(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “मोबाइल है, या मुसीबत” की अगली कड़ी। )
☆ आलेख ☆ मोबाइल है, या मुसीबत – भाग – 3 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
दिल्ली से वापसी के लिए हम स्टेशन पर स्थित आरक्षण काउंटर पर पहुंचे वहां एक दम pin drop silent जैसा माहौल था। जब फार्म मांगा तो उसने ऐसे देखा जैसे बैंक में आज कोई ड्राफ्ट बनवाने का फार्म मांगता है। काउंटर वाले बाबूजी भी कान से डोरी निकालते हुए बोले, क्यों मोबाइल नहीं है क्या ? जब पूरी दुनिया नेट से टिकट निकाल रही है, आप तो बाबा आदम के जमाने के लगते हो। हमने उससे झूठ बोलते हुए कहा अभी ट्रेन में चोरी हो गया है। फॉर्म के साथ हमने पांच सौ का नया कड़क नोट भी दिया, बोला छुट्टे 485 दो, अभी बोहनी कर रहा हूं। दिन के बारह बज रहे थे, चार घंटे से काउंटर चालू है। खैर हमने भी उसको सौ के चार और दस के नौ नोट दिए और बोला पांच आप दे दो। वो तुरंत बोला बैंक में कैशियर थे, भुगतान हमेशा सौ और दस के नोट से करने की आदत रही होगी। टिकट लेकर और बिना पांच वापिस लिए हम ऑटो स्टैंड पहुंच गए।
कुछ वर्ष पूर्व तो ऑटो वाले लपक कर सूटकेस आदि झपट कर ऑटो तक ले जाते थे। उस समय रईस टाइप की फीलिंग आती थी। इस बार ऑटो वाला अपने ऑटो में शांत और कान में डोरी डाल कर बैठे है, कहीं हड़ताल तो नही है ना ? पेट्रोल के बढ़ते दामों के कारण। एक ऑटो वाले को हमने अपने गंतव्य स्थान के लिए कहा तो कान से डोरी निकाल कर सुस्ताते हुए गुस्से से उसने कहा पीछे बैठ जाओ। फिर उसने हमारे ब्रीफकेस को चेन से बांध कर lock लगा दिया। हमने जिज्ञासा से पूछा ये ताला क्यो तो वो बोला अभी आप भी अपने मोबाइल में मग्न हो जायेंगे तो उठाईगीर कई बार सामान उठा कर भाग जाते है, और कभी कभी सवारी भी ट्रैफिक जाम में तेजी से बढ़ते मीटर को देखकर भी ऑटो धीरे होने पर बिना पैसे दिए नो दो ग्यारह हो जाती है। इसलिए अपनी पेमेंट को भी सुरक्षित कर लेते है।
जब अपने रिश्तेदार के यहां पहुंचे तो वहां अकेला पुत्र ही था। तीन चार बार घंटी बजाने पर भी दरवाज़े नहीं खुला तो हमने अपने दिमाग के घोड़े दौड़ा कर, बंद मोबाइल को चालू किया और उसको घंटी दी, तब दरवाज़ा खुला तो बोला अंकल मैं मोबाइल पर music सुन रहा था, एकदम latest है, ” Amy winehouse – Back to Black”। लाइए, आप के मोबाइल में भी down load कर देता हूं। ना कोई दुआ ना सलाम, सच में मोबाइल है या मुसीबत ❓
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अविस्मरणीय संस्मरण “जलेबी वाले जीजा”।)
☆ संस्मरण # 131 ☆ जलेबी वाले जीजा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
हम पदोन्नति पाकर जब बिलासपुर आए तो हमारे बचपन के खास मित्र मदन मोहन अग्रवाल ने बताया कि जीजा बिलासपुर में रहते हैं, गोलबाजार की दुकान में बैठते हैं और लिंक रोड की एक कालोनी में रहते हैं, बिलासपुर नये नये गए थे तो बैंक की नौकरी के बाद कोई बहाना ढूंढकर गोलबाजार की दुकान जीजा से मिलने पहुंच जाते,
जीजा शुरु शुरु में डरे कि कहीं ये आदमी उधार – सुधार न मांगने लगे तो शुरु में लिफ्ट नहीं दी। फिर जब देखा कोई खतरा नहीं है तो एक दिन घर बुला लिया। बिलासपुर के बिनोवा नगर मे हम अकेले रहते तो कभी कभी बोरियत लगती पर जीजा से बार बार मिलने में संकोच होता कि उनके व्यापार में डिस्टर्ब न होवे तो कई बार गोलबाजार के चक्कर लगा के लौट जाते। हांलाकि उन दिनों बिलासपुर छोटा और अपनापन लिए धूल भरा छोटा शहर जैसा था,और जबलपुर के छोटे भाई जैसा लगता था। गोलबाजार की उनकी मिठाई की दुकान बड़ी फेमस थी। हम मिष्ठान प्रेमी भी थे मिठाईयों से उठती सुगंधित हवा सूंघने का आनंद लेते पर जीजा कभी कोई मिठाई को नहीं पूछते। कई बार लगता कहीं बड़े कंजूस तो नहीं हैं। जब छुट्टी में जबलपुर लौटते तो मित्र मदन गोपाल से टोह लेते तो पता चलता कि जीजा बड़े दिलेर हैं, जब भांवर पड़ रहीं थी तो दिद्दी की सहेली को लेकर भागने वाले थे। हम जब बिलासपुर लौटे तो इस बार मिठाइयों को देख देख जीजा की खूब तारीफ की, पर वे हंसी ठिठोली करने में माहिर, काहे को पिघलें, हमनें भी एक दिन गरमागरम जलेबी का आदेश दिया और बाहर खड़े होकर खाने लगे पर हाय रे जीजा,, देखकर भी अनजान बन गए। जब पैसा देने गए तो मुस्कराते हुए हालचाल पूछा और बोले मिठाई कम खाना चाहिए …
