(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “कालजयी कृति राग दरबारी के रचयिता: सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल”।)
☆ दस्तावेज़ # 12 – कालजयी कृति राग दरबारी के रचयिता: सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
श्रीलाल शुक्ल का नाम हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ व्यंग्यकारों में हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रवींद्रनाथ त्यागी के साथ बहुत सम्मानपूर्वक लिया जाता है। एक सरकारी अफसर जो फाइलों के ढेर में उलझा रहता हो, इतना बारीक व्यंग्य लिख देता है कि पढ़ते-पढ़ते आप सोचने लगते हैं कि ये तो हमारे ही आसपास का हाल है।
वे आईएएस अफसर थे और इस सरकारी नौकरी में उन्होंने भारतीय समाज और प्रशासन की हर बारीकी को इतने करीब से देखा कि उसे कागज़ पर उतार दिया। लेकिन उन्होंने केवल देखा ही नहीं, महसूस भी किया। शायद यही वजह थी कि उनका व्यंग्य महज़ हंसी-मज़ाक नहीं था, बल्कि समाज की गहरी सच्चाइयों को दिखाने वाला एक आईना था।
उनका व्यंग्य उपन्यास ‘राग दरबारी’ एक कालजयी कृति है। 1968 में जब यह उपन्यास प्रकाशित हुआ तो जैसे साहित्य जगत में खलबली मच गई। यह उपन्यास भारत के ग्रामीण जीवन, राजनीति और शिक्षा प्रणाली का ऐसा सजीव चित्रण करता है कि जो भी इसे पढ़ता है, वह खुद को शिवपालगंज के किसी गली-कूचे में घूमता हुआ महसूस करता है।
‘शिवपालगंज’ गाँव हर जगह है। आपका अपना गाँव, कस्बा, मोहल्ला। और इसमें जो पात्र हैं – वैद्य जी, रंगनाथ, छोटे पहलवान – ये सब ऐसे लगते हैं जैसे हमारे ही आसपास के लोग हों। वैद्यजी ऐसे किरदार हैं जिनका नाम लेते ही चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। उनकी चतुराई, उनकी राजनीति और उनके तंज इतने अनोखे हैं कि वे हिंदी साहित्य का हिस्सा बन गए हैं।
‘राग दरबारी’ में शिक्षा प्रणाली पर लाजवाब कटाक्ष है। शुक्ल ने लिखा कि हमारे स्कूल सिर्फ़ परीक्षा पास करने की मशीनें हैं। ज्ञान से कोई मतलब नहीं है।
जब इस उपन्यास को टीवी पर दिखाया गया, तो लोग देखकर ऐसे खुश होते थे मानो उनके ही गाँव की कहानी हो। 1986 में दूरदर्शन पर ‘राग दरबारी’ को धारावाहिक के रूप में दिखाया गया था। अगर आपने देखा हो, तो आपको याद होगा कि हर किरदार जैसे किताब के पन्नों से निकलकर आपके सामने आ गया हो।
मुझे लगता है कि ‘राग दरबारी’ की खासियत यही है कि यह महज़ एक उपन्यास नहीं, बल्कि एक समय, एक समाज का दस्तावेज़ है। और यह दस्तावेज़ तब भी प्रासंगिक था, आज भी है, और शायद आगे भी रहेगा।
शुक्ल का कहना था कि शिवपालगंज जैसा गाँव हर जगह है। मैं जब-जब ‘राग दरबारी’ पढ़ता हूँ तो मुझे लगता है कि वह गाँव कहीं और नहीं बल्कि मेरे ही भीतर है।
उनका व्यक्तित्व बहुत सहज था। लगता ही नहीं था कि वे इतने बड़े सरकारी अधिकारी और व्यंग्यकार हैं। उनके द्वारा लिखा गया एक पत्र आज भी मेरे पास अमूल्य निधि की तरह सुरक्षित है। उस पोस्टकार्ड को मैं ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ साझा कर रहा हूं। उन्होंने लिखा:
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बी 2251 इंदिरा नगर लखनऊ 226016
17.1.’99
प्रिय बिष्ट जी,
‘कुछ लेते क्यों नहीं’ की प्रति मिली। कृतज्ञ हूं। एक बार देख गया हूं। काफी दिलचस्प है और अमौलिक विषयों पर मौलिक दृष्टि से संपन्न है। इत्मीनान से बाद में पढूंगा।
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन“।)
☆ दस्तावेज़ # 11 – 50 साल पहले जबलपुर का परिदृश्य और साइंस कॉलेज से ग्रेजुएशन☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
काफी उथल-पुथल का समय था। एक संत, आचार्य विनोबा भावे, जबलपुर को संस्कारधानी घोषित करके जा चुके थे और दूसरे संत, आचार्य रजनीश, जिनका मिजाज़ कुछ अलग था, संभोग से समाधि की ओर जाने का मार्ग बता रहे थे। महर्षि महेश योगी के भावातीत ध्यान का भी प्रवर्तन हो रहा था। यह नगरी अभी इतनी प्रगतिशील नहीं हुई थी कि टॉर्च बेचने वाले जादूगरों के अलावा अन्य बुद्धिजीवियों को स्वीकार कर सके। व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई को ‘वैष्णव की फिसलन’ लिखने के परिणामस्वरूप अपने हाथ-पांव तुड़वाने पड़े थे।
रॉबर्टसन कॉलेज तब तक गवर्नमेंट साइंस कॉलेज कहलाने लगा था। बगल में, महाकौशल आर्ट कॉलेज था। सिविल लाइंस के पचपेड़ी में इनके विशालकाय परिसर थे। निकट ही, मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, इंदिरा गांधी के राजनीतिक सलाहकार और ‘कृष्णायन’ ग्रन्थ के रचयिता, पंडित द्वारिकाप्रसाद मिश्र का निवास था। थोड़ा आगे चलकर, जबलपुर यूनिवर्सिटी थी, जिसका नामकरण अब रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय हो गया है।
सेठ गोविंददास लंबे समय तक जबलपुर के सांसद रहे। उन्होंने हिंदी की सेवा की और ‘केरल के सुदामा’ तथा अन्य रचनाओं का अपनी कलम से सृजन किया। मुझे तो उस वक्त शहर के सबसे बड़े विद्वान दर्शनाचार्य गुलाबचंद्र जैन प्रतीत होते थे क्योंकि पाठ्यक्रम में उन्हीं की लिखी पुस्तकें पढ़ाई जाती थीं! सेठ गोविंददास के बाद, विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष, शरद यादव, अगले सासंद चुने गए।
जब हमने कॉलेज में दाखिला लिया (1971), तो उसके तुरंत बाद पाकिस्तान से दूसरा युद्ध हुआ और बांग्लादेश स्वतंत्र हुआ। जनरल नियाज़ी और उसके साथ आत्म-समर्पण करने वाले पाक सैनिकों को कॉलेज के पास ही आर्मी एरिया में कैद रखा गया था। हम रांझी से साइकिल में, गन कैरेज फैक्ट्री होते हुए, सेंट्रल स्कूल के परिसर के अंदर से शॉर्टकट लेकर, कॉलेज की पिछली ओर साइकिल स्टैंड में पहुंचते थे। कुछ समय तक वेस्टलैंड खमरिया से, प्रदीप मित्रा का साथ मिला। लंबे रास्ते में हम कार्ल मार्क्स के साम्यवाद और अमेरिका में पूंजीवाद की चर्चा करते थे। मुझे तो इन विषयों की कोई खास समझ नहीं थी लेकिन प्रदीप, फर्ग्यूसन कॉलेज पूना और आई आई टी कानपुर होते हुए, अमेरिका पहुंचकर वहां प्रोफेसर बन गया।
कॉलेज में पढ़ाई का अनुकूल वातावरण था और प्रोफ़ेसर बहुत योग्य थे। प्रोफेसर हांडा हमें गणित पढ़ाते थे। वह बहुत लंबे थे। गर्दन टेढ़ी कर कार चलाते थे। क्लास के अंत में पूछते, “एनी क्वेशचन?” जब हम ‘न’ में सिर हिलाते, तो वो बोलते, “नो क्वेशचन, वैरी इंटेलीजेंट!” छोटे कद के, अत्यंत प्रखर, डॉ प्रेमचंद्र, गणित के हमारे दूसरे प्रोफेसर थे। उनकी मूछें बहुत आकर्षक थीं। वे ‘इक्वेशन’ और ‘इक्वल टू’ का बहुत अजीबोगरीब और नाटकीय उच्चारण करते थे। ऐसा करने में, उनकी मूछें, तराजू के दो पलड़ों की तरह ऊपर-नीचे झुक जाती थीं – एक नीचे की तरफ और दूसरी ऊपर की ओर!
