हिन्दी साहित्य – डायरी-संस्मरण ☆ उसका बचपन, मेरा बचपना ☆ डॉ. हंसा दीप ☆

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

☆ डायरी-संस्मरण – उसका बचपन, मेरा बचपना ☆ डॉ. हंसा दीप 

युग तो नहीं गुजरे मेरा अपना बचपन बीते, पर फिर भी न जाने क्यों ऐसा लगता है कि जैसे वह कोई और जमाना था जब मैं और मेरे हमउम्र पैदा होकर बस ऐसे ही बड़े हो गए थे। हालांकि अभी भी बचपन की यादें ताजा हैं। सारी यादें पलट-पलट कर आती हैं और उस मासूम-से समय के टुकड़े के साथ जुगाली करते हुए सामने खड़ी हो जाती हैं। अब, जब नानी बनकर आज के बचपन को ये आँखें लगातार देख रही हैं तो अपने बचपन का बेचारापन बरबस ही सामने आकर बतियाने लगा है। इन दिनों रोज ही कुछ ऐसा आभास होने लगा है जैसे अपना वह बचपन और आज का बचपन, युगों के अंतराल वाली कहानी-सा बन गया है।

आज के बच्चों का जो बचपन है उसे देखकर मेरी तरह कितने ही दादा-दादी-नाना-नानी कई बार सोच ही लेते हैं कि “काश हम भी अभी बच्चे होते।” इन बच्चों के पैरों के साइज़ की क्रिब इनके बढ़ते-बढ़ते तब तक बड़ी होती है, जब तक ये खुद चार साल की उम्र को पार नहीं कर लेते। उसके बाद तो एक पूरा का पूरा कमरा इनका होता है, जो खिलौनों से, टैडी बेयर से, कपड़ों से भरा रहता है। बसंत, गर्मी, पतझड़ और सर्दी हर मौसम के अलग-अलग जूते और अलग-अलग कपड़े। हमारे जमाने में अपनी दुकान के पास वाले पेड़ से, चादर या साड़ी बांधकर पालना बना दिया जाता था और हम ठंडी हवा के झोंकों में मस्त नींद ले लेते थे। कमरे और कपड़ों की कहानी तो अपनी जुबानी याद है। एक कमरे में पाँच से कम का तो हिसाब होता ही नहीं था। लाइन से जमीन पर सोए रहते थे। एक-दूसरे की चादर खींचते हुए, लातें खाते हुए भी नींद पूरी कर लेते थे। तीन-चार साल के बच्चों तक के लिये नये कपड़े आते ही नहीं थे। एक पेटी भरी रहती थी ऐसी झालर वाली टोपियों से, स्वेटरों से, झबले, फ्राक और बुश्शर्ट-नेकर से। आने वाले हर नये बच्चे के लिये इन कपड़ों की जरूरत होती थी। एक कपड़ा खरीदो, पाँच बच्चों को बड़ा कर लो। अनकहा, अनसमझा, रिसायकल वाला सिस्टम था, कपड़ा धोते ही नया हो जाता था।   

जब इन बच्चों के लिये स्मूदी, फलों का शैक बनता है तो मुझे याद आता है तब बेर के अलावा कोई ऐसा फल नहीं था जो हमारे लिये घर में नियमित आता था। बैर बेचने वाली आती थी तो सीधे टोकरी से उठा कर खा लेते थे। फल को धोकर खाने वाली बात के लिये कभी डाँट खायी हो, याद नहीं। सब कुछ ऐसा बिंदास था कि किसी तरह की रोका-टोकी के लिये बिल्कुल जगह नहीं थी। 

आज की मम्मी अपने बच्चों के लिये जब प्रोटीन और कैलोरी गिनती हैं तो मैं सोचती हूँ कि मेरी जीजी (माँ) को कहाँ पता था इन सबके बारे में! वे तो ऊपर वाली मंजिल के किचन से नीचे अनाज की दुकान तक के कामों लगी रहती थीं। कुछ इस तरह कि ऊपर-नीचे के चक्करों में बच्चों के आगे-पीछे चक्कर लगा ही नहीं पातीं। तब हम भाई-बहन अपनी अनाज की दुकान के मूँगफली के ढेर पर बगैर रुके, बगैर हाथ धोए, पेट भर कर मूँगफली छीलते-खाते। कड़वा दाना आते ही मुँह बनाकर अच्छे दाने की खोज में लग जाते। होले- हरे चने के छोड़, जिन्हें पहले तो बैठकर सेंकना और फिर घंटे भर तक खाते रहना। हाथ-मुँह-होंठ हर जगह कालिमा न छा जाए तो क्या होले खाए। ताजी कटी हुई ककड़ियाँ व काचरे शायद हमारे आयरन का सप्लाय था। ये सब खाकर पेट यूँ ही भर जाता था। थोड़ा खाना खाया, न खाया और किचन समेट लिया जाता था। शायद इसीलिये मोटापन दूर ही रहा। बगैर किसी ताम-झाम के भरपूर प्रोटीन और नपी-तुली कैलोरी।    

जब बच्चे कार में बैठ कर स्कूल के लिये रवाना होते हैं तो मेरी अपनी स्कूल बरबस नजरों के सामने आ जाती है जहाँ आधे किलोमीटर पैदल चल कर हम पहुँचते थे। रिसेस में खाना खाने फिर से घर आते थे। कभी कोई लंच बॉक्स या फिर पानी ले जाना भी याद नहीं। स्कूल के नल से पानी पी लेते थे। कभी यह ताकीद नहीं मिलती कि “हाथ धो कर खाना, नल का पानी मत पीना।” आज इन बच्चों के लिये हैंड सैनेटाइजर का पूरा पैकेट आता है। इनके बस्ते से, लंच बॉक्स से टँगे रहते हैं। गाड़ी में भी यहाँ-वहाँ हर सीट के पास रखे होते हैं। जितनी सावधानी रखी जा रही है उतने बैक्टेरिया भी मारक होते जा रहे हैं। एक से एक बड़ी बीमारियाँ मुँह फाड़े खड़ी हैं। तब भी होंगी। उस समय कई बच्चों के विकल्प थे। मैं नहीं तो मेरा भाई या फिर मेरी बहन, एक नंबर की, दो नंबर की। अब “हम दो हमारे दो” के बाद, “हम दो हमारा एक” ने परिभाषाएँ पूरी तरह बदल दी हैं।

अब बच्चों की प्ले डेट होती है। फोन से समय तय कर लिया जाता है। छ: साल के नाती, शहंशाहेआलम मनु के द्वारा नानी को चेतावनी दी जाती है– “नानी मेरे दोस्तों के सामने हिन्दी मत बोलना, प्लीज़।” गोया नानी एक अजूबा है, जो उसके उन छोटे-छोटे मित्रों को हिन्दी बोल कर डरा दे। बड़ी शान है, बड़ा एटीट्यूड है व गजब का आत्मविश्वास है। मैं तो आज साठ-इकसठ की उम्र में भी अपने बड़े भाई से आँखें मिलाकर बात नहीं कर पाती। इन्हें देखो नाना-नानी भी इनके लिये एक खिलौना है। ऐसा खिलौना जिसे जब चाहे इस्तेमाल कर ही लेते हैं। हमारा समय तो बस ऐसा समय था कि चुपके से आया और निकल गया। कब आया, कब गया और कब बचपन में ही बड़े-से घर की जिम्मेदारी ओढ़कर खुद भी बड़े हो गए, पता ही न चला। गली-गली दौड़ते-दौड़ते छुपाछुपी खेलना, पकड़ में आ जाना व फिर ढूँढना। न तो ऐसे आईपैड थे हमारे हाथों में, न ही वीडियो गैम्स थे। हाथों में टूटे कवेलू का टुकड़ा लेकर, जिसे पव्वा कहते थे, घर के बाहर की पथरीली जमीन पर लकीरें खींच देते थे। उसी पर कूदते-फांदते, लंगड़ी खेलते बड़े होते रहते थे। बगैर किसी योजना के ही हर घंटे प्ले डेट हो जाती थी। कभी गिर जाते, खून बह रहा होता तो जीजी हल्दी का डिब्बा लाकर उस घाव में मुट्ठी भर हल्दी भर देतीं। पुराने पायजामे का कपड़ा फाड़कर पट्टी बांध देतीं। हम रो-धोकर आँसू पोंछते फिर से अपने घाव को देखते हुए निकल पड़ते थे।

