फिराक़ में या फिर कुछ और सोचकर जानलेवा मज़ाक करते हुए पूछता है – बताइए सर आपके लिए किस साइज की जिंस दिखाऊँ? 32  कि 34 या फिर स्लिम फिट? अब मैं उसे कैसे बताऊँ मोटुओं के लिए स्लिम नाम के शब्द से कोई ड्रेस नहीं बनता। फिर वही थक-हारकर 44 साइज़ का एक झिंगोला देते हुए उसे कुछ अंग्रेजी वाले नाम से मुझे चिपका देता है।  शॉपिंग मॉलों में ड्रेस खरीदने का यह स्टंट मुझ जैसे मोटुओं के लिए कितना विचित्र होता है, यह जानने के लिए कोई अद्भुत सोच नहीं हो सकती।

यह सब शॉपिंग मॉल के बगल लगाई तीन दुकानों की वजह से होता है। जब भी यहाँ आता हूँ इन तीन दुकानों के दर्शन करना नहीं भूलता। पहली दुकान का नाम हंगर ग्रिल्स, दूसरी का भोलेनाथ चाटभंडार और तीसरी का डिलिशियस आइसक्रीम। यहाँ आने से पहले जितना भी जिम कर दो-तीन इंच घटाकर आता हूँ उतना ही बढ़ाकर जाता हूँ। वह क्या है न कि मैं किसी का हिसाब बाकी नहीं रखता। जिम का एहसान इन दुकानों को चुकाकर परमशांति का आभास होता है।  यह शॉपिंग मॉल न केवल मुझ जैसे मोटुओं की पसंदीदा जगह है, बल्कि इसे एक विशेष क्रांतिकारी जगह के रूप में भी देखा जा सकता है – ‘शॉपिंग जिम’। जी हाँ, आपने सही सुना, जिम। शॉपिंग के साथ-साथ पेटफोड़ एक्सरसाइज करने के लिए स्वादिष्ट व्यंजन भी मिलते हैं। जिम करने के बजाय, आप यहाँ पर भी अपने मास्टर कुकिंग की बजाय ईटिंग कौशलों को बढ़ा सकते हैं। शॉपिंग मॉल के इस क्रांतिकारी आविष्कार की वजह से अब मैं दुकानों की भीड़ में खो जाने की बजाय, अपने मोटू जीवन के हर क्षण को सही ढंग से एंजॉय करने का आदी हो जाता हूँ।     

लोग सोचते हैं कि मोटू लड़कों को केवल ड्रेस ढूँढ़ने की परेशानी होती है। जब वह कपड़े की दुकान में कदम रखता है, तो यह उनके लिए जंगल के अंदर एक खतरनाक सफर जैसा होता है, जहाँ हर आउटफिट उनके आत्मसम्मान को हजारों टुकड़ों में कुचलने की धमकी देता है। मुझ जैसे मोटू लड़के समाज की लगातार निगरानी में रहते हैं, जहाँ यह मोटी चर्बी वाली उदरकथा आम जनता के लिए चर्चा का विषय बनी रहती हैं। लोग मेरे खाने-पीने की आदतों, व्यायाम शैलियों, और उठने-बैठने के आधार पर निःशुल्क सलाह देने को अपना अधिकार समझते हैं। और ऊपर से उनकी व्यंग्योक्तियों के अंतहीन कथन -: “तुम्हारे पास इतना चब्बी-चब्बी चेहरा है, अगर तुम थोड़ा वजन कम कर लो तो।” जैसे मूल्यांकन सहने पड़ते हैं। सच कहें तो पतलेपन के पवित्र मंदिर में पूजा करने वाली दुनिया में, मोटुओं को अपना अंतरिक्ष खुद बनाना पड़ता है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 239 ☆ व्यंग्य – ‘भविष्य का भूत’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – भविष्य का भूत। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 239 ☆

☆ व्यंग्य – भविष्य का भूत

उसे दिन नन्दलाल की दूकान में घुसा तो देखा एक युवक नन्दलाल की हथेली अपने हाथों में लिये उसे गौर से देख रहा है। युवक दुबला पतला था, महीने दो-महीने की दाढ़ी बढ़ाये।

मुझे देखकर नन्दलाल बोला, ‘ये राम अरदास शास्त्री हैं। हस्तरेखा के अच्छे जानकार हैं।’

मैं आदतन मज़ाक के मूड में आ गया। प्रभावित होने का भाव दिखाकर मैंने ‘अच्छा’ कहा।

वह माथे पर बल डाले नन्दलाल को बता रहा था, ‘आपको कहीं से संपत्ति मिलने का योग है। चालीस साल की आयु के बाद से आपकी स्थिति में निश्चित सुधार है। कुछ परेशानियाँ भी हैं, लेकिन हल हो जाएँगीं।’

मैं बैठा बैठा मज़ा ले रहा था। जैसे ही उसने नन्दलाल का हाथ छोड़ा, मैंने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया। कहा, ‘कुछ अपना भी देखो,शास्त्री जी।’

वह देर तक मेरी हथेली को उलटता पलटता रहा, फिर बोला, ‘अभी तक तो आपका समय अच्छा कटा, लेकिन अगला साल कुछ गड़बड़ है। आप अँगूठी में पुखराज धारण करें।’

मैंने झूठी गंभीरता से पूछा, ‘पुखराज कितने में आएगा शास्त्री जी?’

