हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

श्री यशोवर्धन पाठक

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

स्व. हीरालाल गुप्ता

☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ ☆

☆ “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक

सबको  प्रोत्साहन और प्रकाशन देने वाले स्व. हीरालाल जी गुप्ता प्रदर्शन से परे गुप्त ही बने रहना चाहते थे। न तो उन्होंने अपने पत्रकार होने का कभी ढिंढोरा पीटा और न ही कभी किसी पर रौब गालिब किया। कलम को कभी कुल्हाड़ी नहीं बनने दिया। पद और अधिकार उनके व्यक्तित्व पर कभी हावी नहीं हो पाये।

उपरोक्त प्रतिक्रिया है सुप्रसिद्ध साहित्यकार और पत्रकार श्रद्धेय डा. राजकुमार सुमित्र जी की, जो कि उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य के सशक्त स्तंभ श्रद्धेय स्व. श्री हीरालाल जी गुप्ता के व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करते हुए एक लेख में व्यक्त की थी। गुप्ता जी आत्म विज्ञापन और प्रचार से दूर रह कर सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत पर ही विश्वास करते थे। वे जीवन पर्यन्त सादगी से ही रहे और उन्होंने नाटकीयता, बनावटीपन और प्रदर्शन से दूर रह कर अपने व्यवहार और वाणी में भी सादगी और स्वाभाविकता को ही प्रमुखता दी। यही कारण है कि जहां पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्होंने निर्भीकता और निष्पक्षता जैसे मानदंडों को अपनाया वहीं कविता के क्षेत्र में उन्होंने भावनात्मकता और हार्दिकता के साथ अपनी काव्यात्मक प्रतिभा का परिचय दिया।

बचपन में मेरे घर पर जो विशिष्ट व्यक्ति परिवार के मध्य सराहनात्मक रुप से चर्चा का विषय बनते उनमें श्रद्धेय श्री हीरालाल जी गुप्ता भी प्रमुख रुप से शामिल रहते। पूज्य पिता स्व. पं. भगवती प्रसाद जी पाठक के अभिन्न मित्र के रुप में चाहे जब गुप्ता जी के व्यक्तित्व की चर्चा होती। बाद में बड़े भाई श्री हर्षवर्धन, सर्वदमन और प्रियदर्शन ने भी “नवीन दुनिया” समाचार पत्र से पत्रकारिता प्रारंभ की और श्री गुप्ता जी ने मेरे तीनों भाइयों के पत्रकारिकता कार्य में संरक्षक और शिक्षक  की प्रभावी भूमिका का निर्वहन किया। घर पर जब श्री गुप्ता जी की प्रखर लेखनी और प्रेरक व्यक्तित्व के बारे में बातचीत होती तो मैं बड़े ध्यान से बातें सुना करता। पिताजी द्वारा गणेश उत्सव पर आयोजित काव्य गोष्ठी में जब गुप्ता जी घर आते तो उनकी कविताएं सुनने का मुझे भी अवसर मिलता। उनकी कविताएं हम सभी को मंत्रमुग्ध कर जातीं। बड़े भाइयों के साथ मै भी उन्हें चाचा जी कहकर संबोधित और सम्मानित करता और गौरवान्वित होता।

महाविद्यालयीन अध्ययन के दौरान नवीन दुनिया प्रेस में मैं अक्सर आदरणीय श्री गुप्ता जी से मिलने जाया करता। वे मुझसे बड़े अपनेपन के साथ मेरे वर्तमान और भविष्य के संबंध में अनेक चर्चाएं करते और यथोचित मार्गदर्शन करते। उनका सोचना था कि व्यक्ति की जिस क्षेत्र में  रुचि हो, उसी क्षेत्र में उसे आगे बढ़ना चाहिए। वे मेरी रुचि को देखते हुए मुझे हमेशा लेखन के लिए प्रोत्साहित करते। उनका नजरिया था कि मुझे पत्रकारिता या अध्यापन के क्षेत्र में कार्य करना चाहिए। मैंने जब सहकारी  प्रशिक्षण के क्षेत्र में व्याख्याता और प्राचार्य के दायित्वों का निर्वाह करते हुए साहित्यिक लेखन भी जारी रखा  तो मुझे गुप्ता जी की सभी बातें बरबस याद आ गईं कि उनका मार्गदर्शन मेरे लिए कितना महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। एक मैं हूं जिसे गुप्ता जी का इतना प्यार मिला, प्रेरणा मिली, लेकिन मेरे जैसे न जाने कितने होंगे जिनके जीवन निर्माण में गुप्ता जी का मार्गदर्शन सहायक सिद्ध हुआ होगा।

कविता के क्षेत्र में गुप्ता जी का उपनाम “मधुकर” उनके जीवन में सदा अपनी सार्थकता प्रदर्शित करता रहा। उनकी सहजता और सरलता उनके जीवन की एक बड़ी विशेषता रही। तभी आदरणीय श्री श्याम सुन्दर शर्मा ने उनके बारे में लिखा था कि “श्री गुप्ता जी की एक और विशेषता थी, उनका वैष्णव स्वभाव। उनके व्यक्तित्व की सरलता और सहजता ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा। न तो उनकी वेषभूषा में बदलाव आया और न ही उनके व्यवहार में। आक्रामकता तो उन्हें छू तक नहीं गई थी लेकिन जो बात उन्हें सही लगती उस पर वे अडिग रहते थे और यही कारण था कि उन्हें पत्रकारिता के कार्य काल में अपने संपादकीय सहयोगियों का  भरपूर सहयोग मिला। गुप्ता जी अपने पत्रकारिता और सामाजिक जीवन में  अजातशत्रु  के रुप में सभी के मध्य सदा सम्मानित रहे। स्व. श्री हीरालाल जी गुप्ता आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृतियां हमारे मानस पटल पर आज भी हमें प्रेरित और प्रभावित करतीं हैं। स्व. गुप्ता जी की स्मृति में जबलपुर की  अनेक  साहित्यिक संस्थाऐं 24 दिसंबर को स्व. हीरालाल गुप्ता जयंती समारोह आयोजित करती रही हैं, मेरे दृष्टिकोण से यह आयोजन युवा पीढ़ी को पत्रकारीय मूल्यों के साथ सकारात्मक दिशा दर्शन का  प्रेरक आयोजन होता था। इस आयोजन में स्वर्गीय गुप्ता जी के परिवार के सभी सदस्यों की सहभागिता रहती थी। स्व. गुप्ता जी को सादर नमन।        ‌‌

© श्री यशोवर्धन पाठक

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 6 – हास्ययोग : एक विस्मयकारी जादू The Transformative Power of Laughter Yoga ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।

– श्री जगत सिंह बिष्ट 

(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में अगला दस्तावेज़  “हास्ययोग : एक विस्मयकारी जादू The Transformative Power of Laughter Yoga।)

☆  दस्तावेज़ # 6 – हास्ययोग : एक विस्मयकारी जादू  ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

क्या आपको मालूम है कि निर्मल हंसी में एक खुशहाल, स्वस्थ और सौहाद्रमय जीवन की कुंजी छुपी हुई  है? लाफ्टर योग़ा (हास्ययोग) के साथ मेरी यात्रा, इस जिज्ञासा के साथ शुरू हुई और मेरे जीवन में आमूलचूल परिवर्तन आ गया। इसके फलस्वरूप, मेरा और मेरे माध्यम से, जाने कितने अन्य लोगों का जीवन आनंद से भर गया!