इन बच्चों के लिये सुबह का खास नाश्ता बनता है। हम तो रात के बचे पराठे अचार के साथ खा लेते थे। पोषक आहार के तहत बच्चों की शक्कर पर इनके ममा-पापा नजर लगा कर रहते हैं। हम तो शक्कर वाली मीठी गोलियाँ ऐसे कचड़-कचड़ चबाते रहते थे जैसे उस आवाज से हमारा गहरा रिश्ता हो। बाजार के मीठे रंग वाले, लाल-पीले-हरे बर्फ के लड्डू चूस-चूस कर खाते रहते थे। कभी कोई “मत खाओ” वाली ना-नुकुर नहीं होती। हमारा यह स्वाद सबसे सस्ता होता था फिर भला कोई कुछ क्यों कहता!

मुझे अपना बरसों का अनुभव और ज्ञान अपने नाती मनु को देने की बहुत इच्छा होती है। सुना तो यही है कि सारा ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित हो जाता है। यहाँ भी मैं मन मसोस कर रह जाती हूँ। उसे कुछ पूछना होता है तो ‘सिरी’ और ‘एलेक्सा’ उसके बगल में खड़ी होती हैं। नानी से कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ती। मेरा ज्ञान भी उसके किसी काम का नहीं रहा।

एक बात बहुत अच्छी है, नया सीखने की मेरी ललक अभी भी है। हालांकि वही अच्छी बात उल्टे प्रहार करती है जब हाथों में रिमोट लेकर निनटेंडो गैम खेलना शुरू करती हूँ। कुछ ही पलों में मनु मेरे हाथ से रिमोट खींचकर मेरे मरते हुए कैरेक्टर को बचाता है।

“नानी आपको तो बिल्कुल भी खेलना नहीं आता। आप तो अपने प्लेयर को मारने पर तुली हुई हैं।” ऐसी हिंसक मैं कभी सपने में भी नहीं होती, लेकिन खेलते हुए कैसे हो जाती हूँ यह आज तक समझ ही नहीं पायी!

“ये निगोड़े गैम में क्यों मरना-मारना लेकर आते हैं!” कहते हुए मैं अपना सिर ठोक लेती हूँ। मनु को कोई जवाब न देकर बुरी तरह हार जाती हूँ। अपने से पचपन साल छोटे बच्चे से हारकर मैं बहुत बेवकूफ महसूस करती हूँ। ऐसा नहीं कि यह हारने का अफसोस हो, सिर्फ हारती तो कोई बात नहीं थी, मगर उसके मन में जो अपनी मूर्खता वाली भावना अनजाने ही छोड़ देती हूँ, उसकी कसक बनी रहती है। मैं बड़ी हूँ, मुझे सब कुछ आना चाहिए। अपने समय में कभी नानी के लिये ऐसा कुछ सोचने की, कुछ कहने की जुर्रत नहीं की। ऐसा कोई मौका मिला भी नहीं। तब तो आदेश होते थे व हम पालन करते थे। बच्चे भी तो एक, दो नहीं थे, पूरे के पूरे दस, या तो इससे एक-दो कम, या एक-दो ज्यादा।

रोज-रोज के इन नये खेलों को सीखना मेरे बस की बात नहीं रही इसलिये मैंने भी तय कर लिया कि उसके बचपन और मेरे बचपने को मिलाकर एक नया रास्ता बना लेती हूँ। धीरे-धीरे दोनों का तालमेल अच्छा होने लग गया है। ऐसा करके जीना मुझे भाने लगा है। फिर भी एक टीस तो है, मैं बदलाव को स्वीकार तो कर रही हूँ, पर मैंने दुनिया में आने की इतनी जल्दी क्यों दिखाई, कुछ साल और रुक जाती।

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ संदूक – प्रथम भाग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – संदूक – प्रथम भाग.)

☆ संस्मरण ☆ संदूक – प्रथम भाग ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(यादों के झरोखे से)

एक सैनिक की पहचान बंदूक और संदूक हुआ करती थी। समय के फेर में संदूक अब सूटकेस कहलाने लगा हैं।

एक जमाने में रईसी का पैमाना भी संदूक हुआ करते थे। फलां के घर में तो इतने सारे संदूक हैं, आदि। मध्य श्रेणी के घरों में बड़े करीने से संदूक सज़ा कर नाप के अनुसार कपड़े से ढककर बड़े आदर से रखे जाते थे। कुछ क्षेत्रों में इसको ट्रंक, बक्सा के नाम से जाना जाता हैं।

समय की करवट में एरिस्ट्रोक्रेट, वीआईपी, इत्यादि वज़न में हल्के अटैची या सूटकेसों ने ले ली। इनके प्रचलन में गिरावट आ जाने से रफूगर प्रजाति भी अंतिम सांसे गिन रही हैं। इन बक्सों के कारण कपड़ों में एल आकार का चीरा लग जाता था, जिसको रफुगर बड़ी बारीकी से दुरुस्त कर दिया करते थे।

बैंक में भी रौकड़ को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने के लिए लोहे के बक्से का उपयोग भी अब समाप्ति की कगार पर हैं। सुविधाजनक चार पहिया वाले सूटकेस जो उपलब्ध हो जातें हैं। रेलवे स्टेशन/बस अड्डे इत्यादि में कुली के कार्य करने वाले भी इनका प्रचलन बंद हो जाने के कारण, दूसरे रोजगार के साधनों में अपनी जीवनचर्या व्यतीत कर रहे हैं।

बचपन के ग्रीष्म अवकाश में जब ननिहाल से घर वापसी के समय, ढेर सारी वस्तुएं भेंट में मिलने के बाद ट्रंक बंद नहीं होता था तो उस के ढक्कन को बंद करके उस पर बैठ कर ही उसे बंद किया जाता था। हालांकि हमारी उम्र के लोग आज भी वीआईपी सूटकेस को भी ऊपर से बैठकर बंद करने की वकालत करते हैं। साधन और समय बदल रहा हैं, लेकिन हम नहीं बदलेंगे।

क्रमशः …

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ लेखांक # 10 – मी प्रभा… सहेलियोंकी बाडी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ लेखांक# 10 – मी प्रभा… सहेलियोंकी बाडी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

माझा जन्म पुणे जिल्ह्य़ातील एका छोट्याशा गावातल्या बागायतदार कुटुंबातला, भरपूर शेतीवाडी,घरात सुबत्ता होती, माझी आयुष्यातील पहिली मैत्रीण त्या गावातील कमल बडदे! ती माझ्यापेक्षा एक वर्षाने मोठी होती. आम्ही गावातल्या इतर मुलींबरोबर खेळायचो नाही.दोघीच काहीतरी खेळत असायचो. मी माॅन्टेसरीत असतानाच पुण्यात रहायला गेले पण सुट्टीत गावाकडे गेल्यावर मी आणि कमल भेटत असू.

