हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ –  “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

डॉ. वंदना पाण्डेय

परिचय 

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व  सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

स्व. स्व. महेश महदेल

☆ कहाँ गए वे लोग # ४५ ☆

☆ “सिद्धांतवादी पत्रकार – स्व. महेश महदेल” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय

दुनियाभर के ज्ञान और जानकारी को मस्तिष्क के गागर में भरे सामान्य सी कदकाठी और  व्यक्तित्व वाले अत्यंत सरलता, सहजता, सादगी पूर्ण, आडम्बर रहित जीवन यापन करने वाले महेश महदेल जैसे लोगों के लिए ही शायद “सिंपल लिविंग हाई थिंकिंग” जैसे वाक्य लिखे गए होंगें । अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाले महदेल जी को शायद ही किसी ने प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान देते सुना होगा, लेकिन जानकार लोग बताते हैं की अल्पभाषी, शान्त प्रकृति के महदेल जी से जब भी, जिस भी विषय पर जानकारी चाही जाती थी वे उसे समय, स्थान आंकड़ों, घटनाओं सहित इतना विस्तार से बताते थे कि घण्टों चर्चा में बीत जाने का भान ही नहीं होता था। मानो सब कुछ सिलसिले बार उनके मन मस्तिष्क पर अंकित हो।

परतंत्र देश में स्वतंत्र ख्यालों वाले आदरणीय महेश जी का जन्म 1942 में गांव रामगढ़ जिला डिंडोरी मध्य प्रदेश में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा के पश्चात उन्होंने जबलपुर के तत्कालीन रॉबर्टसन कॉलेज से शिक्षा पूर्ण की। उनके लिए शानदार वेतन  वाली शासकीय और अशासकीय नौकरियां बाहें फैलाए खड़ी थीं, किंतु ज्ञान पिपासु प्रबुद्ध महदेल जी ने अर्थ (धन ) को महत्व न देकर जीवन के मानवीय मूल्य के अर्थ को ही महत्व दिया । वे जानते थे कि सुख सुविधा और सिद्धांतों के रास्ते अलग अलग होते हैं। जीवनपर्यंत धन-दौलत, सुख-सुविधा, ताम-झाम से दूर रहे । कहा जाता है कि जिम्मेदारियां के बाजार में ऐसा संभव नहीं है किंतु इन सब के बावजूद उन्होंने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए भाई-बहनों और परिजनों की मदद की, मार्गदर्शन किया । उन्हें पढ़ाने-लिखाने, स्वावलम्बी बनाने का पूर्ण दायित्व निभाया। आपने अविवाहित रहकर अपना संपूर्ण जीवन पत्रकारिता को समर्पित किया। पत्रकारिता उनके जीवन का हिस्सा बन गई सांध्य दैनिक जबलपुर से पत्रकारिता की प्रारंभ हुई यात्रा हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, देशबंधु आदि अखबारों से होती हुई ‘स्वतंत्र मत’ पर समाप्त हुई। जहां उन्होंने लगभग 20 वर्ष सेवाएं दीं। पत्रकारिता का लंबा और गहरा अनुभव उन्हें रहा। जिस नीर क्षीर परीक्षण विश्लेषण के साथ उन्होंने पत्रकारिता की वह अपने आप में विशिष्ट है। उनकी पत्रकारिता में वस्तुपरकता, तथ्यों की सच्चाई, शुद्धता, नवीनता, अनोखापन होता था। संतुलित,गरिमापूर्ण शब्द, निर्भीकता, निष्पक्षता, उत्कृष्ट अभिव्यक्ति उनकी लेखनी में परिलक्षित होती थी। उनके सहयोगी पत्रकार बताते हैं कि  अखबारों का चाहे अंतरराष्ट्रीय पृष्ठ हो, नगर समाचार का हो, व्यापार या कृषि समाचार का हो, विज्ञापन, सराफा बाजार या खेल का पृष्ठ हो सभी पृष्ठों को व्यवस्थित, सुसज्जित करने में उनका पूर्ण दखल था । उनके लेखन का कमाल उनकी संपादकीय में देखने मिलता था । अत्यंत सारगर्भित, धारदार शब्द, स्पष्टवादिता, रोचकता से भरी संपादकीय दिल पर छाप छोड़ने वाली होती थी । उत्कृष्ट साहित्य संपन्न उपयोगी पुस्तकों की समीक्षा और समालोचना भी उन्होंने बहुत लिखीं। ‘बाल विकास की डिक्शनरी’ के नाम से मेरी पुस्तक ‘मां फिट तो बच्चे हिट’ की उनके द्वारा लिखी समीक्षा भी लोगों द्वारा अत्यंत सराही गई। पत्रकारिता के विभिन्न आयामों को गहराई से जानने समझने वाले भले ही कई हों किंतु उसे सिखाने, बताने और समझाने वाले लोग कम ही होते हैं। उन्होंने अपने साथियों- सहयोगियों को बहुत कुछ सिखाया और अनुकरण हेतु सादगी, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, कर्मठता, कार्य के प्रति जुनून का सबक भी कार्यशीलता से देते रहे। पत्रकारिता में जबरदस्त पैठ रखने के कारण सहयोगी उन्हें “लार्ड” के नाम से पुकारते थे वहीं अगली पीढ़ी उन्हें प्रेम आदर और अपनत्व के साथ कक्काजी कह कर आदर देती थी।

स्वभाव में फक्कड़ माननीय महदेल जी ने कभी संग्रह किया ही नहीं न धन का, न वस्तुओं का और तो और अपने लेखन का भी नहीं । उन्होंने अपनी मर्जी से जीवन जिया और मर्जी से ही जाते-जाते शरीर का दान देकर परोपकार की एक इबारत भी लिख गए।अहम, अहंकार से सैकड़ों कोसों दूर निराभिमानी महेश जी के शब्दकोश में आत्मावंचना, आत्म प्रदर्शन जैसे कोई शब्द ही नहीं थे। अपने चिंतन मनन और कार्य में समर्पित साहित्य प्रेमी महदेल जी साहित्यिक सम्मेलनों,  संगोष्ठियों में इतने सहजता, सादगी और निर्विकार रूप से सम्मिलित होते थे कि किसी का ध्यान उनकी ओर जा ही नहीं पाता था। नेपथ्य में कार्य करने की प्रवृति के कारण उनकी योग्यताओं, प्रतिभाओं को वैसा प्रचार-प्रसार नहीं मिल पाया जिससे वे प्रत्यक्ष रूप से जनसामान्य तक पहुंच सकें । पत्रकारिता के इस शहंशाह के लिए अब  केवल यही कहा जा सकता है..

वह ऊंचे कद का मगर झुक कर चलता था

 जमाना उसके कद का अंदाज न लगा सका।

पत्रकारिता में दधीचि की तरह उनके त्याग-समर्पण को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

हजारों मंजिलें होंगीं हज़ारों कारवां होंगे मगर

ज़माना उनको ढूंढेगा न जाने वो कहाँ होंगे ..।

शत-शत नमन …

डॉ. वंदना पाण्डेय 

प्राचार्य, चंचलबाई पटेल महिला महाविद्यालय, जबलपुर

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : [email protected]

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ – “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ साहित्य से दोस्ती : विकास नारायण राय ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – साहित्य से दोस्ती : विकास नारायण राय ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

आज एक ऐसे व्यक्तित्व को याद करने जा रहा हूँ, जिन्होंने अपने दम पर ‘ साहित्य से दोस्ती’ जैसी मुहिम चलाई ।इसी के अंतर्गत कभी ‘ प्रेमचंद से दोस्ती’ तो कभी अम्बेडकर, तो कभी छोटूराम से दोस्ती जैसे अभियान चलाये और पूरा हरियाणा नाप दिया, पाट दिया साहित्य से दोस्ती के नाम पर !

इनसे मुलाकात तो हिसार के पुलिस पब्लिक स्कूल में हुई, जब मुझे बच्चों द्वारा लिखित कथा प्रतियोगिता के सम्मान समारोह में छोटी बेटी प्राची के चलते जाना पड़ा और पूरा समारोह ऐसे आयोजित किया गया, जैसे वरिष्ठ लेखकों को पुरस्कार बांटे जा रहे हों ! तभी कुछ कुछ हमारी भी दोस्ती इनसे हो गयी थी । उन दिनों वे करनाल के शायद मधुवन में उच्च पुलिस अधिकारी थे और अपने कड़क स्वभाव के लिए जाने जाते थे लेकिन साहित्य के लिए उनका दिल बहुत ही संवेदनशील था और आज भी है।

साहित्य से दोस्ती से पहले सन् 1992 -1993 के आसपास श्री राय ने ‘साहित्य उपक्रम’ नाम से एक प्रकाशन शुरू किया था और इसके तुरंत बाद ‘साहित्य से दोस्ती’ मुहिम भी चला दी । इसमें प्रेमचंद, भगत सिंह, छोटूराम व अम्बेडकर से दोस्ती जैसे अनेक अभियान चलाये । एक वैन किताबों से भरी चलती थी, जिसमें इनके मिशन के अनुसार सस्ते मूल्य पर अच्छी साहित्यिक किताबें उपलब्ध रहती थीं। जैसे कभी एनबीटी और रुसी साहित्य की पुस्तकें आसानी से मिलती थीं ।

आखिर ऐसा अभियान क्या चलाया ?