डॉ. मदन कटारिया की परिकल्पना “लाफ्टर योग़ा” एक ऐसा अभ्यास है जो  हँसी को योग के साथ जोड़ता है। इससे प्रतिभागियों को बिना किसी कारण के हँसने में सक्षम बनाया जाता है। एक सचेत प्रयास के रूप में शुरू होकर, यह जल्द ही वास्तविक, हार्दिक और गहरी हँसी में परिवर्तित हो जाता है.  इससे शरीर ‘एंडोर्फिन’ से  लबालब हो जाता है और मन आनंदित हो उठता है। यह एक ऐसा सरल लेकिन गहन अभ्यास था जिसने मुझे और मेरी पत्नी राधिका को इसके जादू को फैलाने के लिए समर्पित कर दिया।

हास्ययोग – एक मिशन :

हमारी यात्रा इंदौर में विनम्रतापूर्वक शुरू हुई, जहां हमने एक सामुदायिक लाफ्टर क्लब की स्थापना की। यह प्रयास जल्दी ही खुशी और मेलजोल का केंद्र-बिंदु बन गया, जो जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों को आकर्षित करता है। हंसी के परिवर्तनकारी प्रभावों को प्रत्यक्ष रूप से देखते हुए, हमने अपने सत्रों को स्कूलों, कॉर्पोरेट वातावरण और यहां तक कि वंचित समुदायों तक विस्तारित करने की पहल की।

श्री शारदा रामकृष्ण विद्या मंदिर में, एक विशेष रूप से यादगार सत्र में, हमने शैक्षणिक तनाव से जूझ रही छात्रों को हास्ययोग का अमूल्य उपहार दिया।  इसका प्रभाव तत्काल और असाधारण था. मुस्कुराहट ने उनके तनावपूर्ण भावों को बदल दिया, और उनके उत्साह से कक्षा में ऊर्जा का संचार हुआ। शिक्षकों ने अभ्यास की सुगमता और प्रभावशीलता पर आश्चर्य व्यक्त किया जिसने बच्चों को एक नई ऊर्जा दी और उनका ध्यान पढाई पर केन्द्रित होने में सहायता मिली।

हास्ययोग से मेरे अपने जीवन में भी गहरा बदलाव आया। इसने मुझे गहरे, अधिक प्रामाणिक, स्तर पर लोगों से जुड़ना सिखाया। मेरी बातचीत और मेरा व्यवहार गर्मजोशी और आपसी सम्मान से ओतप्रोत हो गया। इस अभ्यास ने, न केवल मेरे अपने तनाव को कम किया, बल्कि जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनाने  के लिए एक नई भावना को भी प्रेरित किया –  दूसरों के जीवन में खुशी भरने की भावना।

व्यापक  प्रभाव:

इन वर्षों में, हमारे हास्य योग सत्र विभिन्न समूहों तक पहुंचे हैं, गांवों के स्कूली बच्चों से लेकर कॉर्पोरेट बोर्डरूम में वरिष्ठ अधिकारियों तक। हमारे सबसे सुखद अनुभवों में से एक विशेष जरूरतों वाले बच्चों के साथ काम करना था। उनकी बेहिचक खुशी और हँसी को गले लगाने की इच्छा ने इस अभ्यास की असीम क्षमता की पुष्टि की।

लाफ्टर योगा के माध्यम से,  विश्व स्तर पर लोगों से जुड़ने के लिए मैं भाग्यशाली रहा हूं। ऋषिकेश में अंतरराष्ट्रीय प्रतिभागियों को प्रशिक्षित करने से लेकर भारतीय स्टेट बैंक और नेस्ले में सत्र आयोजित करने तक, हर सत्र ने हंसी की सार्वभौमिकता में मेरे विश्वास को मजबूत किया। यह भाषा और संस्कृति से परे है, ऐसे बंधन बनाता है जो उतने ही स्थायी होते हैं जितने कि वे आनंद से परिपूर्ण होते हैं।

एक दिव्य अस्त्र :

हास्य योग ने मुझे सिखाया है कि खुशी सिर्फ एक व्यक्तिगत खोज नहीं है – यह साझा करने के लिए एक उपहार है। इस अभ्यास ने मुझे दूसरों में, विशेष रूप से युवा पीढ़ी और जरूरतमंद लोगों में सकारात्मकता को प्रेरित करने के लिए सशक्त बनाया है। इसने पारस्परिक कौशल को बढ़ाया है, रचनात्मकता को बढ़ावा दिया है, और अनगिनत जीवन को बदल दिया है, जिसमें मेरा अपना भी शामिल है।

मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे बेटे ने एक बार मुझसे कहा था, “पापा, आपके पास दूसरों को खुशी देने का एक दिव्य अस्त्र है।“ यह वाक्य मेरे लिए प्रेरणाश्रोत बन गया। यह भावना उस सार को पकड़ती है जो लाफ्टर योगा ने मुझे दिया है – खुशी बांटने का मिशन और आनंद की विरासत।

हास्ययोग आन्दोलन :

हास्य योग एक व्यायाम से कहीं अधिक है – यह जीवन जीने की एक कला है,  एक उत्सव है। यह हमें अपने भीतर बच्चों की मस्ती को फिर से खोजने, अपनी चिंताओं को दूर करने और एक दूसरे के साथ गहराई से जुड़ने के लिए आमंत्रित करता है।

हम एक साथ हंसते हैं तो उत्साह और उमंग का अनुभव करते हैं।  इस साझा आनंद में एक उज्जवल, करूणामय संसार की आकांक्षा निहित है। क्या आप  हास्ययोग के इस पुनीत आंदोलन में शामिल होकर हंसते-हंसते ज़िन्दगी बिताना चाहेंगे?

– जगत सिंह बिष्ट

लाफ्टर योगा मास्टर ट्रेनर

☆ The Transformative Power of Laughter Yoga 

Have you ever wondered if a simple act of laughter could hold the key to a happier, healthier, and more connected life? My journey with Laughter Yoga began with this curiosity and unfolded into a life-transforming mission, bringing joy to myself and countless others.

Laughter Yoga, pioneered by Dr Madan Kataria, is a practice that combines intentional laughter with yogic breathing, enabling participants to laugh for no reason. What begins as a conscious act soon evolves into genuine, hearty laughter, flooding the body with endorphins and uplifting the spirit. It was this simple yet profound practice that drew my wife Radhika and me to dedicate ourselves to spreading its magic.