पुण्यात भांडारकर रोडवर रहात असताना मालती पांडे ही मैत्रीण मिळाली तीही माझ्यापेक्षा एक वर्षाने  मोठी होती, आम्ही एकमेकींच्या घरी येत जात असू. आम्ही पुणं सोडून गावाकडे आलो, पुण्यातील जागा रिकामी करण्यासाठी आईवडील गेले तेव्हा मालू भेटायला आली होती,आणि मी भेटले नाही आणि पुण्यात परत येणार नाही,म्हणून ती खूप रडली होती असं आईनी सांगितलं होतं.

आम्ही गावाकडे गेल्यावर, कमल भेटली,तिचे वडील मिलिट्रीत होते,ते माझ्या वडिलांचे चांगले  मित्र होते ! तिची आई मुलांच्या शिक्षणासाठी घोडनदी-शिरूरला रहात होती.कमल नी आम्हाला शिरूरला चलण्याविषयी  सुचविले होते हे मला आजही आठवतंय. शिरूर आमच्या गावापासून जवळ असल्यामुळे सोयीचं म्हणून वडिलांनी शिरूर मध्येच बि-हाड केलं!

पण शिरूरमधे गेल्यावर कमलची आणि माझी मैत्री टिकली नाही. तिथे मला राणी गायकवाड, सरस बोरा,उज्वल धारिवाल, निर्मल गुंदेचा, संजीवनी कळसकर या मैत्रीणी मिळाल्या! राणी गायकवाड शी माझे पूर्वजन्मीचे काहीतरी ऋणानुबंध असावेत असं मला नेहेमीच वाटतं.तिची मैत्री म्हणजे एक सुंदर कविताच होती….त्या मैत्रीची फार मोठी किंमत मला मोजावी लागली  आहे. दहावी नंतर अकरावीला मी हिंगण्याच्या (कर्वेनगर ) महिलाश्रम हायस्कूल मधे हॉस्टेल वर राहू लागले तिथे जयश्री जमनारेची ओळख झाली . त्या हॉस्टेलवर मी महिनाभरही राहिले नाही, तिथे अजिबातच करमेना मग शिरूरचं मोडलेलं बि-हाड परत उभारलं ,राणी गायकवाड आणि जयश्री लोहकपूरे या खूप जिवलग मैत्रीणी पण त्या तरुण वयातच या जगातून निघून गेल्या!पण माझ्या आयुष्यात त्या दोघींना अनन्यसाधारण महत्त्व आहे.

या शाळेतील मैत्रीणी, काॅलेज मधे गेल्यावर  नवीन मैत्रीण मिळाली सिंधू  शेटे! तिची मैत्री अनेक वर्षे टिकली,पण दोन वर्षांपूर्वी तीही आजारपणाने गेली.

लग्न होऊन पुण्यात आले तेव्हा पहिली मैत्री यशवंत दत्त ची बायको वैजयंती महाडिकशी झाली. त्यानंतर काही वर्षांनी शिरूर च्या शाळेतली हुशार मुलगी माधुरी तिळवणकर ही भेटली, तिच्याशी मैत्री झाली ती तिच्या मिस्टरांमुळे, ते पूर्वी सोमवार पेठेत रहात होते, माधुरीचे पति अशोक कामत हे ह्यांचे मित्र बनले.माझ्या मुलाची आणि तिच्या मुलाचीही मैत्री झाली,एकमेकींच्या घरी जाणं हिंडणं फिरणं हे माधुरी बरोबर खूप झालं, फिरकी दिवाळी अंकाच्या संपादिका शोभा ठाकूर यांची ओळख माधुरीच्या मिस्टरांनी करून दिली, मी फिरकीची सहसंपादक झाले, असा साहित्य क्षेत्रात माझा शिरकाव झाला आणि शोभा ठाकूर ही मुंबई ची मैत्रीण मिळाली.त्याचकाळात लेखिका नंदा सुर्वे यांच्याशी खूप घनिष्ठ मैत्री झाली,नंदाताईंचं घर हे मला खूप शाश्वत, हक्काचं ठिकाण वाटतं!

पुढे “काव्यशिल्प”  या कवींच्या संस्थेत मीरा शिंदेंशी पहिल्यांदा मैत्री झाली.मीराताई मैत्रीण वाटण्यापेक्षा मोठी बहिण जास्त  वाटतात, त्यांच्यामैत्रीत एकप्रकारचं वेगळेपण आहे.

त्या नंतर मीनल बाठे, स्वाती सामक, स्नेहसुधा कुलकर्णी,ज्योत्स्ना चांदगुडे यांच्याशी खूप जवळची मैत्री झाली. आम्ही पाचजणींनी “मैत्रपंचमी” हे आत्मकथनपर पुस्तकही प्रकाशित केलं…..आयुष्याच्या जडणघडणीत आम्हा पाचजणींना एकमेकींची साथ खूप मोलाची ठरली आहे.

आयुष्यात खूप मैत्रीणी येऊन गेल्या ज्यांच्यामुळे आयुष्य सुखकर झालं अभिनेत्री ज्योती चांदेकर ही सुद्धा खूप जवळची मैत्रीण, तिच्यामुळे ओळख झालेली मीना जावडेकरही खूप प्रेमळ आणि काळजीवाहू मैत्रीण,आम्ही तिघी एकमेकींना खूप छान ऐकून घेतो आणि ऐकवतोही.या पाच सहा वर्षांत खूप जवळीक निर्माण झालेलं हे मैत्र !

खरंतर एक एक मैत्रीण ही एक एक कादंबरीच होईल! वर्षा कुलकर्णी ही सुद्धा खूप जवळची वृत्तबद्ध कवितेचा अभ्यास असलेली,माझ्यावर उदंड प्रेम करणारी मैत्रीण!

प्रसिद्ध कवयित्री आसावरी काकडे,अंजली कुलकर्णी, आश्लेषा महाजन, मृणालिनी कानिटकर या मैत्रीणी असल्याचा सार्थ अभिमान!

सामाजिक कार्यकर्ती सरोज फडके, स्नेहलता धूत ही स्वाध्याय महाविद्यालयात  एम.ए. करताना मिळालेली हुशार मैत्रीण ! शीला शेळके,भक्ती पंडित, मेघना कुलकर्णी,लाजवंती साळुंकेआणि कवयित्री वैशाली मोहिते ही नावं घेतल्याशिवाय ही “सहेलियोंकी बाडी” पूर्ण होऊच शकत नाही. “सहेलियोंकी बाडी” राजस्थानातलं राजकन्येला तिच्या मैत्रीणींबरोबर खेळण्यासाठी राजानी बनवलेलं एक उद्यान आहे. माझ्यासाठी माझी प्रत्येक मैत्रीण  राजकुमारी आणि तिची मैत्री हे एक  सुंदर  उद्यानच आहे !        

अजून बरीच नावं नाही लिहिली गेली, विस्मरणात गेली, ज्ञात अज्ञात सर्व मैत्रीणींना हा लेख समर्पित!

