हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्वदेश दीपक : कहानी से नाटक में आकर दृष्टिकोण व्यापक हुआ ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

☆ संस्मरण ☆ स्वदेश दीपक : कहानी से नाटक में आकर दृष्टिकोण व्यापक हुआ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

(स्वदेश दीपक से मैंने अम्बाला छावनी उनके घर जाकर इंटरव्यू की थी दैनिक ट्रिब्यून के लिए। तब उपसंपादक की जिम्मेदारी थी। कभी सोचा नहीं था कि इंटरव्यूज पर आधारित कोई पुस्तक बन सकती है। पर एक फाइल सन् 2013 में हाथ लगी अपनी ही तो सारी इंटरव्यूज एक जगह मिलीं। उलट पलट कर देखा तो लगा यह तो एक पुस्तक है -यादों की धरोहर। इस रूप में सामने आई पर तब स्वदेश दीपक का इंटरव्यू नहीं मिला। पुराने समाचार की कटिंग से काम चलाया। अब कोरोना के एकांत और अकेलेपन के दिनों में अचानक बेटी रश्मि के हाथ मेरी सन् 1991की चंडीगढ़ एडमिनिस्ट्रेशन की डायरी लग गयी। पन्ने पलटने पर मैं हैरान। स्वदेश दीपक से इंटरव्यू के सारे नोट्स इसी डायरी में मिले। उनके साथ ही इसी डायरी में अम्बाला के राकेश वत्स और दिल्ली में मोहन राकेश की धर्मपत्नी अनिता राकेश के भी इंटरव्यूज के नोट्स देखे तो मन उस समय में पहुंच गया। जहां राकेश वत्स व अनिता राकेश के इंटरव्यूज मिल गये थे लेकिन स्वदेश दीपक का नहीं।  तो  सोचा फिर से कल्पना करूं कि मैं स्वदेश दीपक के सामने उनके घर बैठा हूं। अभी अभी गीता भाभी चाय के प्याले रख गयी हैं। ऊषा गांगुली भी कोलकाता से आई हुई हैं जो उनके नाटक कोर्ट मार्शल को मंचित करने की अनुमति मांग रही हैं। बीच में ब्रेक लेकर हमारी इंटरव्यू शुरू हो जाती है। लीजिए : एक बार नयी कोशिश। – कमलेश भारतीय

मैंने विधा बदल ली। कथाकार से नाटककार बन गया। इससे मुझे यह अहसास हुआ कि मेरा दृष्टिकोण व्यापक हो गया। सीधे दर्शकों के सम्पर्क में आया।  नाटक कोर्ट मार्शल ऊषा गांगुली बंगाली में अनुवाद कर मंचित करने जा रही हैं। बातचीत आपके सामने हो रही है। पंजाब से केवल धालीवाल चंडीगढ़ में इसे पंजाबी में मंचित करने जा रहा है। रंजीत कपूर काल कोठरी तो अल्काजी शोभायात्रा का मंचन करेंगे।

स्वदेश दीपक इस सबसे उत्साहित होकर कहने लगे कि कमलेश , देखो। कहानी प्रकाशित होती है तो दो लेखकों के खत आ गये और हम खुश हो लिए। इससे खुलेपन की ओर ले जा रहे हैं मुझे मेरे नाटक। खुलेपन की ओर यात्रा।

-नाटक से क्या हो जाता है?

-सीधा संवाद। विचार तत्त्व। मानवीय मूल्य। कहानी पढ़ने पर हम इतने उत्तेजित नहीं होते जबकि कोर्ट मार्शल को मंचित देख उत्तेजित होते दर्शक देखे हैं।

-दर्शक अच्छे नाटक का स्वागत् करते हैं?

-क्यों नहीं? दर्शक देखते भी हैं और ग्रहण भी करते हैं। नाटकों के माध्यम से पुनर्जागरण होता रहा है। यह कोई नयी बात नहीं।

-क्या ताकत है नाटक की?

-सामाजिक व राजनीतिक बुराइयों के खिलाफ लड़ने के लिए लिखे हुए शब्द से बोला हुआ शब्द ज्यादा कारगर साबित हो रहा है।

-आपमें कथाकार से नाटककार बन कर क्या बदलाव आया?

-अकेला सा , कटा सा महसूस कर रहा था। जीवन व्यतीत कर रहा था। अब कुछ बढ़िया महसूस कर रहा हूं।

-नाटकों का संकट क्या है आपकी नज़र में?

-सबसे बड़ा संकट यह है कि नब्बे प्रतिशत लोग किसी मिथ को लेकर नाटक लिखते हैं। लिखे जा रहे हैं – कबीर , कर्ण , अंधा युग  की परंपरा। मिथ को आधुनिक जीवन के साथ जोड़ कर लिखने के लिए मिथ का उपयोग नहीं किया गया। सामाजिक जीवन की मुश्किलें , राजनीति का हमारे जीवन में बढ़ता दखल , एक ही लाठी से सबको हांकते चले जाते राजनेता। समय आ गया है कि साफ साफ बात कही जाए। आड़ या ओट लेने का समय नहीं।

-नये नाटक शोभायात्रा के बारे में कुछ बताइए?

-सन् 1984 से शुरू होता है शोभायात्रा। मिथ में कहता हुआ। राजा रानी की कहानी कह कर। हिंदी में घबराहट पता नहीं क्यों है साफ बात कहने की। जबकि इसे साहसपूर्वक भी कह लिख सकते हैं। मैं पूजा भाव से किसी को नहीं देखता। राजनैतिक सत्यों को छिपा कर कहने का अब कोई अर्थ नहीं रहा। शोभायात्रा -एक प्रकार से है दुखों की यात्रा। मिथ तोड़ने की आवश्यकता है। भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता है जिसमें दूध दही  की नदियां बहती हैं। इस तरह की चुनौतियों को स्वीकार न करना ही सबसे बड़ा संकट है हिंदी में। नाटकों में। गिरीश कार्नाड जैसा आदमी भी मिथ का प्रयोग करता है।

-आप मिथ के विरोधी हैं?

-नहीं। मैं मिथ का विरोधी नहीं। मिथ को जीवन में उतार पाएं तो। नहीं तो नहीं कहें। बस। मशीनी मार्का लेखन की जरूरत क्या है? राजनीति जब लेखन पर हाॅवी हो जाती है तब लेखक की दृष्टि संकरी गली में चली जाती है। राजनीतिक विचारधारा को जब आरोपित कर देते हैं तब लेखन मशीनी होने लगता है।

-आपकी कहानियां मनोविज्ञान को जोड़  कर चलती हैं। कैसे?

-मनोविज्ञान जीवन से ही निकला है। विचार तत्त्व भूख से नहीं जुड़ा हुआ। धर्म के नाम पर लोगों को मारा जा रहा है। विदेशों को बेचने की तैयारी है। राजनीति से सेंकने की कोशिश जारी है। इसलिए ये खतरे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं जो हमारे जनजीवन को बुरी तब तरह प्रभावित करने लगी हैं। सब्जबाग दिखा रही हैं युवाओं को। हिंदुस्तान में ऐसे नहीं चल सकता। लेखक के लिए ये सारे उपकरण उपयोगी हैं। तब जाकर साहित्य बनता है कमलेश भाई।

-क्या कहानी में ताकत नहीं रही पाठक को झिंझोड़ कर रख देने की?

-कहानी की ताकत से इंकार नहीं। साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित मेरी अपाहिज कहानी पर भी खूब चर्चा मिली। पर नाटक की बात कुछ और है। खेला जाए तभी महत्त्वपूर्ण बनता है। दर्शक से जुड़ना नाटक से ही संभव हुआ।

-साहित्यिक उत्सवों में आप दिखाई नहीं देते। अपने ही नाटक के मंचन को दर्शकों से छुप कर देखते हैं। क्यों?

-साहित्यिक उत्सवों में जाना समय नष्ट करना है। कोई नयी बात नहीं होती। साहित्यिक पंडे नयी बात नहीं बताते। रास्ता नहीं दिखाते युवा लेखकों को।

-युवा लेखकों को कोई मंत्र?

-साहित्य में किसी की सीढ़ी पकड़ कर चलने वाला जल्दी लुढक जाता है। आलोचकों को खुश करने में विश्वास न रखें। विचारधारा लेखक को सौंपी जा रही है। जो साहित्य किसी विशेष विचारधारा के लिए लिखा जायेगा वह अपनी मौत मारा जायेगा। साहित्यिक मूल्यांकन तो दर्शक या पाठक ही करेगा।

-टेली फिल्मों का अनुभव?

-सुरेन्द्र शर्मा ने तमाशा कहानी पर टेली फिल्म बनाई। महामारी और तुम कब आओगे पर टेली फिल्में बनीं। नम्बर 57 स्क्वाड्रन पर आकाश योद्धा  स्वीकृत हो गया है। प्राइम टाइम के लिए। धीमान निर्देशित करेंगे।

स्मरण रहे कि वायुसेना में भी एक समय स्वदेश दीपक कार्यरत रहे। बाद में अंग्रेजी प्राध्यापक बने।

-किसने प्ररित किया नाटकों की ओर?

-अम्बाला के एम आर धीमान निर्देशक ने। उन्होंने कहा कि मैं कहानियां ही नहीं , नाटक लिख सकता हूं। नाटक की तकनीकी बारीकियां समझाईं। पहला नाटक इन धीमान को ही समर्पित। नाटककार बनने की प्रेरणा धीमान ने ही दी।

-कोई और अनुभव जो नये रचनाकारों को देना चाहें।

-लेखन में जल्दबाजी न करें। किसी बड़े रचनाकार की छत्रछाया न ढूंढें। चीज़ को अपने अंदर पकने दें। कई बार तीन तीन वर्ष तक एक कहानी को पकने में लगे। विचारधारा ओढ़ी हुई न हो। मैं कभी किसी गुट का हिस्सा नहीं बना। इसलिए कोई दुख भी नहीं है। पाठक और दर्शक से कोई उपेक्षा नहीं मिली। बहुत प्यार मिला। मिल रहा है।

-कोई पुरस्कार?

-बाल भगवान को जयशंकर प्रसाद पुरस्कार। उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी सन् 1989 पुरस्कार। और भी बहुत सारे।

यह इंटरव्यू संपन्न। और मैं जैसे एक सपने से जागा। अभी अभी तो मेरे सामने बातें कर रहे थे और डायरी पर मैं नोट्स ले रहा था और अभी कहां चले गये स्वदेश दीपक? जब से गये हैं कुछ खबर नहीं।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 91 ☆ आठवणी – जाहल्या काही चुका ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 91 ☆

 ☆ आठवणी – जाहल्या काही चुका  ☆ 

काही चूका शेअर केल्याने हलक्या होतात असं मला वाटतं,

मी माझी ऑक्टोबर 2020 मधली चूक सांगणार आहे. ती चूक कबूल करणं म्हणजे confession Box जवळ जाऊन पापांगिकार करण्याइतकी गंभीर बाब आहे असे मला वाटते.

गेले काही वर्षे माझ्या पायाला मुंग्या येत होत्या, डाॅक्टर्स,घरगुती उपाय करून झाले, पण मागच्या वर्षी मी बाहेर चालत जाताना पाय जड झाला आणि मला चालता येईना, ऑर्थोपेडीक,फिजिओ थेरपी सर्व झाले तरी बरं वाटेना, स्पाईन स्पेशालिस्ट ला दाखवलं,एम आर आय काढला, मणक्याची नस दबली गेली ऑपरेशन करावं लागेल असं डाॅक्टर नी सांगितलं, मार्च/एप्रिल मध्ये ऑपरेशन करायचं ठरलं, पण बाबीस मार्च ला लाॅकडाऊन झालं, कामवाली बंद, माझी सून लाॅकडाऊन च्या काळात आमच्या मदतीसाठी आली घरची आघाडी तिनं उत्तम सांभाळली! तीन महिन्यानंतर ती परत तिच्या फ्लॅटवर गेली……

माझ्या पायाच्या तक्रारी होत्याच ऊठत बसत स्वयंपाक करत होते, नव-याने घरकामात खुप मदत केली, माझी सून आणि नवरा यांना खुपच कष्ट पडले.

एक मैत्रीण म्हणाली मणक्याचं ऑपरेशन टळू शकतं मी स्पाईन क्लिनीक ची ट्रिटमेन्ट घेतेय मला बरं वाटतंय, तिथे जायचं धाडस केलं कारण कोरोना च्या काळात मी मला मधुमेह असल्यामुळे कुठेच बाहेर जात नव्हते कुणाकडे जात नव्हतो,कुणाला घरी येऊ देत नव्हतो!पण दोन  महिने माझा नवरा मला स्पाईन क्लिनीक मध्ये फिजिओ साठी घेऊन जात होता.घरी आल्यावर आम्ही अंघोळ करून वाफ घेत होतो, पण माझं दुखणं कमी होईना, शेवटी ऑपरेशन ला पर्याय नाही हे समजलं सेकंड ओपिनिअन घ्यायचं म्हणून डाॅ भणगेंची रूबी हाॅलची वेळ घेतली तिथे दोन अडीच तास वाट पाहिली डॉक्टरांची! मला तिथे निवर्तलेले आप्तेष्ट आठवले खुप अस्वस्थ झालं, नव-याला म्हटलं आपण उगाच इथे आलो…माझी मानसिकता समजणं शक्य नव्हतं त्याला..मग  भांडण झाल्यामुळे डॉक्टरांना न भेटता घरी ! काही काळ अबोला, मी पुन्हा पहिल्या डॉक्टरांना फोन केला त्यांनी चार वाजता बोलवलं व पाच दिवसांनी दीनानाथ मध्ये ऑपरेशन करायचं ठरलं, सर्व टेस्ट झाल्या, दीनानाथ ची भीती वाटत होती, माझी पुतणी म्हणाली काकी वॅक्सिन घेतल्यानंतर ऑपरेशन कर,दीनानाथ मध्ये जाऊ नको,कामवाली पण म्हणाली, “आई रूबी लाच ऑपरेशन करा!” मला ऑपरेशन ची भीती वाटत होती पण त्या काळात कोरोना ची भीती  वाटली नाही, माझं ऑपरेशन म्हणून सून आणि नातू आमच्याकडे सोमवार पेठेत रहायला आले, कोरोना ची तीव्रता कमी झाल्यामुळे कामवालीला  परत बोलवलं होतं, ऑपरेशन करणा-या डॉक्टरांनी “दीनानाथ मध्ये आता अजिबात भीती नाही, नाहीतर मी तुम्हाला सांगितलं नसतं तिथे ऑपरेशन करायला ” अशी ग्वाही दिली! गुरुवारी ऑपरेशन झाले,हॉस्पिटल मध्ये माझ्याजवळ “हे” राहिले. आम्ही सोमवारी घरी आलो, आमची सून कार घेऊन  आम्हाला न्यायला आली हॉस्पिटल मध्ये,  घरी आल्यावर नातू म्हणाला “आजी मला तुला hug करावंसं वाटतंय पण तुझं ऑपरेशन झालंय!”……..

