हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ परदेश – भाग -9 – परदेश में स्वदेश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है नवीन आलेख की शृंखला – “ परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ परदेश – भाग – 9 – परदेश में स्वदेश  ☆ श्री राकेश कुमार ☆

खरीदारी अब आवश्यकता के स्थान पर आनंद (मज़ा) प्राप्त करने का साधन होती जा रही हैं। यात्रा के वातानुकूलित साधन, सजे हुए बाज़ार, जेब में रखे हुएं नाना प्रकार के उधार कार्ड, शायद ये ही वर्तमान है।

हम को बचपन से ही एक बात बताई गई थी कि “जितनी चादर हो उतने पैर पसारने चाहिए” शायद अब ये शिक्षा समय के साथ दफ़न हो चुकी है।

घर के उपयोग की स्वदेशी वस्तुएं किराना इत्यादि का सामान परदेश में भी उपलब्ध करवाने  के लिए पचास वर्ष पूर्व अमेरिका में पटेल परिवारों ने गुजरात से आकर यहां के विभिन्न शहरों में अपनी दुकानें स्थापित कर दी हैं। स्वदेशी समान में भारत निर्मित बिस्कुट (पारले-जी, गुड डे) नमकीन, क्या कुछ नहीं विक्रय करते हैं, पटेल की दुकानों पर, सब्जी, मसाले, पूजा सामग्री इत्यादि की उपलब्धता देश के स्वाद और जीवन शैली को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहीं हैं।

वहां गर्म समोसे “पंजाबी समोसे” के नाम से उपलब्ध थे। हमे मुम्बई की याद आ गई, वहां भी बड़े आकार के समोसे को पंजाबी समोसे के नाम से विक्रय किया जाता है। उत्तर और मध्य भारत में भी सिर्फ समोसा नाम ही चलता हैं। पूर्वी भाग में अवश्य सिंघाड़े के नाम से सेवन किया जाता हैं। यहां पर गुड और अदरक के बेकरी में निर्मित बिस्कुट भी मिल रहे थे। देश में भी दूरबीन से ढूंढने से भी नहीं मिलते हैं। हजारों मील दूर पूरे देश की विभिन्न वस्तुएं उपलब्ध करवाने के लिए पटेल बंधुओं की लगन और मेहनत को सलाम।

इन के अलावा भी “इंडियन स्पाइस स्टोर” के नाम से अधिकतर दक्षिण भारतीय भी  देश की परंपराएं और स्वाद को बरकरार रखने में सहयोग कर रहे हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – मेरे शिक्षक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

आज की साधना

श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी तदनुसार बुधवार 31अगस्त से आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार शुक्रवार 9 सितम्बर तक चलेगी।

इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः

साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें। उसी अनुसार अथर्वशीर्ष पाठ/ श्रवण का अपडेट करें।

अथर्वशीर्ष का पाठ टेक्स्ट एवं ऑडियो दोनों स्वरूपों में इंटरनेट पर उपलब्ध है।

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – संस्मरण – मेरे शिक्षक  ??

स्मृतियों का चक्र चल रहा है, याद आ रहा है 1980 और खडकी, पुणे स्थित मिलिटरी फॉर्म हाईस्कूल। मैं दसवीं में था। विद्यालय में दसवीं का यह पहला बैच था।

इस विद्यालय ने जीवन को ठोस आकार दिया। प्रधानाध्यापक के रूप में श्रद्धेय सत्यप्रकाश गुप्ता सर मिले जिनकी पितृवत छाया हमेशा सिर पर रही। कक्षाध्यापिका के रूप में सौ. हरीश भसीन मैडम मिलीं जो ऊपरी तौर पर सख़्त रहतीं पर भीतर से मोम थीं। इतिहास शिक्षिका के रूप में सौ. अमरजीत वालिया मैडम मिलीं जिन्होंने विद्यालय में अधिकांश समय मेरे लिए माँ की भूमिका निभाईं। सौ. आरती जावड़ेकर मैडम ने भीतर के कलाकार को विस्तार दिया। इन सबसे जुड़ी घटनाओं का भविष्य में किसी स्मृति लेख में उल्लेख होगा, आज की घटना के केंद्र में हैं देशमाने सर।

देशमाने सर, पंवार सर, गाडगील सर, उस्मानी सर का विद्यालय में चयन हमारे नौवीं उत्तीर्ण होने के बाद हुआ था। ज़ाहिर था कि दसवीं में अनेक शिक्षक हमारे लिए नये थे। इन नए शिक्षकों में देशमाने सर सर्वाधिक अनुभवी और वरिष्ठ थे।

देशमाने सर अँग्रेज़ी पढ़ाते थे। अध्यापन उनकी रगों में कूट-कूटकर भरा था। अनुभव ऐसा कि बिना पुस्तक खोले ‘पेज नं फलां, लाइन नं फलां, बोर्ड की परीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है’, बता देते। वे हरफनमौला थे। ‘खेल-खेल में अध्यापन’ के जिस मॉडल के मूलभूत तत्वों पर हम आज सेमिनार करते हैं, वे आज से चार दशक पूर्व उसे जीते थे। अपने कुछ निजी कारणों से वांछित तरक्की नहीं कर पाए। इसे भूलाकर सदा कहते, ‘कोई माने न माने, हमें तो देश मानता है।’

अलबत्ता देश के स्तर पर अपनी पहचान स्थापित करने की चाह रखने वाले देशमाने सर ने एक घटनाक्रम में मुझ विद्यार्थी के स्वतंत्र अस्तित्व को ही मानने से इंकार कर दिया था।

हुआ कुछ ऐसा कि शिक्षक दिवस निकट था। मैं दसवीं और नौवीं के छात्रों को साथ लेकर एक सांस्कृतिक आयोजन करवा रहा था। संभवतः सर ने पहले के विद्यालयों में वर्षों सांस्कृतिक विभाग का काम देखा हो। फलतः मन ही मन मुझसे कुछ रुष्ट हो गये हों। सही कारण तो मैं आज तक नहीं जानता पर आयोजन से एकाध दिन पहले वे धड़धड़ाते हुए रिहर्सल वाले क्लासरूम में आए और मेरी क्लास लेने लगे। बकौल उनके मुझे उनसे आयोजन के लिए मार्गदर्शन लेना चाहिए था। आयोजन चूँकि शिक्षक दिवस का था, शिक्षकों के लिए था, हम विद्यार्थी उसे ‘सरप्राइज’ रखना चाहते थे। हम लोग किशोर अवस्था में थे। सर के अप्रत्याशित आक्रमण ने स्वाभिमान को गहरी ठेस पहुँचाई। हमने बड़े परिश्रम से कार्यक्रम तैयार किया था। जुगाड़ लगाकर आवश्यक वेशभूषा की व्यवस्था भी की थी। मैंने इस क्लेशदायी घटना का विरोध जताने के लिए स्कूल यूनिफॉर्म में ही कार्यक्रम करने का मन बनाया। छात्र समूह अंगद के पाँव की तरह मेरे साथ खड़ा था।

शिक्षक दिवस का कार्यक्रम प्रभावी और बेहद सफल रहा। बहुत प्रशंसा मिली। कार्यक्रम के बाद मैदान से हम अपनी-अपनी कक्षाओं में लौट रहे थे। मैं प्रसन्न तो था पर दुख भी था कि वेशभूषा के साथ किया होता तो प्रभाव और बेहतर होता।

अपने विचारों में मग्न चला जा रहा था कि एक स्वर ने रोक दिया। यह देशमाने सर का स्वर था। मुझे ठहरने का इशारा कर वे गति से मेरी ओर आ रहे थे। अपरिपक्व आयु ने सोचा कि कृति से तो उत्तर दे दिया पर अब इन्होंने कुछ कहा तो शाब्दिक प्रत्युत्तर भी दिया जाएगा। देशमाने सर निकट आए, हाथ मिलाया, बोले, ”तूने मुझे ग़लत साबित कर दिया। मैं तेरी प्रतिभा से आश्चर्यचकित हूँ। ” मैं सन्न रह गया। समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ? कुछ रुक कर गंभीर स्वर में बोले, ”लेकिन संजय बेटा!मेरी एक बात याद रखना।….जीवन में तू जिनके साथ चलेगा, वे थोड़े दिनों में तेरे दुश्मन हो जायेंगे।….तेरे चलने की गति बहुत तेज़ है। साथ के लोग पीछे छूटते जाएँगे। जो पीछे छूटेंगे, वे दुश्मन हो जायेंगे।”

तब सर का वाक्य समझ में नहीं आया था। आज बयालीस वर्ष बाद पीछे पलट कर देखता हूँ, विनम्रता से विश्लेषण करता हूँ तो सर का कथन ब्रह्मवाक्य-सा साकार खड़ा दिखता है। अब तक की यात्रा ने काम करते रहने की संतुष्टि दी, मित्र दिए, साथी दिए। बहुत कुछ मिला पर सब कुछ की कीमत पर।

सर, मैंने आपको ग़लत साबित करने की फिर से भरसक कोशिश की। अर्जुन ने योगेश्वर से पूछा था कि यदि मेरे अपने ही साथ नहीं तो यात्रा किसलिए? मैं किस गति से चला, पता नहीं पर साथियों को साथ लेकर चलने का प्रयास किया। तब भी कुछ ने अलग-अलग पड़ाव पर अपनी राह अलग कर ली।

कालांतर में 4 अगस्त 2017 को इसी टीस ने एक कविता को भी जन्म दिया-

सारे मुझसे रुष्ट हैं
जो कभी साथ थे,
आरोप है-
मैं तेज़ चला और
आगे निकल गया,
तथ्य बताते हैं-
मेरी गति सामान्य रही
वे धीमे पड़ते गये
और पिछड़ गये!

