हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #264 – कविता – ☆ खबर उड़ी हम नही रहे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता खबर उड़ी हम नही रहे…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #264 ☆

☆ खबर उड़ी हम नही रहे…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(पिछले दिनों एक साथी के साथ घटी घटना से प्रेरित एक मुक्तछंद रचना)

यहाँ-वहाँ बात चली लगी भली

पर मौका चूक गए

खबर उड़ी, हम नहीं रहे।

रेडियो, टी.वी. सोशल मीडिया

अखबारों में

शहर-शहर गाँव और

गलियों बाजारों में

किंतु, कुछ देर बाद हो गया

इसका खंडन, जीवित है

आएँ न झूठी अफवाहों में

सूचना अधिकृत आयी

मरे नहीं रामदीन

बात यह अपुष्ट थी

क्षमा सहित खंडन मंडन करके

गलती दुरुस्त की

पर सारे घटनाक्रम से व्यथित

हमने जब खुद अपने को देखा

चेहरे पर आई दुख की रेखा

साबूत पा कर हमको ये लगा

सम्भवतः नियति भी रुष्ट थी।

 

सोचा, गर हम अभी चले जाते

इस जर्जर तन से मुक्ति पाते

फिर श्रद्धांजलियों के सागर में

हर्षित हो

पुण्यमयी डुबकियाँ लगाते

अपनी यश-कीर्ति पर

गर्वित हो इतराते, ऐसे में

सचमुच ही मरण शोक भूलकर

स्वर्गीय सुख को पाते।

मृत्यु के बाद अहो!

सुख का एहसास हुआ

अपने परायों

सबसे ही मिलती दुआ

मृत्यु पर्व पावन में

अगणित सी खुशियाँ

जो मिलना एक मुश्त थी

सम्भवतः नियति भी रुष्ट थी

 

सोचा, गर असल में ही

मृत्यु को पा लेते, योजना बना लेते

फिर लेते जन्म कहीं

नये देह आवरण को देख-देख

मन ही मन मुदित

कहीं पालने में किलकाते

शैशव में स्मृतियाँ होती अब की

याद कर इन्हें रोते-मुस्काते,

किंतु साध रह गई अधूरी सी

जाते-जाते फिर से रह गए

मायावी मोह पाश में

फिर से बँध गए

मन को समझाने में लगे रहे

पर कहाँ नियंत्रण में आता है

अपनी ही चाल चले जाता है

माया मृगतृष्णाएँ, इसके दायें बायें

उकसाती उलझाती

और अधिक जीने का

लालच दे भरमाती

भीतर में वर्षो से छिपी हुई

मन के द्वारा कल्पित

अंतर में लिखी हुई

इच्छाएँ  दुष्ट थी

सम्भवतः नियति भी रुष्ट थी।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 88 ☆ सपने सोये… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सपने सोये…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 88 ☆ सपने सोये… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

देहरी रोई

घर आँगन आँचल भीगा

छप्पर छानी तक रोये।

 

सिंहासन पर

बैठा राजा

जाँच रहा परचे

किसने कितनी

करी कमाई

खुशियों पर खरचे

किस्मत सोई

रातों में काजल भीगा

आँखों में सपने सोये।

 

डरा डरा सा

हर पल जीता

आशंकित जीवन

कब बँट जाये

गंगा जमुनी

तहजीबों का मन

नफरत बोई

नहीं कहीं बादल भीगा

राहों में काँटे बोये।

 

शिथिल बाजुओं

पर हैं साधे

शेष अशेष उमर

जीता मरकर

घटनाओं में

घायल पड़ा शहर

पीर निचोई

दर्दों में पल पल भीगा

किसने किसके दुख धोये।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 92 ☆ बुराई किसकी करूँ, किसकी  मैं करूँ तारीफ़… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “बुराई किसकी करूँ किसकी  मैं करूँ तारीफ़“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 92 ☆

✍ बुराई किसकी करूँ, किसकी मैं करूँ तारीफ़… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

करम जमाने पे ये बे हिसाब जिसका है

सवाल उसने  किया है जबाब जिसका है

 *

अब ऐसे हुस्न पर इतरा रही है ये दुनिया

नतीजा दोस्तो मिस्ले तुराब जिसका का है

 *

उसे लुटेरों का कोई भी डर नहीं होगा

अदब का इल्म का आला निसाब जिसका है

 *

बुराई किसकी करूँ किसकी  मैं करूँ तारीफ़

उसी के ख़ार शुगुफ्ता गुलाब जिसका है

 *

दखल किसी का नहीं उसकी कारसाजी में

अँधेरे  करता है वो आफ़ताब जिसका है

 *

उसी की मिहर से तू साँस ले रहा है यहाँ

करम उसी का है तुझ पर इताब जिसका है

 *

उसे न नाम कोई और दो जहां वालो

रसूले हक़ का जहां में ख़िताब जिसका है

 *

अरुण उसी ने ख़िज़ाँ की भी रुत बनाई है

फिजां में फूल पे आया शबाब जिसका है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 6 ☆ कविता – छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  – “छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे..“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 6 ☆

✍ कविता – छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

बंदिशें आएंगी, रुकावटें आएंगी,

पर तुम न रुकना, राह बन जाएंगी।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

*

आगे चलते रहना, मुड़ कर न देखना,

असफला न देखना सफलता देखना।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

*

हारना सोचना मत, कोशिश छोड़ना मत,

 उडोगे तो गिरोगे, पर उड़ना छोडना मत।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

*

लोग गिराएंगे डराएंगे, तुम कुछ न देखना,

बस उड़ने की सोचना, आगे ही देखना।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

*

साथ कोई दे न दे,  जमींन तेरे साथ है,

ज़मीर पक्का हो, आसमान साफ है।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

*

तू लक्ष्य तय कर, उसे पाने का संकल्प कर,

और कुछ मत कर, लक्ष्य को प्राप्त कर।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

*

हिम्मत तेरा हथियार है, जजवा तेरा उद्गार है,

सपना देखना ऊंचाई का, होगा साका है।

छू ले आसमान बंदे, छू ले आसमान बंदे।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 56 – मानवता… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मानवता।)

☆ लघुकथा # 56 – मानवता श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’        

“भैया अम्मा की तबियत ठीक नहीं है आप भाभी और बच्चों को लेकर आ जाइए।”

शांति ने अपने बड़े भाई को फोन किया।

बड़े भाई  अरुण की  आंखें भर आयीं थी और वह अपनी छोटी बहन से कह रहा था कि 4 साल से मां बिस्तर में हैं और तू अपना घर परिवार देखते हुए कैसे सेवा कर रही है?

अपनी माँ को अकेले में छोड़कर तुम्हारी भाभी से डर कर के घर में शांति बनी रहे अपने बच्चों को देख रहा था लेकिन तूने हर कर्तव्य का निर्वाह किया।

सुबह शाम मां को खाना बनाकर अपने हाथ से उनको खाना खिलाना। उनके बिस्तर को ठीक करना, गन्दे कपड़े धोना आदि  सभी काम वह स्वयं ही करती है इतनी हिम्मत कहां से आई जीजाजी और बच्चों को भी तो तू ही संभालती है।

शांति ने मुस्कुरा कर कहा भैया “अरे कुछ नहीं , आप तो बेकार ही परेशान हो जाते हैं,  आप ही आ जाते तो कम से कम अम्मा आपको ही देख लेतीं उनकी तबियत बहुत खराब है।”

बड़ी दीदी भी आई है मां दरवाजे की तरफ अपनी उदास नजरों से देखती है कुछ कह नहीं पाती। आप हम दोनों बहनों के बीच में अकेले भाई हो। आप ही का इंतजार कर रही है अब जल्दी से आ जाओ भैया।

इतने में अंदर से कुछ आवाज आती है और शांति – भैया अब मैं फोन रख रही हूं।

हाथ का पानी का गिलास छूटकर नीचे जा गिरा।

उसकी मां अब इस दुनिया से जा चुकी थी बड़ी बहन कमला ने आवाज दी। वह भी हड़बड़ा कर मां के कमरे में पहुंची।

क्या हुआ कहते हुए जब उसने मां को छुआ तो वह भी सन्न रह गई।

वे तो अनन्त यात्रा पर निकल चुकी थीं।

सभी को फोन कर के बुलाया गया। कुछ ने थोड़ा सच में तो कुछ ने नाटक में आंसू भी गिराये, दुख  प्रकट किया।

बड़े बेटे के साथ भाभी भी आई।

भाभी का ध्यान अम्मा के बक्से  पर ही टिका हुआ था।

अन्तिम संस्कार के बाद शाम को बड़ी बहन कमला से बोली  जीजी  सन्दूक मैं मां के गहने सब छोटी ने ही रख लिए क्या? हमें उन में कुछ नहीं मिलेगा?

