हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #240 ☆ मोहे चिन्ता न होय… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख मोहे चिन्ता न होय… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 240 ☆

मोहे चिन्ता न होय… ☆

‘उम्र भर ग़ालिब, यही भूल करता रहा/ धूल चेहरे पर थी, आईना साफ करता रहा’– ‘इंसान घर बदलता है, लिबास बदलता है, रिश्ते बदलता है, दोस्त बदलता है– फिर भी परेशान रहता है, क्योंकि वह ख़ुद को नहीं बदलता।’ यही है ज़िंदगी का सत्य व हमारे दु:खों का मूल कारण, जहां तक पहुंचने का इंसान प्रयास ही नहीं करता। वह सदैव इसी भ्रम में रहता है कि वह जो भी सोचता व करता है, केवल वही ठीक है और उसके अतिरिक्त सब ग़लत है और वे लोग  दोषी हैं, अपराधी हैं, जो आत्मकेंद्रितता के कारण अपने से इतर कुछ देख ही नहीं पाते। वह चेहरे पर लगी धूल को तो साफ करना चाहता है, परंतु आईने पर दिखाई पड़ती धूल को साफ करने में व्यस्त रहता है… ग़ालिब का यह शेयर हमें हक़ीक़त से रूबरू कराता है। जब तक हम आत्मावलोकन कर अपनी गलती को स्वीकार नहीं करते; हमारी भटकन पर विराम नहीं लगता। वास्तव में हम ऐसा करना ही नहीं चाहते। हमारा अहम् हम पर अंकुश लगाता है; जिसके कारण हमारी सोच पर ज़ंग लग जाता है और हम कूपमंडूक बनकर रह जाते हैं। हम  जीवन में अपनी इच्छाओं की पूर्ति तो करना चाहते हैं, परंतु उचित राह का ज्ञान न होने के कारण अपनी मंज़िल पर नहीं पहुंच पाते। हम चेहरे की धूल को आईना साफ करके मिटाना चाहते हैं। सो! हम आजीवन आशंकाओं से घिरे रहते हैं और उसी चक्रव्यूह में फंसे, सदैव चीखते -चिल्लाते रहते हैं, क्योंकि हममें आत्मविश्वास का अभाव होता है। यह सत्य ही है कि जिन्हें स्वयं पर भरोसा होता है, वे शांत रहते हैं तथा उनके हृदय में संदेह, संशय, शक़ व दुविधा का स्थान नहीं होता। वे अंतर्मन की शक्तियों को संचित कर निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं; कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते। वास्तव में उनका व्यवहार युद्धक्षेत्र में तैनात सैनिक के समान होता है, जो सीने पर गोली खाकर शहीद होने में विश्वास रखता है और आधे रास्ते से लौट आने में भी उसकी आस्था नहीं होती।

परंतु संदेह-ग्रस्त इंसान सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है; सपनों के महल तोड़ता व बनाता रहता है। वह अंधेरे में ग़लत दिशा में तीर चलाता रहता है। इसके निमित्त वह घर को वास्तु की दृष्टि से शुभ न मानकर उस घर को बदलता है; नये-नये लोगों से संपर्क साधता है; रिश्तों व परिवारजनों तक को नकार देता है; मित्रों से दूरी बना लेता है… परंतु उसकी समस्याओं का अंत नहीं होता। वास्तव में हमारी समस्याओं का समाधान दूसरों के पास नहीं; हमारे ही पास होता है। दूसरा व्यक्ति आपकी परेशानियों को समझ तो सकता है; आपकी मन:स्थिति को अनुभव कर सकता है, परंतु उस द्वारा उचित व सही मार्गदर्शन व समस्याओं का समाधान करना कैसे संभव हो सकता है?