वेदना है पर नश्वर जगत में किंचित भी नित्य हो पाए तो यह चोला सफल है। अपनी सहज गति से यथासंभव चलते रहना ही नीति और नियति दोनों को वांछित है।

बाद में इस कदमताल को पहली बार आकाशवाणी तक पहुँचाने में देशमाने सर ही मार्गदर्शक सिद्ध हुए।

देशमाने सर, देश माने न माने, मैं आपको मानता हूँ!

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ शिक्षक दिवस विशेष – पिता की अभिलाषा – अब्राहम लिंकन ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है अविस्मरणीय संस्मरण  ‘शिक्षक दिवस विशेष – पिता की अभिलाषा – अब्राहम लिंकन । हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन (1861-65)

☆ संस्मरण ☆ शिक्षक दिवस विशेष – पिता की अभिलाषा – अब्राहम लिंकन ☆  श्री अजीत सिंह ☆

एक पिता जब अपने पुत्र को स्कूल में दाखिल करने जाता है तो वह कामना करता है कि अध्यापक सभी श्रेष्ठ गुण उसके पुत्र में डाल दे।

अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने इसी भावना को लेकर अपने पुत्र के अध्यापक को एक पत्र लिखा जो प्राय: हर पिता की कामना को बड़े ही प्रभावी ढंग से उल्लेखित करता है। अध्यापक दिवस पर इस पत्र का हर बार जिक्र होता है। पत्र अंग्रेज़ी भाषा में है। प्रस्तुत है इसका हिंदी  अनुवाद ।

माननीय अध्यापक जी,

आज मेरा बेटा स्कूल में पढ़ने जा रहा है, इसे प्यार से वह सब पढ़ाइए, जो इसे पढ़ना चाहिए।

जीवन संघर्ष में इसे सात समुंदर पार भी जाना पड़ सकता है, हो सकता है उसे युद्ध, विपदाओं और संकटों का सामना भी करना पड़े,  इस के लिए उसे आत्मविश्वास, हौसले और प्यार की जरूरत होगी, अत: हे अध्यापक महोदय, कृपया उसका हाथ थामिए और सहज भाव से उसे वे सब गुण सिखाइए जो उसे सीखने चाहिएं।

उसे यह भी बताना कि जहां दुश्मन होते हैं, वहां दोस्त भी होते हैं। उसे यह भी पता होना चाहिए कि सभी आदमी सही नहीं होते, सभी आदमी सच्चे भी नहीं होते। पर जहां एक दुष्ट मानव होता है, वहां एक श्रेष्ठ नायक भी होता है। एक बेईमान राजनीतिज्ञ  होता है तो एक निष्ठावान नेता भी होता है।

अध्यापक महोदय, मेरे बेटे को यह भी शिक्षा देना कि अपनी कमाई के दस पैसे, कहीं से मुफ्त में मिले एक रूपये से कहीं बेहतर होते हैं। उसे यह भी बताना कि- परीक्षा में नकल करने की बजाए फेल हो जाना, कहीं अधिक सम्मानजनक होता है। यह भी समझाना कि हार को किस तरह सम्मानपूर्वक स्वीकार करना है, और जीत का आनंद कैसे उठाना है। उसे समझाना कि आम लोगों के साथ नरमी से पेश आए, पर टेढ़े लोगों के साथ सख्ती से पेश आए।

अध्यापक महोदय, मेरे बेटे को ईर्ष्या से दूर रहना सिखाना, उसे मंद मुस्कान का रहस्य भी समझाना। उसे सिखाना उदासी के समय मुस्कुराना, आंख में आंसू आने पर नहीं शर्माना, यह भी आप उसे बतलाना। उसे बताना कि असफलता में भी गरिमा हो सकती है, और सफलता में दुख भी जुड़ा हो सकता है। मेरे बेटे को सनकी लोगों से दूर रहना भी सिखाना।

पुस्तकों के चमत्कार से उसका परिचय कराना, आकाश में उड़ते परिंदों के रहस्य समझाना, पर्वत घाटियों में उगते फूलों को दिखाना, मधुमक्खियों के संगीत को समझाना।
उसे बताना कि वह अपने विचारों व आदर्शों पर पूरा यकीन रखते हुए अडिग रहे, भले ही पूरी दुनिया उसे गलत कहे।

अध्यापक महोदय, मेरे बेटे को समझाना कि वह औरों की तरह भीड़ के पीछे न चले, उसे शिक्षा देना कि वह हर किसी की बात सुने, उसे सत्य की कसौटी पर परखे और केवल अच्छाई ग्रहण करे। उसे सिखाना कि वह अपने दिमाग की योग्यता उसे दे जो सबसे ऊंची बोली लगाए, पर अपने दिल और आत्मा को किसी भी कीमत पर न बेचे।

उसके हौसले में बेसब्री हो और उसकी बहादुरी में सब्र हो। उसे अपने आप में गहन मधुर विश्वास रखना सिखाना, तभी वह मानवता और  ईश्वर में अटूट गहन विश्वास रख पाएगा।

अध्यापक महोदय, यह मेरी कामना की सूची है। अध्यापक होने के नाते आप देखना किस सीमा तक आप मेरे बेटे को श्रेष्ठ बना सकते हैं।

वह छोटा सा, प्यारा सा बच्चा है। वह मेरा बेटा है।

मूल लेखक अब्राहम लिंकन

भावानुवाद –  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647034

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ मनाली : महाप्रलय के बाद प्राकृतिक सौंदर्य में बेजोड़ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण : मनाली : महाप्रलय के बाद प्राकृतिक सौंदर्य में बेजोड़ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

अचानक विजय के संदेश वट्स अप पर आने लगे कि मनाली में लेखक मिलन शिविर लगायेंगे सितम्बर में। आपको चलना है। दो बातें बहुत अच्छी थीं कि मनाली कभी गया नहीं था। दूसरे देश भर से लेखकों का साथ रहेगा तो मनाली यात्रा तो स्मरणीय हो जायेगी। वैसे भी हिमाचल या कहिए पर्वतों व वादियों में घूमना और प्राकृतिक सौदर्य में खो जाना, यह मुझे बहुत प्रिय है। धर्मशाला, शिमला इसी वर्ष गया हू। कई बार गया हूं लेकिन मनाली कभी नहीं। कुल्लू के लम्बे चलने वाले दशहरे के बारे में बचपन से सुनता आया हूं पर देखा कभी नहीं। मन ललचाता रहता है। मैंने झट से हां कह दी। एक और बात भी रही मन में कि अपनी पुस्तक यादों की धरोहर आने वाली है तो क्यों न वहीं लेखक शिविर में इसका लोकार्पण भी कर दूं? फिर छोटी मोटी तैयारियों में जुट गये परिवारजन।

आखिरकार यात्रा का दिन आ गया। मैंने वाया जालंधर जाने का निश्चय किया क्योंकि पुस्तक वहीं से ले जानी थी। वहीं रात जालंधर प्रेस क्लब में रुके। पत्रकार व परिचितों से मिलना हुआ जो इस यात्रा का बोनस रहा मेरे लिए। प्रेस क्लब बहुत अच्छा बना है औय नौ कमरे यात्रियों के लिए उपलब्ध हैं। अच्छी व्यवस्था। पत्रकारिता के अतिरिक्त अन्य सामाजिक व साहित्यिक आयोजनों का केंद्र बन चुका है यह क्लब।

