हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #239 ☆ बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 239 ☆

☆ बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… ☆

‘कुछ अदालतें वक्त की होती हैं, क्योंकि जब समय जवाब देता है, ग़वाहों की ज़रूरत नहीं होती और सीधा फैसला होता है’ कोटिशः सत्य हैं और आजकल इनकी दरक़ार है। आपाधापी व दहशत भरे माहौल में चहुँओर अविश्वास का वातावरण तेज़ी से फैल रहा है।  हर दिन समाज में घटित होने वाली फ़िरौती, दुष्कर्म व हत्या के हादसों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। संवेदनहीनता इस क़दर बढ़ रही है कि इंसान इनका विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता बल्कि ग़वाही देने से भी भयभीत रहता है, क्योंकि वह हर पल दहशत में जीता है और सदैव आशंकित रहता है कि यदि उसने ऐसा कदम उठाया तो वह और उसका परिवार सुरक्षित नहीं रहेगा। सो! उसे ना चाहते हुए भी नेत्र मूँदकर जीना पड़ता है।

आजकल किडनैपिंग अर्थात् अपहरण का धंधा ज़ोरों पर है। अपहरण बच्चों का हो, युवकों-यवतियों का– अंजाम एक ही होता है। फ़िरौती ना मिलने पर उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है या हाथ-पाँव तोड़कर बच्चों से भीख मंगवाने का धंधा कराया जाता है या ग़लत धंधे में झोंक दिया जाता है, जहाँ वे दलदल में फंस का रह जाते हैं। जहाँ तक बालिकाओं के अपहरण का संबंध है, उनकी अस्मिता से खिलवाड़ होता है और उन्हें दहिक शोषण के धंधे में धकेल कोठों पर पहुंचा दिया जाता है। वहाँ उन्हें 30-40 लोगों की हवस का शिकार बनना पड़ता है। रात के अंधेरे में सफेदपोश लोग उन बंद गलियों में आते हैं, अपनी दैहिक क्षुधा शांत कर भोर होने से पहले लौट जाते हैं, ताकि वे समाज के समक्ष दूध के धुले बने रहें और सारा इल्ज़ाम उन  मासूम बालिकाओं व कोठों के संचालकों पर रहे।

जी हाँ! यही है दस्तूर-ए-दुनिया अर्थात् ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात् दोषारोपण सदैव दुर्बल व्यक्ति पर ही किया जाता है, क्योंकि उसमें विरोध करने की शक्ति नहीं होती और यह सबसे बड़ा अपराध है। गीता में यह उपदेश दिया गया है कि ज़ुल्म करने वाले से बड़ा दोषी ज़ुल्म सहने वाला होता है। अमुक स्थिति में हमारी सहनशक्ति हमारे दुश्मन होती है, अर्थात् इंसान स्वयं अपना शत्रु बन जाता है, क्योकि वह ग़लत बातों का विरोध करने का सामर्थ्य नहीं रखता। मेरे विचार से जिस व्यक्ति में ग़लत को ग़लत कहने का साहस नहीं होता, उसे जीने का अधिकार नहीं होना चाहिए। सत्य की स्वीकार्यता व्यक्ति का सर्वोत्तम गुण है और इसे अहमियत ना देना जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है।

