(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मां की कविता…“।)
अभी अभी # 623 ⇒ मां की कविता श्री प्रदीप शर्मा
मां पर कविता लिखना बड़ा आसान है, मां एक बहती हुई नदी है, जिसे लोग रेवा, नर्मदा अथवा गंगा, अलकनंदा और कालिंदी के नाम से भी जानते हैं। मां का उद्गम ममता से है। बच्चों का पालन पोषण करती, उनकी प्यार की प्यास बुझाती , आंसुओं को अपने में समेटे, सागर में जा मिलती है, जिससे सागर का जल भी खारा हो जाता है। मां का त्याग और समर्पण ही सीपी में सिमटा मोती है। सरिता का जल और मां के दूध में कोई फर्क नहीं, दोनों ही सृष्टि की जीवन रेखा हैं।
मैने मां का बचपन नहीं देखा, मेरा बचपन मां के साथ जरूर गुजरा है। काश, बुढ़ापा भी मां के साथ ही कटता, लेकिन फागुन के दिन चार रे, होली खेल मना ! जितना जीवन मां की छत्र छाया में गुजरा, वह फागुन ही था, जितनी होली होनी थी हो ली। अब होने को कुछ नहीं बचा।।
मां जब फुर्सत में होती थी, हम बच्चों को नदी की एक कविता सुनाती थी, जो वह बचपन से सुनती चली आई थी। मां का सारा दर्द उस कविता में बयां हो जाता था। पूरी कविता मेरी प्यारी छोटी बहन रंजना के सौजन्य से प्राप्त हुई, जो उम्र में छोटी होते हुए भी , आज मुझे अपनी मां का अहसास दिलाती रहती है। मेरी मां एक तरफ, महिला दिवस एक तरफ।
आज बस, मां की कविता, मां स्वरूपा नदी को ही समर्पित ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक संस्मरण – “कमज़ोर हिंदी और एड़ी चोटी का ज़ोर …“।)
अभी अभी # 621 ⇒ कमज़ोर हिंदी और एड़ी चोटी का ज़ोर श्री प्रदीप शर्मा
हमारे हिंदी के अध्यापक महोदय को हम सर नहीं कह सकते थे। वे एड़ी से चोटी तक उनकी मातृ भाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा हिंदी में रंगे हुए थे। कक्षा में उपस्थिति यानी प्रेजेंट लेते वक्त हर विद्यार्थी को उपस्थित महोदय या उपस्थित श्रीमान बोलना पड़ता था। प्रेजेंट सर बोलने वाले का फ्यूचर खराब भी हो सकता था।
जैसी भाषा वैसा परिवेश ! वे एड़ी से चोटी तक भारतीय परिवेश में रंगे हुए थे। सफेद धोती और कुर्ता, खादी का बिना प्रेस का, नील से भरा हुआ ! फटी एड़ियों में चप्पल, सर पर चोटी और आँखों पर मोटा चश्मा ! बस यही उनका बारहमासी परिधान था।।
वे व्याकरण के शिक्षक थे। आप चाहें तो उन्हें प्रशिक्षक भी कह सकते हैं। स्वर और व्यंजन की व्याख्या इतनी लंबी हो जाती थी कि पिछली पंक्ति के छात्रों का सूर्य और चंद्र स्वर चलने लगता था, अर्थात वे खर्राटे लेने लगते थे। व्यंजन अतिक्रमण कर सराफे की रबड़ी-जलेबी में प्रवेश कर जाता था।
एड़ी से चोटी तक अगर नापें तो गुरुजी का कद मुकरी से एक दो इंच अधिक ही होगा। ब्लैकबोर्ड अर्थात श्यामपट जहाँ से शुरू होता था, वहाँ उनकी ऊँचाई खत्म होती नज़र आती थी, फिर भी एड़ी चोटी का जोर लगाकर वे श्यामपट का भरपूर उपयोग कर ही लिया करते थे। मुहावरों में काला अक्षर भैंस बराबर उन्हें बहुत प्रिय था। जो भी उनके प्रश्न का जवाब नहीं दे पाता, उसे इस विशेषण से सम्मानित किया जाता था।।
हम विद्यार्थी कितना भी एड़ी चोटी का जोर लगा लें, हमारी पुस्तिकाओं अर्थात कॉपियों में कभी किसी को ठीक, उत्तम अथवा सर्वोत्तम नहीं मिला। कहीं मात्राओं की ग़लती, तो कहीं लिखावट कमज़ोर। बाकी विषय यहाँ तक कि विज्ञान और अंग्रेज़ी भी हिंदी की तुलना में आसान नज़र आता था।
परीक्षा में कितना भी एड़ी चोटी का जोर लगाओ, सब से कम नंबर हिंदी में ही आते थे। छः माही परीक्षा की उत्तर-पुस्तिका कक्षा में लाई जाती थी और हर विधार्थी की अर्थी निकाली जाती थी। उनकी छोटी-छोटी गलतियों को सार्वजनिक किया जाता था। जिसकी उत्तर-पुस्तिका का टर्न आता था, उसे कक्षा में सबसे आगे की बेंच पर बिठाया जाता था।।
मैं क्लास का सबसे कमज़ोर विद्यार्थी था, सेहत में भी और व्याकरण में भी। और न जाने क्यों अध्यापक महोदय का मुझ पर ही अधिक जोर रहता था।
वे अकारण ही मेरा व्याकरण मज़बूत करने में रुचि लेने लग गए थे, जब कि कक्षा में कई बुद्धिमान छात्र मौजूद थे। लेकिन उनका सिद्धान्त था कि वे कमज़ोर बच्चों पर एड़ी चोटी का जोर लगा उनका व्याकरण मज़बूत करना चाहते हैं।
कोई लाख करे चतुराई, करम का लेख मिटे ना रे भाई ! अध्यापक महोदय ने एड़ी चोटी का जोर लगा लिया, न तो हम सुधरे, न ही
हमारा व्याकरण। आज छोटी छोटी मात्राओं की ग़लती पर उनका स्मरण हो आता है। किसी को याद करने में हमारा क्या जाता है।।
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
स्व. डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
☆ कहाँ गए वे लोग # ४७ ☆
☆ “साहित्य के प्रति समर्पित : आदरणीय राजकुमार सुमित्र जी” ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆
संस्कारधानी जबलपुर में एक समय ऐसा था जब दो संस्थाएं अपने उत्कर्ष पर थीं। जिसमें एक ओर जहाँ विशुद्ध साहित्यिक संस्था मित्र संघ तो दूसरी और सांस्कृतिक एवं संगीत की अलख जागने के लिए मिलन अपने चरम सीमा पर थी। सदा अपने कार्यक्रमों के माध्यम से नए-नए आयाम देने के लिए कटिबद्ध रहती थीं। दोनों के संयोजक पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़े हुए थे। एक ओर आदरणीय राजकुमार सुमित्र नवीनदुनिया से तो दूसरी ओर आदरणीय मोहन शशि नवभारत से जुड़े थे। दोनों की प्रतिस्पर्धा से संस्कारधानी जबलपुर को बड़ा लाभ मिला। मंच पर कवि, साहित्यकार एवं कलाकार ही नहीं वरन् आर्केस्टा गली चौराहों में प्रतिष्ठित हो चुके थे। अनेक शब्द शिल्पी,कलाकार जो बाद में राष्ट्रीय क्षितिज पर छा गये। यहाँ तक कि बाद में पाथेय प्रकाशन ने अनेक रचनाकारों को नयी ऊँचाईयाँ प्रदान कीं। साहित्य जगत में अनेक पुस्तकों का सृजन किया।
मैंने सदा आदरणीय राजकुमार सुमित्र जी को एक कवि की वेशभूषा में ही देखा, गौरवर्ण, गंभीर चेहरे में थिरकती मुस्कान, मुख में पान की गिलोरी, आकर्षक दमकती आभा, कुर्ता पायजामा के साथ ही लम्बे केश। तमरहाई स्कूल के सम्माननीय शिक्षाविद, या सड़क पर आते-जाते या फिर नवीनदुनिया के साहित्य सम्पादक के रूप में हो। जब भी उनसे सामना होता तो उनकी स्नेहिलता का आशीर्वाद मुझे मिलता ही रहा है।
उस समय मुझे भी लिखने और छपवाने का भूत सवार था। अक्सर मुझे प्रेसों में आदरणीय भगवतीधर बाजपेयी, आदरणीय कालिका प्रसाद दीक्षित कुसुमाकर, आदरणीय मायाराम सुरजन, श्री हीरालाल गुप्ता, श्री अनंतराम दुबे, श्री ललित सुरजन जैसे स्वनामधन्य पत्रकारों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा है। उस समय में अपने पिता श्री रामनाथ शुक्ल “श्रीनाथ” के पद चिन्हों पर चल रहा था। अर्थात कहानियाँ लेख गद्य विधा में लिख रहा था।
कोतवाली स्थित चुन्नीलाल जी का बाड़ा प्रसिद्ध था जहाँ श्री भवानी शंकर जैसे वरिष्ठ साहित्यकार निवास करते थे। वहीं सुमित्र जी का निवास था। उनके घर पर कवियों का जमावड़ा लगा रहता था। उनके सभा कक्ष में जमीन पर पैरा की बिछाई पर पड़ी सफेद चादर टिकने के लिए गाव-तकिए पर टिककर बैठना और सुनना अपने आप में अहोभाग्य होता था। मैं भी मुक्त छंद काव्य विधा की ओर बढ़ रहा था और जा पहुँचा उस महफिल में। सुमित्र जी की प्रशंसा पाकर मैं धन्य हो उठा। मेरे बड़े चाचा श्री दीनानाथ शुक्ल महोबावारे, श्री कामतासागर जी का भी आना-जाना होता था। बैंक की नौकरी लगने के बाद कुछ वर्षों के लिए ब्रेक लग गया। पर मेरा लिखना निरंतर चलता रहा।
साहित्यिक कार्यक्रमों में उनको सुनना, मन को आह्लादित करता था। एक कुशल वक्ता के रूप प्रतिष्ठित थे। विषय वस्तु को बड़े ही खूबसूरती और सुंदरता से उठाना और विश्व के उत्कृष्ट रचनाकारों की टिप्पणी सहित प्रस्तुत करना उनके अध्ययन की ओर इंगित करता था । उनके मुख्य आतिथ्य में कार्यक्रम की शोभा अपने आप बढ़ जाती थी। उनका असमय यूँ जाना हमारे संस्कार धानी के साहित्य जगत की अपूर्णीय क्षति है।
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “मधुर गीतकार- स्व. कृष्णकुमार श्रीवास्तव ‘श्याम’”के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
वर्षों पहले कवि सम्मेलनों, गोष्ठियों और आकाशवाणी के कार्यक्रमों में कृष्णकुमार श्रीवास्तव “श्याम” के गीतों की धूम मची थी । सहज – सरल हिन्दी में रचित, भावना की आंच में पके – पगे उनके गीत सीधे लोगों के ह्रदय में उतरते थे।
रोटी हूं
मैं हूं रोटी
मैं मजदूर की रोटी ।
गुंथी हुई पसीने से मजदूर की
रोटी ।
और प्रिय के प्रति –
आनंद अनंत हो गया ।
तुम मेरे वसन्त हो गये
मैं तेरा वसन्त हो गया ।
मेरा प्यार और रूप तुम्हारा
माहिर हैं दोनों प्रतिद्वंदी
आओ करें जुगलबंदी । आओ..