दूसरी सुबह सिर्फ चाय पीकर चार बजे ही यात्रा शुरू की। पहले होशियारपुर आया। मेरा ननिहाल। मेरी जन्मभूमि पर मुंह अंधेरे में घर तो नहीं जा सकता था। अतः जन्मभूमि को प्रणाम करता हुआ आगे बढ़ गया। वैसे यहां आर्य समाज का बहुत बड़ा केंद्र है बजवाड़ा में। यहीं से विश्व ज्योति पत्रिका वर्षों से निकल रही है। कभी मैं संपादक से मिलने जाता था और मेरी अनेक रचनाएं इसके विशेषांकों में स्थान पाती रहीं। कह सकता हूं कि लेखन मेरी जन्मभूमि से घुट्टी में ही मिला होगा। थोड़ी दूरी के बाद ही पहाड़ शुरू हो गये जैसे कि होशियारपुर तो एक छोटी सी सीमा मात्र हो पहाड़ों और मैदान के बीच।

कहीं छोटा सा शहर आया। तब तक चाय और नाश्ते की जरूरत महसूस होने लगी थी। पहाड़ी सौदर्य के बीच हमने नाश्ते का आनंद लिया और निकल पड़े मनाली की मंजिल की ओर। जल्दी थी और पुस्तक के लोकार्पण का मन में चाव भी। कुल्लू तक ड्राइवर गाड़ी भगाता रहा और हम पर्वतीय सौंदर्य का रसपान करते रहे। सेबों के बाग देखने का बड़ा चाव था बेटी रश्मि को तो राह भर न केवल सेब ही सेब के बाजार बल्कि बागों के दर्शन भी होते रहे क्योंकि सीजन चरम पर था। दशहरा,  दीपावली त्योहार आने वाले थे। कुल्लू के बाजार में फिर होटल ढूंढा और दोपहर का भोजन किया। बहुत परिचित साहित्यकार हैं यहां लेकिन दिल ही दिल में याद किया। मंडी मैं तब आया था जब दैनिक ट्रिब्यून ज्वाइन किया था। तब नरेश पंडित और दीनू कश्यप से मिलना हुआ इनके एक कार्यक्रम में जो किसान भवन में रात्रि ग्यारह बजे तक चलता रहा था। साहित्य के आयोजन जरूरी हैं। नहीं तो इंटरनेट ने साहित्य का काफी स्वरूप बदल दिया है। इस तरह भागमभाग करते आखिर निर्धारित समय से थोड़ी देर से मनाल्सू पर्यटन होटल में पहुंच ही गये। रत्नचंद निर्झर और सैन्नी अशेष इंतज़ार और स्वागत् में खड़े थे। इस देरी के चलते पुस्तक किसी सुंदर आवरण में ढंक भी नहीं पाया और अनावरण का लोकार्पण कर दिया – कहानी लेखन महाविद्यालय के लेखक शिविर में श्रीमती उर्मि कृष्ण ने। इसके बाद छोटा सा कार्यक्रम और जलपान के बाद कमरों में आराम। रात के खाने के बाद जमी गाने सुनाने की महफिल। कुछ हंसी मज़ाक। कुछ अपने अपने साहित्यिक कद को भुला कर सबसे घुलमिल जाने की कोशिश। यही उद्देश्य है कि कभी सब नये थे लेखन में निरंतर अभ्यास व निखार के बाद स्थान बनता है।

दूसरी सुबह वनस्थल का कार्यक्रम रखा गया। नाश्ते के बाद मिन्नी बस में सवार मनाल्सू के किनारे वनस्थल है। खूब देवदार के लम्बे ऊंचे घने छायादार पेड़ों के नीचे धूप तो पहुंच ही नहीं पाती। नदी का प्यारा सा, खूबसूरत सा नज़ारा। थोड़ा नदी के पानी का संगीत। आत्मा गद्गद्। कैसे न कोई संन्यास ले ले यहां आकर। ओशो भी यहां आते रहे और स्टार विनोद खन्ना भी मानसिक शांति के लिए उनके पीछे पीछे मनाली आकर ओशो के लिए बर्तन मांजने तक के छोटे मोटे काम खुशी खुशी करते रहे। ये फोटोज तब अखबारों की सुर्खियां बने थे। नदी की कलकल ने सब भुला दिया। हिसार से चले राह भर की थकान को मुस्कान में बदल दिया। सब मिल गया। नयी ऊर्जा, नया उत्साह। नये मित्र। नये परिचय। कुल तीस लेखक पहुंचे थे देश भर में। सब फोटोज। सब सेल्फीज में जुट गये। एक घंटे बाद फिर मनाल्सू में भोजन। और बाद में छोटी सी साहित्यिक गोष्ठी। इंदु पटयाल और हिमसेतु की टीम व संपादक कृष्ण श्रीमान् से परिचय। चर्चा महिला पत्रकारिता पर की इंदु पटयाल ने । हमारा परिवार हिडिम्बा मंदिर की ओर चला। वैसे तो मनाल्सू होटल से थोड़ा ही ऊपर चढ़ाई चढ़ कर है लेकिन हमने अपनी गाड़ी से जाना ही ठीक समझा ताकि जो ताजगी पाई वह फिर पैदल चल कर खो न दें।

हमारे साथ कुल्लू से आये लेखक मित्र शेर सिंह भी थे। वे सारी बात और जानकारी देते रहे। लकड़ी का बना हिडिम्बा मंदिर और इसकी मान्यता लगता है कि यही संदेश देता है कि जन्म से हम चाहे किसी भी वंश के हों लेकिन अपने कर्मों से हम कुछ भी बन सकते हैं। अच्छे संस्कार से हम राक्षस वंश के बावजूद देवी बन सकते हैं। यही हिडिम्बा मंदिर का संदेश गूंजा मेरे मन में। खूब चहल पहल। देशी विदेशी पर्यटक। फोटोज की धूमधाम कि सब कैमरे में कैद कर लें। कुछ देर मंदिर के प्रांगण में बैठ मनाल्सू लौटे और रात के खाने के बाद फिर वही महफिल ए लेखक। गाना बजाना और हंसी मजाक। देर रात अपने अपने कमरों में। नींद ने कब अपनी आगोश में ले लिया। पता तक नहीं चला।

तीसरी और अंतिम सुबह। नाश्ता और वनविहार की ओर कूच मिन्नी बस से। यहां भी बड़े बड़े देवदार और नौकाविहार का आनंद भी। चहल पहल। हर पर्यटन केंद्र के आसपास पहाडी ड्रेस का प्रबंध कि आप एक बार पूरे पहाड़ी बन कर फोटो करवा लें। बेटी रश्मि इसी जन्म में पहाड़िन बन गयी और सौ रुपये के फोटो प्रमाण सहित लेकर फूली न समाई। सभी परिवार सचमुच पहाड़ी हो गये। सबका जन्म सफल हो गया और उन लोगों को मिला  रोज़गार। खरगोश भी साथ गोद में  लिए बैठी थीं। फोटोज के लिए जीवंत खरगोश। यहां थोड़ा दुख हुआ कि एक प्राणी कैसे सारा दिन गोद में फंसा रहता है। मन की कुलांचें नहीं भर सकता। मानव ने कैद कर रखा है। थोड़ा उदास मन से वन विहार से बाहर आया। मैं ऐसे शीर्षक से बहुत पहले लघुकथा लिख चुका हूं : मैं महात्मा बुद्ध नहीं हूं। सच हम महात्मा बुद्ध नहीं बन सकते पर प्राणियों और जीव जंतुओं की रक्षा का संदेश तो दे सकते हैं।

शाम के समय मनु मंदिर की ओर बढ़ चले। ऑटो रिक्शा आराम से मिल जाते हैं। सैन्नी अशेष तो एक गाइड से भी ज्यादा हैं मनाली में। इसीलिए वे कहते हैं कि मेरा नाम लेकर गाइड पूछना सब बता देंगे। वे हमें ऑटो में बिठाकर चौक तक खुद पैदल निकल लिए। हमसे पहले मौजूद क्योंकि छोटे रास्ते ढूंढ रखे हैं। मनु मंदिर के नाम से ही मनाली गांव बसा हुआ है। असली मनाली गांव और पर्यटकों की पहली पसंद के चलते मनाली बहुत बढ़ता गया। अब मनाली मंदिर के दर्शन के साथ ही असली मनाली के दर्शन हो रहे थे लेकिन रास्ते में देशी विदेशी सामान की दुकानें बड़ी संख्या में थीं। महाप्रलय के बाद मनु इसी जगह अकेले पूजा में जुटे थे। तभी श्रद्धा आईं और इस तरह जीवन फिर शुरू हुआ। जयशंकर प्रसाद की कामायनी का संदेश याद आया- अधिक सुख की तलाश में दुख मिलना स्वाभाविक है। यही तो हो रहा है मनुष्य के साथ। प्राकृतिक सौंदर्य का दोहन और पर्यावरण संकट। पराली से पराली तक धुआं ही धुआं। यह मनुष्य ने ही संकट पैदा किया है। प्रकृति का दोहन ही दोहन।