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ सावधान, सचेत और सतर्क ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “सावधान, सचेत और सतर्क”.)

☆ संस्मरण ☆ सावधान, सचेत और सतर्क ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(यादों के झरोखे से)

ट्रिन ट्रिन ……. मेरा हेलमेट कहां है ? Mrs बोली  सुबह सुबह क्या हो गया है, हेलमेट तो पुराने स्कूटर के साथ free में ही 14 वर्ष पूर्व ही दे दिया था।

क्या सपना देख रहे थे , हां  मैं अपने स्कूटर से हॉर्न बजा रहा था ट्रिन ट्रिन,तो Mrs बोली अरे वो दूधवाले का भोपू है उठो और उसके पैसे भी दे देना आज 4 तारीख़ हो गई है।

मुझे रात की बात याद आई अपने शर्मा का फोन था कह रहा था लफड़ा हो गया है। उसने 1995 में कोई abc स्कूटर बुक किया था 500 देकर। तीन माह बाद उसने डीलर से वो राशि नगद में वापिस ले ली थी। 2010 में उसे कोर्ट से सम्मन आया की आपकी स्कूटर से x की मृत्यु हो गई है। कई वर्षो से सिविल मुकदमा चलता रहा और अब सेशन कोर्ट ने victim को एक बड़ी राशि देने का निर्णय दिया है। RTO से कोई भी जानकारी शर्मा नहीं प्राप्त कर सका, हालांकि कोर्ट को आरंभ में शर्मा की पूरी जानकारी दी होगी। अब शर्मा उच्च न्यायालय में अपील कर रहा है।

रात को यही सब बाते हुई थी, इसलिए वैसे ही सपने आए! हमारे बुजुर्ग सही कहते थे संध्या काल में अच्छी और धार्मिक बातें ही करनी चाहिए।

मेरे कुछ मित्र अभी तक 25/30 वर्ष पुराने स्कूटर रखे हुए है। उनकी समस्या ये है कि कबाड़ी को बेचे तो वो इसका गलत उपयोग (बम…) के लिए भी कर सकता है।

आजकल तो इन स्कूटर को समान ढोने  वाले रिक्शा के रूप में उपयोग कर रहे है। कोई कहता है इसको कटवा कर बेचना चाइए।

एक मित्र ने कहा हम तो इसको नही बेचेंगे इसके कई फायदे है आस पास के काम निपटा सकते है और जब तक पोर्च में खड़ा रहता है तो इस पर बैठ कर lock down में समय कट जाता है।लेकिन एक बात और भी बताई कि बच्चों की शादी करने के लिए Bio data में अपने status में ये भी लिख देते है कि “maintaining two wheeler and four wheeler (उनके पास कार भी तो है)।

अब बात स्कूटर की है, तो आप बीती भी बता देता हूं ! 80 के आरंभिक दशक में हमने भी तीन स्कूटर बेचे थे जिनका स्थानांतरण 2 वर्ष बाद ही हो सकता था उनके चालान आते रहे और हम राशि भरते रहे थे। क्रेता ने भी अपने नाम स्थानांतरण नहीं करवाया था।जिस बिचोलिए के माध्यम से बेचे थे वो भी इस मामले में अनिभिज्ञ था।

इसलिए हमेशा सावधान, सचेत और सतर्क रहे!

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ लेखांक # 9 – मी प्रभा… मैत्रबन ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ लेखांक# 9 – मी प्रभा… मैत्रबन ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

मी अशा काळात आणि समाजात जन्माला आले जिथे बायकांना मित्र नसतात पण लहानपणापासून मला खूप चांगले मित्र मिळाले आहेत, मी पाचवीत असताना, दिलीप मैंदर्गी आणि राजेंद्र किल्लेदार या मित्रांबरोबर शाळेत जात असे.

पुण्यात पाचवी सहावीत शिकत असताना हे दोनमित्र !….नंतर सातवीत असताना शिरूरला गेले, शाळा मुलामुलींची असली तरी मुलंमुली बोलत नसत! त्या शाळेत असताना अनेक मैत्रीणी मिळाल्या, राणी गायकवाड, सरस बोरा, उज्वल धारिवाल, निर्मल गुंदेचा, संजीवनी कळसकर इत्यादी !

नववीत असताना मी आणि राणी गायकवाड एकाच बाकावर बसत असू आणि शाळेत ही बरोबरच येत जात असू,

नववीत असताना आमच्या आयुष्यात अशी घटना घडली की,आयुष्यभर त्या घटनेचे पडसाद येत राहिले, एका काॅलेज मधल्या मुलाने आमच्या दोघींच्या नावे एक पत्र लिहिले होते, मी तुमच्याशी मैत्री करायचे ठरविले आहे….वगैरे !

माझ्या मैत्रीणीला तो मुलगा आवडला होता, म्हणजे प्रेमप्रकरण नाही पण ते एकमेकांकडे पहात असत,हसत असत, मी एकदा  तिच्या घरी गेले असताना तिने तिच्या खिडकीतून रस्त्याच्या पलिकडे उभा असलेला तो मुलगा दाखवला आणि म्हणाली, तो रोज संध्याकाळी इथे उभा असतो,मी या कशातच नव्हते, त्या काळात आमच्या भावांना कोणी सांगितलं की एखादा मुलगा आमच्या मागे आहे की त्या मुलाची चांगलीच पिटाई होत असे.तशी त्या मुलाचीही झाली,त्या मुलाचे नाव वसंत पाचरणे !

काॅलेजमधे गेल्यावर खूपच विचित्र योगायोगाने मी वसंत पाचरणेशी बोलायला लागले.त्याने मला “कुसुमानील” हे कुसुमावती देशपांडे आणि कवी अनिल यांच्या पत्रांचा संग्रह असलेलं पुस्तक वाचायला दिलं,त्यानंतर मी अनिल, बी,बोरकर, पद्मा गोळे,भा.रा.तांबे यांचे कविता संग्रह वाचले, वसंत पाचरणेची मैत्री माझ्या आयुष्यातला टर्निंगपाॅईंट ठरली आहे.

संशयास्पद ठरली तरी ती निखळ, स्वच्छ मैत्री होती, वयाची पासाष्टी ओलांडल्यानंतर स्वतःकडे तटस्थपणे पहाताना हेच जाणवतं काॅलेज मधल्या त्या मैत्री मुळेच पुढील आयुष्यात माझ्या जाणिवा प्रगल्भ झाल्या !

प्रतिकुल परिस्थितीतून बाहेर पडून काव्यक्षेत्रात पाय ठेवता आला,काव्यक्षेत्रात अनेक चांगले मित्रमैत्रीणी मिळाल्या, सगळ्यांचीच नावं घेणं शक्य नाही नाहीतर हा लेख म्हणजे केवळ नामावलीच होईल!

या लेखात मी फक्त मित्र हाच विषय घेतला आहे,वर उल्लेख केलेल्या मैत्रीणी ज्या काळात होत्या तेव्हा कुणीही मित्र नव्हता!

काव्यक्षेत्रातला विशेष उल्लेखनीय  मित्र म्हणजे अॅडव्होकेट प्रमोद आडकर रंगत संगत प्रतिष्ठानचे अध्यक्ष, रंगत संगत या संस्थेशी १९९३ पासून निगडित आहे.या संस्थेत सूत्रसंचालनाच्या अनेक संधी मिळाल्या,साहित्य, नाट्य,कला क्षेत्रातील अनेक मातब्बर लोकांना भेटता आलं! अनेक कविसंमेलनाच्या  आयोजनात सहभागी होता आलं!