केमिस्ट्री के प्रोफेसर डॉ महाला और मिश्रा सर सादगी की प्रतिमूर्ति लेकिन गहन विद्वान थे। महाला सर तो ब्लैकबोर्ड के सामने बीचोंबीच खड़े होकर, दोनों तरफ दाएं और बाएं हाथ से एक जैसा लिखते थे। सहस्त्रबुद्धे सर पुलिस अधिकारी की तरह कड़क थे, हम उनसे डरते थे। फिजिक्स डिपार्टमेंट के प्रोफेसर एस के मिश्रा और निलोसे सर बहुत सौम्य थे। उन्हें विषय का गहरा ज्ञान था। पालीवाल सर अप्लाइड मैथेमेटिक्स के अंतर्गत स्टेटिस्टिक्स पढ़ाते थे। उनका पढ़ाने का ढंग मज़ेदार था। वो पढ़ाते वक्त, कलाई को स्पिन गेंदबाज की तरह घुमाते थे, आँखें भी गोलगोल नचाते थे और उनकी जीभ भी घिर्रघिर्र करती थी। वे जब कक्षा को ‘कोरिलेशन’ का गणितीय पाठ पढ़ा रहे होते तो छात्र उस युग की तारिकाओं, शर्मीला टैगोर, वहीदा रहमान, तनूजा और डिंपल कपाड़िया के सौंदर्य का आपस में कोरिलेशन ढूंढ रहे होते।
जबलपुर उन दिनों फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन की महत्वपूर्ण टेरिटरी हुआ करती थी। राजकपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ फ्लॉप हुई तो उन्होंने, नुकसान की भरपाई के लिए, एक बोल्ड फिल्म ‘बॉबी’ बना डाली जिसने सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। इस शहर में, ‘दो रास्ते’ और ‘जय संतोषी मां’ जैसी फिल्मों ने सिल्वर जुबली मनाई। पुराने समय में तो श्याम टॉकीज, श्रीकृष्णा, सुभाष, प्लाजा, विनीत और लक्ष्मी टॉकीज जैसे ही पुराने सिनेमा हॉल थे। फिर, कुछ अच्छे बने जैसे ज्योति टॉकीज, आनंद और शीला टॉकीज। प्रेमनाथ की एम्पायर टॉकीज और डिलाइट टॉकीज का अपना ऑडियंस था। वहां हमने ‘द गंस ऑफ नेवरोन’, ‘एंटर द ड्रैगन’ और चार्ली चैपलिन की फिल्में देखीं। डिलाइट में एक बार हंगेरियन फिल्म फेस्टिवल भी आयोजित हुआ था।
हमारे सहपाठी थे – विजय कुमार चौरे, इंद्र कुमार दत्ता, जी पी दुबे, पी पी दुबे, अरविंद हर्षे, विजय कुमार बजाज, प्रवीण मालपानी (सेठ गोविंददास के नाती), रविशंकर रायचौधुरी, प्रदीप मित्रा, आशीष बैनर्जी… और मैं, जगत सिंह बिष्ट। एक नाम मैं भूल रहा हूं। उनकी उम्र हमसे कुछ अधिक थी और वो शायद सिहोरा के आसपास से आते थे। उनका स्वभाव अत्यंत मृदु था। दो छात्र यमन से पढ़ने आए थे – अब्दुल रहमान सलेम देबान और उमर बशर। हमारी कक्षा में दो ही छात्राएं थीं – मंजीत कौर और उमा देवी। हम सब शुद्ध, सात्विक और दूध के धुले थे। न जाने किस मनचले ने कन्याओं की बेंच की ओर, चुपके से प्रेमपत्र खिसका दिया। तत्पश्चात वह प्रतिदिन उत्तर की प्रतीक्षा करता। कुछ दिन खामोशी रही। आखिर उस तरफ से, उस लड़के को एक पर्ची पहुंची, जिसमें लिखा था – “ईश्वर आपको सद्बुद्धि दे!”
कॉलेज परिसर में एक छोटी सी कैंटीन थी जिसमें चाय और समोसे मिलते थे। कभी कभी हम कुछ दोस्त इंडियन कॉफी हाउस (सदर या सिटी) जाकर डोसा और कॉफी का लुत्फ़ उठाते थे। शायद इसी के लिए, हमें हर महीने स्कॉलरशिप मिलती थी। प्रिंसिपल के ऑफिस के बाहर ही बाबू लोग बैठते थे। हमें तो कोई परेशानी नहीं होती थी लेकिन अरविंद को अपने पिताजी को लेकर आना पड़ता था क्योंकि वो इतना मासूम लगता था कि बाबू उसके हाथ में पैसे देने से हिचकिचाते थे। तत्कालीन प्रिंसिपल, कालिका सिंह राठौर बहुत सख़्त थे। अनुशासन का पालन न करने वाले को ऐसी डांट लगाते थे कि वो तौबा करने लगता था।
इस बार मैं न्यूज़ीलैंड गया तो बेटे ने अपने दोस्त रौनक से मिलवाया। बातों ही बातों में मालूम हुआ कि उसके पापा भी जबलपुर के हैं और साइंस कॉलेज से पढ़े हैं। निकुंज श्रीवास्तव नाम है उनका। मॉडल स्कूल और साइंस कॉलेज में पढ़े हैं। हम दोनों ने स्कूल 1971 में पास किया और दोनों ही 1974 में ग्रेजुएट हुए। कॉलेज में सेक्शन जरूर अलग अलग थे। मिलते ही, पहली बात उन्होंने पूछी, “तुमने कॉलेज में घोड़े की आवाज़ सुनी थी?” मैंने कहा, “हां, कई बार।” बोले, “वो मैं ही था!” मैंने पूछा, “आपको एक बार सस्पेंड भी कर दिया था न?” बोले, “हां, एक बार नहीं, सात बार सस्पेंड हुआ हूं!” ज़बरदस्त शख्सियत है उनकी! लगता है, मेले में बिछुड़ गए थे हम। अब मिले हैं। उनसे मिलकर बहुत आनंद आता है। लगता है, अभी भी वही कॉलेज के दिन चल रहे हैं। वही उमंग, वही मस्ती। ढेर सारे किस्से हैं उन दिनों के जाे एक के बाद एक याद आते हैं। हरि अनंत, हरि कथा अनंता।
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “‘लगान’ से पहले, एक था रांझी क्रिकेट क्लब“।)
☆ दस्तावेज़ # 10 – ‘लगान’ से पहले, एक था रांझी क्रिकेट क्लब☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
मुझे तो लगता है कि आशुतोष गोवारिकर को ‘लगान’ फिल्म की पटकथा लिखने की प्रेरणा, जबलपुर के रांझी क्रिकेट क्लब से मिली होगी। फिल्म तो 2001 में बनी, यह क्लब उसके कई साल पहले स्थापित हो चुका था। यहां बहुत पहले से भुवन, भूरा, लाखन, गोली, देवा और कचरा जैसे पात्र, टीम में शामिल रहे हैं। वही उमंग, वही जज़्बा, बीच-बीच में थोड़ा असमंजस, लेकिन कुछ कर गुज़रने की ख्वाहिश इनके दिलों में भी रही है। न कोई साधन, न परंपरा, न राह दिखने वाला कोई इशारा। बस, कुछ करके दिखाना है।
ब्रिटिश काल से, जबलपुर आयुध और सेना का बहुत बड़ा केंद्र रहा है। दूर तक फैले, हरे-भरे मैदान, क्रिकेट के लिए अनुकूल थे। यहां पुराने समय से ही खूब क्रिकेट खेला जाता था। मुझे याद है, बहुत पहले, कैंटोनमेंट के गैरिसन ग्राउंड में सोबर्स, हॉल और ग्रिफिथ वाली वेस्ट इंडीज़ की टीम प्रदर्शन मैच खेलने आई थी। उनकी पेस बॉलिंग हैरतअंगेज़ थी। गेंदबाज बाउंड्री लाइन से दौड़ते हुए आते थे। गेंद दिखाई ही नहीं देती थी।
शहर से दूर, ऑर्डनेंस फैक्टरी के नज़दीक, छोटा-सा उपनगर रांझी, 1965-70-75 के समय उन्नींदा-सा रहता था। न कोई आवागमन के साधन, न कोई सुख-सुविधा। कुछ बच्चे रबर की गेंद से और कुछ बड़े लड़के कॉर्क की गेंद से क्रिकेट खेलते दिख जाते थे। इतवार के दिन छोटे-मोटे मैच भी हो जाते थे।
अजित वाडेकर की कप्तानी में, भारतीय क्रिकेट टीम 1971-72-73 में, पहली बार वेस्ट इंडीज़ और इंग्लैंड से उनकी धरती पर सिरीज़ जीतकर लौटी। टीम में गावस्कर, विश्वनाथ, इंजीनियर के साथ-साथ बेदी, प्रसन्ना, वेंकटराघवन और चंद्रशेखर भी थे। तत्पश्चात, कपिल देव के जांबाज़ों की टीम 1983 का इतिहास रचने के लिए तैयार हो रही थी। देशभर में ही क्रिकेट के प्रति उत्साह की लहर दौड़ रही थी।
