हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # – मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी……. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक व्यंग्य कविता  दूरदर्शी दिव्य सोच – बनाम – मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी…….। 

डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी ने बिना किसी लाग -लपेट के जो कहना था कह दिया और जो लिखना था लिख दिया।  अब इस व्यंग्य कविता का जिसे जैसा अर्थ निकालना हो निकलता रहे।  सभी साहित्यकारों के लिए विचारणीय व्यंग्य कविता।  फिर आपके लिए कविता के अंत में लाइक और कमेन्ट बॉक्स तो है ही। हाँ, शेयर करना मत भूलिएगा।

आप आगे पढ़ें उसके पहले मुझे मेरी दो पंक्तियाँ तो कहने दीजिये:

अब तक का सफर तय किया इक तयशुदा राहगीर की मानिंद।

आगे का सफर पहेली है इसका एहसास न तुम्हें है न मुझको ।

  • हेमन्त बावनकर )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #6 ☆

 

☆  दूरदर्शी दिव्य सोच 

बनाम———————

मृत्युपूर्व शवयात्रा की तैयारी……. ☆  

 

आत्ममुखी एकाकी,  80 वर्षीय वरिष्ठ साहित्यकार  के नगर में होने वाले सभी आयोजनों में उनके एकाएक सदाबहार, मुखर उपस्थिति का कारण पूछने पर उन्होंने जो बताया, सुनकर सुखद आश्चर्य से अचम्भित हुए बिना न रह सका——

“स्मृति स्मारक निर्माण, गली-मुहल्ले, चौराहे पर स्वमूर्ति स्थापना, मरणोपरांत राष्ट्रीय अलंकरण के अवसर आदि के सुंदर ख्वाब सजाए आगे की तैयारियों के तहत जीवन की सांध्यबेला में ये चहल-पहल कर भव्य शवयात्रा के अपने गुप्त एजेंडे का ज्ञान कराया उन्होंने” ।

अमरत्व प्राप्ति के उनके इस दिव्य प्रखर सूत्र से प्रभावित हो एक कविता का सृजन हुआ।

आप भी पढ़ें और अपने लिए भी कुछ सोचें :-

 

मृत्यु पूर्व, खुद की

शवयात्रा पर करना तैयारी है

बाद मरण के भी तो

भीड़ जुटाना जिम्मेदारी है।

 

जीवन भर एकाकी रह कर

क्या पाया क्या खोया है

हमें पता है, कलुषित मन से

हमने क्या क्या बोया है,

अंतिम बेला के पहले

करना कुछ कारगुजारी है।

मृत्युपूर्व खुद की शवयात्रा

पर करना………

 

तब, तन-मन में खूब अकड़ थी

पकड़  रसूखदारों  में  थी

बुद्धि,  ज्ञान, साहित्य  सृजन

प्रवचन, भाषण नारों में थी,

शिथिल हुआ तन, मन बोझिल

इन्द्रियाँ स्वयं से हारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

होता नाम निमंत्रण पत्रक में

“विशिष्ट”,  तब जाते थे

नव सिखिए, छोटे-मोटे तो

पास फटक नहीं पाते थे,

रौबदाब तेवर थे तब

अब बची हुई लाचारी है।

मृत्युपूर्व……

 

अब मौखिक सी मिले सूचना

या अखबारों में पढ़ कर

आयोजन कोई न छोड़ते

रहें उपस्थित बढ़-चढ़ कर,

कब क्या हो जाये जीवन में

हमने बात विचारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

हंसते-मुस्काते विनम्र हो

अब, सब से बतियाते हैं

मन – बेमन से, छोटे-बड़े

सभी को गले लगाते हैं,

हमें पता है, भीड़ जुटाने में

अपनी अय्यारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

मालाएं पहनाओ हमको

चारण, वंदन गान करो

शाल और श्रीफल से मेरा

मिलकर तुम सम्मान करो,

कीमत ले लेना इनकी

चुपचाप हमीं से सारी है।

मृत्युपूर्व…….

 

हुआ हमें विश्वास कि

अच्छी-खासी भीड़  रहेगी तब

मिशन सफल हो गया,खुशी है

रामनाम सत होगा जब,

जनसैलाब देखना, इतना

मर कर भी सुखकारी है। मृत्युपूर्व…….

 

हम न रहेंगे, तब भी

शवयात्रा में अनुगामी सारे

राम नाम है सत्य,

साथ, गूंजेंगे अपने भी नारे,

मरकर भी उस सुखद दृश्य की

हम पर चढ़ी खुमारी है

मृत्युपूर्व……………

 

शव शैया से देख हुजुम

तब मन हर्षित होगा भारी

पद्म सिरी सम्मान, प्राप्ति की

कर ली, पूरी तैयारी,

कहो-सुनो कुछ भी, पर यही

भावना सुखद हमारी है।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ याददाश्त उधारी पर ☆ श्रीमति समीक्षा तैलंग

श्रीमति समीक्षा तैलंग 

(आदरणीय श्रीमति समीक्षा तैलंग जी का e-abhivyakti में स्वागत है। हम पूर्व में आपके व्यंग्य संग्रह “जीभ अनशन पर है” की समीक्षा प्रकाशित कर चुके हैं। आप व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम भविष्य में आपके उत्कृष्ट साहित्य से अपने पाठकों को रूबरू कराते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य याददाश्त उधारी पर।)

 

व्यंग्य – याददाश्त उधारी पर 

 

स्लो पॉयजन मतलब आज के जीने की खुराक। शर्तिया…। रामबाण…। न मिले तो सांसें उखडऩे लगे। फ़क्र करना होगा कि जमाना बदल चुका है। खुली सांस और शुद्ध जल नाकाफी है। है भी नहीं…। हाशिये पर जीने वाले भी इसकी गिरफ्त से दूर नहीं…। नौजवान और उनकी तोंद भी इसी की शिकार हैं। मानो तोंदियापन फ़ैशन सा हो गया हो। फिर भी चस्का ऐसा कि भले बेरियाट्रिक सर्जरी करानी पड़ जाए लेकिन इसकी लत न छोडेंगे भाई…।

चलो, एक परसेंट छोड़ भी देते हैं तो दुनिया आगे और हम पीछे रह जाएंगे। दुनिया से कदमताल करना है तो आमरण इस जहर के साथ जीना होगा। किसी भीष्म प्रतिज्ञा की तरह। ऐसी प्रतिज्ञाएं अक्सर चीर और हरण जैसे वाकये को होते रहने में सहायक होती हैं। अमरकथाओं में कभी पढ़ते कि फलानी रानी अपने लला की खातिर अपने ही राजा पर स्लो पॉयजन का इस्तेमाल करतीं। गद्दी हथियाने…।

भारत सबसे आगे है विश्व में। कर लो गर्व। लेकिन किस पर करोगे॰॰॰। सेल्फ़ी मोड से मरने वालों की संख्या पर॰॰॰। या उन पर जिनका कैमरा घटना के आगे चलता है। और वे ख़ुद उसके पीछे।

ये हमारी गूगल आंटी नुमा रानी हैं न…। सर्वेसर्वा…। हमारे जीने का तरीका सेट करने वाली…। ओहदे में किसी राजमाता से कम नहीं…। भटकने से बचाती चलती है। सही रास्ता दिखाने वाली…। चुन चुनकर…। कोशिश करती रहती हैं कि भीड़ भाड़ से दूर रहें हम सब…। कहीं फंस न जाएं, पूरा दारोमदार उसके बोलने पर…। मतलब उसकी ज़रा सी चूक पर हम चूके। क्या पता आगे खाई हो। एक खाई से निकलकर दूसरी खाई में गिरे। फिर भी भारत की गलियों का रास्ता न है इसके पास। सिर ऊँचा कर सकते हैं कि हमारे पास पानवाला है।

न बड़े बुजुर्गों की जरूरत। न उनके अनुभवों की…। ऐसा कोई माई का पुत्तर नहीं जो इस रानी का राजा ना हो। भाई, हर किसी को हक है राजसी ठाठबाट का…। मनुष्य की खासियत ही है जो न मिला उसी के पीछे भागना। गूगल रानी मिलने के बाद कहां जरूरत अपनी रानी की। उसमें इतना हुनर की आत्मीय रिश्तों पर क़ब्ज़ा कर रखा है। प्रेम कहानियाँ ख़रीद लीं हैं भाई…। और क्या चाहिए? घर में न राजा बचा, न रानी। एक समय पांडवों को अज्ञातवास के लिए दर दर भटकना पड़ा। पर हम खुशनसीब हैं…। भाग्यशाली हैं…। हम अपने ही घर में अज्ञातवास की तरह रहते।

गूगल रानी धर्मराज युधिष्ठिर के रूप में प्रकट हो जाती। सही गलत के सारे भेद होते इसके पास। कभी वृहन्नला तो कभी नकुल सहदेव। और भीम के रूप में तो अक्सर गदा सिर पर मारती। जरा डांट के, इतना सा उत्तर नहीं आता मूरख। ये रहा तुम्हारे प्रश्न का सही उत्तर।

