हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 36 – संस्मरण – दरिद्र कितना असहाय है ? ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – दरिद्र कितना असहाय है ?)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 36 – संस्मरण – दरिद्र कितना असहाय है ? ?

क्लास प्रारंभ होने में अभी कुछ समय बाकी था। फिर भी मैंने घर का मुख्य दरवाज़ा खोल दिया और स्टडी रूम में तैयारी के लिए बैठ गई।

आज आनेवाला छात्र जर्मन है। पिता -पुत्र साथ ही हिंदी सीख रहे हैं। तीन माह पूर्व वे इटली से भारत शिफ्ट हुए हैं। दीवाली की छुट्टी के बाद उनका आज पहला क्लास था। उन्हें पता होता है कि दरवाज़ा खुला होता है पर चूँकि छुट्टी के बाद क्लास था तो अभिवादन के लिए मैं ही द्वार खोलकर उनकी प्रतीक्षा करने लगी।

सामने लिफ्ट के पास दीवार से टिककर एक नवयुवक खड़ा दिखा। उसकी पीठ के पीछे सात फुट बाय छह फुट का एक बड़ा मोटा, भारी प्लायवुड टिका था। हम तीसरी मंज़िल पर रहते हैं। उसे शायद और ऊपर जाना था। वह शायद आराम करने के लिए रुका था। लिफ्ट से इतनी बड़ी वस्तु तो ले जाना मना है।

पिता -पुत्र आए। नब्बे मिनिटों का क्लास पूरा हुआ और वे जाने लगे। बच्चों को विदा करने के लिए मैं हमेशा दरवाज़े तक जाती ही हूँ तो मैं पुनः दरवाज़े पर लौटी तो वही नव युवक उसी तरह पीठ पर प्लायवुड लादे खड़ा था।

पूछने पर वह बोला- यह तो छयालीसवाँ है। अभी चार और हैं। ट्रकवाला पचास प्लायवुड उतारकर चला गया है। दो घंटे में सब ऊपर ले जाना है।

– तो कोई साथी नहीं है तुम्हारे साथ जो मदद कर दे?

– नहीं, दुकानदार ने ट्रक के साथ मुझे ही भेजा है।

– कौन से फ्लोर पर जाना है?

– छठवें पर।

मैं अवाक होकर उसे देखने लगी कि इतना बड़ा और भारी वह भी पचास प्लायवुड इस अकेले मजदूर के लिए कितना कठिन होता होगा एक सौ से अधिक सीढ़ियों पर चढ़कर ले जाना फिर उतरना और फिर चढ़ना!

– पानी पियोगे बेटा?

– नहीं आंटी। कहकर वह अपने अंगोछे से पसीना पोंछने लगा।

कुछ देर विस्मित -सी उसे मैं देखती रही। उसका शरीर पसीने से लथपथ था। शरीर पर एक बिनियान था जो पसीने के कारण पूरा गीला था। कभी वह बनियान सफ़ेद तो निश्चित रहा होगा पर आज उसका रंग धूल मिट्टी और स्वेद के कारण पूरी तरह काला पड़ गया था।

मेरा भन भीषण व्याकुल हो उठा। कई चित्र आँखों के सम्मुख उभरने लगे।

बचपन से ईसा मसीह के बारे में सुनते तथा पढ़ते आ रहे हैं। दो चार फ़िल्में भी देखी हैं जहाँ ईसा को सज़ाए मौत दी जाती है और पूरे शहर से पीठ पर उसी सूली को उठाकर चलने की बाध्यता भी रखी गई थी बाद में जिस पर उन्हें कीलें ठोंककर चुनवा दिया गया था।

मनुष्य कितना कठोर, हिंसक, नृशंस और अत्याचारी हो सकता है इसकी सारी हदें रोमन्स पार कर चुके थे। यशु कमज़ोर तन और भीषण तीव्र मनोबलवाले पुरुष थे। वे तो द सन ऑफ़ गॉड माने जाते थे। शायद उन्हें विदित भी था कि उनका अंत मनुष्यों के हाथों इसी तरह से होगा।

पर आज! आज महज़ दो वक्त की रोटी कमाने के लिए एक मजदूर के साथ ऐसा अन्याय ? इतनी कठोरता? जिसके घर फर्नीचर बनने के लिए ये पचास प्लायवुड आए हैं उन्हें तो संभवतः यह ज्ञात भी न होगा कि ये किस विधि ऊपर पहुँचाए गए होंगे। आज सब प्रकार की मशीनें,  मैन्यूअल लिफ्ट उपलब्ध हैं। फिर किसी ग़रीब के साथ उसकी विवशता का लाभ उठाते हुए इस तरह का व्यवहार क्यों किया जा रहा है भला?

मैंने जब युवक से पूछा कि पचास प्लायवुड ऊपर ले जेने के कितने पैसे मिलेंगे? तो वह चट बोला 2800 रुपये आंटी जी।

ईश्वर भला करे नौजवान का। संभवतः हर सीढ़ी चढ़ते समय उसने 2800रुपयों के करारेपन को अहसासों में महसूस किया होगा।

संभवतः उसकी किसी विशेष प्रयोजन में ये 2800 रुपये सहायक होंगे।

संभवतः वह भयंकर विवश रहा होगा।

पर जब रात को वह सोने गया होगा और फर्श पर अपनी पीठ टिकाई होगी तो क्या उसकी रीढ़ सीधी हो पाई होगी? भयंकर पीड़ा का अहसास न हुआ होगा? वह दर्द से कराह लेता रहा होगा। पर 2800 रपये के स्पर्श और गंध ने मरहम का काम भी किया होगा।

हाय रे प्रभु तेरी इस दुनिया में दरिद्र कितना असहाय है रे!

© सुश्री ऋता सिंह

8/11/24 8.10pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 536 ⇒ वर्मा जी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “वर्मा जी।)

?अभी अभी # 536 ⇒ वर्मा जी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आज बहुत दिनों बाद वर्मा जी सपने में दिखाई दिए।

उन्हें सपनों में ही आना था क्योंकि इस असली संसार से तो कई वर्ष पहले ही विदा ले चुके थे। वे मेरे फेसबुक फ्रेंड नहीं, मेरे अभिन्न मित्र थे, और बैंक में मेरे सहकर्मी थे। वे मेरे लिए कृष्ण भले ही ना सही, लेकिन एक सारथी अवश्य थे। हम शर्मा वर्मा के बीच कभी कोई विश्वकर्मा नजर नहीं आया।

वे अविवाहित थे इसलिए याद करते ही हाजिर हो जाते थे। वे वर्मा थे, इसलिए कायस्थ थे, उनके दो बड़े भाई और थे, लेकिन उनकी कोई बहन नहीं थी। पिताजी जब जीवित थे, तब कलेक्टर थे। मैने उनके माता पिता को नहीं देखा। पिताजी के गुस्सैल स्वभाव का अक्सर वे जिक्र करते थे, लेकिन मां के बारे में उन्होंने कभी कुछ नहीं बताया।।

जब तक उनकी भाभी रही, उनके लिए खाना बनाती रही, उनके देहांत के बाद उन्हें एक खाना बनाने वाली रखनी पड़ी, ताकि सुबह शाम उनको घर का खाना मिल सके।

उनकी दिनचर्या सुबह जल्दी शुरू हो जाती थी, नहा धोकर वे सराफा जाकर जलेबी पोहे नहीं खाते थे, अहिल्या केंद्रीय लाइब्रेरी में सुबह सुबह अखबारों का नाश्ता करते थे। अग्निबाण से लेकर टाइम्स ऑफ इंडिया तक वे आसानी से पचा जाते। शहर की सनसनी घटनाओं में भी उनकी विशेष रुचि रहती थी।।

बौद्धिक कलेवे के बाद वे कॉफी हाउस आते थे, जहां कॉफी के साथ कुछ स्नैक्स और अन्य नियमित मित्रों के साथ चटपटा वार्तालाप उनकी दिनचर्या का अंग था। पश्चात् घर जाकर भोजन और बैंक के लिए रवानगी।

हमारी उनकी शामें अक्सर साथ साथ गुजरती। कभी एवरफ्रेश तो कभी जेलरोड के एटलस टेलर के यहां उन्हें नियमित देखा जा सकता था। तब हम लोगों की शाम अक्सर मित्रों के नाम ही होती थी। वैसे भी हम जैसे टी-टोटलर्स के लिए कॉफी हाउस ही पर्याप्त था।।

वर्मा जी जितना पढ़ते थे, उसके कई गुना अधिक बोलने की क्षमता रखते थे। उनकी धाराप्रवाह शैली उन्हें आत्म विश्वास प्रदान करती थी। वे सदा सत्ता से असहमत रहते थे, इसलिए असंतुष्ट रहते थे। उनकी भाषा असंयमित हो सकती थी, लेकिन अभद्र और अश्लील कभी नहीं। अत्यधिक आवेश में भी उनके मुंह से कभी कोई गाली नहीं फूटी।

वे कभी विचलित अथवा बोर नहीं होते थे। एक पुरानी तारीख के अखबार के सहारे वे आधा घंटा आराम से निकाल लेते थे। उन्हें किताबें खरीदने का अधिक और पढ़ने का शौक कम था फिर भी वे बहुत हद तक अपने आपको अपडेट रखते थे।।

वे कभी बहस में हार नहीं मानते थे। अपनी गलती पर अड़े रहना और सामने वाले को मैदान छोड़ने पर मजबूर करना उनकी विशेषता थी। कभी कभी उनके अनर्गल प्रलाप से शांति भंग होने का अंदेशा भी होता था, लेकिन मध्यस्थ सब शांत कर देते थे।

पहले उन्हें दिल की बीमारी लगी और बाद में शुगर की। अधिक शुगर के कारण एक घाव ठीक नहीं हो पाया, और पूरे शरीर में जहर फैल गया। उधर खाना बनाने वाली महिला, पहले उनकी परिचारिका बनी और बाद में दत्तक पुत्री बन, पूरे मकान की मालकिन। विवाह ना करने के बावजूद भी उनका अंतिम समय विवादों और तनाव में ही गुजरा।।

आज फेसबुक खोलने से पहले ही सपने में उनका मुस्कुराता फेसमुख नजर आ गया और बीती बातें याद आ गई। मैने अपना मित्र नहीं अपने परिवार का एक सदस्य खोया। तब से अपने राम अकेले हैं, सारथी जो साथ छोड़ गया …!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

श्री सुधीरओखदे  

परिचय

जन्म – 21 दिसम्बर 1961 (बीना मध्य प्रदेश)

शिक्षा – कला स्नातक – (B.A.), 2- पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान स्नातक – (B.Lib.I.sc) रीवा ,शहडोल और छतरपुर मध्य प्रदेश में …..

लेखन –सभी प्रतिष्ठित हिंदी पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य ,आलोचना , कवितायें और संस्मरण प्रकाशित .

प्रकाशित पुस्तकें – (व्यंग्य) 1-बुज़दिल कहीं के …2-राजा उदास है 3-सड़क अभी दूर है 4-गणतंत्र सिसक रहा है

विशेष – (1) मुंबई विश्वविद्यालय के B.A. (प्रथम वर्ष) में 2013 से 2017 तक “प्रतिभा शोध निकेतन “व्यंग्य रचना पाठ्यक्रम में समाविष्ट (2) अमरावती विश्वविद्यालय के B.Com (प्रथम वर्ष) में 2017 से “खिलती धूप और बढ़ता भाईचारा”व्यंग्य रचना पाठ्यक्रम में शामिल .