रांझी में भी हलचल होना स्वाभाविक था। युवा क्रिकेट प्रेमी मोहन, सुभाष, विनोद, विजय, पटेल और जॉली ने चंदा इकट्ठा किया और सदर में सरदार गंडा सिंह की स्पोर्ट्स शॉप से बैट, स्टंप्स, पैड्स, ग्लव्स और कुछ गेंद लेकर आए। तब मैं बहुत छोटा था। मैदान के बाहर बैठकर सामान की रखवाली करता था और किसी न किसी दिन खेलने के सपने देखा करता था। विनोद लंब की खब्बू स्पिन गेंदबाज़ी देखकर बहुत आनंद आता था। यह पीढ़ी जल्दी ही दुनियादारी में लग गई। इसकी वजह से, एक खालीपन सा आ गया।
कुछ समय बाद, हम बल्ला थामने लायक हो गए थे। किसी ने बताया कि राइट टाऊन स्टेडियम में एन एम पटेल टूर्नामेंट होने जा रहा है, एंट्री ले लो। तब तक न टीम बनी थी, न हमारे पास क्रिकेट की किट थी, और न ही प्रैक्टिस हो पाई थी। बस ठान लिया कि मैदान में उतरना है। गुंडी (अजय सूरी) ने कमान संभाली और टीम तैयार होने लगी – चेतन, गुरमीत, गुंडी, जगत, बब्बी, अशोक, प्रदीप, बुल्ली (सुशील), थॉमस डेविड, अनिल वर्मा, काले (हरमिंदर), नीलू, और कभी एकाध और।
सरदार मेला सिंह का क्रिकेट के प्रति गहरा लगाव था। उनकी कोठी का प्रांगण रांझी क्रिकेट क्लब का अघोषित हेडक्वार्टर बन गया। वहीं लॉन में प्रैक्टिस शुरू हुई। ईंट से टिकी कुर्सी बनी स्टंप्स और मेला सिंह अंकल ने रंदा घिसकर टेंपररी बैट तैयार किया। गेंद रबर की। पहले हफ्ते में ही उनके घर के सब शीशे टूट चुके थे। जिस दिन अंकल खुश होते थे तो बाकायदा ड्रिंक्स ब्रेक में चाय नसीब होती थी। मेरे पास डॉन ब्रैडमैन की पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ क्रिकेट’ की प्रति थी। हम यदाकदा उससे कुछ सीखने का प्रयास करते।
हमारे पास किट नहीं थी। फिर, खेलेंगे कैसे? तय हुआ कि यहां-वहां से जो भी सेकंड हैंड मिल जाए, इकट्ठा कर लो। पैड मिले तो काफी पुराने और जर्जर थे। उनकी हालत ऐसी थी कि पैड नहीं, बल्कि पैड का एक्स-रे दिखाई देते थे। दोनों पैरों के एक-एक बक्कल टूटे हुए थे। गुरमीत ने कीपिंग ग्लव्स ढूंढ लिए। चंदा करके हम बैट भी ले आए। बैट को तेल पिलाना शुरू किया और कपड़े में लिपटी पुरानी बॉल से स्ट्रोक बनाया। दो पुराने एब्डोमन गार्ड भी मिल गए, जिनमें सिर्फ प्लास्टिक वाला हिस्सा बचा रह गया था, कमर से बांधने वाली इलास्टिक बेल्ट उनमें नहीं थी। गार्ड को उसके नियत स्थान पर फंसाना पड़ता था। थोड़ी लज्जा भी आती थी। एक बैट्समैन आउट होकर वापस आ रहा है और दूसरा अंदर जा रहा है। बीच मैदान में, पूरे पब्लिक व्यू में, गार्ड और पैड का आदान-प्रदान होता था। कुछ सामान दूसरी टीम से उधार भी मांग लेते थे।
टूर्नामेंट में अन्य टीमें मजबूत और प्रोफेशनल थीं – एम एच क्लब (मोहनलाल हरगोविंददास), टोरनैडो, ऑर्डनेंस फैक्टरी, व्हीकल फैक्ट्री, गन कैरेज फैक्ट्री, गवर्नमेंट साइंस कॉलेज, और बाद में जहांगीराबाद। उनके खिलाड़ी दक्ष और अनुभवी थे – श्रवण पटेल (इंग्लैंड में प्रशिक्षित), सिद्धार्थ पटेल, आजाद पटेल, मुकेश पटेल, गोपाल राव, अशोक राव, पंडित, अलेक्ज़ेंडर थॉमस, साल्वे, पम्मू, और अन्य।
एन एम पटेल टूर्नामेंट का हमारा पहला फिक्सचर, व्हीकल फैक्टरी से तय था। उनकी टीम सशक्त थी और खिलाड़ी अनुभवी थे। हमारा कोई इतिहास नहीं था, बस वर्तमान था, और हम भविष्य का निर्माण करने निकले थे। मैदान में उतरे तो किसी के कपड़े सफेद थे, किसी के क्रीम, किसी के बादामी। क्रिकेट शूज़ एक दो खिलाड़ियों के ही पैरों में थे। लेकिन खेल शुरू होते ही हमने पूरी तरह फोकस किया। उस दिन गोपाल की लेफ्ट आर्म स्पिन और मेरी मीडियम पेस गेंदबाजी चल निकली। सबको आश्चर्य हुआ जब हमने उन्हें बहुत कम स्कोर में निकाल लिया। हमारी बैटिंग की बारी आई तो चेतन ने ओपनिंग बल्लेबाजी करते हुए, ऑफ स्टंप के बाहर की गेंदों पर बेहतरीन फ्लैश लगाए। गुरमीत ने एक छोर संभाले रखा और गुंडी ने, मिडिल ऑर्डर में, कप्तान की पारी खेली। हमें भारी जीत हासिल हुई और अगली सुबह ‘नवभारत’ अखबार में हमारा और रांझी क्रिकेट क्लब का नाम आया। बहुत अच्छा लगा।
क्रिकेट जीवन को जीने की कला है। वह हमें जीत और हार को, खिलाड़ी भावना के साथ, समभाव से स्वीकार करना सिखाती है। अगला मैच हमारा गवर्नमेंट साइंस कॉलेज से था। हम हार गए और टूर्नामेंट से बाहर हो गए। फिर भी, हमारी टीम की थोड़ी-बहुत साख तो बन ही गई थी और हमें समय-समय पर मैच खेलने के लिए आमंत्रित किया जाने लगा। हम बाकायदा खेलने जाते, अच्छा प्रदर्शन करते, और जो दिन हमारा होता उस दिन शहर की किसी भी टीम को पराजित कर देते। अजय सूरी (गुंडी) के हम विशेष रूप से कृतज्ञ हैं कि शून्य से शुरू कर, वो टीम को बहुत आगे तक ले गए। शांत व्यवहार, होठों पर सदैव मुस्कान, धैर्य, और हम सब पर अटूट विश्वास था उनका। उन्हें मालूम था, एक-दो मैच हारेंगे, फिर जीतेंगे भी। हमारी टीम के कई खिलाड़ियों में बहुत प्रतिभा थी। हमारे पास अपना ग्राउंड होता, कुछ साधन होते, और कोई मार्गदर्शक होता तो हम क्या नहीं कर सकते थे!
तब तक हमने हनुमंत सिंह, सलीम दुर्रानी, जगदाले और गट्टानी को अनेक बार रणजी में खेलते देखा था। 1977-78 के आसपास, राइट टाउन स्टेडियम में, चंदू सरवटे बेनिफिट मैच हुआ तो बहुत सारे खिलाड़ियों को खेलते देखा – गावस्कर, बेदी, संदीप पाटिल, मोहिंदर अमरनाथ, सुरिंदर अमरनाथ, मदन लाल, अशोक मांकड, धीरज परसाना, और अनेक अन्य। उस मैच में, हमारा अपना, सी एन सुब्रमण्यम भी खेला, जो शहर का बहुत ही होनहार खिलाड़ी था लेकिन किन्हीं कारणों से शिखर तक नहीं पहुंच सका। अब केवल उसकी स्मृतियां शेष हैं। जबलपुर में पुराने समय से ही खूब क्रिकेट खेला जाता है लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खिलाड़ियों का पहुंचना क्यों नहीं हो पाता?
लोग बताते हैं अब रांझी में बहुत कुछ बदल गया है। पहले हमें मैच के लिए नई गेंद लेने के लिए अंधेरदेव या सदर जाना पड़ता था। अब रांझी में स्पोर्ट्स का सारा सामान मिल जाता है। उत्सुकता है जानने की कि आजकल वहां क्रिकेट का क्या हाल है, कौन-कौन खेल रहा है, कौन से क्लब हैं, किन टूर्नामेंट्स में भाग लेते हैं और क्रिकेट प्रशिक्षण की क्या व्यवस्था है?