आजकल लिव-इन का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसमें दोष युवतियों का है, जो अपने माता-पिता के प्यार-दुलार को दरक़िनार कर, उनकी अस्मिता को दाँव पर लगाकर एक अनजान व्यक्ति पर अंधविश्वास कर चल देती है उसके साथ विवाह पूरव उसके साथ रहने ताकि वह उसे देख-परख व समझ सके। परंतु कुछ समय पश्चात् जब वह पुरुष साथी से विवाह करने को कहती है, तो वह उसकी आवश्यकता को नकारते हुए यही कहता है कि विवाह करके ज़िम्मेदारियों का बोझ ढोनेने का प्रयोजन क्या है– यह तो बेमानी है। परंतु उसके आग्रह करने पर प्रारंभ हो जाता है मारपीट का सिलसिला, जहाँ उसे शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। श्रद्धा व आफ़ताब, निक्की व साहिल जैसे जघन्य अपराधों में दिन-प्रतिदिन इज़ाफा होता जा रहा है। युवतियों के शरीर के टुकड़े करके फ्रिज में रखना, उन्हें निर्जन स्थान पर जाकर फेंकना इंसानियत की सभी हदों को पार कर जाता है। साहिल का निक्की की हत्या करने के पश्चात् दूसरा विवाह रचाना सोचने पर विवश कर देता है कि इंसान इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? यह तो संवेदनशून्यता की पराकाष्ठा है। मैं इस अपराध के लिए उन लड़कियों को दोषी मानती हूँ, जो हमारी सनातन संस्कृति का अनुकरण न कर पाश्चात्य की जूठन स्वीकार करने में फख़्र महसूसती हैं। वैसे ही पित्तृसत्तात्मक युग में हम यह  अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि पुरुष की सोच बदल सकती है। वह तो पहले ही स्त्री को अपनी धरोहर / बपौती समझता था। आज भी वह उसे उसका मालिक समझता है तथा जब चाहे उसे घर से बाहर का रास्ता दिखा सकता है। उसकी स्थिति खाली बोतल के समान है, जिसे वह बीच राह फेंक सकता है; वह उस पर शक़ के दायरे में अवैध संबंधों का  इल्ज़ाम लगा पत्नी व बच्चों की निर्मम हत्या कर सकता है।  वास्तव में पुरुष स्वयं को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, ख़ुदा समझता है, क्योंकि उसे कन्या-भ्रूण को नष्ट करने का अधिकार प्राप्त है।

‘औरत में जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया / जब जी चाहा मसला-कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।’ ये पंक्तियाँ औरत की नियति को उजागर करती हैं। वह अपनी जीवन-संगिनी को अपने दोस्तों के हम-बिस्तर बनाने का जघन्य अपराध कर सकता है। वह पत्नी पर अकारण इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा सकता है। वैसे भी उस मासूम को अपना पक्ष रखने का अधिकार प्रदान ही कहाँ किया जाता है? कचहरी में भी क़ातिल को भी अपना पक्ष रखने व स्पष्टीकरण देने का अधिकार होता है। इतना ही नहीं एक दुष्कर्मी पैसे व रुतबे के बल पर उस मासूम की जिंदगी के सौदे की पेशकश करने को स्वतंत्र है और उसके माता-पिता उसे दुष्कर्मी के हाथों सौंपने को तैयार हो जाते हैं।

वास्तव में दोषी तो उसके माता-पिता हैं जो अपनी नादान बच्ची पर भरोसा नहीं करते। वैसे भी वे अंतर्जातीय विवाह की एवज़ में कभी ऑनर किलिंग करते हैं, तो कभी दुष्कर्म का हादसा होने पर समाज में निंदा के भय से उसका तिरस्कार कर देते हैं। उस स्थिति में वे भूल जाते हैं कि वे उस निर्दोष बच्ची के जन्मदाजा हैं। वे उसकी मानसिक स्थिति को अनुभव न करते हुए उसे घर में कदम तक नहीं रखने देते। अच्छा था, तुम मर जाती और उसकी ज़िंदगी नरक बन जाती है। अक्सर ऐसी लड़कियाँ आत्महत्या कर लेती हैं या हर दिन ना जाने वे कितने सफेदपोश मनचलों की हमबिस्तर बनने को विवश होती हैं। काश! हम अपने बेटे- बेटियों को बचपन से यह एहसास दिला पाते कि वे अपने संस्कारों अथवा मिट्टी से जुड़े रहते व सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करते। वे उसे आश्वस्त कर पाते कि यह घर उसका भी है और वह जब चाहे, वहाँ आ सकती है।

यदि हम परमात्मा की सत्ता पर विश्वास रखते हैं, तो हमें इस तथ्य को स्वीकारना पड़ेगा कि परमात्मा की लाठी में आवाज़ नहीं होती और कुछ फैसले रब्ब के होते हैं और जब समय जवाब देता है तो ग़वाहों की ज़रूरत नहीं होती– सीधा फैसला होता है। कानून तो अंधा व बहरा है, जो गवाहों पर आश्रित होता है और उनके न मिलने पर जघन्य अपराधी भी छूट जाते हैं और निकल पड़ते हैं अगले शिकार की तलाश में और यह सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता। हमारे यहाँ फ़ैसले बरसों बाद होते हैं, जब उनकी अहमियत ही नहीं रहती। इतना ही नहीं, मी टू ने भी अपना खाता खोल दिया है। पच्चीस वर्ष पहले घटित हादसे को भी उजागर कर, आरोपी पर इल्ज़ाम लगा हंसते-खेलते परिवार की खुशियों में सेंध लगा लील सकती हैं; उन्हें कटघरे में खड़ा कर सकती हैं। वैसे यह दोनों स्थितियाँ विस्फोटक हैं, लाइलाज हैं, जिसके कारण समाज में विसंगति व विद्रूपताएं निरंतर बढ़ गई हैं, जो स्वस्थ समाज के लिए घातक हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – मूल लेखक – नीलेश ओक – अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 3 ?

? रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – मूल लेखक – नीलेश ओक – अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे

विधा – अनुवाद

मूल लेखक – नीलेश ओक

अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण

प्रकाशन – क्षितिज प्रकाशन

? रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – श्री संजय भारद्वाज ?

पत्थर पर खिंची रेखा

रमते कणे कणे इति राम:।

सृष्टि के कण-कण में जो रमते हैं वही (श्री) राम हैं। कठिनाई यह है कि जो कण-कण में है अर्थात जिसका यथार्थ, कल्पना की सीमा से भी परे है, उसे सामान्य आँखों से देखना संभव नहीं होता। यह कुछ ऐसा ही है कि मुट्ठी भर स्थूल देह तो दिखती है पर अपरिमेय सूक्ष्म देह को देखने के लिए दृष्टि की आवश्यकता होती है। नश्वर और ईश्वर के बीच यही सम्बंध है।

सम्बंधों का चमत्कारिक सह-अस्तित्व देखिए कि निराकार के मूल में आकार है। इस आकार को साकार होते देखने के लिए रेटिना का व्यास विशाल होना चाहिए। सह-अस्तित्व का सिद्धांत कहता है कि विशाल है तो लघु अथवा संकीर्ण भी है।

संकीर्णता की पराकाष्ठा है कि जिससे अस्तित्व है, उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाया जाए। निहित स्वार्थ और संकुचित वृत्तियों ने कभी श्रीराम के अस्तित्व पर प्रश्न उठाए तो कभी उनके काल की प्रामाणिकता पर संदेह व्यक्त किया। कालातीत सत्य है कि समुद्र की लहरों से बालू पर खिंची रेखाएँ मिट जाती हैं पर पत्थर पर खिंची रेखा अमिट रहती है। यह पुस्तक भी विषयवस्तु के आधार पर पत्थर पर खिंची एक रेखा कही जा सकती है।

प्रस्तुत पुस्तक ‘रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे’ में प्रभु श्रीराम के जीवन-काल की प्रामाणिकता का वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन किया गया है। वाल्मीकि रामायण में वर्णित ग्रह नक्षत्रों की स्थिति का कालगणना के लिए उपयोग कर उसे ग्रेगोरियन कैलेंडर में बदला गया है। इसके लिए आस्था, निष्ठा, श्रम के साथ-साथ अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहर के मानकीकरण की प्रबल इच्छा भी होनी चाहिए।

इस संदर्भ में पुस्तक में वर्णित कालगणना के कुछ उदाहरणों की चर्चा यहाँ समीचीन होगी। सामान्यत: चैत्र माह ग्रीष्म का बाल्यकाल होता है। महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम के जन्म के समय शरद ॠतु का उल्लेेख किया है। बढ़ती ग्लोबल वॉर्मिग और ॠतुचक्र में परिवर्तन से हम भलीभाँति परिचित हैं। वैज्ञानिक रूप से तात्कालिक ॠतुचक्र का अध्ययन करें तो चैत्र में शरद ॠतु होने की सहजता से पुष्टि होगी। राजा दशरथ द्वारा कराए यज्ञ के प्रसादस्वरूप पायस (खीर) ग्रहण करने के एक वर्ष बाद रानियों का प्रसूत होना तर्कसंगत एवं विज्ञानसम्मत है। राजा दशरथ की मृत्यु के समय तेजहीन चंद्र एवं बाद में दशगात्र के समय के वर्णन के आधार पर तिथियों की गणना की गई है। किष्किंधा नरेश सुग्रीव द्वारा दक्षिण में भेजे वानर दल का एक माह में ना लौटना, वानरों के लिए भोजन उपलब्ध न होना, रामेश्वरम के समुद्र का वर्णन, लंका का दक्षिण दिशा में होना, सब कुछ तथ्य और सत्य की कसौटी पर खरा उतरता है। एक और अनुपम उदाहरण रावण की शैया का अशोक के फूलों से सज्जित होना है। इसका अर्थ है कि अशोक के वृक्ष में पुष्प पल्लवित होने के समय हनुमान जी लंका गए थे।