मतलब मेमोरी कन्ज्यूम करने की जरूरत ही कहाँ  बचती है। हरेक को सांइटिस्ट थोड़े बनना है। हमारा दिमाग किसी लैंडफिल साइट से कम न बचा, भाई। दाएं बाएं की साइटें देख देख के डंपिंग गारबेज बन चुका है। याददाश्त फीकी पड़ जाए तो अब दादी नानी के नुस्खों की भी जरूरत नहीं। कौन खाए बादाम और कौन करे बादाम के तेल से चंपी। इतनी चकल्लस का टेम नयि है सहाब…। बहुत बिजी हैं सब। बिजी विदाउट बिजनेस। लेकिन ऐसा नहीं कह सकते…। रानी ने अपने चारों ओर पूरे विश्व का नेटवर्क जो बनाके रखा है। सर्फिंग करनी पड़ती है। बताओ आखिर, जानकारी हासिल करनी चैइये कि नयी करनी चैइये…?? लेकिन अगले दो मिनट के बाद उस जानकारी की मृत्यु होना भी सुनिश्चित है। क्या करें, याददाश्त भाड़ में भुंज रही हो तो ऐसा होना संभव है।

गूगल रानी का आलम किसी युनीसेक्स सलून की तरह है। कोई लिंगभेद नहीं…। सबके लिए बराबर। वो ऑर्डर देती है और हम सब मानते हैं। जैसे किसी कद्दावर देश का राष्ट्रपति। मतलब पूरी दुनिया मुट्ठी में कर रखी है इस रानी ने…। फिर किस बिनाह पर अमेरिका, चीन या अरब वर्ल्ड शेखी बघार रहे॰॰॰। न शोख, न कमसिन…। फिर भी बस लोग कायल हुए जा रहे इसके। सही को सही के साथ साथ सही को गलत और गलत को सही ठहराने की अभूतपूर्व क्षमता है…। इस पावर के आगे सभी नतमस्तक हैं। तिल का ताड़ और ताड़ से तेल निकलवाने की क्षमता रखती हैं बहनजी….। सारा कंट्रोल उसके हाथ में। और अब हम भिखारी बने फिर रहे हैं। याददाश्त के नाम पर थोड़ी दे दे रे बाबा….।

© श्रीमति समीक्षा तैलंग 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 7 – व्यंग्य – बिना पूँछ का जानवर ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य – “बिना पूँछ का जानवर ” जो निश्चित ही …….. ! अरे जनाब यदि मैं ही विवेचना कर दूँ  तो आपको पढ़ने में क्या मज़ा आएगा? इसलिए बिना समय गँवाए कृपा कर के पढ़ें, आनंद लें और कमेंट्स करना न भूलें । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 7 ☆

 

☆ व्यंग्य – बिना पूँछ का जानवर ☆

ज्ञानी जी के साथ मैं होटल की बेंच पर बैठा चाय पी रहा था।ज्ञानी जी हमेशा ज्ञान बघारते थे और मैं भक्तिभाव से उनकी बात सुनता था। इस समय उनकी नज़र सामने दीवार पर लगे पोस्टर पर थी। उसमें सुकंठी देवी के गायन की सूचना छपी थी। कार्यक्रम की तिथि आज ही की थी।

ज्ञानी जी ने पोस्टर पढ़कर मुझसे पूछा, ‘शास्त्रीय संगीत समझते हो?’

मैंने हीन भाव से उत्तर दिया, ‘न के बराबर, ज्ञानी जी!’

ज्ञानी जी विद्रूप में ओंठ टेढ़े करके बोले, ‘जानते हो? संगीत और कला के बिना आदमी बिना पूँछ का जानवर होता है!’

मैंने लज्जित होकर दाँत निकाल दिये।

वे बोले, ‘चलो, आज हम तुम्हें संगीत का ज्ञान देंगे। आज तुम इस कार्यक्रम की दो टिकट खरीदो।’

मैं राज़ी हो गया। कार्यक्रम शाम के सात बजे से था। मैं टिकट खरीदकर साढ़े छह बजे ज्ञानी जी के घर पहुँच गया। पता चला वे शौचालय में हैं। पन्द्रह मिनट बाद वे तौलिये से हाथ पोंछते हुए प्रकट हुए। उन्होंने दस मिनट और तैयार होने में लगाये । फिर हम निकल पड़े। रास्ते में भगत के पान के डिब्बे पर ज्ञानी जी रुके। एक पान मुँह में दबाया और चार बँधवा लिये । फिर मेरी तरफ मुड़ कर बोले, ‘पैसे चुका दो।’ मैंने चुपचाप पैसे चुका दिये क्योंकि यह सब मेरा संगीत-बोध जागृत करने के लिए किया जा रहा था।

ज्ञानी जी की ढीलढाल का नतीजा यह हुआ कि जब हम लोग हॉल में घुसे तब सुकंठी देवी का गायन शुरू हो चुका था। लोगों के घुटनों से टकराते हुए हम लोग अपनी सीटों पर पहुँच गये।

बैठते ही ज्ञानी जी बोले, ‘वाह,  भीम पलासी राग चल रहा है।’

उनकी बगल में बैठा चश्मेवाला आदमी तेज़ी से घूमकर बोला, ‘जी नहीं, केदार है।’

ज्ञानी जी का मुँह उतर गया। वे मेरी तरफ झुककर धीरे से बोले, ‘भीमपलासी को केदार भी कहते हैं।’

मैंने सिर हिला दिया।

जब सुकंठी देवी ने दूसरा आलाप लिया तब ज्ञानी जी बगल वाले आदमी को बचाकर मुझसे धीरे से बोले, ‘मालकोश राग का आलाप है।’

तभी आलाप खत्म करके सुकंठी देवी बोलीं, ‘अभी मैं आपको राग जैजैवन्ती सुना रही थी।’

ज्ञानी जी मेरी तरफ झुककर बोले, ‘दोनों में कोई खास फर्क नहीं है।’

गायन शुरू हो गया और ज्ञानी जी सिर हिला हिलाकर अपनी कुर्सी के हत्थे पर ताल देने लगे। तभी बगल वाला आदमी गुस्से में बोला, ‘गलत ताल मत दीजिए।’

ज्ञानी जी सिकुड़ गये। फिर मेरी तरफ झुककर बोले, ‘यह भी बिना पूँछ का जानवर है। कुछ जानता नहीं इसलिए मुझसे लड़ता है।’

मैंने फिर सिर हिलाया।

अब ज्ञानी जी शान्त होकर बैठे थे। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, उनकी आँखें बन्द हो गयीं थीं और सिर छाती की तरफ झुक गया था। दो मिनट बाद उन्होंने आँखें खोलीं और मुझे अपनी ओर ताकता पाकर बोले, ‘यह मत समझना कि मैं सो रहा था। जब आदमी संगीत में पूरा डूब जाता है तो उसे अपनी खबर नहीं रहती।’

मैंने सिर हिलाया।

थोड़ी देर बाद पुनः उनकी आँखें बन्द हो गयीं और सिर छाती से टिक गया। इस बार उनकी नाक से बाकायदा शास्त्रीय संगीत के स्वर निकलने लगे। चश्मे वाला आदमी आग्नेय नेत्रों से उनकी तरफ देखने लगा। मैंने धीरे से उन्हें हिलाया। उन्होंने बड़ी मुश्किल से एक नेत्र खोला। मैंने कहा, ‘आप तो खर्राटे भर रहे हैं।’

वे हँसकर बोले, ‘यही तो तुम्हारी नासमझी है। जब मन संगीत से भर जाता है तो संगीत के समान स्वर शरीर से निकलने लगते हैं। जो तुम सुन रहे थे वह खर्राटे नहीं, सुकंठी देवी के संगीत की प्रतिध्वनि थी।’

मैं चुप हो गया।

थोड़ी देर बाद मैंने देखा, वे सो रहे थे और उनके ओठों के किनारे से लार बहकर उनके कुर्ते की सिंचाई कर रही थी। मैंने उन्हें फिर जगाया, कहा, ‘ज्ञानी जी! आपके मुँह से लार बह रही है।’

ज्ञानी जी के माथे पर बल पड़ गये । वे बोले, ‘नादान! जिसे तू लार समझता है वह वास्तव में संगीत-रस है। जब मन संगीत-रस से सराबोर हो जाता है तो थोड़ा-बहुत रस इसी तरह उबल कर बाहर निकल जाता है।’

मैं फिर चुप्पी साध गया।

और थोड़ी देर में कार्यक्रम समाप्त हो गया। सब लोग उठ-उठ कर बाहर जाने लगे। मैंने धीरे से उन्हें एक-दो बार उठाया लेकिन वे गहरी नींद में ग़र्क थे। आख़िरकार जब उन्हें ज़ोर से हिलाया तब उन्होंने नेत्र खोले।

अपने आसपास देखकर वे उठ खड़े हुए। अंगड़ाई लेकर बोले, ‘तो देखा श्रीमान, यही शास्त्रीय संगीत का रस,यानी उसका आनन्द होता है। इसी तरह मेरे साथ दो-चार बार सुनोगे तो बिना पूँछ के जानवर से इंसान बन जाओगे।’

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )
(लेखक के व्यंग्य-संग्रह ‘अन्तरात्मा का उपद्रव’ से)

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆☆ चुनाव प्रबंधन में एमबीए : एडमिशन ओपन्स ☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नया व्यंग्य “चुनाव प्रबंधन में एमबीए : एडमिशन ओपन्स ” एक नयी शैली में। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ चुनाव प्रबंधन में एमबीए : एडमिशन ओपन्स ☆☆

 

एक प्रतिष्ठित बी-स्कूल की काल्पनिक वेबसाईट के अंग्रेज़ी में होम-पेज का बोलचाल की भाषा में तर्जुमा कुछ कुछ इस तरह है :-

हम हैं भारत के तेजी से बढ़ते बी-स्कूल, और हम प्रारम्भ करने जा रहे हैं – ‘चुनाव प्रबंधन में एमबीए’.