* आज 24 साल बाद जब रिपोर्ट में बढ़ी हुई शुगर दिखाई दी तो लगा जीजा ठीक ही कहते थे। अब समझ में आया कि जीजा समझदार इंसान हैं तभी तो आत्मकथा की तीन चर्चित किताबें लिख डालीं। उनकी किताब जीवन से साक्षात्कार कराती है चलचित्र की तरह जीवन के अबूझ रहस्यों से सामना करने का हौसला देती है।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “मोबाइल है, या मुसीबत” की अगली कड़ी। )
☆ आलेख ☆ मोबाइल है, या मुसीबत – भाग – 2 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
विगत दिनों करीब दो वर्ष के पश्चात भारतीय रेल से दिल्ली की यात्रा की। मोबाइल से अग्रिम टिकट करवाना भूल चुके हैं, IRCTC का ID आदि भी मेमोरी से डिलीट हो गए है। विचार किया स्टेशन पर पहुंच कर टिकट लेकर बैठ जायेंगे। पांच घंटे की तो यात्रा है, Covid के कारण ट्रेन भी खाली ही चल रहीं होंगी, परंतु जब स्टेशन पहुंचे तो पता चला no room है। मरता क्या ना करता, साधारण टिकट लेकर बिना रिजर्वेशन वाले कोच में प्रवेश किया तो देखकर आश्चर्यचकित हो गए। एकदम शमशान भूमि जैसी शांति, कोई चिल्ल-पों नहीं हो रही। एक बैठे हुए यात्री से पूछा ये कौन सी क्लास का डिब्बा है। तो वो कान से यंत्र को निकलते हुए बोला, “जो हर क्लास में फेल हो वो यहां आ जाते हैं। हम समझ गए सही जगह आए हैं।”
सब अपने अपने मोबाइल में कुछ देख रहे थे या सुन रहे थे, बाकी के बोल रहे थे। कोई राजनैतिक, व्यवस्था विरोधी या सामाजिक चर्चा नहीं कर रहा था। नौकरी के दिन याद आ गए जब फर्स्ट क्लास में यात्रा करते थे तो सभी अंग्रेजी पेपर से अपना चेहरा छुपाकर बैठे रहते थे। Excuse me जैसा शब्द हमने वहीं पर सुना था। हमने अपना मोबाइल बंद करके रख दिया था, क्योंकि उसकी बैटरी अधिकतम तीस मिनट ही चल पाती थी। उसके बाद उसे वेंटीलेटर पर लेना पड़ता था। स्टेशन पर कोई पेपर /पत्रिका बेचने वाला भी नहीं दिखा था, हां चार्जिंग पॉइंट पर लंबी लाइन लगी हुई थी। लाइन में लगे एक व्यक्ति से पूछा – “आपको कौन सी गाड़ी में जाना है?” तो वो बोला “पहले मोबाइल चार्ज हो जाए, फिर उसके बाद किसी भी गाड़ी से चले जाएंगे।”
दिल्ली के सराय रोहिल्ला स्टेशन पर उतर कर हमेशा की तरह हम पंडित चाय वाले के यहां गए, तो पंडितजी नहीं दिख रहे थे। एक युवा जो कि कान में यंत्र लगा कर चाय बना रहा था ने इशारा किया। हमने “एक कट फीकी चाय” बोला तो उसके समझ में नहीं आया, झुंझलाते हुए उसने कान से wire निकालकर हमको ऐसे घूर कर निहारा जैसे हमसे कोई बड़ी गलती हो गई हो। वो बोला “उधर बेंच में बैठ जाओ, आपकी बारी आएगी तो बताना।” मैंने पूछा “पंडितजी नहीं दिख रहे?” तो उसने एक माला पहनी हुई फोटो दिखाई और बोला “वो covid में सरक गए।” पहले समय में पंडितजी पूछते थे “कचोरी गर्म है, चाय के साथ लोगे या बाद में” अब वो युवा तो कानों में यंत्र डाल कर संगीत की दुनिया के मज़े ले रहा था। हमने भी अपनी फीकी चाय पी और चल पड़े ! युवक अभी भी अपनी मोबाइल की दुनिया में खोया हुआ था और उसको पैसे लेने की भी याद नहीं थी। शायद इसी को “मोबाइल में मग्न” होना कहते है।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक अविस्मरणीय संस्मरण “परसाई के रुप राम ”।)
☆ संस्मरण # 130 ☆ परसाई के रुप राम ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