माझे दीर आणि जाऊबाई मला भेटायला आले त्याचदिवशी!

……..आणि चार नोव्हेंबर नंतर आमचं सर्व कुटुंब “पाॅझिटीव” एक दोन दिवसांच्या अंतराने गोळविलकर लॅबचे रिपोर्ट….. मी, हे, दीर, जाऊ केईएम ला एडमिट, सूननातू घरीच होते होम क्वारंटाईन पण सुनेला ताप येऊ लागला, म्हणून ती आणि नातू मंत्री हॉस्पिटल मधे एडमिट झाली, ऐन दिवाळीत आम्ही कोरोनाशी लढा देत होतो…….

या सर्वाचा मला प्रचंड मानसिक त्रास झाला. असं वाटलं  हे सगळं होण्यापेक्षा मी मरून गेले असते तर बरं झालं असतं, ऑपरेशनला तयार झाले ही माझी चूक, रूबी हाॅल मधून परत आले ही पण चूकच ! संपूर्ण कुटुंबाला माझ्या ऑपरेशन च्या निर्णयाने बाधा झाली, मला सतत रडू येत होतं, सारखी देवाची प्रार्थना करत होते…..आपण कुणीतरी शापीत, कलंकित आहोत असं वाटत होतं! आयुष्यभराची सर्व दुःख या घटनेपुढे फिकी वाटायला लागली, सर्वजण बरे होऊन सुखरूप घरी आलो ही देवाची कृपा! मुलगा म्हणाला “आई तू स्वतःला दोष देऊ नकोस, ही Destiny आहे,”

पण हे शल्य सतत काळजात रहाणारच!

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ रमेश बतरा : कभी अलविदा न कहना ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय 

जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

(15 मार्च – स्व रमेश बतरा जी की पुण्यतिथि पर विशेष)

☆ संस्मरण ☆ रमेश बतरा : कभी अलविदा न कहना ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

(प्रिय रमेश बतरा की पुण्यतिथि । बहुत याद आते हो मेशी। तुम्हारी मां कहती थीं कि यह मेशी और केशी की जोड़ी है । बिछुड़ गये ….लघुकथा में योगदान और संगठन की शक्ति तुम्हारे नाम । चंडीगढ़ की कितनी शामें तुम्हारे नाम…. मित्रो । आज डाॅ प्रेम जनमेजय द्वारा रमेश बतरा पर संपादित पुस्तक त्रासदी का बादशाह में अपना लिखा लेख भी उनकी अनुमति से पोस्ट कर रहा हू । -कमलेश भारतीय)

प्रिय मित्र । रमेश बतरा । संभवतः मैं पंजाब से उसका पहला मित्र रहा होऊंगा क्योंकि उन दिनों वह करनाल में पोस्टेड था । वहीं उसने बढ़ते कदम नामक अखबारनुमा पत्रिका का संपादन और प्रकाशन शुरू किया और मुझसे पत्र व्यवहार हुआ । इसके प्रवेशांक में मेरी कविता प्रकाशित हुई । यानी रमेश बतरा के संपादन में मुझे बढ़ते कदम से लेकर , सारिका, तारिका और संडे मेल तक हर सफर में प्रकाशित होने का सुअवसर मिला । फिर उसकी ट्रांसफर चंडीगढ़ हो गयी । सेक्टर आठ में उसका कार्यालय था । मैं नवांशहर से हर वीकएंड पर चंडीगढ़ उसके पास आने लगा । इस तरह हमारी दोस्ती परवान चढ़ती गयी । यानी ऐसी कि यह दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे तक पहुंच गयी । मैं उसी के घर रहता जिसका पता था 2872, सेक्टर 22 सी । हमेशा याद । बस स्टैंड से उतरते ही वहीं पहुंचता । रमेश की मां के बनाए परांठे और उनका मेरी कद काठी देख कर प्यारा सा नामकरण कि रमेश, वो तेरा चूहा सा नवांशहर वाला दोस्त भारती आया नहीं क्या ? इस तरह सारे परिवार में घुल मिल गया । बहन किरण हो या भाई नरेश या खुश सबके साथ घुल मिल गया । खुश बतरा से तो आज भी मोहाली जाने पर मुलाकात करने जाता हूं और रमेश की यादों की पगडंडियों पर निकल लेता हूं । पुराने फोटोज । पुरानी यादें । हमारे निक नेम थे -केशी और मेशी । केशी मेरा और मेशी रमेश का ।

इतने साल तक रमेश पर कुछ नहीं लिखा तो इसलिए कि अंतिम दिनों की स्थिति को देखकर भाई खुश ने कसम ले ली थी कि भाई साहब आप नहीं लिखोगे कुछ भी । आज इतने बरसों बाद लिखने जा रहा हूं तो डाॅ प्रेम जनमेजय के प्रेम भरे आग्रह से । नरेश अब रहा नहीं । किरण विदेश रहती है । खुश से सारे समाचार मिलते रहते हैं ।

चंडीगढ़ में रमेश ने लगातार न केवल अपने लेखन को निखारा बल्कि एक ऐसी मित्र मंडली तैयार की जो आने वाले समय में पंजाब के लेखन में सबसे आगे रही । मैं, मुकेश सेठी, सुरेंद्र मनन, तरसेम गुजराल, गीता डोगरा, नरेंद्र निर्मोही, संग्राम सिंह, प्रचंड आदि । कितने ही नाम जो अब  चर्चित हैं । संगठन और संपादन गजब का । जो दो लोग आपस में बोलते तक नहीं थे उन्हें मिलाना और एक करना । पहले तारिका का लघुकथा विशेषांक संपादित किया । फिर शाम लाल मेहता प्रचंड की पत्रिका साहित्य निर्झर का । साहित्य निर्झर के कथा विशेषांक भी निकाले । राजी सेठ की कहानी मैंने मंगवा कर दी । तब वे चर्चित होने लगी थीं और अहमदाबाद के केंद्रीय हिंदी लेखक शिविर से मेरा परिचय हुआ जो आज तक जारी है ।  लघुकथा विशेषांक चर्चित रहे और वह सारिका के संपादक व प्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर की निगाहों में आ गया । इस तरह वह चंडीगढ़ से मुम्बई तक पहुंचा और फिर सारिका के दिल्ली आने पर दिल्ली पहुंच पाया लेकिन पंजाब या चंडीगढ़ फिर नहीं लौटा । लघुकथा में रमेश बतरा के योगदान का उल्लेख बहुत कम होने पर दुख होता है । हरियाणा वाले भी उल्लेख करना भूलते जा रहे हैं ।

चंडीगढ़ में एक बार हम दशहरे पर इकट्ठे थे । सेक्टर ग्यारह में चाय पीने एक दुकान में गये और दुकानदार ने बहुत आग्रह से जलेबियां भी परोस दीं, यह कह कर कि दशहरा है जलेबियां खाओ । खूब हंसे । हर साल याद करते और वहीं जाते । सेक्टर 22 में अरोमा होटल के पास चाय की रेहड़ी पर हमारा कथा पाठ होता और आलोचना । चर्चा । जगमोहन चोपड़ा, राकेश वत्स, अतुलवीर अरोड़ा कितने नाम जुड़े और जुड़ते चले गये । काफिला बनता चला गया ।

चंडीगढ़ में रमेश बतरा न केवल मेरा मित्र रहा बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से मार्गदर्शक भी । उसने एक शर्त लगा रखी थी मेरे साथ कि चंडीगढ़ मेरे पास आना है तो महीने में एक कहानी लिखनी होगी । यही कारण है कि जब तक रमेश चंडीगढ़ रहा , मेरी कहानियां लिखने की रफ्तार तेज़ रही और मैं कहानी के संपादक व मुंशी प्रेमचंद जी के सुपुत्र श्रीपत राय की पत्रिका कहानी में एक साल के भीतर दस कहानियां लिख पाया । अज्ञेय के नया प्रतीक में दो कहानियां आईं और रमेश बतरा इसे अपनी सफलता मान कर खुश होता था । जब सारिका के लिए मुम्बई जाने लगा तब आकाशवाणी के उद्घोषक विनोद तिवारी के यहां कार्यक्रम रखा गया और मैंने वहां अपनी नयी कहानी का पाठ किया तब उसने झोली फैला कर कहा कि इसे मुझे दे दो । मैं इसे सारिका में प्रकाशित करूंगा । वही कहानी उस वर्ष सारिका के नवलेखन अंक में आई । रमेश ने पंजाबी से बहुत अच्छी कहानियों का अनुवाद भी किया । इनमें शमशेर संधु की कहानी मुझे याद है । हालांकि शमशेर संधु आज पंजाबी का सबसे बढ़िया गाने लिखने वाला गीतकार है । फख्र जमां के उपन्यास का अनुवाद भी किया-सत गवाचे लोग । यानी वह अन्य भाषाओं के बीच पुल का काम भी कर रहा था ।

चंडीगढ़ की मधुर यादों में एक बार रमेश बतरा ने पंजाब यूनिवर्सिटी के गांधी भवन में आयोजित गोष्ठी में कहानी का पाठ किया और वहां मौजूद अंग्रेजी की प्राध्यापिका तृप्ति ने उठ कर कहा कि मुझे रमेश बतरा की कहानियों से प्यार है और मैं इसका अनुवाद अंग्रेज़ी में करूंगी । उस समय खूब ठहाके लगे और मेज़ थपथपा कर इसका स्वागत् किया गया लेकिन रमेश बतरा बुरी तरह शरमा रहा था जोकि देखने लायक था । चंडीगढ़ में रहते सभी साहित्यिक गोष्ठियों का वह सितारा था । तारिका के डाॅ महाराज कृष्ण जैन से पहली मुलाकात रमेश बतरा के चलते हुई और उसने उनकी इतनी मदद की कि वह उनके पाठ तक लिखा करता था जो कहानी लेखन महाविद्यालय को बड़ा सहारा साबित हुए ।

आपातकाल वाले दिन यानी 25 जून , 1975 को भी मैं और रमेश बतरा एक साथ थे । उसने बस स्टैंड के सामने पंजाब बुक सेंटर से मुझे मार्क्स और दूसरे साथी एंगेल्ज की बेसिक जानकारी देने वाली दो छोटी पुस्तिकाएं खरीद कर दीं और कहा कि अब इन्हें पढ़ो । समय आ गया है । इस तरह मैंने लेनिन के चार भाग खुद खरीद कर पढ़े और नौ साल तक घनघोर कामरेड लेखक रहा । बाद में डाॅ इंद्रनाथ मदान ने मुझे निकाला जब मेरा कथा संग्रह महक से ऊपर पढ़ा । कहने लगे – कमलेश । ये मार्क्सवादी तुम्हें उतनी रस्सी देंगे जितनी चाहेंगे । इसलिए तुम छलांग लगा कर इस बाड़े से बाहर कूद जाओ । खैर । रमेश बतरा के चंडीगढ़ रहते समय डाॅ नरेंद्र कोहली सपरिवार आए थे तब मैं और रमेश बतरा उनके साथ न केवल यादवेंद्रा गार्डन पिंजौर गये बल्कि शाम को डाॅ मदान के यहां गोष्ठी भी रखी थी । रमेश को चुटकुले सुनाने की आदत थी और किसी प्रोफैशनल हास्य कलाकार से ज्यादा चटखारे लेकर चुटकुले सुनाता था ।

मुम्बई जाने पर हमारी खतो खितावत जारी रही और फिर रमेश ने कहा कि अब पढ़ाई  पूरी हो गयी यानी दूसरों का साहित्य तुमने खूब पढ़ लिया । अब खुल कर अपना लिखो । इस तरह मैं सारिका, कादम्बिनी, हिंदुस्तान, धर्मयुग और न जाने कितनी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगा । रमेश बतरा मेरी रचनाओं को देख खुशी भरा खत लिखकर मेरा हौंसला बढ़ाता रहता ।

फिर वह दिल्ली आया सारिका के साथ और मेरे वीकएंड नवांशहर से दिल्ली बीतने लगे । सारिका के ऑफिस के बाहर चाय वाले के पास कितने ही लेखकों से मुलाकातें होने लगीं । इन्हीं में कथादेश के संपादक भी होते थे । पाली चित्रकार भी । चर्चाओं में कथादेश का जन्म हुआ । रमेश उपाध्याय से लम्बी चर्चाओं का मैं साक्षी रहा । श्रोता भी ।  यहीं डाॅ प्रेम जनमेजय से दोस्ती हुई जो आज तक निभ रही है यानी डील हुई, वे कहते हैं ।