चुनावों में प्राईवेट पॉलिटिकल कंसल्टेंट्सी के तेज़ी से बढ़ते कारोबार और इस क्षेत्र में प्रबंधन स्नातकों के कॅरियर की असीम संभावनाओं को हमारे संस्थान ने पहचाना और आपके लिए खास तौर पर डिझाईन किया है – ‘चुनाव प्रबंधन में एमबीए’.

राजनीति इन दिनों सर्वाधिक लाभ देने वाले व्यापार क्षेत्र में तब्दील हो गई है. पिछले कुछेक दशकों में राजनीति में विनिवेश करने वालों ने छप्परफाड़ प्रॉफ़िट कमाया है. यहाँ कमाई इतनी अधिक हैं कि बहुत से कारोबारी तो खुद राजनेता हो गये हैं. कुछ बिग कार्पोरेट्स ने परिवार के एक दो सदस्यों को ही राजनीति में उतार दिया है, तो कुछ ने अपने प्रतिनिधियों पर जनप्रतिनिधि का चेहरा चढ़ा कर सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करा दी है. लेकिन ये सब इतना आसान नहीं है. इसके लिए चुनाव जीतना पड़ता है. बड़े कारोबारियों को जीत के लिए हुनरमंदों की तलाश है.

हम जीत दिला सकने वाले हुनरमंद तैयार करते हैं.

विजन :

पेशेवर युवा तैयार करना जो हैंडसम फीस के बदले किसी भी पार्टी को, कभी भी होनेवाले चुनावों में कहीं से भी जीत दिलवा सके.

मिशन :

कि ऐसी मार्केटिंग स्किल्स विकसित करना जो लोकतन्त्र के बाज़ार में ब्रांडेड जननायक को बहुमत से सेल-आउट कर सके,

कि हायकमान की जमीनी कार्यकर्ताओं और स्थानीय नेतृत्व पर निर्भरता समाप्त करना,

कि मानव संसाधन का ऐसा आधार तैयार करना जहां हायकमान कंट्रोल रूम से ईलेक्शन मेनेज कर सकें,

कि ऐसे पेशेवर युवा तैयार करना जो किसी विचारधारा बंधें न हो,

कि फीस ही जिनकी विचारधारा हो,

वैल्यूज :

जीत दिलानेवाला हर मूल्य नैतिक मूल्य है.

सिलेबस इन ब्रीफ़ :

पहले सेमेस्टर में हम कवर करते हैं डाटा मेनिपुलेशन. हम आंकड़े गढ़ना सिखाते हैं. आंकड़े जाति के, धर्म के, भाषा के,आय के, घृणा के, वैमनस्य के, ध्रुवीकरण के, आंकड़े सच्चाईयों से परहेज  के, आंकड़े झूठ से छबि चमकाने के. हम आंकड़े गायब करना भी सिखाते हैं – आंकड़े बेरोजगारी के, आंकड़े किसानों की आत्महत्या के, आंकड़े भय, भूख, भटकाव के. हम आपको ऐसे प्रवीण करेंगे कि आप अपने क्लाईंट से पूरे आत्मविश्वास से झूठ बुलवा सकें. हम सिखाएँगे आपको मुद्दे गढ़ना. मुद्दे भटकाने वाले, मुद्दे डराने वाले, मुद्दे भड़काने वाले, मुद्दे भरम के, मुद्दे जो गैर-जरूरी हों मगर बेहद जरूरी लगें. हम सिखाएँगे वादों की भूल-भूलैया में ले जाकर वोटर को उस जगह छोड़ आना जहाँ वो पाँच साल तक चलता रहे और पहुँचे कहीं नहीं. बाहर निकले तो फिर उसी भूल-भूलैया में घुसने को मचल मचल जाये. वो लुट जाये, मगर खुश हो कि वाह क्या लूटा है सर आपने, मजा आ गया !! नारे गढ़ने की कला का विशेष प्रशिक्षण इसी सत्र में दिया जावेगा. नारे जो वोटर के दिल को छू जाये मगर विवेक की बत्ती बुझा दे.

दूसरे सेमेस्टर में हम आपको क्लाईंट की सकारात्मक, एंटी-क्लाईंट की नकारात्मक खबरें प्लांट करना सिखाएँगे. झूठ में सच का छींटा मार कर क्लाईंट के पक्ष में वोटर का मानस बदल देने की कला में आपको पारंगत कराया जाएगा. मीडिया प्रबंधन भी ऐसा कि हर समय दीखे तो बस आपका क्लाईंट दीखे, सुनाई दे तो बस आपका क्लाईंट सुनाई दे,खुशबू आये तो बस आपके क्लाईंट की, हवाओं में, फिजाओं में, घटाओं में, जल में, थल में, नभ में, अखबार में, रेडियो पे, टीवी पे, मोबाइल पे, होर्डिंग्स पे, पेशाबघर की दीवारों पर चिपके इश्तेहारों तक पे हर तरफ तेरा ही जलवा टाइप. लोग कहें बस अब और कोई ब्रांड नहीं चलेगा. इसी ब्रांड का जनप्रतिनिधि पैक कर दीजिये, कीमत बस एक वोट.

तीसरे सेमेस्टर में हम आपको सिखाएँगे डेमोक्रेसी के पालिका बाज़ार में डिमांड के अनुरूप साँचा बनाना और क्लाईंट को उसमें ढ़ालना. क्लाईंट ढ़ल नहीं पा रहा, उससे पैदल चला नहीं जाता, धूप तेज़ लगती है, धूल से एलर्जी है, बम्बे का पानी पीने से डरता है तो कोई बात नहीं – आप उनसे जनसम्पर्क मत कराईये,  रोड शो करा लीजिए. जीप पर बैठाकर निकालिए, हाथ जुड़वाईये नहीं, लहरवाईए, दोनों ओर. आप तय करेंगे कि वे कब प्रसाद खाएँ कब इफ्तार में जाएँ, मंदिर जाएँ तो किस मंदिर जाएँ, किस कलर का उत्तरीय डाले, धोती पहने कि पायजामा, पायजामा नाड़ीवाला हो कि बटनवाला, जेब फटी रखें कि साबुत. नंगे तो वे अंदर से हैं ही, जीत के लिये जरूरी हो तो वे अनावृत भी रोड शो करने को तैयार हैं. बस आप उनके कान में फूँक भर दें. जीत के रास्ते निकालना हम आपको सिखाएँगे. आखिर आप चुनाव प्रबंधन के गुरु बनने की राह पर जो हैं.

चौथे सेमेस्टर में आपको अपोजिशन में सेंध लगाने का लाईव असाइन्मेंट दिया जायेगा. विपक्ष में से चुन चुन कर विधायकों, सांसदों को जस का तस शीशे में उतारना है आपको. उनकी खरीद फरोख्त के नये नये तरीके ईज़ाद करने हैं. डील डन कराने की कला विकसित करनी है. असाइन्मेंट उस राज्य में करना है जहाँ चुनाव निकट हैं. वहाँ चुनावों से पहले कम से कम दो सांसदों या बारह विधायकों का पाला बदलवाना है. आपके पास सांसदों, विधायकों की डील के लिये पाँच से पच्चीस करोड़ तक का बजट रहेगा. असाइन्मेंट सफलतापूर्वक कंपलीट करना अनिवार्य है आखिर मोटी-मनी दांव पर जो होगी.

कॅरियर नेक्स्ट :

चलिये, अब आप हैं लोकतन्त्र के बाज़ार में प्रत्याशियों की मार्केटिंग के मैनेजमेंट गुरू.

अपना स्टार्ट-अप शुरू कर सकते हैं. अलग अलग तरह के पैकेज ऑफर कर सकते हैं – सिर्फ सर्वे कराना है, मुद्दे सुझाना है, बूथ मैनेज करना है, डॉक्टर्ड वीडियो सरकुलेट करना है, बिना सामने आए किसी का चरित्र हनन करना है, कोरट-कचहरी, आयोग, प्रशासन को अपने साँचे में ढ़ाल कर मोटी फीस वसूल कर सकते हैं.