जबलपुर के बस स्टैंड के बाहर पवार होटल के बाजू में बड़ी पुरानी पान की दुकान है।
रैकवार समाज के प्रदेश अध्यक्ष “रूप राम” मुस्कुराहट के साथ पान लगाकर परसाई जी को पान खिलाते थे। परसाई जी का लकड़ी की बैंच में वहां दरबार लगता था। इस अड्डे में बड़े बड़े साहित्यकार पत्रकार इकठ्ठे होते थे साथ में पाटन वाले चिरुव महराज भी बैठते। वही चिरुव महराज जो जवाहरलाल नेहरू के विरुद्ध चुनाव लड़ते थे। बाजू में उनकी चाय की दुकान थी। मस्त मौला थे।
आज उस पान की दुकान में पान खाते हुए परसाई याद आये, रुप राम याद आये और चिरुव महराज याद आये। पान दुकान में रुप राम की तस्वीर लगी थी, परसाई जी रुप राम रैकवार को बहुत चाहते थे। उनकी कई रचनाओं में पान की दुकान, रुप राम और चिरुव महराज का जिक्र आया है।
अब सब बदल गया है। बस स्टैंड उठकर दूर दीनदयाल चौक के पास चला गया। परसाई नहीं रहे और नहीं रहे रुप राम और चिरुव महराज…। पान की दुकान चल रही है रुप राम का नाती बैठता है। बाजू में पुलिस चौकी चल रही है। पवार होटल भी चल रही है। चिरुव महराज की चाय की होटल बहुत पहले बंद हो गई थी एवं वो पुराने जमाने का बंद किवाड़ और सांकल भी वहीं है और रुप राम तस्वीर से पान खाने वालों को देखते रहते हैं।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक आलेख – “मोबाइल है, या मुसीबत”.)
☆ आलेख ☆ मोबाइल है, या मुसीबत – भाग – 1 ☆ श्री राकेश कुमार ☆
अभी मैने जैसे ही लिखा, कि मोबाइल के भीतर से एक आवाज़ आई “जिस थाली में खाते हो उसी में छेद करते हो”, नाशुक्रे, गद्दार, एहसानफरामोश, नमकहराम।
हमने उसे कहा ज़रा रुको अभी आगे तो देखो! तुम तो हमारे जैसे बुजुर्गों के समान अधीर हो रहे हो। पूरी बात सुनते नहीं और अपना रोना रोने लग जाते हो। हम तो सठिया गए है, तुम तो अभी अभी पैदा ही हुए हो।
मोबाइल भी आज सुनने के मूड में था, पुरानी कोई कसक रही होगी!
दिवाली पर मैं भी छः वर्ष का हो जाऊंगा, बैटरी जवाब दे रही है। दिन भर बिजली का करंट लगता रहता है। इतने सारे ग्रुप बना लिए हो, मेमोरी भी हमेशा लबालब रहती है, जैसे कि भादों में उफनाती नदियां हो जाती है। मेरे स्क्रीन पर इतने स्क्रेचेस है, जितने आपके चेहरे पर झुरियां नही हैं। हर एक सेकंड में कोई नया SMS आ जाता है, और तो और, आप भी हर SMSपर प्रतिक्रिया करने में All India Ranker के टॉप दस में रहते हो। दिन भर आंखे गड़ाए इंतजार करते रहते हो। कोई नया MSG आए तो बिना पढ़े ही दूसरे ग्रुप में सांझा कर Most active मेंबर की ट्रॉफी पर हक़ बना रहे।
अब तो सुबह उठने के लिए मुझे ही मुर्गा बना रखा है, प्रातः और सांय भ्रमण में भी मुझसे अपने कदम गिनवा लेते हो।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – रमेश बतरा : होलिया में भर आती हैं आंखें ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(15 मार्च – प्रिय रमेश बतरा की पुण्यतिथि । बहुत याद आते हो मेशी। तुम्हारी माँ कहती थीं कि यह मेशी और केशी की जोड़ी है । बिछुड़ गये ….लघुकथा में योगदान और संगठन की शक्ति तुम्हारे नाम । चंडीगढ़ की कितनी शामें तुम्हारे नाम…. – कमलेश भारतीय )
होली फिर आ रही है और धुन सुनाई दे रही है -होलिया में उड़े रे गुलाल,,,,पर दिल कहता है होलिया में भर आती हैं आंखें हर बार, हर बरस। रमेश बतरा को याद करके। मेरी रमेश बतरा से दोस्ती तब हुई जब वह करनाल में नौकरी कर रहा था और ‘बढ़ते कदम’ के लिए रचना भेजने के लिए खत आया था। अखबार के साइज की उस पत्रिका के प्रवेशांक में मेरी रचना को स्थान मिला था और हमारी खतो खतावत चल निकली थी।