हमारे समय में कितनी ही समस्याएं हैं , जैसे कन्या भ्रूण हत्या, साम्प्रदायिक और प्रकृति को बचाने जैसी अनेक समस्याएं हैं ओर नयी पीढ़ी को इनके प्रति संवेदनशील बनाना ही इन दोस्तियों का मूल उद्देश्य रहा और आज भी है। किताबें आम आदमी की पाॅकेट को देखकर ही प्रकाशित की जानी चाहिएं और उपलब्ध होनी चाहिएं।

जब इनसे करनाल के पाश पुस्तकलय के बारे में पूछा तब श्री राय ने बताया कि आतंकवाद के दौरान हरियाणा पुलिस के दो अधिकारी और दो सिपाही पटियाला में शहीद हो गये थे । इनकी स्मृति में यह विचार चला कि या तो अस्पताल बनाया जाये या फिर पुस्तकालय ! आखिरकार फेसला पाश पुस्तकालय बनाने का हुआ ।  बहुत संवेदना और भाव से यह पुस्तकालय बनाया गया लेकिन समय के साथ साथ इसकी उपयोगिता पर सवाल उठे और आखिरकार इसे बंद कर दिया गया पर इससे हमारा अभियान खत्म नहीं हुआ । ‘साहित्य उपक्रम’ प्रकाशन आज भी चल रहा है ! आजकल श्री राय फरीदाबाद रहते हैं और वही कुछ न कुछ लिखते पढ़ते रहते हैं। यह साहित्य से दोस्ती पता नहीं हरियाणा में कितने लोगों को साहित्य से जोड़ने का काम करती आ रही है ! यह दोस्ती ज़िदाबाद ! लोगों के बीच किताबें लेकर जाते रहेंगे ! यह विश्वास दिलाते हैं वी एन राय ने ताकि बच्चे अपने समाज और अपनी समस्याएं को समझ सकें!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क : 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Memoirs ☆ दस्तावेज़ # 19 – My Beloved Chemistry Teacher: Brother Frederick ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆ 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(This is an effort to preserve old invaluable and historical memories through e-abhivyakti’s “दस्तावेज़” series. In the words of Shri Jagat Singh Bisht Ji – “The present is being recorded on the Internet in some form or the other. But some earlier memories related to parents, grandparents, their lifetime achievements are slowly fading and getting forgotten. It is our responsibility to document them in time. Our generation can do this else nobody will know the history and everything will be forgotten.”

In the next part of this series, we present a memoir by Shri Jagat Singh Bisht Ji My Beloved Chemistry Teacher: Brother Frederick.“)

☆ दस्तावेज़ # 19 – My Beloved Chemistry Teacher: Brother Frederick ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆ 

(A tribute to my beloved Chemistry teacher Bro Frederick.)

Positive psychologists Ed Diener and Robert Biswas-Diener wisely observed, “Happiness does not just exist in the present but also can be drawn from past events. Try savouring past successes, enjoyable experiences, and other golden memories by making a habit out of looking at memorabilia or trading stories with a spouse or friends.” Indeed, it is in moments of reflection that we realise how profoundly the past shapes our present.

(Brother Frederick is sitting in the first row at the extreme right. Brother John Bosco is sitting third from left in the first row.)

As I sift through the sands of memory, one golden figure stands out like a lighthouse on a dark shore—my Chemistry teacher, Brother Frederick. With unwavering gratitude, I recall how he influenced not just my education, but my entire life’s trajectory. His blessings, teachings, and unflinching faith in my potential continue to resonate, even after more than fifty years.

The Alchemy of Inspiration

My journey with Chemistry began in the sunlit corridors of St. Gabriel’s Higher Secondary School, Ranjhi, Jabalpur. The school, nestled beyond the church that bridged two educational institutions, was where my childhood dreams took flight. Among the myriad faces of teachers who guided us, it was Brother Frederick who left an indelible mark on my heart.

(My picture clicked, developed and printed by Bro Frederick in the photography club at school founded by him.)

A man of science and magic, he believed in making lessons come alive. Theory was never enough for him; he transformed Chemistry into a fascinating spectacle. I vividly remember the fete he organised, where he performed “scientific magic” that left us spellbound. Imagine this—a tub of water bursting into flames when pebbles were tossed in; jars of colourless liquid transforming into brilliant pink before fading back into clarity; and a tap seemingly suspended in mid-air, pouring water from nowhere!

It was more than just entertainment; it was a masterclass in sparking curiosity. Inspired by his passion, I pursued Chemistry all the way to a master’s degree and even embarked on research. It was his infectious enthusiasm that kindled this fire in me.

A Life Beyond the Laboratory

Brother Frederick’s influence extended far beyond the confines of the Chemistry lab. He nurtured a love for practical learning. We set up a science club, a magic club, and a photography club under his guidance. Together, we assembled telescopes, crafted small radio transmitters, and even devised substitutes for complex laboratory equipment like the Kipp’s apparatus.

I had the privilege of assisting him in the laboratory, an experience that deepened my respect for his meticulous nature. When he was transferred from Jabalpur to Patna, I joined a group of students at the railway station to bid him farewell. As the train began to move, I ran alongside it, waving madly with tears streaming down my face. That moment remains etched in my memory—a poignant farewell to a teacher who was more like a guardian angel.

A Scholar and a Gentleman

Brother Frederick was a man of immense resolve. Even as he approached middle age, he enrolled for a master’s degree in English literature, delving into the works of Keats, Shelley, Byron, and Dickens with the same fervour he showed in the laboratory. His dedication to lifelong learning was a lesson in itself.

I fondly recall how he encouraged my thirst for knowledge. When the school library received a shipment of books from Canada, students were allowed to choose two books each. I couldn’t resist picking five, and he graciously let me take them all, confident that I would make good use of them.

A Touching Reunion

Years later, in 1976, I returned to St. Gabriel’s as a Chemistry teacher. Walking into the same laboratory that Brother Frederick had so lovingly set up was surreal. I taught my students with the same passion and curiosity that he had instilled in me, and those three years remain the most fulfilling chapter of my professional life.

On one occasion, I took students on an educational trip to Patna and Kathmandu. When we arrived at Loyola School in Patna, where Brother Frederick was then posted, he rushed out to meet us. Ignoring everyone else, he called out excitedly, “Where is Jagat? Where is Jagat?” That moment was a testament to the bond we shared—a bond that time and distance could not diminish.

A Legacy of Love

In 2005, some of us from the Class of 1971 revisited our alma mater. The school welcomed us with a cultural programme and even organised a cricket match. At this reunion, I learned from the Brother Principal that Brother Frederick had passed away. The news hit me hard, but in my heart, he remains alive—his wisdom and kindness still guide me whenever life feels uncertain.

For me, Brother Frederick was more than a teacher. He was an alchemist who turned Chemistry into a way of life, a magician who made science enchanting, and a mentor who believed in the power of dreams. His lessons went far beyond the periodic table; they were about curiosity, resilience, and the joy of lifelong learning.

Even now, when I think of him, I see a gentle figure in the lab, patiently explaining concepts, his eyes twinkling with passion. And I smile, knowing that his legacy lives on—not just in me, but in every student whose life he touched.

♥♥♥♥

© Jagat Singh Bisht 

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 18 – स्व अटल बिहारी बाजपेयी जी का सानिध्य, मेरे जीवन का अविस्मरणीय क्षण – श्री रामदेव धुरंधर ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ जी का एक शोधपरक दस्तावेज़ “स्व अटल बिहारी बाजपेयी जी का सानिध्य, मेरे जीवन का अविस्मरणीय क्षण – श्री रामदेव धुरंधर “।) 

☆  दस्तावेज़ # 18 – स्व अटल बिहारी बाजपेयी जी का सानिध्य, मेरे जीवन का अविस्मरणीय क्षण – श्री रामदेव धुरंधर ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

(माँ सरस्वती के आराधन पर्व बसंत पंचमी के अवसर पर माँ वाणी के कृपापात्र प्रख्यात हिंदी साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी (मारिशस) के साथ फोन पर हुई एक वार्ता पर आधारित )

चलिए राजेश जी ! आपसे कुछ बात कर लेते हैं l आप वाराणसी गए थे? कैसी रही आपकी यात्रा? और कवि जयशंकर प्रसाद जी के कार्यक्रम में तो आपको बहुत सारे लोग पहचान गए होंगे l ऐसा कहते — कहते धुरंधर जी ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण एवं आकर्षक संस्मरण मुझे सुना दिया l शायद रामदेव धुरंधर जी यह नहीं समझ पा रहे थे कि मैं उनसे जो बात कर रहा हूँ, वह उनके जीवन से जुड़ा बेशकीमती संस्मरण है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है l अब इस विषय में कहना ही क्या है l जब एक महापुरुष एक महामानव के विषय में कुछ कहने लगे तो, तो कैसा महसूस होता है, ज़रा यह संस्मरण सुनाने वाले से आप भी सुनिए  – श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’)