रिश्ते, दोस्त, घर आदि बदलने से आपके व्यवहार व दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आता; न ही लिबास बदलने से आपकी चाल-ढाल व व्यक्तित्व में परिवर्तन होता है। सो! आवश्यकता है– सोच बदलने की; नकारात्मकता को त्याग सकारात्मकता अपनाने की;  हक़ीक़त से रू-ब-रू होने की; सत्य को स्वीकारने की। जब तक हम उन्हें दिल से स्वीकार नहीं करते; हमारे कार्य-व्यवहार व जीवन-शैली में लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं आता।

‘कुछ हंसकर बोल दो/ कुछ हंस कर टाल दो/ परेशानियां बहुत हैं/  कुछ वक्त पर डाल दो’ में सुंदर व उपयोगी संदेश निहित है। जीवन में सुख-दु:ख, खशी-ग़म आते-जाते रहते हैं। सो! निराशा का दामन थाम कर बैठने से उनका समाधान नहीं हो सकता। इस प्रकार वे समय के अनुसार विलुप्त तो हो सकते हैं, परंतु समाप्त नहीं हो सकते। इस संदर्भ में महात्मा बुद्ध के विचार बहुत सार्थक प्रतीत होते हैं। जीवन में सामंजस्य स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि हम सबसे हंस कर बात करें और अपनी परेशानियों को हंस कर टाल दें, क्योंकि समय परिवर्तनशील है और यथासमय दिन-रात व ऋतु-परिवर्तन अवश्यंभावी है। कबीरदास जी के अनुसार ‘ऋतु आय फल होय’ अर्थात् समय आने पर ही फल की प्राप्ति होती है। लगातार भूमि में सौ घड़े जल उंडेलने का कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि समय से पहले व भाग्य से अधिक किसी को संसार में कुछ भी प्राप्त नहीं होता। इसी संदर्भ में मुझे याद आ रही हैं स्वरचित मुक्तक संग्रह ‘अहसास चंद लम्हों का’ की पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं।’ इसी के साथ मैं कहना चाहूंगी, ‘ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात बदलते हैं’ अर्थात् समय व स्थान परिवर्तन से मन:स्थिति व मनोभाव भी बदल जाते हैं; जीवन में नई उमंग-तरंग का पदार्पण हो जाता है और ज़िंदगी उसी रफ़्तार से पुन: दौड़ने लगती है।

चेहरा मन का आईना है, दर्पण है। जब हमारा मन प्रसन्न होता है, तो ओस की बूंदे भी हमें मोतियों सम भासती हैं और मन रूपी अश्व तीव्र गति से भागने लगते हैं। वैसे भी चंचल मन तो पल भर में तीन लोगों की यात्रा कर लौट आता है। परंतु इससे विपरीत स्थिति में हमें प्रकृति आंसू बहाती प्रतीत होती है; समुद्र की लहरें चीत्कार करने भासती हैं और मंदिर की घंटियों के अनहद स्वर के स्थान पर चिंघाड़ें सुनाई पड़ती हैं। इतना ही नहीं, गुलाब की महक के स्थान पर कांटो का ख्याल मन में आता है और अंतर्मन में सदैव यही प्रश्न उठता है, ‘यह सब कुछ मेरे हिस्से में क्यों? क्या है मेरा कसूर और मैंने तो कभी बुरे कर्म किए ही नहीं।’ परंतु बावरा मन भूल जाता है  कि इंसान को पूर्व-जन्मों के कर्मों का फल भी भुगतना पड़ता है। आखिर कौन बच पाया है…कालचक्र की गति से? भगवान राम व कृष्ण को आजीवन आपदाओं का सामना करना पड़ा। कृष्ण का जन्म जेल में हुआ, पालन ब्रज में हुआ और वे बचपन से ही जीवन-भर मुसीबतों का सामना करते रहे। राम को देखिए, विवाह के पश्चात् चौदह वर्ष का वनवास; सीता-हरण; रावण को मारने के पश्चात् अयोध्या में राम का राजतिलक; धोबी के आक्षेप करने पर सीता का त्याग; विश्वामित्र के आश्रम में आश्रय ग्रहण; सीता का अपने बेटों को अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ने पर उस सत्य से अवगत कराना; राम की सीता से मुलाकात; अग्नि-परीक्षा और अयोध्या की ओर गमन। पुनः अग्नि परीक्षा हेतु अनुरोध करने पर सीता का धरती में समा जाना’ क्या उन्होंने कभी अपने भाग्य को कोसा? क्या वे आजीवन आंसू बहाते रहे? नहीं, वे तो आपदाओं को खुशी से गले से लगाते रहे। यदि आप भी खुशी से कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो ज़िंदगी कैसे गुज़र जाती है– पता ही नहीं चलता, अन्यथा हर पल जानलेवा हो जाता है।