फिर रमेश बतरा का तबादला चंडीगढ़ हो गया। इतना पता है कि सेक्टर आठ में उसका ऑफिस था और मैं बस अड्डे से सीधा या उसके पास या फिर बस अड्डे के सामने सुरेंद्र मनन और नरेंद्र बाजवा के पास पहुंचता। शाम को हम लोग इकट्ठे होते अरोमा होटल के पास बरामदे में खड़ी रेहड़ी के पास। वहीं होती कथा गोष्ठी और विचार चर्चा। इतनी खुल कर कि यहां तक भी कह दिया जाता कि इस रचना को फाड़कर फेंक दो या इतनी प्रशंसा कि इसे मेरी झोली में डाल दे, साहित्य निर्झर में ले रहा हूं। शाम लाल मेहंदीरत्ता प्रचंड ने रमेश बतरा को साहित्य निर्झर की कमान सौंप दी थी। हर वीकेंड पर मेरा चंडीगढ़ आना और रमेश के सेक्टर बाइस सी के 2872 नम्बर घर में रहना तय था और साहित्य निर्झर की लगातार बेहतरी की चर्चायें भी। यहीं अतुलवीर अरोड़ा, राकेश वत्स और जगमोहन चोपड़ा से भी नजदीकियां हुईं। तीनों के स्कूटरों पर हम लोग पिंजौर गार्डन भी मस्ती करने जाते।
सेक्टर इक्कीस में प्रिटिंग प्रेस थी और मुझे अच्छी तरह याद है कि जब लघुकथा विशेषांक निकल रहा था तब उसी प्रेस में बैठे मैंने उस टीन की प्लेट पर कागज़ रख लिखी थी -कायर। जिसे पढ़ते ही रमेश उछल पड़ा था और बोला था कि जहां जहां संपादन करूंगा यह लघुकथा जरूर आयेगी। यह थी उसकी अच्छी रचना के प्रति एक संपादक की पैनी नजर। बहुत से नये कथाकार बनाये इस दौरान। चित्रकारों व फोटोग्राफर्स को भी जोड़ा। कितने सुंदर कवर चुनता था। पानी की टोंटी पर चोंच मारती चिड़िया का चित्र आज तक याद है। नये से नये कथाकार जोड़ता चला गया। एक काफिला बना दिया -महावीर प्रसाद जैन, अशोक जैन, नरेंद्र निर्मोही, मुकेश सेठी, सुरेंद्र मनन, नरेंद्र बाजवा, गीता डोगरा, प्रचंड, तरसेम गुजराल और संग्राम सिंह आदि। चंडीगढ़ की साहित्यिक गोष्ठियों में भी साहित्य निर्झर में प्रकाशित रचनाकारों को चर्चा मिलती रही। धीरे धीरे सभी लोग हिंदी साहित्य में छा गये।
रमेश फिल्म देखते समय विज्ञापनों को बहुत ध्यान से देखता और कहता कि कम शब्दों में अपनी बात कहनी सीखनी है तो विज्ञापनों से सीखो। लघुकथा में इसीलिए वह सबसे छोटी लघुकथा दे पाया -रात की पाली खत्म कर जब एक मजदूर घर आया तब उसकी बेटी ने कहा कि एक राजा है जो बहुत गरीब है। बताइए यह प्रयोग किसके बस का था ? चंडीगढ़ में संगठन खड़ा करने, एक नये आंदोलन जैसा माहौल बनाने के साथ साथ लघुकथा को नयी दिशा देने का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। साहित्य निर्झर व शुभतारिका के लघुकथा विशेषांक इसके योगदान के अनुपम उदाहरण हैं। खुद लिखना और सबको लिखने के लिए लगातार प्रेरित करते रहने की कला रमेश बतरा में ही थी। चंडीगढ़ रहते रमेश बतरा एक अगुआ की भूमिका में था और उसकी पारखी नज़र को देखते कमलेश्वर ने भी सारिका में उपसंपादक चुन लिया। मुम्बई जाकर भी रमेश पंजाब, चंडीगढ़ व हरियाणा के रचनाकारों को नहीं भूला। वह वैसे ही यारों का यार बना रहा और सारिका में सबको यथायोग्य स्थान मिलता रहा। मुझसे कुछ विशेषांक के लिए कहानियां लिखवाई जिनमें एक है -एक सूरजमुखी की अधूरी परिक्रमा। पंजाबी से श्रेष्ठ रचनाओं के अनुवाद कर प्रकशित किये। वह हिंदी पंजाबी कथाकारों के बीच पुल बना। कितनी यादें हैं और जब मुझे दैनिक ट्रिब्यून में कथा कहानी पन्ना संपादित करने को मिला तो नये रचनाकारों को खोज कर प्रकाशित करने और आर्ट्स काॅलेज से नये आर्टिस्ट के रेखांकन लेकर छापने शुरू किये जो रमेश से ही सीखा जो बहुत काम आया।
अब रमेश नहीं है और उसकी चेतावनी भी नहीं कि अगर नयी कहानी लिखकर नहीं लाये तो मुंह मत दिखाना। इसी चेतावनी ने न जाने कितनी कहानियां लिखवाईं।
फिर तीन वर्ष मैं हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष के रूप में रहा तब रमेश और वे अरोमा के पीछे के बरामदे देखने जरूर जाता था पर रमेश कहीं नहीं मिला। बस। सूनापन और सन्नाटा ही मिला। काश, होलिया में गुलाल उड़ा पाता पर रमेश को याद कर भर भर आती हैं आज भी आंखें। कहां चले गये यार रमेश ?