अपने असरदार गीतों और मधुर आवाज के कारण श्याम महफिलों की जान बन जाते थे –
मैं कहीं भी चला जाऊं,
कहीं से चला आऊं,
तेरे ही पास आता हूं,
तुझी में खो जाता हूं ।
मीरा को गाऊं या मीर को,
तुलसी या कबीर को
किसी को गुनगुनाऊं,
किसी के गीत गाऊं,
तुझे ही मैं गाता हूं,
तुझी में खो जाता हूं ।
18 अप्रैल 1941 में जबलपुर में जन्में कृष्णकुमार श्रीवास्तव “श्याम” ने हिंदी साहित्य में एम. ए. किया । कल्याण (मुम्बई), कटनी तथा प्रतिनियुक्ति पर ईराक में रेलवे स्टेशन मास्टर तथा जबलपुर में रेलवे स्टेशन अधीक्षक के पद पर रहे । श्याम भाई ने अपने विद्यार्थी जीवन से ही काव्य लेखन प्रारंभ कर दिया था और अपने समय के चर्चित साहित्यकारों से प्रशंसित होने लगे थे ।
तुम सितार, अंगुलियाँ मैं हूं
खुशबू तुम, पंखुरियां मैं हूं
तुम में मुझमें क्या स्पर्धा
तुम लय-स्वर, बांसुरिया मैं हूं।
रूप है राधा कृष्ण भावना
प्यार भक्ति की चरम बुलंदी ।
1974 में उनकी प्रथम कृति “श्याम के गीत” प्रकाशित हुई । इस कृति ने और देश के विभिन्न क्षेत्रों में आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों व काव्य गोष्ठियों में उनके भाव भरे गीतों ने उनकी यश – कीर्ति में वृद्धि की और वे अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों के एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गए । विविध पत्र – पत्रिकाओं में उनके हिन्दी और बुंदेली गीत, ग़ज़ल, नज़्म, भजन निरंतर प्रकाशित हो रहे थे । वे आकाशवाणी के द्वारा गायन – प्रसारण के लिए अधिकृत कवि थे । मर्मस्पर्शी कंठ से आकाशवाणी तथा विविध मंचों पर उनके स्वरचित हिंदी एवं बुंदेली गीतों ने उन्हें प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया था ।
अपने समय के सुप्रसिद्ध कवि डॉ. रामेश्वर शुक्ल “अंचल” ने लिखा था कि “श्याम का निश्छल, सहज-प्रसन्न मन अपने कथ्य के प्रति आश्वस्त और निष्ठा पर अडिग रहता है ।”डॉ. शिवमंगल सिंह “सुमन” ने लिखा था – “श्याम के गीत बड़े विदग्ध और विलोलित हैं । कवि की पीड़ा विभिन्न आयामों से गुजरती हुई अनुभूति के विरल क्षणों को समेटने में समर्थ हुई है। ” सुप्रसिद्ध कहानीकार ज्ञानरंजन का कथन है – “खास बात कवि “श्याम” के गीतों की मुझे यह लगती है कि उन्होंने जड़ और पारंपरिक ढांचे को तोड़ा है तथा लोकजीवन के ताजे छंद उद्वेगों से उन्हें जोड़ा है। ” डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” के अनुसार – “मेरा मत है कि “श्याम” के गीत प्रेम, पीड़ा और सौंदर्य का त्रिवेणी – संगम है।”
“तुम थे तो छोटे थे,
तुम बिन बड़े हो गए दिन”
28 नवंबर 2008 को मधुर गीतकार कृष्णकुमार श्रीवास्तव “श्याम” का देहावसान हो गया किंतु वे अपनी कृतियों “श्याम के गीत” और “यादों की नागफनी” तथा अपने सरस गीतों के लिए सदा याद किए जाएंगे।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – आईएएस हो तो ऐसी संवेदनशील : दीप्ति उमाशंकर…☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
हिसार में मैं सन् 1997 में आया था , पहली जुलाई से ! तब नहीं जानता था कि इस हिसार में कैसे पत्रकारिता में पांव जमा पाऊंगा ! रोशन लाल सैनी उपायुक्त थे और दीप्ति उमाशंकर अतिरिक्त उपायुक्त ! मुझे चंडीगढ़ मुख्य कार्यालय से चलने से पहले बहुत ही सुंदर विजाटिंग कार्ड बनवा कर दिये गये थे ताकि सभी अधिकारियों को जब मिलने जाऊं तब यह कार्ड मेरा ही नहीं, हमारे संस्थान का भी परिचय दे ! इस तरह मैं उपायुक्त रोशन लाल सैनी से मिला और उन्होंने बहुत ही गर्मजोशी से स्वागत् किया और विश्वास दिलाया कि वे मुझे खबर से बेखबर नहीं रहने देंगे ओर उन्होंने वादा निभाया भी । वे खुद लैंडलाइन पर फोन करते और खबर बताने के बाद कहते कि ये रहीं खबरें आज तक ! इंतज़ार कीजिये कल तक ! वाह! इतने ज़िंदादिल ! इतने खुशमिजाज ! उनकों एक शेर बहुत पस़ंद था :
माना कि इस गुलशन को गुलज़ार न कर सके
कुछ खार तो कम कर गये, निकले जिधर से हम!
इनके साथ ही दीप्ति उमाशंकर अतिरिक्त उपायुक्त थीं जबकि इनके पति वी उमाशंकर तब हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कुलसचिव ! इनसे मेरी अच्छी निभने लगी! हुआ यह कि एक दिन मैं इसी विश्वास में उपायुक्त दीप्ति उमाशंकर को भी अपना विजिटिंग कार्ड भेजकर मिलने चला गया । उन्होंने बहुत आदर से बुलाया, चाय मंगवाई और चाय पीते पीते मन में आया कि इनकी इंटरव्यू करूं ! जैसे ही मैंने यह बात उन्हें कही, वे एकदम असहज सी हो गयीं क्योंकि वे मीडिया से दूरी बना कर रखती थीं । उन्होंने कहा कि आप चाय लीजिए लेकिन इंटरव्यू नहीं ! इस तरह मैं चाय खत्म कर सीधे वी उमाशंकर के पास चला ! उन्हें सारी बात बताई ! उन्होंने कहा कि अच्छा ऐसे किया ! चलो, अब मैं मिलवाता हूँ उनसे और उन्होंने गाड़ी में बिठाया और फिर पहुंचे श्रीमती दीप्ति के पास ! श्री उमाशंकर ने कहा कि ये बहुत विश्वास के काबिल पत्रकार हैं, आप इनसे खबरें शेयर कर सकती हैं और फिर यह विश्वास आज तक बना हुआ है! वे कहती थीं कि यू आर वन ऑफ द बेस्ट जर्नलिस्ट इन हरियाणा!
जब स्वयं दीप्ति उमाशंकर उपायुक्त बनीं तब सुबह सवेरे मैं इनसे बात कर लेता ! एक सुबह बातों बातों में बताया कि बालसमंद गांव से एक छोटे से बच्चे को लाकर अस्पताल में भर्ती करवाया है क्योंकि उसकी मां ने दूसरी शादी कर ली और बाप बच्चे की तरफ से लापरवाह था, परिवार ने बच्चे को तबेले में रख छोड़ा था, जो बेचारा मिट्टी और गोबर खाकर जी रहा था, यह बात एक समाजसेविका सोमवती ध्यान में लाई और मैंने तुरंत बच्चे को सिविल अस्पताल पहुंचाया क्योंकि वह बहुत कमज़ोर हो चुका था !