इन विषम परिस्थितियों में दूसरों के दु:ख को सदैव महसूसना चाहिए, क्योंकि यह इंसान होने का प्रमाण है। अपने दर्द का अनुभव तो हर इंसान करता है और वह जीवित कहलाता है। आइए! समस्त ऊर्जा को दु:ख निवारण में लगाएं। ख़ुद भी हंसें और संसार के प्राणी-मात्र के प्रति संवेदनशील बनें; आत्मावलोकन कर अपने दोषों को स्वीकारें। समस्याओं में उलझें नहीं, समाधान निकालें। अहम् का त्याग कर अपनी दुष्प्रवृत्तियों को सत्प्रवृत्तियों में परिवर्तित करने की चेष्टा करें। ग़लत लोगों की संगति से बचें। केवल दु:ख में ही सिमरन न करें, सुख में भी उस सृष्टि-नियंता को भूलाएं नहीं… यही है दु:खों से मुक्ति पाने का मार्ग, जहां मानव अनहद-नाद में अपनी सुध-बुध खोकर, अलौकिक आनंद में अवगाहन कर राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। इस स्थिति में वह प्राणी-मात्र में परमात्मा-सत्ता की झलक पाता है और बड़ी से बड़ी मुसीबत में परेशानियां उसका बाल भी बांका नहीं कर पाती। अंत में कबीर दास जी की पंक्तियों को उद्धृत कर अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी, ‘कबिरा चिंता क्या करे, चिंता से क्या होय/ मेरी चिंता हरि करे, मोहे चिंता ना होय।’ चिंता किसी रोग का निदान नहीं है। इसलिए चिंता करना व्यर्थ है। परमात्मा हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानते हैं, तो हम चिंता क्यों करें? सो! हमें सृष्टि-नियंता पर अटूट विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि वह हमारे हित में हमसे बेहतर निर्णय लेगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मीरा (संगीत नाटिका) – लेखिका- डॉ. विद्याहरि देशपांडे ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 5 ?

? मीरा (संगीत नाटिका) – लेखिका- डॉ. विद्याहरि देशपांडे ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- मीरा

विधा- संगीत नाटिका

लेखिका- डॉ. विद्याहरि देशपांडे

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? त्रिवेणी कलासंगम की प्रतीक – मीरा ☆ श्री संजय भारद्वाज ?

मीरा भक्तिजगत का अनन्य नाम है। अनेकानेक संस्कृतियों में भक्तों ने ईश्वर को भिन्न-भिन्न रूपों में देखा। किसीने परम पिता माना, किसीने परमात्मा, किसीने जगत की जननी कहा। पूरी धरती पर एक मीराबाई हुईं जिन्होंने उद्घोष किया-‘मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोय, जाँके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोय।’ सैकड़ों वर्ष पूर्व पारंपरिक भारतीय समाज में एक ब्याहता का किसी अन्य पुरुष को (चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो) अपना पति घोषित कर देना अकल्पनीय है। इस अकल्पनीय को यथार्थ में बदलकर मीरा न केवल भक्तिमार्ग की पराकाष्ठा सिद्ध हुईं वरन अध्यात्म, भक्ति, एवं प्रेम के नभ में ध्रुवतारे-सी अटल भी हो गईं।

लेखन अनुभूति को अभिव्यक्त करने का ध्रुव-सा माध्यम है। शब्द संपदा से साम्राज्य खड़ा करना लेखक की शक्ति है। इसी तरह नाटक और नृत्य  अभिव्यक्ति की दो परम ललितकलाएँ हैं। सुखद संयोग है कि चौंसठ कलाओं में पारंगत श्रीकृष्ण की अद्वितीय प्रिया मीरा को लेखनी, नाटक और नृत्य के त्रिवेणी कलासंगम के माध्यम से साकार करने का अद्भुत काम डॉ. विद्याहरि देशपांडे ने किया है।

नाटककार ने इस नृत्य नाटिका में प्रसंगानुरूप मीरा के पारंपरिक भजनों का उपयोग किया है। नाटिका पढ़ते हुए यह बात उभरकर आती है कि लेखन के पूर्व डॉ. विद्याहरि ने विषय का गहन अध्ययन किया है। इससे कथ्य में तर्क और तथ्य का संतुलन बना रहता है। मीरा के माध्यम से सती प्रथा और जौहर से मुक्त होने का आह्वान करवाकर उन्होंने अपनी सामाजिक चेतना और सामुदायिक प्रतिबद्धता को अभिव्यक्त किया है। नारी प्रबोधन के सार्वकालिक तत्व पारंपरिक कथा में पिरोना नृत्य नाटिका को अपने वर्तमान से जोड़ता है।

राणा भोजराज इस मीरा का एक और उजला पक्ष है। मीरा ने जिस पारंपरिकता को तोड़ा, शासनकर्ता होने के नाते राणा पर उस पारंपरिकता को बचाये रखने के भीषण दबाव रहे होंगे। पत्नी और प्रथा दोनों का एक ही समय बचाव करते हुए भोजराज अभूतपूर्व स्थितियों से गुजरे होंगे। इतिहास के इस उपेक्षित चरित्र को न्याय देने का सफल प्रयास नाटककार ने किया है। विद्याहरि, मीरा के माध्यम से माँसलता को प्रेम की शर्त के रूप में स्वीकार करने को नकारती हैं। वे प्रबल विश्वास और सम्पूर्ण समर्पण के आधार पर खड़े प्रेम को दैहिक संबंधों की बैसाखी थमाने की पक्षधर भी नहीं। मीरा और गिरिधर के अविनाशी नेह के साथ, मीरा और भोजराज का  विदेह समर्पण प्रेम के नए मानदंड प्रस्तुत करता है।

विद्याहरि उत्कृष्ट नृत्यांगना हैं,अपनी विधा में पारंगत और अनुभवी हैं। मंच पर प्रस्तुति की व्यावहारिक आवश्यकता को दृष्टिगत रखकर ही उन्होंने यह नाटिका लिखी है। फलतः रचना धाराप्रवाह बनी रहती है।

मीरा मात्र एक संत या कृष्णार्पित स्त्री भर नहीं थीं। वह अनेक उदात्त मानवीय गुणों की प्रतीक भी थीं। विद्याहरि इस नृत्यनाटिका को एकपात्री अभिनीत करती हैं। मीरा को प्रस्तुत करते हुए, उन्हें अपने भीतर जाग्रत कर उन्हीं गुणों को जीना पड़ता है। कामना है कि विद्याहरि के अंतस का सौंदर्य इस नृत्यनाटिका के माध्यम से निखरकर दर्शकों के सामने बारंबार आता रहे, माँ सरस्वती एवं भगवान नटराज की कृपा उन पर सदैव बनी रहे।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #240 ☆ भावना के दोहे – माँ का आँचल ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – माँ का आँचल )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 240 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – माँ का आँचल ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

माँ का आँचल साथ है, मिलती शीतल छाँव।

बच्चों की मुस्कान माँ, चरणों में है ठाँव।।

*

प्यार माँ का मिले हमें, माँ ममता की छाँव ।

आँचल माँ का ओढ़कर, साथ घूमे हम गाँव।।

*

माँ का आँचल हैं नहीं, याद करें दिन रात।

संस्कार अच्छे दिए, यही करें हम बात।।

*

वो दिन हम भूले नहीं, छोड़ा माँ ने साथ।

लहर- लहर आँचल उड़ा, उठता सिर से  हाथ।।

*

जब जब देखा स्वप्न में, प्यार  भरी मुस्कान।

पाकर अपने साथ में, आ जाती है जान।।😢

*

आँचल की करें कल्पना, है वो बड़ा विशाल।

सुख – दुख सब बसते यहाँ, बना यही है ढाल।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 13 – नवगीत – माँ नर्मदा वंदन… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत –माँ नर्मदा वंदन

? रचना संसार # 12 – नवगीत – माँ नर्मदा वंदन…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

ब्रह्मचारिणी नमामि नर्मदा सँवार दो।

तापहारिणी प्रणाम माँ हमें निखार दो।।

बोध रूपिणी तपोबला सुपावनी कहें।

पापमोचनी सुपूजिता सुलोचनी कहें।।

बुद्धिवर्धनी हितेषिणी विभूति आस भी।

चन्द्रशेखरी कृपालु पैथिनी उजास भी।।

पुण्यदायिनी सुकर्ण धारके उबार दो।

तापहारिणी प्रणाम माँ हमें निखार दो

 *

साधना कुशाग्र दृष्टि हो प्रतीति स्वामिनी।

पद्मलोचनी विभूति आप तेजदामिनी।।

भक्ति भाव दो पुनीत मातु दैत्य भेदिनी।

हो पिकासभाशिनी सुमातु तीर्थ मेदिनी।।

वल्लभी शुभामला दयामयी विचार दो।

तापहारिणी प्रणाम माँ हमें निखार दो।।

 *

वारि धारिणी विवेक आप शंभु भावनी।

लोकतारिणी सुखासनी नमामि पावनी।।

सिद्धिधारिणी प्रतीति आप शक्ति धारिणी।

हे षडंगयोगिनी सुधर्म की प्रसारिणी।।

माँ फणीन्द्रहारभूषिणी समष्टि तार दो।

तापहारिणी प्रणाम माँ हमें निखार दो।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #222 ☆ एक पूर्णिका – न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 222 ☆

