(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी।)
☆ कथा-कहानी # 110 – जीवन यात्रा : 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
ध्वनि मानवजाति का ही नहीं बल्कि विश्व के सभी जड़-चेतन प्राणियों के संप्रेषण का माध्यम है. ध्वनियों को सुनना जहां श्रवणशक्ति पर निर्भर है वहीं ध्वनियों को समझने की कला विभिन्न चेतन प्रजातियों की भिन्न भिन्न होती है. ध्वनि एक कंपन है जो वायु एवं द्रव्य अवस्था में तरंगों के माध्यम से प्रवाहित होती है. जहां मनुष्य की श्रवण क्षमता हाथ खड़ा कर देती है, वहीं पर कुछ जीव जंतु इन तरंगों को ग्रहण कर लेते हैं. भूकंपीय गतिविधियों को सबसे पहले यही समझते हैं और अपनी शैली में चेतावनी भी देने की कोशिश करते हैं, हालांकि मनुष्य प्राय: इन्हें दरकिनार कर देते हैं. वाक्शक्ति के मामले में मानवजाति अग्रणी है, तरह तरह की भाषाओं के अध्ययन में पारंगत भी बन चुकी है पर मर्म समझने की शक्ति सबकी अलग अलग होती है.
जब आंखें, अभिव्यक्ति के लिये असमर्थ लगें तो मनुष्य वाणी का प्रयोग प्रारंभ कर देता है. शिशु वत्स ने अपनी आयु के अनुसार ही अभिव्यक्ति के लिये वाणी का उपयोग करने का अभ्यास प्रारंभ कर दिया. शिशु अपने अधर युग्म का संचालन, जन्म के साथ ही सीख जाते है पर बोलने की प्रक्रिया ओंठो के खुलने से प्रारंभ होती है तो जब उसकी अभिव्यक्ति की कोशिश सफल हुई तो पहला शब्द निकला “मां”.
इस शब्द की परिभाषा नहीं होती पर ये शब्द जब जननी को पहली बार सुनाई देता है तो वह शिशु से जुड़ी सारी पीड़ा, असुविधा भूल जाती है. यह वो शब्द है जो हर नारी कभी न कभी अवश्य सुनना चाहती है. इसके आगे मधुरतम संगीत की सरगम भी बेसुरी लगती है. मां बेटे के लिये बहुत सारे पर्यायवाची शब्दों का, उपमाओं का प्रयोग करती है पर संतान के पास कोई विकल्प नहीं होता. मां या फिर अम्माँ, अम्मी, मम्मी या फिर मॉम जो भाषा, धर्म और संस्कृति के अनुसार अलग हो सकते हैं, बहुत से तो हम जानते भी नहीं होंगे पर अर्थ सार्वभौमिक है, भावना भी सार्वभौमिक ही होती हैं क्योंकि ये शिशु के पहले प्रयास से आता है जो कि उसके अंदर विद्यमान ईश्वरीय अंश का उसके लिये बहुत सूक्ष्म सहयोग होता है.
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना –धुंधले नक्शे कदम रह गये…।)
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “हल कुछ निकले तो सार्थक है…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 137 – हल कुछ निकले तो सार्थक है… ☆
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हल कुछ निकले तो सार्थक है, लिखना और सुनाना ।
वर्ना क्या रचना, क्या गाना, क्या मन को बहलाना ।।
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अविरल नियति-नटी सा चलता, महा काल का पहिया ।
विषधर सा फुफकार लगाता, समय आज का भैया ।।
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भीष्म – द्रोण अरु कृपाचार्य सब, बैठे अविचल भाव से ।
ज्ञानी – ध्यानी मौन साधकर, बंधे हुये सत्ता सुख से ।।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 18 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 1
(24 मार्च – 31 मार्च 2024)
हमारा पड़ोसी देश भूटान है और भारत के साथ इस देश का अच्छा स्नेह संबंध भी है।
भारतीय प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी हाल ही में भूटान जाकर आए थे। थिंप्फू नामक शहर से पारो नामक शहर को पहले से ही रंगीन पताकों से सजाया गया था। थिंप्फू शहर के रास्ते पर भारतीय झंडा और भूटान का झंडा सड़क के बीच लगातार लगाए गए थे तथा इस मैत्री संबंध को बनाए रखते हुए यहाँ के पाँचवे राजा की और मोदी जी की तस्वीरें सब तरफ़ लगाई हुई दिखाई दे रही थी। मन गदगद हो उठा। हमारा सौभाग्य ही है कि हम मोदी जी के यहाँ आने के दो दिन बाद ही भूटान की सैर करने पहुँचे।
हम तीन सहेलियों ने मार्च के महीने में भूटान जाने का निश्चय किया। हम 23 मार्च मध्य रात्रि पुणे से मुंबई के लिए रवाना हुए। 24 की प्रातः फ्लाइट से बागडोगरा पहुँचे। बागडोगरा से भूटान की सीमा तक पहुँचने के लिए टैक्सी बुक की गई थी। इस ट्रिप के दौरान हमने बागडोगरा से जयगाँव नामक शहर तक यात्रा की जो चार घंटे की यात्रा रही।
जयगाँव में पहुँचने पर हमें भूटान लेकर जानेवाला गाइड मिला। हम भारत की सीमांत पर बने भूटान के दफ़्तर से होते हुए अपना वोटर आई डी दिखाकर भूटान की ज़मीन पर पहुँचे। भूटान में प्रवेश करने के लिए पासपोर्ट या वोटर आई डी की आवश्यकता होती है। पाठकों को बता दें यहाँ आधार कार्ड नहीं चलता।
जयगाँव बंगाल का आखरी गाँव है। उसके बाद भूटान की सीमा प्रारंभ होती है। यहाँ कोई बॉर्डर नहीं है केवल भूटान कलाकृति के निशान स्वरूप एक बड़ा – सा प्रवेश द्वार बना हुआ है। इस प्रवेश द्वार का उपयोग केवल गाड़ियाँ ही कर सकती हैं। यात्रियों को जयगाँव में उतरकर भूटान जाने के लिए एक अलग द्वार से पैदल ही जाना पड़ता है। लौटने के लिए भी यही व्यवस्था है। यह बड़ा अद्भुत अनुभव रहा।
भूटान जाने के लिए जो दफ़्तर बना हुआ है वह भीतर से साफ- सुथरा और हिंदी बोलनेवाले भूटानी तुरंत सेवा प्रदान करते हुए दिखाई दिए। जयगाँव की ओर से जानेवाला मार्ग अत्यंत संकरा और गंदगी से न केवल भरपूर है बल्कि लोकल लोगों की भीड़ भी बहुत रहती है। भूटान का यह एन्ट्री पॉइंट उस तुलना में साफ़ सुथरा लगा।
यह भारत के नज़दीक का पहला शहर है नाम है फुन्टोशोलिंग। स्वच्छ और छोटा – सा शहर है यह। फुन्टोशोलिंग शहर जयगाँव से आने -जानेवाले पर्यटकों की सुविधा की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी शहर है।
हम फुन्टोशोलिंग के एक होटल में एक रात ही रहे। होटलका नाम था गा मे गा यह व्यवस्था हमारी थकान उतारने के लिए ही कई गई थी।
हम तीनों बहुत थकी हुई थीं क्योंकि हम 23 की मध्य रात्रि घर से रवाना हुई थीं और 24की शाम हम फुन्टोशोलिंग पहुँचे। हमने जल्दी डिनर कर सोने का निर्णय लिया। दूसरे दिन से हमारी भूटान की यात्रा प्रारंभ होने जा रही थी।
मेरी डायरी के पन्ने से…..
भूटान की अद्भुत यात्रा (25 मार्च 2024)
हमने प्रातः नाश्ता किया। हमारे साथ आठ दिनों तक मार्गदर्शन करनेवाला गाइड अपने साथ आठ दिन रहने वाली गाड़ी और ड्राइवर लेकर समय पर उपस्थित हो गया।
गाइड का नाम था पेमा और चालक का नाम था साँगे। दोनों भूटान के नागरिक थे। हिंदी बोलना जानते थे। पेमा कामचलाऊ अंग्रेज़ी बोल लेता था। वे दोनों ही अपने देश की वेश-भूषा में थे। दोनों ही अत्यंत तरुण, मृदुभाषी तथा व्यवहार कुशल भी थे। हम सीनियर पर्यटकों को साथ लेकर चलते समय सावधानी बरतने वाले अत्यंत सुशील नवयुवक थे। उन दोनों का स्वभाव हमें अच्छा लगा और एक परिवार की तरह हम आठ दिन एक साथ घूमते रहे। पाठकों को बता दें कि जहाँ तक समय का सवाल है भूटान भारत से 30 मिनिट आगे है अतः अपनी कलाई की घड़ी और मोबाइल की घड़ी को इसके अनुसार एडजेस्ट कर लेना आवश्यक है।
हमने सबसे पहले भूटान इमीग्रेशन का फॉर्म भरा जहाँ से हमें पेमा और सांगे के साथ उनकी प्राइवेट कार में 31मार्च तक घूमने की लिखित इजाज़त मिली। यह एक प्रकार का विज़ा है।
हमारी यात्रा प्रारंभ हुई। पहला स्थान जो हम देखने गए उसका नाम था सांगे मिगायुर लिंग ल्हाकांग यह एक ऊँची टावर जैसी इमारत है। इसे लैंड ऑफ़ थंडर ड्रैगन कहा जाता है। और टावर को मिलारेपा कहते हैं। यह फुन्टोशोलिंग में ही स्थित है।
यह विश्वास है कि एक संत तिब्बत से भूटान आए थे। दुश्मनों से बदला लेने के लिए वे काला जादू सीख लिए थे और उसका उपयोग भी करते थे। उनके गुरु मार्पा थे। उन्हें जब काला जादू वाली बात ज्ञात हुई तो उन्होंने अपने शिष्य को अकेले हाथ मिट्टी से नौ मंजिली इमारत बनाने का हुक्म दिया। (चित्र संलग्न है ) गुरु को ज्ञात था कि शिष्य के भीतर बदले की भावना और बुराइयाँ भरी हुई है। इसी कारण इमारत को तोड़कर अन्यत्र बनाने का फ़रमान जारी किया। ऐसा कई बार हुआ अंततः शिष्य साधना के लिए चला गया और अपने भीतर की सारी हीन भावनाओं को समाप्त करने में सफल हुआ। इस इमारत में मेलारेपा की बड़ी मूर्ति स्थित है। आज भूटानी अपने मन से इस मंदिर का दर्शन करते हैं जो गुरु के मार्गदर्शन का प्रतीक भी है। इसकी नौ मंजिली इमारत के सामने बुद्ध मंदिर भी स्थित है। आस-पास कुछ भिक्षुक भी रहते हैं। परिसर अत्यंत स्वच्छ और सुंदर बना हुआ है। वातावरण शांतिमय है।
अब हम आगे की ओर प्रस्थान करते रहे। हमारा पहला पड़ाव था थिंम्फू। यह संपूर्ण पहाड़ी इलाका है। 10, 000फीट की ऊँचाई पर स्थित सुंदर, स्वच्छ शहर है। यह भूटान का सबसे बड़ा शहर है तथा भूटान राज्य की राजधानी भी है।
हमें भूटान इमीग्रेशन से रवाना होते -होते बारह बज गए थे। थिंप्फू पहुँचने में पाँच बज गए। वैसे यह यात्रा चार घंटे की ही होती है पर रास्ते में जैसै -जैसे हम ऊपर की ओर बढ़ने लगे हमें तेज़ वर्षा का सामना करना पड़ा। गाड़ी की रफ़्तार कम होती गई। साथ ही सड़क पर भयंकर कोहरा छाया रहा। भीषण शीत और कोहरे के कारण गाड़ी में हीटर चलाने की आवश्यकता हुई। पर यात्रा में कोई कष्ट न हुआ।
चालक अत्यंत अनुभवी और सतर्क रहा।
सड़क चौड़ी थी और दो लेन की थी। एक तरफ़ खड़ा ऊँचा पहाड़ और दूसरी ओर तराई थी। चालक सुपारी अवश्य खाते हैं पर कहीं भी न गंदगी फैलाते हैं न सुपारी का पैकेट फेंकते हैं। जिस कारण शहर स्वच्छ ही दिखाई देता है। जो हमारे लिए एक आनंद का विषय था।
हम पाँच बजे के करीब थिंप्फू के होटल में पहुँचे। हमारे रहने की व्यवस्था बहुत ही उत्तम थी। विशाल कमरे में तीनों सहेलियों के रहने की अत्यंत सुविधाजनक व आराम दायक व्यवस्था रही। अब तापमान 2° सेल्सियस था। कमरे में हीटर लगा होने की वजह से कोई तकलीफ़ महसूस न हुई। हम सबने गरम -गरम पानी से हाथ मुँह धोया ताकि थकावट दूर हो। और चाय पीकर गपशप में लग गए। उस रात तीव्र गति से वर्षा की झड़ी लगी रही।
हम जब थिंम्फ़ू की ओर जा रहे थे तो रास्ते में मोदी जी के आगमन के लिए की गई सजावट का दर्शन भी मिला। पहाड़ों पर और तराईवाले हिस्सों पर चौकोर, रंगीन चौड़े -चौड़े तथा बड़े- बड़े पताके लगाए गए थे। ये पताके लाल, हरे, पीले, नीले और सफ़ेद रंग के थे। किसी महान व्यक्ति के आगमन से पूर्व इस तरह के पताके लगाए जाने की भूटान में प्रथा है। यह सिल्क जैसा कपड़ा होता है और बीच -बीच में थोड़ा कटा सा होता है ताकि हवा लगने पर वे खूब लहराते रहे। लंबी रस्सी में ऐसे कई पताके लगाए जाते हैं। हवा चलते ही ये फड़फड़ाने लगते हैं। हवा कए साथ उसकी फड़फब़ाने की ध्वनि सुमधुर लगती है। दृश्य सुंदर और आँखों को सुकून दे रहे थे।
त्रिकोण सफेद तथा रंगीन पताकों पर मंत्र लिखे हुए पताके लगे हुए भी दिखे। भूटान निवासी बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं। इस धर्म के अनुसार अपने पहाड़, पर्वत, नदी, जंगल आदि को सुरक्षित रखने तथा देश के नागरिकों को सुरक्षित रखने हेतु ये रंगीन त्रिकोणी पताके लगाए जाते हैं। इन पर सर्व कल्याण के मंत्र प्रिंट किए हुए होते हैं। जन साधारण का प्रकृति के प्रति प्रेम तथा सम्मान देखकर मन प्रफुल्लित हुआ।
इसके अलावा सफ़ेद रंग के बड़े – बड़े कई झंडे भी एक ऊँचे स्थान पर एक साथ लगाए हुए दिखाई दिए। उन पर भी मंत्र लिखे हुए होते हैं। ये सफ़ेद झंडे शांति के प्रतीक होते हैं। घर के मृत रिश्तेदार को मोक्ष मिले इसके लिए प्रार्थना के साथ ऊँचे बाँस में ये झंडे लगाए जाते हैं। जितनी ऊँचाई पर ये पताके लगाए जाएँगे उतना ही वे फड़फड़ाएँगे और यही ऊँचाई पर लगाए रखने का मूल कारण है। समस्त प्रकृति में झंडे पर लिखित मंत्र हवा के साथ फड़फड़ाते हुए प्रसरित होते रहेंगे यह उनका विश्वास है। कुछ हद तक शायद यह सच भी है। लोग धर्म को मानकर चलते हैं। एक दूसरे के प्रति सौहार्दपूर्ण व्यवहार करते हैं। शोर मचाना या जोर से बोलना उनकी प्रकृति नहीं है। मूल रूप से वे अत्यंत शांति प्रिय लोग हैं। कहीं झगड़े -फ़साद या ऊँची आवाज़ में बात करते हुए हमें लोग न दिखे। पेमा ने हमें बताया कि उनके देश में पश्चात्य देशों से विशेषकर युरोप से बड़ी संख्या में लोग आते हैं। कानूनन छोटे वस्त्र पहनना, अंग प्रदर्शन करना, स्त्री- पुरुष का गलबाँही कर चलना या पब्लिक प्लेस पर चुंबन लेना दंडनीय अपरापध माना जाता है।
वे निरंतर प्रार्थना बोलते रहते हैं। कुछ लोग माला फेरते हुए भी दिखाई देते हैं।
शहर के सभी लोग, विद्यार्थी, शिक्षक, मज़दूर सभी राष्ट्रीय वेशभूषा में दिखाई देते हैं। शर्ट -पैंट में पुरुष नहीं दिखे। उनके वस्त्र चौकोर डिज़ाइन के कपड़े से बने होते हैं। पुरुषों के वस्त्र घुटने तक पहने जाते हैं और घुटने तक मोजे पहनते हैं। स्त्रियों के वस्त्र ऊपर से नीचे तक पूरा शरीर ढाककर पहने जाते हैं। पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि उनके वस्त्र का कपड़ा हमारे देश के अमृतसर में बुना जाता है परंतु भारत में उसकी बिक्री नहीं की जाने का दोनों देशों के बीच कॉन्ट्रेक्ट है। दो देशों के बीच यह स्नेहसंबंध देख मन गदगद हो उठा। बाँगलादेश में आज भी हमारे देश में बनी सूती की साड़ियाँ बड़ी मात्रा में बिकती है। इस प्रकार के व्यापार से पड़ोसी देशों से संबंध पुख़्ता होते हैं।
हम लंबी यात्रा से थक गए थे और तापमान में भी बहुत अंतर पड़ गया था तो उस रात हमने आराम किया।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “फफोले ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 199 ☆
🌻लघुकथा➖फफोले🌻
त्वचा जब जल जाती है तो उसमें फफोले पड़ जाते हैं। और असहनीय पीड़ा और जलन होती है जिसको सह पाना मुश्किल होता है।
पीड़ा की वजह से ऐसा लगता है कि क्या चीज लगा ले यह जलन शांत हो जाए।
आज की यह कहानी➖ फफोले एक बड़े से रेडीमेड कपड़े की दुकान के सामने सिलाई मशीन रख के कामता अपनी रोजी-रोटी चलाता था। पत्नी सुलोचना घर घर का झाड़ू पोछा बर्तन का काम करती थी।
कहते हैं पाई पाई जोड़कर बच्चों का परवरिश करते चले और जब समय ने करवट बदली। बच्चे पढ़ लिखकर बड़े हुए और थोड़ा समझदार होकर अपने-अपने छोटे-छोटे कामों में कमाने लगे। तब माता-पिता का सिलाई करना और घर में झाड़ू पोछा करना उनको अच्छा नहीं लगता था और हीन भावना से ग्रस्त होते थे।
बेटियां सदा पराई होती है शादी के सपने संजोए जाने कब उनके पंख उड़ने लगते हैं। ठीक ऐसा ही सुलोचना की बेटी ने आज सब कुछ छोड़ अपने साथ काम करने वाले लड़के के साथ शादी के बंधन में बंद गई।
माँ बेचारी रोटी पिटती रही। बेटे का रास्ता देख रही थी कि शायद बेटा शाम को घर आ जाए तो वह उसकी बहन की बात बता कर कुछ मन हल्का करती या बेटा कुछ कहता।
बेटा दिन ढले शाम दिया बाती करते समय घर आया। साथ में उसके साथ सुंदर सी लड़की थी। दोनों के गले में फूलों की माला थी। सुलोचना आवाक खड़ी थी। दिन की घटना अभी चार घंटे भी नहीं हुए हैं। और बेटा बहू।
जमीन पर बैठ आवाज लगने लगी देख रहे हो… यह दोनों बच्चों ने क्या किया। पति ने दर्द से कहराते हुए कहा… अरे बेवकूफ हमने जो घोंसला बनाया था पंछी के पंख लगाते ही वह उड़ चले हैं। अब समझ ले यह आजाद हो गए हैं। हमारे घोसला पर अब हम आराम से रहेंगे।
तभी बेटे ने तुरंत बात काटते हुए कहा… पिताजी घर में तो अब हम दोनों रहेंगे। आप अपना सोने खाने का सामान उसी दुकान में एक किनारे पर रख लीजिएगा।
जहाँ आप सिलाई करते हैं। अब आपकी यहां जरूरत भी क्या है? तेज बारिश होने लगी थी।
पति पत्नी दोनों को आज सावन की बारिश आज के जलन के फफोले बना रही थीं।
जब बारिश होती थी तो चारों एक कोने में दुबके जगह-जगह ऊपर से टपकती खपरैल छत से झरझर बारिश भी शांति देती थीं। सूखी रोटी में भी आनंद था।
परंतु आज रिमझिम बारिश की फुहार तन मन दोनों में फफोले बना रही थी। वह दर्द से छुटकारा पाने के लिए सिसकती चली जा रही हैं।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 92 ☆ देश-परदेश – Wedding/ Marriage ☆ श्री राकेश कुमार ☆
सांयकालीन फुरसतिया संघ उद्यान सभा में आज इस विषय को लेकर गहन चिंतन किया गया था।
चर्चा का आगाज़ तो “खरबपति विवाह” से हुआ।भानुमति के पिटारे के समान कभी ना खत्म होने वाले विवाह से ही होना था।हमारे जैसे लोग जो किसी भी विवाह में जाने के लिए हमेशा लालियत रहते हैं, कुछ नाराज़ अवश्य प्रतीत हुए।
पंद्रह जुलाई को post wedding कार्यक्रम आयोजित किया गया है।ये कार्यक्रम अधिकतर उन लोगों के लिए होता है, जो विवाह के कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए जी जान से महीनों/वषों से लगे हुए थे।
इसको कृतज्ञता का प्रतीक मान सकते हैं। कॉरपोरेट कल्चर में भी इस तरह के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। पुराने समय में विवाह आयोजन में आसपास के परिचित लोग ही दरी इत्यादि बिछाने/उठने का कार्य किया करते थे।फिल्मी भाषा में “पर्दे के पीछे” कार्य करने वाले कहलाते हैं।
हमारे जैसे माध्यम श्रेणी के लोग विवाह को मैरिज कहते हैं। वैडिंग शब्द पश्चिम से है, इसलिए “वैडिंग बेल” का उपयोग भी पश्चिम में ही लोकप्रिय हैं। हमारे यहां तो” गेट बेल ” बजने पर भी लोग कहने लगे है, अब कौन आ टपका है ?
आमचे घर एक मजली होते. ढग्यांचं घर अशी त्या घराला ओळख होती.
ज. ना. ढगे म्हणजेच जनार्दन नारायण ढगे
उत्तम शिक्षक, प्रसिद्ध लेखक,साहित्यप्रेमी, तत्त्वचिंतक,(फिलॉसॉफर),संत वाङमयाचे गाढे अभ्यासक,प्रवचनकार,व्याख्याते आणि एक यशस्वी बिझनेसमन अशी त्यांची विविध क्षेत्रातील ओळख होती. अशा या अष्टपैलू व्यक्तिमत्त्वाची म्हणजेच माझ्या वडिलांविषयी मी लिहीनच पण तत्पूर्वी माझं लहानपण ज्या घरात गेलं, ते घर, परिसर आणि तिथलं वातावरण आणि त्यातून झालेली आयुष्याची मिळकत हीही माझ्यासाठी खूप मोलाची आहे.
आठवणी खूपच आहेत. मनाच्या कॅनव्हासवर अनेक रेघारेघोट्यांचं जाळं चित्रित झालेलं आहे आणि आजही जेव्हा जेव्हा मन उघडं होतं तेव्हा तेव्हा या चित्रांचं पुन्हा एकदा सुरेख प्रदर्शन मनात मांडलं जातं.
घराच्या खालच्या मजल्यावर दोन दोन खोल्यांचे स्वतंत्र असे खण होते. हल्लीच्या शब्दात म्हणायचे तर ब्लॉक्स होते. फ्लॅट्स हा शब्द या घरांसाठी उचित नाही. फ्लॅट म्हटलं की एक निराळी संस्कृती, निराळे आकार, निराळी रचना, संपूर्णपणे वेगळीच जीवन पद्धती नकळतच उभी रहाते. फार तर दोन दोन खोल्यांची ती स्वतंत्र घरे होती असं म्हणूया आणि त्यात गद्रे आणि मोहिले हे आमचे दोन भाडोत्री रहात होते. वाचकहो! भाडोत्री हा शब्दही मला आवडत नाही. भाडोत्री या शब्दात दडलाय एक तुच्छपणा, काहीसा उपहास अगदीच टाकाऊ आणि नकारात्मक शब्द आहे हा असे मला वाटते. “ ते आमचे भाडोत्री आहेत.” असं म्हणणारा मला उगीचच गर्विष्ठ वाटतो. कुठेतरी अहंकाराचा दर्प तिथे येतो. अशावेळी खरोखरच मराठी भाषेचा जाज्वल्य अभिमान असला तरीही टेनन्ट हा शब्द भावना न दुखावणारा वाटतो. असो. सांगायचं होतं ते इतकंच की त्या खालच्या मजल्यावरच्या दोन स्वतंत्र घरात गद्रे आणि मोहिले यांचे परिवार भाड्याने राहत होते. महिन्याला पाच रुपये असे भरभक्कम भाडे! दोन्ही घरांना मागचं दार होतं आणि तिथेच एक मोरी होती. ती त्या दोघांकरिता सामायिक होती. कपडे धुण्यासाठी एक घडवलेला काळा चौकोनी दगड आणि पाण्यासाठी नळही होता आणि मोरीच्या एका बाजूला कॉमन टॉयलेटही होतं.संडास म्हणण्यापेक्षा टॉयलेट बरं वाटतं.शिवाय त्यावेळी फ्लश नसायचे पण त्या काळात भाड्याने राहण्यासाठी ज्या सोयी सुविधा अपेक्षित होत्या त्या सर्व या घरांसाठी होत्या असं म्हणायला हरकत नाही आणि अशा या घरामध्ये हे दोन परिवार सुखाने राहत होते.
गद्रे होते ब्राह्मण आणि मोहिले होते चांद्रसेनीय कायस्थ प्रभू. गद्रे कट्टर कोकणस्थ आणि मोहिले पक्के मांस मच्छी खाणारे. मोहिलेंच्या ताईंनी बोंबील तळले की गद्रे वहिनी मागचं दार धाडकन जरा जोरातच आपटून लावायच्या आणि दार आपटल्याचा आवाज आला की माझी आजी वरून गद्रे वहिनींवर रागवायची,” अहो दारं आपटू नका. दार मोडलं ना तर स्वतःच्या खर्चाने नवे दार बसवावे लागेल हे लक्षात ठेवा.”
अखेर आम्ही घरमालक होतो ना?
पण अशा थोड्याफारच धुसफुसी होत्या बाकी सारी गोडी गुलाबी होती. गद्रे वहिनी त्यांच्या कोकणस्थित माहेराहून येताना फणस घेऊन यायच्या आणि त्याचे गोड,रसाळ गरे सगळ्या गल्लीत वाटायच्या.
पाऊस पडला की पहिल्या आठवड्यात शेवळं ही रानभाजी ठाण्यात मिळायची. अजूनही मिळते. या शेवळाची भाजी अथवा कणी मोहिले ताईंनी केली की त्या वाटीभर घरोघरी पाठवायच्या. वेगळ्या चवीची रुचकर भाजी आणि खूप मेहनतीची पण लहानपणी खाल्लेल्या या रानभाजीची चव आजही माझ्या रसानेवर तशीच्या तशी आहे. ही अत्यंत गुंतागुंतीची आणि मेहनतीची भाजी करण्याच्या भानगडीत मी कधीच पडले नाही कारण माझ्या डोळ्यासमोर याही भाजीचा एक इतिहासच आहे.
माझे वडील यास्तव खास सायकलवरुन बाजारात जाऊन टोपलीभर शेवळं घेऊन यायचे. बाजारात, ती पाऊस पडल्यावर एक दोनदाच मिळते म्हणून ही बेगमी करून ठेवायची. या भाजीची निवडून साफसफाई माझी आजी अत्यंत मन लावून करायची. ती शास्त्रशुद्ध चिरून भर तेलात तळून ठेवायची आणि अशी ही चिरलेली तळून ठेवलेल्या शेवळाची भाजी निदान चार-पाच वेळा तरी वेगवेगळ्या प्रकाराने घरात शिजायची. या कामासाठी वडील,आई आणि आजी अत्यंत झटायचे आणि आम्ही ती चाटून पुसून खायचो. त्यावेळी खाद्यपदार्थ टिकवण्यासाठी रेफ्रीजरेटर ही संकल्पना इतकी प्रचलित नव्हती. आणि अभावानेच पण ज्यांच्याकडे असायचा त्या ठाण्यातल्या धनवान व्यक्ती होत्या. आणि त्यांची घरे अथवा बंगले जांभळीनाका,नौपाडा,घंटाळी अशा उच्चस्तर वस्तीत असायचे. त्यांचा क्लासच वेगळा होता.
मात्र अशी ही पारंपरिक आणि गुंतागुंतीची, प्रचंड मेहनतीची शेवळाची भाजी आजही माझी ताई आणि धाकटी बहीण निशा तीच परंपरा सांभाळत तितकीच चविष्ट बनवतात आणि तुम्हाला खरं वाटणार नाही पण आजही मी केवळ ती भाजी खाण्यासाठी पुण्याहून ठाण्याला बहिणीकडे जाते कारण शेवळाची भाजी हा माझ्यासाठी केवळ खाद्यपदार्थच नव्हे तर या चवीभोवती माझ्या बालपणीच्या रम्य आणि खमंग आठवणी आहेत.हे व्यावहारिक नसेल पण भावनिक आहे.आजही शेवळाची भाजी खाणं हा एक सामुहिक आनंद सोहळा आहे.
तर गद्रे आणि मोहिले याविषयी आपण बोलत होतो.
मोहिल्यांची चारू ही माझी अतिशय जिवलग मैत्रीण. तिचे भाऊ शरद, अरुण शेखर हेही मित्रच होते. शेखर तसा खूप लहान होता आणि तो माझी धाकटी बहिण छुंदा हिचा अत्यंत आवडता मित्र होता याविषयीचा एक गंमतीदार किस्साही आहे. तोही आपण या माझ्या जीवन प्रवासात वाचणार आहोतच.
चारुच्या वडिलांना भाई आणि आईला ताई असेच सारेजण म्हणायचे. भाई हे अत्यंत श्रद्धाळू आणि धार्मिक होते. साईबाबांवर त्यांची नितांत श्रद्धा आणि भक्ती होती. ते कोणत्यातरी सरकारी कार्यालयात नोकरीला होते. पगार बेताचाच पण तरी चार मुलांचा प्रपंच ते नेटाने सांभाळत होते. त्या वयात आम्हा मुलांना त्यांच्या प्रापंचिक समस्या जाणवत नव्हत्या. कधीतरी ताई आणि भाईंची झालेली भांडणं, शब्दांची आणि भांड्यांची आदळआपट ऐकू यायची त्यावेळी चारू आमच्याकडे किंवा समोरच्या मुल्हेररकरांकडे जाऊन बसायची. गल्लीतली आम्ही सगळीच मुलं अशावेळी एकत्र असायचो. कधी ना कधी हे प्रत्येकाच्या घरी घडायचं आणि त्यावेळी नकळतच आम्ही सारी अजाण,भयभीत झालेली मुलं अगदी जाणतेपणाने एकमेकांसाठी मानसिक आधार बनायचो.