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(स्व. जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर थे उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा था। हमारे परम मित्र जयप्रकाश जी आज हमारे बीच नहीं रहे किन्तु, उनके द्वारा प्रारम्भ किए गए इस स्तम्भ को संस्कारधानी जबलपुर से ही भाई श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी के सहयोग से जारी रख रहे हैं।
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं – ““सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा ”।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा ☆ स्व. जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(यह संस्मरण तकनीकी कारणों से स्व जय प्रकाश पाण्डेय जी के रहते प्रकाशित नहीं हो सका था।)
लड़कपन की एक बात याद आ गई, जब हम छठवीं या सातवीं में पढ़ रहे थे गांव से पढ़ने शहर आये थे। गरीबी के साथ गोलबाजार के एक खपरैल कमरे में रहते थे। बड़े भाई उन दिनों डाॅ महेश दत्त मिश्रा जी के अंडर में ‘इण्डियन प्राईममिनिस्टर थ्योरी एण्ड प्रेक्टिस’ संबंधी विषय पर पीएचडी कर रहे थे। पिताजी स्वतंत्रता संग्राम के दिनों नौकरी छोड़कर आंखें गवां चुके थे, मां पिता जी गांव में ही थे। घर के पड़ोस में महाकौशल स्कूल था और उस पार अलका लाज के पास साहू के मकान में महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डाक्टर महेश दत्त मिश्र जी दो कमरे के मकान में रहते थे। सीमेंट से बना मकान था। अविवाहित थे, खुद अपने हाथों घर की साफ-सफाई करते, खाना बनाते, बर्तन और कपड़े धोते। खेलते खेलते कभी हम उनके घर पहुंच जाते, एक दिन घर पहुंचे तो वे फूली फूली रोटियां सेंक रहे थे और एक पुरानी सी मेज में बैठे दाढ़ी वाले सज्जन को वो गर्म रोटियां परोस रहे थे, हम भी सामने बैठ गए, हमें भी गरमा गर्म एक रोटी परोस दी उन्होंने। खेलते खेलते भूख तो लगी थी वे गरम रोटियां जो खायीं तो उसका प्यारा स्वाद आज तक नहीं भूल पाए।
मिश्र जी गोल गोल फूली रोटियां सामने बैठे दाढ़ी वाले को परोसते जाते और दोनों आपस में हंस हंसकर बातें भी कर रहे थे। वे दाढ़ी वाले सज्जन आचार्य रजनीश थे जो उन दिनों विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। लड़कपन था खाया पिया और हम बढ़ लिए…. ।
आज जब ‘कहां गए वे लोग’ कालम लिखते हुए आदरणीय डॉ महेश भाई बहुत याद आए। हां जी, मैं उन्हीं महेश भाई की बात कर रहा हूं जो महात्मा गांधी के निजी सचिव थे, पूर्व सांसद थे, और बहुत सहज सरल व्यक्तित्व के धनी थे। आज भी स्वाधीनता सेनानी स्वर्गीय प्रोफेसर महेश दत्त मिश्र को हरदा के गांधी के रूप में जाना जाता है। पिछले कई वर्षों से मिश्र जी के परिजन उनकी स्मृति में हरदा में व्याख्यान माला आयोजित करते हैं।
महेश दत्त मिश्र का जन्म 1915 में हरदा में हुआ था। उनके पिता का नाम स्वर्गीय पंडित चंद्र गोपाल मिश्र था। उन्होंने बी ए (आनर्स), एम ए किया। उनकी पढ़ाई राधा स्वामी शैक्षणिक संस्थान, दयालबाग, आगरा, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद से हुई। जबलपुर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के वरिष्ठ रीडर; पूर्व में सहायक प्रोफेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय; 1958-59 में शिकागो विश्वविद्यालय के भारतीय सभ्यता पाठ्यक्रम के स्टाफ पर काम किया। 1952-57 में पीएसपी से जुड़े; 1930-32 में एक छात्र के रूप में और 1940 और 1942 में जेल गए; छात्र जीवन से कई वर्षों तक पीसीसी और एआईसीसी के सदस्य रहे। 1952 से 1957 तक वे मध्यप्रदेश विधानसभा में विधायक रहे । सामाजिक गतिविधियाँ: रचनात्मक कार्य, ग्रामीण उत्थान, सांस्कृतिक गतिविधियाँ में बचपन से वे सक्रिय रहे।छात्र जीवन से ही सभी गांधीवादी गतिविधियों स जुड़े रहे। रचनात्मक कार्य, खादी और ग्रामोद्योग, हरिजन उत्थान, हिंदू-मुस्लिम एकता, कृषि और ग्रामीण विकास में वे विशेष रुचि रखते थे। यूरोप, पूर्व के साथ-साथ पश्चिम, अमरीका, मध्य पूर्व देशों की उन्होंने अनेक बार विदेश यात्राएं की थी। वे जीवन भर अविवाहित रहे। प्रारंभिक नागरिक शास्त्र, सामाजिक अध्ययन जैसे अनेक विषयों पर उन्होंने किताबें लिखीं हैं। उन्हें सादर नमन।
साभार – स्व. जय प्रकाश पाण्डेय
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “रवींद्रनाथ त्यागी: मोती जैसे सुन्दर अक्षर, संतों जैसे स्पष्ट बोल“।)
☆ दस्तावेज़ # 9 – रवींद्रनाथ त्यागी: मोती जैसे सुन्दर अक्षर, संतों जैसे स्पष्ट बोल☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
श्रद्धेय रवींद्रनाथ त्यागी व्यंग्यकार के रूप में जाने जाते हैं लेकिन उन्होंने उत्कृष्ट कविताएं, और ललित निबंध भी लिखे हैं। साथ ही साथ, वे एक बड़े सरकारी अधिकारी भी थे।
गर्मियों की छुट्टी में हम अक्सर देहरादून जाते थे। वहां उनकी एक आलीशान कोठी थी। उनके पुस्तकालय में, संस्कृत, हिंदी और इंग्लिश की, हजारों पुस्तक और ग्रन्थ थे। उनके जैसा विद्वान और खूब पढ़ने वाला साहित्यकार मैंने नहीं देखा। उनके अक्षर मोती जैसे सुन्दर थे और वे बहुत मेहनत से, अपनी कलम से ही पुस्तकों की पांडुलिपि तैयार करते थे।
मेरे और मेरे परिवार के प्रति उनका गहरा स्नेह था। उन्होंने हमें अनेक बार डिनर पर आमंत्रित किया। एक बार हम उनके लिए अल्मोड़ा की प्रसिद्ध बाल मिठाई लेकर गए। उन्होंने पूछा कि यह क्या है? जब हमने बताया कि बाल मिठाई है, तो मिठाई के बड़े आकार को देखकर बोले, “ये बाल मिठाई नहीं, बाप मिठाई है!” उन्होंने डब्बे में से एक पीस निकालकर कहा, “बाकी घर ले जाओ, यहां डायबिटीज़ की वजह से मीठा खाने वाला कोई नहीं है।”
एक दिन उन्होंने कहा, “मेरी एक मोटी पुस्तक आने वाली है – बादलों का गांव। उसकी पहली प्रति तुमको भेजूंगा।” पुस्तक प्रकाशित होने पर, उन्होंने एक प्रति मुझे रजिस्टर्ड डाक से भेजी। अंदर उनका पता लिखा एक पोस्टकार्ड था। उन्होंने लिखा था, “आज ही प्राप्ति की सूचना भेजो। पुस्तक पर प्रतिक्रिया पढ़कर भेजना।”
‘बादलों का गांव’ रवींद्रनाथ त्यागी की अति सुन्दर कृति है। एक-एक रचना मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। शीर्षक रचना ‘बादलों का गांव’ तो अप्रतिम है। ऐसी करुणामय रचना हिंदी या विश्व साहित्य में शायद ही कोई और हो! ऐसे आत्मकथ्य के लिए बहुत साहस और ईमानदारी चाहिए। शत् शत् प्रणाम!
मेरे पहले व्यंग्य-संग्रह की उन्होंने सराहना की थी और लिखा, “यह मेरे पहले संग्रह से कहीं बेहतर है।”
एक बार उन्होंने कहा था – तुम्हारी ‘पल्पगंधा’ व्यंग्य-कथा मुझे बहुत अच्छी लगी। यह हिंदी साहित्य की एक उत्कृष्ट रचना है। जो जगत सिंह बिष्ट पल्पगंधा लिख सकता है, वह ऐसी और रचनाएं क्यों नहीं लिखता?
मेरे चौथे संग्रह पर उनकी तल्ख़ टिप्पणी थी, “आपकी पुस्तक (कुछ लेते क्यों नहीं) मिली। ध्यानपूर्वक पढ़ गया। बहुत कमज़ोर कृति है। बढ़िया पंक्तियां तीस से ज़्यादा नहीं निकलेंगी। इस तरह जल्दी करने से कुछ नहीं मिलेगा… सस्ती ख्याति का कोई महत्व नहीं होता। हर अगली किताब पिछली वाली से श्रेष्ठतर होनी है और आपको सबसे अलग कुछ देना है। मैं तुमसे आयु और अनुभव में बड़ा हूं। कभी कभी डांटना मेरा अधिकार है। मैं झूठी प्रशंसा करके आपको गुमराह नहीं करना चाहता हूं। आप मेरे आत्मीय हैं।”
पंद्रह दिन बाद, उनका अगला पत्र आया, जिसमें उन्होंने लिखा, “आपकी पुस्तक पर मैंने शायद कुछ ज़्यादा ही तीखा लिख डाला। कृपा करके तुरंत लिखो कि तुमने इस बड़े भाई को क्षमा कर दिया।” ऐसे नेक दिल इंसान थे बड़े भाई रवींद्रनाथ त्यागी जी!
उन्होंने मुझे अनेकों पत्र लिखे, यह मेरा सौभाग्य है। उनके द्वारा लिखे गए दो पत्रों की फोटो इस संस्मरण के साथ पोस्ट कर रहा हूं। इनसे आपको एक अंदाज़ा लग जाएगा। उनके जैसे सुन्दर अक्षर, मानो गढ़े हुए, अब दुर्लभ हो गए हैं। उनके ये पत्र, उस समय के मूल्यवान दस्तावेज़ बन गए हैं। उनके जैसे अनुशासित और कठिन परिश्रम करने वाले व्यक्तित्व अब मानो लुप्त हो गए हैं। उनके जैसा सुगठित लेखन भी अब कहां देखने को मिलता है। वैसा स्नेहिल बड़प्पन अब कहां खोजें? बहुत याद आते हैं श्रद्धेय रवींद्रनाथ त्यागी जी!