अरे ! इतनी बड़ी बात और आप इतने सहज ढंग से बता रही हैं, आपने एक बच्चे को नवजीवन दिया है, आप आज सिविल अस्पताल में बच्चे का हाल चाल जानने पहुंचिए और मैं भी आऊंगा। मैं अपने कुछ साथी पत्रकारों के साथ पहुंच गया ! हिसार सिटी और हिसार दूरदर्शन पर उनका समाचार वायरल होने लगा और वे अपने स्वभावानुसार बहुत संकोच महसूस कर रही थीं ! फिर वह बच्चा स्वस्थ होने पर कैमरी रोड पर बने बालाश्रम को सौंप दिया गया ! वे वहाँ भी कुछ दिनों बाद उस बच्चे का हालचाल जानने गयीं, जिसका नाम लड्डू गोपाल रख दिया गया था ! जैसे ही लड्डू गोपाल को दीप्ति उमाशंकर के सामने लाया गया, वह बच्चा दौड़कर आया और उनकी टांगों से ऐसे लिपट गया जैसे उसे मां मिल गयी हो ! यह ममतामयी दीप्ति एक ऐसी ही आईएएस थीं ! बहुत संवेदनशील, बहुत भावुक ! यह दृश्य कभी नहीं भूल पाया ! उन्होंने एक कदम भी पीछे नहीं हटाया था कि मेरी साड़ी न खराब हो जाये बल्कि लड्डू गोपाल को प्यार से गोदी में उठा कर खूब लाड किया ! आज वह लड्डू गोपाल खूब बड़ा हो चुका होगा!
दूसरा ऐसा ही दृश्य याद है, जब वे हररोज़ लगभग ग्यारह बजे अपने कार्यालय से सटे छोटे से मीटिंग हाल में बैठकर सचिवालय आये लोगों की समस्यायें सुनतीं और तत्काल संबंधित अधिकारी को बुलातीं और वहीं समाधान करवा देतीं ! एक दिन हांसी के निकटवर्ती गा़व से एक युवा महिला आई अपनी समस्या लेकर और दीप्ति ने उस अधिकारी को फोन लगाया तो पता चला कि वह अधिकारी छुट्टी पर है ! इस पर उन्होंने महिला से कहा, कि कल आ जाना ! वह तो फूट फूट कर रोने लगी और बोली मैं तो आज भी किसी से पैसे उधार मांग कर आई हूँ । किराया लगाने के लिए मेरे पास कल पैसे कहां से आयेंगे !
इस पर दीप्ति ने अपना पर्स खोला और सौ रुपये का नोट थमाते कहा कि अब तो कल आ सकती हो न !
जब वह चली गयी तब मैंंने कहा कि अब तो आपके खुले दरबार में भीड़ और भी ज्यादा होती जायेगी !
– वह कैसे और क्यों?
– अब तो आप आने जाने का टी ए, डी ए भी तो देने लगीं !
वे बोलीं कि भाई! देखे नहीं गये उसके आंसू! इतनी संवेदनशील, सहृदय! दोनों पति पत्नी हिसार में अलग अलग पदों पर लगभग बारह साल रहे और सन् 2003 को जब मुझे कथा संग्रह ‘ एक संवाददाता की डायरी’ पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों पचास हज़ार रुपये का सम्मान मिला, तब वे बहुत खुश हुईं और यह सम्मान अप्रैल माह में मिला था ! जब पंद्रह अगस्त आने वाला था तब ठीक एक दिन पहले दीप्ति उमाशंकर का फोन आया कि अभी आपको लोक सम्पर्क अधिकारी का फोन आयेगा, आप अपना बायोडेटा लिखवा देना!
– वह किसलिए?
– मेरे भाई जिसे देश का प्रधानमंत्री सम्मानित करे, उसे जिला प्रशासन को भी सम्मानित करना चाहिए कि नहीं ! कुछ हमारा भी फर्ज़ बनता है कि नहीं?
स्वतंत्रता दिवस के आसपास ही राखी भी आती है तो मैंने कहा कि बहन को राखी के दिन कुछ देते हैं, लेते नहीं ।
इस पर दीप्ति ने हंसकर जवाब दिया कि भाई अब घोर कलयुग आ गया है, भाई कुछ नही देते, बहनें ही भाइयों का ख्याल रखती हैं, बस, आप ऐसे ही अच्छा लिखते रहना!
कितने प्रसंग हैं! वे यहाँ से मुख्यमंत्री प्रकोष्ठ में भी रहीं और फिर अम्बाला की कमिश्नर भी! तब बेटी की शादी में आने का न्यौता एक माह पहले ही दिया वाट्सएप पर ! मैंने कहा, इतने समय तक तो भूल ही जायेगा ! उन्होंने जवाब दिया कि भूलने कैसे दूंगी ? याद दिलाती रहूंगी और आप, क्या यह न्यौता भूल जाओगे !
चलते चलते बताता चलूँ कि वे पंजाब के पटियाला से हैं और जब समय मिलता और नेता या समाजसेवी न रहते तब वे कहतीं कि अब तो प़जाबी बोल ले भाई !
बहुत बहुत सह्रदय आईएएस दम्पति उमाशंकर को आज यादों में फिर याद किया ! आजकल वी उमाशंकर मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव हैंं जबकि दीप्ति दिल्ली में डेपुटेशन पर ! वह पारिवारिक रिश्ता आज भी कायम है ।
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “विदूषक: समकालीन व्यंग्य विशेषांक“।)
‘विदूषक‘ पत्रिका के समकालीन व्यंग्य विशेषांक का अतिथि संपादन करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। संवेदना की दशा तलाशती, हास्य-व्यंग्य की यह त्रैमासिक पत्रिका जमशेदपुर से प्रकाशित होती थी। इसके संपादक, अरविंद विद्रोही, जिन्होंने मुझे यह दायित्व सौंपा, का आभार मैं आजीवन मानूंगा। उनके जैसा जीवट वाला व्यक्ति मैंने नहीं देखा।
यह बात वर्ष 1998 की है। तब हास्य-व्यंग्य पत्रिकाओं में, मुंबई से ‘रंग’, जयपुर से ‘नई गुदगुदी’ और हिसार से ‘व्यंग्य विविधा’ प्रकाशित हो रही थीं। अधिकतर व्यावसायिक पत्र-पत्रिकाएं व्यंग्य रचनाएं नियमित रूप से प्रकाशित कर रही थीं। अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं ने भी व्यंग्यकारों के लिए अपने द्वार खोल दिए थे। कुछ वर्ष पूर्व, अंबिकापुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘साम्य’ ने परसाई पर, और इलाहाबाद से प्रकाशित ‘कथ्यरूप’ ने व्यंग्य पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित किए थे।
हिंदी गद्य में हास्य-व्यंग्य लेखन की शुरुआत भारतेंदु हरीशचंद्र के काल में हुई। तब प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुंद गुप्त ने हास्य-व्यंग्य लिखा। ‘अंधेर नगरी’ और ‘शिवशंभू के चिट्ठे’ अंग्रेज़ों के खिलाफ़ लिखे गए साहसी व्यंग्य के नमूने हैं। उसके बाद जगन्नाथ चतुर्वेदी, अन्नपूर्णानंद, विश्वंभरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, राधाकृष्ण, गुलाबराय, जी पी श्रीवास्तव, श्रीनारायण चतुर्वेदी और विधान बनारसी ने हास्य-व्यंग्य लिखा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल और रवींद्रनाथ त्यागी ने इसे ठोस आधार प्रदान कर प्रतिष्ठित किया। के पी सक्सेना, केशवचंद्र वर्मा, बरसाने लाल चतुर्वेदी, मुद्राराक्षस, मनोहरश्याम जोशी, लतीफ घोंघी, शंकर पुणतांबेकर, कुंदन सिंह परिहार, नरेंद्र कोहली, प्रदीप पंत, सुदर्शन मजीठिया, कृष्ण चराटे, सूर्यबाला, हरीश नवल, प्रेम जनमेजय, सुरेश कांत और ज्ञान चतुर्वेदी ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया।
उस समय सक्रिय, ज़्यादा से ज़्यादा व्यंग्यकारों को ‘विदूषक’ के समकालीन व्यंग्य विशेषांक में स्थान मिले, यह मेरा विनम्र प्रयास था। बहुत उमंग और उत्साह से मिशन की शुरुआत की। लेकिन यह क्या? पहले चार मूल्यवान विकेट बिना कोई रन बनाए ही चले गए। उनसे प्राप्त पत्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं जिन्हें पढ़कर अतिथि संपादक के प्रति आपके मन में करुणा अवश्य जागेगी:
☆☆☆☆
(एक)
लखनऊ, 6/3/98
प्रिय बिष्ट जी,
आपका पत्र मिला। मैं काफी अरसे से कुछ लिख नहीं पा रहा हूं। पत्र-पत्रिकाओं में मेरी अनुपस्थिति आपने खुद लक्षित की होगी। अतः चाहकर भी विदूषक के लिए कुछ भेज नहीं पा रहा हूं। क्षमा करेंगे।
समकालीन व्यंग्य विशेषांक के लिए शुभकामनाएं,
आपका
श्रीलाल शुक्ल
☆☆☆☆
(दो)
देहरादून, 7/2/98
प्रिय भाई,
आपका 30/1 का पत्र मिला। (आपके आग्रह के अनुसार) मैं नए व्यंग्यकारों पर कुछ नहीं लिख सकता। सबका पूरा कृतित्व मैंने नहीं पढ़ा है। ज्ञान चतुर्वेदी शायद सर्वश्रेष्ठ है। मैं गृहयुद्ध में नहीं पढ़ना चाहता। इधर तीन उपन्यास पढ़े जो अच्छे लगे।
सदा आपका
रवीन्द्रनाथ त्यागी
☆☆☆☆
(तीन)
जलगांव, 6/3/98
प्रिय भाई साहब,
सस्नेह अभिवादन। आपका पत्र मिला। मैं ‘विदूषक’ के लिए नहीं लिख सकता। मैने पत्रिका के आरंभ होने के पूर्व ही लिखा था कि नाम ‘विदूषक’ ही रखना चाहें तो मेरा नाम सलाहकारों में न जाए। मैंने तीन बढ़िया नाम भी सुझाए थे लेकिन मसखरा नाम ही उन्होंने कायम रखा।
