हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी

☆ कहाँ गए वे लोग # २१ ☆

☆ ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा, आत्म विश्वास भारी स्नेह सिक्त प्रभावशाली वाणी, जो उनसे मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति का सकारात्मक दिशा दर्शन करती थीं । सदा आशीष और मंगलकामनाओं के लिए उठते हाँथ । जी हां, मुझे तो हमेशा ऐसे ही नजर आए डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी जी । संस्कारधानी जबलपुर को उनकी जन्म स्थली कहलाने का गौरव प्राप्त है । उन्होंने जबलपुर, वृन्दावन एवं वाराणसी से शिक्षा प्राप्त की थी । वे संस्कृत एवं पालि-प्राकृत में एम.ए., साहित्याचार्य, पी.एच-डी. थे । उन्होंने वेद-पुराणों सहित संस्कृत के समृद्ध साहित्य का गहन अध्ययन किया था । आपको डी-लिट्.की मानद उपाधि भी प्राप्त हुई, किन्तु ज्ञान पिपासा ऐसी कि कभी शांत नहीं हुई ।

डॉ. कृष्णकांत चतुर्वेदी रादुविवि जबलपुर के आचार्य एवं अध्यक्ष संस्कृत, पालि-प्राकृत, स्नातकोत्तर अध्ययन एवं शोध विभाग तथा निदेशक राजशेखर अकादमी, निदेशक कालिदास अकादमी उज्जैन, कुलगुरु राजशेखर पीठ संस्कृति विभाग म.प्र. शासन रहे हैं । आप केंद्रीय संस्कृत बोर्ड भारत सरकार के लगातार 6 वर्षों तक सदस्य रहे । आपने योजना समिति वि वि अनुदान आयोग दिल्ली एवं अखिल भारतीय कालिदास समारोह समिति में सदस्य के रूप में महत्वपूर्ण कार्य किये साथ ही संस्कृति परिषद, म.प्र.संस्कृति विभाग, आल इंडिया ओरिएण्टल पूना, एमेरिट्स वि वि अनुदान आयोग दिल्ली व प्रदेश एवं देश के लगभग 50 विश्वविद्यालयों की विभिन्न समितियों में महत्वपूर्ण पद पर अथवा सदस्य रहते हुए  अपने अनुभवों का लाभ दिया ।

विविध विषयों पर आपके व्याख्यान, भाषण-संभाषण अत्यंत जानकारीपूर्ण व प्रभावशाली होते थे । आपकी वाक कला श्रोता-दर्शकों को मंत्र मुग्ध कर देती थी । आपके मुखारबिंद से प्रस्तुत भागवत कथा सहित अन्य कथाएं श्रोताओं के मन-मस्तिष्क में वर्णित घटनाओं-परिस्थितियों का दृश्यांकन करते हुए उन्हें उस काल में पहुँचा कर रस विभोर कर देती थीं ।

अकातो ब्रह्म जिज्ञासा, द्वैत-वेदांत तत्व समीक्षा, आगत का स्वागत, विवेक मकरंदम, पिबत भागवतम, जयतीर्थ स्तुति काव्य, ब्रज-गंधा (ब्रज भाषा में), आपके द्वारा रचित-प्रकाशित महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं । इसके साथ ही आपने डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री, श्री रामचन्द्र दास शास्त्री के स्मृति ग्रंथ एवं स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि अभिनंदन ग्रंथ का संपादन भी किया । विशिष्ट विषयों पर दो दर्जन शोध निबंधों का प्रकाशन भी हुआ । आपके मार्गदर्शन में 40 छात्रों ने पी-एच-डी. एवं तीन छात्रों ने डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त की है ।

शिक्षा जगत एवं समाज को महत्वपूर्ण योगदान के लिए आपको राष्ट्रपति सम्मान पत्र से, डी.लिट्. की मानद उपाधि से तथा जगतगुरु शंकराचार्य पीठ प्रयाग द्वारा सम्मानित किया गया । अखिल भारतीय स्वामी अखंडानंद सरस्वती सम्मान, अखिल भारतीय रामानंद सम्मान, अखिल भारतीय पद्मभूषण पंडित रामकिंकर सम्मान से भी आप अलंकृत हुए । इतनी उपलब्धियों के बाद भी आपके चिंतन-मनन,  ज्ञानार्जन और साधना की आजीवन जारी अविराम यात्रा को व समाज को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करने आपकी व्याकुलता को हम सदा स्मरण करते हुए नमन करते रहेंगे । सादर नमन ।

श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 199 – “आँखो में घिरते हैं बादल…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत आँखो में घिरते हैं बादल...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 199 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “आँखो में घिरते हैं बादल...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

शंकायें व असंतोष

हम पर आ औंधे हैं

हृष्टपुष्ट दीवारें है

खोखले घरोंदे हैं

गंधहीन सपने हैं

खाली खाली है चिन्तन

जिस पर सधा हुआ है

अपना यह बैरागी मन

 *

चुगली करते मौसम की

बेदाग परिस्थितियाँ

खोज रही है सुखकर रस्ते

कितने सोंधे हैं

 *

और खटास मोहल्ले की

जिसकी कड़वी बातें

जगा जगा जाती है हरदम

उलझी बरसातें

 *

आँखो में घिरते हैं बादल

तो उदास झरने

फूल नहीं पाये जिनके

अभिशप्त करोंदे हैं

 *

इस समाज में रहते रहते

भूल गया रहना

और उमीदों का पड़ौस

बन गया दुख सहना

 *

चमकदार बुनियादी बातें

प्रश्न लिये गहरे

जो अब रह रह कर आँखों

में जैसे कोंधे हैं

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

23-06-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 186 ☆ # “मुझे अब जीने की आस नही” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मुझे अब जीने की आस नही

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 186 ☆

☆ # “मुझे अब जीने की आस नही” # ☆

मैं तपते रेगिस्तान में

रेत के तूफान में

कब से भटक रहा हूँ

कब से अटक रहा हूँ

ढूंढ रहा हूं जल की बूंदें

हाथ जोड़े आंखें मूंदे

हर पल कितना भारी है

यह कैसी दुश्वारी है

अब मुश्किल है शायद बचना

हर तरफ फैली है मृगतृष्णा

मेरा लक्ष्य ही जल को पाना है

अपनी प्यास बुझाना है

फिर कैसे कह दूँ मुझे प्यास नहीं

मुझे अब जीने की आस नही

 

यह कैसे वक्त के धारे हैं

पथ में रखे अंगारे हैं  

तपती हुई चट्टानें हैं  

गर्मी सीना ताने हैं  

कोई पेड़ नहीं,

कोई छांव नहीं

बंजर जमीन है चारों तरफ़

दूर दूर तक कोई गांव नहीं

राह के पत्थर जैसे भाले हैं

पांव में कितने छालें हैं  

शरीर थक कर चूर है  

मंजिल कितनी दूर है  

धक धक करती धड़कन है

निराश कितना यह मन है

फिर कैसे कह दूँ  

मुझे आभास नहीं

मुझे अब जीने की आस नहीं

 

कुछ लोग मिले और छूट गये

रिश्ते बने और टूट गये

कुछ मैंने देखे सपने थे

कुछ दिल के करीब अपने थे

कुछ तपती धूप के साये थे

जब नींद टूटी तो पराये थे

मैं छाछ से ही जला था

मुझे अपनों ने ही छला था

निराले जीवन के रंग थे

अजीब दुनिया के ढंग थे

मैं तो अकेला ही चला था

तपते रेगिस्तान में ही पला था

जल की बूंद बूंद को तरसा था

पर पानी नहीं बरसा था

ना प्यास बुझी

ना भूख मिटी

ना प्यार मिला

किस किस से करूं

मैं यही गिला

फिर कैसे कह दूँ  

मुझे अहसास नहीं  

मुझे अब जीने की आस नहीं/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – राम जाने… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘राम जाने…‘।)

☆ कविता – राम जाने… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

चांद तारों से मिलकर,

सज कर संवर कर,

किससे मिलने चला,

ये तो राम जाने,,

 

फूल डाली पर खिलकर,

कलियों से मिलकर,

किससे मिलने खिला,

ये तो राम जाने,,

 

नदी पर्वत से चलकर,

झरनों में ढलकर,

किसको रही है बुला,

ये तो राम जाने,

 

यूं ही जीवन है,

चलता है मगर,

जाना है किधर,

ये तो राम जाने,

 

न कुसूर,न फितूर,

प्यार में डूब गए,

आगे क्या होगा अब,

ये तो राम जाने,

 

राज की बात है,

राज ही रहने दो,

खुलने पर क्या होगा,

ये तो राम जाने,

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 182 ☆ असे वाटले माझ्या मनाला… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 182 ? 

असे वाटले माझ्या मनाला ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

असे वाटले माझ्या मनाला

पुन्हा एकदा बालक व्हावे

सोडोनी सर्व कष्ट चिंता

आपल्यात, आपण रमून जावे.!!

*

असे वाटले माझ्या मनाला

मित्र जुने मज भेटावे

विटी दांडू गोट्या कबड्डी

खेळ लिलया मग खेळावे…!!

*

असे वाटले माझ्या मनाला

लपाछपी रंगून जावी

खोडकर वृत्ती खेळण्यातली

त्याची एकदा उजळणी व्हावी…!!

*

असे वाटले माझ्या मनाला

शाळेत पट्कन लगेच बसावे

कमरे खाली घसरणारी चड्डी

हाताचा आधार, पळत सुटावे…!!

*

असे वाटले माझ्या मनाला

उचलून मला कुणीतरी घ्यावे

रडूनी सुजले डोळे जर-तर

खाऊसाठी पैसे मिळावे…!!

*

असे वाटले माझ्या मनाला

बोबडे बोल पुन्हा बोलावे

सोडूनि सर्व, कामे हातातली

आईने मज, दूध पाजावे…!!

*

असे वाटले माझ्या मनाला

काळ पुन्हा मागे सरकावा

मुक्त विहार करतांना कधी

वडिलांचा, प्रसाद मिळावा…!!

*

असे वाटता माझ्या मनाला

स्वप्नातून भानावर आलो

क्षणभर स्तब्ध होतांनाच

गालातल्या गालात, मी हसलो…!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 250 ☆ कथा-कहानी ☆ मातमपुर्सी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – मातमपुर्सी⇒⇒⇒। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 250 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ मातमपुर्सी 

वह चौंका देने वाली खबर जब मुर्तज़ा ने मुझे सुनायी तब मैं तख़्त पर  पसरा, मुन्नी की जांच कराने मेडिकल कॉलेज जाने के लिए छुट्टी लेने की बात सोच रहा था।

घर में घुसते ही उसने बड़े संजीदा स्वर में कहा, ‘सुना तुमने? वर्मा की मौत हो गयी।’

सुनकर मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा, पूछा, ‘क्या?’

उसने बताया कि वर्मा को आठ दस दिन पहले किसी पुराने तार की खराश लग गयी थी, उसी से उसको टेटनस हो गया था। कल रात से उसकी तबियत बिगड़ी और सवेरे पाँच बजे सब ख़त्म हो गया।

सुनते सुनते मेरा ‘शॉक’ घुलने लगा। शीघ्र ही मैं प्रकृतिस्थ हो गया। मन में कहीं सुखद अहसास दौड़ गया कि छुट्टी लेने से बच गया।

मैंने मुर्तज़ा से पूछा कि क्या वह वर्मा के घर पहुँच रहा है। मुर्तज़ा ने बताया कि वह देर से पहुँच पाएगा। अपने बच्चे के सरकारी स्कूल में एडमीशन के लिए उसे एक स्थानीय नेता से सिफारिश के सिलसिले में मिलना था।

मुर्तज़ा के जाने के बाद पत्नी ने पूछा, ‘कहाँ जा रहे हो?’

मैंने नाटकीय गंभीरता से कोट के  बटन बन्द करते-करते कहा, ‘वर्मा खत्म हो गया।’

फिर मैं उसके ‘हाय’ कहकर मुँह पर हाथ रखने और स्तंभित हो जाने का आनन्द लेता रहा।

‘कितने बच्चे हैं उनके?’, उसने पूछा।

‘दो छोटे बच्चे हैं’, मैंने उसी बनावटी गंभीरता से कहा।

उसने ‘च च’ किया।

‘तो अब दाह करके ही लौटोगे क्या?’, उसने पूछा।

मैंने कहा, ‘जल्दी आ जाऊँगा। श्मशान नहीं जाऊँगा। मेडिकल कॉलेज भी तो जाना है।’

बाहर निकला तो शरीर पर सवेरे की धूप का स्पर्श बड़ा सुखद लगा। वर्मा का मकान मेरे घर से ज़्यादा दूर नहीं है।

रास्ते में तिवारी दादा मिल गये। उनके प्रश्न के उत्तर में मैंने बताया कि मेरे सहयोगी वर्मा की मृत्यु हो गयी है।

‘अरे!’, दादा के मुँह से निकला। मृत्यु का कारण जान लेने के बाद उन्होंने कहा, ‘बहुत बुरा हुआ।’

मैं उनसे विदा लेकर आगे बढ़ा ही था कि लगा वे मुझे पुकार रहे हैं। मैंने घूमकर देखा तो वे सचमुच रुके हुए थे। मैं उनके पास गया।

वे परेशानी के स्वर में बोले, ‘सुनो, मुझे कभी अपने वैद्य जी के पास ले चलो न। तीन महीने से पेट में बहुत गैस बनती है। भूख नहीं लगती। मुँह में खट्टा पानी आता है। पेट भी साफ नहीं रहता। बड़ी तकलीफ रहती है।’

मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि उन्हें ज़रूर ले जाऊँगा।

वर्मा के यहाँ पहुँच कर लगा कि अभी देर-दार है। सामान जुटाया जा रहा था। वर्मा के भाई से सहानुभूति जता कर मैं सामने वाले बंगले के गेट के पास धूप में खड़ा हो गया।

बंगले के निवासी एक सज्जन और उनकी पत्नी भी गेट के पास खड़े होकर सामने का दृश्य देख रहे थे। वे बोलचाल से पंजाबी लग रहे थे। महिला शिकायती लहज़े में पति से कह रही थी— ‘जाने किस बुरी घड़ी में इस मकान में आये थे। एक महीने में मोहल्ले में तीन-तीन मौतें देख चुकी हूँ। इससे तो सराफा वाला मकान अच्छा था। तुम्हीं तो नेपियर टाउन के लिए आफत किये रहते थे।’

दफ्तर के लोग एक-एक कर पहुँच रहे थे। उपाध्याय मेरे पास आकर खड़ा हो गया। ‘बहुत बुरा हुआ’, वह बोला। थोड़ी देर रुक कर चिन्तित स्वर में बोला, ‘कहना तो न चाहिए, लेकिन अब वर्मा साहब वाली पोस्ट पर प्रमोशन का मेरा चांस है। लेकिन साहब नाखुश रहते हैं। देखो करते हैं या नहीं। आपसे साहब की बात हो तो सपोर्ट करिएगा।’

थोड़ी देर में साहब की कार भी आ गयी। दफ्तर के सब लोगों ने उन्हें घेर लिया। साहब जब तक उपस्थित रहे, सब लोग उनके इर्द-गिर्द ही सिमटे रहे। उनकी प्रत्येक जिज्ञासा का समाधान करने में एक दूसरे से स्पर्धा  करते रहे। साहब के आने से सबके चेहरे पर चमक आ गयी थी। जब तक साहब वहाँ रुके, वर्मा के शव से ज़्यादा वे सब के ध्यान का केन्द्र बने रहे। वे आधे घंटे बाद कार में बैठकर चले गये।

इस बीच मुर्तज़ा भी वहाँ पहुँच गया था। उसके चेहरे पर संतोष और निश्चिंतता का भाव था, जिससे लगता था उसका काम हो गया था।

शव के उठने की तैयारी हो रही थी। मैं बगल की एक कुलिया में घुसकर चुपचाप वहाँ से फूट लिया। देखा तो आगे आगे शेवड़े जा रहा था। वह भी मेरी तरह खिसक आया था।

मैंने आवाज़ देकर उसे रोका। पहले तो मैंने अपनी शर्म को ढकने के लिए उसे सफाई दी कि मेडिकल कॉलेज जाना ज़रूरी है, फिर उसके चले आने का कारण पूछा।

वह बोला, ‘यार क्या बताऊँ। घर में अनाज खत्म हो रहा है और बहुत से व्यापारी बतलाते हैं कि कल बोरे पर पन्द्रह-बीस रुपये कीमत बढ़ जाएगी। इसलिए सोचता हूँ आज कुछ लेकर डाल दूँ। इतवार तक तो जाने क्या हालत होगी।’

घर पहुँचने पर देखा कि साले साहब पधारे हुए थे। पत्नी प्रमुदित घूम रही थी। साले साहब ने बताया कि छोटी बहन की शादी एक माह बाद होने वाली थी, इसलिए वे दीदी को लेने आये थे। मुझे भी बाद में पहुँचना था। सुनकर मूड एकदम ‘ऑफ’ हो गया।

‘जल्दी नहा कर खाना खा लो’, पत्नी ने कहा।

भोजन के लिए बैठने पर देखा भाई के सत्कार के लिए पत्नी ने कई चीज़ें बना डाली थीं। भोजन बड़ा स्वादिष्ट था। खाते-खाते पत्नी के जाने की बात की कड़वाहट भूलने लगा।

हाथ धोते समय अचानक याद आया कि वर्मा की मृत्यु हो गयी है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 249 – मन एव मनुष्याणां ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 249 मन एव मनुष्याणां ?

‘मेरे शुरुआती दिनों में उसने मेरे साथ बुरा किया था। अब मेरा समय है। ऐसी हालत की है कि ज़िंदगी भर याद रखेगा।’…’मेरी सास ने मुझे बहुत हैरान-परेशान किया था। बहुत दुखी रही मैं। अब घर मेरे मुताबिक चलता है। एकदम सीधा कर दिया है मैंने।’…’उसने दो बात कही तो मैंने भी चार सुना दीं।’…आदि-आदि। सामान्य जीवन में असंख्य बार प्रयुक्त होते हैं ऐसे वाक्य।

यद्यपि  पात्र और परिस्थिति के अनुरूप हर बार प्रतिक्रिया भिन्न हो सकती है पर मनुष्य के मूल में मनन न हो तो मनुष्यता को लेकर चिंता का कारण बनता है।

मनुष्यता का सम्बंध मन में उठनेवाले भावों से है। मन के भाव ही बंधन या मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। कहा गया है,

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।

मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का प्रमुख कारण है।

वस्तुत: भीतर ही बसा है मोक्ष का एक संस्करण, उसे पाने के लिए, उसमें समाने के लिए मन को मनुष्यता में रमाये रखो। मनुष्यता, मनुष्य का प्रकृतिगत लक्षण है।प्रकृतिगत की रक्षा करना मनुष्य का स्वभाव होना चाहिए।

एक साधु नदी किनारे स्नान कर रहे थे। डुबकी लगाकर ज्यों ही सिर बाहर निकाला, देखते हैं कि एक बिच्छू बहे जा रहा है। साधु ने समय लगाये बिना अपनी हथेली पर बिच्छू को लेकर जल से निकालकर भूमि की ओर फेंकने का प्रयास किया। फेंकना तो दूर जैसे ही उन्होंने बिच्छू को स्पर्श किया, बिच्छू ने डंक मारा। साधु वेदना से बिलबिला गये, हथेली थर्रा गई, बिच्छू फिर पानी में बहने लगा। अपनी वेदना पर उन्होंने बिच्छू के जीवन को प्रधानता दी। पुनश्च बिच्छू को हथेली पर उठाया और क्षणांश में ही फिर डंक भोगा। बिच्छू फिर पानी में।…तीसरी बार प्रयास किया, परिणाम वही ढाक के तीन पात। किनारे पर स्नान कर रहा एक व्यक्ति बड़ी देर से घटना का अवलोकन कर रहा था। वह साधु से बोला, ” महाराज! क्यों इस पातकी को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। आप बचाते हैं और यह काटता है। इस दुष्ट का तो स्वभाव ही डंक मारना है।” साधु उन्मुक्त हँसे, फिर बोले, ” यह बिच्छू होकर अपना स्वभाव नहीं छोड़ सकता तो मैं मनुष्य होकर अपना स्वभाव कैसे छोड़ दूँ?”…

लाओत्से का कथन है, “मैं अच्छे के लिए अच्छा हूँ, मैं बुरे के लिए भी अच्छा हूँ।” यही मनुष्यता का स्वभाव है। मनन कीजिएगा क्योंकि ‘मन एव मनुष्याणां…।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 196 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 196 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 196) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 196 ?

☆☆☆☆☆

क्यूँ  कर  आरजू  करूँ  कि

तुम  मुझे  चाहोगे  उम्र  भर

इतना ही ऐतबार काफी है कि

ताउम्र भूल नहीं पाओगे तुम मुझे

☆☆

Why  should  I  desire that  you

must love me throughout the life

The trust that you won’t be able

to forget me lifelong, is enough

☆☆☆☆☆

तुझको ही फुरसत न थी

किसी फसाने को पढ़ने की

मैं  तो  बिकता ही  रहा  तेरे

शहर में किताबों  की  तरह…!

☆☆

You only had no time to  

to  read  any  parables…

Though I kept on selling

like books in your city…!

☆☆☆☆☆

कभी  उल्फत, तो  कभी नियत बदल  गई

खुदगर्ज जब हुए, तो फिर सीरत बदल गई

अपना  कुसूर, दूसरों  के  सर  पे डाल  कर

कुछ लोग सोचते हैं  कि हकीकत बदल गई

☆☆

By attributing  own  guilt

on someone else’s head

Some people  think that

the reality has changed…

☆☆☆☆☆

 कभी चुभ  जाती  है  बात

तो कभी तल्ख़ लहज़े  मारते  हैं

ये ज़िंदगी है, साहब! यहाँ गैरों से

कम, अपनों से  ज्यादा हारते हैं!

☆☆

Sometimes  the  words hurt  you,

Sometimes the tone agonizes you

This is the life, dear! Here we lose

More  to loved  ones than  outsiders!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 196 ☆ सॉनेट – प्रणामांजलि ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – प्रणामांजलि…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 196 ☆

☆ सॉनेट – प्रणामांजलि ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

(अभिनव प्रयोग)

आराम-विराम न साध्य जिन्हें

कर सकीं न बाधा बाध्य जिन्हें,

था सत्य-धर्म आराध्य जिन्हें

शत नित्य प्रणाम, प्रणाम उन्हें।

था अधिक इष्ट से भक्त जिन्हें

था शत्रु स्वार्थ-अनुरक्त जिन्हें

थी सत्ता पर में त्याज्य जिन्हें

शत नित्य प्रणाम प्रणाम उन्हें।

 *

था जनगण-मन आवास जिन्हें

था जंगल में मधुमास जिन्हें

अरि कहते थे खग्रास जिन्हें

शत नित्य प्रणाम प्रणाम उन्हें।

जो कल को कल की थाती हैं,

शत नित्य प्रणाम प्रणाम उन्हें।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१६.४.२०२४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ वाट हळदुली झाली… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?


☆ वाट हळदुली झाली… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के

आभाळ भरून आलं  

धरती भरात आली

पाऊस भूमी मिलना

वाट हळदुली झाली

*

हळदीच्या पखरणीने

जमीन दिसते देखणी

नव्हाळी चढे अंगावर

या फुलांच्या पखरणी

*

की वाट जाहली ही

जेजुरी गडाची वाट

खंडेरायाचा भंडारा

भक्ते उधळला दाट

*

वाट जेजुरीची हिच

हीच म्हाळसाईची वाट

जाता  पुढेच लागेल

असा बाणाईचा घाट

*

या  पिवळ्याची जादू

त्याच्या रंगातुन बोले

पीत फुलांची  पखरण

किती आठवात आले !

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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