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और ज्ञानरंजन “।)
☆ दस्तावेज़ # 8 – तस्वीरें जब बन जाती हैं दस्तावेज़: नामवर, काशीनाथ, रवींद्र त्यागी और ज्ञानरंजन☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
ज्यों ज्यों समय आगे बढ़ता है, कुछ तस्वीरें दस्तावेज़ में तब्दील हो जाती हैं। उन तस्वीरों में उपस्थित कुछ इंसान हमें छोड़कर न जाने कहां चले जाते हैं और कुछ यहीं बैठे उनको याद करते हैं।
इस संस्मरण के साथ, यह कोलॉज जो आप देख रहे हैं, तीन तस्वीरों से बना है। तीनों के पीछे अपनी एक कहानी है।
पहली तस्वीर (ऊपर) रीवा विश्वविद्यालय के ऑडिटोरियम में ली गई है। संभवतः वर्ष 1995 के दौरान। डॉ कमला प्रसाद वहां हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने हिंदी कहानी की दशा और दिशा पर एक भव्य संगोष्ठी आयोजित की थी। इसमें दिल्ली से ख्यातिप्राप्त आलोचक डॉ नामवर सिंह और काशी से प्रतिष्ठित कहानीकार काशीनाथ सिंह विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित थे। मेरा सौभाग्य कि मैं उस कार्यक्रम में सपरिवार उपस्थित था। नामवर जी को विश्वविद्यालय प्रांगण में 8-9 वर्ष के छोटे बालक (हमारे पुत्र अनुराग) को देखकर कौतूहल हुआ। जब हम उनसे मिले तो उन्होंने पूछा, “बालक, तुम भी कुछ लिखते-पढ़ते हो?” हमारे बेटे ने उन्हें तुरंत निराला की कविता, “अबे, सुन बे गुलाब..” सुनाकर अचंभित कर दिया। यह तस्वीर उस अवसर की है।
दूसरी तस्वीर (नीचे, बाएं) देहरादून में रवींद्रनाथ त्यागी के घर में उनके पुस्तकालय में ली गई है। 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध में कभी। हम गर्मियों की छुट्टी में उनसे मिलने लगभग हर दूसरे साल जाते थे। उनका विशेष स्नेह मुझे और मेरे परिवार को प्राप्त था। यदि मैं उनके पास साहित्यिक मार्गदर्शन के लिए कभी अकेला जाता, तो वे मुझे अगली शाम सपरिवार भोजन के लिए आमंत्रित करते। कहते, “जल्दी आ जाना, पहले कुछ देर बातें होंगी और फिर पेटपूजा।”
तीसरी तस्वीर जबलपुर की है। वर्ष 1992। साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’ का आयोजन था। उस कार्यक्रम में, कहानीकार और संपादक ज्ञानरंजन के कर-कमालों से मेरे प्रथम व्यंग्य-संग्रह ‘तिरछी नज़र’ के विमोचन का यह दृश्य है। संयोगवश, ज्ञानरंजन जी ने ही कटनी में ‘पहल’ के एक आयोजन में, मेरी दूसरी पुस्तक ‘अथ दफ्तर कथा’ का विमोचन किया। फिर, प्रगति मैदान में, दिल्ली पुस्तक मेले में मेरी पुस्तक ‘हिन्दी की आख़िरी क़िताब’ का विमोचन जब डॉ शेरजंग गर्ग ने किया, तो वहां भी ज्ञानरंजन जी उपस्थित थे। इसका प्रसारण दूरदर्शन पर भी हुआ।
यह मेरा परम सौभाग्य है कि इन महान साहित्य-सेवियों का आशीर्वाद मुझे प्राप्त हुआ और उनके साथ खींची गई ये तस्वीरें एक यादगार बन गई हैं।
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र.
विशेष –
39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया।
अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆
गौर वर्ण, ऊंची कद काठी वाले जबलपुर के पूर्व विधायक स्व. सवाईमल जी का व्यक्तित्व भी ऊंचा, गरिमापूर्ण और देशभक्ति के जज्बे से परिपूर्ण था। 30 नवम्बर 1912 में संस्कारधानी में श्री पूसमल एवं श्रीमती लक्ष्मी देवी जैन के परिवार में जन्मे सवाईमल जी की कर्मभूमि जबलपुर ही रही। आप बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि के थे । तत्कालीन समय में देश की गुलामी, शासकाें के मनमाने अत्याचारों ने उनके मन को उद्वेलित कर दिया। उनके मन में विरोध की चिंगारी सुलग उठी जिसने शीघ्र ही विद्रोह का रूप धारण कर लिया, उन्हें अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने प्रेरित एवं विवश किया । 1930 के जनआंदोलन में उन्होंने सक्रियता के साथ भाग लिया, फलस्वरूप उन्हें स्कूल की शिक्षा से हाथ धोना पड़ा यद्दपि बाद में उन्होंने बी.कॉम. के साथ कानून की पढ़ाई भी की। देश-प्रेम की अटूट भावना के साथ वे जन आंदोलन में निरंतर भाग लेते रहे । मात्र 18 वर्ष की उम्र में उन्हें एक वर्ष के लिए जेल जाना पड़ा । जेल से बाहर आते ही वे पुनः आजादी प्राप्त करने की गतिविधियों और तरकीबों में जुट गए । 1932 के जन आंदोलन में उन्हें पुनः गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। इस बार उन्हें 6 महीने का कठोर कारावास एवं 20 रु. का जुर्माना भी लगाया गया। श्री सवाईमल जी अत्यंत स्वाभिमानी थे। सश्रम करवास के बाद उन्होंने जुर्माना भरने से इनकार कर दिया । इस कारण उनकी सजा डेढ़ माह के लिए और बढ़ा दी गई । शरीर जहाँ कष्ट में तप रहा था, वहीं संकल्प और मजबूत होता जा रहा था। उनका स्वाभिमान और आत्मविश्वास मानो कह रहा हो –
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना है ज़माने से हम नहीं।
देश प्रेम की ऊर्जा से भरे युवा सवाईमल जी ने1939 के त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया और इसी बीच उनकी सक्रियता ने उन्हें पुनः 6 माह के लिए नागपुर जेल में भेज दिया। जेल से रिहा होते ही पुनः पूरी शिद्दत और जुनून के साथ आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। राष्ट्र को परतंत्रता से मुक्त कराने उन्होंने युवाओं की टोली बनाई। नई-नई तरकीबों के साथ उन्होंने अपनी गतिविधियां जारी रखीं । अच्छे नेतृत्व के साथ वे स्वतंत्रता प्राप्ति की रणनीति बनाकर कार्य करने लगे । 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भूमिगत हो गए किंतु अब तक वे अंग्रेजों की आंखों की किरकिरी बन चुके थे अन्ततः क्रांतिकारी सवाईमल जी को गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार उन्हें 1 साल 10 माह 24 दिन की कठोर यातना के साथ कारागार में दिन बिताने पड़े। उनके संघर्ष की यात्रा चलती रही। उन जैसे वीर सपूतों के प्रयास से देश स्वतंत्र हुआ ।
श्री सवाईमल जी ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 1952 से 1964 तक नगर निगम के विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया । इस बीच वे जबलपुर नगर के दो बार महापौर भी निर्वाचित हुए । 1970 के उपचुनाव में वे जबलपुर पश्चिम क्षेत्र से विधायक चुने गए पुनः 1972 में विधायक बनकर उन्होंने अपने क्षेत्र के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया ।
शहर के सामाजिक, व्यापारिक संस्थाओं में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा । प्रांत के प्रसिद्ध औद्योगिक प्रतिष्ठान परफेक्ट पॉटरी कंपनी के उच्च प्रशासनिक पदों पर कार्य किया एवं वित्तीय सलाहकार भी रहे । शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें विशेष रुझान था । शैक्षणिक संस्थाओं के उन्नयन हेतु भी उन्होंने अनेक कार्य किए । महाकौशल शिक्षा प्रसार समिति जिसके द्वारा प्रथम प्रतिष्ठित चंचलबाई महिला महाविद्यालय संचालित हुआ वे उसके 1977 से 1994 तक निरंतर अध्यक्ष रहे तथा उसे नई ऊंचाईयां दी।
1960 में सोवियत संघ एवं 1976 में भारतीय प्रतिनिधि मंडल के सदस्य के रूप में विदेश यात्रा की । भारत सरकार ने स्वतंत्रता संग्राम में उनके विशेष योगदान हेतु स्वतंत्रता दिवस की 25 वीं वर्षगांठ पर उनको ताम्रपत्र प्रदान कर सम्मानित किया ।
देश के गौरव श्री सवाईमल जैन जी का 82 वर्ष की आयु में 09 जनवरी 1994 को देहांत हो गया। उनके लिए केवल यही कहा जा सकता है कि –
जो शख्स मुल्क में लाता है इंकलाब
उसका चेहरा जमाने से जुदा होता है।
राष्ट्रभक्त, राष्ट्रपुत्र स्व. सवाईमल जैन जी को शत-शत नमन ….
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – आलेख – शब्दों से उभरती ‘हस्ती’ की हस्ती – स्व. हस्तीमल जी ‘हस्ती‘
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना हो कई बार देखना
किसी भी व्यक्ति को जानने, समझने के लिए उससे बार-बार मिलना-जुलना पड़ता है। उसके साथ समय बिताना पड़ता है। निदा फ़ाज़ली का उपरोक्त शेर इसी जीवन दर्शन की पुष्टि करता है।
वस्तुतः मनुष्य का स्वभाव सामान्यतया धीरे-धीरे खुलने का है और तदुपरांत ही उस पर कोई राय बनाई जा सकती है। अलबत्ता किसी साहित्यकार से परिचित होने के लिए आवश्यक नहीं कि उससे मिला ही जाए। कवि, लेखक के शब्दों को बाँचा जाए, भावों को समझा जाए तो उन शब्दों से कलमकार का प्रतिबिम्ब उभरता है। प्रस्तुत आलेख बहुचर्चित ग़ज़लकार हस्तीमल ‘हस्ती’ जी के व्यक्तित्व को उन्हीं के सृजन के माध्यम से समझने का प्रयास है।
जब कभी कविता/ नज़्म / ग़ज़ल की बात चलती है तो वर्तमान स्थितियों में उसकी प्रयोजनीयता पर प्रश्न उठाया जाता है। इस सार्वकालिक प्रश्न का उत्तर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इस कथन में अंतर्निहित है कि ” कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है। चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो, दर्शन न हो पर कविता अवश्य ही होगी। इसका क्या कारण है। बात यह है कि संसार के अनेक कृत्रिम व्यापारों में फँसे रहने से मनुष्य की मनुष्यता के जाते रहने का डर रहता है। अतएव मानुषी प्रकृति को जाग्रत रखने के लिए ईश्वर ने कविता रूपी औषधि बनाई है। कविता यही प्रयत्न करती है कि प्रकृति से मनुष्य की दृष्टि फिरने न पाए।”
कविता की यह दृष्टि विधाता, हर मनुष्य को प्रदान नहीं करता। इसी अद्वितीय दृष्टि का वरदान हस्ती जी को मिला है। दृष्टि कलम में उतरती है और कविता की महत्ता को कुछ यों बयान करती है-
शायरी है सरमाया ख़ुशनसीब लोगों का
बाँस की हर इक टहनी बाँसुरी नहीं होती
कविता ऐसी औषधि है जो हर विषाद के बाद मानसिक विरेचन कर आदमी को शक्ति और उत्साह प्रदान करती है। कविता ऐसा हथियार है जो मनुष्य को नई लड़ाई के लिए खड़ा करता है। कवि का कवित्व, जीव को मनुष्य कर देता है। मनुष्य, ईश्वर से अकाट्य प्रश्न करता है-
जब तूने ही दुनिया का ये दीवान लिखा है
हर आदमी प्यारी सी ग़ज़ल क्यों नहीं होता
कवि की दृष्टि प्रचलित शब्दों को ऊपरी तौर पर ग्रहण नहीं करती बल्कि उनमें गहरे उतरती है। शब्द अपने अर्थ के विस्तार से झंकृत और चमत्कृत हो उठते हैं। स्थूल का सूक्ष्म दर्शन, साधारण-सी बात को अद्भुत कर देता है –
रहा फिर देर तक वो साथ मेरे
भले वो देर तक ठहरा न था
रहने और ठहरने का अंतर अनुभव से समझ में आता है। माना जाता है कि हर मनुष्य का जीवन एक उपन्यास है। भोगे हुए उपन्यास को पढ़कर, बुज़ुर्ग शायर अगली पीढ़ी को पढ़ाना चाहता है। उनकी चाहत, मनुष्य को बेहतर मनुष्य बनाने की है। ‘मैं’ के शिकार आत्ममुग्ध मनुष्य को वे एक शेर के माध्यम से ज़मीन पर उतार देते हैं-
तेरी बीनाई किसी दिन छीन लेगा देखना
देर तक रहना तेरा ये आईनों के दरमियां
दुनियावी आइनों के दरमियां रहने को तजकर मनुष्य जब मन के दर्पण में खुद को निहारने लगता है तो सत्य की राह दिखने लगती है। अलबत्ता सच और आफ़त का चोली-दामन का साथ भी है-
लड़ने की जब से ठान ली सच बात के लिए
सौ आफ़तों का साथ है दिन-रात के लिए
मराठी में कहावत है, ‘कळतं पण वळत नाही’ अर्थात ‘जानता है पर मानता नहीं। सच के वरक्स झूठ के पाँव न होने के त्रिकाल सत्य को हस्ती जी जैसा शायर ही इतनी सरलता से कह सकता है-
झूठ की शाख़ फल-फूल देती नहीं
सोचना चाहिए, सोचता कौन है
आदमी की आँख में इनबिल्ट जन्नत के सपने को शायर झिंझोड़ता है। सपने या अरमान बैठे-बैठे पूरे नहीं होते-
जन्नत का अरमान अगर है मौत से यारी कर जीते जी मिल जाए जन्नत ये कैसे हो सकता है
जन्नत का उदाहरण देनेवाला मूर्धन्य रचनाकार उसके रहस्य भी जानता है। इस रहस्य से वह सरलता और सादगी से पर्दा उठाता है-
जन्नत किसने देखी है
जीवन जन्नत जैसा कर
‘यू गेट लाइक वन्स, लिव इट राइट, वन्स इज इनफ़’ अर्थात जीवन एक बार ही मिलता है। पूर्णता से जिएँ तो एक बार पाया जीवन भी पर्याप्त है। आदमी की सोच उसे संकीर्ण या विस्तृत करती है। आदमी की दृष्टि में ही सृष्टि है। दृष्टि से उपजी सृष्टि की यह ख़ूबसूरत सीख देखिए-
अपने घर के आँगन को मत क़ैद करो दीवारों में दीवारें ज़िंदा रहती हैं लेकिन घर मर जाते हैं
घर को ज़िंदा रखना याने घर के हर घटक को उड़ने का, पंख फैलाने का अवसर देना। पक्षियों के टोले में जो पक्षी उड़ते समय आगे होता है, थक जाने पर वह पीछे आ जाता है। युवा पक्षी अपने डैने फैलाकर नेतृत्व का दायित्व ग्रहण करता है। पंछी हो या मनुष्य, जीवन का चक्र सबके लिए समान रूप से घूमता है। यह चक्र हस्तीमल ‘हस्ती’ की कलम से अपनी अनंत परिधि कुछ यों खींचता है-
कतना, बुनना, रंगना, सिलना, फटना, फिर कतना-बुनना
जीवन का यह चुक्र पुराना पहले भी था, आज भी है
जीवन का आरंभ होता है माँ की कोख से। विधाता को भी पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए माँ की आवश्यकता पड़ती है। हस्ती जी के शब्द दीपक को माँ की उपमा देकर, माँ की भूमिका का ग़ज़ब का चित्र खींचते हैं-
आग पीकर भी रोशनी देना
माँ के जैसा है ये दिया कुछ-कुछ
कहते हैं कि मूर्तिकार को हर पत्थर में एक मूर्ति दिखाई देती है। वह मूर्ति के अतिरिक्त शेष पत्थर को अलग कर अपने काम को अंजाम तक पहुँचाता है। कुछ इसी तरह शब्दकार को हर बीहड़ में रास्ते की संभावना दिखती है-
रास्ता किस जगह नहीं होता
सिर्फ़ हमको पता नहीं होता
यह संभावना आज के विसंगत जीवन में अवसाद के शिकार युवाओं के लिए जीने का स्वर्णद्वार खोलती है। इस द्वार को देखने के लिए दृष्टि चाहिए तो खोलने के लिए कृति।
सूरज की मानिंद सफ़र पे रोज़ निकलना पड़ता है
बैठे-बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना
पौधा शनैः- शनैः वृक्ष बनता है। धूप में पली-बढ़ी पत्तियाँ छाया देने लगती हैं, पर छायादार होने के लिए जड़ें गहरी रखनी पड़ती हैं-
उसका साया घना नहीं होता
जिसकी गहरी जड़ें नहीं होती
जड़ों को हरा रखने, धरती से जोड़े रखने के लिए विद्या के साथ विनय का पाठ पढ़ना भी आवश्यक है। कहा भी गया है ‘विद्या विनयेन शोभते।’ ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का भारतीय दर्शन आत्मसात किये बिना आदमी अधूरा है-
सादगी का सबक नहीं सीखा
मेरी तालीम में कमी है अभी
जड़ों से जुड़ना अर्थात मूल्यों से जुड़ना। मूल्यों से जुड़ना आस्तित्व को सार्थक करता है। मूल्यधर्मिता, जीवन को सुगंधित करती है-
मेरी ख़ुशबू ही मर जाए कहीं
मेरी जड़ से न कर जुदा मुझे
स्थितियाँ प्रतिकूल हों, पानी सिर के ऊपर से जा रहा हो, तब भी आँख का पानी बचाकर रखना चाहिए। अपनी आँख में अपना मान बना रहता है तो आदमी का कद भी टिका रहता है-
मिला दिया है पसीना भले ही मिट्टी में
हम अपनी आँख का पानी बचाके रखते हैं
अपने समय की विसंगतियों से शायर आहत है। धर्म का चेला ओढ़े सफेदपोशों के चंगुल में फँसे साधारण आदमी की स्थिति शब्दों में व्यक्त होती है-
अस्ल में मुज़रिम जो थे घर में खुदा के जा छुपे अब मसीहा रह गए हैं सूलियों के वास्ते
प्रार्थना के नाम पर पूजा पद्धति और तौर- तरीकों में उलझा आदमी कवि की दृष्टि से छूटता नहीं। उसके मन में प्रार्थना की परिभाषा को लेकर उमड़-घुमड़ है। यह उमड़-घुमड़ एक शेर के ज़रिए असीम आकार का प्रश्न खड़ा करती है-
‘हस्ती’ मंदिर मस्ज़िद में हम जो कुछ करके आते हैं
रब की नज़र में हो न इबादत ऐसा भी हो सकता है
संवेदना, मनुष्यता के लिए अनिवार्य तत्व है। इस तत्व के अतीत होने का चित्र सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है-
ग़ैर के दर्द से भी लोग तड़प जाते थे
वो ज़माना ही रहा ना वो ज़माने वाले
संवेदना के अभाव ने भले आदमियों को आउटडेटेड कर दिया है। भलमनसाहत विपन्नता का पर्यायवाची हो चुकी है।
जर्जर झुग्गी, टूटी खटिया, रूठी फसलें, रूठे हाल
भलमनसाहत का इस जग में मिलता है ये फल साईं
देश के लिए शहीद होना हर युग का धर्म है। विडंबना है कि अंतर्राज्यीय संघर्षों, पानी पर विवाद, धर्म और जाति पर दंगे, आतंकियों को बचाने के लिए अपने ही सैनिकों पर पत्थर फेंकते लोगों के चलते अपने ही घर में शहीद होने का क्रूर और वीभत्स चित्र आज का यथार्य है।
सरहद पे जो कटते तो कोई ग़म नहीं होता
है ग़म तो ये सर घर की लड़ाई में कटे थे
कोई कितना ही लिख-पढ़ ले, दुनिया भर की क़िताबें पढ़ ले, आदमी को बाँचने का सूत्र समझ नहीं पाता। आदमी है ही ऐसी जटिल रचना जिसमें कमरे में केवल कमरा ही नहीं तहखाना भी छिपा होता है-
आसानी से पहुँच न पाओगे इंसानी फ़ितरत तक कमरे में कमरा होता है कमरे में तहखाना भी
कोई आदमी यदि दृष्टि रखता है, परिश्रमी है, स्वाभिमानी है, हौसलामंद है, सादगी से जीता है, बाँचता है, गुनता है तो उसे उड़ने से, ऊँचाई तक पहुँचने से कोई त़ाक़त रोक लेगी, यह सोचना भी झूठ है। इस झूठ की पोल हस्तीमल ‘हस्ती’ की सच्ची शायरी इस सादगी से खोलती है कि खुद-ब-खुद ‘वाह’ निकल आती है-
परवाज़ जिसके ख़ूँ में है भरता रहा है वो
पिंजरे में भी उड़ान, अगर झूठ है तो बोल
एक और बानगी देखिए-
धरती का मोह छोड़ दिया जिसने उसका ही
हो पाया आसमान अगर झूठ है तो बोल
इस आलेख के आरंभ में ही कहा गया है कि सर्जक का शब्द उसका प्रतिबिम्ब होता है। सर्जक को जानना है, उसकी अ-लिखी आत्मकथा पढ़नी है तो उसका साहित्य पढ़ा जाना चाहिए। इस आलेख के इस अदना-सा लेखक की एक रचना कहती है- “आपने अब तक/ अपनी आत्मकथा / क्यों नहीं लिखी ?/ संभवतः आपने/ अब तक मेरी रचनाएँ / ग़ौर से नहीं पढ़ीं..!
सत्य के पक्षधर, सादगी के हिमायती, धरती में गहराई तक जड़ें रोपकर छायादार दरख़्त-से व्यक्तित्व के धनी हस्तीमल’ हस्ती’ की हस्ती उनकी विभिन्न ग़ज़लों के शेरों के माध्यम से उभरती है। शब्दों से उभरता शायर का यह अक्स शब्दों के परे भी जाता है। यही कारण है कि, “तुम बुलंदी कहते जिसको मियाँ / ऊबकर हम छोड़ आए हैं उसे” कहने वाले हस्तीमल ‘हस्ती’ सरल शब्दों में गहन सत्य को अभिव्यक्त करने वाले जादूगर शायर के रूप में समय के ललाट पर अमिट अंकित हो जाते हैं।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा
इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “जबलपुर का उपनगर रांझी: 1960 का दशक“।)
☆ दस्तावेज़ # 7 – जबलपुर का उपनगर रांझी: 1960 का दशक ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
जबलपुर का उपनगर रांझी। उन्नीस सौ साठ का दशक। तब लगता था, शहर से बहुत दूर, लगभग बाहर है रांझी। देर रात को स्टेशन से घर आने के लिए दो बार सोचना पड़ता था। सतपुला पार करने के बाद, पूरा रास्ता सूना था।
इंजीनियरिंग कॉलेज से आगे चलकर, रांझी बाज़ार पहुंचते थे। उन दिनों बाज़ार में इतनी रौनक कहां थी! दुकानों को उंगलियों पर गिना जा सकता था – दर्शनसिंह आटा चक्की, ईश्वरसिंह किराना, खन्ना जनरल स्टोर, दोआबा साइकिल स्टोर, नानाभाई मैगज़ीन सेंटर, जनता टेलर, साहनी शूज़, नीलम स्वीट्स, चड्ढा क्लॉथ स्टोर, शायद कुछ और। डॉक्टर तारा सिंह एकमात्र एम.बी.बी.एस डॉक्टर थे। डॉक्टर ओझा बाद में आए।
बाज़ार से अन्दर की ओर जाकर, रांझी बस्ती में हमारा अपना छोटा-सा घर था। अंदर वाले कमरे में ऊपर रेडियो रखा हुआ था। स्टूल पर चढ़कर, चालू करना पड़ता था। सुबह रेडियो सीलोन (अब रेडियो श्रीलंका) से प्रसारित पुरानी फिल्मों के गीत सुनते थे। आखिरी गाना कुंदनलाल सहगल का होता था। गाने के ख़त्म होते ही, ठीक आठ बजे, हम स्कूल के लिए पैदल निकल पड़ते थे। रात में, रेडियो पर बीबीसी से प्रसारित समाचार, पिताजी नियमित रूप से सुनते थे। वो मकान अब मेरे स्कूल के एक सहपाठी चंद्रा बाबू का घर है। बहुत मन है, कभी वहां जाने का! उसके अंदर समूचे बचपन, माता-पिता और भाई-बहनों की यादें समाई हुई हैं। पुरानी स्मृतियां कई बार मन को आनंद विभोर कर जाती हैं।
हमारा घर सड़क की पिछली ओर था, सामने की ओर खोखोन (संतोष मुखर्जी) का घर था। दोनों की छत जुड़ी हुई थी, बीच में एक छोटी-सी दीवार थी। जब भी कोई इंटरनेशनल क्रिकेट मैच चल रहा होता तो हम मैच में लंच या चायकाल के दौरान छत पर पहुंच जाते। बीच की दीवार पर बैठकर चर्चा शुरू हो जाती। तब कमेंट्री रेडियो पर आती थी, टीवी पर नहीं। हम खेल की आपस में समीक्षा करते और एक-एक कर अपने प्रिय खिलाड़ियों पर चर्चा करते – सोबर्स, हॉल, ग्रिफिथ, कॉलिन काऊड्री, लिल्ली, थाम्पसन, पटौदी, इंजीनियर, सरदेसाई, वीनू मांकड… इत्यादि। मैच पुनः शुरू होते ही नीचे जाकर रेडियो पर कमेंट्री सुनने लगते।
बाजू में सरदार निरंजन सिंह का घर था। उन्हें हम भी पापाजी कहते थे। उस घर में दो बेबे (मां) थीं, बड़ी बेबे और छोटी बेबे। उनके अनेक पुत्र-पुत्रियां – मिंदी, सिंदर, हरमेल, सारदुल, पूछी, नीमा, केशी और बब्बी। उन्होंने दो भैंसें पाली थीं। सुबह से ही बड़ी बेबे उनके लिए खली-चूनी तैयार कर, दूध दोहती थीं। उसके बाद ही हमारे घर चाय बनती थी। छोटी बेबे दिनभर बुनाई का काम करती रहती। सर्दियों में, जब उनके घर मक्की की रोटी और सरसों का साग बन रहा होता, तो वो मुझे आवाज़ लगाकर बोलतीं, “ओए, चार अँक्खां वाले, साग बन रया है, शामी आ जाइं।” मेरे चश्मे की वजह से वो मुझे “चार अँक्खां वाले” कहती थीं। दोनों घर के बीच हमारा सांझा कुआं था।
घर से कुछ दूर, देशी शराब की एक कलारी थी। अगर कोई शराबी ज़्यादा पीकर उत्पात करता, तो पापाजी उसे रस्सी से, बिजली के खंभे के साथ बांध देते थे। उनके पास एक कड़क हंटर (कोड़ा) हुआ करता था। उस हंटर से वे शराबी की पिटाई करते थे। हर महीने, ऑर्डनेंस फैक्टरी के लेबर पेमेंट वाले दिन, यह दृश्य देखने को मिलता था। पापाजी का बहुत दबदबा था। लंबे-चौड़े, भरे-पूरे सरदार थे। उनके नाप के जूते और चौड़ी कलाई के लिए नाप का घड़ी का पट्टा नहीं मिलता था। पापाजी एक कुशल एवं उत्कृष्ट राजमिस्त्री थे। भवन निर्माण का काम उत्तम ढंग से करते थे।
हमारे सामने वाला विशालकाय मकान नैनजी का था। उसमें अनेकों किरायेदार रहते थे। हफ्ते में, एक-दो बार वो खुले मे तंदूर लगाती थीं। आस-पड़ोस के सभी घर के लोग अपना आटा लेकर पहुंच जाते थे। नैनजी सबको धैर्यपूर्वक, बारी-बारी से, तंदूरी रोटी सेंककर देती थीं, चाहे सर्दी का मौसम हो या गर्मी की तेज धूप।
हम तब नन्हे-मुन्ने बच्चे थे। गुल्ली-डंडा, चीटीधप्प, पिट्टुक, मार-गेंद और लंगड़ी हमारे प्रिय खेल थे। बरसातों में, हम पतंग उड़ाते और गपन्नी से खेलते थे। गपन्नी लोहे की लगभग डेढ़ फीट की छड़ होती थी, जिसके आगे नोक होती थी। उसे पटक कर, ज़मीन में मारकर, गड़ाते हुए, आगे बढ़ना होता था। अगर गपन्नी की नोक नहीं गपी और गपन्नी गिर गई, तो आपकी पारी खतम। पतंग उड़ाने का मांझा भी हम खुद तैयार करते थे। थोड़े बड़े हुए तो फुटबॉल, वॉलीबॉल और क्रिकेट खेलने लगे। दौड़, लॉन्ग जंप, हाई जंप और शॉटपुट थ्रो में भी भाग लेते थे। गर्मी की छुट्टियों में शतरंज, सांप-सीढ़ी, लूडो, गुट्टे और कैरम भी हम खूब खेलते थे।
कभी मम्मी ने आना-दो आना दे दिया तो बेर, खट्टा-मीठा चूरण, चना, मूंगफली या चूसने वाली संतरा गोली ले लेते। दिवाली पर हमें पटाखे मिलते और होली पर रंग। दिवाली की अगली सुबह पड़ोसियों को थाली में, रुमाल से ढंक कर, मिठाई और खिल-बताशे देने जाते। आजकल अब वो रिवाज कम हो गया है।
घर के नज़दीक राधाकृष्ण मंदिर था। अंदर राधा और कृष्ण की मनोरम मूर्तियां थीं। शाम के समय हम वहां दर्शन के लिए जाते थे। मंदिर के पुजारी, नित्यानंद जी, अत्यंत मधुर कंठ से, आकर्षक अंदाज़ में आरती करते थे। तत्पश्चात, तांबे के पात्र से चरणामृत और प्रसाद स्वरूप चिरौंजी दाना देते थे। उनके सभी पुत्र हमारे मित्र हो गए। आगे चलकर, उनका छोटा बेटा गोपाल हमारी क्रिकेट टीम का स्टार स्पिनर बना।