साँच को आँच नहीं होती। श्रीराम के साक्ष्य अयोध्या जी से लेकर वनगमन पथ तक हर कहीं मिल जाएँगे। अनेक साक्ष्य श्रीलंका ने भी सहेजे हैं। अशोक वाटिका को ज्यों का त्यों रखा गया है। नासा के सैटेलाइट चित्रों में रामसेतु के अवशेष स्पष्ट दिखाई देते हैं।

श्री नीलेश ओक द्वारा मूल रूप से अँग्रेज़ी में लिखी इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद डॉ. नंदिनी नारायण ने किया है। अनुवाद किसी भाषा के किसी शब्द के लिए दूसरी भाषा के समानार्थी शब्द की जानकारी या खोज भर नहीं होता। अनुवाद में शब्द के साथ उसकी भावभूमि भी होती है। अतः अनुवादक के पास भाषा कौशल के साथ-साथ विषय के प्रति आस्था होगी, तभी भावभूमि का ज्ञान भी हो सकेगा। डॉ. नंदिनी नारायण द्वारा किया हिंदी अनुवाद, विधागत मानदंडों पर खरा उतरता है। अनुवाद की भाषा प्रांजल है। अनुवाद में सरसता है, प्रवाह है। पढ़ते समय लगता नहीं कि आप अनुवाद पढ़ रहे हैं। यही अनुवादक की सबसे बड़ी सफलता है।

विश्वास है कि जिज्ञासु पाठक इस पुस्तक का स्वागत करेंगे। लेखक और अनुवादिका, दोनों को हार्दिक बधाई।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 12 – नवगीत – नीलकंठी शंभु… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत –नीलकंठी शंभु

? रचना संसार # 12 – नवगीत – नीलकंठी शंभु…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

हे नीललोहित नीलकंठी शंभु गंगाधार हो।

अक्षत चढ़ाते भक्त भोलेनाथ को स्वीकार हो।।

 *

ओंकार हो भीमा सुशोभित बाल मयंक माथ प्रभु।

हे विष्णुवल्लभ भक्त वत्सल सोम निर्गुण साथ प्रभु।।

हो सर्व -व्यापी तुम शिवाशंकर बसे कैलाश भी।

सादर नमन आशीष दो प्रभु तुम धरा आकाश भी।।

भर दो सभी भंडार गिरिधन्वा शिवं साकार हो।

 *

बम-बम त्रिलोकीनाथ जगमग है शिवाला जाइए।

शिवरात्रि ओंकारा उमापति सुख प्रदाता आइए।।

प्रभु नित्य बाजे प्रेम की डमरू हरो संताप भी।

मंगल करो भूलोक आकर के बिराजो आप भी।।

हे भूतपति हम तो खड़े चरणों प्रभो उद्धार हो।

 *

गणनाथ अभ्यंकर पुरारी भीम अनुपम आस है।

अवधूतपति पशुपति पिनाकी भूतपति उर वास है।।

अभिमान तोड़ो दुष्ट का जीवन सफल श्रीकंठ हो।

हे शूलपाणी हो कृपानिधि सोमप्रिय शिति कंठ हो।।

तांडव करें विपदा हरें दाता त्रिलोकी सार हो।

शंकर शिरोमणि प्रभु जटाधारी प्रजापति सत्य हैं।

स्वामी विरूपाक्षाय अभिनंदन करें आदित्य हैं।।

तन केसरी छाला अगोचर शक्ति भी अध्यात्म प्रभु।

नंदी बिराजे भस्मधारी प्राणदा एकात्म प्रभु।।

हो सृष्टि पालक श्रेष्ठ प्रमथाधिप शिवा त्रिपुरार हो।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #239 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 239 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

थाम लिया है आपने, चलते रहना संग।

थामें रहना राह में, हूँ मैं आधा अंग।।

*

साथी तुमको मानना, स्वामी मेरे आज।

दासी के इस रूप में, करती सारे काज।।

*

मिलते थे हम आपसे, वही पुरानी याद।

पूरी की है आपने, सपनों की फरियाद।।

*

तू मोहन का रूप है, मैं राधिके सुजान।

प्रभु आपसे ही मिलती, राधा को पहचान।।

*

जीवन जीने की कला, तुझ से सीखी मीत।

तेरा ही गुण गा रहे, लिखते तुझ पर गीत।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #221 ☆ एक पूर्णिका – हमें  ऐतवार है वफा पर अपनी… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – हमें  ऐतवार है वफा पर अपनी आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 221 ☆