रंगत संगत ची कार्याध्यक्ष म्हणून काम पाहिले,एकूण ही कारकीर्द समाधान कारक!

या सात आठ वर्षांत व्हाॅटस् अॅप ग्रुप मुळे शाळेत असताना वर्गातील न बोलणारी मुलं आता चांगले मित्र झाले आहेत, पन्नालाल कोठारी,दीपक भटेवरा,सुभाष जैन, दिलीप बोरा, धरमचंद फुलफगर, राजू वाघ डाॅ ढवळे इत्यादी अनेक चांगले मित्र  व्हाॅटस अॅप मुळे मिळालेले !

आणखीन एका मित्राचा उल्लेख  मला करायचा आहे, मी त्यांना भाईसाब म्हणते आणि आमची अजूनही प्रत्यक्ष भेट झालेली नाही,पण खूप चांगली दखल घेऊन मला सतत लिहितं ठेवणारे ईअभिव्यक्ती चे संपादक श्री.हेमंत बावनकर हे सुद्धा एक चांगले मित्र आहेत.

माझ्या आयुष्यात मैत्रीणींचं स्थानही खूप महत्वाचं आहे. ही “सहेलियोंकी बाडी” ही खूप संपन्न आहे पण मैत्रबनात मला मुख्यत्वेकरून मित्रांचाच उल्लेख करायचा होता कारण स्त्रीपुरूष मैत्री कडे अजूनही दुषित नजरेने पाहिले जाते !

स्री च्या आयुष्यात बाप, भाऊ,नवरा, प्रियकर या नात्यांइतकंच मित्र हे नातं महत्त्वाचं आहे……या निखालस  नात्याचे नितांत सुंदर अनुभव मी घेतले आहेत.

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ जीवन की Balance Sheet ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “जीवन की Balance Sheet”.)

☆ संस्मरण ☆ जीवन की Balance Sheet ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(इतिहास के झरोखों से)

हमारे प्रिय मित्र ने आदेश दिया की आइना के सामने जाकर आज अपनी जिंदगी का लेखा जोखा पेश करो।आजकल समय कुछ नेगेटिव बातो का है तो हमे भी लगने लगा कहीं चित्रगुप्त के सामने पेश होने की ट्रेनिंग तो नहीं हो रही। अभी तो जिंदगी शुरू की है रिटायरमेंट के बाद से।

खैर, हमने इंटरव्यू की तैयारी शुरू कर दी और अपनी सबसे अच्छी वाली कमीज़ (जिससे हमने स्केल 3 से लेकर 5 के interview दिए थे वो मेरा lucky charm थी)  पहन, जूते पोलिश कर आइना खोजने लगे। अरे ये क्या? आइना कहां है? मिल नहीं रहा था, मिलता भी कैसे आज एक वर्ष से अधिक हो गया जरूरत ही नहीं पड़ी।

श्रीमती जी से पूछा तो बोली क्या बात है, अब Covid की दूसरी घातक लहर चल पड़ी है तो आपको सजने संवरने की पड़ी है, अपने उस मोबाइल में ही लगे रहो। एक साल से सब्जी की दुकान तक तो गए नहीं। अब जब सारी दुनिया दुबक के पड़ी है और आपको जुल्फें संवारने की याद आ रही है।

हमने उलझना ठीक नहीं समझा और बैठ गए मोबाइल लेकर, दोपहरी को जैसे ही श्रीमतीजी नींद लेने लगी हम भी अपने मिशन में लग गए और आइना खोज लिया। एक निगाह अपनी नख से शिखा तक डाली और थोड़ी से चीनी खाकर चल पड़े।अम्माजी की याद आ गई जब भी घर से किसी अच्छे काम के लिए जाते थे तो वो मुंह मीठा करवा कर ही बाहर जाने देती थी और आशीर्वाद देकर कहती थी जाओ सफलता तुम्हारा इंतजार कर रही है। हमने भी मन ही मन अपनी सफलता की कामना कर ली।

जैसे ही आईने के सामने पहुंचे मुंह से निकल ही रहा था May I come in, sir लेकिन फिर दिल से आवाज़ आई अब तुम स्वतंत्र हो, डरो मत,आगे बढ़ो।आईने में जब अपने को देखा तो लगा ये कौन है लंबी सफेद दाढ़ी वाला पूरे चेहरे पर दूध सी सफेदी देख कर निरमा Washing Powder के विज्ञापन की याद आ गई ।

अपने आप को संभाल कर हमने अपने कुल देवता का नमन किया।

पर ये क्या मन बहुत ही चंचल होता है विद्युत की तीव्र गति से भी तेज चलता है हम भी पहुंच गए कॉलेज के दिनों में स्वर्गीय प्रोफ सुशील दिवाकर की वो बात जहन में थी जब हमारी बढ़ी हुई दाढ़ी पर उन्होंने कहा था “Not shaving” तो हमने एकदम कहा था ” No sir Saving” वो खिल खिला कर हंसने लगे।बहुत ही खुश मिजाज़ व्यक्ति थे।

अब कॉलेज के प्रांगण में थे तो प्रो दुबे एस एन की याद ना आए ऐसा हो ही नहीं सकता, Economics को सरल और सहज भाव में समझा देते थे आज भी उनकी बाते ज़ुबान पर ही रहती है।

एक दिन कक्षा में Demand और Supply पर चर्चा हो रही थी।उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों का वर्णन करते हुए बतलाया कि सरकार जब अपने स्तर पर मज़दूर को रोज़गार देती है तो उससे Demand निकलती है, मजदूर पेट भरने के बाद कुछ अपने पर खर्च करने की सोचता है,अपनी Shave करने के लिए बाज़ार से एक Blade खरीदता है,और शुरू हो जाती है Demand, दुकानदार, होलसेलर को ऑर्डर भेजता है और होलसेलर फैक्ट्री को ऑर्डर भेजता है, फैक्ट्री जो बंद हो गई थी मजदूर लगा कर फैक्ट्री चालू कर देता है और रोज़गार देने लगता है।कैसे एक Blade से रोज़गार शुरू होता है।

अपनी लंबी दाढ़ी देख कर हम भी आपको कहां से कहां ले गए, इसलिए आइना नही देख रहे थे हम आजकल।

Note: हमने किसी दाढ़ी बढ़ाए हुए को भी आइना दिखाने की कोशिश नहीं की।?

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ 27 साल पहले की 26 जनवरी की यादें… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है अविस्मरणीय संस्मरण  ‘27 साल पहले की 26 जनवरी की यादें…। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ संस्मरण ☆ 27 साल पहले की 26 जनवरी की यादें… ☆  

(श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं ।  उन्होंने 19 वर्षों तक जम्मू और कश्मीर में ऑल इंडिया रेडियो के संवाददाता के रूप में काम किया ।  बाद में वह 2006 में समाचार दूरदर्शन केंद्र हिसार के निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हुए । )

वर्ष 1995 में जम्मू के मौलाना आज़ाद स्टेडियम में आयोजित गणतंत्र दिवस समारोह के दौरान जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल, जनरल केवी कृष्णराव को मारने के उद्देश्य से आतंकवादियों द्वारा किए गए  धमाकों ने भारतीय मानस को बुरी तरह हिला दिया था ।

राज्यपाल बाल बाल बच गए लेकिन आठ अन्य व्यक्तियों की मौत हो गई और 40 से अधिक घायल हो गए। तीन टाइम बम एक के बाद एक निर्धारित स्थानों पर फटे थे।

पहला ब्लास्ट राज्यपाल के भाषण खत्म होने से कुछ मिनट पहले मुख्य गेट के पास हुआ ।  दूसरा पब्लिक ब्लॉक के पास हुआ, जहां राज्य सूचना विभाग के कर्मचारी पब्लिक एड्रेस सिस्टम को संभाल रहे थे।  मारे गए लोगों में मेरे मित्र फील्ड पब्लिसिटी ऑफिसर अनिल अबरोल और उनके दो साथी कर्मचारी शामिल थे। 

उनके पीछे मीडिया के लोग बैठे थे, पर वे सभी सुरक्षित बच गए। तीसरा ब्लास्ट उस मंच के करीब था जहां राज्यपाल भाषण दे रहे थे ।

जम्मू कश्मीर में ऑल इंडिया रेडियो के वरिष्ठ संवाददाता होने के नाते मुझे वहां होना चाहिए था लेकिन मैं वहां नहीं पहुंच सका।

मुझे लेने के लिए सरकारी गाड़ी  समय पर मेरे पास नहीं पहुंची।  सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए सरकारी गाड़ी ही ठीक रहती है। जब तक मैं कर सकता था, तब तक इंतजार करने के बाद, मैंने अपनी कार निकाली और अपने निजी सुरक्षा अधिकारी को अपने साथ लेकर गणतंत्र दिवस समारोह स्थल के लिए रवाना हो गया ।

सुरक्षाकर्मियों ने मुझे ज्यूल चौक पर यह कहते हुए रोका कि राज्यपाल पहले ही आ चुके हैं और इसके बाद किसी को भी आने की अनुमति नहीं दी जानी थी ।  मैंने उन्हें बताया कि मैं कौन था और मेरा वहां होना कितना महत्वपूर्ण था ।  मेरा प्रेस कार्ड, कार पास और स्टेनगन के साथ मेरे पीएसओ की उपस्थिति का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ा।

इसी दौरान वहां एक वरिष्ठ अधिकारी आए और कहने लगे कि वे मुझे पहचानते हैं पर  किसी को भी प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा सकती ।  यदि अनुमति दी जाती है, तो यह उनकी नौकरी का सवाल हो सकता है, उन्होंने तर्क दिया ।  मुझे पहले ही देर हो चुकी थी । 

अधिकारी ने स्टेडियम तक पहुंचने के लिए मुझे एक और रास्ता बताया।  उन्होंने मुझे सलाह दी कि साइड रोड लेकर सामान्य पार्किंग के लिए निर्धारित  गांधी मेमोरियल कॉलेज से होकर थोड़ा पैदल चल स्टेडियम के गेट पर पहुंचा जा सकता है।  मैंने अपनी कार कालिज में छोडी़ और स्टेडियम के मुख्य द्वार तक पहुंचने के लिए  एक छोटे से लकड़ी के पैदल पुल को पार करने वाला था, कि एक बड़ा विस्फोट सुनाई पड़ा और धुआं उठता देखाई दिया। मैंने सोचा कि यह कलाकारों द्वारा किसी नाटक प्रस्तुति का हिस्सा हो सकता है। लेकिन जल्द ही बड़ी संख्या में लोग स्टेडियम से बाहर भागते दिेखाई दिए ।  दो और धमाके हुए और फिर हर तरफ भागमभाग की अराजकता थी ।

पी एस ओ ने कहा तुरन्त वापिस चलिए और हम कार को दूसरे रास्ते से लेते हुए रेडियो कालोनी लौट आए। कुछ और जानकारी जुटा घर से ही आकाशवाणी दिल्ली को समाचार फाइल कर दिया। विस्तृत ब्यौरा बाद में दिया।

राज्यपाल ने दोपहर बाद 4 बजे राजभवन में प्रेस कांफ्रेंस बुलाई। उन्होंने जानकारी दी कि आतंकवादियों ने उन स्थानों पर टाईम बम दबा दिए थे जहां से राज्यपाल को गुज़रना था। गणतंत्र दिवस समारोह की हर गतिविधि का निर्धारित समय निमंत्रण कार्ड से ले लिया गया होगा। 

1990 के बाद से राज्य में भड़की आतंकवादी हिंसा में टाईम बम से विस्फोट का यह पहला मामला था। आतंकवाद की टैक्नोलॉजी ने ख़तरनाक रुप

ले लिया था।   इसके पीछे निश्चित रूप से पाकिस्तान का हाथ था। ऐसी योजना पर अमल पाकिस्तान की आईएसआई गुप्तचर संस्था की भागीदारी के बिना नहीं किया जा सकता था।

एक पत्रकार ने राज्यपाल से पूछा कि क्या वह विस्फोटों से घबरा नहीं गए थे क्योंकि एक के बाद एक तीन बम फटे  थे ।

सेना के पूर्व प्रमुख रहे जनरल कृष्णाराव शांत मुद्रा में थोड़ा मुस्कुराए और कहा, “सैनिक के रूप में, हम एक अलग ही मिट्टी से बने होते हैं ।”

अब मैं कभी कभी सोचता हूं कि  क्या मैं सरकारी गाड़ी समय पर न आने और पुलिसकर्मियों द्वारा मुझे लम्बे रास्ते पर डाल कर और ज्यादा लेट करने से ही शायद एक सम्भावित बड़ी दुर्घटना से बच गया? लेट  होते समय मुझे  गुस्सा आ रहा था और मैं कुछ चिड़चिड़ा भी हो रहा था। पर बचाव हो गया तो ये कारक अच्छे भी लगे। एक राहत सी महसूस हुई।

यह सब क्यों हुआ, कैसे हुआ, इसे शायद कोई नहीं जानता। भाग्य और किस्मत की बातों में भी मेरा यकीन नहीं। जो कुछ होता है, बाई चांस ही होता है। अच्छे बुरे कर्मों का सिद्धान्त भी सही नहीं बैठता। सावधानी से एक हद तक बचाव होता है पर हमेशा नहीं। बस सावधानी रखें, बाकी चांस पर छोड़ दें। चांस का सिद्धान्त क्या है, इसे अल्गोरिदम ढूंढने की कोशिश कर रहा है। फिलहाल इसे भगवान ही जानता है या फिर वह भी नहीं हो जानता है । 

 

 ©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ यादों के झरोखे से… दास्तां दो पंजाबी दोस्तों की … ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है अविस्मरणीय मित्रता की मिसाल  ‘यादों के झरोखे से… दास्तां दो पंजाबी दोस्तों की …’। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ जीवन यात्रा ☆ यादों के झरोखे से… दास्तां दो पंजाबी दोस्तों की … ☆  

गुरमीत ने कश्मीर सिंह को मौत के मुंह से बचा लिया…….