बड़े अवसर आपके सामने हैं, भुनाईये इन्हें. नामी और ऊंचे कार्पोरेट्स कंसल्टेंट्स को मोटी फीस चुका कर पूरा चुनाव अपने पक्ष में कर लेने की योजना पर काम कर रहे हैं. कुछ कमी रही तो मोटी रकम चुकाकर दल बदल करा लेंगे. ये बात और है कि वे जन भागीदारी को सत्ता से दूर करके डेमोक्रेसी के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं लेकिन आपको डेमोक्रेसी से क्या लेना-देना ? आप तो अपने कॅरियर पर ध्यान दीजिये. नये दौर में चुनावों में जीत के लिए एक ऐसा हाईप बनाया जाता है जिसे पूरा कर पाना क्लाईंट के लिये संभव नहीं होता या जो राष्ट्र समाज के लिए दीर्घकालीन रूप से खतरनाक हो, लेकिन वो कंसल्टेंसी फर्म का सिरदर्द नहीं है. आपको क्या ? आपको तो बस जीत दिलाना है, फीस अंटी में डालनी है और अगले प्रोजेक्ट पर लग जाना है. बिंदास काम करिये, आपकी फीस चुनाव आयोग के निर्धारित खर्च का हिस्सा नहीं है.

अपना स्टार्ट-अप शुरू करना नहीं चाहते हैं तो हम कैंपस भी कराते हैं. हम अपने स्टूडेंट्स को इलेक्शन कंसल्टेंसी के क्षेत्र में ऊँचा मुकाम दिलाने के लक्ष्य पर काम कर रहे हैं.

एक आकर्षक, स्वर्णिम, उज्जवल कॅरियर आपकी प्रतीक्षा कर रहा है. तो सोच क्या रहे हैं ? सीटें सीमित हैं – जल्दी कीजिये. एडमिशन ओपन्स.

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #4 ☆ भूखे भजन न होय गोपाला ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “भूखे भजन न होय गोपाला”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #4 ☆ 

 

☆ भूखे भजन न होय गोपाला ☆

 

शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और लोक संगीत के रूपों में भारतीय संगीत की विवेचना की जाती है.  सुगम संगीत की एक शैली भजन है जिसका आधार शास्त्रीय संगीत या लोक संगीत होता है. उपासना की प्रायः भारतीय पद्धतियों में भजन को साधन के रूप में  प्रयोग किया जाता है. जलोटा जी ने भजन के माध्यम से धन, नाम एश्वर्य और जसलीन सहित दो चार और पत्नियो का प्रेम पाकर अंततोगत्वा  बिग बास के घर को अपना परम गंतव्य भले ही बनाया है पर इसमें दो राय नही हैं कि उनके स्वरो के जादू से कई मंदिरो में युगो युगो तक कई साधको को परमात्मा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता रहेगा.

भजनं नाम रसनं, भजन का अर्थ होता है स्वाद लेना, ‘भजनं नाम आस्वादनम’ मतलब याद करके आनंद लेना भी भजन का ही एक प्रकार है. भजन का गूढ़ अर्थ होता है,  प्रीति पूर्वक सेवा.  प्रीति मन से होती है. यह और बात है कि कौन कहाँ मन लगाता है.

चाहे हाथ से पूजा करें, चाहे पाँव से प्रदक्षिणा करें, चाहे जीभ से स्तुति करें, चाहे साष्टांग दण्डवत करें और चाहे मन में ध्यान करें,  भजन दरअसल प्रीति है.  प्रीति का व्यापक अर्थ होता है तृप्ति. मंदिर मंदिर, तीरथ तीरथ भ्रमण, भगवान् के नाम, धाम, रूप, भगवान की लीला, भगवान की सेवा, भगवान के दर्शन से जो आत्मिक शांति और तृप्ति मिलती है वही भजन है. नेता जी तीर्थ करवा कर वोट लेने को  ही भजन मानते हैं . चमचे नेता जी को दण्डवत कर उन्हें ही अपना इष्ट मानते हैं. सबके अपने अपने देवता होते हैं.

“संभोग से समाधि तक” लिखकर दार्शनिक चिंतक रजनीश ने इसी तृप्ति से भगवान को अनुभव करने की विशद व्याख्या की है और वे सारी दुनियां में चर्चित रहे. रजनीश ने भी कोई नई विवेचना नही की थी, खजुराहो के मंदिरों की दार्शनिक विवेचना की जाये तो यही समझ आता है कि परमात्मा तो भीतर है, बाहर वासना है. काम, क्रोध, को बाहर छोड़कर मंदिर के छोटे दरवाजो से जब,  आत्म सम्मान को त्याग सर झुकाकर हम अंदर प्रवेश कर पाते हैं तभी हमें भीतर भगवान की प्राप्ति हो पाती है. जिसने ऐसा कर लिया वह ज्ञानी, वरना सब अहंकारी तो हैं ही.

गजल भी मूलतः खुदा की इबादत में कही जाती थी, शायर खुदा के प्रेम में ऐसा तल्लीन हो जाता है कि न भिन्नं, माशूका से  एकाकार होने जैसा एटर्नल  लव  गजल को जन्म देता.  कालान्तर में परमात्मा से यह एकात्म किंचित वैभिन्य का स्वरूप लेता गया और अब गजल बिल्कुल नये प्रयोगो से गुजर रही है. रब से शराब की गजल यात्रा शबाब के सैलाब से गुजर रही है.

कृष्ण और राधा के एटर्नल लव के कांसेप्ट से हम ही नहीं पाश्चात्य जगत भी असीम सीमा तक प्रभावित है, इस्कान के मंदिरो में भारतीय पोशाक में विदेशियो की भीड़ वही आत्मिक प्रेम ढ़ूंढ़ती नजर आती है. किसी को प्रेम मिलता है किसी को भगवान, किसी को जसलीन तो कोई राधा के चक्कर रुक्मणी में ही उलझ जाता है.

यू दीवाने हमेशा से उलटी ही राह चलते हैं. वे सनम के दीदार के लिये आंखो को बंद करते हैं. जरा नजरो को झुकाते हैं और हृदय में देख लेते हैं अपने आशिक को. जिसने राधा भाव से इस आशिकी में कृष्ण के दर्शन कर लिये वह संत हो जाता है, वरना मेरे आप की तरह लौकिक प्रेम के भौतिक प्रेमी हाड़ मांस में ही परम सुख ढ़ूढ़ते जीवन बिता देते हैं. और यही कहते रह जाते हैं कि मय्या मोरी मैं नहीं माखन खायो. वास्तव में “मेरे मन में राम मेरे तन में राम, रोम रोम में राम रे” होते तो हैं पर उन्हें ढूँढकर मन मंदिर में बसा सकना ही भजन का वजन है.

कोई सफेद चोंगे में चर्च में भगवान की जगह नन ढूँढ लेता है कोई भगवा में भक्तिनों को धोखा देता है, कोई बुर्के को तार तार कर रहा है जन्नत की जगह, भगवान करे सबको उनके लक्ष्य ही मिले.

जैसे बच्चा माँ के बिना, प्यासा पानी के बिना रह नहीं सकता, ऐसे ही जब हम भगवान के बिना रह न सकें तो इस प्रक्रिया का ही नाम भजन होता है. करोड़पति पिता से कुछ हजार रूपये ले अलग होकर बेटा  पिता की सारी सत्ता से जैसे वंचित रह जाता है ठीक उसी तरह परम पिता भगवान से कुछ माँगना उनसे अलग होना है, उनसे एकात्म बनाये रहने में ही हम भगवान की सारी सत्ता के हिस्से बने रह सकते हैं. परमात्मा में विलीन होना ही जीवन मरण के बंधन से मुक्ति पाना है. बच्चा  माँ पर अधिकार अपनेपन से करता है, तपस्या, सामर्थ्य या योग्यता से नहीं, तपस्या से सिद्धि और शक्ति भले ही प्राप्त हो जावे प्रेम नहीं मिल सकता. निष्काम होने से मनुष्य मुक्त, भक्त सब हो जाता है. भगवान के साथ सम्बन्ध रखें तो सांसारिक कामनायें स्वतः ही शांत हो जाती हैं. यह भजन का वजन है. संसार में आसक्ति का अर्थ है, भगवान में वास्तविक प्रेम की अनुभुति का अभाव.  पर यह सत्य जानकर भी   अधिक  समझ नही पाते।

जो भी हो पर हम आप जो रोटी कपड़ा और मकान के चक्कर में ही आजीवन उलझे रह जाते हैं,  वे बेचारे आम आदमी भगवान को पाने के चक्कर में कईयो को राम रहीम और आशाराम बना देते है, किसी को जसलीन ले जाते देखते है तो कोई  रामरहीम बेटी बोलकर बोटी चबाते मिलता है ।

जनता के लिए “भूखे भजन न होय गोपाला” का सिद्धांत और सवाल ही सबसे बड़ा बना रह जाता है. लेकिन, जिस दिन लगन लग जायेगी मीरा  मगन हो जायेगी यही भजन का वास्तविक वजन है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ नया इंडिया : बुद्धिजीवी होना अब एक गाली है ☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नया व्यंग्य “नया इंडिया : बुद्धिजीवी होना अब एक गाली है” एक नयी शैली में। मैं निःशब्द हूँ, अतः आप स्वयं  ही  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆ नया इंडिया : बुद्धिजीवी होना अब एक गाली है ☆

 

तुम अभी तक गये नहीं बुद्धिजीवी ?

