(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे।
इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 97 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 3 ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है महावीर जयंती पर आपकी एक कविता “जैन धर्म में है बसा…” ।आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 171 – महावीर जयंती विशेष – जैन धर्म में है बसा… ☆
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री प्रगति गुप्ता जी द्वारा लिखित कथा संग्रह “कुछ यूं हुआ उस रात” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 176 ☆
☆ “कुछ यूं हुआ उस रात” – लेखिका … सुश्री प्रगति गुप्ता ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
कहानी संग्रह … “कुछ यूं हुआ उस रात”
लेखिका … सुश्री प्रगति गुप्ता
प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली
पृष्ठ १३८
मूल्य २५० रु
आई एस बी एन ९७८९३५५२१८७२८
चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी, भोपाल
“कुछ यूं हुआ उस रात” प्रतिष्ठित तथा अनेक स्तरों पर सम्मानित कथाकार प्रगति गुप्ता की १३ कहानियों का संग्रह है। आधुनिक समाज में मानवीय संबंधों की जटिलताओं को उजागर करती प्रतिनिधि कहानी “कुछ यूं हुआ उस रात” को पुस्तक का शीर्षक दिया गया है। “यह शीर्षक स्वयं में एक रहस्य और अनिश्चितता का संकेत देता है। यह कहानी तिलोत्तमा नामक पात्र के इर्द-गिर्द घूमती है, जो रात को फोन पर एक लड़की से बात करती है। यह बातचीत उसके लिए एक तरह का आधार बन जाती है, जो उसके अकेलेपन को कम करने में मदद करती है। हालांकि, एक दिन वह पाती है कि उस लड़की का फोन बंद है, और वह सोचने लगती है कि क्या वह लड़की वास्तविक थी या केवल उसकी कल्पना का हिस्सा थी। यह घटना तिलोत्तमा को भावनात्मक रूप से विचलित करती है। कहानीकार ने नायिका के मनोभावों को गहराई से चित्रित करने में सफलता अरजित की है। जिससे पाठक मन कहानी की विषयवस्तु सेजुड़ जाता है। अकेलेपन और संबंधों की तलाश से जूझता आज का महानगरीय मनुष्य तकनीक का उपयोग करके अपने अकेलेपन को कम करने की कोशिश करता दिखता है। हाल ही भुगतान के आधार पर मन पसंद वर्चुअल पार्टनर मोबाईल पर उपलब्ध करने के साफटवेयर विकसित किये गये हैं। यह थीम आज के डिजिटल युग में बहुत प्रासंगिक है। आधुनिकता की चकाचौंध में लोग इतने एकाकी हो गये हैं कि मनोरोगी बन रहे हैं। आत्मीयता की तलाश तथा सच्चे संबंधों तक तकनीक से तलाश रहे हैं। कहानी में फोन को एक ऐसे माध्यम के रूप में दिखाया गया है जो संबंध बनाने में मदद करता है, लेकिन उसे टिकाऊ बनाने में असमर्थ होता है। इसी थीम पर मैने एक कहानी रांग नम्बर पढ़ी थी।
तिलोत्तमा के चरित्र के माध्यम से लेखिका ने भावनात्मक संवेदनशीलता को बड़ी सूक्ष्मता से चित्रित किया है। उसका द्वंद्व और असमंजस पाठकों के मन में गहरा प्रभाव छोड़ता है, और कहानी को विचारोत्तेजक रचना बनाता है।