स्वस्थ-सानंद होंगे।
आपका सस्नेह
शंकर पुणतांबेकर
☆☆☆☆
(चार)
मथुरा, 24/3/98
प्रिय बिष्ट जी,
नमस्कार। मैं मथुरा आ गया हूं इसलिए आपका (दिल्ली के पते पर भेजा गया) पत्र समय पर नहीं मिला। विदूषक का समकालीन व्यंग्य विशेषांक अवश्य भेजने की कृपा करें। अब तो वो निकल भी गया होगा।
आशा है, सपरिवार प्रसन्नचित होंगे।
आपका
बरसाने लाल चतुर्वेदी
☆☆☆☆
ये पत्र तो फटाफट आ गए लेकिन काफी समय बीत जाने पर भी कोई रचना नहीं आई। चिंता का विषय था। फिर लगा कि शायद व्यंग्यकार अपनी श्रेष्ठतम रचना के सृजन में डूबे हुए हैं। वो भी अंततः आने लगीं। सबसे पहले जो तीन रचनाएं प्राप्त हुईं, वो थीं:
प्रदीप पंत की ‘भैयाजी का दहेज’, कुंदन सिंह परिहार की ‘प्रोफेसर वृहस्पति और एक अदना क्लर्क’, और सुरेश कांत की ‘वोट कैचर’।
मैं तब अमलाई (शहडोल) में पोस्टेड था। तुरंत उन्हें देखकर, जमशेदपुर रवाना किया। तब सॉफ्ट कॉपी का ज़माना नहीं था, लेखक रचना की टंकित या हस्तलिखित प्रति भेजता था। अलबत्ता, डेस्कटॉप कंपोजिंग और पब्लिशिंग का आरंभ हो चुका था।
यहां से सिलसिला शुरू हो गया। रचनाओं का प्रवाह धीमे-धीमे बढ़ने लगा। अगले क्रम में प्राप्त रचनाओं के शीर्षक और व्यंग्यकारों के नाम इस प्रकार हैं:
गिरिराज शरण अग्रवाल: अर्थों का दिवंगत होना
सुबोध कुमार श्रीवास्तव: ताबीज में लटका अंगूठी में जड़ा भविष्य
लतीफ घोंघी: दुखी मत होना चुनाव होते रहेंगे
सुदर्शन मजीठिया: डॉक्टर लंबाशंकर
हरीश नवल: किस्सा-ए-डूपलैस
कृष्ण चराटे: अरे क्या यार पापा
मोहनजी श्रीवास्तव: राष्ट्रकवि के अभाव में
मोहनजी श्रीवास्तव बहुत कम लोगों से मिलते थे। गुमनाम-सा जीवन जी रहे थे। एक रविवार हम अमलाई से तीस किलोमीटर दूर, शहडोल में उनके आवास पर गए और उनसे पूरी विनम्रता और दृढ़ता से आग्रह किया कि वे इस अंक के लिए अपना योगदान अवश्य दें। उन्होंने समय मांगा और वादा किया कि दस दिन के अंदर रचना आप तक पहुंच जाएगी। आज उनकी यह रचना हमारे लिए धरोहर है।
इसके बाद, एक-एक कर बहुमूल्य रचनाएँ हमें मिलती गईं। ज्ञान चतुर्वेदी ने राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से शीघ्र प्रकाश्य उनके उपन्यास ‘बारामासी’ का एक अंश भेजा। फिर दो प्रिय मित्रों की रचनाएं आईं, जवाहर चौधरी की ‘ओहदेदार कला मर्मज्ञ उर्फ़ राजा को जुकाम’ और पूरन सरमा की ‘पत्रकारिता में मेरा योगदान’। डॉ सरोजिनी प्रीतम ने भेजी अपनी रचना ‘भार का बोझ’। हम कृतज्ञ हुए और कृतज्ञता के वजन तले दब गए।
तत्पश्चात् प्राप्त हुई कुछ वरिष्ठ व्यंग्यकारों से रचनाएं जिनका हमने आदरपूर्वक स्वागत किया:
विनोद कुमार शुक्ल: व्यंग्यकार दल का चुनाव घोषणा पत्र
गौरी शंकर दुबे: पर्यावरण सप्ताह
डॉ सी भास्कर राव: अंगों में अंगूठा
हरि जोशी: चुनाव और कर्मचारी का हावभाव
ईश्वर शर्मा: जनरल प्रमोशन
दामोदर दत्त दीक्षित: फार्मूला मेम साहब
अश्विनी कुमार दुबे: भैयाजी की डायरी के चार पृष्ठ
जब्बार ढांकवाला: अफसरियत का अकाल
डॉ गंगाप्रसाद बरसैंया: मोदिनी मर्दिनी मदिरे
गिरीश पंकज: यह देश है वीर जवानों का
रामावतार सिंह सिसौदिया: नीचता – नए सुपर पैक में
डॉ भगीरथ बडोले: महात्मा की आत्मा
अब रचनाओं की आवक गति पकड़ती जा रही थी। मैं भी उसी तत्परता से उन्हें देखकर जमशेदपुर रवाना करता जा रहा था। डॉ स्नेहलता पाठक ने अपनी रचना भेजी जिसका शीर्षक था ‘जनता के नाम मंत्रीजी का बधाई पत्र’, डॉ श्रीराम ठाकुर दादा की रचना मिली ‘शादी कल की और आज की’, और सूर्यकांत नगर की रचना ‘जिसके हाथ लोई, उसके सब कोई’। इनके थोड़ा आगे-पीछे पहुंचे ये लिफाफे:
प्रभाशंकर उपाध्याय: अब प्रवचन परोस प्यारे
कस्तूरी दिनेश: लाश के आसपास रोदन कला
फारूक आफरीदी: ठेके पर चाहिए समीक्षक
बृजेश कानूनगो: कष्ट निवारण पथ
यशवंत कोठारी: समाचारों में आदमी की तलाश
सत्यपाल सिंह सुष्म: जब मैं मर जाऊंगा
सुष्म बहुत ही अच्छे इंसान थे। वे हमारे पारिवारिक मित्र बन गए थे। इस व्यंग्य में, उन्होंने कल्पना की है कि उनके मरने के बाद आयोजित श्रद्धांजलि सभा में व्यंग्यकार क्या-क्या कहेंगे। उन्होंने लिखा है कि जगत सिंह बिष्ट कुछ इस तरह कहेंगे, “मैं सुष्म से दिल्ली के पुस्तक मेले में मधुसूदन पाटिल के अमन प्रकाशन पर मिला था। मैंने उनकी एक-दो रचनाएं ही पढ़ी हैं। व्यंग्य में वे बिल्कुल मेरे कद्दावर ठहरते हैं। मैं सोचता था कि वे अपनी पुस्तक ‘बेवकूफी का कोर्स’ की प्रति मुझे देंगे। पर उन्होंने नहीं दी। इसलिए मैं भी चुप रहा। वे मेरे साथ मीठी-मीठी बातें खूब करते रहे। शायद ‘विदूषक’ के ‘समकालीन व्यंग्य विशेषांक’ में छपने के लिए। उन्हें कहीं से खबर लग चुकी थी कि मैं उसका अतिथि संपादक हूं।”ध्यान रहे, ये शब्द मेरे नहीं, सत्यपाल सिंह सुष्म की कल्पना की उड़ान हैं।
इस बीच कुछ और रचनाएं जो प्राप्त हुईं:
मदन गुप्ता सपाटू: मुझे न ले जाना विद्युत शवदाह गृह
रवींद्र पांडे: भौतिक परिवर्तन
आलोक शर्मा: छाप और आप
श्रवण कुमार उर्मलिया: दिमाग की दरार
ब्रह्मदेव: बात एक पार्क की
अमलाई के ‘पाठक मंच’ के प्रबुद्ध सदस्यों की रचनाएं भी इस अंक में आपको मिलेंगी:
राजेंद्र सिंह गहलोत: किस्सा साढ़े तीन यार
अनिल गर्दे: बफे(लो) सिस्टम
अभय कुमार: घर से श्मशान तक
महेंद्र कुमार वर्मा: बड़े बाबू
जमशेदपुर के नवोदित रचनाकारों की रचनाएं भी शामिल की गईं हैं:
प्रेमचंद मंधान ‘लफ्ज़’: कचरा और हीरा
निर्मल मिलिंद: बड़े दिलवाले
बृजमोहन राय देहाती: रावण की चिट्ठी
हमारी हार्दिक इच्छा थी कि व्यंग्यालोचन खंड में, हास्य-व्यंग्य के बदलते स्वरूप, सैद्धांतिक पक्ष की विस्तृत विवेचना, व्यंग्य की वर्तमान दशा और दिशा, व्यंग्यलोचन के उद्भव और विकास का संक्षिप्त इतिहास, महत्वपूर्ण व्यंग्यकारों से साक्षात्कार, पिछले दो-चार दशकों की उत्कृष्ट कृतियों की समीक्षा भी इस विशेषांक में सम्मिलित करें लेकिन चाहकर भी हम ऐसा नहीं कर सके।
फिर भी, इस अंक के प्रारंभ में, प्रेम जनमेजय का ‘आलोचना का व्यंग्य’ शीर्षक से गहन-गंभीर आलेख है। डॉ तेजपाल चौधरी का विद्वतापूर्ण आलेख ‘व्यंग्य: एक शिल्प सापेक्ष विधा’ भी इसमें शामिल है। विनोद साव की शंकर पुणतांबेकर से बातचीत ‘यदि परसाई व्यंग्यकार हैं तो व्यंग्य एक विद्या है’ और मेरी रवींद्रनाथ त्यागी से बातचीत भी इसमें संग्रहीत है। समीक्षा खंड में, डॉ मधुसूदन पाटिल की समीक्षा ‘अपने परिवेश की विसंगतियां खोजते व्यंग्य’ और मेरे द्वारा की गई समीक्षा ‘पलाश जैसे शोख और चटख हास्य-व्यंग्य’ शामिल हैं।
इस विशेषांक में आपको सुधीर ओखदे दो जगह दृष्टिगोचर होंगे। व्यंग्य रचनाओं के खंड में, अपनी रचना ‘सिगरेट और मध्यमवर्गीय’ के साथ, और अंत में, अपने विचारोत्तेजक आलेख ‘व्यंग्य: कुछ कड़वी सच्चाइयां’ के साथ। ऐसी रचनाओं को अंग्रेज़ी में कहते हैं ‘थॉट प्रोवोकिंग’ – विचार करने के लिए विवश कर देने वाली।
एक बार फिर मैं सभी व्यंग्यकारों और आलोचकों को हृदय की गहराइयों से पुनः आभार व्यक्त करना चाहूंगा जिन्होंने उस समय इस विशेषांक के लिए अपना बहुमूल्य योगदान दिया। हमारे जिन आदरणीय मित्रों का इस दौरान देहावसान हो गया, उन्हें हम विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। जो मित्र आज भी व्यंग्य लेखन से जुड़े हुए हैं, उनके उत्तम स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करते हुए, यह कामना करते हैं कि उनकी लेखनी और प्रखर हो!
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 119 ☆ देश-परदेश – बाप तो बाप ही होता है ☆ श्री राकेश कुमार ☆
कुछ दिन पूर्व एक पिता ने पुत्र के अपहरण की शिकायत पुणे पुलिस को की थी। पिता राजनीति पेशे से है, तुरंत कार्यवाही हुई और पता चला पुत्र को एक चार्टर्ड प्लेन से अगवा कर बैंकॉक ले जाया जा रहा है।
सरकार के सभी घोड़े छोड़ दिए गए पुत्र की लोकेशन पोर्ट ब्लेयर के आस पास थी। सरकारी प्रभाव के उपयोग से पायलट ने वायुयान को वापस मोड़ कर पुणे में सुरक्षित वापसी कर दी थी। जहां यात्रियों के स्वागत के लिए पुलिस तैनात थी।
वायुयान में दो व्यक्ति और भी पुत्र के साथ यात्री थे। बताया जाता है, मात्र अठत्तर लाख रुपए से एक तरफा पुणे से बैंकॉक के लिए भुगतान हुआ था। वापिस यात्रा के समय यात्रियों के सामने लगा हुआ स्क्रीन बंद कर दिया गया था, ताकि उनको पता ना लगे कि उनके विमान की क्या लोकेशन है। लौट के बुद्धू घर को आए।
अब ऐसा बताया गया कि राजनेता पुत्र किसी व्यापार के सिलसिले में बैंकॉक की यात्रा पर थे। पिता को बिना बताए ही उन्होंने विमान की बुकिंग की थी।बाप तो बाप ही होता है, आसमान से धरती पर लाकर पटक दिया। आसमान के उड़ते पक्षी को जमीन की धूल चटवा कर रख दी एक बाप ने। ये भी हो सकता है, वो बैंकॉक बौद्ध धर्म के ज्ञान के लिए गए हों। जितने मुंह उतनी बातें, बैंकॉक यात्रा के बारे में तो लोग किसी के लिए भी कुछ भी कह देते हैं।
ये सब जानकार हमें भी अपने बाप की याद आ गई, वर्ष सत्तर में “चेतना” फिल्म देखने के लिए स्कूल की नवमी कक्षा से भाग कर गए थे। इंटरवल में पिता जी ने हॉल से रंगे हाथ पकड़ कर हमारे शरीर का रंग नीला कर दिया था। उनको हमारी लोकेशन की जानकारी उनके किसी सूत्र ने दे दी थी।
उस दिन जो चेतना जाग्रत हुई थी, आज भी जब पिक्चर देखने जाते है, तो हॉल के अंदर हुई हमारी पिटाई से जहन सिहर उठ जाता है। समय बदल गया लेकिन बाप नहीं बदले।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – आईएएस का साहित्य में योगदान क्यों नहीं मानते…☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
– क्या आप कमलेश भारतीय हैं?
मैं हरियाणा सचिवालय की वीआईपी लिफ्ट के सामने खड़ा था और एक सभ्य, सभ्रांत सी महिला मुझसे यह सवाल कर रही थीं ! मैं श्रीमती धीरा खंडेलवाल का ‘शुभ तारिका’ के लिए इंटरव्यू लेने जा रहा था और मैने कभी उनको देखा न था । हां, मेरे पास उनका काव्य संग्रह जरूर था, जिसे मैं साथ लिए हुए था । शायद वही कवर सामने था, जिस पर धीरा खंडेलवाल की फोटो और परिचय था ।
– क्या, आप धीरा खंडेलवाल का इंटरव्यू करने जा रहे हो ?
– जी, पर आपको कैसे पता?
– अजी, मैं ही तो धीरा खंडेलवाल हूँ । आपके पास यह काव्य संग्रह इसका प्रमाण है ! देखिए तो मेरी फोटो !
यह थी हमारी पहली मुलाकात ! असल में मैं हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना और मैंने ही “शुभ तारिका’ की संपादिका श्रीमती उर्मि कृष्ण को यह सुझाव दिया था कि पत्रिका में ‘छोटी सी मुलाकात’ के रूप में हर माह एक इंटरव्यू दिया जाये और मैं यह काम खुशी से करने को तैयार हूँ क्योंकि आपका सदैव उलाहना रहा कि मैंने शुभ तारिका को कभी सहयोग नहीं दिया, पर आप मेरी विवशता नहीं जानती थीं कि हमारे ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के कांट्रेक्ट में यह शर्त है कि आप बिना अनुमति बाहर कुछ प्रकाशित नहीं करवा सकते ! अब मैं ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के नियम से स्वतंत्र हो चुका हूँ, अब आप बताइये कि क्या लिखना है, मुझे ! श्रीमती उर्मि ने कहा कि जो आप चाहें, वही शुरू कर लीजिए!.
यह बात बताता चलूँ कि जिन दिनों मैंने लिखना शुरू किया, उन दिनों ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में एक छोटा सा विज्ञापन दिखाई दिया- कहानी लेखन महाविद्यालय का, जिसमें यह कहा गया था कि लेखन का कोर्स कर घर बैठे ही धन और यश कमाइए ! अरे ! ऐसे कैसे? मैंने उस पते पर चिट्ठी लिख दी, मुझे इसके निदेशक डाॅ महाराज कृष्ण जैन का खत दो चार दिनों में ही मिल गया ! खैर ! मैंने कोई कोर्स तो वहां से नहीं किया लेकिन एक परिचय हो गया, जो आजीवन चला ! इसके लिए मैंने बहुत कुछ लिख लिख कर भेजा ! एक दो चीज़ें याद हैं कि मैंने एक परिचर्चा दी थी- क्या महसूस करती हैं लेखकों की पत्नियां ! इसके बाद मेरा व्यंग्य आलेख – क्यों नहीं आते लेखक अच्छे अच्छे ! यही नहीं इसके पचास साल के प्रकाशन के दौरान पांच लघुकथा विशेषांक आये और शायद मैं ही इकलौता लेखक हूँ जिसकी लघुकथा इसके हर विशेषांक में है ! जब दैनिक ट्रिब्यून ज्वाइन कर लिया तब नियमानुसार मैंने बाहर लिखना बंद कर दिया । फिर मुझसे भाभी उर्मि सहयोग मांगें पहले जैसा और मैं चुप रह जाऊं ! इस तरह सन् 1990 से सन् 2011 आ गया और मैं जैसे ही इस कांट्रेक्ट से मुक्त हुआ तब मैंने कहा- भाभी जी, अब बताइये कि क्या सहयोग दूं?
फिर यह छोटी सी मुलाकात स्तम्भ शुरू करने की सोची और पहला इंटरव्यू डाॅ कृष्ण कुमार खंडेलवाल का करने का इरादा बनाया लेकिन अपनी व्यस्तताओं के चलते उनके पास समय नहीं था, तब मै़ने ही सुझाव दिया, कि फिर धीरा खंडेलवाल का इंटरव्यू करवा दीजिये, मेंने भी ठान रखा है कि आपसे ही यह इंटरव्यू का सिलसिला शुरू करूंगा ! इसके लिए खंडेलवाल खुशी खुशी मान गये और उनका एक काव्य संग्रह दराज से देते कहा कि आप थोड़ा इसे देख लीजिए और उसी दिन तीन बजे इंटरव्यू का समय भी तय कर दिया !