बीच में सन्दूक रख कर छोटी बहन ने चाबी भाभी को दे दी।

भाभी भाई और बड़ी बहन कमला के बीच उनकी अम्मा से अधिक उनके जेवरों और पैसों पर चर्चा हो रही थी। 

भाई ने कहा – दोनों भी अम्मा की एक एक चीज यादगार के रूप में रख लो।

भैया आज ही सुनार बुला रहे हो जो भी लोग  सुनेंगे वे क्या कहेंगे?

अरे कोई कुछ भी क्यों कहेगा ? किसी के घर डाका डालने जा रहे हैं क्या ? बड़े भाई भाभी एक ही जबान में बोल पड़े।

अब  जेवर कौन रखता है? सोनार को बुलाकर इसे बेच देते हैं और रकम ले लेते हैं।

कोई प्रॉपर्टी खरीद लेंगे।

फिर बहस का विस्तार हुआ।

यही अधिकार तब दिखाते जब अम्मा बीमार थीं। तब तो उनकी सेवा में हिस्सेदारी करने कोई भी नहीं आया।

रहने दो दीदी बेकार की बात बढ़ाने में क्या फायदा?  भाई ने बहन को शान्त करते हुए

कहा।

सुनार बहुत देर तक गहनों को देखता रहा।

सुनार  की आंखों  से दो बूंद आंसू लुढ़क आए…। कमला मां की कमरे में जाकर उनकी तस्वीर देखने लगी। मां सारे संस्कार तूने हम बहनों को ही दिए भाई को क्या कुछ भी नहीं सिखाया?

भाई के अंदर की सारी मानवता मर गई है क्या…?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 257 ☆ ओझी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 257 ?

☆ ओझी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

 सारी ओझी जड झाली

नाती कशी निभवावी

कुणी कुणाला टाळावे

कुठे जत्रा भरवावी ?

*

 संग अंसगाशी नको

असे सांगती नावाला

जिथे जायचे नसते

येतो तरी त्या गावाला

*

जगण्याच्या असोशीला

काय समजावे आता

माथी ओझी जड झाली

यश का येईना हाता

*

 सांजवेळ आयुष्याची

रम्य असो भगवंता

डोई वरची ही ओझी

कशी उतरावी आता ?

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 87 – आपके बिन खुशी नहीं भाती… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – आपके बिन खुशी नहीं भाती।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 87 – आपके बिन खुशी नहीं भाती… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कोई सूरत मुझे नहीं भाती 

आपके बिन खुशी नहीं भाती

*

जिसमें, तेरा न जिक्र आता हो 

शायरी वह, मुझे नहीं भाती

*

एक निर्मल हँसी का झरना तू 

तुझसे बढ़कर नदी नहीं भाती

*

आपको जब बसा लिया दिल में 

कोई तस्वीर अब नहीं भाती

*

आज मैं हूँ जहाँ, वहाँ मुझको 

दोस्ती-दुश्मनी नहीं भाती

*

प्रेम का, चढ़ गया नशा मुझ पर 

इसलिए मयकशी नहीं भाती

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 160 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 160 – मनोज के दोहे ☆

महा- कुंभ का आगमन, बना सनातन पर्व।

सकल विश्व है देखता, करता भारत  गर्व।।

 *

प्रयाग राज में भर रहा, बारह वर्षीय कुंभ।

पास फटक न पाएगा, कोई शुंभ-निशुंभ।।

 *

गँगा यमुना सरस्वती, नदी त्रिवेणी मेल।

पुण्यात्माएँ उमड़तीं, धर्म-कर्म की गेल।।

 *

सूर्य देव उत्तरायणे, मकर संक्रांति पर्व।

ब्रह्म-महूरत में उठें, करें सनातन गर्व।।

 *

गंगा तट की आरती, लगे विहंगम दृश्य।

अमरित बरसाती नदी, कल-कल करती नृत्य।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 328 ☆ लघुकथा – “एंकर…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 328 ☆