प्रगति गुप्ता की लेखन शैली सरल और प्रभावशाली है। उनकी भाषा में सहजता है जो पाठकों को कहानियों के कथानक से जोड़ने में मदद करती है। अभिव्यक्ति संवादात्मक और प्रवाहमय शैली में है। वे कहानियों में सकारात्मक प्रासंगिक थीम्स उठाती है और पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है। यह कहानी संग्रह पिछली पीढ़ी के प्रेमचंद जैसे पारम्परिक ग्रामीण परिवेश के लेखकों की कहानियों से तुलना में अधिक आधुनिक और तकनीक-केंद्रित प्रतीत होता है। संग्रह में “कुछ यूं हुआ उस रात” केअतिरिक्त, अधूरी समाप्ति, कोई तो वजह होगी, खामोश हमसफर, चूक तो हुई थी, टूटते मोह, पटाक्षेप, फिर अपने लिये, भूलने में सुख मिले तो भूल जाना, वह तोड़ती रही पत्थर, सपोले, समर अभी शेष है, और कल का क्या पता शीर्षक से कहानियां संग्रहित हैं जो एक अंतराल पर रची गई हैं। कहानियों के शीर्षक ही कथावस्तु का एक आभास देते हैं। प्रगति गुप्ता मरीजों की काउंसलिंग का कार्य करती रही हैं, अतः उनका अनुभव परिवेश विशाल है। उनके पास सजग संवेदनशील मन है, अभिव्यक्ति की क्षमता है, भाषा है, समझ है अतः वे उच्च स्तरीय लिख लेती हैं। उन्हें वर्तमान कहानी फलक पर यत्र तत्र पढ़ने मिल जाता है। चूंकि वे अपनी कहानियों में पाठक को मानसिक रूप से स्पर्श करने में सफल होती हैं अतः उनका नाम पाठक को याद रहा आता है। उनके नये कहानी संग्रहों की हिन्दी कथा जगत को प्रतीक्षा रहेगी।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक अप्रतिम एवं विचारणीय लघुकथा “स्नेह का साहित्य”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 224 ☆
🌻लघुकथा🌻 स्नेह का साहित्य
आजकल पूरी जिंदगी पढ़ते-पढ़ाते, सीखते-सीखाते निकलती है। जिसे देखो पाने की चाहत, सम्मान की भूख, और मीडिया में बने रहने की ख्वाहिश।
पारिवारिक गाँव परिवेश से पढ़ाई करके अपने आप को कुछ बन कर दिखाने की चाहत लिए, गाँव से शहर की ओर वेदिका और नंदिनी दो पक्की सहेली चल पड़ी अपनी मंजिल की ओर।
हॉस्टल की जिंदगी जहाँ सभी प्रकार की छात्राओं से मुलाकात हुई। परन्तु दोनों बाहरी वातावरण, चकाचौंध से दूर, सादा रहन-सहन, पहनावे में भी सादगी, बेवजह खर्चो से अपने आप को बचाती दोनों अपने में मस्त।
साहित्यकार बनने की इच्छा। इस कड़ी में जगह-जगह से साहित्यकारों का साक्षात्कार एकत्रित करती फिरती थी। चिलचिलाती धूप, न टोपी, न काला चश्मा और न ही छाता।
आटो में बैठते वेदिका बोल उठी — “नंदिनी हम जहाँ जा रहे हैं। बहुत दूर है। रास्ता भी ठीक से नहीं मालूम। सुना है साहित्यकार समय के बड़े पाबंद होते हैं। शब्दों में ही सुना देते हैं। पानी भी नहीं मिलता। क्या हम लोगों को संतुष्टी मिल पायेगी?”
आटो वाले ने अनजान लोगों का फायदा उठा अचानक एक जगह पर उतार कहने लगा — “बस यहाँ से आप पैदल निकल जाए वो रहा उनका घर।”
सभी से पूछने पर पता चला– ये तो वो जगह है ही नहीं। दोनों को समझ में आ गया हम रास्ता भटक चुके हैं।
समय से विलंब होता देख साहित्यकार का मोबाइल पर कॉल आया — “कहाँ हैं आप लोग?” घबराहट से बस इतना ही बोल पाई वेदिका – -“हमें नहीं मालूम मेडम हम कहाँ हैं। सभी – अलग-अलग बता रहे हैं।”
“जहाँ खड़े हो वही खड़े रहिए। किसी होटल या चौक का नाम बताओ। मै आ रही हूँ।” दोनों मन में न जाने क्या- क्या सोच रही थी।
अचानक टूव्हीलर रुकी – – “आप दोनों ही हो। चलो गाड़ी में बैठो। घर में बात होगी।”
चुपचाप गाड़ी में बैठी – – ममता, अपनापन, दुलार और नेह की बरसात होते देख दोनों का ह्रदय साहित्य के प्रति और गहरा होता चला गया। शब्दों से साहित्य को सजते सँवरते देखा था।
आज तो वेदिका, नंदिनी की आँखे भर उठी, नेह, ममत्व, ममता से भरा साहित्य निसंदेह समाज को सुरक्षित और सम्मानित करता है।
कड़कती धूप भी आज उन्हें माँ के आँचल की तरह सुखद एहसास करा रही थी।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक मनोवैज्ञानिक एवं विचारणीय कथा – ‘जानवर’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 284 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ जानवर ☆
रोज़ की तरह सवेरे सवेरे ही केदार दादा घर का दरवाज़ा खोलकर बरामदे में बैठ गये। सामने सड़क पर लोगों का आना-जाना चल रहा था। खरखराते हुए हल, ढचर-ढचर करती बैलगाड़ियां,चंगेर में बच्चों को लिए, उंगलियों से अंग्रेज़ी का अक्षर ‘वी’ बना कर उसके बीच में इधर-उधर देखती घूंघटवाली औरतें— सब अपने अपने काम पर जा रहे थे। केदार के सामने आने पर लोगों का उनसे ‘राम राम’ का आदान-प्रदान होता।
केदार की नींद सवेरे चार बजे ही खुल जाती है। वे लेटे-लेटे करवटें बदलते बाहर सड़क पर होने वाले तरह-तरह के शब्द सुनते रहते हैं—चमरौधे जूतों की चर्रमर्र, हलों की खरखराहट, गुज़रते हुए लोगों के बतयाने की आवाज़ें, बाहर घास पर मुंह मारते मवेशियों की चभड़-चभड़। पांच बजे सवेरे से पास के मन्दिर में ऊंचे स्वर में भगवत लाल का भजन शुरू हो जाता है। भगवत लाल दस साल से भी अधिक समय से यह काम समर्पित होकर कर रहा है।
जब अंधेरा बिल्कुल सिमट जाता है तब केदार बाहर निकल कर तख्त पर बैठ जाते हैं। इसी तरह बहुत वक्त गुज़र जाता है। जब पुन्नू घोसी दूध दे जाता है तभी भीतर जाकर चाय बनाते हैं और पीकर बाहर बैठ जाते हैं।
एकाएक उनका पालतू बिल्ली का बच्चा भीतर से रेंगकर बाहर आया और उनके पैरों के पास खड़े होकर उनके मुंह की तरफ मुंह उठाकर ‘म्याऊं म्याऊं’ करने लगा। यह बच्चा बिलौटा था, यानी नर। वह काले और सफेद रंग का बहुत प्यारा लगने वाला बच्चा था। जब वह केदार की तरफ मुंह उठाकर चिल्लाता तो ऐसा लगता जैसे कोई बच्चा शिकायत कर रहा हो।
केदार उसकी तरफ झुक कर प्यार से बोले, ‘कहो सीताराम, भूख लग आयी? थोड़ा रुको, दूध आता ही होगा।’
बिलौटा थोड़ी देर तक इसी तरह चिल्लाता रहा, फिर कूद कर उनकी गोद में चढ़ गया और उनकी जांघ पर सर रखकर आराम से ऊंघने लगा। केदार उसके मखमल से शरीर पर हाथ फेरने लगे।
केदार घर में अकेले रहते हैं। पत्नी की आठ साल पहले मृत्यु हो गयी थी। थोड़ी सी ज़मीन है जो बटाई पर दे देते हैं। एक बेटा है जो भोपाल में प्रोफेसर है। शादीशुदा है, तीन बच्चों का बाप। दो बेटियां हैं जो अच्छे घरों में चली गयी हैं। बेटा सत्यप्रकाश साल में एकाध बार ही घर आता है। उसके बच्चे अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ते हैं। इसलिए होता यह है कि जब बाप को छुट्टी मिलती है तब बच्चों को नहीं मिलती, और जब बच्चों को दिसम्बर में बड़े दिन की छुट्टी मिलती है तब बाप को नहीं मिलती। वही गर्मी की छुट्टी में आठ दस दिन के लिए आना हो पाता है, वह भी अनिश्चित। कुछ ऐसा भी लगता है कि सत्यप्रकाश का मन अब गांव में नहीं लगता, इसलिए वह किसी न किसी बहाने अपना आना टालता रहता है।
पहले यह होता था कि सत्यप्रकाश कह देता कि वह अमुक महीने में आएगा और केदार दादा दिन गिनना शुरू कर देते। बताया हुआ महीना आने पर वे रोज़ शाम को बस अड्डे पर बैठ जाते और रात दस बजे तक बैठे रहते। उनकी नज़र हर बस को व्यग्रता से छानती रहती। अन्त में वे उदास चेहरे से घर लौट आते। फिर जब सत्यप्रकाश आता तो वे उसे उलाहना देते।
सत्यप्रकाश के दो बेटे और बीच में एक बेटी थी। बेटे आठ और तीन साल के और बेटी पांच साल की थी। केदार के प्राण उन बच्चों में लगे रहते। जब बच्चे आ जाते तो वे बहुत खुश रहते। उनकी उंगली पकड़कर उन्हें सारे गांव में घुमाते। छोटे अरुण की अटपटी बातों के जवाब वैसी ही अटपटी भाषा में देते। घर में जो भी आदमी आता उससे बच्चों के बारे में ही बात करते। केदार दादा के वे दस बारह दिन जैसे पंख लगाकर उड़ जाते।
जब बच्चे चले जाते तो केदार बहुत उदास हो जाते। उनके जाते वक्त बस-अड्डे पर केदार की आंखें भर भर आतीं। वे खड़े-खड़े चेहरा इधर-उधर घुमाते रहते। बच्चे निस्पृह भाव से ‘टाटा’ करते हुए चले जाते और केदार के लिए घर तक पहुंचना मुश्किल हो जाता। दो तीन दिन तक उन्हें खाने-पीने इच्छा न होती। वे मुंह लटकाये तख़्त पर बैठे रहते। कोई मिलने वाला आता तो बार-बार कहते— ‘बच्चों की याद आ रही है।’ वे महीनों तक बच्चों की शरारतों और उनके भोलेपन की चर्चा करते रहते।
तीन चार बार केदार शहर जाकर बेटे के घर में रहे थे। उन्होंने सोचा था वहां बच्चों के साथ मन लगा रहेगा। लेकिन वहां पहुंचकर उन्हें लगता जैसे वे अपने स्वाभाविक वातावरण से टूट गये हों। उन्हें लगता जैसे वे बिलकुल फालतू और बाहरी आदमी हों। सब अपने अपने काम में लगे रहते और वे पलंग पर करवट बदलते रहते या बरामदे में कुर्सी पर बैठे इधर-उधर ताकते रहते।बच्चे भी उनके पास बैठने के बजाय अपने साथियों के साथ खेलना पसन्द करते। मुहल्ले में उनको अपने प्रति उदासीनता और रुखाई का भाव नज़र आता। एक दो बुजुर्गों के साथ उठना-बैठना हो जाता था, लेकिन वहां भी उन्हें आराम और निश्चिंतता महसूस न होती। वे मुहल्ले की सड़क पर निरुद्देश्य घूमते रहते और मुहल्लेवालों की उपेक्षापूर्ण नज़रों के सामने सिकुड़ते रहते।
जब वे वापस अपने गांव लौटते तो उन्हें लगता जैसे मन और शरीर के सब तार फिर ढीले हो गये हैं। बस से उतरते ही उन्हें लगता जैसे गांव ने अपने दोनों हाथ बढ़ाकर उन्हें गले से लगा लिया हो और उनके मन से एक बोझ उतर गया हो। गांव पहुंचकर वे प्रोफेसर चतुर्वेदी के बाप होने के बजाय केदार दादा हो जाते और यह फर्क उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाता।
वह बिलौटा पिछली गर्मियों में केदार के घर में आया था जब सत्यप्रकाश बच्चों के साथ आकर जा चुका था। तब हमेशा की तरह केदार बहुत मायूस थे। वे रात को घर के आंगन में चुपचाप लेटे आकाश के तारों को देखते रहते। किसी काम में उनका मन न लगता।
ऐसे ही जब एक शाम को केदार भीतर खंभे से टिके खामोश ज़मीन पर बैठे थे तब प्यारेलाल सेठ का छोटा लड़का विजय उस बिलौटे को लिये आया। बोला, ‘ दादाजी, इसे रख लो। कोई कुत्ता वुत्ता मार डालेगा।’
केदार बोले, ‘तू अपने घर क्यों नहीं ले जाता?’
वह बोला, ‘दद्दा गुस्सा होंगे। अम्मां से पूछूंगा। वे कह देंगीं तो ले जाऊंगा।’
केदार बोले, ‘इस दलिद्दर को मैं कहां रखूंगा? हग-मूत कर सारा घर खराब करेगा।’
विजय बोला, ‘आप अभी रख लो, दादाजी। फिर मैं ले जाऊंगा।’
केदार बोले, ‘ठीक है। छोड़ जा। एक से दो भले।’
केदार ने बिलौटे को एक कोने में बांध दिया। उसके सामने एक कटोरी में दूध रख दिया। वह उसे पीने लगा। अकेला पड़ जाने पर वह ज़ोर से चिल्लाने लगता। केदार के नज़दीक आने पर चुप होकर एक तरफ दुबक जाता। रात को केदार ने उसे कोठरी में एक बोरा बिछाकर उस पर बैठा दिया और बाहर से सांकल चढ़ा दी। विजय फिर उसे नहीं ले गया। दूसरे दिन वह बता गया कि उसके दद्दा बिलौटे को रखने के लिए तैयार नहीं हैं। वह बोला, ‘अब आपको रखना हो तो रखे रहो, नहीं तो जैसा ठीक समझो करो।’ केदार ने बिलौटे को अपना लिया।
धीरे-धीरे उन्हें बिलौटे की क्रियाओं में आनन्द आने लगा। वह घर में पड़ी चीज़ों से अपने आप ही खेलता रहता। लुढ़कने वाली चीज़ों को धक्का देकर उनके आगे-पीछे भागता रहता। चींटियों को देखकर वह कूद-कूद कर उन्हें पकड़ता। केदार दूर बैठे उसकी शरारतों का मज़ा लेते रहते ।
धीरे-धीरे वह उन्हें बहुत प्यारा लगने लगा। उसकी हरी-नीली आंखें, छोटा सा मुंह और छोटे-छोटे पंजे बहुत अच्छे लगते। धीरे-धीरे बिलौटे का डर भी दूर होने लगा और वह केदार को अपने रक्षक के रूप में पहचानने लगा। अब वह भूखा होने पर केदार के पास आकर मुंह उठाकर चिल्लाने लगता। केदार हंसकर उसे दूध लाकर देते।
सबसे बड़ी बात यह हुई कि बिलौटे ने केदार के मन की सारी उदासी छांट दी। केदार घर में आते ही उसके साथ व्यस्त हो जाते, उसकी उछलकूद और शिकायतों का मज़ा लेते रहते। बिलौटे ने उनके जीवन की रिक्तता भर दी। उनके कहीं बैठते ही वह उछलकर उनकी गोद में आ जाता और आंखें बन्द करके सोने की मुद्रा बना लेता। अब रात को केदार अपनी खाट की बगल में ही उसे एक बोरी पर बैठा कर टोकरी से ढंक देते। गांव में कहीं जाने पर वे अक्सर उसे अपनी बांहों में लिये रहते। उनके परिचित कहते, ‘बुढ़ापे में अच्छी माया में फंस गए तुम।’
केदार जवाब देते, ‘क्या करें? जब तक जीवन है तब तक कुछ सहारा तो चाहिए।’
अगली गर्मियों में फिर सत्यप्रकाश हर साल की तरह बतायी हुई तारीख से दस दिन देर से आया। लेकिन इस बार केदार को ज़्यादा परेशानी नहीं हुई। वे सीताराम को अपनी गोद में लेकर बस-स्टैंड जाते और आखिरी बस देखकर लौट आते। अब उन्हें पहले जैसी उदासी महसूस नहीं होती थी।
अन्ततः सत्यप्रकाश बच्चों के साथ हमेशा की तरह अपराधी भाव लिये हुए आया। बच्चों से मिलकर केदार बहुत खुश हुए। लेकिन सत्यप्रकाश को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने इस बार उसके सामने शिकायतों का पिटारा नहीं खोला।
वे बच्चों की उंगली थाम कर गांव में घूमते, लेकिन उनकी गोद में सीताराम बैठा रहता। बच्चों को भी यह खिलौना पाकर बहुत खुशी थी। वे उसके साथ दिनभर खेलते-कूदते रहते, उसकी क्रियाओं का मज़ा लेते रहते। लेकिन केदार भी दूर से उन पर नज़र रखते। बिलौटे के प्रति थोड़ी सी क्रूरता होते ही वे बच्चों को मना कर देते।
वे कहीं से घूमघाम कर लौटते तो बहू से पूछते, ‘बेटा, सीताराम को दूध दे दिया था न?’ खाने के लिए बैठते तो फिर यही पूछताछ कर लेते। कहीं से देर से लौटते तो इत्मीनान कर लेते कि बिलौटा घर में ठीक-ठाक है या नहीं।
बहू संध्या ससुर का यह नया मोह देखकर उनका मज़ाक उड़ाने लगी थी। वह अपने पति से कहती, ‘देखना तुम्हारा छोटा भाई कहां है? लगता है आपके छोटे भाई साहब को भूख लगी है।’
सत्यप्रकाश हंसकर चुप हो जाता।
आठ दस दिन बाद फिर सत्यप्रकाश ने जाने की तैयारी की। हमेशा की तरह वह अपराध भाव से ग्रसित होकर बार-बार पिता के चेहरे की तरफ देखता, क्योंकि उसके जाते वक्त पिता की जो हालत होती थी उसे वह जानता था। लेकिन इस बार उसे पिता के चेहरे पर पहले जैसी उदासी दिखायी नहीं पड़ रही थी। इस बात से उसे आश्चर्य भी हुआ और संतोष भी।
जिस दिन वे जाने वाले थे उस दिन ही केदार एकाएक परेशान हो गये। वजह यह थी कि उस सवेरे अरुण एकाएक उनसे बोला, ‘दादाजी, हम सीताराम को अपने साथ ले जाएं ? हम उसके साथ खेलेंगे।’
केदार यह सुनकर बहुत परेशान हो गये। हड़बड़ाकर बोले, ‘नहीं बेटा, हम तुम्हारे लिए दूसरा बिल्ली का बच्चा ढूंढ देंगे। सीताराम को मत ले जाओ। हम इससे भी अच्छा तुम्हें लाकर देंगे।’
अरुण ने दो-तीन बार और उनसे आग्रह किया, लेकिन केदार के मुंह से ‘हां’ नहीं निकला। अन्ततः अरुण चुप हो गया। इस बात पर संध्या मन ही मन ससुर से क्रुद्ध हो गयी।
जब केदार सबको छोड़ने चलने लगे तो उन्होंने सीताराम को सावधानी से कमरे में बांध दिया।
बस-अड्डे पर सबके बस में बैठ जाने पर वे नीचे खड़े रहे। उनके अधिक उद्विग्न न होने के कारण सत्यप्रकाश भी प्रसन्न था।
बस चलने को ही थी। एकाएक अरुण को शरारत सूझी। वह खिड़की से झांककर चिल्लाकर बोला, ‘ देखिए दादाजी, हम सीताराम को चुपचाप ले आये।’
सुनते ही केदार लपक कर बस में चढ़ गये और अरुण की सीट के पास जाकर झांक-झांककर पूछने लगे, ‘कहां है? कहां है?’
अरुण ताली बजा-बजाकर हंसने लगा, ‘दादाजी बुद्धू बन गये। दादाजी बुद्धू बन गये।’
केदार खिसियानी हंसी हंसकर अरुण का गाल थपककर नीचे उतर आये। संध्या ने व्यंग्य से पति की तरफ देखा और सत्यप्रकाश ने कुछ लज्जित भाव से अपनी नज़र दूसरी तरफ घुमा ली।
बस स्टार्ट होकर चल दी। बच्चे दूर तक खिड़की में से हाथ हिलाते रहे और केदार प्रत्युत्तर में हाथ हिलाते रहे। इसके बाद वे घूमकर सधे कदमों से घर की तरफ चल दिये।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– शापित मातृत्व…” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ — शापित मातृत्व… —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
माँ अपनी बेटी को दामाद के हाथों मार से बचाने के लिए रोते कलपते वहाँ पैसे पहुँचाती थी। अपना बेटा भी तो दुष्ट ही था। अपनी दुखी बहू के कहने पर उसकी माँ रोते कलपते उसके घर पैसा लाती थी। बाद में दोनों माएँ भीख मांगते रास्ते पर मिलीं। इस शापित मातृत्व पर कहानी लिखना लेखक को बहुत जरूरी लगा। उसने दोनों माँओं को सौ सौ का एक एक नोट दे कर उन से यह कहानी खरीदी।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 284 ☆ पुनरपि जननं पुनरपि मरणं…
श्मशान में हूँ। देखता हूँ कि हर क्षेत्र की तरह यहाँ भी भारी भीड़ है। लगातार कोई ना कोई निष्प्राण देह लाई जा रही है। देह के पीछे सम्बंधित मृतक के परिजन और रिश्तेदार हैं।
दहन के लिए चितास्थल खाली मिलना भी अब भाग्य कहलाने लगा है। दो देह प्रतीक्षारत हैं। कुछ समय बाद दो खाली चितास्थलों पर चिता तैयार की जाने लगी हैं। मृतक के परिजन और रिश्तेदार केवल ज़बानी निर्देश तक सीमित हैं। सारा काम तो श्मशान के कर्मचारी कर रहे हैं।
पुरोहित अंतिम संस्कार कराने में जुटे हैं। हर संस्कार की भाँति यहाँ भी उनसे शॉर्टकट की अपेक्षा है। मृतक के पुत्र, पौत्र, निकटवर्ती अपने केश अर्पित कर रहे हैं। उपस्थित लोगों में से अधिकांश के चेहरे पर घर या काम पर जल्दी जाने की बेचैनी है। ज़िंदा रहने के लिए महानगर की शर्तें, संवेदनाओं को मुर्दा कर रही हैं। इन मृत संवेदनाओं की तुलना में मरघट मुझे चैतन्य लगता है। यूँ भी देखें तो महानगरों के मरघट की अखंड चिताग्नि ‘मणिकर्णिका’ का विस्तार ही है।
मानस में जच्चा वॉर्ड के इर्द-गिर्द भीड़ का दृश्य उभरता है। अलबत्ता वहाँ आनंद और उल्लास है, चेहरों पर प्रसन्नता है। प्रसूतिगृह में जीव के आगमन का हर्ष है, श्मशान मेंं जीव के गमन का शोक है।
बार-बार आता है, बार-बार जाता है, फिर-फिर लौट आता है। जीव अन्यान्य देह धारण करता है। चक्र अनवरत है। विशेष बात यह कि जो शोक या आनन्द मना रहे हैं, वे भी उसी परिक्रमा के घटक हैं। आना-जाना उन्हें भी उसी रास्ते है। जीवन का रंगमंच, पात्रोंं से निरंतर भूमिकाएँ बदलवाता रहता है। आज जो कंधा देने आए हैं, कल उन्हें भी कंधों पर ही आना है।
‘भज गोविंदम्’ के 21वें पद में आदिशंकराचार्य जी महाराज कहते हैं-
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥
भावार्थ है कि बार-बार जन्म होता है। बार-बार मृत्यु आती है। बार-बार माँ के गर्भ में शयन करना होता है। बार-बार का यह चक्र अनवरत है। यही कारण है कि संसार रूपी महासागर पार करना दुस्तर है। वस्तुत: काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, राग-द्वेष, निंदा सभी तरह के राक्षसी विषयों का यह संसार महासागर है। यह अपरा है, यहाँ किनारा मिलता ही नहीं। ऐसे राक्षसों के अरि अर्थात मुरारि, भवसागर पार करने की शक्ति प्रदान करें।
श्मशान से श्मशान तक की यात्रा से मुक्त होने का पहला चरण है भान होना। भान रहे कि सब श्मशान की दिशा में यात्रा कर रहे हैं। यह पंक्तियाँ लिखनेवाला और इन्हें पढ़नेवाला भी। श्मशान पहुँँचने के पहले निर्णय करना होगा कि पार होने का प्रयास करना है या फेरा लगाते रहना है।..इति।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी
प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
Anonymous Litterateur of social media # 231 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 231)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 231
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक पूर्णिका – मधुमालती।)