श्री रामदेव धुरंधर जी ने कहा कि मेरा घर तो गांव में थाl उम्र 25 – 30 की होगी। हिंदी से मुझे बहुत प्रेम था और मैंने हिंदी में लिखना शुरू कर दिया थाl उम्र कम थी तो बहुत ही हिचकिचाहट और संकोच भी होता था l खैर जो बात आज मैं आपको बताने जा रहा हूं इसे आप सुनिए l मैं सोमदत्त बखोरी जी से बात शुरु करता हूँ। यह बात करते – करते समझिये कि मैं और गहराई में प्रवेश करता जाऊँगा। सोमदत्त बखोरी जी हिंदी के अच्छे साहित्यकार थे l इसके साथ-साथ वे हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री जी के बड़े नजदीकी भी थे और उनका राजनैतिक कद भी काफी ऊंचा था l वे राजधानी पोर्ट लुईस के नगर सचिव भी थे l”

श्री सोमदत्त बखोरी जी उन दिनों लॉन्ग माऊँटेन हिंदी भवन के उप प्रधान थे। लॉन्ग माऊँटेन को धारा नगरी भी कहा जाता था। यह हिन्दी से प्रेरित नाम था। मैंने धारा नगरी अर्थात लॉन्ग माऊँटेन हिंदी भवन में हिन्दी की अपनी अच्छी खासी पढ़ाई की है।

श्री रामदेव धुरंधर 

यहां पर मैं धुरंधर जी के संस्मरण आलेख को रोकता हूं और आपसे अपनी एक बात बताना चाहता हूं l धुरंधर जी ने जब मुझे श्री सोमदत्त बखोरी जी की बात की l उनका नाम लिया, तो मुझे आदरणीया डॉ.नूतन पाण्डेय जी ( सहायक निदेशक केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली ) द्वारा अपने आवास पर भेंट की गई एक पुस्तक “मारिशसीय हिंदी नाटक साहित्य और सोमदत्त बखोरी “ की न सिर्फ याद ताजा हो गई बल्कि उसके प्रति पृष्ठ पर पूर्व प्रधानमंत्री श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेई की पुस्तक भेंट करती हुई, तस्वीर भी याद आ गयी “

अब मैं इस संस्मरण आलेख को आगे बढ़ाता हूं। धुरंधर जी का यह संस्मरण भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्रद्धेय अटल बिहारी बाजपेई से संबंधित है। धुरंधर जी ने कहा अटल बिहारी जी यहाँ सरकारी मेहमान थे। सरकारी बात तो सरकारी स्तर पर हुई होगी। मैं यहाँ अटल जी के हिन्दी – प्रेम के बारे में आपसे बोल रहा हूँ। हिन्दी के प्रति उनका प्रेम मानो पग पग पर छलक आता था। आपको बता दूँ हिन्दी में उनका पहला कार्यक्रम लोंग माऊँटेन के हिन्दी भवन में हुआ था। तब अटल जी भारत में विरोधी दल के नेता थे। पर यहाँ की सरकार ने उन्हें आमंत्रित किया था। हिन्दी भवन के अध्यक्ष ने कुछ संकोच से कहा आप तो वहाँ विरोधी दल से हैं। अटल जी ने यह बात पकड़ ली थी। उन्होंने जब भाषण शुरु किया तो ‘दल’ शब्द पर बहुत बल दिया। उन्होंने कहा भारत में इतने दल हैं कि मैं क्या कहूँ समझिये कि सभी दल तो बस दल दल में फँसे हुए हैं। उनकी इस बात पर खूब हँसी गूँजी थी। निस्सन्देह हिन्दी में तो उन्होंने बहुत प्यारा भाषण दिया था। श्री अटल बिहारी वाजपेई जी को मॉरिशस में सुनने पर मैंने जाना वे हिन्दी में बड़ी रुचि रखते थे। राजेश जी, वाकई उनके बोलने का अंदाज और हिंदी के प्रति उनका लगाव मेरे लिए अप्रतिम था। उनकी एक अदा थी बोलते — बोलते वे रुक जाते थे। उनकी आँखें बंद रहती थीं। वे नये सिरे से बोलना शुरु करते थे तो मानो हिन्दी में मधुर सी फुहारें झड़ रही हों।

अटल जी तो यहाँ बहुत कम समय के हमारे मेहमान थे। बखोरी जी ने हिन्दी भवन में कहा था अटल जी के सान्निध्य का लाभ उठाने की आकाँक्षा से वे अपने आवास पर एक साहित्यिक गोष्ठी रख रहे हैं। लोग आएँ तो उन्हें खुशी होगी। मैं जाता। इस वक्त कहने से मुझे संकोच नहीं पैसे की दृष्टि से मेरी हालत कमजोर थी। गोष्ठी शाम के तीन बजे रखी जा रही थी। जाहिर था शाम हो जाती। हमारे यहाँ शाम के छह सात के बीच बसों का चलना बंद हो जाता है। यदि वहाँ शाम हो जाती तो मुझे टैक्सी ले कर घर लौटना पड़ता। पैसा तो दो सौ तक जाता। पर मैंने एक तरह से खतरा मोल लिया था। अटल जी के साथ एक संगोष्ठी में बैठना शायद मेरा जुनून हो गया हो। वह शायद मेरी हिन्दी थी और उसके लिए मैं जीवट के साथ तैयार था। गोष्ठी तीन बजे थी तो मुझे घर से तीन घंटे आगे निकलना पड़ता जो मैंने किया था। मैं बस से पोर्ट लुईस पहुँचा। वहाँ से चल कर बखोरी जी के आवास पहुँचने के लिए आधा घंटा लग सकता था। वहाँ बस जाती नहीं थी। मैं टैक्सी ले कर जाता तो पर्याप्त पैसा लगता और जैसा कि मैंने कहा मैं पैसे के मामले में तो मैं बहुत कमजोर था।

मैं सार संकेत से सोमदत्त बखोरी जी का आवास तो जानता था, लेकिन मुझे अपने पैरों से चल कर वहाँ पहुँचना था। उनका आवास पोर्ट लुईस के किनारे में पर्वत की तराई पर था। पर्वत तो दूर से दिख जाता, लेकिन वहाँ बखोरी जी का आवास कहाँ हो यह ठीक – ठीक जानना मेरे लिए कठिन तो होता। पर देश की राजधानी पोर्ट लुईस में मुझे परेशानी होती भी नहीं। एक रास्ता पर्वत की ओर जाता था। मैंने खड़ा हो कर मानो उसका अध्ययन किया और लगे हाथ लोगों से पूछ लिया बखोरी जी का आवास जानते हों तो मुझे बताएँ। मुझे याद है एक आदमी ने मुझे ठीक से बताया था। मेरा काम अब तो बहुत आसान हो गया था। पर्वत से सटे हुए उस रास्ते में वाहन न के बराबर चलते थे। सहसा मुझे पीछे वाहन की आवाज सुनाई दी। मैं किनारे में हट गया। वह एक मोटर थी। कुछ आगे जाने पर मोटर रुक गयी। मैं मोटर तक पहुँचा तो भीतर से आवाज आई आइए धुरंधर जी। यह श्री अटल बिहारी बाजपेयी की आवाज थी। मैं चौंक पड़ा। इसका मतलब हुआ हिन्दी भवन में कार्यक्रम के बाद चाय के अंतर्गत आत्मीय बातचीत के अंतर्गत मित्रों की ओर से मेरा नाम लिया जाना काम आया था। राजेश जी, इस वक्त आपसे कहते मैं गर्व अनुभव कर रहा हूँ अटल जी ने मुझसे कहा था धुरंधर तो मेरा बहुत प्यारा नाम है। मोटर वाली बात आपसे कहता हूँ। अटल जी मोटर की पिछली सीट पर थे। वे एक किनारे में हट गए और मुझे अपने पास बैठने का इशारा कर दिया। मोटर बी. एम. डाब्लियू थी। ड्राइवर ने कृओल में मुझसे कहा था उ एन ग्राँ जीमून [अर्थात आप बहुत बड़े आदमी हैं] ड्राइवर के कथन का सार तत्व था। अटल जी के साथ मैं बैठा हुआ रामदेव धुरंधर उस वक्त सचमुच बड़ा था। उन दिनों के मॉरिशस के सब से महंगे होटल में अटल जी को ठहराया गया था। होटल ग्राँबे में था और उसका नाम पॉल्म बीछ था।

अटल जी ने मुझे बताया उन्होंने आज उन्होंने दिन में एक कविता लिखी है। वे वह कविता संगोष्ठी में सुनाएँगे। पर उन्होंने तो तत्काल मेरे लिए वह कविता पढ़ दी। मैंने अपना यह संस्मरण पहले भी लिखा है। वह कविता मुझे याद भी थी। पर अभी केवल मैं कविता का भाव कह पाऊँगा। वह कविता बहुत मशहूर हुई थी। धर्मयुग में यह छपी थी। जहाँ तक मैं जानता हूँ इस कविता को अटल जी की श्रेष्ठ कविताओं में एक माना गया है। कविता लिफाफा और पत्र पर आधारित है। शायद वह इस तरह से है लिफाफा चाहे कितना सुन्दर हो, लेकिन पत्र को पाने के लिए उसे तो फाड़ा ही जाता है।

इस बात पर आता हूँ मुझे अटल जी के साथ मोटर में बैठने का अवसर मिल गया। पर मैं तो लोगों से रास्ता पूछ कर बखोरी जी के घर जा रहा था। अब तो मुझे किसी से रास्ता पूछना नहीं था l मैं अटल जी के साथ मोटर में बैठकर बखोरी जी के घर पहुंचा l इस वक्त आपको यह बताते मुझे हँसी भी आ रही है। मैं भी मोटर से उतरा था जो एक असंभव प्रक्रिया थी। वहाँ अटल जी उतरे तो क्या पूछना, बखोरी जी, उनकी पत्नी और हिन्दी प्रेमियों ने मिलकर उनका स्वागत किया l