 

  • सुधीर ओखदे की अनेक रचनाओं का मराठी और गुजराती में उस भाषा के तज्ञ लेखकों द्वारा भाषांतर प्रकाशित
  • इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी सहित अनेक साहित्य वार्षिकी और महाराष्ट्र में प्रसिद्ध दीपावली अंकों में रचनाओं का प्रकाशन
  • आकाशवाणी के लिए अनेक हास्य झलकियों का लेखन जो “मनवा उठत हिलोर“और “मुसीबत है “शीर्षक तहत प्रसारित

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई

☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ ☆

☆ “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीर ओखदे

देखते देखते दुनिया कितनी बदल गई, परिवार टूटने लगे, एक ही घर में कितनी दीवार खड़ी हो गईं. आवभगत, प्रेम स्नेह, अपनापन कितने पराये हो गए, आपसी भाईचारा, त्याग बलिदान और रिश्तों को निभाने की परंपरा गायब होने लगी, ऐसे समय रह रहकर झांसी वाली मामी अक्सर याद आतीं हैं. उस समय तो ख़याल भी नहीं आता था कि ये अति साधारण सी दिखने वाली मामी अपने कर्तव्यों को ले कर कितनी सजग है. आज जब सोचता हूँ तो महसूस करता हूँ कि मेरी छोटी मामी न सिर्फ़ एक अच्छी इंसान थी अपितु वो अपने परिवार को ले कर कितनी समर्पित भी थी. अपने ससुराल पक्ष को ले कर उचित आवभगत. प्रेम अपनापन, प्यार स्नेह और साथ में जहाँ कठोर हो कर संस्कार लगाने हैं वहाँ उतनी ही कड़क भी. आज जहाँ किसी के घर २-३ दिन मेहमान बन कर जाने के पहले सोच विचार करना पड़ता है वहीं हमारी मामी अपनी ४ ननदों और उनके कुल १०-११ बच्चों की गरमी की छुट्टियों में पूरी तैयारी के साथ उत्साह से प्रतीक्षा करती थी. और कोई एक दो दिन के लिए नहीं अच्छे १५-२० दिनो के लिए.

क्या होता है अपने घर में एक साथ १५-२० लोगों का रहना खाना पीना और घूमना फिरना सैर सपाटा सब कुछ. कैसे करते होंगे उस सीमित तनख़्वाह में मामा मामी सबका इतने प्यार से. मामी का पूरा नाम था “ कुमुद रामकृष्ण देसाई “. लेकिन हम सब उन्हें “ छोटी मामी “ नाम से ही सम्बोधित करते थे.

मेरे दो मामा थे. बड़े मामा मुंबई  में तो छोटे मामा झाँसी में रहते थे. मुंबई वाले मामा मामी दूर रहते थे. मुंबई यूँ भी हम सब को अपनी पहुँच से दूर लगती थी. ऊपर से कोई विशेष लगाव भी नहीं था. जब मुंबई वाले मामा मामी हम लोगों के घर आते तो बड़े प्यार से मिलते लेकिन पता नही क्यों एक औपचारिक सा वातावरण था वहाँ. मुंबई में जगह की समस्या शायद इसके पीछे एक कारण हो सकता है.

हम सब मौसेरे भाई बहन हर गरमी की छुट्टियों में झाँसी भागते थे जहाँ हमारी प्रिय छोटी मामी रहती थी. वो घर में ही एक छोटा सा स्कूल चलाती थी जिसमें मुझे याद आता है क़रीब २०-२२ बच्चे पढ़ने आते थे. स्कूल जाने के पूर्व बालवाड़ी या नर्सरी होती है न ? बस वैसी ही एक कमरे की स्कूल. लेकिन आप को बताऊँ झाँसी के “नरसिंह राव टोरिया” इलाक़े में मामी के स्कूल की धूम थी. बहुत मेहनत ले कर उस इलाक़े के सारे ग़रीब बच्चों को शिक्षा देने का अद्भुत कार्य मामी सन १९७०-७१ के दौर में करती थी. वह उस ज़माने की ग्रैजूएट थी और महाराष्ट्र के नागपुर की थी लेकिन झाँसी में बसने के बाद पूरी तरह से उसने अपने आप को बुंदेलखंड के परिवेश में ढाल लिया था. वो बच्चों से बुंदेलखंडी भाषा में बात करती थी.

उसके स्कूल की लोकप्रियता से प्रभावित हो कर शिक्षा विभाग की तरफ़ से उसके स्कूल को मान्यता देने की बात भी हुई थी ऐसा मुझे याद है, लेकिन मामी ने बड़ी विनम्रता से इस पेशकश को ना कहा था.

दरअसल मामा को ये स्कूल तकलीफ़ देती थी. उन दोनो में इस बात को ले कर तकरार भी होती थी लेकिन जीत हमेशा मामी की होती थी. मुझे याद है नीचे बच्चे अपने पंचम स्वर में कविता पाठ करते थे और ऊपर मामा उनसे भी तेज़ आवाज़ में पूजा करते करते श्लोक पढ़ते थे, मंत्रोचार करते थे. इस जुगलबंदी पर हम बच्चों को ख़ूब मज़ा आता था.

मामा रेलवे में थे और उन्हें बीच बीच में दौरों पर भी जाना पड़ता था सो घर परिवार की पूरी ज़िम्मेदारी मामी के सर पर. लेकिन मैंने कभी मामी को त्रस्त नहीं देखा. सुबह उठ कर स्कूल से निपट कर हम सब का मन पसंद खाना बना कर दोपहर में हम सब के साथ पत्तों की बाज़ी में मामी फिर साथ. शाम को जब हम सब घूमने निकलते तो चुपके से उनकी बड़ी बेटी प्रतिभा दीदी के हाथ सब के चाटपकोड़ी के पैसे देती मामी मुझे आज भी स्मरण में हैं.

छोटे मामा जानते थे कि उनका काउंटरपार्ट इतना मज़बूत है इसलिए हम सब बच्चों की ज़िम्मेदारी मामी पे ही रहती थी. हम लोगों को वापस जाते समय क्या उपहार देना है से ले कर वहाँ रहने के दौरान क्या क्या ख़ातिरदारी करनी है तक सब. . . . हम सब बच्चों की फ़ौज नयी नयी फ़िल्में भी देखती थी. गीत गाता चल, साँच को आँच नहीं, दुल्हन वही जो पिया मन भाए. . ये सब उसी दौरान देखी हुई फ़िल्में हैं और आज भी रोमांचित करती हैं.

आज जब उन सब बातों को स्मरण करता हूँ तो मुझे मामी बहुत महान प्रतीत होती है. सीमित तनख़्वाह में इतना सब कुछ.

वो अपने बच्चों का हक़ मार कर शायद ये सब हम लोगों के लिए करती होगी. लेकिन उन दिनो इन बातों की परवाह भी कौन करता था. बहनें, भाई के घर बच्चों को ले कर जाना अपना हक़ समझती थीं और भाई इसे अपना कर्तव्य. हाँ लेकिन सुखद छुट्टी तो तभी लोगों की बीतती होगी जहाँ मामी हमारी मामी सी हो.

कहते है बुआ मौसी तो अपनी होती हैं लेकिन मामी चाची बाहर से आती हैं. मैं दोनो ही मामलों में भाग्यशाली निकला. मुझे मामी और चाची दोनो अच्छी मिलीं.

आज इतने वर्षों बाद भी जब झाँसी में बिताये बचपन के दिन याद आते हैं तो साथ ही याद आते हैं. चिवडा लड्डू और नानखटाई से भरे वे डब्बे जो हम बच्चों के नाश्ते और आते जाते खाने के लिए मामी बना कर रखती थी.

आज के बच्चों को न ऐसा ननिहाल मिलता होगा न इतना प्यार करने वाली मामी. आज वो हमारे बीच नहीं हैं पर हमेशा श्रद्धा से याद आती हैं.

(चित्र एवं परिचय – सोशल मीडिया से साभार)

श्री सुधीर ओखदे 

सेवानिवृत्त अधिकारी, आकाशवाणी, जलगांव

सम्पर्क –33, F/3 वैभवी अपार्टमेंट व्यंकटेश कॉलनी, -साने गुरुजी कॉलनी परिसर जलगाँव (महाराष्ट्र) 425002

ईमेल [email protected]

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ ☆ दस्तावेज़ # 2 – मारिशस से ~ मेरा एक संस्मरण – अविस्मरणीय नौका विहार — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी के चुनिन्दा साहित्य को हम अपने प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करते रहते हैं। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं।

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है मारिशस से श्री रामदेव धुरंधर जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “नौका विहार”।) 

☆ दस्तावेज़ # 2 – मारिशस से ~ मेरा एक संस्मरण — अविस्मरणीय नौका विहार — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆ 

(इस दस्तावेज़ में श्री रामदेव धुरंधर जी की मारिशस में आयोजित “विश्व हिन्दी सम्मेलन 1976” में  डा. शिवमंगल सिंह सुमन जी, हजारीप्रसाद द्विवेदी जी,  उपेन्द्रनाथ अश्क जी, अमृतलाल नागर जी, विष्णु प्रभाकर जी और डा. रमानाथ  त्रिपाठी जी से संबन्धित अविस्मरणीय ऐतिहासिक यादें जुड़ी हुई हैं) 

‘नौका विहार’ शीर्षक से मेरा यह संस्मरण मॉरिशस में आयोजित [सन् 1976] विश्व हिन्दी सम्मेलन से संबद्ध है। 

सुबह का वक्त था। ड्राइवर वैन चला रहा था। हम पूर्वी प्रांत में पड़ने वाले पंच सितारा ‘त्रू ओ बिश होटल’ के लिए जा रहे थे। मैंने उस होटल में ठहरे हुए डा. शिवमंगल सिंह सुमन जी से कहा था सुबह वाहन ले कर होटल पहुँच जाऊँगा। उन्हें घुमाने ले जाने की मेरी सरकारी ड्यूटी थी। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी भी उसी होटल में थे। इन दोनों के साथ होना मेरे मन के अनुकूल था। वहाँ और भी तीन भारतीय थे जो साथ में होते। अगला दिन भी मेरे लिए एक शानदार दिन होता। उपेन्द्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर और डा. रमानाथ  त्रिपाठी जी को इन्हीं की तरह सैर के लिए ले जाना था। ये चारों किसी और होटल में ठहरे हुए थे। मैंने अमृतलाल नागर जी से बात कर ली थी। मैं उन्हें ‘परी तालाब’ की ओर ले जाने वाला था। वे लेखक थे। मैं परी तालाब की कहानी उन्हें सुनाता। उधर बहुत जंगल पड़ने से वातावरण शांत रहता है। पर आज जब उस दिन की बात लिख रहा हूँ इस जमाने में परी तालाब का नाम परिवर्तित हो गया है। लगभग तीस साल हुए परी तालाब का परिवर्तित नाम अब ‘गंगा तालाब’ है। 

हजारीप्रसाद द्विवेदी और शिवमंगलसिह सुमन जी से संबंधित संस्मरण में आगे बढ़ने से पहले मैं यहाँ एक विशेष बात लिखने के लिए अपने को बहुत ही उत्सुक पा रहा हूँ। वह बात इस तरह से है हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने एक दिन पहले सम्मेलन में एक सत्र की अध्यक्षता की थी। बोलने में वे विस्मयकारी थे। मैं अपने दिल की बात कह रहा हूँ। उन्हें सुनना मेरा बहुत बड़ा सौभाग्य था। भारतीय टोली की अध्यक्षता राजनेता करण सिंह जी ने की थी। उनके परिचय में लिखा हुआ पढ़ कर मैंने जाना था वे जम्मू और कश्मीर के महाराजा थे। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी जब बोलने के लिए खड़े हुए थे श्रोता के रूप में सामने बैठे हुए करण सिंह जी ने जा कर उनके चरण स्पर्श किये थे।

हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था वे समझना चाहते हैं हिन्दी में इतने कवि कहाँ से निकलते चले आ रहे हैं।