☆ एक पूर्णिका – हमें  ऐतवार है वफा पर अपनी ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बंद जब उनकी ज़ुबां  होती है

बात  नजरों से  बयां  होती  है

*

मोम  क्या है  वो क्या  समझेंगे

संग-दिल जिनकी अदा होती है

*

तिश्नगी प्यार की बढ़ी इस कदर

लरजते  होठों  से अयां  होती है

*

सुकूं  रूह को  मिले  जो प्यार  में

तनवीर    ऐसी   कहाँ   होती   है

*

याद   उनकी  लाती  है  बे- सुधी

देख  उनको  उम्मीदें जवां होती हैं

*

हमें  ऐतवार  है वफा  पर  अपनी

पर तकदीर सभी की जुदा होती है

*

“संतोष” प्यार में खोए हैं इस तरह

न आग लगती है, न धुआँ  होती है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 228 ☆ निघाली पालखी… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 228 – विजय साहित्य ?

🌼 निघाली पालखी 🌼 कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

☆ संत तुकाराम महाराज पालखी सोहळा ☆

(सहाक्षरी रचना)

इनाम दाराचा

सोडूनी या वाडा

निघाली पालखी

सवे गावगाडा ..! १

*

आकुर्डी गावच्या

विठू मंदीरात

तुकोबा पालखी

थांबे गजरात ..! २

*

पुण्य नगरीत

दिव्य मानपान

जागोजागी चाले

अन्न वस्त्र दान ..! ३

*

पालखी विठोबा

पुण्यनगरीत

निवडुंग्या विठू

रमे पालखीत..! ४

*

लोणी काळभोर

वेष्णवांचा मेळा

सोलापूर मार्गी

हरीनाम वेळा..! ५

*

तुकोबा पालखी

यवत मुक्काम

दिंड्या पताकांत

निनादते धाम ..! ६

*

वरवंड गावी

पालखी निवास

आषाढी वारीचा

सुखद प्रवास ..! ७

*

आनंदाचा कंद

गवळ्याचे नाव

रंगले वारीत

उंटवडी गाव…! ८

*

मंगल पवित्र

क्षेत्र बारामती

कैवल्याची वारी

सुखाच्या संगती …! ९

*

सणसर गावी

विठ्ठल जपात

रंगली पालखी

हरी कीर्तनात…! १०

*

आंधुर्णे गावात

घेताच विसावा

माय माऊलीत

विठ्ठल दिसावा…! ११

*

गोल रिंगणाचा

बेळवंडी थाट

निमगावी क्षेत्री

केतकीची वाट..!

*

इंदापुर येता

रिंगणाचे वेध

गण गवळण

अभंगात मन…! १२

*

सुमनांची वृष्टी

सराटी गावात

अमृताची गोडी

विठ्ठल नामात..! १३

*

गोल रिंगणाचे

अकलूज गांव

मनामधे जागा

विठू भक्तीभाव…! १४

*

येता बोरगाव

दिंडी नाचतसे

काया वाचा मनी

विठू राहतसे…! १५

*

पिराची कुरोली

शिगेला गजर

पंढरपुरात

पोचली नजर..! १६

*

वाखरी गावात

मिलनाची वेळा

रमला वारीत

वैष्णवांचा मेळा..! १७

*

कळस दर्शंनी

पाऊले अधीर

धावतसे मन

सोडूनीया धीर..! १८

*

ज्ञानोबा तुकोबा

वाखरीत मेळ

विठू दर्शनाची

यथोचित वेळ…! १९

*

वैष्णवांची वारी

हरीनाम घोष

वारीचा सोहळा

परम संतोष…! २०

*

पोचली पालख्या

पंढर पुरात

आनंदला विठू

भक्तीच्या सुरात..! २१

*

युगानु युगाची

कैवल्य भरारी

अखंड प्रवाही

आषाढीची वारी…! २२

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १० — विभूतियोगः — (श्लोक ३१ ते ४२) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १० — विभूतियोगः — (श्लोक ३१ ते ४२) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्‌ । 

झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥ ३१ ॥

*

पावनकर्त्यात पवन  श्रीराम मी शस्त्रधाऱी

नक्र मी जलचरातील सरितेत गंगा सुरसरी ॥३१॥

*

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन । 

अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्‌ ॥ ३२ ॥

*

विद्येमधील ब्रह्मविद्या मी तत्ववादही मी

सृष्टीचा समस्त आदी मध्य अंतही मी ॥३२॥

*

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च । 

अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥ ३३ ॥

*

अक्षरगणातील अकार समासातील द्वंद्व समास मी

अक्षयकाल तथा विराटपुरुष धारणपोषणकर्ता मी ॥३३॥

*

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्‌ । 

कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥ ३४ ॥

*

कारण सर्वोत्पत्तीचे सर्वविनाशक मृत्यूचे पार्था मी

नारी कीर्ति लक्ष्मी वाणी स्मृती मेधा धृती क्षमा मी ॥३४॥

*

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्‌ । 

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥ ३५ ॥

*

गेय वदांतील बृहत्साम छंदातील गायत्री मी

मासातील मी मार्गशीर्ष ऋतुश्रेष्ठ वसंत मी  ॥३५॥

*

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌ । 

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्‌ ॥ ३६ ॥

*

कुटिलांमधील मी द्यूत प्रभावी पुरुषांचा प्रभाव

जेत्याचा विजय मी सात्त्विकांचा सात्विक भाव ॥३६॥

*

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि *पाण्डवानां धनञ्जयः । 

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥ ३७ ॥

*

वृष्णींमधील वासुदेव मी पांडवांतील धनंजय

मुनींमधील वेदव्यास मी कवींमधील शुक्राचार्य ॥३७॥

*

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्‌ । 

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्‌ ॥ ३८ ॥

*

शास्त्याचा मी दंड विजीगीषूची नीती मी

गुह्याचा मी मौन ज्ञानीयांचे तत्वज्ञान मी ॥३८॥

*

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । 

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्‌ ॥ ३९ ॥

*

सजीवोत्पत्ती कारण मजला जाणून घे अर्जुना

चराचरात कोणी ही  वसूनी नसते माझ्याविना ॥३९॥

*

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप । 

एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥ ४० ॥

*

मम विभुतींना वा मम तेजाला नाही अंत परंतपा

तुझ्यास्तवे मी सांगितला चरुनीया संक्षिप्त रूपा ॥४०॥

*

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा । 

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्‌ ॥ ४१ ॥

*

कांती शक्ती ऐश्वर्यपूर्ण जे वसते विश्वात

मम तेजाचा अंश तेथ झालासे अभिव्यक्त ॥४१॥

*

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन । 

विष्टभ्याहमिदं कॄत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌ ॥ ४२ ॥

*

केवळ अंशाने माझ्या धारियले  विश्व समस्त

जाण इतुके चिकित्सका पार्था हेचि ज्ञान समस्त ॥४२॥

*

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी विभूतियोग नामे निशिकान्त भावानुवादित दशमोऽध्याय संपूर्ण॥१०॥

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 142 ☆ लघुकथा – पर्दा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा पर्दा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 142 ☆

☆ लघुकथा – पर्दा ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘पापा! आज भाई ने फिर से फोन पर बहुत अपशब्द बोले।‘  

‘बेटी! उसकी बात एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दिया करो।‘

‘पर आप दोनों से भी हर वक्त इतने अपमानजनक  ढंग से  बात करता है,अनाप- शनाप बोलता रहता है आपके लिए।‘

‘इकलौता बेटा है  हमारा, हमसे बात नहीं करेगा क्या? थोड़ा कड़वा बोलता है पर ?  पिता मुस्कुराकर – ‘अपने भाई साहब की बातों को  प्रवचन की तरह सुना करो, जो नहीं चाहिए, उसे छोड़ दो। ‘

‘हमसे सहन नहीं होता है अब यह सब, फोन नहीं उठाऊँगी उसका, बात ही नहीं करनी है हमें उससे। ‘

‘ऐसा नहीं कहते बेटी! एक ही तो भाई है तुम्हारा।‘ 

‘और मेरा क्या? मैं भी तो इकलौती बहन हूँ उसकी ?

‘भाई के मान – सम्मान का ध्यान रखो बेटी!‘

‘मेरा मान-सम्मान?’