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है बैंकर्स के जीवन पर आधारित एक अतिसुन्दर संस्मरण “यादों में रानीताल”।)
☆ संस्मरण # 126 ☆ “यादों में रानीताल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
कल जबलपुर के रानीताल की बात निकल आयी भत्तू की पान की दुकान पर ,,
ठंडी सुबह में दूर दूर तक फैला कोहरा… रानीताल के सौंदर्य को और निखार देता था । चारों तरफ पानी और बाजू से नेशनल हाईवे से कोहरे की धुन्ध में गुजरता हुआ कोई ट्रक ………
पर अब रानीताल में उग आए हैं सीमेंट के पहाड़नुमा भवन ……….।
परदेश में बैठे लोगों की यादों में अभी भी उमड़ जाता है रानीताल का सौंदर्य ……
पर इधर रानीताल चौक में आजकल लाल और हरे सिग्नल मचा रहे हैं धमाचौकड़ी ………।
यादों में अभी भी समायी है वो रानीताल चौक की सिंधी की चाय की दुकान जहाँ सुबह सुबह 15 पैसे में गरम गरम चाय मिलती थी ।
रात को आठ बजे सुनसान हो जाता था रानीताल चौक ……… रिक्शा के लिए घन्टे भर इन्तजार करना पड़ता था,अब ओला तुरन्त दौड़ लगाकर आ जाती है ।
संस्कारधानी ताल – तलैया की नगरी……
किस्सू कहता “ताल है अधारताल, बाकी हैं तलैयां ” फिर सवाल उठता है इतना बड़ा रानीताल ?
रानीताल चौक, रानीताल श्मशान, रानीताल बस्ती, रानीताल मस्जिद और रानीताल के चारों ओर के चौराहे……. पर अब सब चौराहे बहुत व्यस्त हो गए हैं चौराहे के पीपल के नीचे की चौपड़ की गोटी फेंकने वाले अब नहीं रहे पीपल के आसपास गोटी फिट करने वाले दिख जाते हैं……… कभी कभी।
☆ लेखांक# 11 – मी प्रभा… आध्यात्माची वाट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆
या अकरा भागात मी तुम्हाला माझी जीवनकथा थोडक्यात सांगितली, म्हणजे ढोबळमानाने माझं जगणं….हे असंच आहे.सगळेच बारकावे, खाचाखोचा शब्दांकित करणं केवळ अशक्य!
पण खोटं, गुडी गुडी असं काहीच लिहिलं नाही, मी आहे ही अशी आहे, साधी- सरळ, आळशी,वेंधळी,काहीशी चवळटबा ही,मी स्वतःला नियतीची लाडकी लेक समजते,खूप कठीण प्रसंगात नियतीने माझी पाठराखण केली आहे. ….मी नियती शरण आहे! गदिमा म्हणतात तसं,”पराधीन आहे जगती पुत्र मानवाचा” याचा प्रत्यय मी घेतला आहे!
अनेकदा मला माझं आयुष्य गुढ,अद्भुतरम्य ही वाटलेलं आहे….अनेकदा असं वाटतं, इथे प्रत्येक गोष्ट मनाविरुद्धच घडणार आहे का ?……पण पदरात पडलेलं प्रतिभेचं इवलंसं दान ही आयुष्यभराची संजीवनी ठरली आहे.अनेकदा माणसं उगाचच दुखावतात,अर्थात वाईट तर वाटतंच, पण कुणीतरी म्हटलंय ना, जब कोई दिलको दुखाता है तो गज़ल होती है……
कविता, लेखन आयुष्याचा अविभाज्य घटक!
सुमारे वीस वर्षापूर्वी माझ्याकडे अनेक वर्षे काम करणा-या कामवाल्या मावशींबरोबर हरिमंदिरात जाऊ लागले, नंतर बेळगावला जाऊन कलावती आईंचा अनुग्रह घेतला, सरळ साधा भक्तिमार्ग, नामस्मरण, भजन, पूजन!शिवभक्ती, कृष्ण भक्ती! संसारात राहून पूर्ण आध्यात्मिक मार्ग स्वीकारता येत नाही. मनाला काही बांध घालून घेतलेले…..आयुष्य पुढे पुढे चाललंय, जे घडून गेलं ते अटळ होतं, त्याबद्दल कुणालाच दोष नाही देत, मी कोण? पूर्वजन्म काय असेल? भृगुसंहितेत स्वतःला शोधावसं अनेकदा वाटलं,पण नाही शोधलं, आई म्हणतात, भविष्य विचारू नका कुणाला, सत्कर्म करत रहा, कलावतीआईंचा भक्तिमार्ग सरळ सोपा….त्या मार्गावर जाण्याचा प्रयत्न, दोन वर्षांपूर्वी मणक्याचं ऑपरेशन झालं, हाॅस्पिटलमधून कोरोनाची लागण झाली..सगळं कुटुंब बाधित झालं, हे सगळं आपल्यामुळे झालं असं वाटून प्रचंड मानसिक त्रास झाला, यातून नामस्मरण आणि ईश्वर भक्तीनेच तारून नेलं!