दिल्ली में जो सीखा रमेश बतरा से वह यह कि लोकल बस में भी वह समय बेकार नहीं जाने देता था । अपने झोले में से रचनाएं निकाल कर संपादन करने लगते था । शोर शराबे में भी संपादन । बाद में दैनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक बना तो यह मंत्र बड़ा काम आया । यह सीख भी ली कि रचना छपने पर कोई लेखक सेलीब्रेट करने के लिए प्रेस क्लब ले जाने का ऑफर दे तो टोटली मना करना । नहीं तो रमेश बतरा की तरह बुरी लत के शिकार हो जाओगे । दैनिक ट्रिब्यून में रहते कोई मुझे प्रेस क्लब ले जाकर पैग नहीं दे सका तो इसके पीछे भी रमेश के जीवन की बहुत बड़ी सीख रही ।

दिल्ली में ही उसकी मुलाकात जया रावत से हुई जो बाद में जया बतरा बनी । वे लोग जब लिव इन में रहते थे तब भी मैं घर ही रुकता और पता नहीं कैसे जया को यह देवर आज तक अच्छा लगा और मुझे भी मेरी प्यारी सी भाभी लगी जया । आज भी मेरा सम्पर्क बराबर है । कभी फोन कर लेते हैं । बच्चों को देख लेता हूं । मेरी साली साहिबा कांता विदेश से आईं तो जया के यहां ही रुकीं और जो उपहार दे सकती थीं , दिया और फिर इन लोगों की शादी में भी सहारनपुर तक शरीक हुईं । रमेश बतरा शादी से पहले जया को उत्तराखंड की मूल निवासी होने के कारण मज़ाक में कहता था -जया । तुम लंगूरपट्टी से आती हो न । वह प्यार में मारने दौड़ती । फिर हंसी मजाक चलता रहता । पर ये दिन कैसे बदल गये ? यह प्यार कहा सूख गया ? वह प्यार की नदी कहां खो गयी ? पता नहीं चला । कब डिप्रेशन और शराब की लत बढ़ती गयी और एक दिन शाम को खुश का फोन आया मेरे दैनिक ट्रिब्यून कार्यालय में कि भाई साहब आए हुए हैं । मैं ड्यूटी खत्म होते ही पहुंचा पर जिस रमेश को देखा कि बस दिल रो पड़ा । यह रमेश ? क्या हो गया इसको ? हाथों में कंपन । बात में कंपन । चलने में कंपन । यह कौन सा रमेश है ? फिर पीजीआई में दाखिल । लगभग हररोज़ ड्यूटी के बाद पहले पीजीआई जाता । खुश की पत्नी पीजीआई में ही कार्यरत थीं । इसलिए इलाज बेहतर । ठीक भी हो गया । चेहरे पर रौनक भी आ गयी । पर छूटी नहीं काफिर मुंह से लगी हुई । फिर वही हालत बना ली । वह रमेश जिसने मुझे मार्क्स हाथ में  दिया था, वह ज्योतिष की जानकारी इकट्ठी कर रहा था । आह । यह क्या हो गया मेरे दोस्त को ।

आखिर एक शाम दैनिक ट्रिब्यून के संपादक विजय सहगल का फोन आया । तब मैं हिसार में ब्यूरो चीफ होकर आ चुका था । मार्च का कोई दिन था । कहा –तुम्हारे दोस्त रमेश बतरा नहीं रहे । अब इस रविवार तुमने ही उस पर लिखना है । आदेश था । पर जब दिन भर की रिपोर्टिंग कर मैंने लिखने की कोशिश की तो कलम मुश्किल से सरकी । बड़ी मुश्किल से पूरा किया लेख और लिखने के बाद खूब रोया । बहुत बार मुझसे दिवंगत लेखकों पर लिखवाया लेकिन उस दिन पता चला कि किसी बहुत अपने के खो देने पर लिखना कितना मुश्किल काम होता है । वह कटिंग भी अब मेरा पास नहीं है । पर यादें हैं पर कोई चैलेंज नहीं कि हर माह एक कहानी लिख कर लाओ । तब से बहुत कम कहानियां लिखीं । काश । कहीं से रमेश कहे कि कहानी नहीं लिखोगे तो बात नहीं करूंगा । यादों में भी नहीं आऊंगा । बस । चंडीगढ़ से विदा देते समय रमेश बतरा ने यही गीत सबके बीच गुनगुनाया था –कभी अलविदा न कहना । अब कैसे कहें उसे अलविदा ?

अंतिम समय तक रमेश बतरा एक पत्रिका किस्सा नाम से निकालना चाहता था लेकिन वह किस्सा भी उसकी तरह अधूरा रह गया । मोहन राकेश के आधे अधूरे के नायक को नमन् । कभी फिर संपादन का अवसर मिला तो यह किस्सा भी पूरा करेंगे ।

 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – अनजाने में पढ़ा ‘उबूंटू’ का पाठ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – अनजाने में पढ़ा ‘उबूंटू’ का पाठ ☆

(किशोर अवस्था का एक संस्मरण आज साझा कर रहा हूँ।)

पढ़ाई में अव्वल पर खेल में औसत था। छुटपन में हॉकी खूब खेली। आठवीं से बैडमिंटन का दीवाना हुआ। दीवाना ही नहीं हुआ बल्कि अच्छा खिलाड़ी भी बना। दीपिका पदुकोण के दीवानों (दीपिका के विवाह के बाद अब भूतपूर्व दीवानों) को मालूम हो कि मैं उनके पिता प्रकाश पदुकोण के खेल का कायल था। तब दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण तो था नहीं, अख़बारों में विभिन्न टूर्नामेंटों में उनके प्रदर्शन पर खेल संवाददाता जो लिख देता, वही मानस पटल पर उतर जाता। 1980 में ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैम्पियनशिप जीतने के बाद तो प्रकाश पदुकोण मेरे हीरो हो गए। हवाई अड्डे पर लेने आई  अपनी मंगेतर उज्ज्वला करकरे (अब दीपिका की माँ) के साथ प्रकाश पदुकोण की अख़बार में छपी फोटो आज भी स्मृतियों में है।

अलबत्ता आप खेल कोई भी खेलते हों, एक सर्वसामान्य खेल के रूप में क्रिकेट तो भारत के बच्चों के साथ जुड़ा ही रहता है।

दसवीं की एक घटना याद आती है। स्कूल छूटने के बाद नौवीं के साथ क्रिकेट मैच खेलना तय हुआ। यह एक-एक पारी का टेस्ट मैच होता था। औसतन दो-ढाई घंटे में एक पारी निपट जाती थी। शायद आईसीसी को एकदिवसीय और टी-20 मैचों की परिकल्पना हमारे इन मिनी टेस्ट मैचों से ही सूझी।

शनिवार या संभवतः  महीने का अंतिम दिन रहा होगा। स्कूल जल्दी छूट गया। छोटी बहन उसी स्कूल में सातवीं में पढ़ती थी। मैं उसे साइकिल पर अपने साथ लाता, ले जाता था। शैक्षिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण अनेक बार मैं छुट्टी के बाद भी लम्बे समय तक स्कूल में रुकता। मेरे कारण उसे भी ठहरना पड़ता। वह शांत स्वभाव की है। उस समय भी बोलती कुछ नहीं थी पर उसकी ऊहापोह मैं अनुभव करता।

आज मैच के कारण देर तक उसके रुकने की स्थिति बन सकती थी। मैं दुविधा में था। ख़ैर, मैच शुरू हुआ। मैं अपनी टीम का कप्तान था। उन दिनों कक्षा के मॉनीटर को खेल में भी कप्तानी देना चलन में था। टॉस हमने जीता। अपनी समझ से बल्लेबाजी चुनी। ओपनिंग जोड़ी मैदान में उतरी। उधर बहन गुमसुम बैठी थी। हमारा घर लगभग 7 किलोमीटर दूर था। सोचा साइकिल भगाते जाता हूँ और बहन को घर छोड़ कर लौटता हूँ। तब तक हमारे बल्लेबाज प्रतिद्वंदियों को छक कर धोएँगे।

बहन को घर छोड़कर लौटा तो दृश्य बदला हुआ था। टीम लगभग ढेर हो चुकी थी। 7 विकेट गिर चुके थे। जैसे-तैसे स्कोर थोड़ा आगे बढ़ा और पूरी टीम मात्र 37 रनों पर धराशायी हो गई।

पाले बदले। अब गेंदबाजी की ज़िम्मेदारी हमारी थी। कक्षा में बेंच पर कुलविंदर साथ बैठता था। अच्छा गेंदबाज था और घनिष्ठ मित्र भी। उससे गेंदबाजी का आरम्भ कराया। दो-तीन ओवर बीत गए। सामने वाली टीम मज़बूती से खेल रही थी।

गेंदबाजी में परिवर्तन कर कुलविंदर की जगह सरबजीत को गेंद थमाई। यद्यपि वह इतना मंझा हुआ गेंदबाज नहीं था पर मैच शुरू होने से पहले मैंने उसे गेंदबाजी का अभ्यास करते देखा था। भीतर से लग रहा था कि इस पिच पर सरबजीत प्रभावी साबित होगा।

सरबजीत प्रभावी नहीं घातक सिद्ध हुआ। एक के बाद एक बल्लेबाज आऊट होते चले गए। दूसरे छोर से कौन गेंदबाजी कर रहा था, याद नहीं। वह विकेट नहीं ले पा रहा था पर रन न देते हुए उसने दबाव बनाए रखा था। हमें छोटे स्कोर का बचाव करना था। वांछित परिणाम मिल रहा था, अतः मैंने दोनों गेंदबाजों के स्पैल में कोई परिवर्तन नहीं किया।

उधर बाउंड्री पर फील्डिंग कर रहे कुलविंदर की नाराज़गी मैं स्पष्ट पढ़ पा रहा था पर ध्यान उसकी ओर न होकर टीम को जिताने पर था। यह ध्यान और साथियों का खेल रंग लाया। प्रतिद्वंदी टीम 33 रनों पर ढेर हो गई। सरबजीत को सर्वाधिक विकेट मिले। कुलविंदर ने दो-चार दिन मुझसे बातचीत नहीं की।

अब याद करता हूँ तो सोचता हूँ कि टीम को प्रधानता देने का जो भाव अंतर्निहित था, वह इस प्रसंग से सुदृढ़ हुआ। हिंदी आंदोलन परिवार के अधिकारिक अभिवादन ‘उबूंटू’ (हम हैं, सो मैं हूँ) से यह प्रथम प्रत्यक्ष परिचय भी था।

‘उबूंटू!’

©  संजय भारद्वाज

(महाशिवरात्रि 2018, प्रातः 8 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 84 – इलाहींच्या आठवणी…. ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

(जन्म – 1 मार्च 1946 मृत्यु – 31 जनवरी 2021)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 84 ☆

☆ इलाहींच्या आठवणी…. ☆

एकतीस जानेवारीला सुप्रसिद्ध गजलकार इलाही जमादार आपल्यातून निघून गेले. आणि मनात अनेक आठवणी जाग्या झाल्या…… तेवीस जानेवारीला मी त्यांना फोन केला होता तेव्हा त्यांच्या वहिनी ने फोन घेतला, मी म्हटलं, मी प्रभा सोनवणे, मला इलाहींशी बोलायचं आहे….त्यांनी इलाहींकडे फोन दिला, तेव्हा ते अडखळत म्हणाले, “आता निघायची वेळ झाली ……पुढे बोललेली दोन वाक्ये मला समजली नाहीत….मग त्यांच्या वहिनी ने फोन घेतला, त्या म्हणाल्या “आता त्यांना उठवून खुर्चीत बसवलं आहे, तब्बेत बरी आहे आता.”…..त्या नंतर सात दिवसांनी ते गेले!

मला इलाहींची पहिली भेट आठवते, १९९३ साली बालगंधर्व च्या कॅम्पस मधून चालले असताना अनिल तरळे या अभिनेत्याने माझी इलाहींशी ओळख करून दिली, मी इलाहीं च्या गजल वाचल्या होत्या, इलाही जमादार हे गजल क्षेत्रातील मोठं नाव होतं, मी त्यांच्यावरचा एक लेख ही त्या काळात वाचला होता, दारावरून माझ्या त्यांची वरात गेली मेंदीत रंगलेली बर्ची उरात गेली.. आता कशास त्याची पारायणे “इलाही’ माझीच भाग्यरेषा परक्या घरात गेली हा त्या लेखात उद्धृत केलेला शेर मला खुप आवडला होता, मी तसं त्यांना त्या भेटीत सांगितलं….कॅफेटेरियात आम्ही चहा घेतला, आणि इलाहींनी त्यांच्या अनेक गज़ला ऐकवल्या, मी खुपच भारावून गेले होते. त्यांनी मलाही कविता ऐकवायला सांगितलं तेव्हा मी पाठ असलेल्या दोन छोट्या कविता ऐकवल्या, त्यांनी छान दाद दिली.

एक छान ओळख करून दिल्याबद्दल अनिल तरळे चे आभार मानले, आणि म्हणाले, निघते आता, घरी जाऊन स्वयंपाक करायचा आहे तर ते म्हणाले “तुम्ही स्वयंपाक करत असाल असं वाटत नाही”, त्यांना नेमकं काय म्हणायचं होतं मला समजलं नाही…..

इलाहींच्या अप्रतिम गज़ला ऐकून मला कविता करणं सोडून द्यावंसं वाटलं होतं त्या काळात!