बखोरी जी वकील थे, नगर सचिव थे, लेकिन स्वयं में हिन्दी भी थे। उनकी बहुत कृपा है मुझ पर। भारत में मेरी कहानी छपना धर्मयुग से शुरु हुआ। संपादक थे डा. धर्मवीर भारती। यहाँ बखोरी जी ने अनुराग पत्रिका में मेरी पहली कहानी छापी और यह एक सिलसिला बन गया था।

संगोष्ठी आरंभ होने पर धाराप्रवाह चलती रही। बहुत कम लोग थे। सब को सुनाने का मौका मिला था। अटल जी ने शुरु करने पर मेरा नाम लिया और कहा भी हम मोटर में आ रहे थे तो उन्होंने आज की लिखी हुई अपनी कविता मुझे सुनायी।

मैं अपनी बात यहाँ कर रहा हूँ उस तरह के आलीशान घर में बैठने का मेरा पहला अवसर था। चाय की बात तो इस तरह से थी शक्कर अलग तो दूध अलग। बैठने पर सावधान रहें बैठना ही है तो ठीक से बैठें। जरूर मेरे मन में चल रहा हो मैं हिन्दी जानता हूँ और इस भाषा में लिखना शुरु किया है यही मुझे इस ऊँचाई पर पहुँचा रहा है।

राजेश जी, यह संस्मरण तो मैं आपको और विस्तार से सुना सकता हूँ। इसे किसी और दिन के लिए छोड़ते हैं। अभी मुझे बड़ी ही भाव प्रवणता से याद आ रहा है उस दिन गोष्ठी में कौन – कौन लोग थे। दो चार नाम मैं ले रहा हूँ गुरु जी रविशंकर कौलेसर, नारायणपत्त दसोई, कितारत, रोगेन [अच्छी हिन्दी जानने वाले तमिल] दीपचंद बिहारी, लक्ष्मीप्रसाद मंगरू, बेनीमाधव रामखेलावन, भानुमती नागदान। ये गुजराती महिला थीं। मैंने इन्हें जीवन पर्यंत हिन्दी की लेखिका के रूप में ही जाना। आश्चर्य ही कहें भानुमती नागदान ही एक महिला हुईं जिन्होंने यहाँ हिन्दी लेखन में खास प्रतिष्ठा अर्जित की है।

राजेश जी, मैं अंत में दुख से आपको बताता हूँ जितने नाम मैंने आपको सुनाये इनमें से आज एक भी जीवित नहीं है। दो साल हुए बखोरी जी की शताब्दी मनायी गयी। मंगरू जी लगभग सौ साल में दिवंगत हुए। कौलेसर और मंगरू हिन्दी के मेरे गुरु थे। अब अपने बारे में कह लूँ। आपको यह सुनाने के लिए मैं जीवित रह गया हूँ। मेरी उम्र इनसे तो बहुत कम है, लेकिन मेरा एक स्वाभिमान भी है अपने से बड़े इन लोगो के साथ मैंने उठ — बैठ का रिश्ता बनाया था। बल्कि इन लोगों ने मुझे सुना है और दाद दी है।

अपने इन बडों को मेरा नमन। अटल बिहारी बाजपेयी जी को मेरा पूज्य भाव समर्पित।

राजेश जी, मुझ लगता है मैंने आपको अपना एक दमदार संस्मरण सुनाया। जरूर आपको अच्छा लगा होगाl आपके बारे में कहता हूँ आप लिखते रहिए.. लिखते रहिए. आपको राह में ऐसे ही अच्छे-अच्छे लोग मिल जायेगें l धीरे-धीरे आपकी अपनी अच्छी पहचान हो जाएगी बल्कि पहचान तो हो ही गई है l गंगा की धारा बह रही है l उस धारा में आपको डुबकी लगानी है l डुबकी लगाएंगे तो कुछ ना कुछ तो पाएंगे ही। गंगा जी भी चाहती हों कि उनकी धारा में आप डुबकी लगाएँ और डूबकी लगाने का आपका सौभाग्य तो है ही l आप कोशिश करेंगे तो हो ही जाएगा।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

माघ, शुक्ल पक्ष पंचमी

दिनांक : 02-02-2025, रविवार ( बसंत पंचमी )

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ – “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆

श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर

श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर मध्य प्रदेश के कटनी नगर के प्रतिष्ठित कवि एवं लेखक हैं । आप शासकीय सेवा से निवृत्त होने के उपरान्त अपना पूरा समय साहित्य, कला, संस्कृति को दे रहे हैं । यों तो नगर की समस्त साहित्यिक संस्थाओं में आपकी सक्रिय भागीदारी रहती है तथापि आप इंटेक कटनी चेप्टर में को कन्वीनर हैं । इनकी पुस्तक “ठाकुर राजेंद्र सिंह के बालगीत” काफी चर्चित रही । राजेंद्र सिंह जी कटनी क्षेत्र के पुरातत्व महत्व के क्षेत्रों सहित कटनी नगर की विरासत पर महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं ।

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व ““कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

 

स्व. खुइया मामा

☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ ☆

☆ “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर 

कटनी शहर से 15 कि. मी. के फासले पर बिलहरी नामक क़स्बा है। यहाँ बौद्ध, जैन, कल्चुरी जैसे विभिन्न इतिहास काल के प्रचुर पुरा अवशेष पुरातत्व विभाग के संरक्षण में आज भी देखे जाते हैं। लोककथाओं, दंतकथाओं में कहा जाता है कि वर्तमान बिलहरी में कभी कर्णदेव नामक एक राजा थे। वह प्रतिदिन अपनी देवी की पूजा करते और खौलते तेल के कड़ाह में कूद कर स्वयं को देवी मां को समर्पित कर देते। प्रसन्न होकर देवी उन्हें पुनः जीवित कर सवा मन सोना देती थीं। आत्म बलिदान से प्राप्त धन को राजा प्रतिदिन गरीबों में बाँट देते थे।

कटनी के लोगों ने राजा कर्णदेव को तो नहीं देखा, किन्तु सन 1930 – 1980 के दौरान शहर में दान परंपरा के एक अन्य सामान्य पुरुष को देखा है, जिन्हें कटनी ही नहीं अन्य शहरों के लोग भी खुइया मामा के नाम से जानते थे, ये कटनी रेलवे स्टेशन के सामने एक पान दुकान का संचालन करते थे। इन्होंने एक छोटी सी दुकान से अर्जित कमाई से अपने जीवन में गरीबों को जो दान दिया वह आज के मूल्य के अनुसार करोड़ों रुपयों का होगा।

कटनी शहर का अस्तित्व सन 1867 में अंग्रेजों द्वारा मुड़वारा नामक छोटे से गाँव से कुछ दूर रेल स्टेशन स्थापित किये जाने से आया। धीरे धीरे अन्य शहरों के अमीर – गरीब जीविका की तलाश में यहाँ आकर बसने लगे। ऐसे ही लोगों में एक थे अग्रवाल परिवार के खुइया मामा जो चित्रकूट के निकट एक गांव से आकर कटनी में बस गए और रेलवे स्टेशन के बाहर पान दुकान का संचालन करने लगे। उस समय तक शहर इतना अधिक विकसित नहीं था। स्टेशन के पास ही कुछ चाय पान की दुकान थीं और वहां से बस्ती के बीच सूनापन रहता था। छह सवा छह फुट ऊँचे, पहलवानी कद काठी वाले मानवीय गुणों से ओतप्रोत खुइया मामा दबंग स्वभाव के थे। ये यात्रियों का उदार भाव से सहयोग भी करते थे। आपकी दुकान यात्रियों को सुरक्षा के प्रति आश्वस्त भी कराती थी। बाहर के यात्रियों के लिये आपकी दुकान एक तरह से अमानती सामान गृह एवं पूछताछ केंद्र की तरह भी थी। जिस समय अन्य दुकानों में पाँच पैसे का एक पान मिलता था, वहीँ आपकी दुकान में पांच पैसे में दो यानि जोड़ी से पान मिलते थे। अकेली पान दुकान एवं उदार स्वभाव होने के कारण आपका कारोबार चल निकला।

खुइया मामा की एक पुत्री थी जो वाक्यों का उच्चारण नहीं कर पाती थी। अतः उसके जीवन के प्रति उनके अंतर्मन में नमीं बनी रहती थी। खुइया मामा  दोपहर का भोजन करने रिक्शे में बैठकर  दुकान से घर को जाते थे। उस समय उनके साथ दुकान में अर्जित फुटकर सिक्कों की एक पोटली होती थी। कुर्ते के जेब में भी सिक्के भरे होते थे। जिन्हें राह में मिलने वाले गरीब याचकों को बांटते चलते थे। यह उनका नित्य नियम था। दो पैसे की आस में भिखारी और गरीब लोग उनके दुकान से चलने के पूर्व से ही वहां झुंड बनाकर एकत्र हो जाते थे। रास्ते में भी लोग उनके इंतजार में खड़े रहते थे और जब घर पहुंचते तो वहां भी पैसे पाने वालों का हुजूम उनके स्वागत में खड़ा मिलता था। खुइया मामा पैसों की पोटली या जेब से सिक्का निकाल कर सभी को देते चलते थे। कभी कभी तो उनकी पोटली खाली भी हो जाती थी। उनका यह नियम कोई तीस चालीस साल तक अनवरत चलता रहा। इस तरह खुइया मामा ने पान की दुकान से कमाए पैसों का एक बड़ा भाग नित्य के दान पुण्य में खर्च किया। उक्त राशि को बचाकर यदि उन्होंने मकान, जमीन खरीद कर रखे होते तो निश्चय ही आज उनका बाजार मूल्य करोड़ों रुपये में होता।