A Mission Rooted in Laughter:

Our journey started humbly in Indore, where we founded a community laughter club. This endeavour quickly blossomed into a hub of joy and connection, attracting people from all walks of life. Witnessing the transformative effects of laughter firsthand, we took the initiative to extend our sessions to schools, corporate environments, and even underprivileged communities.

In a particularly memorable session at Sri Sarada Ramakrishna Vidya Mandir, we introduced Laughter Yoga to students struggling with academic stress. The impact was immediate and extraordinary: smiles replaced their strained expressions, and their enthusiasm lit up the room. Teachers marvelled at the simplicity and effectiveness of the practice, which fostered a newfound energy and focus in the children.

Laughter Yoga also brought a profound change to my own life. It taught me to connect with people on a deeper, more authentic level. My interactions shifted from functional to personal, filled with warmth and mutual respect. This practice not only reduced my own stress but also inspired a renewed sense of purpose: to bring happiness to others.

Touching Lives Far and Wide:

Over the years, our laughter sessions have reached diverse groups, from schoolchildren in rural villages to senior executives in corporate boardrooms. One of our most heartening experiences was working with special needs children. Their uninhibited joy and willingness to embrace laughter reaffirmed the boundless potential of this practice to heal and uplift.

Through Laughter Yoga, I’ve been fortunate to connect with people globally. From training international participants in Rishikesh to conducting sessions at the State Bank of India and Nestlé, every session strengthened my belief in the universality of laughter. It transcends language and culture, creating bonds that are as enduring as they are joyful.

The Ripple Effect:

Laughter Yoga has taught me that happiness is not just an individual pursuit—it is a gift to be shared. The practice has empowered me to inspire positivity in others, especially the younger generation and those in need. It has enhanced interpersonal skills, fostered creativity, and transformed countless lives, including my own.

The compliment I hold closest to my heart came from my son, who once said, “Papa, you have the heavenly gift of bringing joy to others. It’s truly inspiring.” This sentiment captures the essence of what Laughter Yoga has given me: a mission to spread happiness and a legacy of joy.

A Call to Laugh:

Laughter Yoga is more than an exercise—it is a way of life, a celebration of the human spirit. It invites us to rediscover the childlike playfulness within, to let go of our worries, and to connect with one another in profound ways.

As we laugh together, we heal together. And in that shared joy lies the promise of a brighter, more compassionate world.

Will you join the movement and laugh your way to happiness?

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – कहाँ है जयप्रकाश ? ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – कहाँ हैं जय प्रकाश? ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

कहाँ  गए वे लोग नहीं,  कहाँ जाते हैं ये लोग कहना पड़ेगा। अभी नवंबर 2024  में ही फेसबुक पर जयप्रकाश भाई ने पूज्य ज्ञान रंजन जी को जन्मदिन की शुभकामनाएँ दीं थीं।  जय प्रकाश जी की फेसबुक पर हर पोस्ट देखता था । उनके द्वारा दी गई शुभकामनाएँ  देखकर मैंने ज्ञानरंजन जी फोन किया और  उनको अपनी ओर से शुभकामनाएँ दीं ।  ज्ञानरंजन जी ने कहा कि मेरा जन्मदिन 21 नवंबर था भाई  तो मैंने उनसे कहा कि मुझे जय प्रकाश पांडे की फेसबुक पोस्ट से आपके जन्मदिन के बारे में पता चला। जय प्रकाश पाण्डेय का नाम सुनते ही ज्ञान सर ने तुरंत कहा,सत्येंद्र,  अजय प्रकाश बहुत बीमार हैं। अभी इलाज कराकर नागपुर से लौटकर   आए हैं, अभी काफी ठीक हैं,  उनसे बात कर लो  उन्हें बहुत अच्छा लगेगा। नंबर मेरे पास था ही, मैंने तुरंत बात की। मैं 1985 से 1990 तक जबलपुर में रहा। ज्ञानरंजन जी के आवास पर होने वाली गोष्ठियों में जय प्रकाश जी से मुलाकात होती। उनके साथ परसाई जी के यहां जाना भी हुआ। मेरे साथ अरुण श्रीवास्तव हमेशा रहते, रहते क्या वे ही मुझे लेकर जाते। लीलाधर मंडलोई जी और सुरेश पांडेय जी की उपस्थिति विशेष रूप से रहती।  मयंक जी, कुंदन सिंह परिहार जी, राजेन्द्र दानी जी, द्वारका प्रसाद गुप्त गुप्तेश्वर, बाजपेई जी, अरुण पांडेय, विवेचना के हिमांशु जी और जिन जिन की याद आई, सबके बारे में खूब बात हुईं।

 जय प्रकाश जी से आत्मीयता का एक कारण मुरलीधर नागराज भी रहे क्योंकि मुरलीधर नागराज जी से मित्रता मुंबई में ही हो गई थी जब तापसी जी ने सुर संगम का पुरस्कार जीता था। उस समय राजेश जौहरी हमारे बीच की कड़ी थे ।   मुंबई से जबलपुर ट्रांसफर पर आने पर मैं प्रसिद्ध सीबीआई ऑफिसर आई.एन. आर्य जी के साथ उनके जिस रेलवे क्वार्टर में रहता था उसके पास ही स्टेट बैंक की शाखा थी, जिसमें मुरलीधर नागराज थे। जय प्रकाश जी मुरलीधर जी के साथी और मित्र थे ही। इस प्रकार जयप्रकाश जी से दोहरी आत्मीयता थी। सन्  1990 में कोल्हापुर आने के बाद जबलपुर जाना नहीं हुआ परंतु फेसबुक पर जयप्रकाश जी से जुड़ा  रहा।  जब   बीमारी की बात सुनकर मैंने उनसे बात की उन्होंने अपना  पूरा हाल बताया की कब कब,  क्या-क्या हुआ।  नागपुर कब गए । कितने दिन दिन इलाज चला और एक  ऑपरेशन होने वाला है। सब ऐसे बता रहे थे जैसे किसी और के बारे में बता रहे हों। पूरी उम्मीद थी उन्हें होने वाला ऑपरेशन भी सफल रहेगा । इन्हीं उम्मीद के साथ हमारी बातचीत खत्म होने वाली थी कि उन्होंने अचानक कहा कि हम लोग एक डिजिटल पत्रिका ई-अभिव्यक्ति निकलते हैं और स्टेच बैंक ऑफ इंडिया के कंप्यूटर विशेषज्ञ हेमंत बावनकर जी उसका पूरा काम देखते हैं। उसमें आप लिखा कीजिए और उन्होंने मुझसे अपना संक्षिप्त परिचय, फोटो और रचना व्हाट्सएप पर ही भेजने के लिए कहा और मैंने भेज दी। उन्होंने तुरंत  उन्होंने ब्यौरा मेरा हेमंत जी को भेज दिया और 27 नवंबर 2024 को मैं हेमंत जी ने मुझे ई-अभिव्यक्ति से जोड़ लिया । चार पांच अंकों में ही मेरी रचना प्रकाशित हुई हैं।  एक हफ्ते से मैं फेसबुक व्हाट्सएप कुछ नहीं देख पाया, पता नहीं क्यों,  लेकिन आज हेमंत जी का मैसेज और ई-अभिव्यक्ति पर जब देखा तो   का पूरा अंक जयप्रकाश पांडे जी को समर्पित करते हुए प्रकाशित किया है । तब मुझे पता चला जयप्रकाश भाई नहीं रहे । पता अंदर से बहुत कुछ टूट सा गया। ई-अभिव्यक्ति पर जय प्रकाश जी पर सभी मित्रों की संवेदनाएँ पढीं। फेसबुक देखा तो सैकड़ों मित्रों ने उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं।  कैसे कोई बात करते-करते,  हंसता -खेलता आदमी चला जाता है,  कहाँ गए  वे लोग स्तंभ उन्होंने शुरू किया और खुद कहाँ चल दिए?  सब कुछ पढकर दिल बहुत दुखी हुआ । जय प्रकाश जी जैसे लोग बिरले ही होते हैं । वे कभी अपनी व्यक्तिगत समस्या से घबराने वाली व्यक्ति नहीं थे आश्चर्य है कहाँ गए वे लोग कहने वाले प्रश्न छोड़ कर चले गए कि कहाँ  जाते हैं लोग ? 

मेरी विनम्र श्रद्धांजलि स्वीकार करें जय प्रकाश।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : पुणे महाराष्ट्र 

मोबाइल : 99229 93647

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’   ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – कहाँ गए वे लोग ? ☆ हेमन्त बावनकर ☆

💐 स्व. जयप्रकाश पाण्डेय 💐

☆ ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – कहाँ गए वे लोग ? ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

प्रिय मित्रों,

 वैसे तो इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति एक विशिष्टता लेकर आता है और चुपचाप चला जाता है। फिर छोड़ जाता है वे स्मृतियाँ जो जीवन भर हमारे साथ चलती हैं। लगता है कि काश कुछ दिन और साथ चल सकता । किन्तु विधि का विधान तो है ही सबके लिए सामान, कोई कुछ पहले जायेगा कोई कुछ समय बाद। किन्तु, जय प्रकाश भाई आपसे यह उम्मीद नहीं थी कि इतने जल्दी साथ छोड़ देंगे। अभी कुछ ही दिन पूर्व नागपूर जाते समय आपसे लम्बी बात हुई थी जिसे मैं अब भी टेप की तरह रिवाइंड कर सुन सकता हूँ। और आज दुखद समाचार मिला कि आप हमें छोड़ कर चले गए। इस बीच न जाने कितने अपुष्ट समाचार मिलते रहे और हम सभी मित्र परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करते रहे कि कुछ चमत्कार हो जाये और हम सब को आपका पुनः साथ मिल जाए। 

कहाँ गए वे लोग ?

इस वर्ष (२०२४) के प्रारम्भ से ही जय प्रकाश जी के मन में चल रहा था कि एक ऐतिहासिक साप्ताहिक स्तम्भ “कहाँ गए वे लोग?” प्रारम्भ किया जाये जिसमें हम अपने आसपास की ऐसी महान हस्तियों की जानकारी प्रकाशित करें जो आज हमारे बीच नहीं हैं किन्तु, उन्होने देश के स्वतंत्रता संग्राम, साहित्यिक, सामाजिक या अन्य किसी क्षेत्र में अविस्मरणीय कार्य किया है।  और २८ फरवरी २०२४ को इस श्रृंखला की पहली कड़ी में पंडित भवानी प्रसाद तिवारी जी की स्मृति में एक आलेख प्रकाशित कर इस श्रृंखला को प्रारम्भ किया। भाई जय प्रकाश जी की रुग्णावस्था में इस कड़ी को भाई प्रतुल श्रीवास्तव जी ने सतत जारी रखा। हमें यह कल्पना भी नहीं थी कि जिस श्रृंखला को उन्होने प्रारम्भ किया हमें उस श्रृंखला में उनकी स्मृतियों को भी जोड़ना पड़ेगा। इससे अधिक कष्टप्रद और दुखद क्षण हमारे लिए हो ही नहीं सकते। 

हम भाई जय प्रकाश जी और श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी के साथ मिलकर सदैव नूतन और अभिनव प्रयोग की कल्पना कर उन्हें साकार करने का प्रयास करते रहते थे। इसके परिणाम स्वरूप हमने महात्मा गांधी जी के150वीं जयंती पर गांधी स्मृति विशेषांक, हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेषांक, दीपावली विशेषांक जैसे विशेषांकों को प्रकाशित किया। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी के 85 वे जन्मदिवस पर “85 पर – साहित्य के कुंदन” का प्रकाशन उनके ही मस्तिष्क की उपज थी। ऐसे कई अभिनव प्रयोग अभी भी अधूरे हैं और कई अभिनव प्रयोग उनके मन में थे जो उनके साथ ही चले गए। 

व्यंग्यम और व्यंग्य पत्रिकाओं से उनका जुड़ाव 

व्यंग्यम संस्था तो जैसे उनके श्वास के साथ ही जुड़ी थी। ऐसी कोई चर्चा नहीं होती थी जिसमें व्यंग्यम, अट्टहास और अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं की चर्चा न होती हो। व्यंग्यम के वरिष्ठ सदस्यों और व्यंग्यकार मित्रो के दुख का सहभागी हूँ।

व्यंग्य लोक द्वारा – “व्यंग्य लोक स्व. जयप्रकाश पाण्डेय स्मृति व्यंग्य सम्मान” की घोषणा 

श्री रामस्वरूप दीक्षित जी द्वारा प्राप्त सूचनानुसार व्यंग्य लोक द्वारा – “व्यंग्य लोक स्व. जयप्रकाश पाण्डेय स्मृति व्यंग्य सम्मान” की घोषणा की गई है। इस सम्मान में रु 5000 राशि प्रदान करने की घोषणा की गई है। साथ ही पहला सम्मान स्व. जयप्रकाश जी के गृहनगर जबलपुर में प्रदान किया जाएगा। यह एक प्रशंसनीय कदम है। 

डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी के अनुसार उन्होने सोशल मीडिया में 700 से अधिक मित्रों द्वारा अर्पित श्रद्धांजलियां और शोक संदेश देखे हैं जो उनके सौम्य व्यवहार और लोकप्रियता के प्रतीक हैं।  व्यंग्यम, अट्टहास, व्यंग्य लोक और अन्य पत्रिकाओं से जुड़े सभी वरिष्ठ साहित्यकारों और व्यंग्यकार मित्रो ने मेरे अनुरोध को स्वीकार कर इस विशेष अंक में भाई जय प्रकाश जी से जुड़ी हुई अपनी स्मृतियाँ और संक्षिप्त विचार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी, श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी और श्री रमाकांत ताम्रकार जी के माध्यम से  प्रेषित किए।

इस प्रयास में हम आपके संस्मरणों/विचारों को श्रद्धासुमन स्वरूप भाई जय प्रकाश जी को समर्पित करते है।  

बस इतना ही।

हेमन्त बावनक, पुणे 

वर्तमान में बेंगलुरु से 

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – एक हरदिल-अज़ीज़ इंसान का विदा होना ☆ डॉ. कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – एक हरदिल-अज़ीज़ इंसान का विदा होना ☆ डॉ. कुंदन सिंह परिहार

भाई जयप्रकाश पांडेय अचानक ही, असमय, संसार से विदा हो गये। अल्पकाल में ही बीमारी ने उनका जीवन-दीप बुझा दिया, और हम सब उनके मित्र ठगे से देखते रह गये। उनके परिवार के लिए यह अकल्पनीय आघात है। प्रकृति ऐसे ही बेलिहाज हमें जीवन की अनिश्चितता और क्षणभंगुरता का आभास कराती है।

जयप्रकाश जी से संबंध 40-45 वर्ष पुराने हुए। कभी वे एक लेखक संगठन के स्थानीय सचिव और मैं उसका स्थानीय अध्यक्ष हुआ करते थे। तब कई बार विपरीत स्थितियों के विरुद्ध खड़े होने की उनकी दृढ़ता और संगठन-क्षमता का मुझे भान हुआ। वे बड़ी-बड़ी समस्याओं को शान्ति से निपटा देते थे, लेकिन यथासंभव वे लोगों से अपने पुराने संबंधों को बिगड़ने नहीं देते थे। उनके मित्रों की संख्या विशाल थी क्योंकि उनकी नज़र मित्रों की कमियों, कमज़ोरियों पर कम जाती थी। अभी उनके देहान्त के बाद फेसबुक पर मैंने उनके लिए लगभग 700 लोगों की श्रद्धांजलियां देखीं।

मैंने पाया कि पांडेय जी बड़े स्वाभिमानी थे। व्यर्थ में किसी के सामने झुकना उन्हें पसन्द नहीं था। अपने सम्मान के प्रति वे सचेत रहते थे। वे वैज्ञानिक सोच वाले थे। अंधविश्वासों, ढकोसलों के फेर में नहीं पड़ते थे।

जयप्रकाश जी सहज ही मित्रों का उपकार करते थे। मैं लगातार अपनी जन्मतिथि को छिपाता रहा क्योंकि मैं आत्मप्रचार को पसन्द नहीं करता, लेकिन पचासी पर पहुंचने पर उन्होंने मुझे पकड़ लिया और अपने निवास पर आयोजन कर डाला। उन्होंने मेरे ऊपर एक 80-85 पेज की टाइप्ड पुस्तिका निकाल दी जिसमें कई लोगों से लेख मंगवाकर शामिल किये। ऐसे ही मेरे एक व्यंग्य- संग्रह का विमोचन अपने निवास पर कर डाला। पत्रिकाओं में मुझसे पूछे बिना ही वे मेरी रचनाएं भेज देते थे। लोकप्रिय पत्रिका ‘अट्टहास’ के अक्टूबर 24 के अंक के अतिथि संपादक के रूप में उन्होंने जबलपुर के कई व्यंग्यकारों की रचनाएं छापीं। उसमें मेरी एक रचना मुझसे मांगे बिना ही भेज दी। बाद में दिसंबर अंक के लिए भी मेरी एक रचना भेज दी।

जबलपुर में ‘व्यंग्यम’ समूह की अधिकतर बैठकें उन्हीं के निवास पर हुईं जहां वे उपस्थित लेखकों की पूरी खातिरदारी करते थे। बीमारी के दौर में भी उनकी इच्छा पर यह सिलसिला चलता रहा। बीमारी को पराजित करने की उन्होंने पूरी कोशिश की, लेकिन अंततः बीमारी उन पर हावी हो गयी और हमने अपने बहुत प्यारे मित्र और समाज ने एक बहुत मूल्यवान व्यक्ति को खो दिया।

पांडेय जी के द्वारा छोड़े गये शून्य के मद्देनज़र मुझे शायर निदा फ़ाज़ली का शेर याद आता है—

‘उसको रुख़सत तो किया था, मुझे मालूम न था,

सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला।’

डॉ कुंदन सिंह परिहार

59, नव आदर्श काॅलोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर – 2 

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जय प्रकाश पाण्डेय: मेरे भाई, सहकर्मी, और साहित्यिक मित्र ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जय प्रकाश पाण्डेय: मेरे भाई, सहकर्मी, और साहित्यिक मित्र ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट 

जय प्रकाश पांडेय अंततः चले ही गए। अचानक नहीं गए, धीरे-धीरे जाते रहे। प्रतिदिन अपडेट मिलते थे। वे काफी समय से अस्वस्थ चल रहे थे और उनके हालचाल ठीक नहीं थे। पूछने पर गोलमोल उत्तर देते रहे। कल जब वो चले गए तो सब कुछ शून्य-सा हो गया। काफी देर तक कुछ सूझ ही नहीं रहा था। बस एक शांतता। एक वैराग्य भाव।

इसी वर्ष, मार्च-अप्रैल में, मैं उत्तराखंड भ्रमण के लिए गया हुआ था। उस दिन मैं मुनस्यारी से रानीखेत की ओर जा रहा था। रास्ते में, जयप्रकाश का फोन आया, “आप कहां हैं इस समय? वहां से जिम कार्बेट नेशनल पार्क कितनी दूर है? वहां मेरे एक अच्छे मित्र हैं, बहुत अच्छे इंसान हैं, आप ही की तरह। वो भी बिष्ट ही हैं। आपके कॉर्बेट भ्रमण की बढ़िया व्यवस्था कर देंगे। मैं उनसे कहता हूं। “

उनके सौजन्य से अति उत्तम व्यवस्था भी हो गई। लौटे, तो उन्होंने पूछा कि लगभग कितना खर्च आता है वहां का। इस वर्ष, वहां जाने का उनका मन था!

मेरा उनसे परिचय लगभग पचास वर्ष पुराना है। वर्ष 1975 से। तब मैं जबलपुर विश्वविद्यालय के रसायन-शास्त्र विभाग में स्नातकोत्तर कक्षा के फाइनल ईयर में पढ़ रहा था। वो प्रीवियस ईयर में आए। कालांतर में, वे मित्र से ज्यादा भाई की तरह हो गए। उनमें आत्मीयता बहुत थी।

संयोगवश, हम दोनों ने भारतीय स्टेट बैंक ज्वॉइन किया। अनेक बार सहकर्मी बनकर साथ-साथ काम करने का अवसर मिला।

वर्ष 1990-91 के आसपास की बात है। कादम्बिनी पत्रिका ने अखिल भारतीय व्यंग्य कथा प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसमें मेरी एक रचना पुरस्कृत हुई। जयप्रकाश मुझसे पत्रिका से प्राप्त पत्र मांगकर ले गए। एक प्रेस विज्ञप्ति बनाई और दैनिक भास्कर में स्वयं पहुंचाकर आए। इस प्रसंग का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं ताकि पाठक समझ सकें कि आयोजनधर्मी जयप्रकाश जी की कार्यशैली किस प्रकार थी।

परसाई जी के जन्मदिन के अवसर पर, लगभग उन्हीं दिनों, उन्होंने एक भव्य आयोजन लगभग अपने ही दम पर सफलतापूर्वक आयोजित किया था। इस प्रसंग की चर्चा खुद परसाई जी ने भी अपने एक लेख में की है। उन्होंने मना किया था, पर जयप्रकाश कहां मानने वाले थे!