?  लघुकथा – एंकर…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

वह एंकर है। शो होस्ट करती है। उस पर कभी लाइव कंसर्ट, कभी टीवी  तो कभी रेडियो के एंकर की जिम्मेदारी होती है। लाइव शो के उन घंटों में बिना किसी फ्लाइट में बैठे ही उसका फोन फ्लाइट मोड में होता है, और वह दुनियां से बेखबर, दर्शकों को अपनी खनखनाती आवाज से एक स्वप्न लोक में ले जाती है। जब वह बोलती है , तो बस वह ही बोलती है, शो को एक सूत्र में बांधे हुए। जैसे एंकर तूफानी समुद्र में भी जहाज को स्थिर बनाए रखता है। उसके लाइव शो भी बस उसके इर्द गिर्द ही होते हैं।  हर शो के बाद लोग उसकी आवाज के उतार चढ़ाव और संयोजन की प्रशंसा में इंस्टा पर कमेंट्स करते हैं। उसे अपने स्टड होस्टिंग टेलेंट पर नाज होता है।

लेकिन आज स्थिति अजब थी, उसका टी वी शो शिड्यूल था, और उसी वक्त उसके बचपन की सखी नीरा का रो रो कर बुरा हाल था। नीरा की मम्मी मतलब उसकी रीमा मां जिन्होंने बचपन में उसके बेजान घुंघराले उलझे बालों में तेल डालकर उसकी खूब हेड मसाज की थी, उसी वक्त आपरेशन थियेटर में थीं। सच कहें तो उसके स्टड व्यक्तित्व को गढ़ने में रीमा मां का बड़ा हाथ था। वे ही थीं जो उसके बालों में हाथ फेरते हुए उसे दुनियादारी के पाठ पढ़ाया करती थी, और उसे उसके भीतर छिपे टेलेंट को हौसला दिया करती थीं। उनके ही कहने पर उसने पहली बार अपने स्कूल में एनुअल डे की होस्टिंग की थी। इसी सब से  पड़ोस में रहने वाली अपनी सहेली की मम्मी को वह  कब आंटी से रीमा मां कहने लगी थी, उसे याद नहीं।

इधर स्टूडियो में उसका लाइव शो टेलिकास्ट हो रहा था, उधर आपरेशन थियेटर में रीमा मां का क्रिटिकल आपरेशन चल रहा था। बाहर नीरा हाथों की अंगुलियां भींचे हुए कारीडोर में चक्कर लगा रही थी। उसका टेलिकास्ट पूरा हुआ और वह अस्पताल भागी, वह नीरा के पास पहुंची ही थी कि आपरेशन थियेटर के बाहर लगी लाल बत्ती बुझ गई। डाक्टर सिर लटकाए बाहर निकले, आई एम सॉरी, उन्होंने कहा। नीरा उसकी बांहों में अचेत ही हो गई। उसने नीरा को संभाला, और उसके उलझे बालों में उंगलियां फेरने लगी।

विषम स्थिति से उसे खुद को और नीरा को निकालना होगा, वह अपनी रीमा मां की एंकर है, स्टड और बोल्ड।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 42 – लघुकथा – कूड़ेदान ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  लघुकथा – कूड़ेदान )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 42 – लघुकथा – कूड़ेदान ?

पिछली रात मेरे घर में कुछ मेहमान आए थे, रात को सोने में देरी हो गई थी तो सुबह न जल्दी नींद खुली और न घर का कूड़ा मुख्य दरवाज़े के बाहर रखा।

सुबह आठ बजे के करीब घंटी बजी। मुझे कुछ देर और सोने की इच्छा थी पर दरवाज़े पर कौन है यह तो देखना ही था। मैं झल्लाकर उठी, दरवाज़ा खोला तो सामने मोहल्ले का सफ़ाई कर्मी राजू खड़ा था। मुस्कराकर नमस्ते कहकर बोला, तबीयत ठीक नहीं माताजी?

मैंने अलसाते हुए कहा – नहीं, ठीक है बस नींद नहीं खुली।

– आपको डायाबेटिज़ है माताजी ?

– हाँ राजू, बहुत साल हो गए। तुम्हें कैसे पता?