सैन्नी अशेष का घर पास ही था। वे हमारी टोली को अपने घर ले चले। पगडंडियां, खेत खलिहान और संध्या बेला में पशुओं का चारा पीठ पर लादे खेतों से लौट रहीं पहाड़ी महिलाएं। कहीं मक्की, कहीं सेब तो कहीं राजमाह की बेलें। सही मनाली। सैन्नी ने घर में एक बाल्टी में पानी भर कर सेब रखे थे उसमें ताकि हमें ठंडे सेब खाने को मिलें। सैन्नी ने अपनी व चर्चित स्नोवा बार्नो की किताबें भी दीं उपहार में। वहां से पैदल ही लौटे मनाल्सू होटल। थकान हो गयी पर सुखद। रात का भोजन। कुछ महफिल लेकिन ज्यादा उदासी। दूसरी सुबह बिछुड़ना जो था। सारी खुशी और बिछुड़ने का दुख। दूसरी सुबह हम मुंह अंधेरे बिना नाश्ते के ही निकल पड़े। सेब निशानी के तौर पर राह में खरीदे। कुल्लू में रुके शालिनी पत्रकार और शेर सिंह लेखक के साथ काॅफी की प्याली। शालिनी ने कहा- सर दशहरे तक रुक जाओ। फिर सही कह कर निकले क्योंकि मणिकर्ण गुरुद्वारे जाना था। 

मणिकर्ण की कथा भी बड़ी विचित्र। गुरु नानक देव यहां यात्रा करते बाला मर्दाना के साथ पहुंचे। रोटी कैसे बने। नदी थी। गुरु जी को बताया कि चावल उबाल लो। कैसे? शिष्यों ने पूछा तो गुरु नानक देव ने एक पत्थर हटाया और वहां गर्म पानी का चश्मा फूट गया। वह गर्म पानी आज भी मौजूद है और बहुत से रोग इसमें स्नान से दूर हो जाते हैं। दूसरी कथा शिव पार्वती से जुड़ी है। वे यहां तपस्या करते थे। पार्वती की मणि खो गयी। शिव ने ध्यान लगाया शेषनाग के पास थी। शिव के प्रभाव से एक मणि ही नहीं बल्कि रोज़ एक मणि अर्पण करने लगा। शिव ने पार्वती को कहा कि अपनी मणि ले लो और बाकी मणियों को पत्थर बना दिया ताकि इन्हें लेकर आपस में वैर न बढ़  जायें। यह बहुत बड़ा संदेश कि मणियों के लिए मणिकर्ण न आएं बल्कि सच्चे भाव से यहां आएं। इसीलिए गुरुद्वारे में शिव पार्वती की फोटो भी लगी है।

एक रात चंडीगढ़ यूटी गेस्ट हाउस और फिर अगली सुबह फिर मुंह अंधेरे का सफर ताकि बेटी यूनिवर्सिटी में समय पर अपने ऑफिस पहुंच सके। मनाली की यादें और सौंदर्य।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 115 ☆ तीन शिक्षिकाओं की कहानी – 8 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “तीन शिक्षिकाओं की कहानी”)

☆ संस्मरण # 115 – तीन शिक्षिकाओं की कहानी – 8 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मुझे माँ सारदा कन्या विद्यापीठ की तीन युवतियों की स्मृति हो आई । यह तीनों आदिवासी युवतियाँ इस विद्यापीठ की पुरानी विद्यार्थी तो नहीं है पर अपनी  शैक्षणिक योग्यता के कारण यहाँ नन्ही आदिवासी बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए नियुक्त की गई हैं । इन तीनों में एक जज्बा है पढ़ने और पढ़ाने का और शायद इसी उद्देश्य के लिए वे अल्प वेतन पर भी विद्यापीठ में अपनी सेवाएं दे रही हैं । वे तीनों न केवल पढ़ाती हैं वरन छात्रावास और भोजनालय की व्यवस्था भी संभालती हैं और बालिकाओं को खेलकूद, चित्रकला, गायन आदि गैर शैक्षणिक गतिविधियों में व्यस्त रखती हैं ।

अनपढ़ माता पिता हीरालाल बैगा और श्रीमती बाई  की पुत्री रामेश्वरी पिछली शताब्दी के खत्म होने के कोई चार वर्ष पहले पैदा हुई । माँ-पिता के पास पारिवारिक बटवारे में मिली थोड़ी सी कृषि भूमि ग्राम जरहा में है तो उससे प्राप्त उपज और मेहनत मजदूरी से साल भर में तीस हजार के लगभग आमदनी हो जाती है और इसी से तीन भाई ओ तीन बहनों के परिवार का भरण पोषण होता है । रामेश्वरी के पिता को न जाने कैसे प्रेरणा मिली, उसने अपनी संतानों को पढ़ाने का निर्णय लिया। उसकी  छह संतानों में से तीन विज्ञान स्नातक हैं। अपने मझले भाई को जब बीएससी में पढ़ते देखा तो रामेश्वरी की इच्छा भी ऐसा कुछ करने की हो चली। अपने अनपढ़ पिता को उसने अपने सपने के साथ खड़ा पाया और मझले भाई की ही भांति उसने भी अच्छे अंकों के साथ जीवविज्ञान व रसायन शास्त्र विषय लेकर स्नातक की उपाधि अर्जित की। रामेश्वरी बीएड कर प्रशिक्षित शिक्षक बनना चाहती है और उसके इस सपने में आड़े आ रही है धन की कमी । ऐसे पेशेवर अध्ययन के लिए यह सही है कि शैक्षणिक शुल्क की प्रतिपूर्ति छात्रवृति से हो जाती है पर छात्रावास भोजन व अन्य व्यय तो होते हैं, जिसकी व्यवस्था करना  फिलहाल  रामेश्वरी और उसके अभिभावक के बस में नहीं है ।

एक दूसरी शिक्षिका सरिता सोनवानी (गोंड) की कहानी भी अभावों में पली बढ़ी बेटी की कहानी है । उसके पाचवीं पास पिता रत्तीदास ने तीन शादियाँ की । पहली पत्नी चंपा बाई को दो संतान पैदा होने के बाद छोड़ दिया। यही चम्पा, सरिता की माँ है और उसने मेहनत मजदूरी करके अपने दोनों बच्चों को पढ़ाया । अपनी माँ की जीवटता की सरिता बड़ी प्रसंशक है। सरिता का भाई वनस्पति शास्त्र में स्नातकोत्तर है पर बेरोजगार है, बीएड  नहीं कर पा रहा क्योंकि धनाभाव है । सरिता कहती है कि यदि मातापिता साथ रहते तो वह भी बारहवीं उत्तीर्ण करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए कालेज जाती। मैंने उससे भविष्य की योजनाओं और विवाह के बारे में जानना चाहा । वह कहती है कि परिवार की आर्थिक स्थितियाँ और बुजुर्ग माँ की देखरेख की भावना उसे भविष्य के सुनहरे सपनों से दूर ले जाती है। यदि भाई को नौकरी मिल गई तब शायद वह विवाह के बारे में सोचेगी । 

एक अन्य गोंड युवती सीता पेण्ड्राम  की कहानी भी जीवटता से भरी है । उसके पिता मोहर सिंह ने भी दो विवाह किए । माँ बाद में मायके आ गई और फिर ननिहाल में रहकर ही उसने अपनी पढ़ाई लिखाई जारी रखी। बारहवीं उत्तीर्ण करने के बाद ट्यूशन पढ़ाकर आगे की पढ़ाई जारी रखी । सरकार की छात्रवृत्ति और अपनी कमाई के दम पर उसने कला संकाय में स्नातकोत्तर की उपाधि अर्जित की और फिर बीएड भी किया । सीता का बचपन कुछ हद तक खुशियों से भरा था, यद्दपि माँ अलग रहती थी पर पिता के यहाँ आना जाना था और पिता तथा सौतेले भइयों ने उसे बराबर स्नेह दिया । ननिहाल के अन्य रिश्तेदारों ने उसे आगे पढ़ने की प्रेरणा दी। विवाह वह करना चाहती है पर आर्थिक स्वावलंबन के बाद। यह बड़ा परिवर्तन शिक्षा के कारण ग्रामीण युवतियों में आया है । धर्मांतरण को लेकर सीता कहती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा  और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव का लाभ ईसाई मिशनरियाँ उठाती हैं। अक्सर चर्च के प्रतिनिधि बीमार आदिवासियों के पास पहुँच जाते हैं, उन्हे मिशन अस्पताल में भर्ती करवा उनका न केवल इलाज करवाते हैं वरन उनके लिए ईसा मसीह से प्रार्थना भी करते हैं और यहीं से धर्मांतरण की नींव रखी जाती है ।

माँ सारदा कन्या विद्यापीठ की शिक्षिकाएं, यह तीन युवतियाँ एक नए ग्रामीण भारत की तस्वीर पेश करती हैं। वे हमारी बहुत सी समस्याओं के हल करने का मार्ग सुझाती हैं। यह मार्ग निश्चय ही अच्छी शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं से होकर जाता है। सरकार बालिकाओं के विवाह की उम्र बढ़ाना चाहती है लेकिन शिक्षित युवतियों ने तो विवाह की अपेक्षा आर्थिक स्वावलंबन को महत्ता दी है, ऐसा मैंने कई ग्रामीण युवतियों से चर्चा करने के बाद जाना है।

©श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 114 ☆ निराशा से आशा – 7 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “निराशा से आशा”)

☆ संस्मरण # 114 – निराशा से आशा – 7 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अभी तक मैंने आपने उन आदिवासी युवतियों का परिचय करवाया जो माँ सारदा कन्या विद्यापीठ की पूर्व छात्राएं रही हैं लेकिन सभी का जन्म बीसवीं सदी के उतरार्द्ध में हुआ था । द्विवेदी जी, राजेन्द्रग्राम से जिस युवती को मुझसे मिलाने  सेवाश्रम लाए वह इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में जन्मी । आशा देवी बैगा का जन्म तरेरा गाँव में दादूराम बैगा और फगनी बाई के यहाँ 2003 में हुआ और वह 2009 में अपने पिता के साथ विद्यापीठ में भर्ती होने आई। मैंने पूछा पिता तो पढे लिखे नहीं थे फिर उन्हें इस स्कूल के बारे में कैसे पता चला। वह बताती है कि हमारे पड़ोसी की पुत्री इसी स्कूल में पढ़ रही थी और उसे देखकर पिताजी की भी इच्छा मुझे पढ़ाने की हो गई । आशा ने पिता की इच्छा का माँ रखा और जब 2014 में उसने इस विद्यापीठ से पाँचवी की परीक्षा उत्तीर्ण  की तो उसके 83% अंक आए। शिक्षा के प्रति इस बैगा बालिका की रुचि देखकर बाबूजी ने उसका प्रवेश शासकीय कन्या शिक्षा परिसर पुष्पराजगढ़ में करवा दिया और आशा ने फिर एक बार अपनी कर्मठता का लोहा मनवाया । वह उन गिनी चुनी बैगा कन्याओं में से एक बनी जब उसने 2021 में उच्चतर माध्यमिक परीक्षा 73% अंकों के साथ उत्तीर्ण की । आजकल आशा माडर्न नर्सिंग कालेज में बी एससी नर्सिंग की प्रथम वर्ष की छात्रा  है ।  इस निजी महाविद्यालय में उसे सालाना रुपये  60,000/- की फीस चुकानी होती है । गरीब आदिवासी कन्या के लिए यह बड़ी राशि है, लेकिन मध्य प्रदेश सरकार की छात्रवृति से उसे बड़ी मदद मिलती है । सरकार की छात्रवृति प्रवेश शुल्क जमा कर देने के बाद मिलती है लेकिन कालेज प्रबंधन ने उससे मात्र 10,000/- वसूले और प्रवेश दे दिया। जब छात्रवृति मिलेगी तो शेष फीस जमा हो जाएगी।

विद्यापीठ में बिताए अपने सुनहरे दिनों की उसे बहुत याद है । वह बताती है कि जब वह दूसरी कक्षा में पढ़ती थी तब बाबूजी उन लोगों को बिलासपुर घुमाने ले गए थे । बाद के सालों में बाबूजी के प्रयासों से उसने सहपाठिनी आदिवासी बालिकाओं के साथ पचमढ़ी, बनारस और जगन्नाथ पुरी की यात्रा की और पहली बार रेल यात्रा का अनुभव लिया । वह याद करती है कि भोजन सामग्री साथ में जाती और जहां रुकते वहाँ शिक्षक लोग भोजन बनाकर हम बालिकाओं को खिलाते, बाबूजी उस शहर की प्रसिद्ध मिठाई हम लोगों को जरूर खिलाते और विभिन्न स्थलों के बारे में बताते । मैंने उससे पूछा कि ऐसे शैक्षणिक प्रवासों से क्या लाभ मिला । आशा कहती है कि हम बैगा आदिवासियों ने तो बालपन में केवल आसपास के हाट बाजार ही देखे थे, अधिकांश यात्राएं तो हम लोग पैदल करते थे। गरीबी और अभाव के जीवन ने हम लोगों को दब्बू और भावशून्य बना दिया है लेकिन ऐसे शैक्षणिक प्रवासों से हम नन्ही बालिकाओं का भय दूर हुआ, झिझक कम हुई और एक नया आत्मविश्वास जागा ।

आशा को याद नहीं कि कभी विद्यापीठ में बालिकाओं को दंड दिया गया। वह कहती है कि कम उम्र में हम लोग यहाँ भर्ती होने आए तो बड़ी बहनजी और बाबूजी ने इतना प्रेम व स्नेह दिया कि  माता पिता की याद ही न आई । बाबूजी हम लोगों को सदैव पढ़ाई के लिए प्रेरित करते थे और सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे ।  आशा बताती है कि यद्दपि वह केवल पाँच वर्ष विद्यापीठ में पढ़ी लेकिन इस संस्था से लगाव सदैव बना रहा । प्रत्येक वर्ष 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद जयंती पर बाबूजी पुरानी छात्राओं को आमंत्रित करते,आवागमन की व्यवस्था करते और हम लोग उस दिन आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में बढ चढ़कर हिस्सा लेते । 

मैंने आशा से बैगाओं के बारे में पूछा । वह बताती है कि हम लोगों का रहन सहन तो अत्यंत सादा है। जंगल के पास रहने के कारण आवश्यकताएं बहुत सीमित हैं । पेट भरने के लिए कोदो कुटकी और मक्का उगा लेते हैं और इससे बना पेज, पेट भरने के लिए पर्याप्त है । पर्व त्योहारों और शादी विवाह में मंद( मद्य) पीना और नृत्य करना उनकी जिंदगी का मनोरंजन है । लेकिन शिक्षा के प्रचार प्रसार ने अब धीरे धीरे बैगाओं में परिवर्तन लाने शुरू कर दिए हैं । अब बैगा शिकार की अपेक्षा धान और गेंहू जैसे पौष्टिक आहार की ओर आकर्षित हो रहे हैं । वे जंगल की अपेक्षा अब शहर और कस्बे के पास भी बसने लगे हैं । वे बहुत सी कुरीतियों को त्याग रहे हैं । स्वच्छता की भावना बढ़ी है और मंद पीना भी कम हुआ है । जादू टोना तो अभी भी चलता है पर अधिक बीमार होने पर चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेते हैं । आशा बताती है कि बाबूजी ने कई बार उसके गाँव में भी चिकित्सा शिविर लगवाया था । वह कहती है कि अब शादी विवाह बालपन में नहीं होते। बैगाओं में गाँजा जैसे नशे का चलन नहीं है और धर्मांतरण भी नहीं है । 

आशा ने एक अच्छी बात यह भी बताई कि उसकी सहपाठियों में सम्मिलित खेतगांव  की जानकी बैगा भी उसी के साथ नर्सिंग कालेज में पढ़ रही है और खाँटी की निवासी चंद्रवती गोंड कला स्नातक बनने की तैयारी कर रही है । मैंने उससे भविष्य की योजना पूछी । वह कहती है कि आगे पढ़ना धनाभाव के कारण संभव नहीं है इसलिए  नर्सिंग स्नातक होने के बाद वह नौकरी की खोज करेगी । नौकरी खोजने में अगर किसी सूदूर शहर में भी जाना पड़े तो चौड़ी नाक, मोटे ओंठ और गोल काली आँखों वाली  आशा में यह आत्मविश्वास मुझे दिखा । गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का यह कमाल है । शीघ्र  विवाह की वह कदापि इच्छुक नहीं है । वह कहती है कि पहले आर्थिक सशक्तिकरण हो  और अपने कैरियर में जब वह भलीभाँति सुस्थापित हो जाएगी, तभी विवाह के बारे में सोचेगी । वह माता पिता की अनुमति के बिना अंतरजातीय विवाह की इच्छुक नहीं है । वह कहती है कि बैगाओं में सामाजिक नियंत्रण कठोर है और ऐसे में अंतरजातीय  विवाह को आसानी से मान्यता नहीं मिलती ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ विष्णु प्रभाकर की जयंती पर कुछ यादें  ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

(21 June 1912 – 11 April 2009)

☆ संस्मरण  : विष्णु प्रभाकर की जयंती पर कुछ यादें   

(आज प्रस्तुत है मूर्धन्य साहित्यकार स्व विष्णु प्रभाकर जी की जयंती (21 जून ) पर आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी के अविस्मरणीय संस्मरण। )

मित्र अरूण कहरवां ने आग्रह किया कि विष्णु प्रभाकर जी को स्मरण करूं कुछ इस तरह कि बात बन जाये। मैं फरवरी,  1975 में अहमदाबाद गुजरात की यूनिवर्सिटी में केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा अहिंन्दी भाषी लेखकों के लिए लगाये गये लेखन शिविर के लिए चुना गया था। दिल्ली में नरेंद्र कोहली जी मुझे रेलगाड़ी में विदा करने आए थे। पहली बार एक छोटे से कस्बे के युवा ने इतनी लम्बी रेल यात्रा की थी। बिना बुकिंग। एक कनस्तर पर बैठ कर। यूनिवर्सिटी पहुंचा। दूसरे दिन क्लासिज शुरू हुईं। मैंने कथा लेखन चुना। हमारे कथा गुरु के रूप में विष्णु प्रभाकर जी आमंत्रित थे। मज़ेदार बात कि आज की प्रसिद्ध कथाकार राजी सेठ व उनकी बहन कमलेश सिंह भी हमारे साथ प्रतिभागी थीं। कुल बतीस लेखक विभिन्न हिंदी भाषी प्रांतों से चुन कर आए थे। विष्णु प्रभाकर जी की सबसे चर्चित व लोकप्रिय पुस्तक आवारा मसीहा तब प्रकाशित हुई थी और वे उसकी प्रति झोले में रखते थे बड़े चाव से दिखाते। उनका शरतचंद्र का कहा वाक्य नहीं भूलता कि लिखने से बहुत मुश्किल है न लिखना। यानी जब कोई रचना आपके मन पर सवार हो जाती है तो आप उसे लिखे बिना नहीं रह सकते। फिर उनकी सुनाई लघुकथा :

चांदनी रात थी। नदी किनारे मेंढकों के राजा ने कहा कि कितनी प्यारी चांदनी खिली है। आओ चुपचाप रह कर इसका आनंद लें और सभी मेंढक यही बात सारी रात टर्राते रहे।

देखिए कितना बड़ा व्य॔ग्य। एक सप्ताह ऐसे ही कथा लेखन की बारीकियां सीखीं। शब्द चयन के बारे में वे कहते थे कि भागो नहीं , दौड़ो। इसका गूढ़ अर्थ यह कि भागते हम डर से हैं जबकि दौड़ते हम विजय के लिए हैं।

वे उन दिनों साप्ताहिक हिंदुस्तान के लिए कहानी का संपादन यानी चयन करते थे। मेरी कहानी थी -एक ही हमाम में। यह कहानी कार्यशाला में पढ़ी। उन्होंने शाम की सैर पर मुझे कहा कि कुछ तब्दीलियां कर लो तो इसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में दे दूं। मैंने राजी सेठ से यह बात शेयर की। उन्होंने कहा कि इसलिए तब्दील मत करो कि यह साप्ताहिक हिंदुस्तान में आयेगी। यदि जरूरी हो तो चेंज करना। मैंने लालच छोड़ा और वह कहानी रमेश बतरा ने साहित्य निर्झर के कथा विशेषांक मे प्रकाशित की और उतनी ही चर्चित रही। यानी चेंज लेखक सोच समझ कर करे।

इसके बाद मैंने लगातार विष्णु जी से सम्पर्क बनाये रखा। वे हर पत्र  का जवाब देते। अनेक पत्र घर में पुरानी फाइलों में मिलते रहे। बहुत समय बाद पता चला ये पत्र वे बोल कर मृदुला श्रीवास्तव और बाद में वीणा को लिखवाते थे। नीचे हस्ताक्षर करते थे। फिर वे लुधियाना आए। तब भी मुलाकात  हुई। जालंधर आए तब भी दो दिन मुलाकातें हुईं। फिर मैं दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक लगा तो उनकी इंटरव्यू प्रकाशित की -मैं खिलौनों से नहीं किताबों से खेलता था। इसके बाद मेरी ट्रांस्फर हिसार के रिपोर्टर के तौर पर हुई। यहां आकर विष्णु जी का हिसार कनैक्शन पता चला कि वे रेलवे स्टेशन के पास अपने मामा के पास ही पढ़े लिखे और उन्होंने ही उनकी पशुधन फाॅर्म में नौकरी लगवाई। वहीं लेखन में उतरे और नाटक मंचन में अभिनय भी करते रहे। बीस वर्ष यहीं गुजारे। शायद सारा जीवन हिसार में गुजारते लेकिन सीआईडी के इंस्पेक्टर ने कहा कि काका जी , क्रांति की अलख पंजाब के बाहर जगाओ। तब हिसार पंजाब का ही भाग था। इस तरह वे परिवार सहित दिल्ली कश्मीरी गेट बस गये और यह उनके लेखन के लिए वरदान साबित हुआ। संभवतः हिसार में रह कर वे इतनी ऊंची उड़ान  न भर पाते। कहानी ही नहीं , नाटक और लघुकथा तक में उनका योगदान है। बहुचर्चित जीवनी आवारा मसीहा पर उन्हें जीवन का सबसे बड़ा पुरस्कार मिला जिसे उन्होंने मकान बनाने में लगाया और उसी मकान पर कब्जा हुआ और वे प्रधानमंत्री तक गये और आखिरकार मकान मिला। वे इतने स्वाभिमानी थे कि प्रधानमंत्री के एक समारोह में जब उनके बेटे को साथ नहीं जाने दिया तब वे वापस आ गये। पता चलने पर प्रधानमंत्री ने चाय पर बुलाया। वे गांधीवादी और स्वतंत्रता सेनानी होते हुए भी किसी प्रकार की पेंशन लेने को तैयार न हुए।

आखिर दैनिक ट्रिब्यून की ओर से कथा कहानी प्रतियोगिता के पुरस्कार बांटने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया क्योंकि वे हिसार के हीरो थे। उन्हें पांवों में सूजन के कारण कार में ही दिल्ली से लाने की व्यवस्था करवाई और वे यहां चार दिन रहे। प्रतिदिन मैं उन्हें मामा जी के घर से लेकर आयोजनों में ले जाता। वे गुजवि के भव्य वी आई पी गेस्ट हाउस में नहीं रुके। उनका कहना था कि मुझे यह आदत नहीं और मैं अपने मामा के घर ही रहूंगा। यह सारी व्यवस्था संपादक विजय सहगल के सहयोग से करवाई। जब समारोह के बाद उन्हें सम्मान राशि दी तब वे आंखों में आंसू भर कर बोले -कमलेश। तेरे जैसा शिष्य भी मुश्किल से मिलता है।

बाद में उन्हें सपरिवार दिल्ली छोड़ने गया। मेरा दोहिता आर्यन मात्र एक डेढ़ वर्ष का था। उसे गोदी में खूब खिलाया। वह फोटो भी है मेरे पास।  लगातार लेखन में जुटे रहे और आज भी उनके बेटे अतुल  प्रभाकर के साथ सम्पर्क बराबर हैं। उन्होंने दो वर्ष पूर्व दिल्ली के समारोह में बुलाया और मुझसे कहानी पाठ के साथ विष्णु जी के संस्मरण सुनाने को कहा। इसी प्रकार रोहतक के एमडीयू के हिंदी विभाग के विष्णु स्मृति समारोह में मुझे विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। बहुत कुछ है पर तुरंत जो ध्यान में आया लिख दिया। हिसार की चटर्जी लाइब्रेरी को उन्होंने 2100 पुस्तकें अर्पित कीं।  लाइब्रेरी में उनकी फोटो भी लगाई गयी है। हिसार के आमंत्रण पर उनका कहना था कि जब भी बुलाओगे तब नंगे पांव दौड़ा आऊंगा। आज बहुत याद आ रहे हैं विष्णु जी। हरियाणा सरकार ने जिला पुस्तकालय को विष्णु प्रभाकर जी के नाम से जोड़ा  तब भी राज्यपाल आए और विष्णु जी का पूरा परिवार भी आया। बहुत सी छोटी छोटी यादें उमड़ रही हैं। वे हमारे दिल में सदैव रहेंगे। मेरी चर्चित पुस्तक यादों की धरोहर में सबसे पहले इंटरव्यू विष्णु प्रभाकर जी का ही है जो उसी कथा कहानी प्रतियोगिता के समारोह के अवसर पर दैनिक ट्रिब्यून में विशेष रूप से प्रकाशित किया गया था। यह इंटरव्यू विशेष रूप से दिल्ली जाकर किया था और वे उस शाम बाहर खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे थे। उन्होंने इंटरव्यू के बाद अपना उपन्यास अर्द्धनारीश्वर मुझे भेंट किया था। एक ऐसा उपहार जिसे मैं भूल नहीं सकता।  इस पुस्तक के दो संस्करण पाठकों के हाथों में बहुत कम समय में पहुंचे।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 142 ☆ गर हौसले बुलंद हों… ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय संस्मरण गर हौसले बुलंद हों…”।)  

☆ संस्मरण  # 142 ☆ ‘गर हौसले बुलंद हों…’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

देश की पहली माइक्रो फाइनेंस ब्रांच में काम करते हुए हमने महसूस किया कि  – ‘गर हौसले बुलंद हों तो’  – गरीब निरक्षर महिलाएं, जो बैंक विहीन आबादी में निवास करती है, जो लोन लेने के लिए साहूकारों के नाज- नखरों को सहन करती हुई लोन लेती थीं, जो बैंकों से लोन लेने के बारे में स्वप्न में भी नहीं सोच सकतीं थ , ऐसी महिलाओं के आर्थिक उन्नयन में माइक्रो फाइनेंस की अवधारणा मील का पत्थर साबित हुई थी।

किसी ने कहा है ” कमीं नहीं है कद्र्ता की ….कि अकबर करे कमाल पैदा ….

इस भाव को स्व सहायता समूह से जुडी महिलाओं ने समाज को बता दिया।

माइक्रो फाइनेंस की अवधारणा   में रिमोट एरिया एवं बैंक विहीन आबादी के स्व सहायता समूह की महिलाओं के आर्थिक उन्नयन हेतु छोटे छोटे लोन  दिये  जाते  हैं ,लोन देते समय सेवाभाव एवं परोपकार की भावना होना बहुत जरूरी होता है , लोन राशि की उपयोगिता के सर्वे , जांच एवं इन महिलाओं की इनकम जेनेरेटिंग गतिविधियों का माइक्रो फाइनेंस ब्रांच में काम करते हुए हमने बार बार  सर्वे/अवलोकन किया ,हमारे द्वारा किये गए सर्वे से लगा कि इस आवधारणा से कई  जिलों  की हजारों महिलाओं में न केवल आत्म विश्वास पैदा हुआ बल्कि इन स्माल लोन ने उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत बनाया।

“बेदर्द समाज और अभावों के बीच कुछ कर दिखाना आसान नहीं होता पर इन महिलाओं के होसले बुलंद हुए  …..”

एक गांव  में एक खपरेल मकान में चाक पर घड़े को आकार देती ३० साल की बिना पढी़ लिखी लखमी प्रजापति को भान भी नहीं रहा  होगा कि वह अपनी जैसी उन हजारों महिलाओं के लिए उदाहरण  हो सकती है जो अभावों के आगे घुटने टेक देती है , दो बच्चों की माँ लक्ष्मी  ने जब देखा कि रेत मजदूर पति की आय से कुछ नहीं हो सकता तो उसने बचपन में अपने पिता के यहाँ देखा कुम्हारी का काम करने का सोचा , काम इतना आसान नहीं था लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी, महीनों की लगन के बाद उसने ये काम सीखा और आज वह छै सौ रूपये रोज कमा रही है इस प्रकार स्व सहायता समूह से जुड़ कर अपने परिवार का उन्नयन कर देवर की शादी का खर्चा भी  उसी ने उठाया और बच्चों को अच्छे स्कूल में भी पढ़ाया। 

शमा विश्वकर्मा भी ऐसी ही जीवंत खयालों वाली महिला मिली जिसने बिना पढ़े लिखे रहते हुए भी हार  नहीं मानी और अपने पैरों पर खड़ी हो गई , उसने बताया था कि पहले रेशम केंद्र में मजदूरी करने जाती थी तो ७०० / मिलते थे लेकिन हमारे  स्वसहायता समूह  ने रेशम कतरने  की मशीन का लोन दिया तो मशीन घर आ गई मशीन घर पर होने से यह फायदा हुआ कि काम के घंटे ज्यादा मिल गए और वह ८०००/ से ज्यादा कमाने लगी है ….. 

एक और गाँव की दो महिलाओं  ने तो सहकारिता की वह मिसाल पेश की जिसकी जितनी तारीफ की जाय  कम है , गाँव की अपने जैसी दस महिलाओं ने स्व सहायता समूह बनाकर लोन लिया फिर सिकमी (लीज) पर खेती करने लगीं , समूह की सब महिलाएं खेतों में हल चलने के आलावा वह सब काम भी करती है जो अभी तक पुरुष करते थे …….. इसके बाद इन महिलाओं  ने गांव में  शराब की दुकान के सामने जनअभियान चला कर गांव से शराब की दुकान हटवा दी और गांव के किसानों के घरों में आशा की किरणें फैला दीं ।

शाखा के सर्वे और फालोअप  के ये दो चार उदाहरण से हमें पता चला कि स्वसहायता समूह की महिलाएं बड़े से बड़े काम करने में अग्रणी भूमिका निभा सकतीं हैं, यदि इन्हें अच्छा मार्गदर्शन और प्रोत्साहन दिया जाए। जब इन सब महिलाओं से बात की गई तो उनका  कहना था कि ….गरीबी अशिक्षा  कुपोषण आदि की समस्याओं से सब कुछ डूबने की निराश भावना से उबरने के लिए जरूरी है कि गाँव एवं शहरों में हो रहे बदलाव को महिलाएं सकारात्मक रूप में स्वीकार करें।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 113 ☆ पढ़ाकू गोंड कन्या – 6 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “पढ़ाकू  गोंड कन्या”)

☆ संस्मरण # 113 – पढ़ाकू  गोंड कन्या – 6 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

मैँ जब-जब पोड़की स्थित मां सारदा कन्या विद्यापीठ के अतिथि गृह में ठहरा, वहाँ के भोजनालय में भोजन करने गया, तो मैंने एक श्याम वर्णा, चपल व चौड़े माथे वाली छरहरी युवती को अवश्य देखा। वह मेरा मुस्कराकर अभिवादन करती, पूंछती ‘दादाजी कैसे हो ?’ यह युवती दिन में तो दिखाई नहीं देती पर सुबह और शाम सेवाश्रम में अवश्य मिलती। लेकिन जब फरवरी 2022  के मध्य  में मैं पुन: सेवाश्रम गया तो चंचल स्वभाव की वह युवती मुझे दिखाई नहीं दी। मैंने वहाँ के शिक्षक प्रवीण कुमार द्विवेदी से उसके विषय में पूँछा तो पता चला वह भुवनेश्वरी थी।  और एक दिन द्विवेदी जी उसे मुझसे मिलवाने ले ही आए।

अमरकंटक के मूल निवासी गोंड आदिवासी परिवार में जन्मी भुवनेश्वरी, समीपस्थ ग्राम धरहरकलां की निवासी है। उसके पिता मानसिंह गोंड पाँचवी तक पढे हैं व माता जयमती बाई अनपढ़ हैं। वह याद करती है कि पूरा गाँव लगभग अनपढ़ ही था, केवल प्राथमिक शाला के शिक्षक राम सिंह मरावी ही शिक्षित थे और वही ग्रामीणों को शिक्षा की प्रेरणा देते, सभी लोग उनकी सलाह को मानते थे। जब वर्ष 1999 में भुवनेश्वरी पाँच वर्ष की हुई तब उसके पिता ने मरावी मास्टर साहब  प्रेरणा से विद्यापीठ में उसका प्रवेश करवा दिया।  शुरू में तो उसे स्कूल का अनुशासन रास  नहीं आया, गृह ग्राम की नन्ही सखियाँ याद आती और माँ की ममता को यादकर वह बहुत बिसुरती। ऐसे समय में बड़ी बहनजी और बड़ी कक्षा की छात्राएं उसे पुचकारती और मन बहलाती। धीरे-धीरे आश्रम में अच्छा लगने लगा और पढ़ना लिखना मन को भाने लगा।