कमाल करते हो यार. देश बदल रहा है. ये नया इंडिया है. यहाँ बुद्धिजीवी होना एक गाली हो गया है.

माना कि तुम अपनी प्रतिभा और अध्ययन का उपयोग मुल्क की बेहतरी के लिए करना चाहते हो, मगर ट्रोल्स और उनके प्रवर्तक हिंसक हो जाने की सीमा तक तुमसे असहमत हैं. वे लगातार तुम्हें देश छोड़ कर जाने के लिये कह रहे हैं और तुम हो कि अभी तक यहीं टिके हुवे हो ?

हमें याद है जब तुम पहली बार ट्रोल हुये थे. एक डरावना सपना देखा था तुमने और उसे सार्वजनिक रूप से साझा कर दिया था. कुछ कुछ इस तरह था वो कि सपने में तुम अपनी निजी लायब्रेरी में हो. कुछ मशालची उसकी तरफ बढ़ रहे हैं. राजकीय मशालची. किले के मशालची. सम्राट के प्रहरी. रात के गहन अंधकार में मशाल जलाकर सिंहासन के इर्द गिर्द पहरा देने वाले. साया भी सिंहासन की ओर बढ़ता दिखे तो इसी मशाल से फूँक देते उसे. जरा सी शंका हो तो तस्दीक करने की भी जरूरत नहीं समझते. तेल भी है उनके पास, आग भी और जला दिये जानेवाली अथॉरिटी भी. इसे जेनुईन एनकाउन्टर कहा जाता है. कुछ एनकाउन्टर स्पेशियलिस्ट मशाल लिए लायब्रेरी की तरफ बढ़ रहे हैं. तुमने पूछा – यहाँ क्यों आये हो ? मशालचियों में से एक ने आगे आकर कहा – हमारा राजा ज्ञानी है. राजा को जो ज्ञान है वो इन किताबों में नहीं है और जो इन किताबों में है वो राजा के काम का नहीं. इसलिए इन किताबों की जरूरत नहीं है. वे आगे बढ़े और लायब्रेरी में आग लगा दी. तुम नींद में से घबराकर उठ बैठे और एक नज़र किताबों की ओर डाली, मुतमईन हुए कि अभी तो बच गई हैं वे. कितने दिन बच पायेगी ? कोई सिरफिरा कभी दिन के उजाले में सच में इधर निकल आया और छुआ दी मशाल तो कोई क्या कर लेगा ?

स्वप्न से तुम डरे कि राजा? कि दोनों ? राजा विचार से डरा. तुम विचार नष्ट कर दिये जाने की संभावना से डरे. स्वप्न साझा करते ही अपशब्दों की वर्चुअल मशाल थामे ट्रोल्स की एक बड़ी फौज तुम पर पिल पड़ी थी. कहलाया गया – बुद्धिजीवियों ने बेड़ा गर्क किया है देश का. वे खुद निकल जाएँ देश से वरना हम सीमा पर खड़ा करके उस तरफ़ धकेल देंगे. अनगिन बार ट्रोल होने के बाद भी तुम यहीं टिके हुवे हो बुद्धिजीवी.

तुम्हारी अपनी तरह का देशप्रेम तुम्हें जाने से रोक रहा है. तुमने वेल्फेयर इकॉनामिक्स की बात की – तुम्हें ट्रोल किया गया. तुमने सांप्रदायिक सद्भाव की बात की – तुम्हें ट्रोल किया गया. तुमने सत्ता के केन्द्रीकरण के खतरों से आगाह किया – तुम्हें ट्रोल किया गया. तुमने आवारा पूंजी के खतरे बताए – तुम्हें ट्रोल किया गया. तुमने वनवासियों के अधिकारों की रक्षा का सवाल उठाया – तुम्हें अर्बन नक्सली कहा गया, तुमने लोगों के खाने-पीने में पसंदगी की स्वतन्त्रता की  बात की – तुम्हें बिका हुआ बुद्धिजीवी कहा गया. तुमने मानवाधिकारों की रक्षा की बात की – तुम्हें विद्रोही कहा गया. हर उस विचार को जो सिंहासन और उससे जुड़े श्रेष्ठी वर्ग के हितों के खिलाफ रहा आया – उसे राजद्रोही विचार की श्रेणी में रखकर गलियाँ दी गईं. कोई तुम्हें बगावती कह रहा है, कोई तुम्हें देश छोड़ देने की सलाह दे रहा है. कितना ट्रोल हो रहे हो फिर भी यहीं बने हुये हो बुद्धिजीवी ?

तुमने सभ्यताओं के उत्थान और पतन के अपने अध्ययन में लिखा है कि जो समाज अपने विचारकों, विद्वानों, चिंतकों, विदूषियों, कवियों, साहित्यकारों, संगीत, नाटक और कला के साधकों का सम्मान नहीं करता वो पतन के मार्ग पर चल निकलता है. इस रास्ते पर चल निकले तो बीच से लौटना संभव नहीं होता. क्या तुम्हें समकालीन समय समाज में ऐसा ही नहीं लगता बुद्धिजीवी ? तुमने पढ़ा है, बहुत पढ़ा है. बहुत लिखा भी है और बहुत रचा भी. शोध किये,  पेपर लिखे, रिकमण्डेशंस दीं, प्रजेन्टेशन्स दिये. जो लिखा वो व्यापक मनुष्यता के हित में लिखा. जो कहा समूची कायनात में फैली इंसानियत को बचाने के लिए कहा. तुम्हें मिले सम्मानों और पुरस्कारों की एक लंबी सूची है. इसके बरक्स जो तुम्हें गालियां दे रहे हैं वे ? दरअसल, वे हांक दिये गये हैं भेड़ों की तरह. पहले उनका मानस कुंद किया गया फिर उनके हाथों में थमा दी गई मशाल. अंधेरा भगाने के लिए नहीं, समाज में आग लगाने के लिये. ऐसे में तुम चले जाओ वरना एक दिन वे तुम्हें तुम्हारी पसंदीदा किताबों सहित जला देंगे, बुद्धिजीवी.

बहुधा हमें तुम पर तरस आता है बुद्धिजीवी. तुम इतने सेंसिटिव क्यों हो ? तुम रेशनल बातें क्यों करते हो ? तुम भीड़ के साथ बह जाना क्यों नहीं जानते ? जो ट्रोल्स बुद्धिजीवियों को सहन नहीं कर पाते हैं उन्होने तुम पर ही असहनशील होने का ठप्पा जड़ दिया है. विचारकों के तुम्हारे समूह को गैंग कहा जाने लगा है गोया तुम अपराधियों के समूह का हिस्सा हो. तुम पर यूनिवर्सिटी में गबन के, पद के दुरुपयोग के, चरित्रहीनता के आरोप लगाये गये तब क्या तुम्हारे मानस में ये सवाल उठा कि तुमने विचार की सत्ता को राजसत्ता से ऊपर रखकर कोई गलती की है ? समाज के आखिरी आदमी के लिए तुम्हारे मन में इतनी पीड़ा क्यों है ? तुम बुद्धिजीवी क्यों हुवे ? और हुवे हो तो अभी तक गये क्यों नहीं बुद्धिजीवी ?

अभी भी समय है, तुम चले जाओ बुद्धिजीवी. नये निज़ाम में कोई तुम्हें सुकरात की तरह जहर पीने को नहीं कहेगा, मार दिये जाने के तरीके बदल गये हैं. एक दिन तुम्हें मार तो दिया ही जायेगा और किसी को भनक तक नहीं लगेगी. इसके पहले कि महाराजा उस डरावने स्वपन को हकीकत में अनुवादित करवा दे तुम चले ही जाओ बुद्धिजीवी.

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 6 – व्यंग्य – बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य – “बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता” जो निश्चित ही …….. ! अरे जनाब यदि मैं ही विवेचना कर दूँ  तो आपको पढ़ने में क्या मज़ा आएगा? इसलिए बिना समय गँवाए कृपा कर के पढ़ें, आनंद लें और कमेंट्स करना न भूलें । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 6 ☆

 

☆ व्यंग्य – बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता ☆

एक निर्माणाधीन मकान की बगल से गुज़रता हूँ तो देखता हूँ कि ऊपर एक कोने में एक पुराना जूता लटकाया गया है। जूते की तली सड़क पर चलने वालों की तरफ है। यह मकान को बुरी नज़र से बचाने का अचूक नुस्खा है। किसी अधबने मकान पर काली झंडी लहराती दिखती है तो किसी पर काली हंडी उल्टी लटकी है। मतलब यह है कि ईंट, पत्थर, सीमेंट को भी नज़र लगती है।गज़ब की होती है यह बुरी नज़र जो ईंट,पत्थर, कंक्रीट को भी भेद जाती है। क्या करती है यह बुरी नज़र? मकान में दरार कर देती है, या नींव को कमज़ोर कर देती है, या सीधे सीधे मकान को पटक देती है? आदमी पर बुरी नज़र की कारस्तानी की बात तो सुनी थी। डिठौना लगाना देखा, राई-नोन उतारना देखा। लेकिन मकानों पर बुरी नज़र का असर जानकर तो लगा कि नज़र किसी लेज़र किरण से कम नहीं।

कैसी होती है यह बुरी नज़र? क्या यह कोई स्थायी चीज़ होती है या यह ईर्ष्या या द्वेष से एकाएक उपजती है? किसी का आलीशान बंगला देखा, दिल में हूक उठी, और तीसरे नेत्र की तरह बुरी नज़र भक से चालू हो गयी। अगर यह कोई स्थायी लक्षण है तो यह कुछ खास लोगों में ही पायी जानी चाहिए। देश के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में कुछ स्त्रियों को ‘चुड़ैल’ मानकर मार डाला गया या मारा पीटा गया। उन पर आरोप था कि उनकी बुरी नज़र या उनके तंत्र-मंत्र से गांव में दूसरों को नुकसान हुआ। दिलचस्प बात यह है कि यह आरोप किसी पुरुष पर नहीं लगा क्योंकि ‘चुड़ैल’ का नाम बताने वाले ओझा जी अक्सर पुरुष होते हैं।

मकानों पर लटकी झंडियों, हंडियों और जूतियों को देखकर लगता है कि सरकार को भी लोगों की संपत्ति की रक्षा के लिए प्रयास करना चाहिए। यह प्रयास निजी स्तर पर ही क्यों हो? इसलिए सबसे पहले तो नेत्र-विशेषज्ञों के द्वारा सबकी आँखों की जांच कराके बुरी नज़र वालों की एक फेहरिस्त बना ली जानी चाहिए। फिर इन बुरी नज़र वालों को कानूनन कोई पहचान-चिन्ह धारण करने को बाध्य किया जाना चाहिए। हो सके तो उन्हें घर से निकलने पर गांधारी की तरह आँखों पर पट्टी बांधने को कहा जाए, या कोई ऐसा चश्मा बनाया जाए जिसके काँच में बुरी नज़र के घातक तत्व को ‘न्यूट्रलाइज़’ करने की शक्ति हो, जैसे सिगरेट का फिल्टर निकोटिन को जज़्ब कर लेता है। जो भी हो, देश की संपत्ति को नुकसान से बचाने के लिए सरकार को कुछ न कुछ करना ज़रूरी है।

यह अनुसंधान का विषय है कि बुरी नज़र आँख से प्रक्षेपित कैसे होती है। विज्ञान के हिसाब से तो आँख सिर्फ एक कैमरा है, जो तस्वीर को ग्रहण तो करती है, लेकिन भेजती कुछ नहीं। लेकिन विज्ञान पर यकीन करके हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से तो काम नहीं चलेगा। जब सयाने कहते हैं कि बुरी नज़र धनुष से छूटे बाण की तरह चलती है तो ज़रूर चलती होगी। वर्ना लोग आदमियों और घरों को बचाने का इतना पुख्ता इंतज़ाम क्यों करते? फिल्मी गीतों के हिसाब से तो आँखें विभिन्न प्रकार के घातक अस्त्रों से सुसज्जित रहती हैं जो दिल को घायल करने से लेकर जान तक ले सकते हैं। नमूने हैं —-‘ना मारो नजरिया के बान’, ‘मस्त नजर की कटार, दिल के उतर गयी पार’, और ‘अँखियों से गोली मारे, लड़की कमाल।’ नायिका की आँखों के बारे में रीतिकालीन कवि रसलीन की पंक्ति है —–‘जियत मरत झुकि झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।’

वैसे सब लोग बुरी नज़र के उपचार के लिए जूते की तरफ नहीं भागते। बहुत से ट्रक वाले ट्रक के पीछे ‘बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला’ लिख कर काम चला लेते हैं। फिल्मों में नायक नायिका के लिए ‘चश्मेबद्दूर’ गाकर तसल्ली कर लेता है। लेकिन फिर भी इस बला से बचने के लिए जूते का प्रयोग बहुतायत से होता है।

इतिहास के बारीक अध्ययन से पता चलता है कि जूता बद-नज़र और बददिमाग़ के इलाज का प्रभावी उपकरण रहा है। रियासतों के ज़माने में इसका प्रयोग काफी उदारता से रिआया को उसकी औकात का एहसास दिलाने के लिए किया जाता था। तब का जूता शुद्ध चमड़े का और मज़बूत होता था। उसके सामने दंड के अन्य सब उपकरण हेठे थे क्योंकि जूता चमड़ी और इज़्ज़त दोनों खींच लेता था। आजकल रबर सोल के हल्के-फुल्के जूतों का फैशन है जो सिर्फ इज़्ज़त हरने के ही काम आ सकते हैं। इसलिए जिन लोगों के लिए इज़्ज़त का कोई ख़ास महत्व नहीं है उनके लिए जूता भयकारी नहीं रहा। ग़रज़ यह कि आज के ज़माने में जूते की कीमत में भले ही वृद्धि हुई हो, लेकिन उसकी उपयोगिता में कमी हुई है। यह बात उन लोगों को ध्यान में रखना चाहिए जो बुरी नज़र को निर्मूल करने के लिए जूता लटकाते हैं।

दरअसल बुरी नज़र वालों का उपयोग भी देश के हित में हो सकता है, लेकिन जैसे हम अपने शिक्षित युवकों, इंजीनियरों, डाक्टरों का उपयोग करना नहीं जानते वैसे ही हम बुरी नज़र वालों का रचनात्मक उपयोग करना नहीं जानते। बुरी नज़र वालों को लड़ाई के मोर्चों पर भेजा जा सकता है जहाँ उनकी नज़र का इस्तेमाल दुश्मन के बंकरों को तोड़ने, पुल उड़ाने और टैंकों को बरबाद करने के लिए किया जा सकता है। यह नुस्खा कारगर होने के साथ साथ बेहद सस्ता भी है। कुछ बुरी नज़र वालों को नगर निगम के अतिक्रमण हटाने वाले दस्ते में भर्ती किया जा सकता है, जहाँ वे घंटों का काम मिनटों में करेंगे। नलकूपों की बोरिंग, मकानों के लिए नींव की खुदाई और पत्थरों को तोड़ने के कामों के लिए भी बुरी नज़र बहुत कारगर सिद्ध हो सकती है। हमारे पास ही काम की ऐसी बढ़िया तकनीक है, और हम विदेशों से मंहगे उपकरण खरीदने में लगे हैं।

विशेषज्ञों को इस काम में तुरन्त लगा देना चाहिए कि बुरी नज़र कितने स्तरों पर और कितने तरीकों से काम में लायी जा सकती है। यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या बुरी नज़र में किसी और तत्व का संयोग करके कोई और ताकतवर चीज़ पैदा की जा सकती है। मेरे खयाल से बुरी नज़र में असीमित संभावनाएं हैं, बशर्ते कि हम इन संभावनाओं की खोज-बीन के प्रति जागरूक हों।अब तक हमने इस क्षेत्र की बहुत उपेक्षा की। परिणामतः दूसरे देश कहीं से कहीं पहुंच गये और हम पीछे रह गये। अब एक क्षण भी गंवाना आत्मघाती होगा।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #3 ☆ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #3 ☆ 

 

☆ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक हमारी पत्नी☆

 

उनकी सब सुनना पड़ती है अपनी सुना नही सकते, ये बात रेडियो और बीबी दोनो पर लागू होती है।रेडियो को तो बटन से बंद भी किया जा सकता है पर बीबी को तो बंद तक नही किया जा सकता।मेरी समझ में भारतीय पत्नी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा प्रतीक है।

क्रास ब्रीड का एक बुलडाग सड़क पर आ गया, उससे सड़क के  देशी कुत्तो ने पूछा, भाई आपके वहाँ बंगले में कोई कमी है जो आप यहाँ आ गये ? उसने कहा,  वहाँ का रहन सहन, वातावरण, खान पान, जीवन स्तर सब कुछ बढ़िया है, लेकिन बिना वजह भौकने की जैसी आजादी यहाँ है ऐसी वहाँ कहाँ ?  अभिव्यक्ति की आज़ादी जिंदाबाद।

अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में,जब हम कुछ अभिव्यक्त करने लायक हुये, हाईस्कूल में थे।तब एक फिल्म आई थी “कसौटी” जिसका एक गाना बड़ा चल निकला था, गाना क्या था संवाद ही था।.. हम बोलेगा तो बोलोगे के बोलता है एक मेमसाब है, साथ में साब भी है मेमसाब सुन्दर-सुन्दर है, साब भी खूबसूरत है दोनों पास-पास है, बातें खास-खास है दुनिया चाहे कुछ भी बोले, बोले हम कुछ नहीं बोलेगा हम बोलेगा तो…हमरा एक पड़ोसी है, नाम जिसका जोशी है,वो पास हमरे आता है, और हमको ये समझाता है जब दो जवाँ दिल मिल जाएँगे, तब कुछ न कुछ तो होगा

जब दो बादल टकराएंगे, तब कुछ न कुछ तो होगा दो से चार हो सकते है, चार से आठ हो सकते हैं, आठ से साठ हो सकते हैं जो करता है पाता है, अरे अपने बाप का क्या जाता है?

जोशी पड़ोसी कुछ भी बोले,  हम तो कुछ नहीं बोलेगा, हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है।

अभिव्यक्ति की आजादी और उस पर रोक लगाने की कोशिशो पर यह बहुत सुंदर अभिव्यक्ति थी।यह गाना हिट ही हुआ था कि आ गया था १९७५ का जून और देश ने देखा आपातकाल, मुंह में पट्टी बांधे सारा देश समय पर हाँका जाने लगा।रचनाकारो, विशेष रूप से व्यंगकारो पर उनकी कलम पर जंजीरें कसी जाने लगीं। रेडियो बी बी सी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक बन गया।मैं  इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहा था,उन दिनो हमने जंगल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा लगाई, स्थानीय समाचारो के साइक्लोस्टाइल्ड पत्रक बांटे।सूचना की ऐसी  प्रसारण विधा की साक्षी बनी थी हमारी पीढ़ी। “अमन बेच देंगे,कफ़न बेच देंगे, जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे कलम के सिपाही अगर सो गये तो, वतन के मसीहा,वतन बेच देंगे” ये पंक्तियां खूब चलीं तब।खैर एक वह दौर था जब विशेष रूप से राष्ट्र वादियो पर, दक्षिण पंथी कलम पर रोक लगाने की कोशिशें थीं।

अब पलड़ा पलट सा गया है।आज  देश के खिलाफ बोलने वालो पर उंगली उठा दो तो उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन कहा जाने का फैशन चल निकला है।राजनैतिक दलो के  स्वार्थ तो समझ आते हैं पर विश्वविद्यालयो, और कालेजो में भी पाश्चात्य धुन के साथ मिलाकर राग अभिव्यक्ति गाया जाने लगा है  इस मिक्सिंग से जो सुर निकल रहे हैं उनसे देश के धुर्र विरोधियो, और पाकिस्तान को बैठे बिठाये मुफ्त में  मजा आ रहा है।दिग्भ्रमित युवा इसे समझ नही पा रहे हैं।

गांवो में बसे हमारे भारत पर दिल्ली के किसी टी वी चैनल  में हुई किसी छोटी बड़ी बहस से या बहकावे मे आकर  किसी कालेज के सौ दो सौ युवाओ की  नारेबाजी करने से कोई अंतर नही पड़ेगा।अभिव्यक्ति का अधिकार प्रकृति प्रदत्त है, उसका हनन करके किसी के मुंह में कोई पट्टी नही चिपकाना चाहता  पर अभिव्यक्ति के सही उपयोग के लिये युवाओ को दिशा दिखाना गलत नही है, और उसके लिये हमें बोलते रहना होगा फिर चाहे जोशी पड़ोसी कुछ बोले या नानी, सबको अनसुना करके  सही आवाज सुनानी ही होगी कोई सुनना चाहे या नही।शायद यही वर्तमान स्थितियो में  अभिव्यक्ति के सही मायने होंगे। हर गृहस्थ जानता है कि  पत्नी की बड़ बड़  लगने वाली अभिव्यक्ति परिवार के और घर के हित के लिये ही होती हैं।बीबी की मुखर अभिव्यक्ति से ही बच्चे सही दिशा में बढ़ते हैं और पति समय पर घर लौट आता है,  तो अभिव्यक्ति की प्रतीक पत्नी को नमन कीजीये और देस हित में जो भी हो उसे अभिव्यक्त करने में संकोच न कीजीये।कुछ तो लोग कहेंगे लोगो का काम है कहना, छोड़ो बेकार की बातो में कही बीत न जाये रैना ! टी वी पर तो प्रवक्ता कुछ न कुछ कहेंगे ही उनका काम ही है कहना।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #2 ☆ भारत में चीन ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “भारत में चीन”

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी व्यंग्य लेखन हेतु प्रतिष्ठित ‘कबीर सम्मान’ से अलंकृत 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष एवं गौरव का अनुभव हो रहा है कि ई-अभिव्यक्ति परिवार के आदरणीय श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी को ‘साहित्य सहोदर‘ के रजत जयंती वर्ष में व्यंग्य लेखन हेतु प्रतिष्ठित ‘कबीर सम्मान’ अलंकरण से अलंकृत किया गया। e-abhivyakti की ओर से आपको इस सम्मान के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें।  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #2 ☆ 

 

☆ भारत में चीन☆

 

मेरा अनुमान है कि इन दिनो चीन के कारखानो में तरह तरह के सुंदर स्टिकर और बैनर बन बन रहे होंगे  जिन पर लिखा होगा “स्वदेशी माल खरीदें”, या फिर लिखा हो सकता है  “चीनी माल का बहिष्कार करें”. ये सारे बैनर हमारे ही व्यापारी चीन से थोक में बहुत सस्ते में खरीद कर हमारे बाजारो के जरिये हम देश भक्ति का राग अलापने वालो को जल्दी ही बेचेंगे. हमारे नेताओ और अधिकारियो की टेबलो पर चीन में बने भारतीय झंडे के साथ ही बाजू में एक सुंदर सी कलाकृति होगी जिस पर लिखा होगा “आई लव माई नेशन”,  उस कलाकृति के नीचे छोटे अक्षरो में लिखा होगा मेड इन चाइना. आजकल भारत सहित विश्व के किसी भी देश में जब चुनाव होते हैं तो  वहां की पार्टियो की जरूरत के अनुसार वहां का बाजार चीन में बनी चुनाव सामग्री से पट जाता है .दुनिया के किसी भी देश का कोई त्यौहार हो उसकी जरूरतो के मुताबिक सामग्री बना कर समय से पहले वहां के बाजारो में पहुंचा देने की कला में चीनी व्यापारी निपुण हैं. वर्ष के प्रायः दिनो को भावनात्मक रूप से किसी विशेषता से जोड़ कर उसके बाजारीकरण में भी चीन का बड़ा योगदान है.

चीन में वैश्विक बाजार की जरूरतो को समझने का अदभुत गुण है. वहां मशीनी श्रम का मूल्य नगण्य है .उद्योगो के लिये पर्याप्त बिजली है. उनकी सरकार आविष्कार के लिये अन्वेषण पर बेतहाशा खर्च कर रही है. वहां ब्रेन ड्रेन नही है. इसका कारण है वे चीनी भाषा में ही रिसर्च कर रहे हैं. वहां वैश्विक स्तर के अनुसंधान संस्थान हैं. उनके पास वैश्विक स्तर का ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले अपने होनहार युवकों को देने के लिये उस स्तर के रोजगार भी हैं. इसके विपरीत भारत में देश से युवा वैज्ञानिको का विदेश पलायन एक बड़ी समस्या है. इजराइल जैसे छोटे देश में स्वयं के इन्नोवेशन हो रहे हैं किन्तु हमारे देश में हम बरसो से ब्रेन ड्रेन की समस्या से ही जूझ रहे हैं.  देश में आज  छोटे छोटे क्षेत्रो में मौलिक खोज को बढ़ावा  दिया जाना जरूरी है. वैश्विक स्तर की शिक्षा प्राप्त करके भी युवाओ को देश लौटाना बेहद जरूरी है. इसके लिये देश में ही उन्हें विश्वस्तरीय सुविधायें व रिसर्च का वातावरण दिया जाना आवश्यक है. और उससे भी पहले दुनिया की नामी युनिवर्सिटीज में कोर्स पूरा करने के लिये आर्थिक मदद भी जरूरी है. वर्तमान में ज्यादातर युवा बैंको से लोन लेकर विदेशो में उच्च शिक्षा हेतु जा रहे हैं, उस कर्ज को वापस करने के लिये मजबूरी में ही उन्हें उच्च वेतन पर विदेशी कंपनियो में ही नौकरी करनी पड़ती है, फिर वे वही रच बस जाते हैं. जरूरी है कि इस दिशा में चिंतन मनन, और  निर्णय तुरन्त लिए जावें, तभी हमारे देश से ब्रेन ड्रेन रुक सकता है .

निश्चित ही विकास हमारी मंजिल है. इसके लिये  लंबे समय से हमारा देश  “वसुधैव कुटुम्बकम” के सैद्धांतिक मार्ग पर, अहिंसा और शांति पर सवार धीरे धीरे चल रहा था.  अब नेतृत्व बदला है, सैद्धांतिक टारगेट भी शनैः शनैः बदल रहा है. अब  “अहम ब्रम्हास्मि” का उद्घोष सुनाई पड़ रहा है. देश के भीतर और दुनिया में भारत के इस चेंज आफ ट्रैक से खलबली है. आतंक के बमों के जबाब में अब अमन के फूल  नही दिये जा रहे. भारत के भीतर भी मजहबी किताबो की सही व्याख्या पढ़ाई जा रही है. बहुसंख्यक जो  बेचारा सा बनता जा रहा था और उससे वसूल टैक्स से जो वोट बैंक और तुष्टीकरण की राजनीति चल रही थी, उसमें बदलाव हो रहा है. ट्रांजीशन का दौर है .

इंटरनेट का ग्लोबल जमाना है. देशो की  वैश्विक संधियो के चलते  ग्लोबल बाजार  पर सरकार का नियंत्रण बचा नही है. ऐसे समय में जब हमारे घरो में विदेशी बहुयें आ रही हैं, संस्कृतियो का सम्मिलन हो रहा है. अपनी अस्मिता की रक्षा आवश्यक है. तो भले ही चीनी मोबाईल पर बातें करें किन्तु कहें यही कि आई लव माई इंडिया. क्योकि जब मैं अपने चारो ओर नजरे दौड़ाता हूं तो भले ही मुझे ढ़ेर सी मेड इन चाइना वस्तुयें दिखती हैं, पर जैसे ही मैं इससे थोड़ा सा शर्मसार होते हुये अपने दिल में झांकता हूं तो पाता हूं कि सारे इफ्स एण्ड बट्स के बाद ” फिर भी दिल है हिंदुस्तानी “. तो चिंता न कीजीये बिसारिये ना राम नाम, एक दिन हम भारत में ही चीन बना लेंगें.  हम विश्व गुरू जो ठहरे. और जब वह समय आयेगा  तब मेड इन इंडिया की सारी चीजें दुनियां के हर देश में नजर आयेंगी चीन में भी, जमाना ग्लोबल जो है. तब तक चीनी मिट्टी से बने, मेड इन चाइना गणेश भगवान की मूर्ति के सम्मुख बिजली की चीनी झालर जलाकर नत मस्तक मूषक की तरह प्रार्थना कीजीये कि हे प्रभु ! सरकार को, अल्पसंख्यको को, बहुसंख्यकों को, गोरक्षको को, आतंकवादियो को, काश्मीरीयो को,  पाकिस्तानियो को, चीनियो को सबको सद्बुद्धि दो.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #1 ☆ बाबा ब्लैक शीप ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के हम हृदय से आभारी हैं,  जिन्होने हमारे आग्रह पर साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य” शीर्षक से लिखना स्वीकार किया। आप वर्तमान में अतिरिक्त मुख्य  इंजीनियर के पद पर म.प्र.राज्य विद्युत मंडल, जबलपुर में कार्यरत हैं। संभवतः आपको साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन की कला शिक्षा के क्षेत्र में ख्यातिनाम माता-पिता से संस्कार में मिली है। आपने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखन कार्य किया है। आप समय के साथ स्वयं को  डिजिटल मीडिया में ढाल कर एक प्रसिद्ध ब्लॉगर की भूमिका भी निभा रहे हैं। आप काई साहित्यिक सम्मनों से पुरुस्कृत / अलंकृत हैं । श्री विवेक रंजन जी की साहित्यिक यात्रा की विस्तृत जानकारी के लिए  >> श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  << पर क्लिक करने का कष्ट करें। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “बाबा ब्लैक शीप”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #1 ☆ 

 

☆ बाबा ब्लैक शीप ☆

 

कष्टो दुखो से घिरे  दुनिया वालो को बाबाओ की बड़ी जरूरत है. किसी की संतान नहीं है, किसी की संतान निकम्मी है, किसी को रोजगार की तलाश है, किसी को पत्नी पर भरोसा नही है, किसी को वह सब नही मिलता जिसके लायक वह है, कोई असाध्य रोग से पीड़ित है तो किसी की असाधारण महत्वाकांक्षा वह साधारण तरीको से पूरी कर लेना चाहता है, वगैरह वगैरह हर तरह की समस्याओ का एक ही निदान होता है ” बाबा”.  इसलिये  हमें एक चेहरे की तलाश है, जो किंचित कालिदास की तरह का गुणवान हो, कुछ वाचाल हो, टेक्टफुल हो, थोड़ा बहुत आयुर्वेद और ज्योतिष जानता हो तो बात ही क्या,  हम उसे बाबा के रूप में महिमा मण्डित कर सकते हैं, कोई सुयोग्य पात्र मिले तो जरूर बताईये.

यूँ बचपन में हम भी बाबा हुआ करते थे ! हर वह शख्स जो हमारा नाम नहीं जानता था हमें प्यार से बाबा कह कर पुकारता था. इस बाबा गिरी में हमें लाड़, प्यार और कभी जभी चाकलेट वगैरह मिल जाया करती थी. यह “बाबा” शब्द से हमारा पहला परिचय था. अच्छा ही था. अपनी इसी उमर में हमने “बाबा ब्लैक शीप” वाली राइम भी सीखी थी.  जब कुछ बड़े हुये तो बालभारती में सुदर्शन की कहानी “हार की जीत” पढ़ी.  बाबा भारती और डाकू खड़गसिंग के बीच हुये संवाद मन में घर कर गये. “बाबा” का यह परिचय संवेदनशील था, अच्छा ही था. कुछ और बड़े हुये तो लोगों को राह चलते अपरिचित बुजुर्ग को भी “बाबा” का सम्बोधन करते सुना. इस वाले बाबा में किंचित असहाय होने और उनके प्रति दया वाला भाव दिखा. कुछ दूसरे तरह के बाबाओ में कोई हरे कपड़ो में मयूर पंखो से लोभान के धुंयें में भूत, प्रेत, साये भगाता मिला तो कोई काले कपड़ो में शनिवार को तेल और काले तिल का दान मांगते मिला. कुछ वास्तविक बाबा आत्म उन्नति के लिये खुद को तपाते हुये भी मिले पर इन बाबाओ पर भी तरस खाने वाली स्थिति थी.

फिर बाबा बाजी वाले बाबाओ से भी रूबरू हुये. जिनके रूप में चकाचौंध थी. शिष्य मंडली थी. बड़े बड़े आश्रम थे. लकदक गाड़ियों का काफिला  था. भगवा वस्त्रो में चेले चेलियां थे. प्रवचन के पंडाल थे. पंडालो के बाहर बाबा जी के प्रवचनो की सीडी, किताबें, बाबा जी की प्रचारित देसी दवाईयां विक्रय करने के स्टाल थे. टी वी चैनलो पर इन बाबाओ के टाईम स्लाट थे. इन बाबाओ को दान देने के लिये बैंको के एकाउंट नम्बर थे. कोई बाबा हवा से सोने की चेन और घड़ी  निकाल कर भक्तो में बांटने के कारण चर्चित रहे तो कोई जमीन में हफ्ते दो हफ्ते की समाधि लेने के कारण, कोई योग गुरु होने के कारण तो कोई आयुर्वेदाचार्य होने के कारण सुर्खियो में रहते दिखे.  बड़े बड़े मंत्री संत्री, अधिकारी, व्यापारी इन बाबाओ के चक्कर लगाते मिले. ही बाबा और शी बाबा के अपने अपने छोटे बड़े ग्रुप आपकी ही तरह हमारा ध्यान भी खींचने में सफल रहे हैं.

बाबाओ के रहन सहन आचार विचार के गहन अध्ययन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि किसी को बाबा बनाने के लिये  प्रारंभिक रूप से कुछ सकारात्मक अफवाह फैलानी होगी. लोग चमत्कार को नमस्कार करते आये हैं. अतः कुछ महिमा मण्डन, झूठा सच्चा गुणगान करके दो चार विदेशी भक्त या समाज के प्रभावशाली वर्ग से कुछ भक्त जुटाने पड़ेंगे. एक बार भक्त मण्डली जुटनी शुरु हुई तो फिर क्या है, कुछ के काम तो गुरु भाई होने के कारण ही आपस में निपट जायेंगे, जिनके काम न हो पा  रहे होंगे  बाबा जी के रिफरेंस से मोबाईल करके निपटवा देंगे.

हमारे दीक्षित बाबा जी को हम स्पष्ट रूप से समझा देंगे कि उन्हें सदैव शाश्वत सत्य ही बोलना है, कम से कम बोलना है.  गीता के कुछ श्लोक, और  रामचरित मानस की कुछ चौपाईयां परिस्थिति के अनुरूप बोलनी है. जब संकट का समय निकल जायेगा और व्यक्ति की समस्या का अच्छा या बुरा समाधान हो जावेगा तो  बोले गये वाक्यो के गूढ़ अर्थ लोग अपने आप निकाल लेंगे. बाबाओ के पास लोग इसीलिये जाते हैं क्योकि वे दोराहे पर खड़े होते हैं और स्वयं समझ नहीं पाते कि कहां जायें, वे नहीं जानते कि उनका ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो कोई बाबा जी भी नही जानते कि कौन सा ऊंट किस करवट बैठेगा, पर बाबा जी, ऊंट के बैठते तक भक्त को दिलासा और ढ़ाड़स बंधाने के काम आते हैं. यदि ऊंट मन माफिक बैठ गया तो बाबा जी की जय जय होती है, और यदि विपरीत दिशा में बैठ गया तो पूर्वजन्मो के कर्मो का परिणाम माना जाता है, जिसे बताना होता है कि  बाबा जी ने बड़े संकट को सहन करने योग्य बना दिया, इसलिये फिर भी बाबा जी की जय जय. बाबा कर्म में हर हाल में हार की जीत ही होती है भले ही भक्त को बाबा जी का ठुल्लू ही क्यो न मिले. बाबा जी पर भक्त सर्वस्व लुटाने को तैयार मिलते हैं भले ही बाबा ब्लैक शीप ही क्यो न हों.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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