खुइया मामा की एक आदत और थी, जब चाहे वे पानी में फूले चने तलवा लेते, रसगुल्ला बनवा लेते और उसे आसपास के लोगों में वितरित करवाते। लोग छक कर खाते और आनंद मनाते।

गीता प्रेस गोरखपुर की धार्मिक पुस्तकें जिन्हें बेचने से कोई आर्थिक लाभ नहीं होता, इन्हें भी विक्रय के लिए खुइया मामा अपनी दुकान में उपलब्ध कराते थे। उस समय कटनी शहर में गीता प्रेस की पुस्तकों वाली यह अकेली दुकान होती थी, जहाँ से केवल स्थानीय लोग ही नहीं बल्कि अन्य शहरों के लोग भी पुस्तक खरीदने आते थे। सन 1984 में कटनी शहर के इस अनोखे दानवीर ने निर्वाण प्राप्त किया। वर्तमान में आपकी दुकान यद्यपि अपने पूर्व स्थान में नहीं रह गई है, किन्तु स्टेशन के सामने ही अन्य स्थान पर आपके पौत्र खुइया मामा पान भंडार का संचालन आज भी कर रहे हैं।

© श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर

कटनी (म. प्र.)

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Memoirs ☆ दस्तावेज़ # 17 – Time’s Gentle Brew: Coffee and the Heart’s Musings ☆ Mrs. Saswati Sengupta ☆ 

Mrs. Saswati Sengupta

 

e-abhivyakti.com welcomes Mrs. Saswati Sengupta. She lives in Kolkata and pens beautiful memoirs and travelogues. She is an avid traveller and an outstanding photographer.

Her brief intro is as under:

– Having spent my formative years in Poona (Pune) and Jabalpur before relocating to Kolkata, I, Saswati Sengupta, am an avid reader and equally passionate about music, sports, photography, painting, watching movies and travelling.

The various permutation and combination of words with their everlasting effect have always fascinated me, leading to the inevitable penning of my thoughts and memoirs of bygone days as well as whatever catches my fancy!

(This is an effort to preserve old invaluable and historical memories through e-abhivyakti’s “दस्तावेज़” series. In the words of Shri Jagat Singh Bisht Ji – “The present is being recorded on the Internet in some form or the other. But some earlier memories related to parents, grandparents, their lifetime achievements are slowly fading and getting forgotten. It is our responsibility to document them in time. Our generation can do this else nobody will know the history and everything will be forgotten.”

In the next part of this series, we present Mrs. Saswati Sengupta‘s musings on international coffee day Time’s Gentle Brew: Coffee and the Heart’s Musings.“)

☆ दस्तावेज़ # 17 – Time’s Gentle Brew: Coffee and the Heart’s Musings ☆ Mrs. Saswati Sengupta ☆ 

International Coffee Day !

Espresso,

Latte, 

Mocha, 

Cappuchino, 

Iced,

or

‘Kattang-kaapi’?

That means black coffee..the real strong one!

Coffee is almost synonymous with South India.

 

How do you identify an ethnic South Indian household?

Elementary my dear whatever…!!

Its the fragrance of hot, steaming idlis,

sizzling dosas on a hot griddle,

that teasingly tangy sambar or rasam boiling in the pot,

and,

of course…

the heavenly aroma of freshly filtered coffee!

My love affair with coffee……or rather, its fragrance, began in Kirkee, Pune where my father was posted.

Tultul (a rare name for a Tamilian) and I were of the same age, a royal three plus some years old, and our barrack style quarters shared the same open verandah in front.

Most of our waking hours were spent either with me following Tultul at her house…or at my place, Tultul in tow.

We were yet to begin school and life then was all fun for us.

We ran about in the garden, dug the flower beds for earthworms, smelt the roses and mogras, chased squirrels, shared stories we heard, drew pictures and coloured them in our drawing copies, practised the alphabets and did everything three-year-old pre-schoolers usually do.

I enjoyed being at Tultul’s house.

The spicy fragrances wafting from the kitchen tingled my senses!

As my mother was kept busy with my new-born younger sis., Tultul’s mother took me under her wings, and her two elder sisters became my guardians too.

They dressed Tutul and me in matching ‘pawadas’ (a long ankle length skirt paired with a short blouse), plaited our hair or whatever strands we had, and also tied them with the same coloured ribbons.

I relished the lunch menu of sambar or rasam rice, curd rice, lemon rice et al but what I enjoyed most was the crunchy, paper thin ‘poppadams’.

This early initiation into a South Indian household influenced and affected me in many ways.

I learnt to speak in Tamil (sadly out of touch now) and started appreciating their culinary and cultural background too.

 

Till date I am enamoured by their classical dances, Carnatic music, kanjeevarams, kollams and of course….’ kattang-kapi ‘!!

‘ Kapi ‘, or coffee, is not meant to be sipped from any ordinary cup or mug.

For any self- respecting South Indian, that would be scandalous!!

It has to be served in a small conical tumbler with a flat edge, and the tumbler has to be placed in a cylindrical bowl with a flattened edge too.

You raise your hand holding the tumbler..and pour the ‘ kapi’ from a height into the bowl..and again from the bowl into the tumbler..so on and so forth quite a few times, to cool the steaming hot beverage.

This process is called ‘stretching the coffee!’

It is an acquired art.

Experts are known to raise their coffee tumblers to a height of 3-4 feet and serve it foaming!

(Tried it once with disastrous results.

 Never tried again.

 Sheer wastage of good coffee!)

 Entertaining guests with a mug of hot steaming coffee and ‘ murukkus ‘ (chakli) is soul satisfying, in my opinion!

Still remember my dear friend Suguna, calling out…’Kaapi kurchitta poitarey! ‘

(Meaning… ‘Please have some coffee before leaving!‘) to some visitors, who had come to meet her at the hostel, and were short on time.

Nothing heightens my senses than a freshly brewed mug…. sorry, tumbler of coffee!

On, the 5th of October 2024, the International Coffee Day, the gift pack of this tumbler set along with my favourite brew is a treasured gift from my loving beta, Udayan, and bahu, Srijita!

Like to share a tumbler of hot ‘ kapi ‘ folks?

♥♥♥♥

© Mrs. Saswati Sengupta

Kolkata

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 14 – हरिशंकर परसाई से पहली मुलाकात: अंग्रेज़ी में उनके दुर्लभ दस्तख़त – ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ हरिशंकर परसाई से पहली मुलाकात: अंग्रेज़ी में उनके दुर्लभ दस्तख़त।) 

☆  दस्तावेज़ # 14 – हरिशंकर परसाई से पहली मुलाकात: अंग्रेज़ी में उनके दुर्लभ दस्तख़त ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

जब मैं श्रद्धेय हरिशंकर परसाई से पहली बार मिला तब मैं अबोध था। मुझे नहीं मालूम था कि मैं जिससे मिल रहा हूं वो वास्तव में कौन है?

यूं तो परसाई ने 1947 से ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था लेकिन लगातार स्वतंत्र लेखन 1960 से किया। उन्होंने स्तंभ लेखन की शुरुआत जबलपुर से प्रकाशित ‘प्रहरी’ में की। इसमें वे अघोर भैरव के नाम से ‘नर्मदा के तट से’ स्तंभ लिखते थे।

‘वसुधा’ के संपादक के रूप में उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी अपने मित्र मुक्तिबोध से ‘एक साहित्यिक की डायरी’ लिखवाना। ‘सारिका’ के ‘कबीरा खड़ा बाज़ार में’ स्तंभ के अंतर्गत, उनकी कलम से देश-विदेश की जानी-मानी हस्तियों के साथ कबीर का काल्पनिक साक्षात्कार पाठकों में बहुत लोकप्रिय हुआ। ‘सुनो भई साधो’ और ‘ये माजरा क्या है’ स्तंभ ‘नवीन दुनिया’ और ‘जनयुग’ में लंबे समय तक प्रकाशित होते रहे।

ये बात 1972 की है। मेरा कॉलेज में पहला साल पूरा हो रहा था। मुझे पता चला कि मॉस्को में पैट्रिस लुमुंबा पीपल्स यूनिवर्सिटी है। इसमें अफ्रीका, एशिया, लैटिन अमेरिका और पूर्वी यूरोप के छात्र पढ़ने आते हैं। प्रतिभाशाली छात्रों को वजीफा भी दिया जाता है। मैंने सोचा कि क्यों न आवेदन भेजकर देखा जाए। किसी ने कहा कि भारत-सोवियत सांस्कृतिक संघ के सदस्य बन जाओ तो एडमिशन में प्राथमिकता मिलेगी। मैंने सदस्यता ली और सर्टिफिकेट पर दस्तख़त करवाने के लिए परसाई जी के नेपियर टाउन, जबलपुर स्थित आवास पर गया। वे भारत-सोवियत सांस्कृतिक संघ की मध्यप्रदेश इकाई के उपाध्यक्ष और राष्ट्रीय परिषद के सदस्य थे।