मेरे पहले व्यंग्य-संग्रह की भूमिका हेतु वे ही मुझे डॉ कुंदन सिंह परिहार के पास ले गए थे। ‘पहल’ के आयोजन के अंतर्गत, मेरी पहली पुस्तक का ज्ञानरंजन जी के द्वारा विमोचन का श्रेय भी भाई राजेंद्र दानी और उनको जाता है।

जयप्रकाश जी दूसरों के लिए आयोजन करने में काफी समय और ऊर्जा खर्च करते रहे। समझाने पर भी उन्होंने अपने लेखन की ओर गंभीरता से कोई तवज्जो कभी नहीं दी। अब उनके लेखन का मूल्यांकन तो आलोचक ही करेंगे, मेरी क्या बिसात? लेकिन मैं इतना अवश्य कहूंगा कि उनमें जितनी गहरी संवेदना और परख थी, उसके मद्देनजर उनके समक्ष असीम संभावनाएं थीं। उन्होंने कितना लिखा, कितना न्याय किया, यह तो केवल उन्हीं को मालूम होगा। भोले बनकर, मंद-मंद मुस्कुराते हुए, अपने मन की करते जाना ही उनकी प्रवृत्ति थी, यही उनकी प्रकृति थी।

वे हमसे दूर चले गये हैं जहां न कोई दर्द है, न कोई पीड़ा। कोई बंधन नहीं, वहां पूर्ण स्वतंत्रता है। वहां भी उन्होंने अब तक कोई बड़े आयोजन की तैयारी शुरू कर ही दी होगी, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है!

उन्हें हृदय से मेरी अश्रुपूरित, विनम्र श्रद्धांजलि। ॐ शांति, शांति, शांति!

श्री जगत सिंह बिष्ट

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जयप्रकाश पांडेय जी का यूँ चले जाना ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जयप्रकाश पांडेय जी का यूँ चले जाना ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

मैं जब तक अपने ये विचार फेसबुक पर पोस्ट कर रहा हूँगा तब तक जयप्रकाश पांडेय जी का पार्थिव शरीर चिता की लपटों में राख बन गया होगा…

जाने क्यूँ इक ख़याल सा आया

मैं न हूँगा तो क्या कमी होगी

ख़लील-उर-रहमान आज़मी की इन पंक्तियों ने मुझे झकझोरकर रख दिया। रह-रहकर मुझे जयप्रकाश पांडेय जी की याद सताने लगी। उनके पार्थिव शरीर के जलने की कल्पना मुझे व्यथित कर रही है। जी हाँ, मुझे जयप्रकाश पांडेय जी की कमी बड़ी खल रही है।

“व्यंग्य की नगरी का एक दीप बुझ गया

वह हँसता-मुस्कुराता चेहरा न जाने कहाँ गया

परसाई की नगरी जबलपुरवासी जय प्रकाश पांडेय जी का स्वर्गवास समकालीन हिंदी व्यंग्य साहित्य के लिए वह अपूरणीय क्षति है, जिसे शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है। ऐसा लगता है मानो व्यंग्य आंगन का दुलारा हमें छोड़कर चला गया है। उनकी लेखनी की धार, उनके शब्दों का जादू और उनकी सादगी भरी शख्सियत ने न जाने कितने साहित्य प्रेमियों के दिलों को छुआ।

हरिशंकर परसाई जी जैसे महान साहित्यकार की रचनाओं में जय प्रकाश पांडेय जी का नाम उल्लिखित होना, उनके लिए किसी सौभाग्य से कम नहीं था। लेकिन पांडेय जी ने इस सौभाग्य को केवल स्वीकारा ही नहीं, बल्कि इसे अपनी जिम्मेदारी समझकर समकालीन हिंदी व्यंग्य साहित्य में अपनी महत्वपूर्म उपस्थिति दर्ज कराई।

इसी वर्ष 10 अप्रैल को जब हरिशंकर परसाई जी का मकान ढहा दिया गया, तो उस घटना ने व्यंग्य साहित्य प्रेमियों के दिलों को झकझोर कर रख दिया। पांडेय जी इस पीड़ा को अपनी पीड़ा मानते हुए सोशल मीडिया पर इस घटना को प्रमुखता से उठाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उनका कहना था कि परसाई का नाम लेने मात्र से कुछ नहीं होता, उन्हें जीने की कोशिश करना असली परसाइयत है। इसी कड़ी में मध्य प्रदेश के द क्लिफ न्यूज अंग्रेजी अखबार ने इस खबर को प्रमुखता से प्रकाशित किया। राज्य सरकार का संस्कृति विभाग निरुत्तर हो गया, लेकिन पांडेय जी के प्रयासों ने यह साबित कर दिया कि साहित्यकार केवल लेखनी से ही नहीं, अपने कर्मों से भी समाज को दिशा देते हैं।

जय प्रकाश पांडेय जी ने देशभर के बड़े साहित्यकारों को इस मुहिम में जोड़ा। आदरणीय प्रेम जनमेजय जी, विष्णु खरे जी, ज्ञानरंजन जी, रमेश सैनी जी, सुभाष चंदर जी, रमेश तिवारी जी, कुंदन परिहार जी और स्वयं पांडेय जी ने इस घटना की कड़ी भर्त्सना की। यहां तक कि जापान से पद्मश्री तोमियो मिजोकामी जी भी इस आंदोलन का हिस्सा बने। यह उनकी दूरदृष्टि और अथक प्रयासों का परिणाम था कि परसाई जी की स्मृति रूपी धरोहर को बचाने की मुहिम ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई।

जय प्रकाश पांडेय जी केवल व्यंग्यकार नहीं थे, बल्कि व्यंग्य की धरोहर को बचाने वाले सच्चे सिपाही भी थे। उनकी लेखनी में समाज के हर पहलू को सजीव रूप में प्रस्तुत करने की कला थी। वे विसंगतियों के माध्यम से समाज की गहराईयों को छूने में सक्षम थे। उनके शब्द न केवल चोट करते थे, बल्कि सोचने पर मजबूर भी कर देते थे।

जय प्रकाश पांडेय जी का व्यक्तित्व बेहद सरल, मिलनसार और प्रभावशाली था। उनकी आवाज में अपनापन और उनके विचारों में गहराई थी। वे मुझसे घंटों फोन पर बात करते और कहते, “उरतृप्त जी, आपकी लेखनी का मैं बड़ा प्रशंसक हूं। ” उनकी प्रशंसा न केवल प्रेरणा देती थीं, बल्कि आगे बढ़ने का हौसला भी।

उनसे मेरी दो बार भेंट हुई थी। पहली बार दिल्ली में व्यंग्ययात्रा सम्मान के दौरान और दूसरी बार रायपुर में महेंद्रसिंह ठाकुर द्वारा आयोजित सम्मान कार्यक्रम में। हर बार उनकी सादगी और बौद्धिक गहराई ने मन को छू लिया। उनका स्नेह और उनका मार्गदर्शन हमेशा याद रहेगा।

आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, तो ऐसा लगता है मानो हिंदी व्यंग्य लोक का एक सितारा टूट गया हो। उनका जाना व्यंग्य प्रेमियों के लिए किसी असहनीय पीड़ा से कम नहीं है। उनकी हंसी, उनका व्यंग्य, और उनकी लेखनी हमें हमेशा उनकी याद दिलाती रहेगी।

“अलविदा कह गए, दिल को तोड़ गए,

साहित्य के आंगन में हमें अकेला छोड़ गए। “

जय प्रकाश पांडेय जी के योगदान को शब्दों में समेटना असंभव है। उनका नाम हिंदी व्यंग्य में हमेशा याद किया जाएगा। उनके विचार, उनकी लेखनी और उनकी यादें हमें सदैव प्रेरित करती रहेंगी।

“अब रह गई बस यादें, और अश्रुधारा,

पांडेय जी, आप थे हमारी आँखों का तारा। “

उनकी आत्मा को शांति मिले और हम सभी को उनकी लेखनी और विचारों से प्रेरणा लेकर उनके अधूरे सपनों को पूरा करने का साहस मिले। जय प्रकाश पांडेय जी, आप हमेशा हमारे दिलों में जिंदा रहेंगे।

अंत में अहमद आमेठवी के शब्दों में –

ज़िंदगी है अपने क़ब्ज़े में न अपने बस में मौत

आदमी मजबूर है और किस क़दर मजबूर है

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

हैदराबाद

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’   ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – याद आओगे जयप्रकाश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – याद आओगे जयप्रकाश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

डांस इंडिया डांस के व्यंग्यकार पांडे जी का जाना मेरे लिए व्यक्तिगत क्षति है। इस कृति के प्रकाशन हेतु मैने ही उन्हें प्रकाशक से मिलवाया था। पुस्तक मेले से पहले भागम भाग आपाधापी में किताब छपी थी। ई अभिव्यक्ति सहित कई संपादन हमने साथ किए। पाठक मंच में उन्होंने मेरे साथ सह आयोजक की भूमिका निभाई, हम प्रायः फोन संपर्क में रहे।

जब वे नारायण गंज, मंडला में पदस्थ थे, वे चुटका परमाणु संयंत्र के संदर्भ में जन जागरण अभियान से जुड़े रहे, चूंकि इस परियोजना का सर्वे से लेकर प्रोजेक्ट रिपोर्ट तक के सारे प्रारंभिक कार्य मैं ही कर रहा था, हम संपर्क में आए थे।

व्यंग्यधारा के संचालन हेतु भी हम दोनों ने ही श्री रमेश सैनी जी का नाम सुझाया था। कुछ कार्यकम उनके साथ आयोजित किए। कई गोष्ठियों में साथ साथ सहभागिता रही।

जब मैने अट्टहास का विमोचन जबलपुर में इंस्टिट्यूशन आफ इंजीनियर्स में करवाया था तब एवं ‘मिली भगत’ के विमोचन अवसर पर उनका पूरा सहयोग मिला। उनके घर पर व्यंग्यम की कई गोष्ठियों में मैने व्यंग्य पढ़े हैं। उनकी पुस्तक की समीक्षा भी की।

मेरी किताब ‘खटर पटर’ के लिए उनके सुंदर हस्त लेख में लिखा पत्र मेरे पास सुरक्षित है।

वे बातचीत में उनकी कैंसर की बीमारी के ठीक होने के प्रति पूर्ण आश्वस्त लगते थे, उन्होंने मेरे टाटा मेमोरियल जाने के सुझाव को पहले विचार में ही नकार दिया था।

परमात्मा को शायद उनकी वहां ज्यादा जरूरत थी।

विनम्र श्रद्धा सुमन ही अर्पित कर सकते हैं।

याद आओगे जयप्रकाश।

विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’   ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जय प्रकाश : दिखने में आम, फिर भी खास ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

श्री अभिमन्यु जैन

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – जय प्रकाश : दिखने में आम, फिर भी खास ☆ श्री अभिमन्यु जैन 

मित्रों, जय प्रकाश विगत 40 वर्षों से भी अधिक समय से लेखन में रत हैं. जयपुर से प्रकाशित नई गुदगुदी में अपने लेख के साथ उनके लेख भी देखते मिलते रहे. सेवा निवृति पश्चात जबलपुर में निवास हुआ. पिछले 8 वर्षों से उनके सतत संपर्क में रहा. व्यंग्यम की स्थापना, बिना किसी पदाधिकारी के निर्वाचन या मनोनयन के हुई. कई आयोजन भी हुए. जय प्रकाश जी का लेखन कालजयी था. उन्होंने खूब लिखा, खूब नाम और यश कमाया. आकाशवाणी के अनेक केंद्रों से कहानी और व्यंग्य का दीर्घ कल तक प्रसारण, कई पत्र -पत्रिकाओं में कविता, कहानी, व्यंग्य का प्रकाशन, अनेक पत्रिकाओं में अतिथि सम्पादक की भूमिका भी निभाई. कबीर सम्मान, अभिव्यक्ति सम्मान, कादम्बिनी अखिल भारतीय व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता में, एवं रविंद्र भवन भोपाल में नाट्य विधा में पुरस्कार प्राप्त.. बहुत लम्बी फेहरिस्त है. वे पुरस्कार का नहीं, पुरस्कार उनका पीछा करते रहे. पांडे जी ने जी भर के लिखा, और छपे भी जी भर के. उनका लेखन किसी भी रावण की लंका जलाने में स क्ष म है. कई जगह शब्दों का तुलनात्मक प्रयोग करके व्यंग्य को सहज और सरल बनाया. यह उनके लेखन की ताकत है. रचनाओं में फ़िल्मी गीतों का बहुत अच्छा प्रयोग किया है. कहीं कहीं तो ऐसा हुआ की सवाल और जवाब भी इन्हीं गीतों के माध्यम से हुआ. लेखन से सत्ता को जितना नंगा किया जा सकता था उन्होंने किया. उन लेखकों को आईना दिखाया है जो सत्ता का प्रवक्ता बनने के लिए अपने आपको किसी भी कीमत पर सर के बल खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं. खूब लिखने, प्रकाशन होने के बावजूद भी उनकी एक मात्र कृति डांस इंडिया डांस ही प्रकाशित हुई. इसकी प्रति समीक्षार्थ भेंट की जिस पर मैंने समीक्षा लिखी. प्रकाशित भी हुई.

 जय प्रकाशजी जिंदादिल इंसान, सहयोग को तत्पर, झूठ, फरेब उन्हें पसंद नहीं. वे पारदर्शिता को बहुत महत्त्व देते थे. और इसी व्यवहार की अपेक्षा वे दूसरों से करते थे. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है उनकी कैंसर की बीमारी. मैंने कई घरों में देखा है परिवार के किसी सदस्य के कैंसरग्रस्त हों जाने से पूरा परिवार ताकत लगाता है कि इस बीमारी की भनक बाहर किसी को न लगे किन्तु जय प्रकाश का कलेजा देखो कि उन्होंने डंके कि चोट अनेक ग्रुप में इस बीमारी से पीड़ित होने का खुलासा कर दिया. इस बीमारी कि जानकारी के बाद भी अपने घर पर व्यंग्यम कि मासिक गोष्ठी आयोजित की. ज़ब मिले हँसते, मुस्कराते रहे. पीड़ा को पीते रहे. वे अपनी पीड़ा से दूसरे को पीड़ित नहीं करना चाहते थे. दूसरों के मान सम्मान का बहुत ध्यान रखते थे. बार बार उनके निधन के समाचार अनेक ग्रुप में चल जाते, बाद में ज्ञात होता कि, सही नहीं है. तब अचानक से ऐसा लगता कि शायद कोई ईश्वरी चमत्कार होना है जो जय प्रकाश जो को स्वस्थ कर देगा, ऐसा हुआ नहीं.

वो रूठा इस अदा से कि मौसम बदल गया.

इक शख्श सारे शहर को वीरान कर गया.

श्री अभिमन्यु जैन 

 M. 9425885294

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’   ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – धारदार व्यंग्य शिल्पी – जयप्रकाश जी पांडेय ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

श्री यशोवर्धन पाठक

☆ स्मृतिशेष जयप्रकाश पाण्डेय विशेष – धारदार व्यंग्य शिल्पी – जयप्रकाश जी पांडेय श्री यशोवर्धन पाठक 

संस्कारधानी में व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर श्री जयप्रकाश पांडे के अकस्मात् निधन ने साहित्य जगत को शोक विह्वल कर दिया है। यूं तो विगत कुछ माहों से उन्हें असाध्य बीमारी ने जकड़ रखा था परन्तु किसी ने यह नहीं सोचा था कि वे अपने असंख्य चाहने वालों को इतनी जल्दी अलविदा कह कर अनंत यात्रा पर चले जाएंगे। उनकी अभी जाने की आयु नहीं थी। हिंदी साहित्य जगत ने उनसे बहुत उम्मीदें लगा रखी थीं लेकिन विधाता को शायद यही मंजूर था और हम विधि के विधान को स्वीकार करने के लिए विवश हैं।

श्री जयप्रकाश पांडे ने अपने नाम को पूरी तरह सार्थक किया था। साहित्य जगत में उन्होंने प्रकाश पुंज के रूप पहचान बनाई और अपने उल्लेखनीय योगदान से जय के अधिकारी बने। श्री पांडेय को व्यंग्य लेखन में महारत हासिल थी। सुप्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में उनके व्यंग्य लेख प्रमुखता से प्रकाशित किए जाते थे। मुझे अच्छी याद है कि साहित्य में उनकी गहरी अभिरुचि के दर्शन किशोरावस्था में ही होने लगे थे और शालेय जीवन में होनहार बिरवान के होत चीकने पात की कहावत को चरितार्थ कर दिया था।

हास्य विनोद और व्यंग्य में पांडेय जी की रुचि बचपन से ही थी जब हम साथ में जबलपुर में पी. एस . एम . कालेज के पीछे वरिष्ठ बुनियादी स्कूल में पढ़ते थे। पांडेय जी मुझसे एक वर्ष सीनियर थे। बुनियादी स्कूल उस समय मिडिल स्कूल के रुप में जबलपुर में प्रसिद्ध था। स्कूल में प्रधानाध्यापक श्री शीतल प्रसाद नेमा जी के मार्गदर्शन में छात्रों के मानसिक, शैक्षणिक और बौद्धिक विकास के लिए उस समय विभिन्न प्रकार की गतिविधियां संयोजित की जाती थी। मेरी और पांडेय जी की साहित्यिक क्षेत्र में विशेष रुचि होने के कारण हम दोनों भाषण, वाद विवाद और निबंध प्रतियोगिताओं में काफी भाग लेते थे। उस समय छात्रों के लेखन क्षमता के विकास के लिए प्रार्थना स्थल पर एक ब्लैक बोर्ड पर प्रतिदिन छात्रों के द्वारा सृजित रचनाएं लिखी जाती थीं। मैं और जयप्रकाश जी भी ब्लैक बोर्ड पर हास्य विनोद की प्रायः रचनाएं लिखकर छात्रों के पढ़ने के लिए प्रस्तुत करते। पांडेय जी कभी कभी विनोद पूर्ण व्यंग्य भी लिखकर प्रस्तुत करते और मैं उनकी व्यंग्य रचना की श्रेष्ठता और पठनीयता को देखते हुए उन्हें उस समय कभी कभी हरिशंकर परसाई कहकर भी संबोधित करता। उस समय परसाई जी की जबलपुर के साहित्यिक क्षेत्र में काफी चर्चा थी और हमारे स्कूल में एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में उन्होंने काफी रोचक और प्रभावी भाषण दिया था। बुनियादी स्कूल के बाद हमने माडल हाई स्कूल में एडमीशन लिया और पांडेय जी ने वहां भी साहित्यिक लेखन और आयोजनों में भाग लिया और ख्याति प्राप्त की।

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में सर्विस ज्वाइन करने के बाद भी पांडेय जी का व्यंग्य लेखन निरंतर चलता रहा और साथ ही व्यंग्य रचना पाठ की गोष्ठियं भी। सेवानिवृत्ति के बाद तो उन्होंने पूरे समर्पित भाव से सक्रियता के साथ व्यंग्य लेखन को समय दिया और अपने निवास पर व्यंग्यम की नियमित रुप से गोष्ठियों का आयोजन किया। पांडेय जी ने व्यंग्य लेखन के लिए अनेक उच्च स्तरीय सम्मान और पुरस्कार प्राप्त किए। उनकी अनेक व्यंग्य कृतियों प्रकाशित और पुरस्कृत भी हुई।

श्री जयप्रकाश पांडेय के व्यक्तित्व की अनूठी विशेषताओं को थोडे से शब्दों में व्यक्त करने के लिए मेरी ये पंक्तियां गागर में सागर का उदाहरण बन सकती हैं –

व्यंग्य विधा के पैरोकार थे,

 व्यंग्य तुम्हारे धारदार थे,

 पैनापन तीखे प्रहार थे

 कलमकार तुम शानदार थे।

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श्री यशोवर्धन पाठक

 मो – ९४०७०५९७५२

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर / सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’   ≈

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