आज मुझे लगता है महान गद्यकार हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने यह व्यंग्य में कहा था और लोगों ने व्यंग्य मान कर ही तालियाँ बजायी थीं। अब जो खालिस कवि हों और हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की परिभाषा से कहीं से निकलते चले आ रहें हों तो उस वक्त सब के बीच होने से जरूर बगलें झाँक रहे हों। भारतीय कवियों की बात तो मैं न जानता। अलबत्ता अपने देश के कवियों को मैं जानता था। उन दिनों मॉरिशस में सचमुच ऐसी स्थिति बन आयी थी काव्यकारी के जोश में मानो वाकई कवि कहीं से निकलते चले आ रहे हों।

हजारीप्रसाद द्विवेदी जी का भाषण मौखिक था। वह टेप कर लिया गया था। बाद में वह गगनांचल में प्रकाशित हुआ था। पढ़ने पर मुझे लगा था उनका बोला स्वयं में एक उत्कृष्ट साहित्य था।

त्रू ओ बिश होटल पहुँचने पर ड्राइवर ने वैन पार्किग में खड़ा किया। होटल के गेट पर मेरा नाम लिखा गया। गॉर्ड को पता था मैं आने वाला हूँ। मंत्रालय की ओर से वहाँ सूचना पहुँचा दी गयी थी। इसका मतलब था मैं सरकारी नियम में बंधा हुआ था। मुझे जो करना होता मेरे ध्यान में रहता नियम का उल्लंघन न हो। पर यहाँ जो होना था वह नियम पर मानो प्रहार जैसा होता। इसका खुलासा मैं नीचे की पँक्तियों में करने वाला हूँ। रिशेप्शन में अपना नाम कहने से मुझे ठहरने के लिए कहा गया। सुमन जी को फोन से सूचना पहुँची। थोड़ी देर बाद मैंने देखा सुमन जी झपटते चले आ रहे थे। उनके आते ही मैंने उनके चरण स्पर्श किये। वे जिंदादिल इंसान थे। मुझसे मित्रवत मिले। उन्होंने कहा अच्छा हुआ मैं पहुँच गया। पर आज सुबह उन लोगों के बीच योजना बनी थी होटल की ही सरपरस्ती में उनके लिए नौका विहार का आयोजन हो। सुमन जी मेरे लिए एक कागज लिख कर रिशेप्शन में छोड़ देते वे कहीं और के लिए निकल गए हैं। उन दिनों मोबाइल जैसी सुविधा तो थी नहीं। स्थायी फोन से भी संपर्क करना कठिन ही होता। अब जब मैं पहुँच गया तो वे मौखिक मुझे समझा रहे थे आज की उनकी योजना कैसी बनी है। सुमन जी मेरी ओर से आश्वस्त थे। वे कह रहे थे मैं हालत समझ जाने पर उन्हें अन्यथा न लेता। मॉरिशस में दो चार दिनों के अपने प्रवास का अपने तरीके से लाभ उठाना इन लोगों को आवश्यक भी तो लगता।

अब जब नौका विहार के लिए उनके निकलने से पहले मैं पहुँच गया और मुलाकात हो गयी तो मेरे लिए यही शेष रहता ड्राइवर और मैं वैन में लौट जाते। मंत्रालय लौटने पर हम कह देते उन लोगों ने आज का अपना कार्यक्रम अपने तरीके से बना लिया है। पर सुमन जी ने मेरे साथ एक दूसरी बात की। उन्होंने मुझसे कहा जा कर ड्राइवर से कह दूँ यहीं कुछ घंटों के लिए तुम्हारा इंतजार करे। तुम नौका विहार में हमारे साथ जा रहे हो।

यह तो मेरे लिए काफी कठिन परिस्थिति हुई। यह मेरी ड्यूटी का हिस्सा नहीं था। मैंने मंत्रालय से वाहन लिया था तो वहाँ लिखित पड़ा हुआ था मैं कहाँ – कहाँ उन लोगों को ले कर जाने वाला हूँ। अब मान लें वैन यहीं रहे और मैं ड्राइवर से बात करूँ तो वह मान जाये। पर दिशांतर तो हो रहा था। थल की अपेक्षा अब हम जल में होते। वे स्वयं जाते और मैं उनके साथ न होता तो जिम्मेदारी उनकी अपनी होती।

पर अब मैं सरकारी आदमी दिशांतरता के कारण समुद्र में होता और कुछ हो जाता तो मेरी खैर नहीं। मेरा इतना बड़ा धर्म संकट बन आने से मैं यह सब सुमन जी से नहीं कहता। मैंने उनसे दोबारा यही कहा आप लोग जायें और मैं वापस चला जाता हूँ। पर उन्होंने तो इस बार भी नहीं माना। तब तो मैं अब मानो हिल डुल पाता ही नहीं। इतने बड़े आदमी से कितनी बार इन्कार का रुख दिखाता। मैंने जैसे तैसे उन्हें मान लिया और ड्राइवर को कहने चल दिया। मुझे सुनने पर ड्राइवर नाराज हुआ। उसकी नाराजगी सही थी। उसने मेरे सामने योजना रखी लौट चलते हैं। मैं भी तो लौटने की ही सोच रहा था। पर इस समाधान में रोड़ापन था। हम लौट जाते और वहाँ नाव में छेद हो जाता तो हमारे पास कौन सा उत्तर होता। चलें हम कह देते हमारे पहुँचने से पहले वे निकल चुके थे और हमें वापस होना पड़ा। यह हमारी निष्कलंकता तो हो जाती लेकिन मेरा मन नहीं माना।

वास्तव में यह कितना बड़ा फरेब होता सुमन जी के कहने पर मैं ड्राइवर से मिलने आया और लौट कर उनके पास गया नहीं। क्या मेरे लौटने का वे इंतजार न करते? अब जो भी हो मेरे मन में यही आया कम से कम मैं सुमन जी से धोखा नहीं कर सकता। मैं किसी तरह ड्राइवर को समझा बुझा कर होटल की ओर लौट गया।  

अब तक नौका विहार के लिए जाने की तैयारी हो चुकी थी। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी तो मेरे खूब पहचाने हो गये थे। बाकी तीन मेरे लिए लगभग अनजान ही थे। सुमन जी ने हजारीप्रसाद द्विवेदी जी से कहा धुरंधर भी हमारे साथ चल रहे हैं। अजीब ही था मानो समुद्र में चलना था। मेरा गणित गड़बड़ा जाने से मैं शायद दिमाग से बहुत ही डँवाडोल होने लगा था। पर उन्हें मेरी आंतरिक दशा कहाँ मालूम होती। मैं साथ जाता तो हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने इसके लिए खुशी जतायी। बाकी तीनों ने सिर हिला कर कहा तब तो अच्छी बात है।

नौका ले जाने वाला क्रृओल था। वह समझ तो गया था मैं बाहरी आदमी हूँ। बल्कि देशी आदमी हूँ और उन लोगों से मिलने आया हूँ। उनके साथ मेरे जाने की बात हो रही थी तो मामला यहाँ कुछ उलझा। नौका चालक ने कृओल में मुझसे कहा मेरे लिए अतिरिक्त पैसा लगेगा। यही नहीं नौका चालक ने अब सीधे मेहमानों से अंग्रेजी में बात की। उसने नम्रता से ही कहा मेरे होने से पैसा अधिक लगेगा। उसने अपनी मजबूरी इस रूप में दिखायी वह तो कर्मचारी है। पैसा होटल के खाते में जायेगा। उससे इतना सुनते ही सुमन जी ने कहा उनके खाते में जोड़ दे। अब मुझे पता चला नौका विहार का पूरा खर्च सुमन जी वहन कर रहे थे। यह मेरे हौसले के लिए बहुत था। चलें अब मैं अपना गणित इस तरह से बनाता मैं सुमन जी का मेहमान था और वे मेरे नाम का खर्च चुकाना मान रहे थे। दो घंटे के लिए नौका विहार था। एक घंटे के लिए नौका जाती और एक घंटा उसके लौटने के लिए होता। 

प्रकांड विद्वान हजारीप्रसाद द्विवेदी जी उस वक्त मानो सब के समकक्ष थे। दूसरे बोलें तो वे भी बोलते। उनकी विराटता मानो एक तरह से लुप्तप्राय थी। यह मेरे लिए अच्छा ही था। अन्यथा हजारीप्रसाद द्विवेदी जी से प्रत्यक्ष बोलने से शायद मेरे मन में कंपन होता। हाँ घुमाने के लिए उन्हें ले जा रहा होता तो मेरी भाषा हजारीप्रसाद द्विवेदी जी के साथ कहीं ज्यादा मुखर होती। वे मॉरिशस के बारे में मुझसे कुछ भी पूछ लेते मेरे पास जवाब तैयार रहता। मानो वहाँ मेरे मन की गंगा खूब अठखेलियों में मस्त होती जब कि यहाँ परिस्थितिवश मेरे मन की गंगा ऐसे सो रही होती कि उसकी मदमस्त मौजों के एक कतरे का आभास ही न होता हो।

नौका चली और मैंने बस अपने भगवान से कहा उबड़ खाबड़ न हो भगवन ! वास्तव में ये लोग अपने देश के नगीने हैं। मैं भी तो अपने देश में छोटा मोटा नगीना ही हूँ। पर किसी कारणवश नौकरी जाये तो कुत्ता भी हाल चाल न पूछे।  

यहाँ तक मैंने जो लिखा यह मेरे संस्मरण का एक अंश है। इस अंश से मेरे संस्मरण में इतना ही हो रहा है एक संशय में घिरा हुआ हूँ मानो मेरी बेचारगी का वह एक बहुत बड़ा पक्ष हो। इतनी सी ही बात होती तो मैं यह संस्मरण लिखता नहीं। पर बात इससे आगे और भी है। उसी से मेरा यह संस्मरण अपना वजूद पा सकता था। 

नाव में नीचे शीशा लगा हुआ था। शीशे का करिश्मा ऐसा था कि छोटी मछलियाँ बड़ी दिखाई देती थीं। इस करिश्मे को न जानें तो वहम हो पड़े नीचे विचरने वाली विशालकाय मछलियाँ तो नाव को उलाट ही देंगी। मछलियाँ नाव से टकराती भी थीं। यह समुद्री इलाका ऐसा है जहाँ समुद्र में नीचे मानो विस्मयकारी प्रवाल बिछे हुए हैं। प्रवाल के ऐसे – ऐसे आकार थे मानो मनुष्य हों या भीमकाय जानवर हों। प्रागैतिहासिक दृश्यों का भी मानो आभास हो रहा हो। वह समुद्र के निचले तल का मानो एक विचित्र संसार हो। पर इतना तय था मगरमच्छ नहीं थे। बीच – बीच में प्रवाल से जहाँ – जहाँ जगह बचती हो उन्हीं के बीच मछलियाँ तैरती दिखाई दे रही थीं। मछलियाँ रंग बिरंगी थीं।

विशेष कर सुमन जी प्रवाल और मछलियों को अपने पैरों के नीचे शीशे में देखने पर तो उछल ही पड़ते थे। वे कहते थे यह देखो वह देखो। उनकी आवाज में मानो बड़ा ही भोलापन था। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने सहसा उनसे कहा यह तो हम देखते रहेंगे। अब तुम अपनी आवाज से हमें कुछ दिखाओ। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की फरमाइश थी वे ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता का पाठ करें। यह तो सुमन जी के अनुकूल ही था। बल्कि उन्होंने मानो संकेत ठोंक दिया था वे यह काव्य सुनाएँगे। सुमन जी अब सहसा गंभीर हो गये थे। उन्होंने अपना हाथ नाव से बाहर सरसरा कर अपनी अंजुरी में पानी भर लिया था। उन्होंने अब पानी को समुद्र में बहा दिया। स्पष्ट प्रतीत हो रहा था वे कविता सुनाने की भावना से ओत प्रोत हो गये थे।

उन्होंने सहसा मुझसे कहा था मॉरिशस के लोगों ने जरूर महाकवि निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ कविता पढ़ी होगी। बड़ी अद्भुत कृति है।