उन्होंने जिस सर्टिफिकेट पर दस्तख़त किए, उसकी फोटो इस संस्मरण के साथ प्रस्तुत है। इसमें उन्होंने अंग्रेजी में दस्तख़त किए हैं जो पचास साल बाद दुर्लभ लगते हैं। दस्तख़त के नीचे, उन्होंने अपनी हस्तलिपि में अंग्रेज़ी में लिखा है – वाइस प्रेसिडेंट एम पी आई एस सी यू एस एंड मेंबर नेशनल काउंसिल

संयोग देखिए, लगभग इन्हीं दिनों एक ज्योतिषाचार्य ने मेरी जन्मकुंडली देखकर, मेरे पिताजी को बताया – बालक का विदेश जाने का योग है। वहां जाकर विदेशी कन्या से विवाह का भी योग है। ये वहीं का होकर रह जाएगा और अपनों को भुला देगा।

बस, फिर क्या था। दिल के अरमां, आंसुओं में बह गए। एक आज्ञाकारी पुत्र और कर भी क्या सकता था।

अपने अंतिम समय में पिताजी उत्तराखंड में स्थित पैतृक गांव चले गए थे। माताजी ने हमें बताया कि अंत तक पिताजी को एक ही अफसोस रहा – मैंने जगत को पढ़ाई के लिए मॉस्को नहीं जाने दिया!

कुछ वर्षों बाद, मैंने परसाई को पढ़ना शुरू किया तो जाना कि वो कौन हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनसे अनेक बार मिलने का मौका मिला, मैंने उनको करीब से देखा-समझा, और मुझे उनका आशीर्वाद मिला।

‘हँसते हैं, रोते हैं’ की भूमिका में हरिशंकर परसाई ने लिखा –

एक दिन, एक आदमी आकर वहां खड़ा हो गया और बोला, “ भैया, दुनिया में दो ही तरह के आदमी होते हैं – हँसने वाले और रोने वाले!”

मैंने कहा, “और जो न हँसते हैं, न रोते हैं?”

वह बोला, “वे आदमी थोड़े ही हैं।”

मैं बोला, “उन्हें लोग देवता कहते हैं।”

वह बोला, “देवता होते होंगे तो हों, मगर आदमी नहीं होते।”

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

राजेंद्र तिवारी “ऋषि”

☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ ☆

☆ “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

विषम परिस्थितियों के बीच भी परिहास करने वाले, जिनके मुख मंडल पर शांति और मुस्कान का स्थाई वास था, गौर वर्ण, ऊंचे कद, सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी कविवर प्रो. राजेन्द्र तिवारी “ऋषि” अच्छे कवि और लोकप्रिय शिक्षक थे। लोग उनकी हाजिर जवाबी के कायल रहते थे। किसी भी विषय / प्रसंग पर तुरंत कविता का सृजन कर लेना उनके लिए सहज कार्य था। उन्होंने प्रारंभिक सृजन काल में देशभक्ति, सामाजिक विसंगतियों, राजनीति, भ्रष्टाचार, धर्म – आध्यात्म आदि विविध विषयों पर तुकांत – अतुकान्त कविताओं का सृजन किया जिसे उनके विशिष्ट प्रस्तुतिकरण के कारण श्रोता – दर्शकों द्वारा बहुत पसंद किया गया। उन्होंने कवि गोष्ठियों/ सम्मेलनों में हमेशा मंच लूटा। उनकी कविताएं – “रुपयों का झाड़”, आंसुओं को बो रहा हूं”, ओ आने वाले तूफानों” और “पंडित, झूठी है चौपाई” आदि अत्यधिक पसंद की गईं। बाद में उन्होंने धर्म – आध्यात्म पर प्रवाहपूर्ण सहज सृजन किया जिसे बहुत पसंद किया गया।

प्रो. राजेन्द्र तिवारी जी का जन्म 9 सितंबर 1944 को हुआ था। इनके पिता देवी प्रसाद जी जबलपुर की पाटन तहसील के ग्राम जुग तरैया के मालगुजार थे। कुशाग्र बुद्धि राजेंद्र जी ने प्रारंभिक अध्ययन गांव में ही किया किंतु उनकी ज्ञान पिपासा उन्हें जबलपुर ले आई। यहां इन्होंने हिंदी और इतिहास में एम. ए. तथा एम.एड. किया। जबलपुर में ही रह कर अपने ज्ञान को लोगों में वितरित करने की बलवती भावना के कारण इन्होंने हितकारिणी महाविद्यालय में अध्यापन प्रारंभ कर दिया। आप बीएड कालेज के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। किशोर अवस्था से ही ऋषि जी कविता लिखने लगे थे। अनुभव से काव्य लेखन परिपक्व होता चला गया और आप चहुं ओर एक अच्छे कवि के रूप में पहचाने गए। “इक्कीसवीं सदी की ओर चलें”, “आपा”, “क्या कर लेगा कोरोना” और “श्रीकृष्ण काव्य” उनकी चर्चित कृतियां हैं।

“कृष्ण काव्य” की रचना में उन्होंने अलग अलग छंदों का प्रयोग किया है। अलंकारों का सौंदर्य तो देखते ही बनता है –

नज़रों पै चढ़ी ज्यों नटखट की,

खटकी – खटकी फिरतीं ललिता

कछु जादूगरी श्यामल लट की,

लटकी – लटकी फिरतीं ललिता

भई कुंजन में झूमा झटकी,

झटकी – झटकी फिरतीं ललिता

सर पै रखके दधि की मटकी,

मटकी – मटकी फिरतीं ललिता

और गोपियां निश्छल भाव से कान्हा से कहती हैं –

हम सांची कहैं अपनी हूँ लला,

हम आधे – अधूरे तुम्हारे बिना

मनमंदिर मूर्ति विहीन रहे,

रहे कोरे – कंगूरे तुम्हारे बिना

गोपियां कृष्ण को सिर्फ कान्हा के रूप में ही स्वीकार करते हुए कहती हैं –

तुम ईश रहौ, जगदीश रहौ,

हमें कुंज बिहारी सौं ताल्लुक है

हमको मतलब मुरलीधर सौं,

हमको गिरधारी सौं ताल्लुक है

शिक्षाविद्, साहित्यकार डॉ. अभिजात कृष्ण त्रिपाठी लिखते है कि “प्रो. राजेन्द्र तिवारी “ऋषि” उस साहित्य – सर्जक पीढ़ी के कवि हैं जिसने बीसवीं एवं इक्कीसवीं दोनों शताब्दियों की संधिबेला की साहित्यिक प्रवृत्तियों को पनपते, पुष्पित और फलित होते हुए देखा है।

महाकवि आचार्य भगवत दुबे के अनुसार ऋषि जी अपनी छांदस प्रतिभा की अनूठी एवं मौलिक छवि छटाओं से श्रोताओं को सर्वदा मंत्र मुग्ध करते रहे। दर्शनशास्त्री एवं साहित्यकार डॉ.कौशल दुबे के अनुसार “द्वापरयुगीन कृष्ण और उनसे जुड़े पात्रों को वर्तमान परिवेश के अनुरूप आज की प्रवृत्तियों और भाषा के अनुरूप ढालकर प्रो. ऋषि ने हिंदी साहित्य को एक महनीय और उच्चकोटी के साहित्य की सौगात दी है। बुंदेली लोकसाहित्य एवं भाषा विज्ञान के सुप्रसिद्ध विद्वान स्मृति शेष डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव के  अनुसार कवि राजेंद्र सर्वत्र ही नैतिकता को अपना टिकौना बना कर चले हैं। मानव प्रज्ञा ने सौंदर्य बोधक स्तरों को संतुलित रखने का कार्य किया है। यह संतुलन वाह्यारोपित न होकर आत्म नियंत्रित है। अंतर्मन की संवेदनशीलता कवि के रक्त गुण के रूप में प्रकट होकर अभिव्यक्ति को ग्राह्य बनती है।

प्रो. राजेन्द्र तिवारी “ऋषि” ने “मध्यप्रदेश आंचलिक साहित्यकार परिषद” का गठन कर ग्रामीण अंचल के साहित्यकारों को जोड़ने और  उनकी प्रतिभा को लोगों के सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। प्रदेश के अनेक क्षेत्रों में यह संस्था सक्रिय है। इसके माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों के अनेक साहित्यकारों को हिंदी साहित्य जगत में उचित स्थान और सम्मान प्राप्त हुआ। श्रेष्ठ साहित्य सृजन के साथ – साथ ग्रामीण क्षेत्र के प्रतिभाशाली साहित्य साधकों को प्रकाश में लाने के लिए प्रो.राजेन्द्र तिवारी “ऋषि” सदा याद किए जाएंगे।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 16 – – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 3 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

सौ. उज्ज्वला केलकर

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है सौ. उज्ज्वला केलकर जी का डॉ हंसा दीप जी के जीवन से जुड़े संस्मरणों पर आधारित एक आत्मीय दस्तावेज़ कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय । यह दस्तावेज़ तीन भागों में दे रहे हैं।) 

डॉ. हंसा दीप

☆  दस्तावेज़ # 16 – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 3 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