त्यानंतर काही दिवसांनी मी अभिमानश्री हा श्रावण विशेषांक काढला, त्याच्या प्रकाशन समारंभात आयोजित केलेल्या कविसंमेलनात त्यांना आमंत्रित केलं होतं त्या संमेलनात त्यांनी त्यांची गजल सादर केली होती. एवढा मोठा गजलकार पण अत्यंत साधा माणूस!

मी त्या काळात काव्यशिल्प या संस्थेची सभासद होते.

इलाहींच्या प्रभावाने आम्ही काव्यशिल्प च्या काही कवींनी एक गजलप्रेमी संस्था सुरू केली. काही मुशायरे घेतले, इलाही अनेकदा माझ्या घरी आले आहेत.ते स्वतःच्या गज़ला ऐकवत आणि माझ्या कविता ऐकवायला सांगत, दाद देत.

गजल च्या बाबतीत ते मला म्हणाले होते, तुम्ही “आपकी नजरोने समझा…..” ही गज़ल गुणगुणत रहा त्या लयीत तुम्हाला गज़ल सुचेल! पण तसं झालं नाही!

क्षितीज च्या मैफिलीत सादर करण्यासाठी मी पहिली गज़ल लिहिली ती अगदी ढोबळमानाने, मी इलाहींकडून गज़ल शिकले नाही. पण त्यांच्या प्रेरणेतून स्थापन झालेल्या या संस्थेमुळे गजलच्या वातावरणात राहिले, इलाहींच्या अध्यक्षतेखाली औरंगाबाद येथे संपन्न झालेल्या गजलसागर च्या अ.भा.म.गजलसंमेलनात माझ्या गजलला व्यासपीठ मिळालं त्यानंतर च्या अनेक गज़लसंमेलनात माझा सहभाग होता. “गजलसागर” चे गज़लनवाज भीमराव पांचाळे यांचा परिचय पुण्यात अल्पबचत भवन मध्ये त्यांच्या एका गजलमैफिलीच्या वेळी झाला होता, त्या मैफीलीचे सूत्रसंचालन अभिनेते प्रमोद पवार करत होते.

या अफाट गज़लक्षेत्रात माझी खसखशी एवढी नोंद घेतली गेली याला कुठेतरी कारणीभूत इलाही आहेत. निगर्वी, हसतमुख, मिश्किल नवोदितांना नेहमी प्रोत्साहन देणारे आणि नेहमी सहज छानशी टिप्पणी देणारे इलाहीजमादार आज आपल्यात नाहीत, पण त्यांच्या खुप स्वच्छ आणि सुंदर आठवणी आहेत.

लिहिल्या कविता, लिहिल्या गज़ला, गीते लिहिली
सरस्वती चा दास म्हणालो चुकले का हो?

?? असं म्हणणा-या या प्रतिभावंत गजलकाराला भावपूर्ण श्रद्धांजली, अभिवादन! ??

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ याद गली से, एक सत्यकथा- कैमला गांव — 62 साल पुराना ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

श्री अजीत सिंह


(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय संस्मरण  ‘याद गली से, एक सत्यकथा- कैमला गांव … 62 साल पुराना। हम आपसे आपके अनुभवी कलम से ऐसे ही आलेख समय समय पर साझा करते रहेंगे।)

☆ संस्मरण  ☆ याद गली से, एक सत्यकथा- कैमला गांव — 62 साल पुराना ☆

कैमला, जो चंद रोज़ पहले तक एक अज्ञात सा गांव था, अब मीडिया की सुर्खियों में बना हुआ है। गत रविवार दस जनवरी को हरियाणा के मुख्य मंत्री मनोहरलाल खट्टर ने वहां एक जनसभा को संबोधित करना था पर ग्रामवासियों के एक वर्ग तथा आस पास के गांवों से आए किसान आंदोलनकारियों ने भारी पुलिस बंदोबस्त के बावजूद उस जगह घुस कर धरना दे दिया जहां जनसभा होनी थी। खट्टर का हेलीकॉप्टर वहां नहीं उतर सका और वे वापस जिला मुख्यालय करनाल चले गए।

कैमला गांव और वहां के राजकीय विद्यालय के साथ मेरा पुराना संबंध है। मैंने वहां छटी से लेकर नौवीं कक्षा तक की स्कूली  शिक्षा प्राप्त की थी। यह 1958 से 1962 के बीच का समय था। मैं निकटवर्ती पैतृक गांव हरसिंहपुरा से पहले दो साल रोज़ाना तीन किलोमीटर पैदल चलकर और बाद के दो साल साइकिल द्वारा स्कूल जाता था।

बहुत अच्छा स्कूल था। छटी कक्षा में हम टाट पर बैठते थे, सातवीं से आगे बैंच आ गए थे।

अध्यापक भी निष्ठावान थे। वे हमें बगैर पैसे लिए एक्स्ट्रा कोचिंग यानी ट्यूशन देते थे।

बस एक बुरी बात थी। ज़रा सी बात पर पिटाई हो जाती थी। थप्पड़, डंडे से ही नहीं, लात घूंसों से भी। हम भी ढीठ से हो गए थे। सब भूल जाते थे। असल में इसमें हमारे मां बाप का भी हाथ था। वे अक्सर स्कूल में आकर अध्यापक से कह जाते थे, भले ही बच्चे की चमड़ी उतार दो पर इसे सीधा कर दो और कुछ पढ़ा दो। सज़ा मिलने पर हम घर भी नहीं बताते थे।

जो पिटता था, उसका मज़ाक उड़ाते थे पर वो आगे से कहता था, कल तेरी बारी आएगी बच्चू तब पूछूंगा कैसी रही।

एक बात पिटाई से भी खराब थी। बहुत ही खराब। कुछ अध्यापक हमें गालियां भी देते थे। उल्लू का पट्ठा, हरामखोर, हरामजादा तो बात बात पर कहते थे। हम कुछ नहीं कर सकते थे। बस हमने जो अध्यापक जैसी गाली देता था, उसका वही नाम रख दिया और एक तरह से बदला सा ले लिया।

अगर कोई बच्चा दूसरे से पूछता कि अगला पीरियड किसका है, तो जवाब मिलता, उल्लू के पट्ठे का।

एक अध्यापक तो बिल्कुल ही गिरा हुआ था। वह हमें बहन की गाली देने लगा। यह हमारी बर्दाश्त के बाहर था। सातवीं क्लास के हम सभी बच्चों ने इसका विरोध करने का फैसला किया। जिसे भी अध्यापक गाली दे, वही खड़ा होकर विरोध करेगा कि बहन की गाली न दी जाए।

अब इसे मेरी बुरी किस्मत कहिए कि उस दिन उस अध्यापक की गाली का शिकार मुझे बनना पड़ा। मैंने खड़े होकर डरते हुए कहा कि मास्टरजी  बहन की गाली मत दीजिए। मास्टरजी ने ज़ोर से कहा, क्या कहा तूने? मैंने अपनी बात फिर दोहरा दी। मास्टर कुछ हड़बड़ा सा गया और मेज़ पर रखा अपना डंडा उठा कर बड़ी तेज़ी से क्लास से बाहर चला गया।

हम सब हैरान थे, डरे हुए भी थे कि अब पता नहीं क्या होगा।

कोई दस मिनट बाद चपरासी आया और मुझे व क्लास मॉनिटर  पृथ्वी सिंह को बुला कर ले गया, हेडमास्टर के दफ्तर में। हेडमास्टर ने हमें दो दो थप्पड़ लगाए और ‘मुर्गा’ बना दिया। खुद निकल गए साथ लगते स्टाफ रूम के लिए जहां सभी अध्यापक अपनी कक्षाएं छोड़ कर इकठ्ठा हो गए थे। गर्मागर्म बहस हो रही थी अंदर पर कुछ स्पष्ट सुनाई नहीं दे रहा था। कोई एक घंटे बाद फिर सभी टीचर अपनी अपनी क्लास में आए और बच्चों को समझाने लगे अनुशासन की बातें। हेडमास्टर गाली गलौज करने वाले टीचर के साथ हमारी क्लास में आए। मुझे और पृथ्वी मॉनिटर को भी हेडमास्टर के दफ्तर से क्लास में बुला लिया गया।

“जिस तरह से इस विद्यार्थी ने गुस्ताखी की है, हम चाहें तो इसे अभी स्कूल से निकाल सकते हैं। आखरी चेतावनी दे रहे हैं सभी को। अगर फिर अनुशासनहीनता हुई तो कड़ी सज़ा मिलेगी। टीचर  कभी गुस्सा भी करते हैं तो वो तुम्हारी भलाई के लिए ही करते हैं। चलो माफी मांगो मास्टर जी से”।

हम डरे हुए थे। हमने माफी मांग ली। अंदर से बड़ा गुस्सा भी आ रहा था सभी को। ग़लत बात करे मास्टर और माफी मांगे हम।

अगले दिन हम बड़े हैरान थे कि किसी भी अध्यापक ने गाली नहीं दी। हमारा विद्रोह सफल हो गया था। गाली गलौज करने वाले टीचर हार गए थे। बाद में पता चला कि हमारे संस्कृत के अध्यापक राजपाल शास्त्री जी ने स्टाफ रूम मे गाली देने वाले अध्यापकों की कड़ी निन्दा करते हुए उन्हे फटकार लगाई थी।

सभी विद्यार्थी बड़े ही खुश थे। एक बार तो उन्होंने नारे भी लगा दिए।

“विद्यार्थी एकता ज़िंदाबाद”

“गाली गलौज नहीं चलेगी”

“मार कुटाई नहीं चलेगी”।

और इस तरह हम डर डर कर विद्यार्थी नेता बन गए। अब 62 साल बाद किसान आंदोलन के बीच मुझे यह घटना याद आई तो सहसा अपने सहपाठियों की भी याद आई। किसान आंदोलकारियों में मेरे सहपाठियों के बेटे या पोते भी हो सकते हैं। कुछ सहपाठी भी हो सकते हैं। आखिरकार हमने नारे लगाना तो 62 साल पहले सातवीं क्लास में ही सीख लिया था। पता नहीं मेरे सहपाठी या उनकी संतान आंदोलनकारियों के किस गुट में शामिल थे। मुख्यमंत्री को बुलाने वालों में या उसे भगाने वालों में। यह भी संभव है कि एक ही परिवार के कुछ व्यक्ति इधर हों और कुछ उधर। कुछ ऐसा ही तो हुआ था सदियों पहले केवल 50 किलोमीटर दूर कुरुक्षेत्र में।

कैमला में भी एक कुरुक्षेत्र तो बन ही गया। भारत में जब बड़े जन आंदोलनों का नाम आएगा तो किसान आंदोलन का नाम भी कहीं सर्वोपरि स्थानों में होगा। और इस आंदोलन में जब सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और गाज़ीपुर बॉर्डर का नाम आएगा तो मेरी शिक्षास्थली कैमला गांव का संदर्भ सूत्र भी जुड़ा मिलेगा।

मेरे सहपाठी और उनकी संतान अपने अपने खेमों में किसान एकता जिंदाबाद के नारे लगा रहे होंगे। मैं  उनकी सुरक्षा की मंगल कामना करता हूं तो मेरे मन मस्तिष्क में वे पुराने नारे भी गूंजने लगते हैं जब हम कहा करते थे,

विद्यार्थी एकता ज़िंदाबाद,  कैमला स्कूल ज़िंदाबाद।

 

©  श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन

संपर्क: 9466647037

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ हिमाचल से मेरा प्रेम और कुछ यादें… ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी से किसी भी रूप में जुड़ना एक रिश्ता बन जाने जैसा है। एक अनजान रिश्ता। मुझे यह सौभाग्य मिला डॉ मधुसूदन पाटिल सर के माध्यम से। उनके संस्मरण हमें स्मृतियों के उस संसार में ले जाते हैं जहाँ जाना अब संभव नहीं है। हम उस संस्मरण के एक तटस्थ पात्र बन जाते हैं। बिलकुल आर के लक्ष्मण के पात्र ‘कॉमन मैन’ की तरह। इस रिश्ते से कोई भी पाठक या मैँ स्वयं उनके रचना संसार में तटस्थ पात्र ‘कॉमन मैन’ ही हैं। प्रस्तुत है संस्मरण – हिमाचल से मेरा प्रेम और कुछ यादें )

☆ संस्मरण ☆ हिमाचल से मेरा प्रेम और कुछ यादें… ☆

(इस लेख को दिव्य हिमाचल के संपादक व मेरे मित्र अनिल सोनी ने और बाद में उर्मि कृष्ण ने शुभतारिका के हिमाचल विशेषांक में प्रकाशित किया था । आज  12 जनवरी 2021 को फेसबुक से रिपीट होने पर इसे फिर संशोधित किया है  – – कमलेश भारतीय)

हिमाचल से मेरा प्रेम है और जब-जब समय मिलता है मैं इसकी ओर उमड़ पड़ता हूं । बचपन में मेरी दादी किसी धार्मिक संग के साथ बाबा बालकनाथ की यात्रा पैदल करती थी और दो वर्ष मैं भी उनके साथ इस यात्रा में शामिल रहा । इतना याद है कि नवांशहर से गढशंकर तक रेल से जाते । रात वहां किसी सराय में रुकते और दूसरी सुबह पदयात्रा शुरू होती जय जयकार करते । रास्ते में संतोखगढ़ आता और पानी के स्त्रोत भी । ठंडा शीतल जल । रास्ते में गरूने के फल तोड़कर खाते ।