इस तरह हमारी पहली मुलाकात हरियाणा सचिवालय की लिफ्ट के सामने हुई ! फिर वे मुझे अपने ऑफिस ले गयीं और चाय की चुस्कियों के बीच ‘छोटी सी मुलाकात’ का श्रीगणेश हो गया! ।
धीरा खंडेलवाल का स्वभाव बहुत सरल और सामने वाले को बहुत मान सम्मान देने वाला है ! कहीं भी बड़ी अधिकारी होने का कोई आभास तक नहीं होने देती थीं ! फिर तो उनसे कभी सचिवालय में तो कभी सरकारी बंगले पर मुलाकातों का सिलसिला तीन साल तक चलता रहा ! वे उन दिनों एक नया काव्य प्रयोग भी कर रही थीं – त्रिवेणी लिखने का ! वाट्सएप पर सुबह सवेरे धीरा खंडेलवाल की त्रिवेणी आ जाती ! मैंने एक बात महसूस की कि आईएएस अधिकारियों को साहित्यकार न मान कर लेखन को उनका शुगल मानने की भूल करते हैं दूसरे लेखक और ऐसी प्रतिक्रियायें भी मुझे सुनने को मिलतीं रहीं ! फिर चाहे वे धीरा हों या डाॅ खंडेलवाल हों या, फिर रमेंद्र जाखू और या, फिर शिवरमण गौड़ हों ! यह मैं समझता हूँ कि इनके साथ न्याय नहीं है । धीरा लगातार लिखतीं आ रही हैं और सन् 2022 में तो इनके दो काव्य संग्रह एक साथ आये और तब तो मैं उपाध्यक्ष की अवधि पूरी होने पर हिसार वापस आ चुका था कि इन्होंने बड़े ही सम्मान से बुलाया और हरियाणा निवास में एक, कमरा भी बुक करवा दिया क्योंकि जनवरी के महीने धुंध बहुत छा जाती है और ग्यारह बजे चंडीगढ़ पहुंचना बहुत मुश्किल था ।
इस तरह इनके एकसाथ दो काव्य स़ग्रहों के विमोचन-समारोह में शामिल होने व अनेक आईएएस मित्रों से फिर से मुलाकात का अवसर बना दिया ! यह भी कहता हूँ कि खंडेलवाल दम्पति साहित्य के प्रति बहुत ही गहरी भावना से जुड़े हूए हैं और अपनी पुस्तकों का विमोचन ऐसे भव्य स्तर पर करते हैं कि दूसरे लेखक सोचते हैं कि काश ! हमारी कृति का भी ऐसा विमोचन हो कभी ! खैर ! इनकी बातों और स्नेह को जितना याद करूं कम रहेगा !
हां, जब मैं हरियाणा निवास से चेक आउट करने लगा तो जो राशि मेरी बताई मैंने अदा की और हिसार आ गया! दो चार दिन बाद धीरा जी का फोन आ गया, वे नाराज़ हो रही थीं कि मैंने तो आपको एक भाई की तरह बुलाया था और आपने पैसे चुका दिये ! मैंने जवाब दिया कि मैंने भी तो अपनी बहन का मान ही रखा था कि वे यह न समझें कि भाई ऐसा है कि छोटा सा बिल नहीं चुका सका !
अब उसी दिन शाम को हमारे घर कोई सज्जन आये कि मुझे धीरा मैम ने भेजा है कि यह लिफाफा दे दूं। लिफाफे में मेरे हरियाणा निवास ठहरने की राशि थी !
अब आगे की कथा अगली कड़ी में ! खंडेलवाल दम्पति की कथा अनंता!
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी से मुलाकात“।)
☆ दस्तावेज़ # 17 – सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी से मुलाकात☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
जो साज़ पे गुजरी है, वो किस दिल को पता है
सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार रवींद्रनाथ त्यागी से मेरी पहली भेंट आज से लगभग तीस वर्ष पहले उनके गुरु तेगबहादुर मार्ग, देहरादून स्थित आवास पर हुई थी।
हरिशंकर परसाई ने कहीं लिखा है, “मैं रवींद्रनाथ त्यागी को एक श्रेष्ठ कवि और एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार स्वीकार करता हूं। उनकी विशिष्टता का एक प्रमुख कारण यह है कि हमारे जो पुराने क्लासिक्स हैं, उनमें उनकी गति है। वे सचमुच बहुत अच्छा लिखते हैं। ऐसा प्रवाहमय विटसंपन्न गद्य मुझसे लिखते नहीं बनता।”
शरद जोशी के निधन के बाद, एक नवोदित व्यंग्यकार ने परसाई से पूछा कि शरद जोशी और अपने बाद, समकालीन व्यंग्यकारों में वे किसे श्रेष्ठ मानते हैं। उन्होंने रवींद्रनाथ त्यागी का नाम लिया। उस व्यंग्यकार ने कहा कि अकेला ‘राग दरबारी’ ही श्रीलाल शुक्ल को उत्कृष्टम व्यंग्यकारों की श्रेणी में खड़ा करने के लिए पर्याप्त है। उन्होंने फिर कहा कि आप रवींद्रनाथ त्यागी को ध्यानपूर्वक पढ़िए। ऐसा कई बार हुआ। अलग अलग समय, अवसर और मूड में, उनसे यह प्रश्न दोहराया जाता था। वे हर बार यही कहते थे कि रवींद्रनाथ त्यागी को पढ़िए, ध्यानपूर्वक पढ़िए।
यह आज से लगभग तीस साल पहले की बात होगी। तदोपरांत, त्यागी से मिलने, उनको प्रत्यक्ष जानने-समझने और उनकी कतिपय कृतियों को पढ़ने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। कालांतर में, वे मेरे लिए ‘आदरणीय’ से ‘श्रद्धेय’ हो गए।
एक व्यंग्यकार मित्र, उन दिनों, मज़ाक में कहा करते थे कि हिंदी व्यंग्य के तीन स्कूल हैं – परसाई स्कूल, जोशी स्कूल और त्यागी स्कूल – और तीनों में भर्ती चालू है।
मेरी प्राइमरी शिक्षा परसाई स्कूल में हुई। शरद जोशी के व्यंग्य मैं मंत्रमुग्ध होकर पढ़ता और सुनता था। उनकी शब्द-छटा अलौकिक होती थी और मैं मुक्त मन और कंठ से उसकी प्रशंसा करता था।
गर्मियों की छुट्टियों में, मै अक्सर परिवार के साथ देहरादून जाया करता था, जहां सेवानिवृत्ति के बाद रवींद्रनाथ त्यागी का निवास था। उनसे पहली मुलाकात के दौरान, दो लंबी मुलाकातें हुईं और ढेर सारी बातें हुईं। मैं उनसे इतना प्रभावित हुआ कि मैंने मिडिल स्कूल के लिए त्यागी स्कूल में आवेदन कर दिया। एडमिशन के मामले में वे काफी स्ट्रिक्ट दिखाई दिए लेकिन मैंने पाया कि मेरे प्रति उनका रुख काफी उदार एवं स्नेहपूर्ण रहा। भला कौन नहीं चाहता कि उसके स्कूल में एकाध होनहार छात्र भी हो!
पहली मुलाकात की औपचारिकताओं के बाद, मैंने उन्हें बताया कि परसाई उनकी बेहद तारीफ़ किया करते हैं। त्यागी बोले, “यह तो उनकी महानता है। परसाई हमारे एकमात्र अंतरराष्ट्रीय स्तर के लेखक हैं। उनके लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी प्रत्येक रचना उद्देश्यपूर्ण है, उनका संपूर्ण लेखन प्रतिबद्ध लेखन है। उन्होंने गरीबों और शोषित-पीड़ितों का दुख पहले शिद्दत से महसूस किया, फिर प्रतिबद्ध हुए, और लिखा। उल्टा नहीं हुआ। पहले प्रतिबद्धता नहीं आई। पहले अनुभव किया, फिर प्रतिबद्ध हुए। तभी उनमें वो दृष्टि और गहराई है।”
थोड़ा ‘नॉस्टैल्जिक’ होकर उन्होंने बताया कि 1979 में जब वे दौरे पर जबलपुर गए थे तो रोज शाम परसाई से भेंट करते थे। परसाई ने स्थानीय कॉलेज में उनके सम्मान में एक कार्यक्रम आयोजित किया और अपनी अस्वस्थता के बावजूद वहां गए और पूरे समय तक बैठे रहे। परसाई उनके प्रति गहरी आत्मीयता का अनुभव करते थे क्योंकि दोनों गर्दिश की लंबी-लंबी रातों से गुजरे और निखरे थे। (यदि आपने परसाई और त्यागी की ‘गर्दिश के दिन’ शीर्षक रचना न पढ़ी हो तो अवश्य पढ़ लें) उन दिनों त्यागी कुछ परेशान थे और नौकरी छोड़ने पर विचार कर रहे थे। विदा होते समय परसाई ने उनसे वचन लिया कि वे त्यागपत्र नहीं देंगे और अपने उच्च सरकारी पद पर रहते हुए लिखते रहेंगे।
शरद जोशी को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि यदि वे बंबई में दो कमरों का फ्लैट बनाने के चक्कर में न पड़ते तो शायद इतनी जल्दी हमारे बीच से चले जाने से बच जाते। व्यर्थ की भागमभाग, रात-दिन तनाव में लिखना, मंच पर व्यंग्य पाठ के लिए हवाई यात्राएं, टीवी सीरियल की डेडलाइन और अनियमित खानपान ने उनका स्वास्थ्य ध्वस्त कर दिया।
जब त्यागी को चकल्लस पुरस्कार मिलना था तो उस कार्यक्रम में शरद जोशी भी उपस्थित थे। उन्होंने देखा कि शरद जोशी कुछ परेशान और विचलित से लग रहे हैं। पूछने पर पता चला कि उस दिन उनका टीवी पर पहला प्रोग्राम आने वाला था। इन्होंने कहा कि आप जाकर कहीं देख आइए लेकिन वे नहीं गए और कार्यक्रम के अंत तक बैठे रहे।