वह बोला, ‘करीब तीन चार हजार का।’

अब मैं अपनी असलियत पर आ गया। मैंने हँसकर कहा, ‘शास्त्री जी, तीन चार हजार का पुखराज पहनने के बजाय अगर यही रकम अपने साहब की मस्केबाज़ी में खर्च करूँ तो आगे आने वाले कई साल शुभ हो जाएँगे।’

वह स्पष्टतः नाराज़ हो गया। उसका चेहरा लाल हो गया। गुस्से में बोला, ‘तो साफ साफ सुनना चाहते हैं?’

मैंने कहा, ‘सुनाइए।’

वह आवेश में बोला, ‘तो सुनिए। अगले साल के सितंबर माह तक आपके गोलोक वासी होने का योग बनता है। इसे बिल्कुल निश्चित समझिए। अपनी वसीयत वगैरह कर डालिए और तैयार हो जाइए।’

मैंने कहा, ‘और अगर मैं इस धरती पर टिका रहा तो?’

वह हाथ पटक कर बोला, ‘मैं पाँच सौ रुपये की शर्त लगाने को तैयार हूँ।’

शर्त लग गयी। नन्दलाल हम दोनों के लिए जिम्मेदार बन गया। जो हारेगा उसकी तरफ से नन्दलाल पाँच सौ रुपये जीतने वाले को देगा।

मैंने बात को गंभीरता से नहीं लिया, बल्कि उसे भूल भी गया। अगला साल भी शुरू हो गया और महीने खिसकने लगे।

जुलाई में एक दिन नन्दलाल मुझसे बोला, ‘यार, यह शास्त्री तो आजकल बहुत परेशान कर रहा है।’

मैंने पूछा, ‘क्या हुआ?’

वह बोला, ‘वह अंतरे दिन तुम्हारे स्वास्थ्य की रिपोर्ट लेने आ जाता है। पूछता है तबियत कैसी चल रही है? स्वास्थ्य पहले जैसा ही है या कुछ गड़बड़ है? तुम्हारी तबियत पर गिद्ध जैसी नज़र जमाये है।’

उसी माह में मुझे सर्दी खाँसी हो गयी। आठ दस दिन तक नन्दलाल की दूकान पर नहीं जा पाया। एक दिन सड़क की तरफ वाले कमरे में लेटा था कि एकाएक देखा कि शास्त्री खिड़की में से झाँक रहा है। मैं बाहर आया तो वह दूर जल्दी-जल्दी जाता दिखा।

एकाध बार देखा वह मुहल्ले के बच्चों से मेरे मकान की तरफ उँगली उठाकर कुछ पूछ रहा है। मुहल्ले के लोगों ने बताया कि वह अक्सर मुहल्ले में मंडराता रहता है और मेरे स्वास्थ्य के बारे में पूछता रहता है। ज्यों ज्यों समय बीतता जा रहा था, उसकी परेशानी बढ़ती जा रही थी।

अगस्त माह के अन्त में मेरे साले साहब की शादी पड़ गयी। बहुत दिनों से ससुराल नहीं गया था। एक महीने की छुट्टी लेकर चल दिया।

जिस दिन मुझे रवाना होना था उसके पहले दिन शाम को शास्त्री नन्दलाल की दूकान में मुझे मिला। पूछने लगा, ‘सुना है आप बाहर जा रहे हैं?’

मैंने ‘हाँ’ कहा तो वह थोड़ा रुक कर बोला, ‘ध्यान रखिएगा, यह अगस्त का महीना है। मेरे लिए पाँच सौ रुपये और प्रतिष्ठा का सवाल है। दो-तीन दिन में नन्दलाल जी के पते से पत्र देते रहिएगा। मेरा जी आपका स्वास्थ्य में लगा रहेगा।’

मैंने हँसकर कहा, ‘ज़रूर।’

ससुराल पहुँचने पर हर तीसरे दिन उसका कार्ड पहुँचने लगा— ‘प्रिय भाई, अपने स्वास्थ्य की सूचना दें। मैं बहुत उत्सुक हूँ।’

एक दिन पत्नी ने इन कार्डों का रहस्य पूछा तो मैंने उन्हें पूरा किस्सा बताया। सुनकर वे चिन्तित और कुपित हो गयीं। बोलीं, ‘तुम हमेशा उल्टे सीधे मज़ाक करते रहते हो। मुझे यह पसन्द नहीं। किसी तरह इससे पिंड छुड़ाओ।’

मैंने कहा, ‘इससे तो मर कर ही पिंड छूट सकता है।’

मैंने समझ लिया कि शास्त्री मेरे ससुराल के सारे आनन्द को किरकिरा कर देगा। उसके हर कार्ड के साथ पत्नी की नाराज़गी बढ़ती जा रही थी। हारकर मैंने विचार किया और मुक्ति पाने के लिए उसे इस प्रकार का पत्र लिखा—

‘परम शुभचिन्तक शास्त्री जी,

आपको जानकर दुख/ सुख होगा कि मैं दिनांक 6 सितंबर को शुभ मुहूर्त में इंतकाल फरमा गया। चूँकि मैं शर्त हार गया हूँ, अतः आप पाँच सौ रुपये की रकम नन्दलाल से प्राप्त कर लें। मैं उन्हें पत्र लिख रहा हूँ। किन्तु अपने इन्तकाल की बात को मैं कुछ विशेष कारणों से फिलहाल गोपनीय रखना चाहता हूँ,अतः इसे अपने तक ही सीमित रखें। शर्त जीतने के लिए बधाई।’

इसके साथ ही मैंने सारी स्थिति को समझाते हुए नन्दलाल को भी पत्र लिखा और उसे पाँच सौ रुपये शास्त्री को देने के लिए कहा।

छठवें दिन शास्त्री का जवाब आ गया। लिखा था—

‘परम प्रिय भाई जी,

आपका कृपा पत्र प्राप्त हुआ। आपके गोलोक वासी होने की बात पढ़ कर कुछ दुख हुआ लेकिन अपनी भविष्यवाणी सच होने और पाँच सौ रुपये की रक्षा हो जाने के कारण कुछ संतोष भी हुआ। आप जानते ही हैं कि यह मेरी प्रतिष्ठा का सवाल था। आप जहाँ भी रहें सुख से रहें। आप विश्वास रखें यह बात पूर्णतया गोपनीय रखी जाएगी।

आपका शुभचिन्तक

राम अरदास शास्त्री’

उसके बाद मैं ससुराल में बाकी दिन चैन से रहा। बाद में अपने शहर पहुँचने पर मेरे भूत को देखकर शास्त्री किस तरह चौंका, यह किस्सा अलग है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 2 – माँ सरकार चली गई ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना माँ सरकार चली गई)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 2 – माँ सरकार चली गई ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

जीवन के आंगन में रखी कुर्सी पर ‘बेरोज़गार’ नामक अंकल बैठे थे। उन्हीं के पास उनके बच्चे भुखमंगालाल, लाचारीदेवी और निराशकुमार उन्हें ध्यान से सुन रहे थे। बेरोज़गार अंकल बच्चों को अपने जीवन का एक किस्सा सुना रहे थे। वे कहने लगे –

“बहुत पहले उनके घर के अड़ोस-पड़ोस में रोज़गार लोग रहते थे। वे हर महीने वेतन उठाते और खूब मौज-मस्ती करते। मुझे भी उनकी तरह रोज़गार करने की इच्छा होती। लेकिन मुझे रोज़गार करने का सौभाग्य नहीं मिला। मैं बस ललचाई आँखों से विज्ञापन देखता और छह महीने बाद रद्द हो जाने पर चुपचाप रह जाता।

फिर एक दिन मैं और तुम्हारी बुआ डिग्री ने निर्णय किया कि कल कुछ भी हो जाए माँ सरकार से रोज़गार लेकर ही रहेंगे। अगले दिन मैं उठा। लेकिन तुम्हारी बुआ डिग्री नहीं उठी। मैंने उसे डाँट-फटकारकर जैसे-तैसे उठाया। लेकिन माँ सरकार नहीं उठी। मैंने बगल के कमरे में सो रहे उम्मीद चाचा को आवाज़ देकर उठाया। लेकिन माँ सरकार नहीं उठी। मैं दौड़े-दौड़े बस स्टैंड गया। वहाँ जान-पहचान के ड्राइवर फिक़र अंकल को बहुत दूर शहर में रहने वाले संकल्प भैया को यह बताने के लिए कह दिया कि माँ सरकार नहीं उठ रही है। दौड़े-दौड़े फिर घर लौटा। पड़ोस में भ्रष्टाचार, लूटपाट, स्कैम नामक तीन ताऊ रहा करते थे। उनकी माँ सरकार से बहुत जमती थी। फिर भी उनके पास जाकर मैं खूब रोया और गिड़गिड़ाया।  उनके हाथ-पैर जोड़े। मिन्नतें कीं। घर पर चुपचाप लेटी माँ सरकार को उठाने की प्रार्थना की। आखिरकार वे तीनों घर पहुँचे। तीनों ने बारी-बारी से माँ की नब्ज़ टटोली। बड़े ताऊ भ्रष्टाचार ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए गंभीरता से कहा – बेटा बेरोज़गार! तेरी माँ सरकार इस दुनिया में नहीं रही।  वह हम सबको छोड़कर बहुत दूर चली गई है। अब उसे भूल जा। इतना सुनना था कि मैं और मेरी बहन छाती पीटकर रोने लगे।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 277 ☆ व्यंग्य – जाति का नशा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – जाति का नशा। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 277 ☆

? व्यंग्य – जाति का नशा ?

भांग, तंबाखू, गुड़ाखू, अफीम, देशी शराब, विदेशी व्हिस्की, ड्रग्स, सब भांति भांति के नशे की दुकानें हैं। हर नशे का मूल उद्देश्य एक ही होता है, यथार्थ से परे वर्तमान को भुलाकर आनंद के एक तंद्रा लोक में पहुंचा देना।

अफीम के आनंद में कोई साधक परमात्मा से डायरेक्ट कनेक्शन खोज निकालता है। तो कोई वैज्ञानिक ड्रग्स लेकर अन्वेषण और आविष्कार कर डालता है। शराब के नशे में लेखक नई कहानी लिख लेते हैं। तंबाखू गुटका खाकर ड्राइवर लंबे सफर तय कर डालते हैं। परीक्षाओं की तैयारियां करने में

चाय काफी सिगरेट के नशे से स्टूडेंट्स को मदद मिलती है। बीड़ी के धुंए से मजदूर अपनी मजबूरी भूल मजबूती से काम कर लेते हैं। और शाम को दारू के नशे में शरीर का दर्द भूल जाते हैं।

दिमाग का केमिकल लोचा सारी शारीरिक मानसिक शक्तियों को एकाग्र कर देता है। यूं बिना किसी बाहरी ड्रग के भी यौगिक क्रियाओं से दिमाग को इस परम आनंद की अनुभूति के लिए वांछित केमिकल्स खुद उत्पादित करने की क्षमता हमारे शरीर में होती है। उसे सक्रिय करना ही साधना है। नन्हें शिशु को मां के दूध से ही वह परमानंद प्राप्त हो जाता है कि वह बेसुध लार टपकाता गहरी नींद सो लेता है। प्रेमियों को प्रेम में भी वही चरम सुख मिलता है। जहां वे दीन दुनिया से अप्रभावित अपना ही संसार रच लेते हैं।

जातियां, धर्म, क्षेत्रीयता, राष्ट्रवाद, भाषाई या राजनैतिक अथवा अन्य आधारों से ध्रुवीकरण भी किंबहुना ऐसा ही नशा उत्पन्न करते हैं कि लोग बेसुध होकर आपा खो देते हैं। जातीय अपमान की एक व्हाट्स अप अफवाह पर भी बड़े बड़े समूह मिनटों में बहक जाते हैं। इस कदर कि मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं।

कभी समाज में विभिन्न कार्यों के सुचारू संचालन हेतु कोई कार्य विभाजन किया गया था। कालांतर में यह वर्गीकरण जातियों में बदल गया। ठीक उसी तरह जैसे आज साफ्टवेयर इंजीनियर, वकील, डाक्टर्स, आई ए एस वगैरह का हाल है, परस्पर कार्यों की समुचित समझ और स्टेट्स की समानता के चलते कितने ही विवाह इस तरह के ग्रुप में समान कार्यधर्मी से होते दिखते हैं।

जातियां बड़े काम की चीज हैं, आरक्षण की मांग हो, सरकारी योजनाओं के लाभ लेने हों, तो लामबंद जातीय समीकरण नेताओ को खींच लाते हैं, और मांगे पूरी हों न हों, आश्वासन जैसा कुछ न कुछ तो हासिल हो ही जाता है। जातीय संख्या राजनीति को आकर्षित करती है। लाम बंद जातियां नेताओ को वोट बैंक नजर आती हैं। गिव एंड टेक के रिश्ते मजबूत हो जाते हैं। समूह के हित जातियों के लिए फेविकोल सा काम करते हैं।

बेबात की बात पर जात बाहर और भात भोज से जात मिलाई, तनखैया घोषित कर देना, फतवे जारी कर देना जातीय पंचायतों की अलिखित ताकत हैं। बहरहाल हम तो कलम वाली बिरादरी के हैं और हमारा मानना है कि जाति पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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