– आपके सूखे कूड़े दान में इंजेक्शन का ढक्कन रहता है न तो मालूम पड़ा। रोज़ सोचता हूँ पूछूँ पर आप सुबह ही कूड़ा रख देती हैं तो मुझे मौका नहीं मिलता पूछने का। अपना ध्यान रखो माताजी।

– अरे राजू कूड़ा तो सुबह अंकल ही रखते हैं। आज वे मंदिर चले गए और मेरी नींद न खुली। बेल बजाकर कूड़ा उठाने के लिए थैंक यू राजू।

सफ़ाईवाला राजू कूड़ा लेकर चला गया।

मुझे मेरे प्रति उसकी चिंता और सद्भावना अच्छी लगी। यही तो इन्सानियत होती है।

कुछ दिन बाद मुझे कुछ सामान लेने के लिए पास की दुकान जाना था। मैं सामान लेकर लौटी तो थोड़ी थकावट के कारण मोहल्ले के एक बेंच पर बैठ गई।

बेंच के पीछे से कुछ परिचित -सी आवाज़ आई तो मैंने बेंच के पीछे झाँककर देखा। सफ़ाईवाला राजू और उसका साथी बानी दोनों बेंच के पीछे तंबाकू खाने बैठे थे।

हमारे मोहल्ले के बेंच सिमेंट से बने ऊँचे बेंच हैं। कोई पीछे बैठा हो तो पता नहीं चलता।

मैं चुपचाप बैठी रही। वे आपस में बातें करने लगे।

– “606 वाले अंकल लगता है बहुत दारू पीते हैं। रोज़ बोतलें निकलती हैं उनके घर से। ” राजू बोला।

– “उनको छोड़ ई बिल्डिंग 201 की मैडम हैं न जो अकेली ही रहती हैं, अरे वह मोटी सी, बहुत ज़ोर से हँसती है वह तो 606 की भी गुरु है। ” बानी बोला।

– क्यों उनकी बोतलें ज़्यादा होती है क्या?

– बोतलें तो होती ही हैं साथ में खूब सिगरेट भी फूँकती हैं। वह तो मुझे हर महीने 100 रुपये एकश्ट्रा देती है बोतलें उठाने के लिए। फिर बोतलें बेचकर मैं भी कुछ और रुपया कमा लेता हूँ। आपुनको तो फायदा है रे पर उनका क्या?

– सही है। बोतलें बेचकर कमाता तो मैं भी हूँ।

थोड़ी देर दोनों चुप रहे। दोनों शायद मुँह में ठूँसे हुए तंबाकू का मज़ा ले रहे थे।

थोड़ी देर बाद राजू बोला- लाश्टवाली ऊपर के घर में जो साहब और मैडम रहते हैं न वे बहुत बाहर से खाना मँगवाकर खाते हैं।

– तेरेको कैसे मालूम?

– अरे बाज़ार के वे गोल काले डिब्बे नहीं क्या आते सफेद ढक्कनवाले। अक्सर सूखे कचरे में वे पड़े रहते हैं और खाना बरबाद भी करते हैं।

– ये अमीरों के चोंचले ही कुछ अलग होते हैं।

– सही कहा इनको अन्न के लिए कोई सम्मान नहीं रे। खाना बरबाद करना तो अमीरी के लक्षण हैं। एक हमी को देख लो दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए सुबह से शाम तक लोगों के घर- घर जाकर कूड़ा उठाते रहते हैं। शाम तक तो आपुन के बदन से भी कूड़े का बास आता है। साला नशीबच खोटा है अपुन का।

– सब भाग्य का खेल है रे ! आपुन लोगों के नसीब में गरीबी लिखी है। पता नहीं इन बड़े अमीरों को खाना फेंकने की सज़ा कभी मिलेगी भी कि नहीं।

– मिलती है रे सज़ा, झरूर मीलती है। वो 303 की ऊँची माताजी है न, बड़ी सी बिंदी लगाती है, उसको डायाबिटीज़ है। यार ! कभी तो कुछ बुरा किया होगा न जो आज रोज़ खुद कोइच सुई टोचती रहती है। बुरा लगता है रे बुड्ढी दयालु है। हम गरीबों को अच्छा देखती भी है पर देख भुगत तो रही है न?

मैं और अधिक समय वहाँ न बैठ सकी। कुछ तीव्र तंबाकू की गंध ने परेशान किया और कुछ उनकी आपसी बातों ने।

मैं मन ही मन सोचने लगी कि अपना घर साफ़ करके कूड़ा जब हम बाहर रखते हैं तब प्रतिदिन कूड़ा साफ़ करनेवाला घर के भीतर के इतिहास -भूगोल की जानकारी पा जाता है। हमारे खान -पान और चरित्र का परिचय शायद हमारे कूड़ेदान ही बेहतर दे जाते हैं।

© सुश्री ऋता सिंह

23/10/24, 3.30pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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