कहने की मेरी बारी होने से मैं विनम्रतापूर्वक कहता। मुझे कहीं पढ़ने को मिला था सुमन जी ने ‘राम की शक्ति पूजा’ आद्यंत कंठस्थ कर रखा है। मैंने यह कहा तो सुमन जी चौंक पड़े और हजारीप्रसाद द्विवेदी जी तो तालियाँ बजाने लगे। मैंने उत्तर में कहा यह काव्य यहाँ प्रचलित है। मैंने अपने उदाहरण से कहा यह काव्य यहाँ एक पाठ्यक्रम में संलग्न है। इन दिनों मैं अपने विद्यार्थियों को यह पढ़ा रहा हूँ। पर मैं स्वीकार करता हूँ मैं आधा ही समझ पाता हूँ और वही अपने विद्यार्थियों को समझाने का प्रयास करता हूँ।

अब एक तरह से तो मैदान मेरे हवाले हो गया। सुमन जी ने कह दिया वे यह काव्य अपने कंठ से मुझे समर्पित कर रहे हैं। यह मेरे लिए अद्भुत चमत्कार था। वे सुनाने की प्रक्रिया में उसमें खो जाते थे। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी बहुत सी पँक्तियों में उनका साथ दे रहे थे।

उन दिनों मेरी उम्र तीस थी और लेखन में तो मैं बस कच्चा ही था। पर लेखन की मेरी भावना प्रबल होने से मुझे लगता है मेरा मार्ग ऐसा बन जाता था भारत के बड़े रचनाकारों से तो मुझे मिलना ही है। 

***
© श्री रामदेव धुरंधर

16 – 11 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरियाके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्व. श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया

☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ ☆

☆ “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

शांत, सौम्य, स्थिर चित्त, दिव्य आभा से युक्त श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया के मुख से सदा ही अपने हम उम्र लोगों के लिए शुभकामनाएं और छोटों के लिए आशीर्वचन ही निकलते थे। मुस्कान के साथ उनके मातृत्व भाव से हर व्यक्ति उनके प्रति श्रद्धा से भर उठता था। यों जबलपुर के अधिकतर लोग उन्हें  भाभी जी कहकर संबोधित करते थे किंतु मेरे पिता स्व. डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव उन्हें बहिन जी कहते थे अतः मैंने उन्हें सदा बुआ जी ही कहा। श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया जी अब हमारे बीच नहीं हैं। लगभग 15 वर्ष पूर्व उनका देवलोक गमन हो गया किंतु अपने विचारों, साहित्य, कला, संस्कृति और महिलाओं के विकास और शिक्षा के लिए  किए गए कार्यों के कारण वे आज भी जन मानस में जीवित हैं।

आगरा विश्वविद्यालय से स्नातक, कथक नृत्य में पारंगत श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया का मायका देहरादून का था। संगीत नृत्य, साहित्य, संस्कृति सहित खेलकूद में बैडमिंटन, वालीबॉल में उनकी विशेष रुचि थी। उन्होंने बंगला साहित्य का विषद अध्ययन किया था। 1953 में चंद्रप्रभा जी का विवाह जबलपुर के श्री सुशील कुमार पटेरिया से हुआ। सुशील कुमार जी उस समय भारत की प्रथम लोकसभा के सबसे युवा लोकप्रिय सांसद थे। चंद्रप्रभा जी को पति का लम्बा साथ नहीं मिला। 17 फरवरी  1953 में उनका विवाह हुआ और 3 अक्टूबर 1961 को अस्वस्थता के कारण उनके पति सुशील कुमार जी का निधन हो गया। पति के न रहने पर चंद्रप्रभा जी ने साहस के साथ स्वयं को संभाला और उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने के संकल्प के साथ समाजसेवा में जुट गईं। उन्होंने अपनी सेवा का केंद्र महिलाओं को बनाकर उनकी आर्थिक, सामाजिक स्थिति को सुधारना और उन्हें स्वावलंबी बनाना अपना लक्ष्य रखा। उनकी समर्पित सेवा भावना ने शीघ्र ही उन्हें जन जन का प्रिय बना दिया। विविध कार्यों और अनुभवों से प्राप्त परिपक्वता के कारण लोगों को दिए उनके सुझाव व सलाह सदा कारगर होते थे।

खेलों में रुचि के  कारण उन्होंने मध्यप्रदेश महिला हॉकी एसोसिएशन का अध्यक्ष पद स्वीकार किया। हॉकी एसोसिएशन के उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में मध्यप्रदेश ने देश को अनेक सुयोग्य महिला हॉकी खिलाड़ी दिये। अच्छे कार्यों के लिए लोगों और संस्थाओं को उदारता पूर्वक आर्थिक सहयोग देने वाली चंद्रप्रभा जी अखिल भारतीय महिला परिषद, गुंजन कला सदन, शहीद स्मारक ट्रस्ट, प्रेमानंद आश्रम आदि अनेक संस्थाओं से सक्रियता पूर्वक  जुड़ी रहीं। भारत कृषक समाज में रहते हुए उन्होंने किसानों के लिए तथा प्रदेश की प्राचीनतम  शिक्षण संस्था हितकारिणी सभा के विभिन्न पदों पर रहते हुए उन्होंने नई पीढ़ी को सुशिक्षित करने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। जब महिलाओं का सामाजिक क्षेत्र अति सीमित हुआ करता था तब श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया जी ने कांग्रेस पार्टी में सक्रिय होकर महिलाओं के लिए राजनैतिक क्षेत्र के द्वार भी खोले।

अब वे हमारे बीच नहीं हैं किंतु उनकी पुत्र वधू श्रीमती सुनयना पटेरिया उनके कार्यों को आगे बढ़ा रही हैं। पटेरिया परिवार सहित नगर की अनेक संस्थाएं प्रति वर्ष 5 अक्तूबर को श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया जी की जयंती पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए समाज के लिए उनके योगदान को स्मरण करते हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि जबलपुर नगर को पुनः श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया जैसी नेत्री मिले।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 1 – स्व. शेरदा जी और उनकी विरासत (Late SherDa – Sher Singh Bisht ji and his heritage) ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।

– श्री जगत सिंह बिष्ट 

(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में पहला दस्तावेज़  “स्व. शेरदा जी और उनकी विरासत”।)

☆  दस्तावेज़ – स्व. शेरदा जी  (स्व. शेर सिंह बिष्ट जी) और उनकी विरासत ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

नौला गाँव, रानीखेत के पास पहाड़ों में बसा एक सुरम्य गाँव है जहाँ रामगंगा नदी बहती है। इस गांव के एक तरफ भिक्यासैंण और भतरौंजखान हैं तो दूसरी तरफ मासी और चौखुटिया। दूनागिरी और मानिला देवी के मंदिर भी पास ही हैं। यहां शेरदा का जन्म प्रथम विश्व युद्ध के आसपास हुआ। उनके पिता, नरपत सिंह, जिन्हें वे बाज्यू पुकारते थे, एक साधारण किसान थे, जो इस खूबसूरत परन्तु दूरस्थ गाँव के लगभग एक दर्जन परिवारों में से एक थे। पहाड़ों की सादगी और सुंदरता के बीच बड़े होते हुए, शेरदा का जीवन कृषि और ग्रामीण परंपराओं का अनुसरण करने के लिए निर्धारित लगता था। परन्तु शेरदा ने ऐसा जीवन जिया जिसने न केवल उनका भविष्य बदला बल्कि उनके परिवार और समुदाय की समृद्धि का मार्ग भी प्रशस्त किया।

बचपन में, शेरदा ने स्थानीय विद्यालय में विज्ञान और गणित में असाधारण योग्यता दिखाई। परन्तु उनके जीवन ने तब एक नाटकीय मोड़ लिया जब उनके माता-पिता का कम उम्र में निधन हो गया। युवा अवस्था में ही उन्होंने किसान के रूप में जिम्मेदारी संभाल ली, खेतों में काम करते हुए अपनी बड़ी बहन, जिन्हें सब दीदी कहते थे, और दो छोटे भाइयों, बागुआ और रूपी के संरक्षक बन गए। त्याग और कर्तव्य के इन प्रारंभिक वर्षों ने उनमें गहन संकल्प और उद्देश्य की भावना को स्थापित किया। उन्होंने अपने परिवार का पालन-पोषण करने और अपने भाइयों को प्यार और मार्गदर्शन देने के लिए अथक परिश्रम किया। बागुआ, बाग सिंह, ज़्यादातर गांव में ही रहे और नौला और आसपास के गांवों के सरपंच चुने गए।

जब उनके भाई बड़े हुए, तो शेरदा ने बेहतर भविष्य की तलाश में गाँव छोड़ने का निर्णय लिया। उन्होंने जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क होते हुए, रामगंगा नदी के किनारे किनारे, पैदल चलते हुए, रामनगर तक की कठिन यात्रा तय की और फिर दिल्ली पहुंचे। वहाँ उन्होंने भंडारी की स्वामित्व वाली एक जानीमानी निर्माण कंपनी में काम पाया, जहाँ उनकी मेहनत और ईमानदारी ने सरदार का विश्वास अर्जित किया। उनका व्यक्तिगत सहायक बनने के बाद, शेरदा ने लाहौर, कलकत्ता, बंबई और जबलपुर की यात्राएँ कीं और शहरी जीवन और उद्योग की जानकारी प्राप्त की।

युवावस्था में, दिल्ली में रहते हुए, वे महात्मा गांधी से प्रेरित हुए और आजीवन खादी धारण करने और नंगे पांव चलने का संकल्प लिया। कई बार वे बताते थे कि किस प्रकार 14 और 15 अगस्त, 1947 की दरमियानी रात को, रात भर संसद भवन के सामने अपार भीड़ में शामिल होकर, जोशपूर्वक आज़ादी का जश्न मनाते रहे।

जबलपुर में, शेरदा ने एक छोटी कैंटीन चलाने का अवसर देखा, जो उनके उद्यमशीलता के सफर की शुरुआत थी। दृढ़ संकल्प और दूरदर्शिता के साथ, उन्होंने अपना व्यवसाय बढ़ाया और खमरिया में आयुध निर्माणी के क्षेत्र में एक बड़ी कैंटीन संचालित करने लगे। उन्होंने अपने छोटे भाई रूपी, रूप सिंह, को सहायता के लिए बुलाया, और एक संपन्न व्यवसाय की नींव रखी, जो उनके विस्तारित परिवार के लिए आर्थिक आधार बना। आगे चलकर, उन्होंने एक साबुन बनाने का कारखाना भी स्थपित किया।

शेरदा का विवाह नंदी देवी से संपन्न हुआ, जो पास ही में, मासी के पार, गाँव बसोली के किसान दीवान सिंह घुघत्याल की पुत्री थी। उनकी पारिवारिक प्रतिबद्धता केवल अपने भाइयों तक सीमित नहीं थी; उन्होंने अपनी पत्नी के भाइयों को भी जीवन में सुव्यवस्थित करने में सहायता की। शेरदा की प्रेरणा एक गहरी जड़ें रखने वाली इच्छा थी कि उनके प्रियजन उन्नति करें। स्वामी विवेकानंद के उन शब्दों से प्रेरित, जिन्होंने कहा था, “वे ही जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीते हैं,” शेरदा ने अपने परिवार और समुदाय की भलाई के लिए खुद को समर्पित कर दिया।

व्यक्तिगत जीवन में, शेरदा एक धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति थे। वे श्री सत्य साईं बाबा के भक्त बन गए और उनके दर्शन के लिए पुट्टापर्थी की यात्राएँ कीं। उन्होंने कुंभ स्नान और बद्रीनाथ धाम की यात्रा भी की। साधु संतों का वे पूरी श्रद्धा से स्वागत करते थे। शेरदा के लिए अध्यात्म उनकी कड़ी मेहनत, शिक्षा और दूसरों की सेवा के मूल्यों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ था। उन्होंने अपने चार पुत्रों और तीन पुत्रियों को ऐसी शिक्षा और परवरिश प्रदान की, जिसने उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में उन्नति करने का अवसर दिया।

सफल व्यवसाय और पारिवारिक उपलब्धियों के वर्षों के बाद, शेरदा ने अपने प्रिय गाँव नौला लौटने का निर्णय लिया क्योंकि वे अपना अंतिम समय रामगंगा नदी के किनारे बिताना चाहते थे। घर के आंगन में स्थापित दौनीपाथर पर घंटों बैठकर पूजापाठ करते। यह पवित्र पत्थर, जिस पर पूरे गांव की श्रद्धा है, उनके परदादा दूर जंगल से लेकर आए थे। यहाँ उन्होंने एक बार फिर गाँव के जीवन की सादगी को अपनाया, खूब पैदल घूमे – नंगे पांव पैदल चलना उन्हें अत्यंत प्रिय था – और 90 वर्ष से अधिक की आयु में नश्वर देह त्याग दी।

शेरदा की विरासत उनके पुत्रों—जसवंत, जगत, महेंद्र और दान सिंह—और पुत्रियों गोविंदी, लीला और सरस्वती में जीवित है, जो सभी अपने-अपने क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर रहे हैं। शिक्षा और परिवार कल्याण के प्रति उनकी दृष्टि ने न केवल उनके परिवार पर बल्कि पूरे परिवार पर एक स्थायी छाप छोड़ी है। उनके भाई, साले और उनके परिवार सभी स्थिरता और सफलता प्राप्त कर चुके हैं, जो शेरदा की उनकी भलाई के प्रति अटूट प्रतिबद्धता का प्रमाण है।

शेरदा – शेर सिंह बिष्ट – का सम्मान करते हुए, हम एक ऐसे व्यक्ति का उत्सव मनाते हैं, जिसने अपने गाँव के पहाड़ों से परे सपने देखने का साहस किया, अपने परिवार को समृद्धि दी, और शिक्षा, आध्यात्मिकता और समाज की सेवा के गुणों का उदाहरण प्रस्तुत किया। अपने जीवन के माध्यम से, शेरदा ने हमें दिखाया कि महानता भव्यता में नहीं, बल्कि दूसरों को ऊपर उठाने और अपने से परे एक उद्देश्य के लिए जीने की स्थिर प्रतिबद्धता में निहित है।

 ☆ Late SherDa – Sher Singh Bisht ji and his heritage ☆  

In the serene village of Naula, nestled in the mountains near Ranikhet and cradled by the flowing Ramganga River, SherDa was born around the time of World War I. His Bajyu, father in Kumaoni dialect, Narpat Singh, was a humble farmer descending from the Syontari Bishts, one of the about a dozen households living off the land in this picturesque yet remote village. On one side of the village was Bhikiyasain and Bhatronjkhan; and on the other side was Masi and Chaukhutia. Doonagiri and Manila Devi temples were not far away. Growing up amid the simplicity and beauty of the hills, SherDa’s life seemed destined to follow the rhythm of farming and village traditions. But SherDa would go on to lead a life that not only shaped his own future but uplifted the fortunes of his family and community.

As a child, SherDa attended the local school and showed a rare aptitude for science and arithmetic. However, his life took a dramatic turn with the early loss of his parents. Still a young man, he took on the responsibilities of a farmer, tending to the fields while also becoming the guardian of his elder sister, Didi, and his two younger brothers, Bagua and Rupi. These early years of sacrifice and duty fostered in him a profound resilience and sense of purpose. He worked tirelessly to provide for his family and ensure his siblings grew up with love and guidance. Bagua, Bag Singh, stayed back in the village and was elected as the Sarpanch of Naula and neighbouring villages.

As his brothers reached adulthood, SherDa sought a way to secure a better future. He left Naula and undertook a long, arduous journey through Jim Corbett National Park, reaching Ramnagar on foot, walking along the river Ramganga, and then on to Delhi. Here, he found work with a renowned construction company owned by the Bhandaris, where his diligence and integrity soon earned the Sardar’s trust. Rising to become his personal assistant, SherDa traveled to Lahore, Calcutta, Bombay, and Jabalpur, gaining exposure to urban life and industry. During his youth, he was influenced by Mahatma Gandhi. He wore Khadi and walked barefoot his entire life. He reminisced how he was part of the large crowd that gathered outside parliament on the intervening night of 14th and 15th August, 1947 chanting and celebrating freedom from colonial rule.

In Jabalpur, SherDa seized an opportunity to run a small canteen, which marked the beginning of his entrepreneurial journey. With determination and foresight, he expanded his venture, winning a lease to operate a restaurant in the Ordnance Factory Estate at Khamaria. Recognizing the value of family support, Sherda invited his youngest brother, Rupi, Roop Singh, to assist him, laying the foundation for a prosperous business that would become the economic backbone for his extended family. He diversified to set-up a soap factory in Ranjhi, Jabalpur.

SherDa married Nandi Devi, daughter of Diwan Singh, from the closeby village of Basoli, across Masi, from a family of the Ghugtyals. His commitment to family extended beyond his own siblings; he supported his wife’s brothers, helping the older ones to settle into productive lives and the younger ones to pursue their studies. SherDa’s motivation came from a deep-rooted desire to see his loved ones thrive. Inspired by the teachings of Swami Vivekananda, who once said, “They only live, who live for others,” SherDa dedicated himself to the welfare of his family and community.

In his personal life, SherDa was a man of faith and spiritual wisdom. He became a devout follower of Sri Sathya Sai Baba, making pilgrimages to Puttaparthi for his darshan. He went for pilgrimage to Kumbh Mela in Allahabad and Badrinath Dham in the Himalayas. Spirituality for Sherda was intertwined with his values of hard work, education, and service to others. He provided his own children—four sons and three daughters—with the education and upbringing that would allow them to flourish in their respective fields.

After years of successful business and family achievements, SherdDa decided to return to his beloved motherland Naula, settling along the riverbank in a home he had helped to build during his visits. He sat for long hours praying on the Dauni-pathar, a large slice of stone his great grandfather had brought from the deep forest beyond the hills. It occupies a sacred place of reverence for the entire village. Here, he embraced the simplicity of village life once more, enjoying long walks and living peacefully and devotedly until he passed away in March 2006 at the remarkable age of over 90.

SherDa’s legacy lives on through his children—Jaswant, Jagat, Mahendra, and Dan Singh—and daughters Govindi, Leela, and Saraswati, all of whom are well-settled and prosperous. His vision for education and family welfare has left an enduring mark, not only on his immediate family but on the entire clan. His brothers, brothers-in-law, and their families have all achieved stability and success, a testament to SherDa’s unwavering commitment to their wellbeing.

In honoring SherDa – Sher Singh Bisht – we celebrate a man who dared to dream beyond the mountains of his village, brought prosperity to his family, and exemplified the virtues of education, spirituality, and service to society. Through his life, SherDa showed us that greatness is not found in grand gestures but in the steady dedication to uplifting others and living for a purpose beyond oneself.

🙏💐 स्व. शेरदा जी को सादर नमन 💐🙏

© जगत सिंह बिष्ट

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – आचार्य डॉ.आनंदप्रकाश दीक्षित को याद करते हुए ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – संस्मरण – आचार्य डॉ.आनंदप्रकाश दीक्षित को याद करते हुए ? ?

(कल आचार्य आनंदप्रकाश दीक्षित जी की पुण्यतिथि थी। उनके देहावसान के बाद ‘नवनीत’ में प्रकाशित अपने लेख को पुनश्च साझा कर रहा हूँ।🙏)

5 नवंबर 2019 को हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष और रस सिद्धांत के पुरोधा आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित का निधन हो गया। पुणे विश्वविद्यालय में लंबे समय तक अध्यापन करने वाले डॉक्टर दीक्षित 1985 में हिंदी विभाग के प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे। तत्पश्चात वर्ष 2010 तक वे प्राध्यापक के रूप में सक्रिय रहे।

डॉक्टर दीक्षित का जन्म माघ शुक्ल द्वितीया विक्रम संवत 1980 (अंग्रेजी वर्ष 1923/24) को हुआ था। माता-पिता के अलावा घर में तीन भाई और थे, दो उनसे बड़े और एक छोटा। पिता संस्कृत के अध्यापक थे। दोनों बड़े भाई भी हिंदी साहित्य से जुड़े हुए थे। फलत: साहित्य का संस्कार उन्हें बचपन से मिला। नवीं में पढ़ते थे तब मासिक ‘दीपक’ में ‘मातृस्नेह’ शीर्षक से उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था। आरंभिक दिनों में वे ‘सर्वजीत’ उपनाम से लिखा करते थे। उन दिनों बच्चन जी की ‘सप्तरंगिणी’ प्रकाशित हुई थी। इस पर दीक्षित जी का  आलोचनात्मक लेख लाहौर से प्रकाशित होने वाली वाले ‘विश्वबंधु’ ने पूरे पृष्ठ पर प्रकाशित किया था। पंडित विजयशंकर भट्ट ने एस लेख की प्रशंसा की थी। यहीं से कविता की आलोचना के क्षेत्र में उनकी रुचि, उनका जीवन बन गई।

वर्ष 2016 में हिंदी आंदोलन परिवार की वार्षिक पत्रिका ‘हम लोग’ के लिए मैंने उनका साक्षात्कार किया था। इस साक्षात्कार में कविता पर भाष्य करते हुए उन्होंने कहा था “कविता में अर्थ की जो गहनता हम पाते हैं, वह किसी दूसरी विधा में नहीं मिलती। पहली बार तो कविता का केवल ऊपरी अर्थ समझ में आता है, उसके प्रति आसक्ति जागृत होती है। यदि आप विचारक हैं तो उसका अर्थ समझने के लिए आगे बढ़ेंगे। उसके लिए बार-बार कविता पढ़नी पड़ेगी। बार- बार पढ़ने से कविता ऐसी रच जाएगी कि अर्थ पर अर्थ निकलने लगेंगे। तब कविता चमत्कारी चीज़ हो जाती है।”

समकालीन कविताओं को लेकर उनका मानना था कि आज जो कविताएँ लिखी जा रही हैं, उनके छंद और उक्ति में परिवर्तन है। पुरानी कविता में कोई सूक्ति रहती थी, कोई ना कोई उपमान रहता था जिससे सौंदर्य आता था। उसकी विशेषताएं आकर्षित करती थीं। अब कविता पत्रकारिता की तरह हो गई है। वर्तमान का वर्णन करके वे चुप हो जाती हैं। जब आप घटित के बारे में लिखने लगते हैं तो इससे एकरूपता आ जाती है। इनसे इतिहास तो हमें मिल जाएगा लेकिन भविष्य में इनसे जीवन का दृश्य क्या मिलेगा?

अलबत्ता कविता की प्रयोजनीयता सर्वदा बनी रहेगी। कविता अच्छी नहीं है तो निष्प्रयोजन हो जाएगी लेकिन इससे सारी कविताएँ  निष्प्रयोजन नहीं हो जातीं। आदमी सदैव कविता पढ़ना चाहेगा।

आलोचना की मीमांसा करते हुए उन्होंने टिप्पणी दी, “आलोचना दो प्रकार की होती है। पहला प्रकार अध्ययन करके गहनता से आलोचनात्मक लेख लिखना है तो दूसरा प्रकार समीक्षाएँ लिखना है। समीक्षा ऊपरी तल पर रह जाती है। विवेकपूर्ण लंबी आलोचना जो समझदारी से लिखी जाती है, उसका महत्व होते हुए भी मैं यह मानता हूँ कि आलोचक दूसरे दर्जे का नागरिक बनता है। आलोचक तब लिखेगा जब उसके सामने सर्जन होगा। सर्जनात्मकता पहली चीज़ है। सर्जनात्मकता में भावुकता है, आलोचना में विवेक को संभालना पड़ता है। तर्क-वितर्क संभालना पड़ता है, शास्त्र का ध्यान रखना होता है। आलोचना बहुत कठिन कर्म है।”

कवि की अनुभूति और आलोचक द्वारा ग्रहण किये गए भाव के अंतर्सम्बंध पर उनका कहना था कि कई बार आलोचक वहाँ तक नहीं पहुँच पाता। लेकिन यह भी है कि कई बार कवि का सोचा हुआ भी नहीं होता।

उनसे बातचीत में अनेक पहलू खुलते गए। आज का लेखक अपनी कमजोरी को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा। उस पर चर्चा नहीं करना चाहता। अपना अनुभव साझा करते हुए उन्होंने कहा कि  जिन भी कवियों को उन्होंने उनकी कविता की कमजोरियों के बारे में बताया, उनमें से अधिकांश बुरा मान गए।

आचार्य जी भाषा के क्रियोलीकरण के विरुद्ध थे। उनका विचार था कि इसके पक्षधर विशेषकर समाचारपत्र यह दिखाना चाहते हैं कि व्यवहार में इस तरह की भाषा चलती है। अख़बारवालों को लगता है कि ऐसी मिली-जुली भाषा के उपयोग से युवा वर्ग तक पहुँचा जा सकता है। वस्तुतः हमें इस बात का अभ्यास नहीं है कि हम शुद्ध भाषा का उपयोग कर सकें।  हम कभी शब्दकोश देखने या सोचने का भी प्रयत्न नहीं करते। सत्य तो यह है कि दुभाषिया भी शब्दश: अनुवाद न करके सार अपनी भाषा में कहता है।

 हिंदी विषय लेकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की तुलनात्मक रूप से घटती संख्या का सबसे बड़ा कारण उन्हें इस विषय को  पढ़कर विद्यार्थियों को रास्ते खुलते हुए नहीं दिखाई देना लगता था। विडंबना है कि ज्ञान के लिए जो हिंदी पढ़ना चाहता है उसे केवल साहित्य पढ़ाया जाता है। साहित्य तो बिना पाठशाला या कॉलेज में पढ़े अलग से पढ़ा जा सकता है। लोगों को इंजीनियर या टेक्नीशियन बनना है तो केवल साहित्य पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। हिंदी को समुचित स्थान दिलाने के लिए जो किया जाना चाहिए था, अब तक नहीं किया जा सका है।

 हिंदी वालों से एक शिकायत उन्हें सदा रही कि हिंदीक्षेत्र में काम करने वाले लेखक को ही वे लेखक मानते हैं लेकिन जो बाहर निकल आए हैं या अहिंदीभाषी प्रदेशों के रहनेवाले हैं, उन्हें वे लेखक नहीं मानते। जब आप हिंदी को राष्ट्रभाषा कहते हैं तो सभी प्रदेशों के लोगों का सहयोग चाहिए। हिंदी के विस्तार को हमने खुद ही रोक दिया है। एक बात और, जो मराठीभाषी हिंदी पढ़ कर हिंदी में लिख रहा है, मराठी मंच उसे स्वीकार नहीं करता। यहाँ बस गए हिंदी के लेखकों को हिंदी प्रदेशों के मंच अब याद नहीं करते। ऐसे लेखक दोनों ओर से तिरस्कृत हैं।

 सांप्रतिक जीवन में संवाद के अभाव को लेकर वे चिंतित थे। “आजकल संवाद नहीं हो रहा है।  बिना संवाद के बुद्धि विकसित नहीं होती। संवाद से तर्क-वितर्क सामने आते हैं। मालूम होता है कि आप जो सोच रहे हैं, उसके प्रतिपक्ष में कोई सोच सकता है। शास्त्र में दो पक्ष होते हैं। एक ही व्यक्ति जब शास्त्र लिखता है तो दोनों पक्षों को लिखता है। इसका अर्थ है कि विवेक जागृत करने के लिए दूसरे पक्ष को भी सामने रखना आवश्यक है।”

 “लोग कहते हैं कि मैं रसवादी हूँ। मैं रस में विश्वास नहीं करता। यदि वादी हूँ तो मैं विवेकवादी हूँ। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने ‘विवेक’ शब्द का प्रचुर प्रयोग किया है। विवेक क्या है? भले बुरे को समझना, क्या करणीय है, क्या अकरणीय है, इन दोनों के बीच से सही रास्ते को ढूँढ़ना, निरंतर शोध करना ही विवेक है। विवेक मंथन करने के बाद आता है। ज्ञानप्राप्ति के लिए आत्ममंथन आवश्यक होता है।”

 भविष्य को लेकर वे सदा आशावादी रहे। “जीवन में बहुत कुछ करना अभी बाकी है। हमारी संस्कृति को मिली-जुली कहा जाता है। इसकी पूरी जानकारी के लिए मैं संस्कृत ग्रंथों का पारायण करना चाहता हूँ। अपने संस्कारों से हमें कितना जुड़ाव है, कितना होना चाहिए, कितना हम उन से हटे हैं, इसका विवेक पैदा करना ज़रूरी है। मैं इस्लाम की मूल पुस्तकें पढ़ना चाहता हूँ। इस्लाम की पूरी जानकारी करना चाहता हूँ। मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता है कि अगर यह मिली-जुली संस्कृति है तो हम आपस में इतना लड़ते क्यों हैं? आपसी लड़ाई से बचाव के लिए मैं इस तरह का अध्ययन आवश्यक मानता हूँ।”

 भाषाविज्ञान, संपादन, अध्यापन, अनुवाद, लेखन, पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य दीक्षित का योगदान बहुमूल्य रहा। उनके अनेक विद्यार्थी विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष हुए। हिंदी साहित्य का शायद ही कोई अध्येता हो जिसने डॉ. दीक्षित की कोई पुस्तक संदर्भ के लिए न पढ़ी हो। ‘आलोचना-रस सिद्धांत : स्वरूप विश्लेषण’,   ‘साहित्य : सिद्धांत और शोध’  त्रेता : एक अंतर्यात्रा’,  ‘हिंदी रीति परंपरा : विस्मृत संदर्भ’, ‘रसचिंतन के विविध आयाम’ (मराठी के 15 लेखकों के साहित्य का अनुवाद),

‘हरिचरणदास ग्रंथावली’ (काव्यखंड), ‘प्रताप पचीसी’, ‘दौलत कवि ग्रंथावली’, ‘आज के लोकप्रिय कवि शिवमंगल सिंह सुमन’, ‘कबीर ग्रंथावली’ ‘मैथिलीशरण गुप्त’  ‘सुमित्रानंदन पंत : आलोचना, प्रक्रिया और स्वरूप’,  ‘कबीरदास : सृजन और चिंतन’, ‘मराठी संतों की हिंदीवाणी’ जैसे अन्यान्य ग्रंथों का लेखन, संपादन और अनुवाद हिंदी साहित्य को उनकी महती देन है।

 सरकारी और गैरसरकारी अनेक संस्थाओं और संस्थानों ने उन्हें सम्मानित कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया। उन्हें प्राप्त प्रमुख अलंकरणों में साहित्य अकादमी द्वारा ‘भाषा सम्मान’, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा ‘भारत भारती सम्मान’, हिंदी साहित्य समिति इंदौर द्वारा ‘अखिल भारतीय साहित्य पुरस्कार’, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘अखिल भारतीय हिंदी सेवा पुरस्कार’,  साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद द्वारा ‘साहित्य वाचस्पति’  हिंदी साहित्य समिति कानपुर द्वारा ‘साहित्य भारती’ आदि सम्मिलित हैं।

हिंदी आंदोलन परिवार के एक आयोजन में उन्होंने कहा था कि लिखने के लिए वे दो सौ वर्ष जीना चाहते हैं। अपनी बहुआयामी प्रतिभा के साथ वे जीवन के अंत तक सक्रिय रहे। सजब मैंने उनसे जानना चाहा कि अपने बहुआयामी व्यक्तित्व की चर्चा सुनकर खुद डॉ. दीक्षित के मन में किस तरह का चित्र उभरता है तो उनका उत्तर था, “मुझे अच्छा लगता है लेकिन ऐसा कोई भाव पैदा नहीं होता जिसे मैं अहंकार कह सकूँ। हाँ, लगता है कि मैं जीवित हूँ।”

अपने सृजन के रूप में आचार्य डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित सदा जीवित रहेंगे।

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© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥  श्री लक्ष्मी-नारायण साधना सम्पन्न हुई । अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही दी जाएगी💥 🕉️   

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

डॉ.वंदना पाण्डेय

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ ☆

☆ “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय

आकर्षक सादगीपूर्ण किंतु प्रभावशाली गरिमामय व्यक्तित्व, स्पष्ट वक्ता, बुलंद दमदार, आत्मविश्वास से भरी ओजस्व वाणी के धनी विधिवेत्ता स्व. राजेन्द्र तिवारी, पूर्व महाधिवक्ता मध्यप्रदेश को कौन नहीं जानता ? इसे सुसंयोग ही कहा जा सकता है कि संस्कारधानी के सुसंस्कारित ,सुविख्यात विधि पुत्र का जन्म भी संविधान के प्रणेता डॉ. भीमराव अंबेडकर के जन्म दिवस के दिन ही हुआ। 14 अप्रैल 1936 जन्म श्री राजेंद्र तिवारी जी की जन्म एवं कर्मभूमि जबलपुर ही रही।

कुशाग्र बुद्धि के तिवारी जी विद्यालयीन, महाविद्यालयीन एवं विश्वविद्यालयीन शिक्षा में सदैव अग्रणी रहे। उन्होंने संस्कृत साहित्य में एम.ए. किया और फिर विधि की पढ़ाई पूर्ण की।

उनकी सक्रियता का ही परिणाम था कि वे 1956-57 में रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय,जबलपुर छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए।

आदरणीय तिवारी जी ने क्राईस्ट चर्च स्कूल में संस्कृत विषय का अध्यापन भी किया। वे एक आदर्श कुशल शिक्षक रहे किंतु कुछ समय बाद ही उन्होंने विधि-जगत को अपना कार्य क्षेत्र  बना लिया। सन 1964 से वकालत करने लगे। 1985 से 88 तक वे राज्य सरकार के उपमहाधिवक्ता रहे। 1993 में हाई कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष चुने गए। 1995 में मध्यप्रदेश शासन ने उन्हें वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित किया। ज्ञान और कानून की बारीक समझ और प्रभावशाली विवेचना के कारण उन्हें हाईकोर्ट की रूलिंग कमेटी में रखा गया।

कठिन से कठिन मसलों पर उनके नीर-क्षीर परीक्षण – विश्लेषण और तर्कों से उन्होंने न्यायाधीशों और महाधिवक्ताओं  को भी प्रभावित किया नगर-निगम अधिनियम की धारा 17एवं 19 की  व्याख्या को लेकर जब दुविधा उत्पन्न हुई तब तत्कालीन महाधिवक्ता के तर्क  सुनने के बावजूद भी माननीय श्री तिवारी जी के विचार जानने उन्हें कोर्ट मित्र के रूप में आमंत्रित किया गया। इस अत्यंत जटिल मामले में तिवारी जी की अद्भुत तर्कपूर्ण दलीलों ने सबको प्रभावित किया। उनकी यही दलीलें  निर्णय का आधार भी बनी, जो बाद में मील का पत्थर साबित हुई। श्री तिवारी जी का ज्ञान, चिंतन, मनन, कल्पना , तर्कशक्ति धारदार शब्द और  ओजस्वी वाणी की गूँज आज भी कोर्ट में उनकी याद दिलाती है । किसी कवि की ये पंक्तियां मानो उन्हीं के लिए लिखी गईं हैं..

मनु नहीं यह मनु पुत्र है सामने

 जिसकी कल्पना की जीभ में

 भी धार होती है बाण ही होते

 नहीं विचारों के केवल ….

स्वप्न के हाथ में भी तलवार होती है।

हिंदी,अंग्रेजी,संस्कृत और उर्दू साहित्य में उनका पूर्ण अधिकार था। निरंतर अध्ययन, चिंतन- मनन उनका स्वभाव था। सुंदर शब्दों का चयन, वाक्य – विन्यास, स्पष्ट और शानदार अभिव्यक्ति जैसे सभी आदर्श वक्ता के गुण उनमें थे। उनके उद्बोधनों में कविता,श्लोक, शेरो-शायरी, कोटेशन, उद्धरण श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर देते थे। श्रोता उनके प्रभावशाली व्याख्यान को मानो सांस रोक कर सुनते थे। साहित्य से तो उन्हें लगाव था ही सांस्कृतिक एवं खेलकूद गतिविधियों तथा कार्यक्रमों में भी उनका अच्छा दखल था । संस्कारधानी की अनेक संस्थाओं को उनका मार्गदर्शन और संरक्षण प्राप्त होता रहा। रंगमंच, शास्त्रीय संगीत की जितनी ज्यादा उनमें समझ थी उतनी ही गजलों की भी। शायद ही कोई विधा ऐसी होगी जिसमें उनका हस्तक्षेप न हो।

महाकौशल शिक्षा प्रसार  समिति जिसके द्वारा शासकीय अनुदान प्राप्त चंचलबाई महिलामहाविद्यालय तथा अन्य शैक्षणिक संस्थाएं संचालित हैं उसके वे अध्यक्ष भी रहे महाविद्यालय में कार्यरत होने एवं पारिवारिक संबंध होने के नाते उनका भरपूर सानिध्य मुझे मिला। उनके स्नेहिल प्रेमपूर्ण, मिलनसार, हंसमुख विनोद-प्रिय स्वभाव ने उन्हें कभी भी किसी को भी अपने उनके विराट व्यक्तित्व से दूर नहीं किया। यही कारण था कि छोटे बड़े सभी वय के लोगों के वे अज़ीज़ रहे। कभी भी, किसी से भी, किसी भी विषय पर घंटों – घंटों चर्चा कर लोगों को अपने ज्ञान और अनुभव से लाभान्वित कर देना उनकी विशेषता थी। अत्यधिक व्यस्त होने के बावजूद भी समय के अभाव की बात उन्होंने कभी नहीं की। समय की पाबंदी उनकी बड़ी विशेषता थी। मिनट और सेकंड का हिसाब रखने वाले श्री तिवारी जी सदैव अपने कार्य क्षेत्र में निर्धारित समय पर उपस्थित हो जाते थे। प्रातः सूर्योदय से पूर्व उठना, स्नान- ध्यान, पूजा-पाठ आदि कार्यों से निवृत होकर समाचार-पत्र, पत्रिकाओं का अध्ययन उनकी नियमित दिनचर्या में शामिल थे। रात्रि विश्राम पर जाने का कोई निर्धारित समय नहीं था। शॉर्टकट उन्हें पसंद नहीं था।काम के प्रति लगन निष्ठा और अनुशासन को वे सफलता का सूत्र मानते थे और यही संदेश उन्होंने अगली पीढ़ी को भी दिया। वे कहा करते थे कि –

“If you waste your time the time will waste you.”

समाज को समर्पित सिद्धांतवादी परिवार में जन्मे श्री राजेन्द्र तिवारी जी की पत्नी श्रीमती गीता तिवारी नगर के प्रसिद्ध शिक्षाविद एवं पूर्व महापौर पं. रामेश्वर प्रसाद गुरुजी की पुत्री थीं।

बहुआयामी, जादुई व्यक्तित्व वाले श्री राजेंद्र तिवारी जी ने आने वाली पीढ़ियों के लिए अनेक आदर्श स्थापित किए। उनकी शख्सियत की गूँज केवल कोर्ट में ही नहीं सवरन हर दिल में, हर तरफ सुनाई देती है। ऐसे ही व्यक्तित्व वाले विरले लोगों के लिए शायर इकबाल ने लिखा है ..

हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।’

 सादर नमन …

डॉ. वंदना पाण्डेय 

प्राचार्य, सी. पी. महिला महाविद्यालय

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

डॉ. आनंद सिंह राणा

बी. एस. सी., एम ए (इतिहास), पी एच डी, एल एल बी.

उपाध्यक्ष इतिहास संकलन समिति महकौशल प्रांत एवं जिला संगठक राष्ट्रीय सेवा योजना, जबलपुर म प्र

संप्रति- विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग, श्री जानकी रमण कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर,

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

वीरांगना दुर्गा भाभी

☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ ☆

☆ “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास लेखन में एक दल विशेष के समर्थक इतिहासकारों और उसके द्वारा रोपित वामपंथी इतिहासकारों ने तथाकथित गांधीवाद की आड़ में लिखे स्वर्णिम इतिहास में उन्हीं छद्म नायकों को स्थान मिला जो उनके इर्द-गिर्द रहते थे परंतु वहाँ भी नारी नायिकाओं के साथ उचित न्याय नहीं हुआ! वैंसे भारत के इतिहास का सच तो यही है किसी भी कालखंड में नारी नायिकाओं के साथ उचित न्याय हुआ ही नहीं, जो आज भी अपेक्षित है? रहा सवाल  क्रांतिकारी आंदोलन के नायक एवं नायिकाओं के अवदान को इतिहास में रेखांकित करने का तो, उत्तर में सभी को आतंकवादी अथवा अराजकतावादी बताकर खारिज कर दिया गया । जिसका प्रतिउत्तर और उन्मूलन समय रहते नहीं किया गया तो भावी पीढ़ियां सदैव गुमराह ही रहेंगी! एतदर्थ 

समाज और इतिहास की तलहटी में छिपे और वर्षों से हमारी आँखों से ओझल पहलुओं को सामने लाने की दिशा में एक सद्प्रयास है। 

वीरांगना परम आदरणीय, दुर्गा भाभी तथाकथित सुनहरे इतिहास के पन्नों में लुप्तप्राय एक सुनहरा व्यक्तित्व है। यूँ तो भारतीय इतिहास के पन्नों में,भारत के स्वाधीनता  संग्राम में भाग लेने वाले अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम दर्ज़ किए गए, लेकिन ऐसे बहुत से महान् सेनानी भी हैं जिन्होंने ना केवल अपना पूरा जीवन इस संघर्ष के नाम किया, वरन् इस संघर्ष को सफल बनाने में भी अपना अद्भुत एवं अद्वितीय योगदान दिया है, और इस संग्राम में अग्रणी रहने का श्रेय लेने की अपेक्षा पर्दे के पीछे रह कर अपने अग्रणियों को आगे बढ़ने और डटे रहने का साहस प्रदान किया। लेकिन दुर्भाग्यवश! इन्हें ना तो हमारे इतिहास के पन्नों पर उचित स्थान दिया गया और ना ही इनके बलिदान  को वो सम्मान मिल सका, जिनके ये अधिकारी थे और वे महत्वपूर्ण व्यक्तिव धीरे-धीरे हमारे सुनहरे इतिहास की चमक से पीछे विस्मृति के गर्भ में समाते से जा रहे हैं। ऐंसी ही विभूतियों में से एक हैं-‘वीरांगना दुर्गा भाभी’।                      

‘दुर्गा भाभी’ का वास्तविक नाम था-दुर्गावती देवी। इनका जन्म 7 अक्टूबर 1907 में शहजादपुर ग्राम में पण्डित बांके बिहारी के यहां हुआ था। दुर्गावती का विवाह भगवती चरण वोहरा के साथ हुआ। दुर्गावती के पिता जहां इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाज़िर थे और उनके ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊँचे पद पर तैनात थे।                  

वोहरा क्रन्तिकारी संगठन एच. एस. आर. ए. के प्रचार सचिव थे। दिल्ली के क़ुतुब रोड में स्थित घर में,वोहरा, विमल प्रसाद जैन के साथ बम बनाने का काम करते थे,जिसमें दुर्गा भी उन लोगों की सहायता करती। प्रारंभिक दिनों में,दुर्गा भाभी सूचना एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने और बम के सामान को लाने पहुँचाने का भी काम करती थी। 16 नवम्बर,1926 में लाहौर में,नौजवान भारत सभा द्वारा भाषण का आयोजन किया गया,जहां दुर्गावती नौजवान भारत सभा की सक्रिय सदस्य के तौर पर सामने आयी। दुर्गावती अद्भुत योजना-निर्मात्री थी,जिनकी योजना कभी-भी असफल नहीं होती थी।अभी भगवती चरण कलकत्ता में ही थे, कि 17 दिसंबर, 1928 को लाला लाजपत राय पर जेम्स एंडरसन स्काट के आदेश से लाठी चलाने वाले अंग्रेज पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स का वध कर दिया गया। बरतानिया सरकार ने लाहौर पर तरह-तरह की पाबंदियां थोप दीं। दुर्गा भाभी अपने तीन वर्षीय अबोध पुत्र के साथ घर पर अकेली थीं कि देर रात किसी ने उनके घर की कुंडी धीरे से खटखटाई। दरवाजा खोला, तो भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु सामने खडे़ थे। उन्हें समझते देर न लगी कि सांडर्स का वध इन्हीं का काम है।

उन्होंने इन लोगों को अपने घर में पनाह दी, पर इतना पर्याप्त न था। उन्हें मालूम था कि जब घर-घर तलाशी ली जा रही हो, तब आज नहीं तो कल पुलिस वहां भी आ धमकने वाली है। भगत सिंह और उनके साथियों के पकड़े जाने का मतलब होता, क्रांति की उफनती धारा का थम जाना। अनिश्चितता के उन्हीं लम्हों में वीरांगना दुर्गावती वोहरा ने एक अत्यंत साहसिक निर्णय लिया। वह भगत सिंह की पत्नी का स्वांग धर उन्हें लाहौर से सुरक्षित बाहर निकाल ले गईं। आज के उत्तर-आधुनिक भारत में भी ऐसी कार्रवाई को दुस्साहस कहा जाएगा।भगत सिंह अगर उस दौरान जिंदा बच सके, तो उसके पीछे दुर्गावती का दृढ़ निश्चय और असीम साहस था। उनके पतिदेव जो धन गाढ़े समय के लिए उन्हें सौंप गए थे, वह भी क्रांतिकारियों की राह सुगम करने में खर्च हो गया। उन दिनों पांच हजार की रकम बहुत बड़ी राशि मानी जाती थी। 

भगवती चरण वोहरा और दुर्गा भाभी का रिश्ता अनूठे विश्वास और साहचर्य का था। इसीलिए उनकी भूमिका सिर्फ क्रांतिकारियों की सहयोगी भर की नहीं थी। 

दुर्गावती वोहरा को भारत की अग्नि भी कहा जाता है। यह दुर्गा भाभी ही थीं जिन्होंने अपने पति के बम कारखाने पर छापा पड़ने के बाद, क्रांतिकारियों के लिए ‘’पत्र मंजूषा “का काम किया। जुलाई 1929 में, उन्होंने भगत सिंह की तस्वीर के साथ लाहौर में एक जुलूस का नेतृत्व किया और उनकी रिहाई की मांग की। इसके कुछ सप्ताह बाद, 63 दिनों तक भूख हड़ताल करनेवाले जातिंद्र नाथ दास की जेल में ही बलिदान हो गया था। ये दुर्गा देवी ही थीं, जिन्होंने लाहौर में उनका अंतिम संस्कार करवाया।

भगवती चरण ने उन्हें बाकायदा बंदूक चलाना सिखाया था। 8 अक्तूबर, 1930 को उन्होंने दक्षिण बंबई के लैमिंग्टन रोड पर स्थित पुलिस स्टेशन के आगे एक ब्रिटिश पुलिस सार्जेंट और उसकी पत्नी पर गोली चला दी थी। यह कदम उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को एक दिन पहले सुनाई गई फांसी की सजा के प्रतिकार में उठाया था। बरतानिया सरकार के लिए यह बडे़ आश्चर्य की बात थी कि कोई महिला इतनी दुस्साहसी कैसे हो सकती है? फलस्वरूप सारा अमला उनके पीछे लग गया और वह अंतत: सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर ली गईं। हालांकि, उस गोलीकांड में उनकी भूमिका पर कुछ सवाल उठाए गए, मगर इससे उनकी गाथा पर फर्क क्या पड़ता है? वह बरतानिया सरकार की आंखों में कितना खटकती थीं, इसका खुलासा तत्कालीन इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस एसटी होलिन्स की पुस्तक नो टेन कमांडेंट्स  से भी होता है। इस बीच दो साल पहले भगवती चरण वोहरा रावी नदी के तट पर बम बनाते समय हुए विस्फोट में बलिदान हुआ था। दुर्गा भाभी को उनके आखिरी दर्शन तक नसीब नहीं हुए थे, पर अपने स्वर्गीय पति की प्रेरणा को उन्होंने मरते समय तक संजोए रखा। क्रांतिकारी उन्हें भाभी भी इसीलिए कहते कि वह उनके अग्रज भगवती चरण वोहरा की सहधर्मचारिणी थीं।इस सबके बाद दुर्गावती एकदम अकेली पड़ गई,लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पंजाब के पूर्व राज्यपाल लार्ड हैली को मारने की साजिश रच डाली,जो क्रांतिकारियों का बड़ा दुश्मन था।1 अक्टूबर,1931 को बंबई के लेमिंग्टन रोड पर दुर्गावती ने साथियों के साथ मिलकर हैली की गाड़ी को बम से उड़ा दिया, जिसके बाद पूरी ब्रिटिश पुलिस दुर्गावती की तलाश में जुट गई। लेकिन वे दुर्गावती को खोज नहीं पाए, 8 अक्टूबर को उन्होंने दक्षिण बॉम्बे में पुनः लैमिंगटन रोड पर खड़े हुए एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी पर हमला किया। यह पहली बार था जब किसी महिला को ‘इस तरह से क्रन्तिकारी गतिविधियों में शामिल’ पाया गया था। इसके लिए, उन्हें सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया और तीन साल की जेल हुई।

भारत की स्वतंत्रता में उनका केवल यही योगदान नहीं था। सन् 1939 में, उन्होंने मद्रास में मारिया मोंटेसरी (इटली के प्रसिद्ध शिक्षक) से प्रशिक्षण प्राप्त किया। एक साल बाद, उन्होंने लखनऊ में उत्तर भारत का पहला मोंटेसरी स्कूल खोला। इस स्कूल को उन्होंने पिछड़े वर्ग के पांच छात्रों के साथ शुरू किया था।

स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में दुर्गा देवी लखनऊ में गुमनामी की ज़िन्दगी जीती रहीं। 15 अक्टूबर, 1999 को 92 साल की उम्र में वे इस दुनिया को अलविदा कह गयीं ।

सदा यही होता आया है कि हमारा इतिहास उन महिलाओं के बलिदान और उनकी बहादुरी को सदैव भूल सा जाता है जिन्होंने तत्कालीन सत्ताधारियों की चाटुकारिता कभी नहीं की। अनेक ऐसी वीरांगनाएं सदैव छिपी ही रह जाती हैं। दुर्गा देवी वोहरा भी उन्हीं वीरांगनाओं में से एक है 

देश की स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने वाली ऐसी वीरांगनाओं को कोटि कोटि प्रणाम है। दुर्गावती की मृत्यु हुए यूँ तो कई साल बीत चुके है,लेकिन आज भी उनकी वीरता की कहानी हर हिन्दुस्तानी के ध्यान को आकृष्ट कर,उन्हें गौरवान्वित करती है। दुर्गावती मिसाल हैं, नारी के सशक्त रूप की और सच्चे देश भक्त की। जिनके लिए क्रांति का तात्पर्य केवल सत्ता का तख्ता पलट करना मात्र नहीं था,उनके लिए वास्तविक क्रांति का तात्पर्य था,स्वाधीनता के बाद एक सशक्त देश की नींव डालना, एक शिक्षित समाज का निर्माण करना और यही वजह थी कि दुर्गावती ने शुरु से ही गरीब बच्चों को पढ़ाने का नेक काम शुरु किया,जिसे उन्होंने जीवन पर्यन्त कायम रखा। दुर्गावती की यही कार्य-प्रणाली और दूरदृष्टि उनके व्यक्तित्व को महान और अविस्मरणीय बनाती है।

© डॉ. आनंद सिंह राणा

संप्रति- विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग, श्री जानकी रमण कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, जबलपुर,

उपाध्यक्ष इतिहास संकलन समिति महकौशल प्रांत एवं जिला संगठक राष्ट्रीय सेवा योजना, जबलपुर म प्र

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

डॉ.वंदना पाण्डेय

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु”  के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

स्व. पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु

☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ ☆

☆ “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय

बात सन 1962 की है जब संस्कारधानी के क्राइस्ट चर्च स्कूल के प्रभावशाली शिक्षक पं. रामेश्वर प्रसाद गुरुजी महापौर चुने गए । बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी गुरु जी के गुणों को शब्दों में सहेज पाना न केवल मुश्किल वरन् असंभव है । उन्हें प्रेम और आदर के साथ ‘गुरु जी’ के नाम से ही जाना जाता था । ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ और सिद्धांतों के पक्के गुरुजी महापौर बनने के बाद भी अपने घर से स्कूल साइकिल से ही जाते थे । नगर निगम में महापौर की कुर्सी पर विराजित होने के बाद कार्यालयीन कार्यों के लिए ही वे निगम की कार का प्रयोग करते थे। व्यक्तिगत कार्यों के लिए उन्होंने सदैव साइकिल का ही प्रयोग किया।

प्रखर बुद्धि के स्वामी होने के साथ ही वे सूक्ष्म भावनाओं के सागर भी थे, गुरुजी ने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से इसे सही साबित कर दिया। वे एक श्रेष्ठ शिक्षक थे । उनमें आदर्श शिक्षक के समस्त गुण विद्यमान थे।  गणित जैसे रुखे विषय के शिक्षक होने के बावजूद भी वे  विद्यार्थियों में सर्वप्रिय रहे। जीवन की समस्याओं के गणित का समाधान भी उन्होंने सरलता से हंसते मुस्कुराते किया। निराश मन लेकर आने वाले भी उनसे मिलकर आशा का पुंज ले जाते थे। वे सदैव आत्म वंचना, आत्म प्रदर्शन से दूर रहे। अपनी बातों और दूसरों की गलतियों को मधुरता के साथ रेखांकित कर देने का अद्भुत गुण भी था उनमें  । सदैव प्रसन्न रहना, मुस्कुराना उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग था। उन्होंने जीवन पथ के कांटों को हटाया ही नहीं वरन वहां  सुमन बिखरते चले गए। अपनी दुख-पीड़ा को न तो प्रदर्शित किया न सार्वजनिक बनाया । इसके विपरीत दूसरों के दुख दर्द में बराबरी से हिस्सा लिया, उसे बांटा और दूर किया। सभी वर्ग, धर्म और बौद्धिक स्तर के लोग उनके सानिध्य में समानता का अनुभव करते थे। वे जबलपुर के गौरव पुरुष, सबके मित्र थे। गुरु जी दान मुक्त हस्त से और प्रशंसा दिल खोलकर करते थे, किंतु अपनी प्रशंसा सुनने से कतराते थे। दूसरों के लिए तन – मन, धन न्यौछावर करने वाले गुरु जी अपने प्रति हमेशा बेपरवाह रहे। देकर भूल जाना उनका स्वभाव था। वे इतने संकोची इतने थे कि कार्य स्वयं कर लेना ही उन्हें आसान लगता था बजाए किसी से कहने या करवाने के । गंभीर बातों को सहजता से लेने वाले गुरु जी सरल और विनोदी स्वभाव के कारण वातावरण को कभी भी बोझिल नहीं बनने देते थे । उपदेश देना उनकी फितरत में नहीं था, उनका सादगी पूर्ण, आडंबर रहित व्यक्तित्व – कृतित्व, आचरण ही लोगों के लिए उपदेश था। याद आ रही है उनके व्यक्तित्व को प्रकाशित करती हुई ये पंक्तियां ..

हम तो बिके जाते हैं उन अहले कर्म के हाथों

करके एहसान भी जो नीचे नजर रखते हैं।

गुरु जी एक श्रेष्ठ पत्रकार भी थे। ‘वसुधा’ और ‘प्रहरी’ के अतिरिक्त वे अनेक पत्र पत्रिकाओं से जुड़े रहे। उन्होंने समाज और जीवन के हर पहलू पर कविताएं लिखीं । सशक्त कवि के रूप में उनकी पहचान दूर-दूर तक थी। शिक्षा साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में विशेष रूचि के कारण ही गुरु जी जबलपुर में चंचलबाई महिला महाविद्यालय, भातखंडे संगीत महाविद्यालय, बिदामबाई गुगलिया कन्या विद्यालय, डिसल्वा रतनशी हायर सेकंडरी विद्यालय व भवानी प्रसाद तिवारी शिक्षा मंदिर की  स्थापना में सहभागी बने । यह गर्व की  बात है कि इन संस्थाओं का जैसा गौरवपूर्ण इतिहास रहा वैसा ही उनका वर्तमान भी है। गुरुजी और उनकी मित्र मंडली ने होली को सामाजिक और सांस्कृतिक पर्व के रूप में स्थापित किया।जिसमें शहर के सभी वर्ग के लोग हर्षोल्लास से मिलते जुलते, नाचते-गाते और होली का आनंद उठाते थे ।

गुरुजी कहते थे कि साहित्यिक, सांस्कृतिक रुचि उन्हें अपने पिता सुविख्यात व्याकरणाचार्य पं. कामता प्रसाद गुरु जी से विरासत में मिली।  समाज की विसंगतियां पर उन्होंने न केवल नजर डाली बल्कि समाज की नजरों में रखा भी। शोषण के विरुद्ध उनका    चिंतित स्वर देखिए –

आज जहर की हंसी हंसा है

पूंजी पति अनजाने में

कौन कयामत आने को है

मुफलिस के वीराने में ।

उनकी एक कविता में दुखती आत्मा का स्वर इस प्रकार रहा ..

जिस्म वही है शक्ल वही है पर मानव दिल बदल गया

धन के इस खूनी चढ़ाव से हिमालय भी दहल गया ।

गुरु जी सड़ी गली परंपरा तोड़ने के पक्षधर थे। वे जानते थे विद्रोह के बिना परिवर्तन संभव नहीं है और विद्रोह करना भी आसान नहीं। इसलिए उन्होंने आव्हान किया –

“आज नया इंसान बनने विद्रोही शुरुआत चाहिए !

वज्र शक्ति संकल्पना वाला विषपाई सुकरात चाहिए!!

आजादी की लड़ाई में कूद पड़ने की प्रेरणा उन्हें अपने  भावुक हृदय से मिली थी किंतु भावनाओं पर उनके मस्तिष्क का नियंत्रण भी था। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा तो लिया ही, इसके लिए लोगों को प्रेरित भी किया। उन दिनों उनके द्वारा लिखा गया गीत “खून की मांग” आज भी जन-मन में उत्साह उमंग का संचार करता है । ‘खून की मांग’ उनके अंतर्मन की एक चिंगारी थी जो ज्वाला में तब्दील होकर कविता के रूप में उतरी थी। उसी की एक झलक ..

खून चाहिए प्रेम पर पलती हुई जवान का

खून चाहिए हमें चिता पर जलती हुई जवान का

एक बात है एक मांग है मरघट आज जगा तो यारों

सर पर बांधे  कफन खड़ा हूँ  चलो कि आग लगा दो यारो ।

गुरु जी अब हमारे बीच नहीं हैं किंतु उनके आदर्श मार्ग दर्शक के रूप में हर कदम हमारे साथ हैं ..  सादर नमन।

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डॉ. वंदना पाण्डेय 

प्राचार्य, सी. पी. महिला महाविद्यालय

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : [email protected]

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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