गुरमीत चंद भारद्वाज और कश्मीर सिंह पंजाब के होशियारपुर जिले के अपने पैतृक गांव नंगल खिलाड़ियां में बचपन में ही दोस्त बन गए थे।  फुटबॉल के खेल ने उनकी दोस्ती को और मजबूत किया पर स्कूल की पढ़ाई के बाद उनके रास्ते अलग-अलग हो गए। 

कश्मीर सिंह पहले भारतीय सेना में भर्ती हुए और चार साल बाद नौकरी छोड़ पंजाब पुलिस में शामिल हो गए। और फिर 1973 में गायब हो गए ।

कई साल बाद, पता चला कि वह पाकिस्तान की जेल में बंद था और भारतीय जासूस होने के लिए दी गई अपनी मौत की सजा का इंतज़ार कर रहा था। 

गुरमीत भारद्वाज ने बी ए,एम ए करने के बाद यू पी एस सी की प्रतियोगिता पास की और वर्ष 1969 में भारतीय सूचना सेवा में आ गए । दिल्ली और शिमला में सूचना और प्रसारण मंत्रालय के विभिन्न विभागों में वरिष्ठ पदों पर काम करते हुए, वे 2006 में ऑल इंडिया रेडियो चंडीगढ़ में समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए । 

गुरमीत जब भी अपने गांव जाते तो वे अपने गुमशुदा दोस्त कश्मीर सिंह की पत्नी परमजीत कौर से भी मिलते।  वह कहती, अब तुम बड़े अफसर बन गए हो, कश्मीर सिंह की रिहाई के लिए भी कुछ करो। 

गुरमीत ने कश्मीर सिंह की रिहाई के लिए कई पत्र विदेश  मंत्रालय को लिखे लेकिन कुछ भी होते नहीं लग रहा था ।

(1 -2.  कश्मीर सिंह 50 वर्ष पहले और अब 3. गुरमीत चंद भारद्वाज)

और फिर, गुरमीत को सार्क शिखर सम्मेलन के लिए 2004 में भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पाकिस्तान यात्रा को कवर करने के लिए ऑल इंडिया रेडियो द्वारा इस्लामाबाद भेजा गया।  वह पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की प्रेस कॉन्फ्रेंस को कवर कर रहे थे, जब उसने अपने दोस्त कश्मीर सिंह के लिए कुछ करने का एक मौका देखा ।  उन्होंने जनरल से पूछा कि पाकिस्तान उन भारतीय कैदियों को क्यों नहीं रिहा कर रहा है जिन्होंने अपने कारावास का कार्यकाल पूरा कर लिया था ।  जनरल ने ऐसे किसी भी कैदी के पाकिस्तानी जेल में होने से इनकार किया लेकिन गुरमीत कागज के एक टुकड़े पर विवरण के साथ तैयार थे। कश्मीर सिंह की पत्नी परमजीत कौर की तरफ से लिखी गई एक दरखास्त उन्होंने पाकिस्तान के विदेश मंत्री कसूरी को थमा दी। कसूरी ने वादा किया  कि इस मामले में वे शीघ्र उचित करवाई करेंगे।

इस बीच गुरमीत ने पाकिस्तान के एक और मंत्री अंसार बर्नी से दोस्ती भी कर ली जो मानव अधिकारों के मामलों में विशेष रुचि रखते थे। 

गुरमीत 2006 में रिटायर हो गए पर अपने दोस्त कश्मीर सिंह को पाकिस्तान से बाहर लाने के लिए लगातार प्रयास करते रहे ।  करीब 35 साल तक पाकिस्तान की नौ जेलों में रहे कश्मीर सिंह आखिरकार 2008 में रिहा हो कर भारत आ गए। यह कश्मीर सिंह के लिए एक नया जीवन था और उनके करीबी दोस्त गुरमीत चंद के लिए एक बड़ी संतुष्टि थी।

पंजाब सरकार और कुछ व्यक्तियों ने कश्मीर सिंह को कुछ वित्तीय मदद दी।  पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने  10 हज़ार रूपये महीना की पेंशन लगा दी। कश्मीर सिंह की पत्नी को महालपुर कस्बे में एक आवासीय प्लॉट दिया गया। उनके बेटे को शिक्षा विभाग में क्लर्क की नौकरी दी गई।

कश्मीर सिंह की उम्र 80 साल से अधिक है और वह अपने पैतृक गांव नंगल खिलाड़ियां में रहते हैं ।  गुरमीत चंडीगढ़ में बस गए हैं, लेकिन अक्सर अपने गांव जाते हैं ।  वे पिछले 41 वर्षों से जूनियर और सीनियर स्तर के फुटबॉल टूर्नामेंट का आयोजन कर रहे हैं। उन्होंने गांव के विदेशों में जा बसे अपने दोस्तों की आर्थिक मदद से गांव में फुटबॉल स्टेडियम बनवाया है ।

कश्मीर सिंह और गुरमीत भारद्वाज फुटबॉल के प्रति अपने पुराने जनून को अब गांव के युवा खिलाड़ियों में जगा रहे हैं।

 ©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ बेजुबान की आत्मकथा ☆ श्री राकेश कुमार

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है स्मृतियों के झरोखे से संस्मरणों की कड़ी में अगला संस्मरण – “बेजुबान (तख़्त) की आत्मकथा”.)   

☆ संस्मरण ☆ बेजुबान (तख़्त) की आत्मकथा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

(इतिहास के झरोखों से)

हमारा जीवन परिवर्तनों के कई दौर से गुजर चुका है। एक समय था घर की बैठक खाना (Drawing Room) में एक बड़ा सा तख्त रहता था, जिस पर हमारे दादाजी विराजमान रहते थे।  क्या मजाल कि कोई उस पर बैठ सके, पिताजी भी नीचे दरी पर आसन लगा कर उनके चरणों की तरफ बैठ कर उर्दू दैनिक “प्रताप” से खबरें सुनाते थे क्योंकि दादाजी की नज़र बहुत कमज़ोर हो गई थी। शायद यही कारण रहा होगा।  मेरी लेखनी में भी कई बार उर्दू के शब्दों का समावेश हो जाता है। घर के वातावरण का प्रभाव तो पड़ता ही है ना।

दादाजी ने साठवे दशक के मध्य में दुनिया से अलविदा कहा और उनके जाने के पश्चात तख्त (तख्ते ताऊस) की भी बैठक खाने से विदाई दे दी गई। क्योंकि वो तीन टांगो के सहारे ही था एक पाए के स्थान पर तो बड़ा सा पत्थर रखा हुआ था।

अब घर में Drawing Room की बाते होने लगी थी, पिताजी ने सब पर विराम लगा दिया कि एक वर्ष तक कुछ भी नया नहीं होगा क्योंकि एक वर्ष शोक का रहता है। हमारी संस्कृति में ये सब मान दंड धर्म के कारण तय थे।

एक वर्ष पश्चात निर्णय हुआ कि कोई सोफा टाइप का जुगाड किया जाय और अब उसको Drawing Room कहा जाय।

इटारसी की MP टीक से 1966 में मात्र 130 में  (2+1+1) का so called sofa set बन गया था।

अभी lock down में जब मैं अधिकतर समय घर पर बिता रहा हूं तो कल दोपहर को जब मोबाइल पर लिख रहा था तो आवाज सी आई कभी हमारे पे भी तवज्जो दे दिया करे बड़े भैया। मैने चारो तरफ देखा कोई नहीं है Mrs भी घोड़े बेच कर सो रही है। फिर आवाज़ आई मैं यहीं हूं जिस पर आप 55 वर्ष से जमे पड़े हो। आपका बचपन, जवानी और अब बुढ़ापे का साथी सोफा बोल रहा हूँ। आपने उस मुए fridge पर तो मनगढ़ंत किस्से लिख कर उसकी market value बढ़ा दी। हमारा क्या ?