बाबा बालकनाथ की कहानी भी बहुत मजेदार । बारह साल गाय चराई और फिर एकमुश्त ही पेड़ पर चिमटा मार कर माई रत्नो को सारी रोटियां वापस कर दीं । ऐसा कुछ वाक्या मेरे साथ खटकड़ कलां में हुआ । मैं लगभग बारह वर्ष ही वहां प्राध्यापक और प्रिंसिपल रहा । पड़ोस की छात्रा तरसेम कौर की मां मेरे लिए मक्खन रोटी रखती ।  जब बारह साल बाद शिक्षण को विदा दी तब आंसुओं के बीच मैंने कहा कि वे बाबा बालकनाथ ही ऐसा कर सकते थे कि सब कुछ लौटा दें । मैं एक साधारण मनुष्य हूं । मैं आपका प्यार लौटा नहीं सकता ।

फिर मेरा रिश्ता हिमाचल से जुड़ा जब मैं बीएड की क्लास फैलो कांता की शादी में बिलासपुर गया । वहां की झील के बारे में रोचक बात पता चली कि पुराने शहर को लील लिया और पानी कम होने पर लोग वहां अपने घर तलाशने और  देखने जाते हैं । अभी कुछ मंदिर दिखते हैं । विवाह सुंदरनगर में चितरोखड़ी में था । इसलिए राजा का महल भी देखा । यह सन् 1973 की बात है ।

सुंदरनगर में ही तब गीतकार सुरेश ओबराय नमन् नौकरी करते थे । उनके पास रुका । उन्होंने दूरवर्ती पाठ्यक्रम से एम ए हिंदी करने की सलाह दी और देर होने के कारण दूसरी सुबह रोटी की पोटली बांध कर मुझे शिमला की बस पर चढा दिया और साथ में आकाशवाणी के बी आर मेहता के नाम चिट्ठी दे दी । वैसे यादवेंद्र शर्मा से भी मिला । वे अब शायद वकालत करते हैं । यदा कदा उनकी कविताएं पढने को मिल जाती हैं । सशक्त कवि हैं ।

इस तरह शिमला आकाशवाणी पहुंच कर मैंने गूंजती घाटियां के संपादक बी आर मेहता से भेंट कर नमन् की चिट्ठी सौंप दी । वे शाम को फागली स्थित अपने घर ले गये । उस दिन उनके पड़ोस में शादी थी सो पहली बार पहाड़ी  भात खाने का मजा भी लिया । दूसरे दिन मेहता जी ने फोटोग्राफर ढूंढा और बीच सड़क खड़ा कर मेरा तुरत फुरत फोटो करवाया और समरहिल ले जाकर प्रोविजनली मेरा एम ए का फाॅर्म भरवा दिया ।

इस तरह दो वर्ष तक शिमला मेरा आना जाना बना रहा और मेरा लगाव बढ़ता गया । मुझे तो बस शिमला जाने का बहाना चाहिए होता था । चीड़ और देवदार के घने पेड़ मानो मुझे आमंत्रित करते । खूब चहल पहल । शिमला में बहुत सी साहित्यिक पुस्तकें भी खरीदता रहा जिन पर आज भी शिमला और तिथि लिखी देखकर सब याद आ जाता है । हंसराज भारती बेशक अमृतसर नौकरी करते थे पर हिमाचल के थे । संपर्क बना रहा । अब वे जंजैहली से बराबर जुड़े हुए हैं ।

फिर दैनिक ट्रिब्यून में आ गया । तब एक बार कथा कहानी समारोह का आयोजन करने  गेयटी थियेटर में संपादक विजय सहगल के साथ आया और हमें स्टेट गेस्ट बनाया गया । शांता कुमार मुख्यमंत्री थे और शिक्षामंत्री राधारमण हमें अपनी सरकारी गाडी में अगवानी कर गेयटी थियेटर तक लेकर गये । वह याद आज भी खुशी देती है । आयोजन बहुत सफल रहा । वर्तिका नंदा और प्रतिभा कुमार को पुरस्कृत करना याद है । आज वे लेखन व सामाजिक काम में अपना मुकाम बना चुकी हैं ।

इसके बाद राजेंद्र राजन ने ज्ञानरंजन के आगमन पर विजय सहगल को आग्रह कर कवरेज के लिए मेरी ड्यूटी लगवाई थी । जहां तक मुझे याद पड़ता है मेरा रहने का प्रबंध कथाकार बद्रीनाथ भाटिया के आवास पर किया था । नंदिता तब बहुत छोटी थी ।

दूसरे दिन ज्ञानरंजन का प्रारंभिक संबोधन दिल को छू गया था । बहुत लम्बे समय बाद ऐसा व्याख्यान सुना था । जो बात कही वह बहुत दूरदर्शी लेखक ही कह सकता था और बात यह थी कि कलम की जगह जल्द ही माउस लेने वाला हैं । तब कम्प्यूटर इतने प्रचलन में भी नहीं थे पर आज देखिए ज्ञानरंजन की बात कितनी सच हो चुकी है । ज्ञानरंजन को चंडीगढ़ में भी सुनने का मौका मिला । ज्ञानरंजन ऐसे ही ज्ञानरंजन नहीं हैं। मैने उनकी पैंतीस कहानियों वाली पुस्तक भी पढ़ी हैं ।

हां । एक प्यारी सी याद धर्मशाला से भी जुड़ी है । मैं परिवार के साथ लेखक गृह में रुका था । वहां चौकीदार ने प्रसिद्ध लेखक उपेंद्रनाथ अश्क के प्रवास की कहानी भी सुनाई थी कि कैसे कभी-कभी गुस्सा हो जाते थे । प्रत्यूष गुलेरी अपनी गाड़ी में हमें रात का खाना खिलाने दाढ़ी अपने घर ले गये । रात ग्यारह बजे तक उनकी बेटी अदिति और मेरी बेटी रश्मि ने धमाल मचाया । वह शाम कभी नहीं भूल सकता । प्रत्यूष जब एम ए कर रहे थे तो जालंधर से पाठ्यक्रम की पुस्तकें लेने आते तो मेरे पास नवांशहर भी जरूर आते । वह प्रेम आज तक चला आ रहा है ।

खैर । अब फिर से मेरा रिश्ता शिमला से एस आर हरनोट विनोद प्रकाश गुप्ता ने जोड़ दिया है नवल प्रयास के कार्यक्रमों में आमंत्रित कर । बहुत अच्छा लगा हिमाचल के दूरदराज से आए नवलेखकों  व कुछ चर्चित लेखकों से मिलने का और उन्हें सुनने का अवसर पाकर । प्रियंवदा शर्माकंचन शर्मासुमित राज वाशिष्ठ, आत्मारंजन, प्रोमिला ठाकुर, शिल्पा भाटिया, मृदुला श्रीवास्तवपूनम तिवारीसाक्षी मेहता , गंगाराम राजी, कुल राजीव पंत  और न जाने कितने लेखक मिले। मृदुला का पहला कहानी संग्रह काश पंचोली न होती और हरनोट की प्रतिनिधि कहानियां विमोचन पर मिले और पढे । खूब सार्थक ।

हिमाचली टोपी जो सम्मान में मिली मैं उसे सर्दियों में हिसार में बडे चाव से पहनता हूं और लोग मुझे हिमाचली समझते हैं। बडा मज़ा आता हैंं । कंचन शर्मा ने अपने आवास पर हिमाचली नाश्ता भी करवाया जिसकी सुगंध याद आती रहती है और प्रमोद जी से मिलवाया । वे तब चुनाव की तैयारी कर रहे थे । वीरभद्र सिंह के बेटे विक्रमादित्य को चुनौती दी । बेशक हार गये । आर डी शर्मा ने भी मुझसे पंजाब,  हरियाणा और हिमाचल की कहानी पर लेख लिखवाया और परिवर्तन पत्रिका में प्रकाशित भी किया । दो बार उन्होंने  भी आमंत्रित किया । हि प्र विश्वशिद्यालय गेस्ट हाउस मेरे दूसरे घर जैसा है । दिनेश कुक ऐसे स्वागत् सत्कार में लग जाता है मानो हम उसके ही अतिथि और परिवार के सदस्य हों । देर तक खाना खिलाने का इंतजार करता है । अपने दैनिक ट्रिब्यून के सहयोगी और शिमला से रिपोर्टर रहे शशिकांत शर्मा जो आजकल हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के मीडिया विभाग में प्राध्यापक हैं, उन्हें भी स्मरण कर रहा हूं। अपनी गाड़ी में जाखू मंदिर घुमाने ले गये और जिन दिनों राज्यपाल देवव्रत के मीडिया सलाहकार रहे तब हमें राज्यपाल भवन का अतिथि बना कर सम्मान दिया । वाह रविकांत बहुत प्यारे हो । मेरे एक फोन पर तुरंत सारी व्यवस्था बना देते हो । क्या कहूँ?

एक याद नाहन और राजेंद्र राजन से खासतौर पर याद आ रही है । तब राजेंन्द्र राजन वहां जनसंपर्क अधिकारी के तौर पर तैनात थे और किसान भवन में कार्यक्रम आयोजित किया था । नाहन के बारे में सुना था

नाहन शहर नगीना

आए एक दिन रुके महीना ।

मैं पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के उस समय अध्यक्ष व प्रसिद्ध कथाकार डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता के साथ नाहन तक उनकी कार में गया था । उनकी उम्र कुछ हावी हो रही थी कि वे पूछ रहे थे कि कमलेश, तुम्हें कार ड्राइव करनी आती है ?  मैंने कहा कि नहीं । कहने लगे आती तो कम से कम मुझे कुछ आराम मिल जाता पर वे हिम्मत कर कार ड्राइव कर नाहन ले ही गये । पिंजौर के यादवेंद्रा  गार्डन में बांसुरी बजाने वाले प्रेमी फकीर को भी बुलाया गया था । उसका बांसुरी वादन आज भो कानों में कभी कभी गूंज जाता है और राजेंद्र राजन भी याद आते रहते हैं ।

इसके बावजूद जब चंडीगढ़ से हिमाचल की यात्रा शुरू होती है तो सड़क को चौड़ा करने की कवायद यह अहसास ही नहीं होने देती कि हम शिमला की ओर जा रहे हैं । देवदार के पेड़ कटते जा रहे हैं और कंक्रीट सड़कें बनती जा रही हैं । प्राकृतिक सौंदर्य कम होता जा रहा है । दिल दुखी होता है । पहाड़ों की कांट छांट की जा रही है । हरियाली घटती जा रही है । पहाड़ सूखते व वीरान से होते जा रहे हैं । प्लाॅस्टिक की थैलियां सैलानी फेंकते जाते हैं ।

एक बार बिलासपुर में हिमाचल के प्रथम लघुकथा सम्मेलन में रत्नचंद निर्झर ने मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया । तब मैं हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष था । चंडीगढ से मैं जीतेंद्र अवस्थी और रत्नचंद रत्नेश के साथ पहुंचा और वहां सुदर्शन वाशिष्ठ और कृष्ण महादेविया, प्रदीप गुप्ता, अरूण डोगरा रीतू सहित अनेक रचनाकारों से भेंट हुई । तब दूसरी बार एक पंगत में बैठ कर भात व क कढी खाई । जिसका स्वाद आज तक याद है । मुझे खुशी हुई कि लघुकथा में दूरदराज याद किया गया । हिमाचल की श्रेष्ठ लघुकथाएं पुस्तक की भूमिका भी रत्नेश ने मुझसे लिखवाई । यह बता कर कि ये सारी लघुकथाएं मैंने ही दैनिक ट्रिब्यून के कथा कहानी में छाप कर हिमाचल को प्रमुखता दी । इसी प्रकार मंडी में मुझे नरेश पंडित ने एक कार्यक्रम में आमंत्रित किया था जिससे दीनू कश्यप और नाटक निर्देशक इंदु से मेरा परिचय बना हुआ है । यह कार्यक्रम भी किसान भवन में हुआ था ।

शिमला जाते समय व्यंग्यकार अशोक गौतम को मिलना नहीं भूलता । सोलन में भी कुछ समय बिता ही लेता हूं । अशोक की गर्मजोशी बहुत भाती है । वह स्वागत् के लिए तैयार मिलता है । एक बार प्रसिद्ध लेखक केशव नारायण के घर भी अतिथि बनने का सौभाग्य मिला तो एक बार पालमपुर में सुशील फुल्ल से भी उनके आवास पर मिला । तब अंगूरा खरगोश रखे थे । मेरी बेटियां बहुत खेलीं । तब अर्चना भी थी । फिर वह चंडीगढ इंडियन एक्सप्रेस में आई तब ज्यादा मिलना हुआ । इतने वर्षों बाद नवल प्रयास के सम्मान समारोह में शिमला में केशव व सुशील कुमार फुल्ल से मिलना हुआ । अब शिमला जाता हूं तो जरूर समय निकाल कर सम्मान से मिलने आती है बेटी की तरह अर्चना फुल्ल । इसी तरह राजेंद्र राजन की बेटी नंदिता दिल्ली में नवल प्रयास की काव्य गोष्ठी में मिली । खुद ही फेसबुक फोटो से पहचाना । अच्छा लगा । उससे भी निरंतर संपर्क में हूं । कविताएं अच्छी लिखती है । इसी प्रकार कुमार कृष्ण के शोघी स्थित निवास पर भी आतिथ्य का सौभाग्य मिला । वे भी निरंतर संपर्क में हैं । सुंदर लोहिया से समरहिल में यूनिवर्सिटी में छोटी सी मुलाकात हुई थी । तब हम दोनों की कहानियां श्रीपत राय की कहानी पत्रिका में आती थीं । सुना है आजकल वे अस्वस्थ हैं ।

अब शिमला और हिमाचल में मेरे अनेक मित्र हैं । सबको यादों की धरोहर पहुंचाने की कोशिश की ।