भांडण मिटायचंच. तो एक तात्पुरताच भडका असायचा. नंतर ताई निवांतपणे घराच्या पायरीवर येऊन बसायच्या आणि भाई जोरजोरात टाळ्या वाजवत साईबाबांची आरती म्हणायचे
।।माझा निजद्रव्य ठेवा
तुम्हा चरण रजसेवा
मागणे हेचि आता
तुम्हा देवाधिदेवा।।
आजही ही आरती म्हणताना माझ्या डोळ्यासमोर सहजपणे टाळ्या वाजवणारे भाई येतात.
गल्लीत अण्णा गद्रे आणि गद्रे वहिनी हे जोडपंही तिथल्या संस्कृतीत सामावलेलं होतं. अण्णांचा दूधाचा व्यवसाय होता. मला आता नक्की आठवत नाही पण त्यांचा आणखी काही जोडधंदाही होता. अण्णांची मिळकत चांगली होती, काही जण गमतीने अण्णांवर टीका करीत. “गद्र्यांचा काय पाण्याचा पैसा”
दुधात पाणी घालून ते विकायचे म्हणून हा प्रहार असायचा.
वहिनी ही गोऱ्यापान, गुबगुबीत आणि हिरवट घारे डोळे असलेल्या एकदम टिपिकल कोब्रा महिला आणि घट्ट काष्ट्याचे लुगडं नेसलेल्या, ठुमकत चालणाऱ्या आणि आपण कोकणस्थ ब्राह्मण असल्याचा एक गर्व चेहऱ्यावर घेऊन वावरणाऱ्या वहिनी मला आजही आठवतात. त्यांच्या हातच्या ताकाची चव मी कधीही विसरू शकणार नाही. पण त्यांच्याविषयी आता जेव्हा माझ्या मनात विचार येतो तेव्हा तीव्रतेने एक सलही बोचतो. या गद्रे दांपत्यांना लागोपाठ तीन मुली झालेल्या होत्या.
विजू, लता, रेखा. आम्ही साऱ्या अगदी गाढ मैत्रिणीच होतो. या तिघींना आण्णांचा अतिशय धाक होता.अण्णांचं मुलींवर प्रेम नव्हतंच असं काही मी म्हणू शकत नाही पण एक मात्र खरं की त्यांना मुलगा हा हवाच होता. मुली झाल्या म्हणून ते नेहमी दुःखीच असायचे. रेखाच्या पाठीवरही त्यांना एक दोन कन्यारत्नं झाली पण ती काळाने हिरावून नेली. त्यांना मूठमाती देऊन अण्णा जेव्हा घरी येत आणि डोक्यावरून आंघोळ करत तेव्हा त्यांना कुठेतरी सुटल्याची भावना वाटत असावी. वहिनी काही काळ मुसमुसत कदाचित त्यांच्या मातृत्वाला झालेली जखम थोडी भळभळायची. गल्लीतली मंडळी मात्र म्हणायची “मुलगी जन्माला आली आणि अण्णांनी तिला अफू पाजली”
हे खूप भयंकर होतं पण त्यावेळी याचा अर्थ कळायचा नाही. खरं की खोटं हे ही माहीत नव्हतं पण या सगळ्यांमागे मुलीच्या जन्माचं दुःख होतं हे निश्चित आणि ते मात्र प्रखरतेने जाणवायचं,बोचायचं,प्रश्नांकित करायचं.
अखेर या दांपत्यास एक मुलगा झाला. त्याचे दणक्यात बारसेही झाले. गल्लीत अण्णांनी केशरयुक्त पेढे मन मुराद वाटले. आनंदी आनंद साजरा केला त्या मुलाचे नाव ठेवले मोरेश्वर आणि गल्लीत तो झाला सगळ्यांचा मोरया कधी मोरू, कधी मोर्या.
आणि अशा पार्श्वभूमीवर आम्ही पाच बहिणी होतो आणि माझी आजी अभिमानाने म्हणायची “माझ्या पाच नाती म्हणजे माझे पाच पांडव आहेत.”
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 199 – कथा क्रम (स्वगत)…