“मी नास्तिक आहे” म्हणणारी माणसं मला प्रचंड अहंकारी वाटतात.कदाचित कुठल्याही संकटाला सामोरं जायची ताकद त्यांच्यात असावी.
पण ज्या ईश्वराने आपल्याला जन्माला घातलं आहे त्याला निश्चितच आपली काळजी आहे असा माझा ठाम विश्वास आहे.कोरोनाबाधित असताना मनःशांतीसाठी ऑनलाईन अनेक मेडिटेशन कोर्सेस केले, ऑनलाईन रेकी शिकायचा प्रयत्न केला.पण ते काहीच फारसं यशस्वी झालं नाही.
आपल्या आतच सद् सद्विवेक बुद्धी वास करत असते ती सतत जागृत ठेवून दिवसभरात एकदा केलेलं ईश्वराचं चिंतन, दुस-या कुणा व्यक्तीबद्दल द्वेष, मत्सर, ईर्षा न बाळगणे हेच सुलभ सोपं आध्यात्म आहे असं मला वाटतं!
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।
☆ डायरी-संस्मरण – उसका बचपन, मेरा बचपना ☆ डॉ. हंसा दीप ☆
युग तो नहीं गुजरे मेरा अपना बचपन बीते, पर फिर भी न जाने क्यों ऐसा लगता है कि जैसे वह कोई और जमाना था जब मैं और मेरे हमउम्र पैदा होकर बस ऐसे ही बड़े हो गए थे। हालांकि अभी भी बचपन की यादें ताजा हैं। सारी यादें पलट-पलट कर आती हैं और उस मासूम-से समय के टुकड़े के साथ जुगाली करते हुए सामने खड़ी हो जाती हैं। अब, जब नानी बनकर आज के बचपन को ये आँखें लगातार देख रही हैं तो अपने बचपन का बेचारापन बरबस ही सामने आकर बतियाने लगा है। इन दिनों रोज ही कुछ ऐसा आभास होने लगा है जैसे अपना वह बचपन और आज का बचपन, युगों के अंतराल वाली कहानी-सा बन गया है।
आज के बच्चों का जो बचपन है उसे देखकर मेरी तरह कितने ही दादा-दादी-नाना-नानी कई बार सोच ही लेते हैं कि “काश हम भी अभी बच्चे होते।” इन बच्चों के पैरों के साइज़ की क्रिब इनके बढ़ते-बढ़ते तब तक बड़ी होती है, जब तक ये खुद चार साल की उम्र को पार नहीं कर लेते। उसके बाद तो एक पूरा का पूरा कमरा इनका होता है, जो खिलौनों से, टैडी बेयर से, कपड़ों से भरा रहता है। बसंत, गर्मी, पतझड़ और सर्दी हर मौसम के अलग-अलग जूते और अलग-अलग कपड़े। हमारे जमाने में अपनी दुकान के पास वाले पेड़ से, चादर या साड़ी बांधकर पालना बना दिया जाता था और हम ठंडी हवा के झोंकों में मस्त नींद ले लेते थे। कमरे और कपड़ों की कहानी तो अपनी जुबानी याद है। एक कमरे में पाँच से कम का तो हिसाब होता ही नहीं था। लाइन से जमीन पर सोए रहते थे। एक-दूसरे की चादर खींचते हुए, लातें खाते हुए भी नींद पूरी कर लेते थे। तीन-चार साल के बच्चों तक के लिये नये कपड़े आते ही नहीं थे। एक पेटी भरी रहती थी ऐसी झालर वाली टोपियों से, स्वेटरों से, झबले, फ्राक और बुश्शर्ट-नेकर से। आने वाले हर नये बच्चे के लिये इन कपड़ों की जरूरत होती थी। एक कपड़ा खरीदो, पाँच बच्चों को बड़ा कर लो। अनकहा, अनसमझा, रिसायकल वाला सिस्टम था, कपड़ा धोते ही नया हो जाता था।
जब इन बच्चों के लिये स्मूदी, फलों का शैक बनता है तो मुझे याद आता है तब बेर के अलावा कोई ऐसा फल नहीं था जो हमारे लिये घर में नियमित आता था। बैर बेचने वाली आती थी तो सीधे टोकरी से उठा कर खा लेते थे। फल को धोकर खाने वाली बात के लिये कभी डाँट खायी हो, याद नहीं। सब कुछ ऐसा बिंदास था कि किसी तरह की रोका-टोकी के लिये बिल्कुल जगह नहीं थी।
आज की मम्मी अपने बच्चों के लिये जब प्रोटीन और कैलोरी गिनती हैं तो मैं सोचती हूँ कि मेरी जीजी (माँ) को कहाँ पता था इन सबके बारे में! वे तो ऊपर वाली मंजिल के किचन से नीचे अनाज की दुकान तक के कामों लगी रहती थीं। कुछ इस तरह कि ऊपर-नीचे के चक्करों में बच्चों के आगे-पीछे चक्कर लगा ही नहीं पातीं। तब हम भाई-बहन अपनी अनाज की दुकान के मूँगफली के ढेर पर बगैर रुके, बगैर हाथ धोए, पेट भर कर मूँगफली छीलते-खाते। कड़वा दाना आते ही मुँह बनाकर अच्छे दाने की खोज में लग जाते। होले- हरे चने के छोड़, जिन्हें पहले तो बैठकर सेंकना और फिर घंटे भर तक खाते रहना। हाथ-मुँह-होंठ हर जगह कालिमा न छा जाए तो क्या होले खाए। ताजी कटी हुई ककड़ियाँ व काचरे शायद हमारे आयरन का सप्लाय था। ये सब खाकर पेट यूँ ही भर जाता था। थोड़ा खाना खाया, न खाया और किचन समेट लिया जाता था। शायद इसीलिये मोटापन दूर ही रहा। बगैर किसी ताम-झाम के भरपूर प्रोटीन और नपी-तुली कैलोरी।
जब बच्चे कार में बैठ कर स्कूल के लिये रवाना होते हैं तो मेरी अपनी स्कूल बरबस नजरों के सामने आ जाती है जहाँ आधे किलोमीटर पैदल चल कर हम पहुँचते थे। रिसेस में खाना खाने फिर से घर आते थे। कभी कोई लंच बॉक्स या फिर पानी ले जाना भी याद नहीं। स्कूल के नल से पानी पी लेते थे। कभी यह ताकीद नहीं मिलती कि “हाथ धो कर खाना, नल का पानी मत पीना।” आज इन बच्चों के लिये हैंड सैनेटाइजर का पूरा पैकेट आता है। इनके बस्ते से, लंच बॉक्स से टँगे रहते हैं। गाड़ी में भी यहाँ-वहाँ हर सीट के पास रखे होते हैं। जितनी सावधानी रखी जा रही है उतने बैक्टेरिया भी मारक होते जा रहे हैं। एक से एक बड़ी बीमारियाँ मुँह फाड़े खड़ी हैं। तब भी होंगी। उस समय कई बच्चों के विकल्प थे। मैं नहीं तो मेरा भाई या फिर मेरी बहन, एक नंबर की, दो नंबर की। अब “हम दो हमारे दो” के बाद, “हम दो हमारा एक” ने परिभाषाएँ पूरी तरह बदल दी हैं।
अब बच्चों की प्ले डेट होती है। फोन से समय तय कर लिया जाता है। छ: साल के नाती, शहंशाहेआलम मनु के द्वारा नानी को चेतावनी दी जाती है– “नानी मेरे दोस्तों के सामने हिन्दी मत बोलना, प्लीज़।” गोया नानी एक अजूबा है, जो उसके उन छोटे-छोटे मित्रों को हिन्दी बोल कर डरा दे। बड़ी शान है, बड़ा एटीट्यूड है व गजब का आत्मविश्वास है। मैं तो आज साठ-इकसठ की उम्र में भी अपने बड़े भाई से आँखें मिलाकर बात नहीं कर पाती। इन्हें देखो नाना-नानी भी इनके लिये एक खिलौना है। ऐसा खिलौना जिसे जब चाहे इस्तेमाल कर ही लेते हैं। हमारा समय तो बस ऐसा समय था कि चुपके से आया और निकल गया। कब आया, कब गया और कब बचपन में ही बड़े-से घर की जिम्मेदारी ओढ़कर खुद भी बड़े हो गए, पता ही न चला। गली-गली दौड़ते-दौड़ते छुपाछुपी खेलना, पकड़ में आ जाना व फिर ढूँढना। न तो ऐसे आईपैड थे हमारे हाथों में, न ही वीडियो गैम्स थे। हाथों में टूटे कवेलू का टुकड़ा लेकर, जिसे पव्वा कहते थे, घर के बाहर की पथरीली जमीन पर लकीरें खींच देते थे। उसी पर कूदते-फांदते, लंगड़ी खेलते बड़े होते रहते थे। बगैर किसी योजना के ही हर घंटे प्ले डेट हो जाती थी। कभी गिर जाते, खून बह रहा होता तो जीजी हल्दी का डिब्बा लाकर उस घाव में मुट्ठी भर हल्दी भर देतीं। पुराने पायजामे का कपड़ा फाड़कर पट्टी बांध देतीं। हम रो-धोकर आँसू पोंछते फिर से अपने घाव को देखते हुए निकल पड़ते थे।
इन बच्चों के लिये सुबह का खास नाश्ता बनता है। हम तो रात के बचे पराठे अचार के साथ खा लेते थे। पोषक आहार के तहत बच्चों की शक्कर पर इनके ममा-पापा नजर लगा कर रहते हैं। हम तो शक्कर वाली मीठी गोलियाँ ऐसे कचड़-कचड़ चबाते रहते थे जैसे उस आवाज से हमारा गहरा रिश्ता हो। बाजार के मीठे रंग वाले, लाल-पीले-हरे बर्फ के लड्डू चूस-चूस कर खाते रहते थे। कभी कोई “मत खाओ” वाली ना-नुकुर नहीं होती। हमारा यह स्वाद सबसे सस्ता होता था फिर भला कोई कुछ क्यों कहता!
मुझे अपना बरसों का अनुभव और ज्ञान अपने नाती मनु को देने की बहुत इच्छा होती है। सुना तो यही है कि सारा ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित हो जाता है। यहाँ भी मैं मन मसोस कर रह जाती हूँ। उसे कुछ पूछना होता है तो ‘सिरी’ और ‘एलेक्सा’ उसके बगल में खड़ी होती हैं। नानी से कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ती। मेरा ज्ञान भी उसके किसी काम का नहीं रहा।
एक बात बहुत अच्छी है, नया सीखने की मेरी ललक अभी भी है। हालांकि वही अच्छी बात उल्टे प्रहार करती है जब हाथों में रिमोट लेकर निनटेंडो गैम खेलना शुरू करती हूँ। कुछ ही पलों में मनु मेरे हाथ से रिमोट खींचकर मेरे मरते हुए कैरेक्टर को बचाता है।
“नानी आपको तो बिल्कुल भी खेलना नहीं आता। आप तो अपने प्लेयर को मारने पर तुली हुई हैं।” ऐसी हिंसक मैं कभी सपने में भी नहीं होती, लेकिन खेलते हुए कैसे हो जाती हूँ यह आज तक समझ ही नहीं पायी!
“ये निगोड़े गैम में क्यों मरना-मारना लेकर आते हैं!” कहते हुए मैं अपना सिर ठोक लेती हूँ। मनु को कोई जवाब न देकर बुरी तरह हार जाती हूँ। अपने से पचपन साल छोटे बच्चे से हारकर मैं बहुत बेवकूफ महसूस करती हूँ। ऐसा नहीं कि यह हारने का अफसोस हो, सिर्फ हारती तो कोई बात नहीं थी, मगर उसके मन में जो अपनी मूर्खता वाली भावना अनजाने ही छोड़ देती हूँ, उसकी कसक बनी रहती है। मैं बड़ी हूँ, मुझे सब कुछ आना चाहिए। अपने समय में कभी नानी के लिये ऐसा कुछ सोचने की, कुछ कहने की जुर्रत नहीं की। ऐसा कोई मौका मिला भी नहीं। तब तो आदेश होते थे व हम पालन करते थे। बच्चे भी तो एक, दो नहीं थे, पूरे के पूरे दस, या तो इससे एक-दो कम, या एक-दो ज्यादा।
रोज-रोज के इन नये खेलों को सीखना मेरे बस की बात नहीं रही इसलिये मैंने भी तय कर लिया कि उसके बचपन और मेरे बचपने को मिलाकर एक नया रास्ता बना लेती हूँ। धीरे-धीरे दोनों का तालमेल अच्छा होने लग गया है। ऐसा करके जीना मुझे भाने लगा है। फिर भी एक टीस तो है, मैं बदलाव को स्वीकार तो कर रही हूँ, पर मैंने दुनिया में आने की इतनी जल्दी क्यों दिखाई, कुछ साल और रुक जाती।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “संदूक – प्रथम भाग”.)
☆ संस्मरण ☆ संदूक – प्रथम भाग☆ श्री राकेश कुमार ☆
(यादों के झरोखे से)
एक सैनिक की पहचान बंदूक और संदूक हुआ करती थी। समय के फेर में संदूक अब सूटकेस कहलाने लगा हैं।
एक जमाने में रईसी का पैमाना भी संदूक हुआ करते थे। फलां के घर में तो इतने सारे संदूक हैं, आदि। मध्य श्रेणी के घरों में बड़े करीने से संदूक सज़ा कर नाप के अनुसार कपड़े से ढककर बड़े आदर से रखे जाते थे। कुछ क्षेत्रों में इसको ट्रंक, बक्सा के नाम से जाना जाता हैं।
समय की करवट में एरिस्ट्रोक्रेट, वीआईपी, इत्यादि वज़न में हल्के अटैची या सूटकेसों ने ले ली। इनके प्रचलन में गिरावट आ जाने से रफूगर प्रजाति भी अंतिम सांसे गिन रही हैं। इन बक्सों के कारण कपड़ों में एल आकार का चीरा लग जाता था, जिसको रफुगर बड़ी बारीकी से दुरुस्त कर दिया करते थे।
बैंक में भी रौकड़ को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने के लिए लोहे के बक्से का उपयोग भी अब समाप्ति की कगार पर हैं। सुविधाजनक चार पहिया वाले सूटकेस जो उपलब्ध हो जातें हैं। रेलवे स्टेशन/बस अड्डे इत्यादि में कुली के कार्य करने वाले भी इनका प्रचलन बंद हो जाने के कारण, दूसरे रोजगार के साधनों में अपनी जीवनचर्या व्यतीत कर रहे हैं।
बचपन के ग्रीष्म अवकाश में जब ननिहाल से घर वापसी के समय, ढेर सारी वस्तुएं भेंट में मिलने के बाद ट्रंक बंद नहीं होता था तो उस के ढक्कन को बंद करके उस पर बैठ कर ही उसे बंद किया जाता था। हालांकि हमारी उम्र के लोग आज भी वीआईपी सूटकेस को भी ऊपर से बैठकर बंद करने की वकालत करते हैं। साधन और समय बदल रहा हैं, लेकिन हम नहीं बदलेंगे।