त्यागी में सबसे बड़ा गुण जो मैंने पाया, वो था उनका ज़रा भी आत्ममुग्ध नहीं होना। मैंने उनके गद्य की प्रशंसा करनी चाही तो उन्होंने रोक दिया। मैंने उन्हें महानतम व्यंग्यकार कहना चाहा तो उन्होंने बहुत विनम्रता और स्पष्टवादिता के साथ कहा कि समकालीन व्यंग्यकारों में सबसे पहले हरिशंकर परसाई, फिर शरद जोशी, फिर श्रीलाल शुक्ल, और उसके बाद ही रवींद्रनाथ त्यागी। श्रीलाल शुक्ल की प्रारंभिक दो पुस्तकों ‘अंगद का पांव’ और ‘सूनी घाटी का सूरज’ को वे उनकी उत्कृष्ट कृतियां मानते थे।
चर्चा अन्य व्यंग्यकारों के साथ-साथ, लतीफ घोंघी की भी चली। उन्होंने कहा कि आप और हम मुस्लिम समाज को नहीं जानते जितना लतीफ। मुस्लिम समाज की रूढ़ियों पर उन्होंने प्रहार किया। मैंने उन्हें ध्यान दिलाया कि लतीफ घोंघी पर केंद्रित रचना ‘तीसरी परंपरा की खोज’ में उन्होंने लिखा है, “पुस्तक (व्यंग्य रचना) की प्रशंसा में यह भी कहना पड़ेगा कि लतीफ की रचनाओं का स्तर और रचनाओं का रस ठीक वही है जो अब तक की उन्नीस पुस्तकों में था। आप उस पर यह अभियोग कभी नहीं लगा सकते कि उन्होंने अपना स्तर उठाया, नया रस पैदा किया, या किसी नए चरित्र की सृष्टि की। वे वहीं हैं, जहां थे। वे पीछे नहीं हटे। सुमित्रानंदन पंत की भांति उन्होंने ‘पल्लव’ के ‘सा’ को ‘गुंजन’ के ‘रे’ में नहीं बदला। वे इंसान ही रहे, महान नहीं बने।” उन्होंने बताया कि लतीफ घोंघी ने उनके कथन को सही स्पिरिट में लिया और सहर्ष स्वीकार किया।
त्यागी का व्यक्तित्व अंतर्मुखी था। वे एकदम से किसी व्यक्ति को हाथों-हाथ नहीं लेते। उसे समझते-परखते, तब जाकर खुलते। प्रारंभिक संकोच और दूरी के बाद, वे मुझे बहुत आत्मीयता से अपनी ‘स्टडी’ में ले गए और मेरे बारंबार आग्रह पर उन्होंने भावविभोर होकर अपनी कुछ कविताएं सुनाईं। यह मेरे लिए एक नया अनुभव था। उनकी कविताएं मैंने पहले नहीं पढ़ी थीं। बहुत धीर-गंभीर, गहरी और अंतर्मुखी कविताएं लिखते थे वो। उनका गद्य हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण है और कविताएं इसके ठीक विपरीत।ये रवींद्रनाथ त्यागी के व्यक्तित्व के दो पहलू हैं। इन्हें जाने बगैर उन्हें नहीं समझा जा सकता। उनकी एक कविता प्रस्तुत है, जो हरिवंश राय बच्चन को पसंद आई और उन्होंने इसे अपने द्वारा संपादित ‘हिंदी की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएं’ नामक संग्रह में शामिल किया। कविता इस प्रकार है:
☆ अंधा पड़ाव ☆
ड्राइंग रूम में वह नहीं आया
उसके चमचमाते जूते आए,
जब मिलाया उसने हाथ
मुलाकात रह गई दस्तानों तक,
जब वह बैठा सोफे पर
तो उनकी जगह एक शानदार शूट वहां बैठ गया,
कफ़ों ने पकड़ा कॉफ़ी का कप
टाई और कॉलर ने ब्रेकफास्ट किया,
उसके होंठ नहीं हँसे बिल्कुल
सिर्फ़ उसकी सिगरेट चमकी
विदा की जगह हिलता रहा रूमाल
वह नहीं निकला पोर्च के बाहर
सिर्फ़ उसकी मोटर निकली।
उन्होंने संस्कृत और हिंदी साहित्य का गहन अध्ययन किया था। उर्दू शेरोशायरी और अंग्रेजी क्लासिक्स का भी उन्हें ज्ञान था। इतिहास और दर्शन शास्त्र में उनकी गहन रुचि थी। अख़बार और पत्रिकाएं वे नियमित पढ़ते थे। पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के महत्वपूर्ण अंशों को रेखांकित कर ध्यानपूर्वक मनन करते थे। प्रतिदिन, घंटों राइटिंग टेबल पर बैठकर, टेबल लैंप की रोशनी में लिखते रहते थे। साहित्य के प्रति उनकी लगन देखते ही बनती थी। जितने वे प्रतिभावान थे, उतने ही परिश्रमी, व्यवस्थित और अनुशासित भी। उन्होंने मुझे बताया कि व्यंग्य लेखन के लिए पढ़ना, खूब पढ़ना, बेहद जरूरी है। आप खूब पढ़िए, कांजी हाउस के पर्चे से लेकर पीजी वुडहाउस तक। लेखन में परिश्रम बेहद आवश्यक है। लिखिए, रीराइट कीजिए, बार बार पढ़कर सुधारिए। टॉल्स्टॉय ने युद्ध और शांति जैसे बड़े उपन्यास को तीन बार रीराइट किया। और सबसे महत्वपूर्ण बात, लेखन से कभी कोई उम्मीद मत करना, बस लिखते रहना।
वे मुंह-देखी बात नहीं करते थे। अपनी बेबाक और स्पष्ट टिप्पणी करते थे। उन्होंने कहा कि आपके पहले व्यंग्य-संग्रह में कुछ रचनाएं ठीक थीं लेकिन उसका शीर्षक ‘तिरछी नज़र’ हल्का था। मैंने उन्हें दफ्तरी जीवन पर आधारित अपने स्तंभ के बारे में बताया, तो उसे पुस्तक रूप में प्रकाशित करने के लिए उन्होंने प्रोत्साहित किया लेकिन कहा कि आपका शीर्षक ‘दफ्तर की दुनिया’ मुझे अच्छा नहीं लगता। बाद में उन्होंने एक शीर्षक सुझाया ‘घर से चलकर दफ्तर तक’। प्रकाशक महोदय की कृपा से यह पुस्तक ‘अथ दफ्तर कथा’ नाम से छपी।
रवींद्रनाथ त्यागी साहित्य में रस को अनिवार्य मानते थे। वे रूपवाद, कलावाद और प्रगतिवाद के पचड़ों से ऊपर उठकर थे। उन्होंने कहा कि जो भी रसपूर्ण है, मैं लिखूंगा, यदि आवश्यक हुआ तो चुटकुले भी। उन्होंने विश्व के महान राजनेताओं से संबंधित हास्य-व्यंग्य लिखा है। इसी तरह, प्रसिद्ध साहित्यकारों से संबंधित हास्य-व्यंग्य वे उन दिनों लिख रहे थे। उनके पास अनेक पत्र आते थे जो उनके साहित्य में अश्लील अंशों पर आपत्ति जताते थे लेकिन अपनी रचनाओं में हसीन स्टेनो, सुन्दर रमणी, रूपवती विधवा, इत्यादि की पुनरावृति से वे चिंतित नहीं होते थे। उन्होंने कालिदास के मेघदूत के कुछ अंश, जो उन्हें कंठस्थ थे, सुनाए और सिद्ध किया कि श्लील और अश्लील की लक्ष्मण-रेखा बहुत बारीक है। कालिदास ने कुछ आवश्यक प्रसंगों के साथ, अनावश्यक अश्लील प्रसंग भी विस्तार से चित्रित किए हैं। थोड़ा काव्यानंद आप भी लें:
वहां अलका में, कामी प्रियतम,
लाल-लाल अधरों वाली प्रेमिकाओं के
नीवीबंधों के टूट जाने से ढीले पड़े वस्त्र को
जब खींचने लगते हैं,
तो लज्जा के कारण विमूढ़ बनी वे रमणियां
सामने रखे,
किरणें छिटकाते रत्नदीपों पर,
मुट्ठी भर-भर कुमकुम फेंककर बुझाने की असमर्थ चेष्टा करती हैं,
क्योंकि रत्नदीप बुझाए नहीं जा सकते।
उन दिनों वे रवींद्र कालिया द्वारा संपादित और इलाहाबाद (अब प्रयागराज) से प्रकाशित साप्ताहिक ‘गंगा-यमुना’ के लिए, पचास साल पूर्व के इलाहाबाद के संस्मरण लिख रहे थे।
पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पर केंद्रित संस्मरण को सुनने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने ‘सरस्वती’ के हीरक जयंती अंक में छपे सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के फोटो दिखाए। उन दिनों के ढेरों संस्मरण सुनाए। यहां उनके ‘कुछ और साहित्यिक संस्मरण’ का प्रारंभिक अंश उद्धृत कर रहा हूं:
“दुष्यंत मेरा बचपन का दोस्त था। हाई स्कूल में हम दोनों साथ-साथ पढ़ते थे और प्रयाग विश्वविद्यालय में भी हम दोनों सहपाठी रहे। हाई स्कूल का फॉर्म भरते समय, उसी ने मेरे नाम के साथ ‘त्यागी’ जोड़ा और बदले में मैंने ही उसका नाम ‘दुष्यन्त नारायण’ से ‘दुष्यन्त कुमार’ किया। उसी ने मुझे सर्वप्रथम पंत जी से मिलवाया और उसी के साथ मैंने निराला जी के प्रथम दर्शन किए। यदि वह मुझे मेरठ में चैलेंज न देता तो मैं कभी भी लेखक बनने की न सोचता। वह बाद में भी बराबर हिम्मत देता रहा मगर जैसे ही मेरा प्रथम काव्य-ग्रन्थ छपा और साहित्य के दिग्गजों ने उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करनी शुरू की, वैसे ही वह मुझसे बचने लगा। वह जब भी किसी साहित्यकार से मुझे मिलवाता तो मुझे ‘व्यंग्यकार’ कहकर ही मिलवाता, ‘कवि’ कहकर नहीं। धीरे-धीरे वह भी मेरी कविता का प्रशंसक बन गया जिसके लिए मैं आजीवन उसका कृतज्ञ रहूंगा। प्रयागराज में ही मैं श्रीराम वर्मा, मलयज और शमशेर बहादुर सिंह से मिला। ये लोग नितांत अध्ययनशील और प्रतिभाशाली थे मगर बाकी नवयुवक रचनाकारों की सदा निंदा भरी आलोचना ही किया करते थे। शमशेर ने मेरे कविता-संग्रह के फ्लैप पर कुछ भी लिखने से साफ मना कर दिया मगर बाद में मैंने देखा कि उन्होंने बेहद घटिया किस्म के काव्य-ग्रंथों की भी बेहद प्रशंसा की जिसका कारण मुझे बाद में मुझे दुष्यंत से ज्ञात हुआ।”
यह सच है कि उनकी कविताओं को जितनी स्वीकृति प्राप्त हुई, उससे कहीं अधिक प्रतिष्ठा उन्हें हास्य-व्यंग्य गद्य लेखन से मिली लेकिन इससे उनकी कविताएं गौण नहीं हो जातीं। उन्होंने लिखा है, “मेरा बचपन बड़े कष्टों में और बहुत ही ज़्यादा गरीबी में बीता। सारे भाई-बहन इलाज न होने के कारण एक-एक कर मर गए। ईश्वर की कृपा से मैंने किसी तरह उच्च शिक्षा प्राप्त की, देश की एक बड़ी सेवा के लिए चुना गया, और साहित्य की सेवा करने की प्रवृत्ति मिली। बाल स्वरूप राही का एक शेर याद आता है:
हम पर दुख का पर्बत टूटा तब हमने दो चार कहे,
उस पे भला क्या बीती होगी जिसने शेर हज़ार कहे।
लेखक पर सृजन का भरी दबाव होता है। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसे अन्य लोग नहीं समझ सकते। लेखक भी आपस में लेखकों की मानसिक पीड़ा की चर्चा नहीं करते। जॉर्ज ऑरवेल, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, वॉल्ट विटमैन और विलियम फॉल्कनर की तरह रवींद्रनाथ त्यागी भी मानसिक अवसाद या डिप्रेशन से ग्रस्त और त्रस्त रहे। गर्दिश भरा बचपन, उच्च पद और नौकरी के तनाव, और लेखन का दबाव अपना असर दिखाते रहे। एक बार वे नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार हुए। नौकरी में रहते हुए ईमानदारी और स्पष्टवादिता का खामियाजा भुगता, एक बार सस्पेंड हुए और प्रमोशन के क्रम में पिछड़ गए। हेनरी मिलर ने लगभग ठीक ही फरमाया है कि दुख की परिस्थितियां ही किसी लेखक को लेखक होने के लिए विवश करती हैं। लिखते हैं तो ज़िंदा हैं, न लिखते तो मर जाते। उन्होंने तब तक छह कविता-संग्रह, बीस व्यंग्य-संग्रह, एक उपन्यास, और बच्चों के लिए दो कथा-संग्रह लिखे थे। ‘उर्दू-हिंदी हास्य-व्यंग्य’ नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ का संपादन भी उन्होंने किया। आठ खण्डों में उनकी रचनावली भी प्रकाश्य थी। इतना कुछ लिखने में उन्होंने कितनी यातना, दुख, पीड़ा और तनाव सहा होगा, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन्हें प्रणाम करते हुए यह शेर कहा जा सकता है:
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र.
विशेष –
39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया।
अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल”के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
स्व. स्व. महेश महदेल
☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ ☆
☆ “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय☆
दुनियाभर के ज्ञान और जानकारी को मस्तिष्क के गागर में भरे सामान्य सी कदकाठी और व्यक्तित्व वाले अत्यंत सरलता, सहजता, सादगी पूर्ण, आडम्बर रहित जीवन यापन करने वाले महेश महदेल जैसे लोगों के लिए ही शायद “सिंपल लिविंग हाई थिंकिंग” जैसे वाक्य लिखे गए होंगें । अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले महदेल जी को शायद ही किसी ने प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान देते सुना होगा, लेकिन जानकार लोग बताते हैं की अल्पभाषी, शान्त प्रकृति के महदेल जी से जब भी, जिस भी विषय पर जानकारी चाही जाती थी वे उसे समय, स्थान आंकड़ों, घटनाओं सहित इतना विस्तार से बताते थे कि घण्टों चर्चा में बीत जाने का भान ही नहीं होता था। मानो सब कुछ सिलसिले बार उनके मन मस्तिष्क पर अंकित हो।
परतंत्र देश में स्वतंत्र ख्यालों वाले आदरणीय महेश जी का जन्म 1942 में गांव रामगढ़ जिला डिंडोरी मध्य प्रदेश में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा के पश्चात उन्होंने जबलपुर के तत्कालीन रॉबर्टसन कॉलेज से शिक्षा पूर्ण की। उनके लिए शानदार वेतन वाली शासकीय और अशासकीय नौकरियां बाहें फैलाए खड़ी थीं, किंतु ज्ञान पिपासु प्रबुद्ध महदेल जी ने अर्थ (धन ) को महत्व न देकर जीवन के मानवीय मूल्य के अर्थ को ही महत्व दिया । वे जानते थे कि सुख सुविधा और सिद्धांतों के रास्ते अलग अलग होते हैं। जीवनपर्यंत धन-दौलत, सुख-सुविधा, ताम-झाम से दूर रहे । कहा जाता है कि जिम्मेदारियां के बाजार में ऐसा संभव नहीं है किंतु इन सब के बावजूद उन्होंने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए भाई-बहनों और परिजनों की मदद की, मार्गदर्शन किया । उन्हें पढ़ाने-लिखाने, स्वावलम्बी बनाने का पूर्ण दायित्व निभाया। आपने अविवाहित रहकर अपना संपूर्ण जीवन पत्रकारिता को समर्पित किया। पत्रकारिता उनके जीवन का हिस्सा बन गई सांध्य दैनिक जबलपुर से पत्रकारिता की प्रारंभ हुई यात्रा हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, देशबंधु आदि अखबारों से होती हुई ‘स्वतंत्र मत’ पर समाप्त हुई। जहां उन्होंने लगभग 20 वर्ष सेवाएं दीं। पत्रकारिता का लंबा और गहरा अनुभव उन्हें रहा। जिस नीर क्षीर परीक्षण विश्लेषण के साथ उन्होंने पत्रकारिता की वह अपने आप में विशिष्ट है। उनकी पत्रकारिता में वस्तुपरकता, तथ्यों की सच्चाई, शुद्धता, नवीनता, अनोखापन होता था। संतुलित,गरिमापूर्ण शब्द, निर्भीकता, निष्पक्षता, उत्कृष्ट अभिव्यक्ति उनकी लेखनी में परिलक्षित होती थी। उनके सहयोगी पत्रकार बताते हैं कि अखबारों का चाहे अंतरराष्ट्रीय पृष्ठ हो, नगर समाचार का हो, व्यापार या कृषि समाचार का हो, विज्ञापन, सराफा बाजार या खेल का पृष्ठ हो सभी पृष्ठों को व्यवस्थित, सुसज्जित करने में उनका पूर्ण दखल था । उनके लेखन का कमाल उनकी संपादकीय में देखने मिलता था । अत्यंत सारगर्भित, धारदार शब्द, स्पष्टवादिता, रोचकता से भरी संपादकीय दिल पर छाप छोड़ने वाली होती थी । उत्कृष्ट साहित्य संपन्न उपयोगी पुस्तकों की समीक्षा और समालोचना भी उन्होंने बहुत लिखीं। ‘बाल विकास की डिक्शनरी’ के नाम से मेरी पुस्तक ‘मां फिट तो बच्चे हिट’ की उनके द्वारा लिखी समीक्षा भी लोगों द्वारा अत्यंत सराही गई। पत्रकारिता के विभिन्न आयामों को गहराई से जानने समझने वाले भले ही कई हों किंतु उसे सिखाने, बताने और समझाने वाले लोग कम ही होते हैं। उन्होंने अपने साथियों- सहयोगियों को बहुत कुछ सिखाया और अनुकरण हेतु सादगी, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, कर्मठता, कार्य के प्रति जुनून का सबक भी कार्यशीलता से देते रहे। पत्रकारिता में जबरदस्त पैठ रखने के कारण सहयोगी उन्हें “लार्ड” के नाम से पुकारते थे वहीं अगली पीढ़ी उन्हें प्रेम आदर और अपनत्व के साथ कक्काजी कह कर आदर देती थी।
स्वभाव में फक्कड़ माननीय महदेल जी ने कभी संग्रह किया ही नहीं न धन का, न वस्तुओं का और तो और अपने लेखन का भी नहीं । उन्होंने अपनी मर्जी से जीवन जिया और मर्जी से ही जाते-जाते शरीर का दान देकर परोपकार की एक इबारत भी लिख गए।अहम, अहंकार से सैकड़ों कोसों दूर निराभिमानी महेश जी के शब्दकोश में आत्मावंचना, आत्म प्रदर्शन जैसे कोई शब्द ही नहीं थे। अपने चिंतन मनन और कार्य में समर्पित साहित्य प्रेमी महदेल जी साहित्यिक सम्मेलनों, संगोष्ठियों में इतने सहजता, सादगी और निर्विकार रूप से सम्मिलित होते थे कि किसी का ध्यान उनकी ओर जा ही नहीं पाता था। नेपथ्य में कार्य करने की प्रवृति के कारण उनकी योग्यताओं, प्रतिभाओं को वैसा प्रचार-प्रसार नहीं मिल पाया जिससे वे प्रत्यक्ष रूप से जनसामान्य तक पहुंच सकें । पत्रकारिता के इस शहंशाह के लिए अब केवल यही कहा जा सकता है..
वह ऊंचे कद का मगर झुक कर चलता था
जमाना उसके कद का अंदाज न लगा सका।
पत्रकारिता में दधीचि की तरह उनके त्याग-समर्पण को कभी भुलाया नहीं जा सकता।