पर्व तीन

यहां से उसके जीवन का तीसरा पर्व आरंभ हुआ। यह पर्व आधुनिक तांत्रिक सुविधा-युक्त था। वह कहती है, ‘भीड़ में अपनी पहचान कायम करना यानी पुन: पहले चरण से आरंभ करना था। पुत्रियां आगे बढ़ रही थीं पर मेरी स्थिति विचित्र हो गयी थी। धार की यादें न्यूयार्क समान महानगर पर हावी हो रही थीं। हालांकि फोनपर कहा जाता, ‘यहां सब कुशल-मंगल है।’ जवाब मिलता, ‘यहां भी सब ठीक है।’ उसे लगता दूरस्थ रिश्तों की दूरी बढ़ती जा रही है। पुत्रियां बड़ी हो रही थीं। विदेश में उनके ब्याह के बारे में सोचने मात्र से डरलगता था। हंसा कहती है, ‘उन दिनों जो कहानियां उभरती थीं उन्हें कागज पर उकेर कर संजोकर रख देती थी। उन दिनों अनेक नौकरियों के प्रस्ताव आए। पर निश्चय कर रखा था कि जो भी कार्य करूंगी, हिंदी से संबंधित ही करूंगी। उस कारण राहें सीमित हो गयीं पर बंद न हुईं । उसके बाद न्यूयार्क के फ्लशिंग विभाग  में हिंदी पढ़ाना आरंभ हुआ । तब अनेक लोग उसे जानने लगे। यह पढ़ाना स्वयंसेवी अर्थात मानद, निशुल्क था। उसके बाद लोग उसे ‘हिंदी वाली दीदी’ कहने लगे। ‘भारत से दूर रहकर भी हिंदी पढ़ाकर मैं मातृभूमि से जुड़ी हुई हूं यह सोचकर मैं गर्व महसूस करती थी।‘ वो कहती है।

श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

उसे न्यूयार्क व न्यूजर्सी की काव्य-गोष्ठियों में श्री रामेश्वर अशांत, श्री राम चौधरी समान अनेक हिंदी प्रेमियों को निकट से जानने का अवसर मिला तथा वे उसके काम से परिचित हुए।

अगला पड़ाव था, टोरंटो। धर्म जी ने नौकरी त्याग कर टोरंटो में रहने का निर्णय लिया। पांच साल बाद भारत लौट पाएंगे और फिर धार महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक की नौकरी कर पाएंगे, उसकी इस आशा पर पानी फिर गया। 

फिर एक बार नया शहर, नया देश, नए लोग। कटे हुए वृक्ष के तने को नयी जमीन की तलाश आरंभ हो गयी। भाषा जीवित रखने के उद्देश्य से प्रेरित होकर दीपट्रांसइंक . की अध्यक्ष बनी और अनुवाद कार्य आरंभ किया। अनेक प्रसिद्ध हॉलीवूड फिल्म्स का हिंदी में अनुवाद किया। अनेक अंगरेजी फिल्मों के लिए हिंदी में सब टाइटल्स का भी अनुवाद किया।

इससे भाषा तो समृद्ध हो ही गयी, अनुवाद की चुनौतियां और उसका महत्व भी समझ में आ गया।

यार्क यूनिवर्सिटी में हिंदी कोर्स- डायरेक्टर बनकर हिंदी के क्लासेस आरंभ करना उसके लिए मील का पत्थर साबित हुआ । यार्क यूनिवर्सिटी में, टोरंटो के क्लास में खड़े रहकर पढ़ाते समय भारत के महाविद्यालय में पढ़ाने का स्मरण होना स्वाभाविक था। पर यहां के छात्रों के चेहरे देखकर लगता कि उन्हें कुछ आता नहीं है। ये भारत के बी ए , एम ए की क्लासेस नहीं हैं। यहां पदवी और पदव्युत्तर स्तर की हिंदी को बीगिनर्स के स्तर पर लाना था। समय की मांग के अनुसार अपने हिंदी-तर छात्रों के हितार्थ हिंदी को अंगरेजी माध्यम से समझाने लायक कोर्स-पैक का निर्माण उसे आवश्यक लगने लगा। बिगिनर्स और इंटरमीजिएट कोर्स के लिए दो साल के परिश्रम से उसने पुस्तकें और ऑडियो सीडी बनायीं।कैनेडियन विश्वविद्यालय में हिंदी के छात्रों के लिए अंगरेजी-हिंदी में पाठ्यपुस्तकें तैयार कीं।

इन अथक प्रयासों से उसका हिंदी-प्रशिक्षण का आत्मविश्वास अपने चरम पर पहुंच गया। समय को मानों पंख लग चुके थे। इसी बीच उसका ‘चशमें अपने-अपने’ कहानी-संग्रह प्रकाशित हो गया। इस कारण हर बार पेड़ के तने कट जाने के दुख के बीच ही उन्हें नयी उर्वरा भूमि प्राप्त होती गयी, उनपर फूल-पत्तियों की बहार आ गई,  वे फलों से लद गए।

वह कहती है, ‘चशमें अपने-अपने’ के प्रकाशित होने के बाद मेरे डैनों में कुछ और पर उग आए। उड़ान में गति आ गयी । उसके पश्चात ‘बंद मुट्ठी’ उपन्यास आ गया। बाद में ‘कुबेर’, ‘केसरिया बालम’ और ‘कांच घर’ ये उपन्यास प्रकाशित हुए। ‘बंद मुट्ठी’ का अनुवाद गुजराती में हो गया। घर गृहस्थी के साथ-साथ उसका रचना- संसार भी विस्तार पाता गया। बीच-बीच में ‘प्रवास में आसपास’, ‘शत प्रतिशत’, ‘उम्र के शिखर पर खड़े लोग’, छोड़ आए वो गलिया’, ‘चेहरों पर टंगीं तख्तियां’, ‘मेरी पसंदीदा कहानियां’, ‘टूटी पेंसिल’ आदि कहानी-संग्रह भी प्रकाशित होते रहे। इनमें की कहानियां प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थीं। उनमें से कुछेक के मराठी, पंजाबी, बांग्ला, अंगरेजी, तमिल, और उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में अनुवाद प्रकाशित हुए। ‘पूरन विराम तों पहिला’ यह कहानी-संग्रह पंजाबी में अनूदित हुआ। अमरजीत कौंके ने किया। चुनी हुई कहानियों के दो संग्रह मराठी में प्रकाशित हुए। ‘आणिशेवटी तात्पर्य’ तथा ‘ मन गाभार्यातीलशिल्पे।’ उज्ज्वला केळकर ने अनुवाद किया। इसके अलावा उसने लेख, नाटक, एकांकिका, रेडियो नाटक भी लिखे। अनेक पुस्तकों की भूमिकाएं लिखीं। सम्पादन किया। पर उसकी  सबसे प्रिय साहित्य-विधा है, कहानी। विश्वगाथा मासिक-पत्रिका के संपादक पंकज त्रिपाठी से साक्षात्कार में उसने कहा था, एक कथा-सूत्र के इर्दगिर्द बहुत कुछ बुना जा सकता है। आज के गतिमान युग में दो-सौ पृष्ठ का उपन्यास पढ़ने के लिए लगनेवाला समय और धैर्य पाठकों के पास नहीं होता। इस कारण बहुत-से उत्कृष्ट उपन्यास भी पढे नहीं जा सकते। हंसा के उपन्यास, कहानियां, साहित्यिक दृष्टिकोण आदि के संबंध में डॉ दीपक पाण्डेय एवं नूतन पाण्डेय, विजय तिवारी आदि ने भी लिखा है।

पिछले चार-छह सालों में हंसा के लेखन को सम्मानित, पुरस्कृत किया जाता रहा है। राष्ट्रीय निर्मल वर्मा पुरस्कार, पुरवाई कथा सम्मान, सर्वश्रेष्ठ कहानी- कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार, आदि सम्मान-पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। इनकी सूची लंबी है।

एक ओर लेखन का आलेख चढ़ता जा रहा था। वहीं दूसरी ओर अध्यापन भी जोर-शोर से शुरू था। विश्वविद्यालय की प्रचार-पुस्तिकाओं में हंसा की हिंदी कक्षाओं के फोटो छपे थे। सेंट जॉर्ज कैम्पस, स्कारबोरो कैंपस समान अनेक स्थानों पर हिंदी की कक्षाएं आरंभ हुईं और उसका काम चौपट हो गया। हर सत्र में उसने हिंदी के चार-चार कोर्स पढ़ाए।

इसी बीच हंसा को नातन हुई। कृति की कन्या, वान्या। और उसकी खुशी सातवें  आसमान पर पहुंच गयी। उसके बाद नवासा याविन, नातन- रिया। पुत्रियां शैली, कृति। दामाद सचिन और नवनीत, नाती, नातन -ऐसा उसका समृद्ध संसार है। जीवन साथी धर्मपाल तो सदा उसके साथ है हीं। इतना सब कुछ बढ़िया है। उसकी जीवन-कहानी सफल है, ऐसा कहने में कोई हर्ज नहीं । तथापि एक अफसोस है जो उसे सालता रहता है… ।

