☆ विठ्ठल माऊली — लेखक – अज्ञात ☆ प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर ☆
– – विठ्ठल हा असा एकमेव देव ज्याच्या हातात शस्त्र नाही
– – असा देव ज्याचा अवतार नाही अवतार नाही म्हणून जन्मस्थळ नाही
– – जन्मस्थळ नाही म्हणून पुढल्या कटकटी नाहीत, वाद तंटे नाहीत.
– – असा देव ज्याला अमुक पद्धतीने पुजलं पाहिजे असं बंधन नाही.
– – असा देव ज्याला माऊली म्हटलं जातं….. देव आई असण्याचं हे उदाहरण दुर्मिळ.
– – असा देव जो शाप देत नाही, कोपत नाही, हाणामारी करत नाही.
– – कोणतीही विशिष्ट व्रतवैकल्य नाहीत.
– – कोणताही विशिष्ट नैवेद्य नाही.
– – कोणतीही आवडती फुले नाहीत.
– – कोणताही आवडता पोशाख नाही.
– – – जशी आई आपल्या मुलाचा राग, रुसवा, नाराजी, दुःख.. सगळं सहन करते तसा हा विठुराया आपल्या भक्तांचे राग, रुसवा, नाराजी, आणि दुःख सगळं सहन करतो. आणि म्हणूनच कदाचित – – – त्याला पुरुष असूनही माऊली म्हणत असावेत.
राम कृष्ण हरी.
लेखक : अज्ञात
प्रस्तुती – श्री अनंत केळकर
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख याद व विवाद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 258 ☆
☆ याद व विवाद… ☆
“भूलने की सारी बातें याद हैं/ इसलिए ज़िंदगी में विवाद है।” इंसान लौट जाना चाहता/ अतीत में/ जीना चाहता उन पलों को/ जो स्वर्णिम थे, मनोहारी थे/ खो जाना चाहता/ अतीत की मधुर स्मृतियों में/ अवगाहन करना चाहता, क्योंकि उनसे हृदय को सुक़ून मिलता है और वह उन चंद लम्हों का स्मरण कर उन्हें भरपूर जी लेना चाहता है। जो गुज़र गया, वह सदैव मनभावन व मनोहारी होता है। वर्तमान, जो आज है/ मन को भाता नहीं, क्योंकि उसकी असीमित आशाएं व आकांक्षाएं हृदय को कचोटती हैं, आहत करती हैं और चैन से बैठने नहीं देती। इसका मूल कारण है भविष्य के सुंदर स्वप्न संजोना। सो! वह उन कल्पनाओं में डूब जाना चाहता है और जीवन को सुंदर बनाना चाहता है।
भविष्य अनिश्चित है। कल कैसा होगा, कोई नहीं जानता। अतीत लौट नहीं सकता। इसलिए मानव के लिए वर्तमान अर्थात् आज में जीना श्रेयस्कर है। यदि वर्तमान सुंदर है, मनोरम है, तो वह अतीत को स्मरण नहीं करता। इसलिए वह कल्पनाओं के पंख लगा उन्मुक्त आकाश में विचरण करता है और उसका भविष्य स्वत: सुखद हो जाता है। परंतु ‘इंसान करता है प्रतीक्षा/ उन बीते पलों की/ अतीत के क्षणों की/ ढल चुकी सुरमई शामों की/ रंगीन बहारों की/ घर लौटते हुए परिंदों के चहचहाने की/ यह जानते हुए भी/ कि बीते पल/ लौट कर नहीं आते’– यह पंक्तियाँ ‘संसार दु:खालय है और ‘जीवन संध्या एक सिलसिला है/ आँसुओं का, दु:खों का, विषादों का/ अंतहीन सिसकियों का/ जहाँ इंसान को हर पल/ आंसुओं को पीकर/ मुस्कुराना पड़ता है/ मन सोचता है/ शायद लौट आएं/ वे मधुर क्षण/ होंठ फिर से/ प्रेम के मधुर तराने गुनगुनाएं/ वह हास-परिहास, माधुर्य/ साहचर्य व रमणीयता/ उसे दोबारा मिल जाए/ लौट आए सामंजस्यता/ उसके जीवन में/ परंतु सब प्रयास निष्फल व निरर्थक/ जो गुज़र गया/ उसे भूलना ही हितकर/ सदैव श्रेयस्कर/ यही सत्य है जीवन का, सृष्टि का। स्वरचित आँसू काव्य-संग्रह की उपरोक्त पंक्तियाँ इसी भाव को प्रेषित व पोषित करती हैं।
मानव अक्सर व्यर्थ की उन बातों का स्मरण करता है, जिन्हें याद करने से विवाद उत्पन्न होते हैं। न उनका कोई लाभ नहीं होता है, न ही प्रयोजन। वे तत्वहीन व सारहीन होते हैं। इसलिए कहा जाता है कि मानव की प्रवृत्ति हंस की भांति नीर-क्षीर विवेकी होनी चाहिए। जो अच्छा मिले, उसे ग्रहण कर लें और जो आपके लिए अनुपयोगी है, उसका त्याग कर दीजिए। हमें चातक पक्षी की भांति स्वाति नक्षत्र की वर्षा की बूंदों को ग्रहण करना चाहिए, जो अनमोल मोती का रूपाकार ग्रहण कर लेती हैं। सो! जीवन में जो उपयोगी, लाभकारी व अनमोल है– उसे उसका ग्रहण कीजिए व अनमोल धरोहर की भांति संजो कर रखिए।
इसी प्रकार यदि मानव व्यर्थ की बातों में उलझा रहेगा; अपने मनो-मस्तिष्क में कचरा भर कर रखेगा, तो उसका शुभ व कल्याण कभी नहीं हो सकेगा, क्योंकि पुरानी, व्यर्थ व ऊल-ज़लूल बातों का स्मरण करने पर वाद-विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है, जो तनाव का कारण होती है। इसलिए जो गुज़र गया, उसे भूलने का संदेश अनुकरणीय है।
हमने अक्सर बुज़ुर्गों को अतीत की बातों को दोहराते हुए देखा है, जिसे बार-बार सुनने पर कोफ़्त होती है और बच्चे-बड़े अक्सर झल्ला उठते हैं। परंतु बड़ी उम्र के लोग इस तथ्य से अवगत नहीं होते कि सेवा-निवृत्ति के पश्चात् सब फ्यूज़्ड बल्ब हो जाते हैं। भले ही वे अपने सेवा काल में कितने ही बड़े पद पर आसीन रहे हों। वे इस तथ्य को स्वीकारने को लेशमात्र भी तत्पर नहीं होते। जीवन की साँध्य वेला में मानव को सदैव प्रभु स्मरण करना चाहिए, क्योंकि अंतकाल केवल प्रभु नाम ही साथ जाता है।
सो! मानव को विवाद की प्रवृत्ति को तज, संवाद की राह को अपनाना चाहिए। संवाद समन्वय, सामंजस्य व समरसता का संवाहक है और अनर्गल बातें अर्थात् विवाद पारस्परिक वैमनस्य को बढ़ावा देता है; दिलों में दरारें उत्पन्न करता है, जो समय के साथ दीवारों व विशालकाय दुर्ग का रूप धारण कर लेती हैं। एक अंतराल के पश्चात् मामला इतना बढ़ जाता है कि उस समस्या का समाधान ही नहीं निकल पाता। मानव सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है; हैरान-परेशान रहता है, जिसका अंत घातक की नहीं; जानलेवा भी हो सकता है। आइए! हम वर्तमान में जीना प्रारंभ करें, सुंदर स्वप्न संजोएं व भविष्य के प्रति आश्वस्त हों और उसे उज्ज्वल व सुंदर बनाएं। हम विवाद की राह को तज/ संवाद की राह अपनाएं/ भुला ग़िले-शिक़वे/ दिलों में क़रीबियाँ लाएं/ सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की/ राह पर चल/ धरा को स्वर्ग बनाएं।
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। चार उपन्यास व आठ कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी, बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू, तमिल एवं पंजाबी में पुस्तकों व रचनाओं का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020। राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान।
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(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है कनाडा से डॉ. हंसा दीप जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “नौका विहार”।)
☆ दस्तावेज़ # 3 – कनाडा से ~ कोंपल के कंधों पर चमकती धूप — ☆ डॉ. हंसा दीप ☆
अलसुबह की ताज़ी बयार श्वास-दर-श्वास गुणित होती रही। ढलती शाम में उन सुवासित पलों को शब्दों में कैद करना मुझे रोमांचित कर गया। एक हल्की-सी दस्तक भर से स्मृतियों के पिटारे खुलकर कई अविश्वसनीय पलों को भी सामने ले आए। एक के बाद एक। यही तकरीबन 57-58 साल पहले का मेरा अपना गाँव। खालिस गाँव। टूटी-फूटी सड़कें, नीम के घने पेड़ और भीलों की बस्तियाँ। झोंपड़ियाँ भी, हवेलियाँ भी। कंगाल भी मालामाल भी। नंग-धड़ंग आदिवासी बच्चे और सेठों-साहूकारों के साफ-सुथरे बच्चों से लिपटती धूल-धूसरित हवाएँ।
मैं और छोटू, पूरे गाँव में भटक आते। पव्वा, गुल्ली-डंडा, लंगड़ी-लंगड़ी, खेलना और गाँव भर में छुपा-छुपी खेल के लिए दौड़ लगाना। न बीते कल की चिंता, न आने वाले कल की। बस आज खाया वही मीठा।
लौकिक और अलौकिक दुनिया के बीच झूलता बचपन। नन्हीं बच्ची की आँखों से देखे ऐसे कई लम्हे जिनमें विस्मय, कौतूहल, भय और विश्वास एक साथ हाथ थामे रहते। लौकिक दुनिया में जीते-जागते इंसान थे। भूख, गरीबी और शोषण से त्रस्त, अपने अस्तित्व से लड़ते आदिवासी। भीलों और साहूकारों की ऐसी दुनिया जहाँ बिल्ली और चूहे का खेल अपनी भूमिका बदलता रहता। दिन भर जिनसे मजदूरी करवाकर साहूकार अपनी तिजोरी भरते, रात में वे ही उनका माल-ताल लूट कर ले जाते।
इस हाथ ले, उस हाथ दे। दिन में सेठों की सेवा में भुट्टे हों या हरे चने के गट्ठर, हर सीजन की पैदावार भर-भर कर दे जाते। सेठों के परिवार खा-पीकर लंबी डकार जरूर लेते लेकिन रात में चैन की नींद न सो पाते। अगर मानसून ने साथ दिया और फसल ठीक-ठाक हुई तो चोरी-चकारी कम होती लेकिन जिस वर्ष फसलें चौपट होतीं, भीलों को खाने के लाले पड़ जाते। तब पेट भरने का एकमात्र सहारा सेठों को लूटना होता। लूटपाट, खौफ और दहशत से भरा गाँव। जीजी (माँ) के शब्द होते- “ई भीलड़ा रा डर से मरेला बी आँख्या खोली दे।” (इन भीलों के भय से मुर्दे भी जाग जाएँ।)
न पुलिस का भय, न कानून का। पुलिस थी कहाँ! बाबा आदम के जमाने के दो कमरों में पुलिस थाना था। एक ओर छोटे-छोटे सेल थे कैदियों के लिए। और शेष दो में एक मेज, कुछ फाइलें और सोने का एक बिस्तर। मरियल से एक-दो पुलिसवाले ड्यूटी बजाते। भीलों के सामने कहीं नहीं लगते। बगैर हील-हुज्जत के माल मिल जाता तो आदिवासी होने के बावजूद भील मार-काट कम करते। न मिलने पर किसी को भी मार-काट कर लूट लेना उनके बाएँ हाथ का खेल था। एकजुट होकर साहूकारों के ब्याज से मुक्त होने का यही आसान तरीका था उनके लिए।
गाँव में हमारा घर हवेली-सा था। सबसे बड़ा। यानि सबसे ज्यादा पैसा। यानि सबसे ज्यादा लूटपाट का डर। नीचे हमारी अनाज की बहुत बड़ी दुकान थी और अनाज के बोरे खाली करने-भरने के लिए कई आदिवासी हम्माल आते थे। हष्ट-पुष्ट, ऊँची कद-काठी के भील, पीठ पर बोरियाँ लादे मुझ जैसी बित्ती भर की बच्ची को भी छोटी सेठानी कहते। अपना लोटा लाकर मुझसे पानी जरूर माँगते। मैं दौड़-दौड़ कर जाती और मटके का ठंडा पानी लाकर उनका लोटा भर देती। पानी पीकर गले में लिपटे गंदे गमछे से पसीना पोंछकर फिर से काम पर लग जाते। जीजी रोटियाँ बनाकर उन्हें खाने देतीं जिन्हें वे बड़े चाव से प्याज के टुकड़े के साथ खा लेते। सबके लिए दोपहर की चाय भी बनती। कम दूध और ज्यादा पानी वाली चाय। शक्कर डबल। जीजी कहतीं- “बापड़ा खून-पसीनो एक करे। मीठी चा पीवेगा तो घणो काम करेगा।” (बेचारे इतना खून-पसीना बहाते हैं। मीठी चाय पीकर खूब काम करेंगे।)
पाँच भाई-बहनों के परिवार में हम दोनों छोटे भाई-बहन बहुत लाड़ले थे। मेरे बाद कोई बेटी नहीं और छोटू के बाद कोई बेटा नहीं। पूर्णविराम का महत्व हम दोनों बच्चों के व्यक्तित्व में झलकता था। हम ज्यादातर जीजी-दासाब (मम्मी-पापा) के आसपास ही मँडराते रहते। मानो उन दोनों पर सिर्फ हमारा अधिकार हो। अपनी हवेली के एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ते-भागते हम, हर पल जी भरकर जीते। आम के मौसम में घर में पाल डलती (कच्चे आमों के ढेर को सूखे चारे में रखकर पकाना)। रोज बाल्टी भर पानी लेकर बैठना और चुन-चुन कर पके आम बाल्टी में डालते जाना। ललचायी आँखें पलक झपकते ही रस भरे आम को गुठली में बदलते देखतीं। घर के अहाते में मूँगफली के बड़े ढेर से चुन-चुनकर मूँगफली खाना और छिलकों को बाकायदा ढेर से बाहर फेंकना।
मालवी-मारवाड़ी-भीली जैसी बोलियों के साथ धाराप्रवाह गुजराती और हिन्दी भाषा हम सभी भाई-बहनों ने जैसे घुट्टी में पी ली थी। कभी भी, किसी से भी अलग-अलग बोलियाँ बोलने-समझने में सकुचाते नहीं। भीलों से भीली में खूब बतियाते। भील-भीलनी मालवी लहजे में भीलड़ा-भीलड़ी हो जाते। मालवी की मिठास में किसी के भी नाम के आगे ड़ा-ड़ी-ड़ो लगाकर बोलना अपनेपन का अहसास होना। गधे या बुद्धू लड़के को गदेड़ो, और लड़की बेवकूफ हो तो गदेड़ी। यहाँ तक कि बरतन कपड़े करती भीलनी दीतू को भी दीतूड़ी कहते। कभी नाराजगी जाहिर करनी होती तो दीतूड़ी को दीतूट्टी कहते। आज भी हम सब भाई-बहन आपस में मालवी में बात करते हुए घर में जितने छोटे हैं सबके नाम के पीछे ड़ा-ड़ी-ड़ो लगाते हैं। टोनूड़ा, मीनूड़ी, रौनूड़ो…।
उस साल पानी नहीं गिरा था। धरती अनगिनत टुकड़ों में फट-सी गई थी। फसलें चौपट थीं। धान उगा नहीं। सेठों का धंधा ठप्प। धंधा नहीं तो भीलों के लिए मजदूरी भी नहीं। बस यही था खुली लूटपाट का समय। अब डाके पड़ने लगे। चोरी-चकारी तो आम बात थी ही लेकिन जब किसी अमीर के यहाँ चोरों की भीड़ आकर घर खाली कर जाए, मालमत्ते के साथ घर का सारा सामान यहाँ तक कि बर्तन-भांडे भी ले जाए, वह डाका होता। भीलों के समूह एकजुट होकर पूरी फोर्स के साथ ढोल-ढमाके बजाते आते। सारा कैश, जेवर और घर से जो उठा-उठा कर ले जा सकते, ले जाते। तब तक बैंक व्यवस्था पर लोगों का विश्वास जमा नहीं था। साहूकार अपना सारा कैश, कीमती चीजें घर में ही रखता था।
दो दिन पहले पास के गाँव कल्याणपुरा में अरबपति मामाजी के घर डाका पड़ा था। मामाजी के खास आसामी (ग्राहक) उन्हें लूट गए थे। करोड़ों का माल नगदी-जेवरात सब चला गया था। वहाँ से आई खबरों से हम सब डरे हुए थे। घर में दासाब के होते राहत मिलती। खबरों का खौफ कभी जीजी के पल्लू को पकड़कर कम होता तो कभी दासाब का कुरता पकड़कर। डरे-सहमे हम दोनों उनके आसपास ही सोते। नींद लगते न लगते, ढोल बजने शुरू हो जाते।
दासाब खिड़की की ओट से बाहर से आती ढोल की आवाजों का जायजा लेकर कहते- “बच्चों, डरो मत। चोर अपने घर की तरफ नहीं आ रहे। वो तो दूसरी ओर जा रहे हैं।”
लेकिन ये हमें समझाने के लिए होता क्योंकि वो स्वयं खड़े होकर आवाज दूर जाने तक सोते नहीं। घुप्प अंधेरे में कुछ दिखाई न देता होगा क्योंकि उस समय हमारे गाँव में बिजली आई ही थी। जो आती कम, जाती ज्यादा थी। चोरी-डाके की तमाम आशंकाओं के बावजूद कभी हमारे घर डाका नहीं पड़ा। हाँ, हर दो-तीन माह में हमारी भैंस चोरी हो जाती थी। दासाब की जिद थी कि घर में भैंस हो और सभी बच्चे घर का दूध पीएँ। सो हमारी हवेली के बंद पिछवाड़े में एक भैंस बँधी रहती। उन्हें ये भी पता होता था कि अपनी भैंस दो-तीन महीने ही रहेगी, बाद में चोर ले जाएँगे। और ऐसा ही होता। हर दो-तीन माह के भीतर भैंस चोरी हो जाती।
दासाब कहा करते थे- “चोट्टे घर के अंदर नहीं आ सकते। पिछवाड़े से भले ही भैंस ले जाएँ।
प्रश्नों की लंबी कतार मेरे सामने होती। मैं यह न समझ पाती कि चोर कैसे घर में नहीं घुस सकते! पुलिस तो खड़ी नहीं है बाहर। और फिर पुलिस तो कभी भैंस को भी वापस नहीं ला पाई, फिर चोरों का क्या बिगाड़ लेगी! रात में ड्यूटी पर खर्राटे भरते पुलिस वालों को इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि ढोल-नगाड़े बजाकर भील चोरी करने आ रहे हैं।
मैं सोचती, शायद चोर दासाब से डरते होंगे। उनकी आवाज इतनी बुलंद थी कि एक जोर की आवाज या उनकी खाँसी से सब सतर्क हो जाते। बड़े भाई-बहन भी डर जाते थे। मैं नहीं डरती थी क्योंकि मुझे कई विशेषाधिकार प्राप्त थे। मसलन, उनकी कई छोटी-छोटी जरूरतों का ध्यान रखना। वे नीचे दुकान में खाना खाते थे जबकि किचन ऊपर था। किचन क्या था, बहुत बड़ा हाल था। उस हवेली में कोई छोटा कमरा था ही नहीं, कई बड़े-बड़े हाल थे। मैं हर बार दौड़कर ऊपर जाती और गरम रोटी लेकर आती। धोबी के घर से उनके झकाझक सफेद कुरते-पाजामे बगैर सिलवटों के उन तक पहुँचाने का काम भी मेरा ही था।
जब वे बाजार कुछ लेने जाते, मुझे अपनी उँगली पकड़कर साथ ले जाते। धुली हुई घेरदार फ्राक पहने मेरी ठसक ऐसी होती जैसे दासाब की नहीं, आसमान में चमकते सूरज की उँगली पकड़कर चल रही होऊँ। कंधों पर आकर धूप ठहर जाती। बिखरती धूप के साए खिलखिलाने लगते। वो अलमस्त अनुभूति कभी मद्धम नहीं हुई। सिलसिला आज भी जारी है जब मैं अपने नाती-नातिन की उँगली पकड़कर चलती हूँ। टोरंटो की बर्फ के कणों से धूप परावर्तित होकर समूची ताकत से मुस्कुराती है। रोल बदलने के बावजूद चाल की ठसक कायम है।
भैंस के चोरी हो जाने के बाद हम दोनों छोटे बच्चों को पंडित के पास भेजा जाता। यह तफ़्तीश निकालने के लिए कि भैंस किस दिशा में गई। पंडित, गिरधावर जी अपना पोथा खोलते, हमारी जेब से निकले पैसे पोथे के पन्नों पर विराजमान होते ही उनकी गणना शुरू हो जाती। ग्रहों की गणना करते पंडित जी बताते कि भैंस, पूरब दिशा में गई है। फिर कहते, पहले पश्चिम में गई थी पर अब वापस पूरब दिशा की ओर मुड़ गई है। बिल्कुल वैसे ही जैसे आज हमारे सीसीटीवी कैमरे हमें दिशा-निर्देश देते हैं।
दासाब पुलिस थाने रिपोर्ट लिखाने जरूर जाते और कह आते कि पूरब दिशा में ढूँढने जाओ। पुलिस वाले आश्वासन के साथ रिपोर्ट लिख लेते। मैं कई दिनों तक टकटकी लगाए देखती रहती कि हमारी भैंस लौट आएगी। भैंस लौटकर कभी वापस नहीं आती, मगर दासाब फिर से नई भैंस खरीद लेते। अच्छी सेहत वाली। खूब दूध देती। ज्यादातर दही जमाकर मक्खन निकाल लेते। घी बन जाता। बड़े मटकों में रस्सी से बँधी लंबी मथनी पर हम सब हाथ चलाते। घूम-घूमकर, मटक-मटक कर दही मथना एक तरह से खेल था। मथनी खूब खिंचने के बाद भी मक्खन की झलक तक नहीं दिखती क्योंकि ताकत तो हममें थी नहीं। फिर दीतूड़ी हाथ आजमाती, उसके ताकतवर चार हाथ पड़ते न पड़ते मक्खन के थक्के ऊपर तैरने लग जाते। बड़ी-सी कढ़ाही में मक्खन का हर एक दूधिया कण इकट्ठा होता जाता। कढ़ाही आँच पर चढ़ते ही पूरी हवेली शुद्ध घी की महक से सराबोर हो जाती।
मथनी बाहर भी न आ पाती और तत्काल गाँव में खबर फैल जाती- “आज सेठ के घर छाछ बनी है।” मुफ्त में छाछ लेने वालों की भीड़ लग जाती हमारे घर। छाछ वितरण का काम मैं पूरी जिम्मेदारी से निभाती। छोटे से बर्तन से निकाल-निकाल कर लोगों के पतीले छाछ से लबालब भर देती। मेरे लिए यह एक जिम्मेदारी से भरे काम के साथ रोचक समय होता था। बाँटने की खुशी मेरे चेहरे से टपकती।
बीच-बीच में जीजी आकर सावधान करतीं कि बाकी लोगों को खाली न जाना पड़े। मैं छाछ देने में कंजूसी करने लगती तो बर्तन पकड़े सामने वाले की आवाज आती- “ए, थोड़ी और डाल दे न बेटा। आज खाटो (खट्टी कढ़ी) बनेगो।” लोगों के बर्तनों को ताजी, सफेद-झक छाछ से भर देना और उनकी आँखों से बरसते प्यार को स्वीकारना, मुझे बहुत भाता।
चोरी-डाके-लूटपाट के साथ हमारी हवेली में हॉरर दृश्यों की भरमार थी। अलौकिक दुनिया के कई रूप देखे मैंने। हमारा घर गाँव वालों के लिए भुतहा हवेली के रूप में भी जाना जाता था। उन घटनाओं का बयान करना, अंधविश्वास को बढ़ाना है। शिक्षित होकर भी उन घटनाओं को खंगालना विचलित करता है जिनका तार्किक उत्तर आज तक न मिला और शायद मिलेगा भी नहीं।
अपनी आँखों से गुजरे वे पल विज्ञान के विरुद्ध जाकर कभी भयभीत करते, कभी अलौकिक शक्तियों से परिचय कराते तो कभी आत्मविश्वास को बढ़ाते। आज तकनीकी युग में उन क्षणों की सच्चाई पर विश्वास करना सहज और स्वाभाविक बिल्कुल नहीं लगता, लेकिन वे पल अभी भी पीछा करते हैं। कई बार स्वयं को पिछड़ा हुआ कहकर इनके आगोश से मुक्त होने की कोशिश भी की लेकिन जो अपनी आँखों से देखा, जाना और समझा, उसे आज तक नकार नहीं पाई। बगैर किसी लाग-लपेट के वे क्षण मेरे सामने से ऐसे गुजरने लगते जैसे आज की ही बात हो। आँखों से देखा सच और उसमें जीने का अनुभव था, किसी तर्क की कोई गुंजाइश नहीं थी।
कई राज और उनमें छुपी जानी-अनजानी शक्तियों की चर्चा गाँव वाले करते। हवेली में रात में लोग बरतनों के गिरने की आवाज सुनते। रस्ते चलता आदमी भूले-से रात के अँधेरे में हवेली की किसी दीवार के पास पेशाब के लिए खड़ा हो जाता तो कोई उनके पीछे दौड़ता था। नाग-सर्प देवता के लिए तो हमारी हवेली जैसे स्वर्ग थी। रात के अँधेरे में हवेली के आसपास से गुजरने वालों को जगह-जगह नाग दिखते थे। मोटे-काले-लंबे नाग। छनन-छनन आवाजें सुनाई देती थीं। भड़-भड़ कुछ गिरने की आवाजें रोज की बातें थीं। हम गहरी नींद सो रहे होते और बाहर से गुजरने वाले ये सब देखते-सुनते हवेली से दूर भागने की कोशिश करते।
हमारे कानों में पड़ती ये बातें आम थीं। हम बच्चे आश्वस्त थे कि हमारे घर में ऐसा कुछ नहीं होता। होता भी हो तो ‘वो’ बाहर वालों को ही डराते हैं। हमें कभी कुछ नहीं करते। जीजी-दासाब ने हम दोनों छोटे बच्चों को खूब अच्छी तरह समझा कर रखा था कि कुछ भी डरने जैसा दिखे, तो हाथ जोड़ कर खड़े हो जाना। डरना मत। बस इतना कहना कि हम आपके घर वाले हैं।
हवेली के कई हिस्सों से मुझे केंचुलियाँ मिलती थीं क्योंकि दिन भर हवेली में सबसे ज्यादा ऊपर-नीचे दौड़ने वाली मैं ही थी। नजर भी बहुत तेज थी। मैं सँभालकर ले जाती जीजी के पास। जीजी कहतीं- “चोला बदले नाग देवता। पूजा रा पाट पे रक्खी दो।”
एक बार दूध के तपेले के पीछे मुझे नाग जैसी बड़ी-सी परछाई दिखी। तुरंत दौड़कर जीजी को बताया। उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर वहाँ एक दीपक लगवाया, प्रार्थना की। कहा- “छोरा-छोरी डरी रिया, आप किरपा करो। वापस पधार जाओ।”
वो दिन और आज का दिन, फिर मुझे कभी कुछ नहीं दिखा। जीजी की हिम्मत हौसला देती। हाँ, अकेले कभी रात-बिरात घर के पिछवाड़े जाने की हिम्मत नहीं कर पाते। पूरी हवेली में एक ही शौचालय था जो पिछवाड़े था। भैंस के खूँटे के पास। वहाँ तक पहुँचने में पूरी हवेली का लंबा सफर तय करना पड़ता था। रात में कोई वहाँ अकेला नहीं जाता। बड़े भाई-बहन भी जीजी के साथ या दासाब के साथ ही जाते।
हमारे यहाँ कोई भी शुभ कार्य या कोई त्योहार होता, हमें सख्त ताकीद थी कि पहले घर के देवताओं के लिए भोजन परोसो। वह थाली दिन भर पूजा के पाट पर रहती। शाम तक गाय और कुत्ते को खिला देते। कभी किसी ने गलती से भी उस नियम को नहीं तोड़ा। एक बार इस बड़ी हवेली का एक हिस्सा किराए से दिया था। वह परिवार वहाँ कुछ ही महीने टिका और डर के मारे छोड़ कर चला गया। छोड़ने के बाद हमें जो भी बताया, वह अविश्वसनीय नहीं था हमारे लिए।
दासाब कहते थे वे हमारे पुरखे हैं, जो अपने घर को छोड़ नहीं पाए। आज, जीजी-दासाब-बड़े-छोटे भाई नहीं हैं पर हम घर के जितने लोग बचे हैं, सबके पास ऐसी कई स्मृतियाँ कैद हैं। जब भी मिलते हैं रात के दो-तीन बजे तक बैठकर नयी पीढ़ी को ये सब सुनाते हैं। आज वह हवेली बिक गई है। दिन में वहाँ स्कूल चलता है। रात में आज भी वहाँ कोई नहीं रहता।
मेरी सारी सोच-समझ की शक्ति धराशायी हो जाती जब वह दृश्य मेरे सामने आता। उस शाम हवेली के बीच वाले हिस्से में चाचाजी के घर धड़ाधड़ पत्थर आने लगे थे। एकाध मिनट के अंतराल से एक पत्थर आता, आवाज होती और नीचे पड़ा दिखाई देता। पत्थर कहाँ से आ रहे थे, कौन फेंक रहा था, आज तक यह रहस्य नहीं खुला।
परिवार के साथ वहाँ इकट्ठा हो रहे गाँव के लोग इस घटना के साक्षी थे। फुसफुसा रहे थे कि सेठ का घर किसी बड़े संकट में है। भीड़ भयभीत थी, घरवाले भी। क्रोध शांत करने के लिए उसी समय धूप-दीप किया गया। सवेरे उठकर बड़ी पूजा करने का निवेदन किया गया। घर के हर सदस्य ने जोर से किसी भी गलती के लिए क्षमा माँगी। थोड़ी देर में पत्थर आने बंद हुए। किसी ने एक शंका जाहिर की कि ये पत्थर चोर फेंक रहे होंगे। लेकिन एक ही आकार के सारे पत्थरों का, एक ही जगह पर आकर गिरना संभव नहीं था। वह दृश्य मेरी आँखों में आज तक ऐसा सुरक्षित है कि कभी मैं उसे डिलीट न कर पाई।
समय के सारथी उन पलों की मुट्ठी में कैद था खुले आसमान का टुकड़ा। उसी को पकड़े रखा। जिन चमकीले-धूपीले पलों को बड़ों के साथ जीया, अब अपने नाती-नातिन के साथ जीती हूँ। उन्हें अपने बचपन की बातें सुनाती हूँ तो कहते हैं- “वाह नानी, तब भी था सुपर पावर!”
और फिर सुपर पावर की कई-कई किताबें पढ़ चुके वे मुझे आज के सुपर पावर के किस्से सुना-सुनाकर चौंकाते हैं।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
दर्शन कहता है कि दृष्टि में सृष्टि छिपी है। किसीकी दृष्टि में जीवन बोझिल है तो किसीके लिए मनुष्य जीवन का हर क्षण एक उत्सव है। बकौल ओशो, मनुष्य का पूरा अस्तित्व ही एक उत्सव है।
अस्तित्व के इस उत्सव में भी दृष्टि पुन: अपनी भूमिका निभाती है। किसी के लिए पात्र, जल से आधा भरा है, किसीके लिए पात्र आधा रिक्त है। रिक्त में रिक्थ देख सकने का भाव ही अस्तित्व की उत्सवधर्मिता का सम्मान करना है। यह भाव बिरलों को ही मिलता है। शिक्षिका-कवयित्री गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय इस भाव की धनी हैं। प्रस्तुत कवितासंग्रह का लगभग हर पृष्ठ इसका साक्षी है।
गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय का यह प्रथम कविता संग्रह है। वे जीवन के हर पक्ष में हरितिमा की अनुभूति करती हैं। अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली माँ शारदा की वंदना से संग्रह का आरम्भ होता है।
*मुक्तकों, छंदों में, गीतों में, मेरी कविताओं में,
भावों को उत्थान दे पाती कृपा तेरी है,
होकर ॠणी, बन कर कृतज्ञ, हर कण को, सृष्टि के
सदा, हृदय से सम्मान दे पाती कृपा तेरी है।*
सृष्टि के हर कण को सम्मान देने की बात महत्वपूर्ण है। वस्तुतः सृष्टि में हर चराचर अनुपम है। अतः हर इकाई, हर व्यक्ति आदर का पात्र है।
*बस तुम ही तुम हो तो फिर क्या तुम हो?
बस हम ही हम हैं तो फिर क्या हम हैं?
समग्रता से ही संपूर्णता है,
दोनों की सत्ता सिमटे तो हम हैं।*
अनुपमेयता का यह सूत्र कुछ यूँ सम्मान पाता है।
*सबका अपना विकास है ,
सबकी अपनी गति है।
खिलते अपने समय सभी,
सबकी अपनी उन्नति है।*
सबके खिलने में ही, उत्सव का आनंद है। ‘जीवनोत्सव’ इंद्रधनुषी है। इस इंद्रधनुष में सबसे गहरा रंग प्रकृति का है।
यत्र-तत्र सर्वत्र खिले हैं,
वन-उपवन, हर डाली
वसुधा की शोभा तो देखो,
अद्भुत छटा निराली!
कवयित्री गहन प्रकृति प्रेमी हैं। पर्यावरण का निरंतर हो रहा विनाश हर सजग नागरिक की चिंता और वेदना का कारण है। स्वाभाविक है कि यह वेदना कवयित्री की लेखनी से शब्द पाती-
जो मुफ़्त है और प्राप्त है,
अक्सर वही अज्ञात है।
अभिशप्त ना कर दो उसे,
जो मिल रही सौगात है।
सनातन दर्शन काया को पंचमहाभूतों से निर्मित बताता है। जीवन के लिए अनिवार्य इन महाभूतों को प्रकृति ने नि:शुल्क प्रदान किया है। मनुष्य द्वारा, प्राणतत्वों का आत्मघाती विनाश अनेक प्रश्न उत्पन्न करता है-
इतिहास ना बन जाएँ संसाधन,
प्राप्त का अब तो करें अभिवादन,
ऐसा ना हो मानव की अति से,
दूभर हो इस वसुधा पर जीवन।
वसुधा और वसुधा पर जीवन बचाने का आह्वान कभी प्रश्नवाचक तो कभी विधानार्थक रूप में आकर झिंझोड़ता है-
इतनी सुंदर धरा को सोचो
यदि हम नहीं बचाएँगे-
तो क्या छोड़ कर जाएँगे,
क्या छोड़ कर जाएँगे?
……………………….
बंद करो दूषण का नर्तन,
बंद करो विकृति का वर्तन।
कसो कमर हे युग-निर्माता,
करने को अब युग परिवर्तन!
कवयित्री शिक्षिका हैं। उनके चिंतन के केंद्र में विद्यार्थी का होना स्वाभाविक है। संग्रह की अनेक कविताओं में विद्यार्थियों के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष संदेश हैं। कुछ बानगियाँ देखिए-
स्मरण रहे तुम्हें,
तुम्हारा जीवन स्वयं एक उत्सव है!
इस उत्सव की अलख
सदा अपने भीतर जलाए रखना…!
अपने वर्तमान में उत्साह का एक बीज उगाए रखना!
इस ‘जीवनोत्सव’ को सदा अपने अंदर मनाए रखना…
……………………….
तुम्हारे कर्म से ही तेज
फैलेगा उजाले-सा,
स्वयं ही सिद्ध, होकर पूर्ण,
छलकोगे जो प्याले-सा!
विद्यार्थियों को संदेश देने वाली कवयित्री को अपने शिक्षकों, गुरुओं का स्मरण न हो, ऐसा नहीं हो सकता। गुरुजनों के प्रति यह मान ‘कृतज्ञ’ कविता में प्रकट हुआ है।
मायका स्त्री-जीवन का नंदनवन है। मायके की स्मृतियाँ, स्त्री की सबसे बड़ी धरोहर हैं। पिता को संबोधित कविता, ‘पापा, अब मैं सब्ज़ी काट लेती हूँ’, स्मृतियों में बसी अल्हड़ युवती से परिपक्व माँ होने की यात्रा है। परिपक्वता माता-पिता के प्रति यूँ सम्मान प्रकट करती है-
माता-पिता बड़े स्वार्थी होते हैं,
एक नींद के लिए ही,
वे सारे ख़्वाब पिरोते हैं।
नींद उन्हें यह, तब ही आया करती है,
जब उनके बच्चे, संतुष्ट हो सोते हैं!
स्त्रीत्व, विधाता का सर्वोत्तम वरदान है। तथापि स्त्री होना, दूब-सा निर्मूल होकर पुन: जड़ें जमाना, पुन: पल्ववित होना है। स्त्रीत्व का यह सदाहरी रंग देखिए-
सूखकर फिर से
हरी हो जाती है यह दूब,
विछिन्न होकर फिर से
भरी हो जाती है यह दूब!
स्त्री के अपरिमेय अस्तित्व की यह सारगर्भित व्याख्या देखिए-
मैं, मेरे शब्दों से आगे,
और मेरे रूप से परे हूँ,
क्या मेरे मौन से आगे भी
पढ़ सकते हो मुझे?
स्त्री का मौन भी अथाह है। इस अथाह का श्रेय भी स्वयं न लेकर वह अपने जीवनसंगी को देती है। यही स्त्री के प्रेम की उत्कटता है। नेह की यह अभिव्यक्ति देखिए-
कहूंँ या ना कहूंँ तुमसे,
रखना स्मरण यह तुम।
मेरे मौन में तुम हो,
मेरी हर व्यंजना में हो।
हर पूजा में तुम हो..!
नेह किसीको अपना जैसा बनाने के लिए नहीं, अपितु जो जैसा है, उसे वैसा स्वीकार करने के लिए होता है। विश्वास को साहचर्य का सूत्र बताती ये पंक्तियाँ अनुकरणीय हैं-
ख़ूबी का क्या, ख़ामी का क्या,
तुझ में भी है, मुझ में भी है,
बस प्रेम में ही विश्वास रहे,
हर बात टटोला नहीं करते!
संग्रह की दो कविताएँ आंचलिक बोली में हैं। इनमें भी पौधा लगाने की बात है। आज जब आभिजात्य पैसा बोने में लगा है, लोक ही है जो पौधा उगा रहा है, पेड़ बढ़ा रहा है, पर्यावरण बचा रहा है। लोकभाषा और पर्यावरण दोनों का संवर्धन करता आंचलिक बोली का यह पुट इस संग्रह की पठनीयता में गुड़ की मिठास घोलता है।
देहावस्था का प्राकृतिक चक्र अपरिहार्य है, हरेक पर लागू होता है। समय के प्रवाह में वृद्ध व्यक्ति शनैः-शनै: घर, परिवार, समाज द्वारा उपेक्षित होने लगता है। आनंद की बात है कि इस संग्रह में दादी, नानी के लिए कविता है, अनुभव की घनी छाँव में बैठने का संदेश है-
पास बैठा करो उनके भी तुम कभी
आते जाते मिलेंगी दुआएंँ कई।
देख कर ही तुम्हें जीते हैं वे, सुनो!
उनकी मौजूदगी में शिफ़ाएंँ कई!
कविता अवलोकन से उपजती है। अवलोकन, संवेदना को जगाता है। संवेदना, अनुभूति में बदलती है, अनुभूति अभिव्यक्ति बनकर बहती है। सहज शब्दों में वर्णित कथ्य में बसा कवित्व, मन के कैनवास पर अ-लिखे सुभाषित-सा अंकित हो जाता है-
अपने घोसले
खोने के डर से,
उसी में छुपती,
वह डरी चिड़िया!
बुज़ुर्गों के साथ नौनिहालों पर पर केंद्रित कुछ बाल कविताएँ भी इसी संग्रह में पढ़ने को मिल जाएँगी। इस तरह हर पीढ़ी को कुछ दे सकने का प्रयास संग्रह की कविताओं के माध्यम से किया गया है।
प्रस्तुत कविताओ में आस्था के रंग हैं, रिश्तों की चर्चा है, शिक्षकों की समस्याओं पर ध्यानाकर्षण है। पर्यावरण, विद्यार्थी, स्त्री तो मुख्य स्वर हैं ही। जीवन के अनेक रंगों का यह समुच्चय इस संग्रह को जीवनोत्सव में परिवर्तित कर देता है।
गौतमी चतुर्वेदी पाण्डेय लिखती रहें, पर्यावरण के संवर्धन के लिए कार्य करती रहें, यही कामना है। आशा है कि जीवनोत्सव के अन्य कई रंग भी भविष्य में उनकी आनेवाली पुस्तकों में देखने को मिलेंगे। अनेकानेक शुभाशंसाएँ।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीत – भावों की बहती सुरसरिता…।
रचना संसार # 31 – गीत – भावों की बहती सुरसरिता… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे ।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी – एक बुंदेली पूर्णिका – तुम कांटों की बात करो मत…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 240 ☆
☆ एक बुंदेली पूर्णिका – तुम कांटों की बात करो मत… ☆ श्री संतोष नेमा ☆
नका गडे पुन्हा पुन्हा असे डोळे मोठे मोठे करून माझ्याकडे पाहू… तुमचं तर रोजच ऐकतं असते बिनबोभाट पण माझं ऐकताना किती करता हो बाऊ… नाकी डोळी नीटस, घाऱ्या डोळ्यांची, गोऱ्या रंगाची.. शिडशिडीत बांध्याची पाहून तुम्ही भाळून गेला मजवरती… क्षणाचा विलंब न लावता मुलगी पसंत आहे आपल्या होकाराची दिली तुम्हीच संमती… पण लग्नाच्या बाजारात आम्हा बायकांना आयुष्याचा जोडीदार निवडायचा इतकं का सोपं असते ते… घरदार, शेतीभाती, शिक्षण नोकरी, घरातली नात्यांची किती असेल खोगीर भरती… आणि आणि काय काय प्रश्नांची जंत्री… वेळीच सगळ्या गोष्टींचा करून घ्यावा लागतोय खुलासा वाजण्यापूर्वी सनई नि वाजंत्री… तशी कुठलीच गोष्ट आम्हाला मनासारखी समाधान कारक मिळत नसतेच हाच असतो आम्हा बायकांचा विधीलेख.. साधी साडी घ्यायचं तरी दहा दुकानं पालथी करते.. रंग आहे तर काठात मार खाते… पोत बरा पण डिझाईन डल वाटते… किंमती भारी पण रिचनेस कमी वाटतो… समारंभासाठी मिरवायला छान एकच वेळा मग त्यानंतर तिचं पोतेरंच होणार असतं… आणि शेवटी मग साडी पसंत होते मनाला मुरड घालून… चारचौघी भेटल्यावर साडीचं करतात त्या कौतुक तोंडावर पण मनात होते माझी जळफळ गेला गं बाई हिला आता दृष्टीचा टिळा लागून… जी बाई आपल्या एका साडी खरेदीसाठी इतका आटापिटा करते आणि शेवटी जी खरेदी करते तिला नाईलाजाने का होईना पण पसंत आहे आवडली बरं अशी आपल्याला मनाची समजूत घालावी लागते… अहो तेच नवरा निवडताना, अगदी तसंच होतं.. त्यांच्या पसंतीला उतरले हिथचं आम्ही अर्धी लढाई जिंकलेली असते… मग पसंत आहे आवडला बरं अशी आपल्याला मनाची समजूत घालावी लागते. काय करणार पदरी पडलं पवित्र झालं हेच करतो मग मनाचं समाधान… त्याच गोष्टीचा करतो मगं हुकमाचा एक्का. आणि रोजच्या धबडग्यात देतो टक्का… मी महणून तुमच्या शी लग्न केलं आणि कोणी असती तर तुमच्याकडे ढुंकूनही पाहिलं नसतं… तेव्हा बऱ्या बोलानं गोडी गुलाबीनं माझ्याशी वागावं नाही तर चिडले रागावले तर रुसून कायमची निघून जाईन माहेराला कितीही काढल्या नाकदुऱ्या तुम्ही तर मी काही परत यायची नाही… कळेल तेव्हा बायकोची खरी किंमत…. दुसऱ्या लाख शोधालात तरीही माझ्यासारखी मिळायची नाही तुम्हाला. हथेलीपर हाथ रखे ढुंढते रह जाओगे मैके के चोखटपर…
50, 60 वर्षांपूर्वी पुण्याच्या चार लाखाच्या वस्तीत एक लाखाच्या वर नुसत्या सायकलीचं होत्या. प्रत्येक घरात दोन तरी सायकली असायच्या. मुला मुलींचा कॉलेज प्रवास सुरू झाला तो सायकली वरूनच नव्या सायकलीला 110 ते 140 रुपये किंमत असायची पण अहो!सर्वसामान्यांसाठी ही पण किंमत खूप होती. कशीतरी जोडाजोडी करून, काही वडिलांच्या पगारातून, थोडे आईच्या सांठवलेल्या हिंगाच्या डबीतून तर थोडे स्वकष्टाचे दूध, पेपर टाकून मिळवलेल्या पैशाची जोडणी करून रु50, 60 उभे करायचे आणि सेकंड हॅन्ड सायकल दारात यायची. त्याच्यातही समाधान मानणारी ती पिढी होती. लेखक डॉ एच वाय कुलकर्णी त्यांच्या लेखात गमतीदार किस्सा लिहितात 1955 साली श्रीअंतरकरांकडून मी सायकल घेतली, ती तब्बल 30 वर्ष वापरलेली होती त्यानंतर मी ती 1960 सालापर्यंत वापरली त्यावेळी कॉर्पोरेशनला वार्षिक टॅक्स अडीच रुपये असायचा मग पत्र्याच्या बिल्ला मिळायचा तो सायकलला लावला नाही तर कॉर्पोरेशनच्या लोकांच्या तावडीत सायकल स्वार सहज पकडला जायचा. भर दिवसाची ही कथा तर रात्रीची वेगळीच कहाणी, रात्री रॉकेलचा दिवा हवाच. तो दिवा सायकल खड्ड्यात गेली की डोळे मिटत असे. मग काय सगळाच अंधकार. आणि मग पोलिसांनी अडवल्यावर कष्टाने सांठवलेले अडीचशे रुपये रडकुंडीला येऊन पोलिसांच्या स्वाधीन करावे लागायचे..
मोहिमेवर जाणारी पेशवाई कारकीर्द संपून पुण्याच्या परिसरातील त्यांची घोडदौड संपुष्टात आली आणि पुण्याच्या रस्त्यावर टांग्याच्या घोड्याच्या टापा सुरू झाल्या. प्रमुख साधन म्हणून हजारभर टांगे पुण्यात फिरू लागले विश्रामबाग वाडा आणि सदाशिव पेठ हौद चौकात दत्त उपहारगृहाजवळ टांगा स्टॅन्ड असायचा, बाजीराव रोड वरून नू. म. वि. पर्यन्त आल्यावर आनंदाश्रम ते आप्पा बळवंत चौक हा रस्ता इतका अरुंद आणि गर्दीचा होता की समोरून बस आली तर येणाऱ्या सायकल स्वाराला उडी मारून बाजूलाच व्हावं लागायचं.
1953 पासून टांग्याचा आकडा घसरला आणि रिक्षाचा भाव वधारला.
1960 नंतर आली बजाजची व्हेस्पा स्कूटर, मग स्कूटरची संख्या वाढून सायकलचा दिमाख आटोपला. त्यात पीएमटी बसने भर टाकली. बस भाडं कमी, पुन्हा सुरक्षित, आरामात प्रवास.. मग टांगेवाल्यांना टांग मिळून सायकल स्वारही तुरळक झाले.
पण काही म्हणा हं ! इतर नावाच्या बिरुदाबरोबर पुण्याला सायकलीचं शहर हे नांव पडलं होतं त्या काळी. आत्ताच्या काळात मात्र गाड्यांच्या गर्दीतून सुळकांडी मारून पुढे जाणारा विजयी वीर क्वचितच दिसतो. आणि हो ! एखादा ज्येष्ठ नागरिक तरुणाला लाजवेल अशा चपळाईने सायकल स्वार झालेला आजही दिसतो. पण असं काही असलं तरी तेंव्हांची मजा काही औरच होती.
तर मंडळी आपण ही आठवणींची ही शिदोरी घेऊन सायकलवरून फेरा मारूया का?