पुनीत सहगल को भी याद कर रहा हूं । वह नवांशहर में ही रहा और शिमला दूरदर्शन का डायरेक्टर भी रहा । उसने एख बार शिमला दूरदर्शन पर मेरा लाइव इंटरव्यू प्रसारित किया । सेन्नी अशैष के जिक्र के बिना भी क्या हिमाचल? सैन्नी अशेष से पहली मुलाकात सपरिवार तो अम्बाला छावनी में कहानी लेखन महाविद्यालय के प्रांगण में हुई लेकिन सन् 2019 सितम्बर में मनाली में कहानी लेखन महाविद्यालय के लेखक शिविर में हुई । तीन दिन । खूबु मुलाकात और अपने घर भी ले गये । ओशो की झलक भी दिखाई । एक घंटे के कार्यक्रम में। जाने कितने लेख /चर्चायें ओशो पर और स्नोबा बार्नो का रहस्यमयी चरित्र। डाॅ गौतम शर्मा व्यथितडाॅ चंद्रशेखर के पास जब पीएचडी कर रहे थे और जालंधर उनसे निर्देश लेने आते गाइड के तौर पर तब मुलाकात होती रही जो सम्पर्क आज तक बना है ।

सबसे अच्छी बात शिमला के रिज की । पिछले वर्ष की आखिरी शाम यानी 31 दिसम्बर को हम शिमला में ही थे । रिज पर । खूब भीड़ । खूब नये साल का जश्न । ऐसे में मुख्यमंत्री जय ठाकुर कुछ अंगरक्षकों के साथ अभिवादन करते चले जा रहे थे । वाह । न कोई धक्का मुक्की । न कोई रास्ता ब्लाक । न कोई घेराबंदी । जिसे मिलना हो । आगे आए और हाथ मिला ले । सच कोई वीआईपी कल्चर नहीं । भीड़ को यह भी मालूम नहीं कि मुख्यमंत्री हमारे बीच जा रहा है जबकि मैदानी क्षेत्रों में मुख्यमंत्री के आने पर रास्ते तक बदल दिए जाते हैं और जनता परेशान होती हैं । काश । यह बात दूसरे राज्यों के नेता भी समझें ।

बहुत मीठी मीठी यादें हैं मेरी हिमाचल के साथ ।

दिल ढूंढता हैंं फिर वही

फुर्सत के रात दिन ,,,,,,

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ तुम्हें याद हो कि न याद हो ☆ श्री कमलेश भारतीय

श्री कमलेश भारतीय

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी का यह संस्मरण अपने साथ कई लघुकथाएं लेकर आया है जो वर्तमान में भी उतना ही सार्थक है जो अस्सी के दशक में था। लेखक और संघर्ष का एक रिश्ता रहा है। यह संस्मरण हमें एक ऊर्जा प्रदान करता है समय और समस्याओं से संघर्ष करने के लिए। प्रस्तुत है संस्मरण – तुम्हें याद हो कि न याद हो )

☆ संस्मरण ☆ तुम्हें याद हो कि न याद हो

सन् 1984 की बात है । मैं लघु कथाकार के रूप में ज्यादा सक्रिय था और एक संग्रह तैयार किया : मस्तराम जिंदाबाद । लघुकथा सन् 1970 से नयी विधा के रूप में अपनी जगह बना रही थी और बड़े साहित्यकार इसे कभी सलाद की प्लेट तो कभी चुटकुला कह कर या अखबारों की घटना मात्र कह कर मजाक उड़ाते ।

ऐसे में कोई प्रकाशक लघुकथा संग्रह प्रकाशित करने का जोखिम क्यों लेता ? सोच  विचार के बाद ध्यान आया  तारिका और कहानी लेखन महाविद्यालय के संचालक डाॅ महाराज कृष्ण जैन जी का । मैं उनके पास अम्बाला छावनी पहुंच गया और अपनी पांडुलिपि उनके सामने रखी ।

डाॅ जैन मुस्कुरा दिए और बोले – कमलेश जी । मैंने तो प्रकाशन छोड़ दिया । आप मेरी हालत देख रहे हो । व्हील चेयर पर हूं । पुस्तक बेचना बड़ा मुश्किल काम है ।

– आप एक काम करेंगे ?

-बताओ ?

– इस पुस्तक के संपादक बनोगे ?

– वो कैसे ?

-आप पुस्तक प्रकाशन करवाने का काम जानते हो ।

– बिल्कुल । पुस्तक सुंदर से सुंदर बना सकता हूं पर बेचने का काम टेढ़ी खीर है ।

– बस । आप संपादक बन जाइए । पांडुलिपि छोड़े जा रहा हूं । आप इसे देखिए और संपादक की तरह फैसला कीजिए कि क्या  प्रकाशन के योग्य है भी या नहीं ? यह नहीं कि पैसा लगा सकता हूं तो छपना ही चाहिए । सारा पैसा प्रकाशन का मैं लगाऊंगा । इस विधा को लोकप्रिय करना है । सारी प्रतियां भी मैं ही ले लूंगा । आपका सिर्फ प्रकाशन का पता होगा ।

डाॅ महाराज कृष्ण जैन सहर्ष तैयार हो गये । कुछ दिन बाद उनका पत्र आया कि सचमुच यह संग्रह लघुकथा विधा के क्षेत्र में चर्चित होगा । आप इसे प्रकाशित कर सकते है । मैंने सारा संग्रह  देख लिया  है ।

फिर मैंने डाॅ जैन पर ही भूमिका लिखने की जिम्मेदारी डाली । यह कह कर कि परंपरागत तौर पर मेरी सिर्फ प्रशंसा यानी वाह वाह ही न हो बल्कि लघुकथा में मैं कहां खड़ा हूं , इसका मूल्यांकन भी कीजिए । मेरी जगह भी बताइये । आठ पृष्ठ की भूमिका में डाॅ महावीर कृष्ण जैन जी  को जहां जरूरी लगा मेरी बखिया भी उधेड़ कर रख दी और आलोचना भी की । आखिरकार एक हजार प्रतियों का मेरा पहला लघुकथा संग्रह पेपरबैक संस्करण के रूप में प्रकाशित हो गया, जिसमें डाॅ जैन ने अपने अनुभव के आधार पर दो सौ प्रतियां सजिल्द भी प्रकाशित कर मुझे दे दीं । उस भले वक्त में कुल चौबीस सौ रुपए में मेरा संग्रह एक बोरी में बंद जिन्न की तरह मेरे पास था । मैं स्कूल में प्रिंसिपल था तो एक कर्मचारी को साथ लेकर अम्बाला छावनी पहुंचा और डाॅ जैन का मुंह मीठा करवा अपनी पुस्तक संपादक से ले चला ।

अब समस्या थी कि इसका वितरण कैसे करना है ? एक हजार प्रतियां । कैसे लोगों तक पहुंचाओगे ? मेरे स्कूल का क्लर्क महेंद्र घर आया । हमने दलित पिछड़े वर्ग के बच्चों की छात्रवृत्ति सरकारी खजाने से निकलवाने जाना था । वह जालंधर से रेल पर आता था । उस दिन खटकड़ कलां की बजाय सीधे नवांशहर ही उतर का सुबह सुबह मेरे घर पहुंच गया था । इसलिए उसका नाश्ता तैयार करवा रखा था ।

जैसे ही महेंद्र को नाश्ता परोसा तो सामने रखी बोरी  में बंद पुस्तकों पर उसकी नज़र गयी । पूछा कि सर , इसमें क्या है ? मैंने बताया कि इसमें पुस्तक मस्तराम जिंदाबाद है।

-फिर कैसे दे रहे हैं आप ?

-कहां ? मैंने तो बोरी खोली भी नहीं । किसे देने जाऊं ?

– अरे सर । आप मुझे खोलने दो । महेंद्र ने नाश्ते के बाद बोरी खोली और  उसमें में से सजिल्द बीस प्रतियां उठा लीं । हमने सरकारी खजाने से पैसे निकलवाए और स्कूल खटकड़ कलां पहुंच गये । शाम की ट्रेन से महेंद्र  जालंधर चला गया ।

कुछ दिन बाद महेंद्र ने मुझे दो सौ रुपये देते कहा कि सर,  ये आपकी बीस पुस्तकों के पैसे । मैं हैरान और पूछा कि यह तुमने कैसे किया ?

महेंद्र ने बताया कि रेल में जालंधर से  चल कर कई सरकारी स्कूलों के मेरे जैसे क्लर्क सफर करते हैं । हम इकट्ठे ताश खेल कर समय बिताते हैं । मैने उन साथियो से  कहा कि यह हमारे प्रिंसिपल साहब की लिखी पुस्तक है । इसे अपने स्कूल की लाइब्रेरी में आधे मूल्य पर लगवा दो । बीस रुपए प्रिंट है । आप दस में ही प्रति लगवा दो । बस । चार पांच स्कूलों में चार चार पांच प्रतियां ले ली गयीं । बिल मैने बना दिए और पैसे मिले तो आपको दे दिए ।

मैं महेंद्र को देखता ही रह गया । वह फिर बोला – सर । पैसे आपके लगे हैं और मैं तो सिर्फ सहयोग कर रहा हूं । आप जिन स्कूलों या काॅलेज में पढ़े हैं क्या वे संस्थाएं आपकी पुस्तक लेने से मना कर देंगी ? आप मुझे साथ ले चलिए । अरे! यह तो मेरा गुरु बन गया ।

सचमुच हम उन स्कूलों में गये जहां मैने शिक्षा पाई थी । सभी प्रिंसिपल ने चार चार  प्रतियां तुरंत लेकर पैसे दे दिए । अपने काॅलेज में भी । यहां तक कि खेल प्रतियोगिता में जब सभी प्रिंसिपल इकट्ठे हुए तब कुछेक ने उलाहना दिया कि हमारी लाइब्रेरी के लिये किताब कब देने आ रहे हो ?

फिर नवम्बर आ गया । तब डाॅ जैन ने सुझाव दिया कि कमलेश नववर्ष के कार्ड भेजने की बजाय इस बार तुम अपनी पुस्तक उपहार में भेज दो । मैंने मोहर बनवाई उपहार भेंट की और तीन सौ लिफाफे खरीद कर ले आया । बस । लग गया उपहार में लेखकों संपादकों के नाम पोस्ट करने । नये साल के आने तक अनेक दूर दराज की कुछ नयी और कुछ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं मे इसकी समीक्षा देख खुद डाॅ जैन ने मुझे बहुत सारी कतरन भेज कर लिखा कि तुमने तो मेरा बंद पड़ा प्रकाशन चला दिया । लेखक मेरे से झगड़ा रहे हैं कि मैंने प्रकाशन बंद कर रखा है और कमलेश भारतीय की पुस्तक इतनी चर्चित हो रही है । यह कैसे ? तुमने तो  मेरे सुझाव पर ऐसे चले कि गुरु को भी  पीछे छोड़ गये । मुझे बहुत खुशी है । बहुत गर्व है तुम पर ।

इस तरह पहले लघुकथा संग्रह मस्तराम जिंदाबाद से मैंने सीखा पुस्तक पेपरबैक में होनी चाहिए और प्रिंट से आधा मूल्य लिया जाए तो सस्ती पुस्तक को हर व्यक्ति खुशी खुशी खरीद लेता है। पेपरबैक पुस्तक उस जमाने में पांच ही रुपये में दी । मेरे अपने सरीन परिवार के हर घर ने पांच पांच रुपये में मस्तराम जिंदाबाद खरीद कर  मुझे प्रोत्साहित किया  और इस तरह तीन सौ पुस्तक मेरे शहर नवांशहर के ही सरीन परिवारों में आज भी सहेजी हुई है  उन्हें खुशी है कि उनका बेटा लेखक बन गया । आर्टिस्ट और आजकल ट्रिब्यून समूह के कार्टूनिस्ट संदीप  जोशी का आभार जिसने मस्तराम जिंदाबाद का आवरण बनाया और खुद  ही चंडीगढ से अम्बाला छावनी  जाकर डाॅ महाराज कृष्ण जैन को सौंप कर आया । उसका नाम प्रकाशित है । मेरे साथ ही रहेगा ।

यही प्रयास वर्षों बाद मैंने नयी पुस्तक यादों की धरोहर के  साथ किया । हिसार में  एक एक मित्र ने मेरी प्रति  ली और बाकायदा राशि दी । दूरदराज के मित्रों ने सहयोग दिया । नवांशहर में अब भी छोटा भाई प्रमोद भारती पुस्तक पहुंचा रहा है । इस तरह एक बार फिर मेरा पहला संस्करण चार माह में सबके हाथों तक दिल्ली के पुस्तक मेले से पहले पहुंच गया । बिना किसी आर्थिक नुकसान के ।

वाह । पहली  प्रति पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती आशा हुड्डा के हाथों सौप कर दिल्ली में पंद्रह सितंबर को उनके जन्मदिन पर विमोचन करवाया और आज अंतिम  प्रति  पंचकूला  के मित्र प्रदीप राठौर  के नाम कोरियर से जा रही है । जिसे लिखा भी कि इसमें साथ ही यादों की धरोहर की यात्रा संपन्न हो रही है ।

मित्रो , आज सचमुच मैं मुक्त हूं और मेरी पत्नी नीलम पूछ रही है कि अब क्या करोगे ? इतने व्यस्त कि  रोज़ आधी रात बैठकर पैकेट बनाते थे । बेटी रश्मि गोंद लगाती थी और मेरे प्रिय मित्र  राकेश मलिक पोस्ट ऑफिस या कैरियर तक छोड़ने  जाते थे ।

मैंने कहा कि मैं आदरणीय डाॅ जैन और  अपने उस भूले बिसरे क्लर्क महेंद्र को गुरुमंत्र देने पर मन ही मन सुबह सवेरे नमन् कर रहा हूं । मुझे पुस्तक का प्रकाशक नहीं सिर्फ संपादक चाहिए ।

एक बार फिर रामदरश मिश्र जी की पंक्तियों के साथ अपनी बात रख रहा हूं :

मिला क्या न मुझको ऐ दुनिया तुम्हारी

मोहब्बत मिली है मगर धीरे-धीरे  ।

जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर

वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे ।

बाॅय । यादों की धरोहर । जल्द नये संस्करण के साथ मिलेंगे । कुछ नये संस्मरण जोड़ कर । इंतजार कीजिए । फिर से आभार । आजकल नया कथा संग्रह यह आम रास्ता नहीं है, को भेज रहा हूं और दूर दराज बैठे मित्र पहले ही पेटीएम भेज कर सहयोग कर रहे हैं । सबका हार्दिक आभार ।

 

© श्री कमलेश भारतीय

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ मेरी स्मृति के कगार पर घुमक्कड़ ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार

डॉ प्रतिभा मुदलियार


(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

☆ मेरी स्मृति के कगार पर घुमक्कड़ ☆

आज फिर तुमसे रुबरु हो रही हूँ। कोविड के भय से जन जीवन धीरे धीरे मुक्त हो रहा है। लोग बाग अपने अपने जीवन का रुख अपना कर आगे बढ़ रहे हैं। आखिर जीवन एक ही पटरी पर कितनी देर रुका रह सकता है ? चलना ही तो जीवन है ना। जीवन चलने का नाम!!

कल मेरी एक छात्रा की पुस्तक का लोकार्पण समारोह था। मैं उस समारोह में वक्ता के रूप में उपस्थित थी। यह पुस्तक अपने आप में घमक्कड समुदाय का इतिहास रचती है। यह समुदाय भले ही समाज से बिलकुल अलग थलग है, अलक्षित है फिर भी समाज से जुडा है। वास्तव में मेरी छात्रा, हां, नाम भी बताती हूँ… करुणालक्ष्मी ने कन्नड लेखक कुप्पे नागराज की आत्मकथा ‘आलेमारिय अंतरंग’ का हिंदी अनुवाद ‘घुमक्कड का अंतरंग’ इस नाम से किया है। यह आत्मकथा कर्नाटक के दोंबिदास अर्थात घुमक्कडों की जीवन गाथा है। पता है तुम पुछोगे कि दोंबिदास कौन है? बताती हूँ… दोंबिदास वे लोग हैं जो गाँव गाँव जाकर नाटक का प्रदर्शन करते है, इकतारा लेकर घर घर जाकर तत्वगीत गाते हैं, भविष्यवाणी करते हैं, आम लोगों की बीमारियों का ईलाज़ करते हैं, कौडी डालकर भविष्य बताते है और बैलों को सजाकर घर घर जाकर भिक्षा मांगते हैं और उस परिवार को आशीर्वाद देते हैं। ऐसे सुमदाय के लोगों को हम घुमक्कड या खानाबदोश कह सकते हैं। उनके जीवन की कथा इस आत्मकथा की वस्तु है। यह वस्तु मनुष्य जीवन की आधारभुत जरूरतों के इर्द गिर्द घुमती है..रोटी, कपडा, मकान और शिक्षा। रोटी को हम भूख और मकान को हम छत कहें तो अधिक उचित होगा। इक्कीसवीं सदी में रहते आज भी लोगों को जीवन की बेसिक नीडस् मुहय्या नहीं होती। उसके लिए भी आजीवन संघर्ष करना पडता है। कितना भयानक सच है न…..वास्तव में इस पुस्तक की जो सबसे विशेष बात मुझे लगी वह है इसका सांस्कृतिक पक्ष जिसे लेखक ने बिलुकल सहजता से व्यक्त किया है। पुस्तक में कई सारे प्रसंग हैं जो इस समुदाय की जीवनशैली, संस्कृति आदि को व्यक्त करते जाते हैं..अनायास। कल समारोह में तत्वगीत भी उन्हीं लोगों द्वारा प्रस्तुत किया गया था। जो उनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पक्ष है।

कल जब यह सारा देख रही थी, सुन रही थी तब मेरे बचपन के कुछ प्रसंग जो लगभग विस्मरण की कगार पर पहुँच गए थे वे एकदम से जीवित होने लगे। सोचा उन प्रसंगों को, उन क्षणों तुम्हारे साथ साझा करूँ। उन्हें शब्द रूप देकर तुम तक पहुँचाऊं। हो सकता है इसे पढकर तुम्हारी बचपन की कुछ स्मृतियाँ जग जाए और तुम्हारे नीरस जीवन में ब्रेक लग जाए।

इस आत्मकथा में ‘कोलबसव’ शब्द आया तो मैंने पूछ लिया था कि इसका क्या मतलब है तो करुणालक्ष्मी ने मुझे उसकी तसवीर दिखाई थी। मैंने देखा कि एक ऊँचे पुरे बैल को सुंदर ढंग से सजाया गया है और उसके ऊपर रंगविरंगी वस्त्र डाले गए है उसके गले में घंटियाँ बांधी गयी हैं और उसके सिंगों को भी सजाया गया है। वह देखते ही मेरे सामने बचपन में देखे नंदीबैल की तसवीर झलक गयी। तुम्हें तो पता है मैं गलि मोहल्ले में पलि बढी हूँ। हमारी गलि में अक्सर कुछ खानाबदोश लोग नंदीबैल लेकर आते थे। तब कभी मन में यह प्रश्न नहीं आया था कि ये लोग कौन हैं, कहाँ से आये हैं? हमारे आकर्षण का केंद्र बस वह नंदी बैल और उसके गले की किनकिन बजती वह घंटियाँ ही होती थीं। नंदीबैल को जो लोग ले आते थे उनका पहनावा भी हटकर होता था। जहाँ तक याद है वे सफेद धोती और एक लंबा कुर्ता या शर्ट पहनते थे उनके गले में हरे, लाल या पीले रंग का अंगवस्त्र होता था, गले में कौडियों की या रुद्राक्ष की माला होती थी, हाथ में इकतारा, घंटी या फिर एक प्रकार का वाद्य होता था जिसे पता नहीं क्या कहते है। उनका सिर अक्सर पगडी या टोपी से ढका रहता था। भाल पर आमतौर पर भस्म और तिलक रहता था। उनका पहनावा हम बच्चों को कुछ अजीब सा लगता था। ये लोग नंदी को लेकर घर घर जाते और भिक्षा मांगते थे। उनके कंधे पर झोला भी होता था। घर की बुजुर्ग महिलाएं और कभी कभी पुरूष भी उनके झोले में अनाज आदि डाल दते थे तो कभी कभी कुछ पैसे भी दे देते थे। बदले में वे लोगे आशीर्वाद देते। कुछ लोग तो नंदी के पैरों पर लोटाभर पानी डालकर उसके पैर पखारते उसको कुंकुम का तिलक करते अक्षत और फूल भी उस पर वार देते और उस समय घर में जो होता चाहे वह फल हो या रोटी उसे खिलाते थे। कुछ स्त्री पुरूष नंदी को कुछ घर गृहस्थी से संबंधित प्रश्न पुछते थे और वह व्यक्ति उनके प्रश्नों का उत्तर देता था। इनका वार्तालाप अधिकतर कन्नड में होता था और मेरी समझ में कुछ नहीं आता था। हम बच्चे भी गलि में नंदी बैल के आते ही उसके पीछे हो लेते और डर डर कर उसे पीछे से छू कर नमस्कार करते। कुछ बहादूर बच्चे भी होते जो नंदी के सामने जाकर उसके भाल को छूकर प्रणाम करते और उसे पूछते थे मैं पास हो जाऊँगा/जाऊँगी? और नंदी अपनी गर्दन हिलाकर हाँ या ना में उत्तर देता था। हम खुश हो जाते थे। उन दिनों यह सब हमारे मनोरंजन के साधन थे। इतने सालों में मैंने क्वचित ही नंदी बैल को देखा है।

जैसे नंदीबैल लेकर आनेवाले होते थे वैसे ही कुछ और लोग भी थे जिनका पहनावा भी इनकी तरह ही होता था। किंतु इनके साथ महिला होती थी। इनके गले में विशिष्ट प्रकार की कौडियाँ की माला होती थी। सिर पर विशेष प्रकार की टोकरी होती थी। जिसमें किसी देवी माता की तसवीर या मूर्ति होती थी। उस पर भी मालाएं चढाई होती थी। उनकी इस टोकरी की किनार पर कौडियाँ बहुत करीने से लगायी गयी होती थी। इसके साथ ही कटोरे जैसी छोटी छोटी टोकरियाँ होती थी, जिसमें हलदी, कुंकुम, भस्म, कौडियाँ आदि रखा रहता था। इनके कंधे पर भी झोला होता था। ये लोग भी घर घर जाते थे। घर में स्थित बडे बुजुर्ग उनको सम्मान से घर में बुलाते थे। दरी या चटाई बिछाकर उनको बैठने के लिए कहा जाता था। उनको गुड पानी दिया जाता। घर की औरतें और मर्द उनके इर्द गिर्द बैठते। फिर बातों ही बातों में अपनी समस्याएं प्रश्नों के माध्यम से पूछे जाते थे। वे कौडी डालते और फिर उनके सवालों का उत्तर देते थे। उनके कहने का ढंग बडा मज़ेदार होता था। बोलने में सुर, लय, ताल का बडा ही सामंजस्य होता था। उनको सुनना अच्छा लगता पर मुझे कभी अर्थबोध हुआ नहीं। ये लोग कभी कन्नड तो कभी कभी मराठी मिश्रित कन्नड बोलते थे। प्रश्नोत्तर का कार्यक्रम खतम होने के बाद उनको पुराने कपडे, अनाज आदि देकर दूर से ही नमस्कार कर उनको विदा किया जाता था। इन लोगों का घर परिवारों में सम्मान होता था।

एक और मज़ेदार याद है। अमूमन शाम का समय होता था और एक आदमी जिसके बाल बिखरे होते थे, चेहरे पर भस्म लगा होता था, आँखे लाल लाल होती थी। गले में कई सारी रुद्राक्ष की मालाए होती थीं और कुछ तो कमर पर भी लटकी होती थी। शरीर का उपरी भाग नंगा होता था, कमर पर कई तरह के वस्त्र लटकते रहते थे। हाथ में लंबी सी छडी होती और उसके ऊपर घुंघुरु लगाए होते थे और सबसे वैशिष्ट्यपूर्ण बात यानि उसके गले में एक बडा सा  घंटा होता जो उसके घुटने तक लटकता रहता था। वह आदमी पीछे की गलि में स्थित मंगाई देवी के के मंदिर से आ जाता था। जब वह चलता तो उसके गले का घंटा दोनों घुटनों से लगकर आवाज़ करता था। ऐसी वेश भूषा में वह व्यक्ति अपनी बुलंद आवाज़ में ‘अलख निरंजन’ कहता चला जाता था और कुछ ही घरों के सामने खडे होकर भिक्षा मांगता था। उसका हुलिया डरावना होता था। मैं हमारे घर के ऊपरी मंजिल पर जाकर चुपके से खिडकी से उसे देखा करती थी। कभी कभी माता पिता बच्चों को उनका डर भी दिलाते थे। कुछ तो उसके आते घर में दुबककर रह जाते उनमें मैं एक थी। किंतु कुछ शरारती और निडर भी होते थे जो उसके पीछे पीछे भागा करते थे और उसको छेडते थे। …. और मज़ेदार बात सुनो…जैसे ही पता चलता कि अलख निरंजन बाबा आ रहा है तो कुछ बच्चे दौडकर आते और कहीं किसी के घर से कोयला ले आते अलख बाबा के मार्ग पर कोयले से तीन काली रेखाएं खींच देते और दरावजे की आड में छिप जाते थे। ऐसा माना जाता था कि  अलख बाबा उन तीन रेखाओं को पार कर नहीं जाएगा। किंतु याद पडता है कि वह बाबा उन रेखाओं के पास आता कुछ पल ठिठकता, उनको घुरता और होठों की होठों में कुछ बडबडाता और रेखाएं लांघ कर चला जाता था। वह जिस दिन आता था मैं घर से बाहर ही नहीं निकलती थी। हाँ चुपके से ऊपर की खिडकी से उसे देखा करती थी। डर का एक कारण यह भी था कि हमें यह पता नहीं किसने बताया था कि ये बाबा कबरस्तान में रहता है और भूतों से बातें करता है। उस समय का बस यही याद है। लेकिन जब बडे हुए तब पठन पाठन के दौरान पता चला कि ये अलख निरंजनी बाबा नाथ पंथी हठयोगी साधू होते हैं और भिक्षाटन के लिए आते थे। बचपन में अलख निरंजन का अर्थ मन में भय निर्माण करता था। किंतु बडे होने के बाद इस शब्द का गहन अर्थ भक्ति साहित्य पढने के बाद ही समझ पायी थी। सच में हमारी भक्ति परंपरा हमारे लोक जीवन में कितनी गहरी पैठी है न!

जैसे अलख निरंजन बाबा शाम के समय आते थे वैसे ही बिलकुल अल्लसुबह करीब करीब पाँच बजे के आसपास एक और साधु बाबा आया करते थे। आज भी उनकी छवि मेरी आँखों के सामने तैर जाती है। उनके हाथ में लालटेन और छत्रि होती थी और अक्सर वह छत्रि खुली रहती थी और उनके कंधे के सहारे टिकी रहती थी। वे सफेद या कभी कभी हलके गेरुएं रंग के वस्त्र धारण करते थे। कंधे पर लटकता हुआ झोला होता था और कलाइ में घंटी लटकती रहती थी। वे अत्यंत धीरे धीरे पैदल चलकर आया करते थे। जब वे चलते तब उनके हाथ में लटकती घंटी मधुर आवाज़ में बजती रहती थी। वे अपने मूँह से एक तरह की आवाज़ निकाला करते थे। वह आवाज़ किसी पक्षी की होती थी। सुबुह सुबह घंटी की वह किन किन और पक्षी की आवाज़ सुनकर बडे बुजुर्ग जाग जाते थे। माँ और पिताजी भी जाग जाते थे। वे ऊपर की खिडकी से झांककर देखते और कहते थे कि आज कई दिनों बाद ‘पिंगळा’ आया है। मैं भी कभी कभी जाग जाती थी। मेरे भाई भी जाग जाते थे, उस साधु बाबा को देखने की उत्सुकता हम सबके मन में होती थी। पौ फटने का समय और झुटपुट अंधेरे में वह छवि मन को मोह लेती थी। ये पिंगळे आमतौर पर कन्नड में ही बोलते थे। कर्नाटक का लिंगायत समुदाय शिवभक्त है। अतः ये साधु उनके घरों के सामने ही रुक जाते थे। लिंगायत परिवार के लोग उनका आदर सम्मान करते थे। उनको भिक्षा आदि देते थे। ये साधु आनेवाले दिन दिन कैसे होंगे इसकी भविष्यवाणी करते थे। जिसमें वर्षा कैसी होगी, फसल होगी या नहीं, बीमारी, गर्मी, अकाल, सूखा, किसी की मत्यु आदि की वे भविष्यवाणी वे करते थे। अगर देश पर, समाज पर कोई संकट आनेवाला है तो वे उसकी सूचना दिया करते थे। हम बच्चों को इसका अर्थ नहीं लगता था। हाँ, उसकी वह लालटेन, वह छत्रि जो काली नहीं बल्कि गेरुए रंग की होती थी और उसको झालर लगी होती थी, उसकी शांत मुद्रा अधिक आकर्षित करती थी। पापा अक्सर कहा करते थे कि ये साधुलोग पक्षियों की भाषा समझते हैं। पिंगळा भी एक पक्षी-विशेष का नाम है और उसी पक्षी की आवाज़ वो निकालते थे। इसलिए उनको पिंगळा कहा जाता है। ऐसे ही एक हेळव नाम से लोग सुबह सुबह आते थे। ये लोग हमारी वंशावली बताते थे। इनके पास कहते हैं हजारों पीढियों के वंश की जानकारी होती है। हेळव मुलतः कन्नड शब्द है जिसका अर्थ बताना होता है। अर्थात वंशावली की जानकारी बतानेवाले।

मेरे बचपन की यादों में एक और विशेष बात यानि दुर्गव्वा की है। जिन्हें मराठी में पोतराज कहा जाता है। पुरुष के सिर पर एक बडा सा पेटारा (संदुक) होता था और सुंदुक का जो खुला हुआ भाग जिसे हम किवाड कह सकते है उस पर झुलता हुआ एक परदा भी होता और अंदर माता दुर्गा की प्रतिमा या मूर्ति होती थी। उसे हलदी, कुंकुम और फूल मालाओं से सजाया होता था। यह पेटारा अमुमन पुरुष के सिर पर होता था। उसके साथ उसकी पत्नी और एक दो बच्चे होते थे। पुरुष की लंबी जटाएं होती थी। आँखें लाल लाल और शरीर के ऊपर का भाग नग्न होता था। निरंतर धूप में घुमने के कारण उसकी त्वचा काली होती थी। उसकी पुरे शरीर पर भस्म पुता होता था। उसके पैरों में घुंघरु होते थे। हाथ में चाबुक होता था। कमर पर रंगविरंगे कपडों की चिंधियाँ लटकती रहती जो स्कर्ट जैसी लगती थी। ये लोग गलि के नुक्कड या ऐसे स्थान पर अपना पेटारा उतारते जहाँ पर लोग इकट्ठा हो सके। उसकी पत्नी पेटारे के सामने बैठती जैसे ही लोग इकट्ठा हो जाते पत्नी पेटारे के किवाड का परदा ऊपर कर देती और वह पुरुष इधर से उधर करता हुआ और कुछ कुछ कहता हुआ अपने शरीर को चाबुक से मारता था। सप् सप् की वह आवाज़ और उसका चाबुक से मार लेना बडा ही भयावह और असुरी लगता था। मैं डरकर वहाँ तक जाती ही नहीं थी। किंतु मेरे कुछ दोस्त और सखियाँ वहाँ तक जाती और जानबुझकर वह परदा उठाने की कोशिश भी करती थी। कुछ लोग देवी माता की पूजा की सामग्री भी देते थे। वृत्ताकार खडे लोग वह सब देखते थे और उनके छोटे छोटे बच्चे हाथ में कटोरा लेकर लोगों के सामने खडे हो जाते और लोग कुछ पैसे उन कटोरों में डाल देते तो कुछ लोग अनाज भी देते थे। यह कार्यक्रम लगभग आधे घंटे तक चलता। फिर वह पुरुष पेटारा उठाता और किसी दूसरे नुक्कड पर जाकर पुनः कार्यक्रम चलता। इसप्रकार देवीमाता के माध्यम से उनका उदर निर्वाह चलता।

ये लोग अधिकतर महाराष्ट्र कर्नाटक, औऱ आंध्रप्रदेश से होते। इसलिए इनकी भाषा कन्नड, मराठी और तेलुगु होती है और ये सभी हिंदु धर्म का अनुकरण करते हैं। किंतु सभी मांसाहारी होते है। शाम के समय अपना सारा काम खतम करने के बाद ये लोग दिन भर की थकान मिटाने शराब और मांसभक्षण करते हैं। यह उनके समुदाय की आम बात है।

ये धुमक्कड लोग अपने उदर भरण के लिए इसप्रकार के कर्म करते चले आ रहे हैं… पता नहीं कबसे। भिक्षाटन उनका प्रमुख व्यवसाय हो गया। हमारे समाज में कितने ही ऐसे समुदाय हैं जो भिक्षावृत्ति के द्वारा अपनी जीविका चलाते है। मुझे याद पडता इन्हीं घुमक्कडों में बंदर, भालु खेलानेवाले भी हैं। जो गली गली इनका खेल प्रदर्शन करते है। हमारी भारतीय संस्कृति में घुमक्कडों के कई रूप-रंग हैं। पर इनका सासंस्कृति पक्ष देखे या इनकी गरीबी? इनका समुदाय देखे या इनका संघर्ष। संभव है इनकी संख्या में कमी आयी हो किंतु इनका संघर्ष समाप्त नहीं हुआ है।

कल जब दोबिदासों के जीवन की परतें खोलनेवाला आत्मकथ्य पढा तो मुझे वे सारे खानाबदोश, धुमक्कड लोग याद आए, जो मैंने देखे है। उस समय ये लोग हमारे लिए बस एक मनोरंजन का साधन भर था। किंतु एक अस्पष्ट सी जिज्ञासा इनके प्रति यह कि ये कहाँ से आए हैं, इनका घरबार कहाँ है, कैसे रहते हैं आदि। घुमक्कडों का अंतरंग निश्चित ही रंगीन नहीं है.. वहाँ अभाव है, भूख है, संघर्ष है और छत का पता नहीं है। साल के आठ महीने ये लोग घुमक्कडी करते हैं और वर्षा-काल में चार महीने एक स्थान पर स्थिर रहते हैं।

तुम समझ सकते हो, जो लोग खानाबदोश है, इस कोविड में इनका क्या हाल हुआ होगा। लॉकडाउन के दौरान कितना बडा मैग्रेशन इस देश ने देखा है। ऐसे समय ये लोग जो घुमक्कडी से अपना जीवनयापन करते रहे हैं उनका जीवन कैसा रहा होगा…जब एकदम से सबकुछ थम गया होगा ? उस समय इनकी स्थिति क्या हुई होगी? हम अपने अपने घरों में सुरक्षित थे पर जिनका जीवन रोज की कमाई पर चलता है.. उनका क्या हुआ होगा…. सोचकर रोंगटे खडे होते हैं और कोविड से परेशान विश्व की सुरक्षा के लिए हृदय से प्रार्थना निकलती है।

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

 

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृति शेष डॉ गायत्री तिवारी – मेरी ममतामयी माँ ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी माताश्री डॉ गायत्री तिवारी जी के लिए साहित्यिक पत्रिका ‘प्राची’  के नवम्बर 2015 अंक में प्रकाशित आपकी शब्दांजलि ।
? ई- अभिव्यक्ति परिवार की और से गुरुमाता डॉ गायत्री तिवारी जी को सादर नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि ?

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☆ स्मृति शेष डॉ गायत्री तिवारी – मेरी ममतामयी माँ – डॉ भावना शुक्ल ☆

(साहित्यिक पत्रिका ‘ प्राची’ नवम्बर 2015 अंक से साभार)   

ध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर नगरी की प्रतिदिन प्रसिद्ध शिक्षा सेवी, कथा लेखिका, कवयित्री तथा संगठन कर्मी स्व. डॉ. गायत्री तिवारी मेरी पूज्या माता थीं.

वे मेरी मां थीं, मुझे प्रिय थीं, यह सहज स्वाभाविक है. विशेष यह कि वे सर्वप्रिय थीं, अजातशत्रु थीं. जो भी उनसे एक बार मिलता, वह उनके अपनत्व से उनका परिवारजन बन जाता.

27 दिसंबर 1947 को पं. रामनाथ तिवारी श्रीमती बेनीबाई तिवारी की पुत्री के रूप में जन्मी, राधा कन्या पाठशाला, हितकारिणी हाई स्कूल, दीक्षित पुरा; होमसाइंस कालेज और हितकारिणी बी.एड. कॉलेज में शिक्षित दीक्षित मां गायत्री ने हिन्दी और समाजशास्त्र में एम.ए., बी.एड. और साहित्य रत्न की परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं. विद्यावाचस्पति और विद्यासागर की उपाधियां अर्जित कीं.

29 जून 1965 को उनका विवाह तेजस्वी कवि लेखक सम्पादक श्री राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ से हुआ, जो डॉ. राजकुमार ‘सुमित्र’ के रूप में चर्चित प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित हैं.

माँ ने शिक्षकीय कार्य से जीवनारंभ किया. पीढियों को शिक्षित किया और उच्चश्रेणी शिक्षिका के रूप में सेवा निवृत्त हुईं.

मेरे पिता डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ की सतत् प्रेरणा से मां ने अपने साहित्यिक स्वरूप का निखारा. उनका कहानी संग्रह ‘कोबरा’ और काव्य संग्रह ‘जागती रहे नदी’ तथा बाल कविता संग्रह प्रकाशित हुए.

माँ को उनकी कहानी, ‘कोबरा’ पर मध्यप्रदेश शासन के जनसंपर्क विभाग द्वारा 21 हजार का पुरस्कार प्राप्त हुआ. जबलपुर की संस्था कादम्बरी, हिन्दी लेखिका संघ भोपाल, भाषा सम्मेलन, पटियाला, बाल साहित्य केन्द्र अकादमी, मारीशस तथा पूर्वोत्तर हिन्दी अकादमी, शिलांग, तुलसी अकादमी भोपाल ने उनकी सेवाओं को सम्मानित किया.

वे जबलपुर की प्रसिद्ध संस्था त्रिवेणी परिषद की वर्षों तक सक्रिय सचिव रहीं. पाथेय संस्था, पाथेय प्रकाशन और पाथेय साहित्य कला अकादमी की संस्थापना में उनका प्रमुख योग था.

डॉ. गायत्री तिवारी ने अभिनव नारी निकुंज, शिवम् नारी निकुंज तथा शब्द गरिमा का सम्पादन भी किया.

वे आर्थस गिल्ड ऑफ इंडिया, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, मध्यप्रदेश लेखक संघ, हिन्दी लेखिका संघ तथा मासिक बाल प्रहरी की आजीवन सदस्य थीं. जबलपुर नगर की संस्थाओं- मित्रसंघ, हिन्दी मंच भारती, वर्तिका, गुंजनकला सदन, परिणीता, जागरण साहित्य समिति महिला परिषद से उनका गहरा जुड़ाव था.

हमारा घर, नवनीत, समाज कल्याण, शब्द सरोकार, प्राची, कर्मनिष्ठा, स्थानीय समाचारपत्रों के साथ ही अमेरिका और मारीशस की हिन्दी पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित होती थीं. आकाशवाणी से निरंतर उनकी कहानियों का प्रसारण होता रहा.

गायत्री जी मेरी माँ  थी. उनका प्यार उनकी ममता के साथ-साथ अच्छे संस्कार और उनका संरक्षण मिला, यह मेरा सौभाग्य था.

मेरे पिता डॉ. सुमित्र का कहना है कि शास्त्रों में नारी के जितने गुण बताये गये हैं, वे सब गायत्री में थे. वे सुगृहणी, समर्पित पत्नी, ममतामयी माँ, कुशल शिक्षिका और उत्साही समाज सेवी थीं. उनमें परम्पर के प्रति प्रेम था तथापि वे रूढ़ियों के विरुद्ध थीं. उनका मेरे जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान था. उन्होंने मुझे फकीर से बादशाह बनाया. उन्हें खोकर लगता है कि मैं कुबेर से कंगाल हो गयी हूं.

8 सितम्बर 2015 को चिर विदा लेने वाली प्यारी माँ को सजल श्रद्धांजलि!?

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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