जीवन-यात्रा में उसे किसी से कोई शिकायत नहीं है। अफसोस नहीं है । अफसोस है तो खुद अपने बारे में ही। उसे लगता है, वह कहीं भी अपनी पहचान नहीं बना पायी। कोई भी देश उसे ‘अपना’ नहीं कहता। दुनिया की दृष्टि में वह विदेशी है, कैनडा के लोगों के लिए वह ‘भारतीय’ है। पर अपने देशवासियों के लिए भी वह विदेशी ही है, क्योंकि वह कैनडा में रहती है। हालांकि किसी के विदेशी कहने से कोई फर्क नहीं पड़ा है। न स्वाद बदला न स्वभाव। देश बदले। सरकारें बदलीं। नियम-कानून बदले। सरहदें बदल गयीं । नहीं बदला तो उस मिट्टी का अहसास जो आज भी वक्त-बेवक्त यादों के झोंकों से उसे हवा देकर आग में तब्दील कर देता है । वह तपिश कागज पर शब्दों के संजाल उकेरती  है।’ वह आगे कहती है, ‘इस लंबे जीवन के बदलते रास्तों पर पड़ाव तो कई थे लेकिन मुझे मसीहा मिलते रहे और कारवां चलता रहा ।’

♥♥♥♥

डॉ हंसा दीप

संपर्क –  22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 + 647 213 1817  ईमेल  – [email protected]

मूल लेखिका – सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो.  836 925 2454, email-id – [email protected] 

भावानुवाद  – श्री भगवान वैद्य ‘ प्रखर ‘

संपर्क – 30 गुरुछाया कालोनी, साईनगर, अमरावती 444607

मो. 9422856767, 8971063051

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 15 – – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 2 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

सौ. उज्ज्वला केलकर

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है सौ. उज्ज्वला केलकर जी का डॉ हंसा दीप जी के जीवन से जुड़े संस्मरणों पर आधारित एक आत्मीय दस्तावेज़ कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय । यह दस्तावेज़ तीन भागों में दे रहे हैं।) 

डॉ. हंसा दीप

☆  दस्तावेज़ # 15 – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 2 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

पर्व दो 

हंसा के जीवन का दूसरा पर्व आरंभ होता है, उसके विवाह से । उसके शब्दों में, ‘वहां शुरू में चिंता का सागर था।’ लकड़ियों के चूल्हे पर धुएं की जलन से आंखें मलते हुए भोजन पकाना। वह कहती है, ‘पहले दिन मैंने खाना पकाया, वह भोजन यानी फ्लॉप-फिल्म थी।’ उसे खाना पकाने की बिल्कुल आदत न थी। पढ़ाई, स्पर्धा, अन्य कार्यक्रम, दुकान का हिसाब-किताब। इनसे निबटते उसके पास खाना पकाने के लिए समय कहां था? पर ससुराल में आने के उपरांत उसके छोटे देवर, चंचल ने उसे घर के कामों में खूब सहायता की । साथ ही विवाह में  ‘जीवन में सदा साथ निभाने की कसम’ खानेवाले और उसका पालन करने वाले धर्मपाल जी उसे किसी मसीहा तरह लगे। सभी ने उसे प्यार किया। उस कारण नयी चीजें सीखना आसान हो गया और वह कठिन समय बहुत आसानी से कट गया, ऐसा उसे लगता है।

श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

धर्मपाल जी भी मेघनगर के ही। बचपन से लेकर कॉलेज की शिक्षा तक वे हंसा को देख रहे थे। पहचानते थे। वह उन्हें प्रिय लगती थी। वे भी उसे प्रिय थे। पर प्रत्यक्ष कहने की हिम्मत उन दिनों और उस पिछड़े देहात में कहां से होती? उसने अपनी निगाहों से ही अपनी पसंद को वाणी दी। धर्म जी ने उसके घर आकर अपनी बात रखी। उन दिनों उन्होंने अनेक विरह गीत लिखे और हसा को समर्पित किए ।

विवाह पूर्व दोनों परिवार परस्पर परिचित थे। उस कारण 1977 में उनका विवाह सहजता से सम्पन्न हो गया। उसके उपरांत हंसा छह माह संयुक्त परिवार में रही और एक दिन … धर्मपाल जी का तबादला उज्जैन हो गया।

उज्जैनी समान महानगर में अपनी नयी-नवेली गृहस्थी बसाने पर उसे लगा जैसे स्वर्गीय सुख प्राप्त हो गया। वह कहती है, ‘आगे चलकर इस धरती से इतना आत्मीय संबंध स्थापित हो गया कि आज भी मुंह से ‘मेरी उज्जैनी’ ही निकलता है। उसके बाद बैंक ऑफ इंडिया ने धर्म जी के साथ मध्यप्रदेश के अनेक शहरों की और गांवों की उससे  पहचान करा दी।

ऑफिस जाते समय धर्म जी उसे अपना आधा-अधूरा लेखन व्यवस्थित करके विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं को प्रेषित करने को कह जाते। उसीसे उसे अपने लेखन की प्रेरणा मिली। एक बार उसने एक कहानी लिखी और आकाशवाणी इंदौर को भेज दी। ‘पहले स्वीकृति-पत्र, फिर रेकॉर्डिंग की तारीख, उसके बाद मानदेय … बड़ा रोमांचक अनुभव था’ -वह कहती है।उसके बाद आकाशवाणी से बार-बार बुलावा आने लगा। उसने आकाशवाणी इंदौर और भोपाल के लिए नाटक भी लिखे। उसके लगभग 30 नाटक आकाशवाणी से प्रसारित हुए।इसी दौरान नई दुनिया, दैनिक भास्कर, स्वदेश, नवभारत , हिन्दी हेराल्ड, सारिका, मनोरमा, योजना, शाश्वतधर्म, अमिता समान अनेक सुप्रसिद्ध और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उसकी कहानियां प्रकाशित होने लगीं ।

हंसा कहती है, ‘समय के साथ तालमेल बिठाते हुए जीवन में आया हर बदलाव नया कुछ सीखने के लिए ही होता है ऐसा मैं महसूस करती हूं। धर्मा जी की नियुक्ति जीरापुर, खुजनेर, राजगढ़, ब्यावरा समान देहातों में हुई तब उससे लाभ ही हुआ। वह समूचा प्रदेश ‘सौंधवाड’ नाम से जाना जाता है। उसके पीएच-डी के गाइड डॉ बसंतीलाल बम ने उसे सौंधवाडी लोकसाहित्य पर काम करने के लिए कहा। एक मालवी भाषा-भाषी का सौंधवाडी बोलीपर काम करना उसे बड़ा रोमांचक लगा। इसी दौरान उसे कन्यारत्न की प्राप्ति हुई। शैला। एक ओर पुत्री की देखभाल और दूसरी ओर सौंधवाड़ी लोकगीत और लोककथा-संग्रह। दोनों काम साथ-साथ होने लगे। लोकगीत और लोककथा जुटाने वह पास-पड़ोस के गांवों में जाया करती। सात साल के अथक प्रयासों  के बाद उसे ‘सौंधवाड़ की लोकधरोहर’ इस विषय पर पीएच-डी मिल गयी। लोकगीत और लोककथा प्राप्त करते, उनकी खातिर गांवों में भ्रमण करते उसे अनेक कथानक मिले। मन की माटी में, वे तिजोरी में संग्रहीत खजाने की भांति रखे रहे। उसके बाद समय-समय पर वे अंकुरित हुए। डॉ बम उसके काम से बहुत प्रसन्न हुए।

पीएच-डी प्राप्त होने के पहले ही महाविद्यालय में हिंदी के सहायक प्राध्यापक के रूप में उसकी नियुक्ति हो गयी। उस समय उसे दो छोटी कन्याएं थीं। उन्हें तैयार करके स्कूल पहुंचाने के बाद वह कॉलेज जाती।  अपने मारवाड़ी परिवार में नौकरी करने वाली वह पहली ही बहू! सिरपर आंचल लेकर वह कॉलेज जाती। उस कारण ससुरालवालों को शिकायत का कभी मौका नहीं मिला। उसके लिए परम्पराएं अपनी जगह और काम अपनी जगह था। पहले-पहल कुछ छात्र ‘बहन जी’ कहकर उसे चिड़ाते। आगे चलकर सभी को उसकी आदत हो गयी।

आगे चलकर विदिशा, राजगढ (ब्यावरा) और धार महाविद्यालयों में अध्यापन का अनुभव प्राप्त हुआ। इस दौरान अनेक ख्यातनाम कवि, कहानीकार,विद्वानों के साथ काम करने का अवसर मिला। चर्चाएं होती रहीं । ‘उस कारण अनुभव- सम्पन्न होती रही’, ऐसा उनका कहना है।

अपनी पारिवारिक जिम्मेवारियों को दक्षतापूर्वक निभाते, अध्यापन का आनंद लेते, सहयोगियों से वैचारिक आदान-प्रदान करते हंसा का जीवन आनंद में व्यतीत हो रहा था कि धर्मा जी का तबादला न्यूयार्क हो गया। सब कुछ सुचारु के चलते वह सब छोड़कर, विदेश में सिरे से जीवन आरंभ करना था । फिर नयी बिसात बिछानी थी …।

क्रमशः… 

डॉ हंसा दीप

संपर्क –  22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 + 647 213 1817  ईमेल  – [email protected]

मूल लेखिका – सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो.  836 925 2454, email-id – [email protected] 

भावानुवाद  – श्री भगवान वैद्य ‘ प्रखर ‘

संपर्क – 30 गुरुछाया कालोनी, साईनगर, अमरावती 444607

मो. 9422856767, 8971063051

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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