एक अत्यंत गरीब परिवार में जन्मी भुवनेश्वरी ने, जिसके पिता अपने खेत में हाड़ तोड़ मेहनत कर केवल पेट भरने लायक अन्न उपजा पाते, सातवीं कक्षा माँ सारदा कन्या विद्यापीठ से उत्तीर्ण की और भेजरी स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बारहवीं की परीक्षा पास की तो माता पिता को इस अठारह वर्षीय युवती के विवाह की चिंता सताने लगी। लेकिन भुवनेश्वरी तो आगे पढ़ने की इच्छुक थी और ऐसे में आदिवासी बालिकाओं के तारणहार बाबूजी उसकी मदद को आगे आए। बाबूजी और बहनजी ने सेवाश्रम के छात्रावास में उसके रहने-खाने की व्यवस्था कर दी और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय में उसे प्रवेश दिलवा दिया। यहाँ की निशुल्क शिक्षा व्यवस्था का लाभ लेकर भुवनेश्वरी ने पहले संग्रहालय विज्ञान विषय लेकर स्नातक परीक्षा में सफलता हासिल की और फिर जनजातीय अध्ययन विषय में स्नातकोत्तर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। सेवाश्रम में पढ़ने वाली नन्ही आदिवासी बालिकाओं की भुवी दीदी ने आगे पढ़ने की सोची और अमरकंटक स्थित कल्याणीका महाविद्यालय से बीएड  भी 89% अंकों के साथ उत्तीर्ण कर लिया।

आजकल भुवनेश्वरी अमरकंटक क्षेत्र के बिजुरी ग्राम स्थित निजी विद्यालय में शिक्षिका है और उसका मासिक वेतन पाँच हजार रुपये से भी कम है। मैंने कहा ‘यह तो शोषण है और  इतने कम  वेतन से संतुष्ट हो क्या ?’  जवाब मिला ‘नहीं! पर मजबूरी है। सरकारी नौकरी के लिए आवेदन किया है पर अभी तक प्रक्रिया शुरू नहीं हुई। बड़े शहरों के निजी स्कूलों में जहां वेतन अच्छा मिलता है हम काले आदिवासियों को, जिन्हें अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करना नहीं आता,   कौन भर्ती करेगा।‘

डाक्टर सरकार की याद करते हुए उसकी आंखे नम हो जाती है। उसे आज भी विद्यापीठ की छात्रा के रूप में बनारस और जगन्नाथ पुरी की यात्राओं  की याद है। वह बताती है कि इन  यात्राओं के दौरान बाबूजी हम बच्चों को एक दिन किसी अच्छे होटल में, यह कहते हुए, जरूर भोजन करवाते कि इससे बच्चों की झिझक दूर होगी। भुवनेश्वरी को आज भी याद है जब करिया मुंडा लोकसभा के उपाध्यक्ष थे और अमरकंटक आए तब बाबूजी ने उन्हे विद्यापीठ आमंत्रित किया था। करिया मुंडा से विद्यापीठ की पूर्व छात्रा गुलाबवती बैगा ने संभाषण किया और फर्रीसेमर की पाँचवी तक पढ़ी लाली बैगा ने उन्हें स्थानीय बैगा आदिवासियों की संस्कृति से परिचित कराया और इसके लिए दोनों को बाबूजी ने बखूबी प्रशिक्षित किया था।

जब मैंने उसकी अन्य बहनों की पढ़ाई लिखाई के बारे में पूछा तो उसने बताया कि चार बहने इसी विद्यापीठ से पढ़कर निकली हैं। एक बहन ने तो बीएससी तक की शिक्षा ग्रहण की और नृत्य, गीत-संगीत व चित्रकला में निपुण सबसे छोटी बहन यमुना अब शासकीय उत्कर्ष उच्चतर माध्यमिक विद्यालय अनूपपुर में दसवीं की छात्रा है।

मैंने उससे शादी विवाह पर विचार पूछे। बिना शरमाये भुवनेश्वरी ने उत्तर दिया पहले नौकरी खोजेंगे, अपने पैरों पर खड़े होकर बाबूजी का सपना पूरा करेंगे फिर शादी की सोचेंगे। वह कहती है कि अमरकंटक क्षेत्र के  आदिवासी युवा शिक्षित तो हो गए  हैं पर बेरोजगारी के चलते उनमें गाँजा की चिलम फूकने का चलन बढ़ा है और फिर मद्यपान तो आदिवासी छोड़ना ही नहीं चाहते। गैर आदिवासी समुदाय की देखादेखी में दहेज का चलन गोंड़ों में बढ़ा है और इससे नारी प्रताड़ना के मामले भी अब बढ़ रहे हैं। वह ऐसा जीवन साथी चाहती है जिसमें नशा जैसे दुर्गुण नहीं हों। वह कहती हैं कि शिक्षा से जागरूकता तो बढ़ी है पर कुछ बुराइयाँ भी आदिवासियों में आ गई हैं। वह इन बुराइयों की  खिलाफत  करने में स्वयं को अकेला पाती है।  

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 141 ☆ रिकवरी और ‘गुड़ -गुलगुले’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय एवं विचारणीय संस्मरण रिकवरी और ‘गुड़ -गुलगुले’”।)  

☆ संस्मरण  # 141 ☆ रिकवरी और ‘गुड़ -गुलगुले’ ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

प्रमोशन होकर जब रुरल असाइनमेंट के लिए एक गांव की शाखा में पोस्टिंग हुई,तो ज्वाइन करते ही रीजनल मैनेजर ने रिकवरी का टारगेट दे दिया, फरमान जारी हुआ कि आपकी शाखा एनपीए में टाप कर रही है और पिछले कई सालों से राइटआफ खातों में एक भी रिकवरी नहीं की गई, इसलिए इस तिमाही में राइट आफ खातों एवं एनपीए खातों में रिकवरी करें अन्यथा कार्यवाही की जायेगी ।

ज्वॉइन करते ही रीजनल मैनेजर का प्रेशर, और रिकवरी टारगेट का तनाव। शाखा के राइट्सआफ खातों की लिस्ट देखने से पता चला कि शाखा के आसपास के पचासों गांव में आईआरडीपी (IRDP – Integrated Rural Development Programme – एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम) के अंतर्गत लोन में दिये गये गाय भैंसों के लोन में रिकवरी नहीं आने से यह स्थिति निर्मित हुई थी। अगले दिन हम राइट्स आफ रिकवरी की लिस्ट लेकर एक गांव पहुंचे। कोटवार के साथ चलते हुए  एक हितग्राही रास्ते में टकरा गया।  हितग्राही  गुड़ लेकर जा रहा था, कोटवार ने बताया कि इनको आपके बैंक से दो गाय दी गईं थी। हमने लिस्ट में उनका नाम खोजा और उनसे रिक्वेस्ट की आज किसी भी हालत में आपको लोन का थोड़ा बहुत पैसा जमा करना होगा।

….हम लोग वसूली  के लिए दर बदर चिलचिलाती धूप  में भटक रहे है और आप गुड -गुलगुले खा रहा है ….बूढा बोला …बाबूजी गाय ने  बछड़ा  जना  है गाय के लाने सेठ जी से दस रूपया मांग के 5 रु . का गुड  लाये है…. जे  5 रु. बचो  है लो जमा कर लो …..

लगा ..किसी ने जोर से तमाचा जड़ दिया हो, अचानक रीजनल मैनेजर की डांट याद आ गई, मन में तूफान उठा, रिकवरी के पहले प्रयास में पांच रुपए का अपमान नहीं होना चाहिए, पहली ‘बोहनी’ है और हमने उसके हाथ से वो पांच रुपए छुड़ा लिए …..

बूढ़े हितग्राही ने कातर निगाहों से देखा, हमें दया आ गई, कपिला गाय और बछड़े को देखने की इच्छा जाग्रत हो गई, हमने कहा – दादा हम आपके घर चलकर बछड़ा देखना चाहते हैं। कोटवार के साथ हम लोग हितग्राही के घर पहुंचे, कपिला गाय और उसके नवजात बछड़े को देखकर मन खुश हो गया, और हमने जेब से पचास रुपए निकाल कर दादा के हाथ में यह कहते हुए रख दिए कि हमारी तरफ से गाय को पचास रुपए का और गुड़ खिला देना, और हम वहां से अगले डिफाल्टर की तलाश में सरक लिए …..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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