सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 9 – संस्मरण#3
हमारी पीढ़ी ने अवश्य ही सख्त डाँट, मार खाई है और समय पड़ने पर जमकर कुटाई भी हमारी हुई है। संभव है इसमें लड़कियों की संख्या कम ही रही हो पर इस क्षेत्र के इतिहास में हमारा नाम स्वर्णाक्षरों में निश्चित ही लिखा गया है।
मैं अपने माता -पिता की चौथी संतान हूँ। मुझसे पहले दो बेटियों और एक बेटे को माँ जन्म दे चुकी थीं। मैं जब गर्भ में थी तो माँ ने संभवतः फिर बेटे की आस रखी होगी। माँ अक्सर कहती थीं कि मैं अगर लड़का होती तो वे मुझे आर्मी में भेज देतीं। तो निश्चित है गर्भावस्था में सपने भी बेटे को लेकर ही बुनी होंगी। पर दुर्भाग्य ही था कि मेरे रूप में पुत्री ने जन्म लिया। पर पुत्री स्वभाव और बर्ताव से पुत्र समान थी।
ख़ैर कुछ घटनाएँ जीवन में ऐसी घटी कि कूट-पीटकर मुझे सत्तू बना दिया गया पर हर पिटाई ने मेरे चरित्र और व्यक्तित्व को भी सँवार दिया।
घटना है 1960 की। मेरी उम्र थी चार वर्ष। हम कालिंगपॉग या कालिपुंग में रहते थे। यह पश्चिम बंगाल का पहाड़ी क्षेत्र है। बाबा रिसर्च साइंटिस्ट थे। बाबा अक्सर दार्जीलिंग और नाथुला पास अपने काम के सिलसिले में जाया करते थे।
उस दिन भी बाबा दार्जीलिंग गए हुए थे। कालिपुंग पहाड़ी शहर होने के कारण ठंड के दिनों में चार बजे के करीब वहाँ अँधेरा होने लगता है। बाबा घर लौट आए, देखा सब उदास बैठे हैं और माँ रो रही है। तीन बजे से मैं गायब थी। पड़ोसी मुझे ढूँढ़ने निकले थे। बाबा तुरंत कुछ और लोगों के साथ लाठी और बड़ा, लंबा टॉर्च लेकर बेचैनी से मुझे ढूँढ़ने निकले। हमारे घर से थोड़ी दूरी पर तिस्ता नदी बहती थी। दिन भर उसकी आवाज़ घर तक सुनाई देती थी। मैं उस दिन उसी आवाज़ के पीछे निकल गई थी।
बीच में एक घना जंगल था खास बड़ा नहीं था पर वहाँ अजगर और लकड़बग्घे काफी मात्रा में रहते थे। सबको इसी बात की चिंता और भय था कि अँधेरा हो जाने पर कहीं लकड़बग्घे मुझे उठा न ले जाए। तक़रीबन पौने पाँच के करीब हमारे पड़ोसी छिरपेंदा के पिता बहादुर काका मुझे गोद में उठाए घर ले आए।
मुझे माँ ने झट गोद में भर लिया होगा। खूब चूमा होगा, वात्सल्य ने आँसू बहाए होंगे। मैं तो अभी चार ही साल की थी तो घटना स्मरण नहीं। पर बाबा जब लौटे तो चार वर्ष की उस अबोध बालिका पर ऐसे बरसे मानो तिस्ता पर बना पुल टूटा हो और पानी सारा शहर में घुस आया हो! खूब मार पड़ी, बाबा कहते रहे, ” आर जाबी कखूनो तिस्ता नोदीर धारे?”
(अर्थात फिर जाओगी कभी तिस्ता नदी किनारे) मैं तो भारी मार खाकर रो- रो कर सिसकती हुई सो हो गई। रात को अचानक मैं नींद में ही बाबा की छाती पर बैठ गई और उन्हें खूब मारा और कहती रही ” आर जाबी कखूनो तिस्ता नोदीर धारे?” मैं तो नींद में थी पर बाबा समझ गए कि मेरे कोमल हृदय पर उनकी मार का गहरा सदमा था। माँ कहती थीं कि बाबा रात भर मुझे अपनी छाती पर चिपकाकर सिसकते रहे। मुझे तो घटना स्मरण नहीं पर हाँ यह घटना कईबार हमारे घर में चर्चा का विषय रहा और मैं टारगेट।
उस घटना की बारंबार चर्चा ने मेरे मन पर एक अमिट बात की छाप छोड़ी है और वह है मैं आज भी बिना बताए कहीं नहीं जाती हूँ। घर में सबको पता होता है कि माँ इस वक्त कहाँ है। हमारी बेटियों को भी यही आदत है और नाती और नतिन भी सीख गए।
दूसरी बार मेरा भुर्ता बनाया गया था जब मैं नौ-दस दस वर्ष की थी। उन दिनों गुलैल मारना सीख ही रही थी कि दादा के मित्रों के कहने पर गुलैल मारकर पड़ोसी आजोबा के घर आँवले तोड़ने निकली थी और उनके घर के झरोखे का काँच तोड़ दिया था। आजोबा ने बाबा से शिकायत की तो जो मार पड़ी उसे याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शायद रुई भी उस तरह से नहीं धुनें जाते!
आजकल बलबीर के साथ जब टीवी पर WWE का खेल देखती हूँ तो मन-ही-मन प्रसन्न भी होती हूँ कि उस छोटी- सी उम्र में मेरे भीतर मार खाने की प्रचंड क्षमता भी थी। मार सहन करना भी बड़ी ताकत की बात है!यह सबके लिए संभव नहीं। इसके लिए अदम्य साहस, शक्ति, मनोबल की आवश्यकता होती है।
उस घटना के बाद मैं किसी के कहने में नहीं आती। जब तक मैं बात को परख न लूँ, जाँच न लूँ, मैं कन्विंस न हो जाऊँ तब तक मैं किसी बात को स्वीकार नहीं करती। इसके कारण एनालाइज करने की क्षमता बढ़ गई। कहते हैं न मुँह का जला छाछ भी फूँक-फूंँककर पीता है। साथ ही मैं मित्रता और उससे घनिष्ठता भी खूब परखकर ही करती हूँ।
एक और घटना स्मरण हो आया 1974 की। मैं फर्ग्यूसन कॉलेज में बी.ए पढ़ रही थी। गणेशखिंड रोड पर माता आनंदमयी का आश्रम है, मैं वहीं से बस पकड़ती थी। पिताजी के एक कलीग सुबह 6.30 बजे सैर करने निकलते थे। उन्हें मैं नहीं पहचानती थी। वे रोज़ मुझसे बातें करते, इधर – उधर की बातें! मैं अभी सत्रह वर्ष की ही थी। माँ का आदेश था किसी अनजान व्यक्ति से बातचीत नहीं करना। पर ये सज्जन तो कुछ ज्यादा ही स्नेह बरसाने लगे। दूसरे दिन मैं एन.सी.सी.के गणवेश में थी। रविवार था, मैं परेड के लिए जा रही थी। सज्जन फिर आए और बात करने की कोशिश करने लगे। जब मैं न बोली तो पूछे नाराज़ हो! मुझे आया गुस्सा, मैंने तपाक से कहा कि, मैं अपरिचित व्यक्ति से बात नहीं करती। तो वे रोज की मुलाकात की बात कहने लगे। मैंने भी कड़क आवाज़ में कहा कि, ” आप शायद रोज़ मेरी जुड़वाँ बहन से मिलते हैं। मैं आपको नहीं जानती। ” उस दिन तो छुटकारा मिल गया।
दो दिन बाद बाबा रौद्र रूप धरकर दफ्तर से घर आए और मुझसे सवाल करने लगे कि मैंने जुड़वाँ बहन की बात उनके कलीग श्री हेगड़े से क्यों कही। झूठ बोलने के कारण दो चार थप्पड़ पड़े, खूब डाँट पड़ी। फिर माँ ने बाबा को मेरे झूठ बोलने की बाध्यता का कारण समझाया कि मैं उस व्यक्ति का रोज़ बस स्टॉप पर मिलने आने से तंग आकर छुटकारा पाना चाहती थी। तो बाबा ने मुझे बुलाकर प्यार किया और सॉरी भी कहा। (जीवन में आगे चलकर मेरी धुनाई करनेवाले मेरे बाबा मेरे सबसे अच्छे दोस्त साबित हुए। जरावस्था में वे हेरी ही सलाह लिया करते थे। )
इस उम्र में सेल्फडिफेंस की अक्ल आ गई थी। साथ मार खाकर कभी झूठ न बोलने का प्रण भी किया। बाबा के सॉरी कहने पर, दूसरों से क्षमा माँगना भी सीख लिया।
1977 में जब बलबीर मेरा हाथ माँगने घर आए ( वे मेरे बाल सखा हैं) तो बाबा ने उनसे कहा था, ” तलवार की धार है यह, संभाल सकोगे?” बलबीर ने कहा था, ” ढाल बना लूँगा मैं इसे, आप देख लेना। “
फिर विवाह के बाद ढाल बनकर परिवार की देखरेख में मैं पूरी तरह तैनात हो गई। ससुराल में खूब सम्मान और स्नेह मिला। ढाल बनते – बनते मेरा व्यक्तित्व ही बदल गया। शरारतें जिंदगी की न जाने किस झरोखे से काफ़ुर हो गईं। सहन शक्ति, मुसीबतों का सामना करने की क्षमता, न लड़ने – झगड़ने की वृत्ति, असत्य से घृणा आदि सब कुछ न जाने व्यक्तित्व में कहाँ से समा गए।
आज लिखने बैठी तो ध्यान आ रहा है कि वह मार, वह कुटाई, वह डाँट सब भलाई के लिए ही तो थे। जीवन अनुशासित और मूल्यों से भर गया।
यह भी सच है कि अपने अतीत के उन पलों को याद कर सच्चाई बयान करने के लिए भी साहस चाहिए जो बाबा ने कूट-कूट कर मुझ में भर दिया था।
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