☆ एक पूर्णिका – न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हम  मिलते रहे जिंदगी  की तरह

वो हमसे मिले अजनबी की तरह

*

प्यार में संजीदा वो हो नहीं सकते

हम  निभाते  रहे  बंदगी  की तरह

*

न करते मुहब्बत तो कुछ गम नहीं

पेश  आते  मगर  आदमी की तरह

*

उन्हें  दोस्ती  कबूल न थी  ना सही

पर मिला न करें  दुश्मनी  की तरह

*

प्यार क्या है समझ सके न वो कभी

अदा लगती रही  मसखरी की तरह

*

हम समझते रहे उनको  सबसे जुदा

वो निकले मगर हर  किसी की तरह

*

हमें  मंजूर है  हम अजनबी ही सही

संतोष मिलते रहो मजहबी की तरह

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 229 ☆ अर्णवाची लाट…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 229 – विजय साहित्य ?

☆ अर्णवाची लाट…! ☆

झालो अर्णवाची लाट

चालू पंढरीची वाट || धृ ||

*

ज्ञानदेव तुकाराम

अखंडीत जपनाम

झालो पालखीचे भोई

वैष्णवांचा थाट माट ||१ ||

*

पालखीच्या पुढेमागे

जोडी संचिताचे धागे

कैवल्याची चंद्रभागा

उचंबळे काठो काठ ||२ ||

गावोगावी जाई वारी

सांगे संकट निवारी

बुक्का अबीर गुलाल

रंगे रंगांत ललाट ||३ ||

*

भक्ती भावनांचा रंग

तन मन झाले दंग

पांडुरंगी शिंपल्यात

कृपा प्रसादाचे ताट ||४ ||

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “थरथरला धरणीधर…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “थरथरला धरणीधर…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

“नारायण! नारायण!… देवा खाली मर्त्य लोकात मानवांची गर्दी…जत्रा भरली जत्रा पाहिलीत का.!..  नजरं ठरतं नाही तिथवरं पसरलेली!…त्यांचा कुणी क्रिकेट नामक क्रिडेतला विजयी  शर्मणे नामविधान रोहीत, विराट सूर्य,ऋषभदेव , समुह तिथे अवतरणार आहे म्हणे त्या सगळया भक्त गणांना दर्शन देण्यासाठी!… कसलासा द्वि संवत्सराचा  विश्वाचा  रौप्य चषकाची विजयी श्री मिळवून आणली आहे त्यांनी त्याचा हा विजयोत्सव साजरा करण्यासाठी जमलेत सगळे!…अबब काय तो अलोट जनसागर!… त्यांच्या जयजयकाराच्या आरोळ्यांच्या ध्वनी कंपनाने येरु गडगडून  खाली कोसळला.त्यांची प्रचंड उर्जा नि शक्ती बघून  क्षीरसागर पण भयभीत होऊन आक्रसून मागे मागे हटला.! .. संध्यावंदनाच्या समयाला जन सागराच्या महाकाय  लाटांवर लाटां त्या तिथे येऊन धडका देऊ लागल्यात… खरी  भरतीची वेळ  क्षीरसागराची ,उचंबळून किनाऱ्यावर येऊन धडका देण्याची होती…पण त्या जनसागराचे ते महाप्रचंड रूप पाहून तो भयभीत झाला.. आपला काही टिकाव त्या पुढे लागणार नाही हे त्याला कळून चुकले म्हणून त्याने सपशेल माघार घेऊन शांत राहणे पसंत केले…रवीला देखील तो सोहळा ऑंखेदेखा हाल पाहायचा होता..पण त्याला दुसरीकडे अपाॅईटमेंट असल्याने थांबता आले नाही..बिचारा किरमिजी,तांबूस चेहरा करून हिरमुसून  निघून गेला…वरुणाने देखील हलकासा शिडकावा करत वातारणात तप्त मृतिकेचे सुंगंधी अत्तराचे सिंचन करण्यात धन्यता मानली… मरूतगण मंद मंद झुळूकेने वाहत असताना त्या जन सागराच्या आनंदाच्या लहरी लहरींना कुरवाळत राहिला आणि त्याचा मोद सगळ्या आसमंतात दूर दूर नेऊन पसरू लागला… संध्या रजनी हसत खेळत पदन्यास करत  अवतरली, तिच्या पायीचे नुपूर पदपथावरील दिव्यांत खड्या सारखे झळाळले…पदपथावरील झाडे लता वेली आपल्या माना उंच उंचावून सरसावली, आकाशीच्या प्रांगणात निळा मखमली जाजम अंथरला त्यावर शशांक आणि लखलखत्या चांदण्या दाटीवाटीने सज्जा सज्जातून तो सोहळा पाहण्यासाठी उत्सुक झाल्या…वसुंधरेवर पौर्णिमेचा चांदणचुरा उधळू लागल्या…हे देवेंद्रा !एक वारी ..लाख वारी विठोबाची पंढरपूरास निघालेली आणि दुसरी हि अनुपम्य वारी सोहळा  चाललेला पाहून… विजयी यात्रेचा  रथ  द्वारकेतून आणलेला पाहूनच  काही कलुषितानी कांगावा केला त्यांना मुळी  विजयी सोहळ्यात स्वारस्य नव्हतेच मुळी.. असं जरी असलं तरी जगज्जेतेपदाचा अश्वमेधाचा वारू  विचरून आलाय…मानवाने आता देवगणांची जागा घेतली की!… कोण विचारतोय तुम्हाला तुमच्या देवलोकाला!…  अब कि बार …मानव के लिए खुले स्वर्ग द्वार…आता तुम्हालाच त्यांचं मांडलिकत्व घ्यावं लागलं बरं.!.. असा हा भव्य दिव्य सोहळा पाहून डोळयाचे पारणे का बरं नाही फिटायचे!…त्या देवासाठी लाखावरी भक्त वेड्यासारखे धावून आलेत.. मानवाच्या राज्याचा विजयी डंका दुमदुमला…आणि  आणि देवळाचा  गाभारा काय आता अख्खं देऊळच रिते, ओस पडून गेले… संपली सद्दी आता तुमची देवा… हरी हरी म्हणत मानवाचा करा हेवा… मी त्यावेळीच तुम्हाला धोक्याची सुचना केली होती.. मानवाला अचाट बुद्धीचं वरदानं देऊ नका बरं.. तो दिवस दूर असणार नाही इंद्रालाच करील घाबरंघुबर… आता आला ना प्रत्यय आपल्या त्या घोड चुकीचा.. अहो असं ऐकलयं मानवांच्या राज्यात चुकीला माफी नाहीच…त्यांनी देखील आपली पूर्वापार चालत आलेली घटना कालमानानुसार  अपडेट करून घेण्यास सुरुवात केलीय ..चित्रगुप्ताला म्हणावं तुला देखील अपडेट व्हर्जन आणल्या शिवाय पर्याय नाही….आजवरी कुठल्या देवदेवतांच्या जत्रेला झाली नसेल ईतकी प्रचंड गर्दी  पाहून माझी छाती सुद्धा दडपून गेली… आता स्वर्गलोकी राहण्यात काहीच मतलब उरला नाही… आपला  जर उदो उदो करून घ्यायचा असेल पृथ्वी सारखे स्थान नाही… एकजात सगळे मानव कायमचं वेडानं झपाटलेले असतात… तिथं एकच अमर सत्य आहे दुनिया झुकती है बस् झुकानेवाला चाहिए… आणि त्यांची तर रांग न संपणारी आहे… देवा मी सुद्धा त्या रांगेत उभा राहायला निघालोय… तुम्ही येताय का कसे.. नाहीतर मला निरोपाचा तांबुल द्या.. हा मी मार्गस्थ झालो… नारायण ! नारायण!… “

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ११ — विश्वरूपदर्शनयोग — (श्लोक १ ते ११) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ११ — विश्वरूपदर्शनयोग — (श्लोक १ ते ११) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

अर्जुन उवाच

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्‌ ।

यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥ १॥

कथित अर्जुन 

कृपा करुनीया मजवरती कथिले गुह्य अध्यात्माचे

आकलन होउनिया तयाचे ज्ञान जाहले अज्ञानाचे ॥१॥

*

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।

त्वतः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्‌ ॥२॥

*

विस्ताराने ज्ञान ऐकले उत्पत्तीचे प्रलयाचे

कमलनेत्रा तसेच तुमच्या अविनाशी महिमेचे ॥२॥

*

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।

द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥३॥

*

वर्णन केले अपुले आपण तसेच तुम्ही हे परमेश्वर

रूप पाहण्या दिव्य आपुले नेत्र जाहले माझे आतुर ॥३॥

*

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।

योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्‌ ॥४॥

*

प्रभो असेन जर मी पात्र तुमच्या दिव्य दर्शनासी

दावावे मज योगेश्वरा तुमच्या अविनाशी स्वरुपासी॥४॥

श्रीभगवानुवाच

पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।

नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥५॥

कथित श्रीभगवान 

विविध वर्ण आकाराचे  शतसहस्र रूपे माझीअर्जुना

सिद्ध होई तू आता माझ्या अलौकीक या रूप दर्शना ॥५॥

*

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।

बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥६॥

*

माझ्याठायी दर्शन घेई आदित्यांचे वसूंचे तथा रुद्रांचे

अवलोकन होईल तुजला अश्विनीकुमारांचे मरुद्गणांचे

पूर्वी न देखिल्या अनेक देवतांच्या विस्मयकारी रूपांचे

भरतवंशजा इथेच तुजला दर्शन होइल त्या सकलांचे ॥६॥

*

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्‌ ।

मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥७॥

*

दृष्टीगोचर एकठायी स्थित चराचर सारे जगत

देही माझ्या पहायचे जे अन्य त्यासी पाही पार्थ  ॥७॥

*

न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा ।

दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ॥८॥

*

दर्शन घेण्या या सर्वांचे चर्मचक्षु तव ना कामाचे

चक्षु अलौकिक प्रदान तुजला मम योगेश्वरी शक्तीचे ॥८॥

संजय उवाच

एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।

दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्‌ ॥९॥

कथित संजय 

कथुनी ऐसे रूप दाविले पापनाशक महायोगेश्वर भगवंताने

परम  दिव्यस्वरूपी ऐश्वर्य-रूप प्रकटता पाहिले त्या पार्थाने ॥९॥

*

अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्‌ ।

अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्‌ ॥१०॥

*

दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्‌ ।

सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम्‌ ॥११॥

*

बहुविधानने अनेक नयन दिव्याभूषण युक्त

दिव्यायुधे धारियलेली काया दिव्य गंध युक्त

मुखे व्यापिती सर्व दिशांना असीम विस्मय युक्त

विराट दर्शन परमेशाचे अवलोकित अर्जुन भक्त ॥१०, ११॥

 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 204 ☆ कस न भेद कह देय… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना कस न भेद कह देय। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 204 ☆ कस न भेद कह देय

बुद्धि और  बुद्धिमान दोनों एक होकर भी अलग रहते हैं। यदि सही समय पर सही निर्णय नहीं लिया तो बुद्धि होने का क्या फायदा। बुद्धिमान व्यक्ति अपनी क्षमता का लोहा मनवा लेता है। अधूरी बातों पर प्रतिक्रिया  देने वाले न केवल अपना वरन समाज का भी अहित करते हैं। किसी ने सही कहा है-

परिवार और समाज दोनों  बर्बाद होने लगते हैं,जब समझदार मौन और नासमझ बोलने लगते हैं।

मनोवैज्ञानिक व्यक्ति का आचरण उसके हावभाव से तुरंत पता लगा लेते हैं। यदि व्यक्ति चालक हो तो उसे विवादों में लाकर  पहले क्रोधित करते हैं फिर वास्तव में उसका व्यक्तिव क्या है ये लोगों के सामने आ जाता है। घमंड सर चढ़कर बोलता है, व्यक्ति सही गलत का भेद भूलकर अपने स्वार्थ में अंधा होने लगता है। दूसरी तरफ जमीन से जुड़ा व्यक्ति हर परिस्थिति में सही का साथ देता है। मेहनत रंग लाती है, धीरे- धीरे लोग उसके साथ जुड़कर उसे विजेता बनाने में जुट जाते हैं। सच्चे रिश्ते स्वार्थ से ऊपर उठकर  जीना जानते हैं। डिजिटल युग में क्रियेटर  अपने फालोवर के दम पर अपने को शक्तिशाली घोषित करते हैं। बहुत से ऐसे शो बन रहे हैं जहाँ दर्शक पात्रों के साथ जुड़कर उनके व्यक्तित्व को परखते हैं, उनके लिए वोटिंग करते हैं। सबके सामने असली चेहरा कुछ दिनों में आ जाता है। व्यक्ति अपने आचरण से अपनी कामयाबी की गाथा लिखता है। जनमानस के हृदय में स्थान ऐसे ही नहीं मिलता। अच्छे विचारों के साथ सबका हित साधने की कला जिस साधक के पास होगी वही सच्चे अर्थों में विजेता बनेगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 13 – ज़ूम पर झूम ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना ज़ूम पर झूम।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 12 – ज़ूम पर झूम ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

जूम पर अभी झूमने वाले झूम रहे हैं। न हॉल की जरूरत, न पुष्पगुच्छ का झमेला, न भोजन की झिक-झिक। फोकट में जब काम चल रहा हो तो पैसे खर्च करना बेफिजूली है। आभासी दुनिया गपोड़ियों का अड्डा होता है। पिछले एक घंटे से बात कर रहे थे। बातचीत गुरु और बच्चा की तर्ज पर हो रही थी। बच्चे सवाल कर रहे थे। गुरुजी अपने हिसाब से जवाब दे रहे थे।

“अच्छा गुरुजी! फलां नेता कच्चा झूठ कैसे बोल पाते हैं? क्या उनका पेट खराब नहीं होता? कोई गूगल या किताब में जाकर झूठ की सच्चाई पता लगाने का प्रयास करे तो ऐसे नेताओं की हालत क्या होगी?”

“बच्चा! अब तुम्हें नेताओं की महानता के बारे में बताने का समय आ गया है। जब अपने पर आती है तो हमें आधुनिकता का उपयोग करना चाहिए। इसकी सबसे अच्छी मिसाल सोशल मीडिया है। इसका जितना इस्तेमाल इन नेताओं ने किया है, अब तक किसी ने नहीं किया है। हाँ यह अलग बात है कि पहले यह प्लाटफार्म उतना फला-फूला भी नहीं था। जब अपने पर आए तो आधुनिक चिकित्सा पर विश्वास करना चाहिए। किंतु अर्थशास्त्र में चाणक्य ने कहा था कि शासक को सदैव भौतिकवादी पद्धतियों का उपयोग करना चाहिए और जनता को भाववाद में उलझाकर रखना चाहिए। वेदों का ज्ञान न भी हो तो कोई बात नहीं, लोगों को बेवकूफ बनाओ। कह दो कि यह बात वेदों में है। वेद महान हैं। कौनसा लोग वेद पढ़ने लगेंगे। उन्हें खुद से फुर्सत नहीं वे खाक पढ़ेंगे वेद! कोई तुम्हारा विरोध करे तो कह दो कि यह तो विदेशी एजेंट है, चीनी भक्त है, पाकिस्तानी आतंकवादी या फिर देशद्रोही है। बाकी सब जनता पर छोड़ दो। जनता तो भाववाद के मोहजाल में ऐसी फंसी रहती है जैसे कस्तूरी की तलाश में मृग।” 

“वाह गुरुजी! अद्भुत! आपके पास हर सवाल का काट है। तो फिर बताइए कि हम भुखमरी में विश्व के देशों में सबसे आगे क्यों हैं? रुपया गर्त में क्यों जा रहा है? आधुनिक जमाने में बाबा आदम जमाने के मुद्दों पर क्यों चुनाव लड़ रहे हैं? पहले मुर्गी के पंख नोचने और बाद में दाना डालने जैसी हरकत क्यों की जा रही है? खूब दाम बढ़ाकर फिर कुछ दाम घटाना कैसी राजनीति है? ईडी और आयकर को खुद का पालतू कुत्ता बनाना कहाँ तक उचित है?”

“मूर्ख! ऐसे सवाल करने वाला मेरा चेला नहीं हो सकता। तू तो देशद्रोही है! देशद्रोही! इसे तुरंत देश से निकाल दिया जाए। हो न हो यह पाकिस्तान से आया है। इसके कागज़ देखे जाएँ।” 

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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