वो तो हम चूक गए नहीं तो fevicol के विज्ञापन (एक TV adv में पुराने लकड़ी के सोफे की लंबी यात्रा का जिक्र है @ मिश्राइन का सोफा)  में आप और मैं दोनों छाए रहते रोकड़ा अलग से मिलता!

वो भी क्या दिन थे जब कई बार पड़ोस में जाकर कई रिश्ते तय करवाए थे। लड़के वालो पर impression मारने के लिए मुझे यदा कदा बुलाया जाता था। मोहल्ले में मुझे तो लोग रिश्तों के मामले में lucky भी कहने लग गए थे। ऐसा नहीं, मोहल्ले के लड़को की reception में भी जाता था। स्टेज पर दूल्हा और दुल्हन मेरी सेवाएं ही लेते थे। परंतु वहां मेरे two seater पर पांच पांच लोग फोटो के चक्कर में चढ़ जाते थे। रात को मेरी कमर में दर्द होता था। आपके बाबूजी पॉलिश/ पेंट से तीन साल में मेरे शरीर को नया जीवन दिलवा देते थे। खूब खयाल रखते थे। हर रविवार को कपड़े से मेरे पूरे बदन को आगे पीछे से साफ कर मेरी मालिश हो जाती थी। उनके जाने के बाद आप तो बस अब रहने दो मेरा मुंह मत खुलवाओ कभी सालों में ये सब करते हो।

उस दिन आप मित्र को कह रहे थे इसको भी साठ पर retd कर देंगे भले ही आप तो retirement  के बाद भी लगे हुए हो। कहीं पड़ा रहूंगा। क्योंकि शहरों में अब तो चूल्हे के लिए कोई पुरानी लकड़ी को free में भी नहीं लेते। सरकार की तरफ से LPG का इंतजाम जो कर दिया गया है।

आपकी तीन पीढ़ियों का वजन सहा है, मैं कहीं ना जाऊंगा भले ही दम निकल जाए।

मैने सोचा बोल तो शत प्रतिशत सही रहा है, अपने प्रबुद्ध मित्रो से Group में इस विषय पर  विचार विमर्श करेंगे। 

 

© श्री राकेश कुमार 

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – संस्मरण ☆ लेखांक # 7 – मी प्रभा… अभिमंत्रित वाटा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? आत्मकथन ?

☆ लेखांक# 7 – मी प्रभा… अभिमंत्रित वाटा ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आयुष्य खूप सरळ साधं होतं, वीस वर्षाची असताना लग्न, बाविसाव्या वर्षी मुलगा, घर..संसार इतकंच आयुष्य !

पण वयाच्या चौदाव्या वर्षीच माझ्या आयुष्यात “ती ” आली होती, तिच्या विषयी मी असं लिहिलंय, 

ही कोण सखी सारखी,

माझ्या मागे मागे येते

हलकेच करांगुली धरूनी

मज त्या वाटेवर नेते —–

मला त्या अभिमंत्रित वाटेवर नेणारी माझी सखी म्हणजे माझी कविता!

कविता करायची उर्मी काही काळ थांबली होती, कालांतराने…कविता  सुचतच होती,  त्या मासिकांमध्ये प्रकाशित होत होत्या. १९८५ बहिणाई मासिकाने आयोजित केलेल्या कविसंमेलनात कविता वाचली.त्या संमेलनाचे अध्यक्ष होते कविवर्य वसंत बापट !ते “कविता छान आहे” म्हणाले, सर्वच नवोदितांना वाटतं तसं मलाही खूप छान वाटलं ! 

त्यानंतर अनेक काव्यसंस्था माहित झाल्या. काव्य वाचनाला जाऊ  लागले. एका दिवाळी अंकाचं काम  पहायची संधी अचानकच मिळाली, साहित्यक्षेत्रात प्रवेश झाला. लग्नाच्या  आधी मी कथा, कविता लिहिल्या होत्या ! लेखन हा माझा छंद होताच पण लग्नानंतर मी काही लिहीन असं मला वाटलं नव्हतं ! पण पुन्हा नव्याने  कविता कथा लिहू लागले !

या अभिमंत्रित वाटेवर चालताना खूप समृद्ध झाले. अनेक साहित्यिक भेटले. स्वतःची स्वतंत्र ओळख निर्माण झाली. लेखनाचा आनंद वेगळाच असतो. मी चांगलं लिहिते याची नोंद इयत्ता दहावीत असताना हिंदीच्या जयंती कुलकर्णी मॅडमनी घेतली होती, माझ्या सहामाही परिक्षेत लिहिलेल्या “फॅशन की दुनिया” या निबंधाचं त्यांनी भरभरून कौतुक केलं होतं.

पण भविष्यात मी लेखिका, कवयित्री, संपादक होईन असं मला वाटलं नव्हतं ! मी अजिबातच महत्वाकांक्षी नव्हते….नाही ! घटना घडत गेल्या आणि मी घडले . कदाचित पुण्यात असल्यामुळेही असेल ! कविसमुदायात सामील झाले,काव्यक्षेत्रात स्वतःची स्वतंत्र ओळख मिळाली !

वेगळं जगता आलं,हीच आयुष्यभराची कमाई ! मी शाळेत असताना शैलजा राजेंच्या खूप कादंब-या वाचल्या होत्या. लग्नानंतर त्या रहात असलेल्या सोमवार पेठेत रहायला आले. त्यांना जाऊन भेटले. पुढे त्यांनी माझ्या दिवाळी अंकासाठी कथाही पाठवली. मी “अभिमानश्री” या स्वतःच्या वार्षिकाचे जे चार अंक काढले,ते संपादनाचा चौफेर आनंद देऊन गेले.

अनेक साहित्यिक कलावंत भेटले, मुलाखती घेतल्या….कवितेचे अनेक कार्यक्रम केले.अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनात निमंत्रित कवयित्री म्हणून सहभाग नोंदवला! गज़ल संमेलनातही !

माझ्यासारख्या सामान्य स्त्रीला खूप श्रीमंत अनुभव या साहित्य क्षेत्रानेच मिळवून दिले…दोन नामवंत काव्य संस्थांवर पदाधिकारी म्हणून काम पहाता आलं, साहित्य विषयक चळवळीत सक्रिय सहभाग नोंदवतात आला !

खूप वर्षांपूर्वी कवयित्री विजया संगवई भेटल्या अचानक, टिळक स्मारक मंदिरात.  नंतर तिथल्या पाय-यांवर बसून आम्ही खूप गप्पा मारल्या. तेव्हा त्या म्हणाल्या होत्या, “आपण कवयित्री आहोत हे किती छान आहे, आपल्या एकटेपणातही कविता साथ देते,आपण स्वतः मधेच रमू शकतो “. ते अगदी खरं आहे !

नियतीनं मला या अभिमंत्रित वाटेवर आणून सोडल्याबद्दल मी खरंच खूप कृतज्ञ आहे…

अल्प स्वल्प अस्तित्व मज अमूल्य वाटते

दरवळते जातिवंत खुणात आताशा

अशी मनाची भावावस्था होऊनही बराच काळ लोटला…….

या वाटेवर मनमुक्त फिरताना उपेक्षा, कुचेष्टा, टिंगलटवाळीही वाट्याला आली, पण जे काही मिळालं आहे, त्या तुलनेत हे अगदीच नगण्य !

सांग “प्रभा” तुज काय पाहिजे इथे अधिक?

रिक्त तुझ्या या जीवनात बहरली गज़ल

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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