‘तुम अपना कर्तव्य करो, बस—-’

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 203 ☆ हरो जन की पीर… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना हरो जन की पीर। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 203 ☆ हरो जन की पीर

शोर गुल से नींद टूट गयी, आँखें मलते हुए ज्ञानचंद्र जी चल दिये कि चलो भई लग जाओ अपने काम पर। इनकी विशेषता है कि बिना ज्ञान दान दिए इनको भोजन हज़म नहीं होता। ये सत्य है कि जब हाजमा खराब हो तो पूरे माहौल को बिगड़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगता।

इधर ध्यानचंद्र जी तो अपने नामारूप हैं, ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर ध्यान योग किए बिना उन्हें चैन कहाँ। इतना शोर उनके ध्यान को भंग करने के लिए पर्याप्त था, वे योगासन छोड़कर ऐसे उठे मानो इंद्र ने इंद्रासन छोड़ा हो।

दोनों के प्रिय समयलाल जी की माँ फुरसत देवी आज पूरे सौ वर्ष की हो गयीं थी, जिससे सुबह से ही अखंड मानस पाठ की तैयारी चल रही थी इधर साधना देवी भी मगन होकर सासू माँ के जी हजूरी में जीवन बिता देने की बात छेड़ बैठीं थीं।

आजकल तो रात बारह बजे से ही जन्मदिन मनाने लगते हैं, सो इनका भी मना, केक काटा गया, फेसबुक पर फ़ोटो अपलोड हुई और लाइक का जो दौर चला वो चलता ही जा रहा है एक तो शुभ सूचना दूसरा समयलाल के मोबाइल प्रेमी बेटे बबलू ने सारे दोस्तों को टैग जो कर दिया था।

इनके यहाँ तो मेहमान बारह बजे से आने लगेगें, हाँ भाई पड़ोस का भी पूरे दो दिन का चूल न्यौता है। ज्ञानचंद्र जी मुखिया बन कर सबको समझाइश देने लगे तो ध्यानचंद्र भी कहाँ चूकने वाले थे उन्होंने पूरे अधिकार से कहा ओ बबलू बेटा जरा कड़क चाय तो लाओ और हाँ वो जो रात में मठरी और कचौड़ी बनी है उसे भी ले आना, ससुरी महक भी ऐसी थी कि रात भर सो नहीं पाए और ध्यान तो लगवय नहीं कीन्ह।

ज्ञानचंद्र जी ने भी आराम से बैठते हुए कहा अरे भाई जो लोग पूजा में संकल्प लेगें वो केवल फलाहारी ही करें। समयलाल तुम तो केवल पूजा में बैठना सारा काम हम लोग देख लेगें आखिर पड़ोसी होते किसलिए हैं।

अब ये दोनों साठा तो पाठा की कहावत को चरितार्थ करते हुए बाहर पड़े तखत पर बैठ गए। बड़ी मुश्किल से एक बजे दोपहर में गए और पंद्रह मिनट में वापस आ कर फिर से आसन जमा कर बैठे ही थे कि बबलू आया उसने कहा चाचा जी खाना खा लीजिए।

अरे पहले बच्चों को खिलाओ और हाँ कन्या का मुहँ जरूर जुठला देना, बिना इनकी पूजा कोई कार्य सिद्ध नहीं होता समझाते हुए ज्ञानचंद्र ने कहा।

ध्यानचंद्र ने माथे में बल लाते हुए कहा अब तो नवरात्रि में नौ कन्या भी नहीं मिलती, छोटे शहरों में लोग भेज भी देते हैं कन्या पूजन हेतु अष्टमी व नवमी के दिन, बाकी यहाँ तो लगता है मूर्ति रखनी पड़ेगी कन्याओं की।

अरे सब कलयुग की महिमा है, धार्मिक होते हुए मगन लाल जी ने कहा जो बड़े ध्यान से दोनों की बातें ऐसे सुन रहे थे जैसे कथा पाठ चल रहा हो।

पंडित जी का ध्यान भी इन्हीं बुजुर्गों की तरफ था। उन्होंने और जोर- जोर से मंत्र जाप शुरू कर दिया और पूरी ताकत के साथ माइक से सबको संबोधित करते हुए कहा कि सब लोग यहाँ आकर प्रणाम करें व्यास पीठ को, अपनी बात को बल देने हेतु कुछ संस्कृत में श्लोक भी पढ़ दिए, सबने भी ऐसे व्यक्त किया जैसे अर्थ समझ में आ गया हो पर सच्ची बात तो यही है कि ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति बस यही अच्छा लगता है क्योंकि इतना अनुभव आजतक के सत्संग से हुआ है कि इसके बाद ही कार्यक्रम पूर्णता को प्राप्त होता है फिर आरती होकर प्रसाद मिल जाता है।

