श्री आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन।)
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “महीयसी महादेवी की अद्भुत होली“।)
☆ दस्तावेज़ # 21 – महीयसी महादेवी वर्मा की अद्भुत होली ☆ श्री आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆
हिंदी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखनेवाली बुआ श्री (महीयसी महादेवी वर्मा) से जुड़े संस्मरण की शृंखला में इस बार होली चर्चा। बुआ श्री ने बताया कि रंग पर्व पर भंग की तरंग में मस्ती करने में साहित्यकार भी पीछे नहीं रहते थे किंतु मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया जाता था। हिन्दू पंचांग के अनुसार होली बुआ श्री का जन्म दिवस भी है। प्रयाग राज (तब इलाहाबाद) में अशोक नगर स्थित बंगले में साहित्यकारों का जमघट दो उद्देश्यों की पूर्ति हेतु होता था। पहला महादेवी जी को जन्म दिवस की बधाई देना और दूसरा उनके स्नेह पूर्ण आतिथ्य के साथ साहित्यकारों की फागुनी रचनाओं का रसास्वादन कर धन्य होना। बुआ श्री होली की रात्रि अपने आँगन में होलिका दहन करती थीं। उसके कुछ दिन पूर्व से बुआश्री के साथ उनके मानस पुत्र डॉ. रामजी पांडेय का पूरा परिवार होली के लिए गुझिया, पपड़िया, सेव, मठरी आदि तैयार करा लेता था। एक एक पकवान इतनी मात्रा में बनता कि पीपों (कनस्तरों) और टोकनों में रखा जाता। होली का विशेष पकवान गुझिया (कसार की, खोवे की, मेवा की, नारियल चूर्ण की, चाशनी में पगी), सेव (नमकीन, तीखे, मोठे गुण की चाशनी में पगे), पपड़ी (बेसन की, माइडे की, मोयन वाली), खुरमे व मठरी, दही बड़ा, ठंडाई आदि आदि बड़ी मात्रा में तैयार करे जाते कि कम न हों।
होली खेलत रघुवीरा
सवेरा होते ही शहर के ही नहीं, अन्य शहरों से भी साहित्यकार आते जाते, राई-नोन से उनकी नजर उतरी जाती, बुआ श्री स्वयं उन्हें गुलाल का टीका लगाकार आशीष देतीं। आगंतुक साहित्यिक महारथियों में आकर्षण का केंद्र होते महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, फिराक गोरखपुरी, सुमित्रानंदन पंत, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, उमाकांत मालवीय, रघुवंश,अमृत राय, सुधा चौहान, कैलाश गौतम, एहतराम इस्लाम आदि आदि। साहित्यकारों पर किंशुक कुसुम (टेसू के फूल) उबालकर बनाया गया कुसुंबी रंग डाला जाता था। यह रंग भी बुआ श्री की देख-रेख में घर पर हो तैयार किया जाता था। क्लाइव रोड से बच्चन जी की अगुआई में एक टोली ‘होली खेलत रघुवीरा, बिरज में होली खेलत रघुवीरा आदि होली के लोक गीत गाते, झूमते मस्ताते हुए पहुँचती। बच्चन जी स्वयं बढ़िया ढोलक बजाते थे।
‘बस करो भइया…’
महाप्राण निराला बुआ श्री को अपनी छोटी बहिन मानते थे, फिर होली पर बहिन से न मिलें यह तो हो ही नहीं सकता था। उनके व्यक्तित्व की दबंगई के कारण अनकहा अनुशासन बना रहता था। निराला विजय भवानी (भाँग) का सेवन भी करते थे। एक वर्ष अरगंज स्थित निराला जी के घर कुछ साहित्यकार भाँग लेकर पहुच गए, निराला जी को ठंडाई में मिलाकर जमकर भाँग पिला दी गई। भाँग के नशे में व्यक्ति जो करता है करता ही चला जाता है। यह टोली जब पहुंची तो गुजिया बाँटी-खाई जा रही थीं। निराला जी ने गुझिया खाना आरभ किया तो बंद ही न करें, किसका साहस की उन्हें टोंककर अपनी मुसीबत बुलाए। बुआ जी अन्य अतिथियों का स्वागत कर रही थी, किसी ने यह स्थिति बताई तो वे निराला जी के निकट पहुँचकर बोलीं- ”भैया! अब बस भी करो।और लोग भी हैं, उन्हें भी देना है, गुझिया कम पड़ जाएंगी।” निराला जी ने झूमते हुआ कहा- ‘तो क्या हुआ? भले ही कम हो जाए मैं तो जी भर खाऊँगा, तुम और बनवा लो।” उपस्थित जनों के ठहाकों के बीच फिर गुझिया खत्म होने के पहले ही फिर से बनाने का अनुष्ठान आरंभ कर दिया गया।
राम की शक्ति पूजा
एक वर्ष होली पर्व पर बुआ श्री के निवास पर पधारे साहित्यकारों ने निराला जी से उनकी प्रसिद्ध रचना ”राम की शक्ति पूजा” सुनाने का आग्रह किया। निराला जी ने मना कर दिया। आग्रहकर्ता ने बुआ श्री की शरण गही। बुआ श्री ने खुद निराला जी से कहा- ”भैया! मुझे शक्ति पूजा सुन दो।” निराला जी ने ”अच्छा, इन लोगों ने तुम्हें वकील बना लिया, तब तो सुनानी ही पड़ेगी। उन्होंने अपने ओजस्वी स्वर में समा बाँध दिया। सभी श्रोता सुनकर मंत्रमुग्ध हो गए।
खादी की साड़ी
महादेवी जी सादगी-शालीनता की प्रतिमूर्ति, निराला जी के शब्दों में ‘हिंदी के विशाल मंदिर की वीणापाणी’ थीं।वे खादी की बसंती अथवा मैरून बार्डर वाली साड़ी पहनती थीं। प्रेमचंद जी के पुत्र अमृत राय उन्हें प्रतिवर्ष जन्मदिन के उपहार स्वरूप खादी की साड़ी भेंट करते थे। उल्लेखनीय है की अमृत राय का विवाह महादेवी जी की अभिन्न सखी सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्री सुधा चौहान के साथ बुआ श्री की पहल पर ही हुआ था।
बिटिया काहे ब्याहते
बुआ श्री अपने पुत्रवत डॉ. रामजी पाण्डेय के परिवार को अपने साथ ही रखती थीं। उनके निकटस्थ लोगों में प्रसिद्ध पत्रकार उमाकांत मालवीय भी रहे। रामजी भाई की पुत्री के विवाह हेतु स्वयं महादेवी जी ने पहल की तथा यश मालवीय जी को जामाता चुना। विवाह का निमात्रण पत्र भी बुआ श्री ने खुद ही लिखा था। वर्ष १९८६ में यश जी होली की सुबह अमृत राय जी के घर पहुँच गए, वहाँ भाग मिली ठंडाई पीने के बाद सब महादेवी जी के घर पहुँचे। जमकर होली खेल चुके यश जी का चेहरा लाल-पीले-नीले रंगों से लिपा-पूत था, उस पर भाग का सुरूर, हँसी-मजाक होते होते यश जी ने हँसना शुरू किया तो रुकने का नाम ही न लें, ठेठ ग्रामीण ठहाके। बुआ श्री ने स्वयं भी हँसते हुई चुटकी ली ” पहले जाना होता ये रूप-रंग है तो अपनी बिटिया काहे ब्याहते?”
बुआ श्री ने हमेश अपना जन्मोत्सव अंतरंग आत्मीय सरस्वती पुत्रों के के साथ ही मनाया। वे कभी किसी दिखावे के मोह में नहीं पड़ीं। होली का रंग पर्व किस तरह मनाया जाना चाहिए यह बुआ श्री के निवास पर हुए होली आयोजनों से सीखा जा सकता है।
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© आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,
चलभाष: ९४२५१८३२४४ ईमेल: [email protected]
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