हमारे बहुत सारे दोस्त सिक्ख थे। उनके साथ हम यदाकदा गुरुद्वारे जाते थे। शबद-कीर्तन सुनते और कडाह परसाद ग्रहण करते। गुरुपरब पर लंगर के लिए भी जाते थे। स्कूल के पास सेंट थॉमस चर्च था। वहां के पादरी, हॉलैंड से आए फादर बॉक्स थे। बच्चे आते-जाते उन्हें “गुड मॉर्निंग फादर”, “गुड इवनिंग फादर” बोलते। उनके चोंगे की जेब में टॉफी होती थी। जब वो खुश होते थे तो बच्चों को टॉफी बांटते थे।
दशहरे के कुछ दिन पहले, रामलीला शुरू हो जाती थी। हम शाम को ही जाकर अपनी बोरी बिछा आते थे। इस तरह, आगे, मंच के पास हमारी सीट रिज़र्व हो जाती थी। रात को, खाना खाने के बाद, हम रामलीला देखने पहुंचते थे। रामलीला देर रात तक चलती थी। फिर, दशहरे पर रावण दहन का कार्यक्रम देखने जाते थे।
उन दिनों, पूरे जबलपुर में, दुर्गा पूजा बहुत धूमधाम से होती थी। बड़े-बड़े पंडाल लगते और दुर्गा मां की भव्य मूर्तियां स्थापित होतीं। शाम को विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते, जिनमें हमारी विशेष रुचि नायिकर की कॉमेडी और मिमिक्री में होती। हम लोग, पूरे शहर में घूमकर, दुर्गापूजा देखने जाते। इसी तरह, गणेश चतुर्थी का पर्व भी मनाया जाता।
हम शहर से काफी दूर थे। फिर भी, फिल्में देखने, साइकिल चलाकर, जाते थे। दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद हमारे प्रिय कलाकार थे। उन्हीं दिनों, कुछ मित्रों की साहित्यिक रुचि भी विकसित हो रही थी और वे उपलब्ध, उत्कृष्ट लेखकों को पढ़ रहे थे, जिनमें प्रमुख थे इब्ने सफी, वेद प्रकाश कंबोज, ओम प्रकाश शर्मा, गुलशन नंदा, प्रेम वाजपेई और मस्तराम कपूर।
हम कुएं के मेंढक थे। लगता था, पढ़ाई के उपरांत ऑर्डनेंस फैक्टरी या शहर के किसी रक्षा संस्थान में सुपरवाइजर की नौकरी मिल जाए, तो जीवन सफल हो जाए। साइकिल और रेडियो ही स्टेटस सिंबल थे। एक साइकिल परिवार में दादा से लेकर पोते तक काम आती थी। कभी-कभी अनेकों पीढ़ी तक वही साइकिल चलती थी। घरों में सोफा सेट और डाइनिंग टेबल नहीं होते थे। जब भी मन किया, किसी मित्र या रिश्तेदार के घर पहुंच जाते थे। पूर्व सूचना की कोई जरूरत नहीं होती थी।
उस दौरान जो मित्र बने, अब तक उनसे दोस्ती बरकरार है। पढ़ाई में की गई तपस्या, स्कूल और कॉलेज में प्राप्त मार्गदर्शन, और ईश्वर की असीम अनुकम्पा से ज़्यादातर सहपाठी, प्रतिष्ठित संस्थानों से उच्च पद पर सेवानिवृत हुए हैं और एक सुकून भरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। फिर भी, जब कभी उन दिनों को याद करते हैं तो वो सुनहरा समय बहुत याद आता है। तब हमारे पास कुछ नहीं था लेकिन हमारे भीतर असीम संभावनाएं छिपी हुई थीं। हम भविष्य के प्रति आशावान थे, किसी तरह की शंका या भय हमारे मन में नहीं था, और हम आस्थावान थे।
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डेविड मैनुअल (David Manuel)…“।)
अभी अभी # 573 ⇒ डेविड मैनुअल (David Manuel) श्री प्रदीप शर्मा
बैंकिंग की दुनिया में मेरा वास्ता केवल मैन्युअल ऑफ इंस्ट्रक्शंस से ही पड़ा था, जो हमारे लिए गीता, बाइबल, कुरआन ही नहीं, बैंकिंग उद्योग का एक तरह से संविधान ही था। बस हमने बैंक ज्वॉइन करने के पहले सिर्फ इस संविधान की शपथ ही नहीं ली थी, लेकिन हम पूरी तरह से इसके लकीर के फकीर थे।
हमारी शाखा में एक जीता जागता मैनुएल और था, जिसका नाम डेविड मैनुअल था। एक हड्डी का, जवानी में बुजुर्गियत ओढ़े यह शख्स सिर्फ अंग्रेजी बोलना ही जानता था। मेन्यूअल ऑफ इंस्ट्रक्शंस और मिस्टर डेविड मैनुएल की अंग्रेजी एक जैसी थी, जिसे समझना हिंदीभाषी कर्मचारियों के लिए टेढ़ी खीर था।।
फिर भी जिस तरह हम हिंदी भाषी, टूटी फूटी अंग्रेजी से काम चला लेते हैं, मिस्टर डेविड भी टूटी फूटी हिंदी से काम चला ही लेते थे। यह तब की बात है, जब दफ्तरों में पान और धूम्रपान वर्जित नहीं था। मिस्टर डेविड भी एक चैन स्मोकर थे, और जरूरत पड़ने पर किसी डेली वेजेस के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी से टूटी फूटी हिंदी में पुचकारते हुए, दो रुपए का नोट थमाकर, बाहर पान वाले से, दो विल्स और एक पान लाने का आग्रह करते थे। वह जब आदेश का पालन कर, बाकी पैसे लौटाने लगता, तो दरियादिली से कहते, कीप द चेंज। काम की अंग्रेजी हर भारतीय को आती है, वह खुश हो जाता।
अफसर हो अथवा क्लर्क, मिस्टर डेविड की धाराप्रवाह अंग्रेजी के बोझ से हमेशा दबे रहते, और फिर भी अपना रौब झाड़ने के लिए पूरा जोर लगाकर उन्हें अंग्रेजी में डांटने का प्रयास करते, जिसे मिस्टर डेविड अंग्रेजी में कोई घटिया सा जोक सुनाकर निष्प्रभावी कर देते। जोक हंसने के लिए होता है, इसलिए समझने वाले और नहीं समझने वाले दोनों, जोक पर हंस देते।।
मिस्टर डेविड मैनुएल कॉन्वेंट रिटर्न थे इसलिए उनका उच्चारण आम हिंदी भाषियों से अलग और परिष्कृत था। फिर भी वे हिन्दी प्रेमी थे, और एक आम नागरिक की तरह हिंदी और अंग्रेजी दोनों गालियों का बराबर प्रयोग करते थे। पूरे अंग्रेजी वाक्य में केवल हिंदी गालियों को इतना सम्मान देना, आसान नहीं। थ्री चीयर्स टू मिस्टर डेविड।
चीयर्स से याद आया, एक बरसात की शाम मिस्टर डेविड मुझसे बाजार में टकरा गए, और मुझे चाय का न्यौता दे बैठे। मुझे एक चाय की गंदी सी दुकान पर बैठाकर वे अचानक उठकर बाहर चले गए, और जब बाहर आए, तो उनके हाथ में एक बीयर की बोतल थी। मैं नहीं जानता था, उनकी चाय की परिभाषा। जब उन्होंने दो ग्लास और कुछ ठंडे भजिए बुलवाए, तो मैंने उनकी चाय पीने से मना कर दिया। उसी समय, मैं उनकी निगाह से गिर गया।।
इतना ही नहीं, पास की टेबल पर एक सज्जन को उल्टी हो गई, जिसे देख हमारे मित्र भी हड़बड़ा गए और उनकी बीयर की बोतल धक्का लगने से जमीन पर गिर, चकनाचूर हो गई। मुझे अफसोस हुआ कि मैने उनका मजा किरकिरा कर दिया। मैने आग्रह किया, मैं दूसरी बोतल ले आता हूं, लेकिन वे नहीं माने, और कसम खा ली कि कभी आगे से आपके साथ “चाय” नहीं पीऊंगा।
कल ही मिस्टर डेविड मैनुएल का जन्मदिन था, मैने विश किया, तो अनायास ही ४० वर्ष पुरानी दर्दनाक दास्तान याद आ गई। उम्र का असर उनकी अंग्रेजी पर भी पड़ गया है, अब वे केवल हिंदी में बात करते है हैं। बस इतना ही बोले, जिंदा हूं। आप कैसे हो शर्मा जी।।