सबके के साथ ये दोनों बंधु भी पहुँचे जो सुबह से ही सच्चे पड़ोसी धर्म निभा रहे थे, इनके आभामंडल की रौनक तो देखते ही बन रही थी अब तो कई दिनों तक समयलाल के यहाँ ही इनका बसेरा होगा जब तक कि चाय के साथ मिठाई व नमकीन मिलना बंद नहीं होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 12 – साथ कौन चलें ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना साथ कौन चलें।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 12 – साथ कौन चलें ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

कल रात हरिवंशराय बच्चन सपने में आए थे। पूछा – बेटा तुम्हें हिंदी साहित्य में कोई रुचि है भी या नहीं या यूँ ही लिखते चले जा रहे हो। मैंने कहा – आपने हिंदी साहित्य तो जरूर रचा लेकिन बेरोजगारी का मजा नहीं चखा। अब चूंकि हमारे पास नौकरी नहीं है इसलिए कोरा कागज काला कर डालने वाला टाइमपास करते हैं। हर कोई यहाँ कोरे को काला करने में लगा है। हम भी भीड़ में शामिल हो गए। इन्हीं काला करने वालों में किसी एकाध को रोजगार न सही गोरा-चिट्टा पुरस्कार तो मिल जाता है। हम भी उसी आस में है। मेरी बातें सुन उन्होंने कहा –  बेटा इस तरह टाइमपास करोगे तो काम नहीं बनेगा। जानते नहीं मैंने हिंदी साहित्य को एक से बढ़कर एक रचना दी हैं। कम से कम उसका तो अध्ययन करो।

मैंने कान पकड़ते हुए कहा – बच्चन जी, आप ऐसा न कहें। मैं आपका बड़ा प्रशंसक हूँ। आपका लिखा गीत – मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है, मेरा सबसे पसंदीदा गीत है। मैं आपकी साहित्य साधना को ऐसे-कैसे अनदेखा कर सकता हूँ। न जाने बच्चन जी को क्या हुआ पता नहीं, वे एकदम से उखड़ गए। उन्होंने कहा – बेटा! मैंने कुछ फिल्मी गीत जरूर लिखे थे, लेकिन वे साहित्य के लिए नहीं रोजी रोटी कमाने के लिए थे। तुमने कभी मधुशाला के बारे में सुना है। वह होता है सच्चा साहित्य। उसे पढ़ते तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती। मैंने आश्चर्य से कहा – मधुशाला! उसे तो मैं क्या आज की सभी पीढ़ी पसंद करती है। उसकी बढ़ती कीमतों की परवाह किए बिना उसे खरीदने के लिए हम मरे जाते हैं। बच्चन जी ने कहा – मेरा पाला भी कैसे मूर्ख से पड़ गया समझ नहीं आता। मैं आन कह रहा हूँ तो तुम कान सुन रहे हो। मैं मधुशाला पुस्तक की बात कर रहा हूँ। जिसके लिए मैं दुनिया भर में जाना जाता हूँ। मैंने स्वयं की गलती सुधारी और कहा – क्षमा चाहता हूँ। मधुशाला का मतलब पीने वाली जगह से लगा बैठा। मैंने उसे ठीक से नहीं पढ़ा है, लेकिन घर के पास शराब का एक ठेका है, उसका नजारा मेरी आँखों में अभी भी समाया हुआ है। मैं समझता हूँ आपने उसमें जो बातें लिखी होंगी उसी को मैंने ठेके पास ठहरकर व्यवहार में प्राप्त किया है।

बच्चन जी का गुस्सा अब सातवें आसमान पर था। कहने लगे – तुम्हारा यही व्यवहार तुम्हें ले डूबेगा। तुम्हारी अज्ञानता और मूर्खता तुम्हें संघर्ष करने के लिए मजबूर कर देगी। तब तुम्हें मेरी अग्निपथ कविता की याद हो आएगी। मैंने कहा – यह कविता तो मुझे मुजबानी याद है। कविता कुछ इस प्रकार है –

बेरोजगारी हों भली खड़ी, हों घनी हों बड़ी, एक रिक्त पद भी,

माँग मत, माँग मत, माँग मत, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

तू न उठेगा कभी, तू न लड़ेगा कभी, तू न पूछेगा कभी,

कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares