(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “यादों की परछाँई…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 66 ☆ यादों की परछाँई… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ “मैं एकलव्य नहीं” (लघुकथा संग्रह) – लेखक : श्री जगदीश कुलरिया ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
पुस्तक : मैं एकलव्य नहीं (लघुकथा संग्रह)
लेखक : श्री जगदीश कुलरिया
प्रकाशक : के पब्लिकेशन, बरेटा (पंजाब)
मूल्य : 199 रुपये
☆ एक सोच और समर्पण के साथ लिखीं लघुकथायें – कमलेश भारतीय ☆
हिंदी व पंजाबी में एकसाथ सक्रिय जगदीश कुलरिया पंजाब से आते हैं और अनुवाद में तो अकादमी पुरस्कार भी पा चुके हैं । पंजाब के मिन्नी आंदोलन से जुड़े हैं और उनका ‘मैं एकलव्य नहीं’ लघुकथा संग्रह मिला तो लगभग दो ही दिनों में इसके पन्नों से गुजर गया और महसूस किया कि कुलरिया एक सोच और समर्पण के साथ लघुकथा आंदोलन से जुड़े हैं, कोई शौकिया या रविवारीय लेखन नहीं करते है । अनेक पत्रिकाओं में इनकी रचनायें पढ़ने को मिलती हैं । शुरुआत के पन्नों में जगदीश कुलरिया ने अपने लघुकथा से जुड़ने और अब तक कि लघुकथा लेखन-यात्रा के अनुभवों का विस्तार से जिक्र करते लघुकथा के प्रति अपने समर्पण व दिशा और सोच के बारे में खूब लिखा है और अपनी कुछ लघुकथाओं का उल्लेख भी किया है उदाहरण भी दिये हैं । लघुकथायें समाज व आसपास से ही हुए अनुभवों पर आधारित हैं, जिनमें थर्ड जेंडर, रिश्वत, नेता का रोज़नामचा, ज़मीन के बटवारे के बीच अवैध संबंधों की पीड़ा और महिलाओं के सशक्तिकरण व एकलव्य की तरह अब अंगूठा न कटवाने जैसी घटनायें या कहिये अनुभव इनकी लघुकथाओं के आधार बने हैं और समाज को आइना दिखाते हैं । असल में आजकल मैं एक एक लघुकथा या रचना पर बात न कर, इनकी आधारभूमि को टटोलता हूँ और फिर लघुकथा के सृजन की पीड़ा को समझने का प्रयास करता हूँ। सौ पृष्ठों में फैली पुस्तक को अंतिम पन्ने तक पढ़ा है, जिसमें जगदीश कुलरिया का लघुकथा के प्रति समर्पण और लघुकथा के क्षेत्र में योगदान सब उभर कर सामने आया है । बधाई। लगे रहो कुलरिया भाई । हिंदी व पंजाबी लेखन के बीच एक शानदार पुल की भूमिका भी निभा रहे हो ।
लघुकथा संग्रह पेपरबैक में है और मुखपृष्ठ भी खूबसूरत है। बहुत बहुत बधाई । ऐसा लगता है यह लघुकथा संग्रह स्वयं कुलरिया ने ही प्रकाशित किया है, जो बहुत खूबसूरत आया है।
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “फूल की उम्र चंद लम्हों हैं…“)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 70 ☆
फूल की उम्र चंद लम्हों हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – प्लास्टिक के फूल ।)
अरे! भाग्यवान सावन त्योहार आया है और राखी का त्योहार है। खरीदारी करने मार्केट नहीं जा रही हो?
नहीं इस बार मैंने रवि और बहू को कह दिया है वे ऑनलाइन ही मेरे भाई को राखी भेज देगी। आजकल राखी के साथ मिठाई टॉफी पर काफी सामान ऑनलाइन मिल जाते हैं और खरीदने और भेजना में कोई परेशानी नहीं होती?
मार्केट की भीड़भाड़ से भी बच जाते हैं।
अरे भाग्यवान! जो सामान खुद जाकर खरीदने में मजा है वह यह ऑनलाइन में कहां है?
कोई नहीं, मैं तो अपनी बहन के घर जा रहा हूं और उसके हाथ की मिठाई खाऊॅंगा। दीदी खुद हाथ से राखी बांधती है और मेरे लिए रूमाल पूरे दो दर्जन मुझे साल भर के लिए देती है। साथ ही मुझे टॉवल भी देती है।
तुम्हें प्लास्टिक की दुनिया मुबारक हो? तुम प्लास्टिक के फूल की तरह हो गई हो।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी।)
☆ कथा-कहानी # 114 – जीवन यात्रा : 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
माना कि स्कूलिंग, नैसर्गिक विकास को अवरुद्ध करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है पर फिर भी यह नैसर्गिक से प्रायोजित, भौतिकता के लिए आवश्यक,और व्यक्तित्व निर्माण की ओर जाने की यात्रा कही जा सकती है.यहां शिशु न केवल शिक्षा और शिक्षण के दौर से गुजरता है बल्कि परिवार के दायरे को लांघकर बहुत सी और विभिन्न मित्रताओं के स्वाद से भी परिचित होता है. पहले सामान्य परिचय,फिर परिचय की प्रगाढ़ता जो कभी आजीवन या फिर समयकालीन मित्रता के रिश्तों में बदलती है. या फिर प्रतिस्पर्धा जो कभी प्रतिद्वंदिता और कभी नापसंदगी के रूप में अंकुरित होकर शत्रुता तक में बदले, यह स्कूल या फिर स्कूलिंग का दौर ही सिखाता है.हास्यबोध जो दोस्तों के मनोरंजन के लिए कभी खुद को भी हास्यास्पद स्थिति में डाल दे या फिर सेंस ऑफ ह्यूमर जो गाहे बगाहे चुटीली टिप्पणियों से माहौल को हल्के पर बौद्धिक मनोरंजन की डोज़ देता रहे,यह छात्रजीवन में ही उपजता है.यह तो सर्वमान्य और अटल सत्य है कि छात्रजीवन विशेषकर स्कूल लाईफ ही वह महत्वपूर्ण सुरंग होती है जहाँ एक सिरे से प्रविष्ट “अबोध,उत्सुक पर भयभीत,पेरेंट्स के सुरक्षाकवच से दूर शिशु”,दूसरे छोर से “आश्वस्त या अभ्यस्त,निर्भीकता से परिपक्व और निर्भरता को तिलांजलि देकर आत्मनिर्भरता से पगे हुये पकवान की तरह” बाहर आता है.नर्सरी को छोड़कर स्कूलिंग के ये बारह साल उसके “व्यक्तित्व निर्माण, मन:स्थिति और इच्छाशक्ति,चारित्रिक दृढ़ता या फिर दुर्बलता,मानसिक और शारीरक दक्षता” का निर्माण करते हैं.”प्रतिकूलता को भी सहजता से लेना” या फिर “अनुकूलता में भी तनावग्रस्त होना” उसे स्कूलिंग ही सिखाती है.संवेदनशीलता की मौजूदगी, उपेक्षा को पचाकर और ज्यादा मजबूती से संघर्षरत रहना उसे स्कूल ही सिखाते हैं.
स्थूल रूप से समाज में ये मान लिया जाता है कि स्कूल से डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर,एडवोकेट, बैंकर तैयार होते हैं पर ये मान्यता खोखली होती है.स्कूल प्रारंभिक शिक्षा के अलावा सिर्फ व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं जो आगे चलकर अपनी इस फाउंडेशन के बल पर ये प्रोफेशनल विशेषज्ञता हासिल करते हैं.सारी नामचीन हस्तियां जिन्होंने अपनी उपलब्धियों के बल पर समाज और दुनियां में जगह बनाई वो सब इस स्कूलिंग के दौर में हासिल गुणों को ही बाद में विकसित और परिमार्जित कर ही अपने अपने मुकाम को हासिल कर पाये.स्कूलिंग के इस दौर के बारे में जितना लिखा जाय कम ही होगा इसलिए
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – देखकर चाँद भी तुमको, जल जाएगा…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 67 – देखकर चाँद भी तुमको, जल जाएगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सजल – बदल गया है आज जमाना”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 22 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 5
(29 मार्च 2024)
पारो शहर की यात्रा आनंददायी रही। मौसम भी साथ दे रहा था। आसमान में हल्के बादल तो थे पर वर्षा के होने की कोई संभावना न थी। आज हम विश्व विख्यात ताकत्संग या टाइगर नेस्ट देखने के लिए निकले। यह इस देश की सबसे पुरानी मोनैस्ट्री है। तथा पारो शहर का सबसे बड़ा आकर्षण केंद्र भी।
यह मोनेस्ट्री पारो घाटी से 3, 000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। नीचे से ही यह अत्यंत आकर्षक और मोहक दिखाई देती है। यह विशाल इमारत लाल और सफ़ेद रंग से पुती हुई है। एक खड़ी चट्टान पर इतनी बड़ी मोनैस्ट्री कैसे बनाई गई यह एक आश्चर्य करनेवाली बात है।
यात्रियों ने तथा गाइड ने हमें बताया कि ऊपर जाने के लिए कोई पक्की सड़क नहीं है बल्कि पत्थर काटकर रास्ता बनाया गया है। आने -जाने में छह से सात घंटे लगते हैं। यात्री घोड़े पर सवार होकर भी वहाँ जा सकते हैं। हम कुछ दूर तक चलकर गए परंतु ऊपर तक जाने की हमने हिम्मत नहीं की। बताते चलें कि यहाँ जाने के लिए प्रतिव्यक्ति प्रवेश शुल्क ₹1500 /- है। मौसम सही हो और मार्च अप्रैल का महीना हो तो तकरीबन सौ से दोसौ लोग प्रतिदिन दर्शन करने जाते हैं। सबसे आनंद की बात है कि यह बौद्ध धर्मस्थल है और आनेवाले सभी पर्यटक बौद्धधर्म का सम्मान करते हैं।
हम वहीं एक चट्टान पर बैठ गए और पेमा ने हमें तकत्संग की स्थापना और महत्त्व की जानकारी दी।
यह एक मठ है जिसे मोनैस्ट्री ही मूल रूप से कहा जाता है। यहाँ आज भी बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षुक रहते हैं। पूजा की विधि का पालन नियमित होता है। शाम को पाँच बजे के बाद यात्रियों को ऊपर रुकने नहीं दिया जाता है।
इसे टाइगर नेस्ट या मठ भी कहा जाता है। इस बड़ी इमारत का निर्माण 17वीं शताब्दी के अंत में चट्टान में बनी एक गुफा के स्थान पर किया गया था। यद्यपि इसे अंग्रेज़ी में टाइगर नेस्ट कहते हैं, लेकिन तकत्संग का सटीक अनुवाद “बाघिन की माँद” है और इसका नाम इसके पीछे जो किंवदंती है उसके साथ मिलता जुलता भी है।
कहा जाता है कि 8वीं शताब्दी में किसी रानी ने बाघिन का रूप धरा था और तिब्बत से पद्मसंभव को पीठ पर बिठाकर यहाँ की गुफा में लेकर आई थी। पुरातन काल में काला जादू का प्रभाव इन सभी स्थानों में था। यही कारण है कि इसे बाघिन की माँद नाम दिया गया है। सत्यता का तो पता नहीं पर पुरानी गुफा तो है जहाँ आज भी मठाधीश ध्यान करते हैं। मुझे यह कथा सुनकर माता वैष्णों देवी के मंदिर का स्मरण हो आया। यह मंदिर भी पहाड़ी के ऊपर स्थित है और चौदह कि.मी ऊपर चढ़ने पर मंदिर में तीन छोटे -छोटे पिंड के रूप में माता विराजमान हैं। यहाँ भी एक किंवदंती है।
तकत्संग मठ की इमारतों में चार मुख्य मंदिर हैं। यहाँ आवासीय आश्रम भी है। पहले जो गुफा थी उसी के इर्द -गिर्द की चट्टानों पर अनुकूल इमारत बनाई गई है। आठ गुफाओं में से चार तक पहुँचना तुलनात्मक रूप से आसान है। वह गुफा जहाँ पद्मसंभव ने बाघ की सवारी करते हुए पहली बार प्रवेश किया था, उसे थोलू फुक के नाम से जाना जाता है और मूल गुफा जहाँ उन्होंने निवास किया था और ध्यान किया था उसे पेल फुक के नाम से जाना जाता है। उन्होंने आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध भिक्षुओं को यहाँ मठ बनाने का निर्देश दिया।
मुख्य गुफा में एक संकीर्ण मार्ग से प्रवेश किया जाता है। अँधेरी गुफा में बोधिसत्वों की एक दर्जन छवियाँ हैं और इन मूर्तियों के सामने मक्खन के दीपक जलाए जाते हैं। यह भी कहा जाता है कि इस गुफा मठ में वज्रयान बौद्ध धर्म का पालन करने वाले भिक्षु तीन साल तक यहीं रहते हैं और कभी पारो घाटी में उतरकर नहीं जाते।
यहाँ की सभी इमारतें चट्टानों में बनी सीढ़ियों के ज़रिए आपस में जुड़ी हुई हैं। रास्तों और सीढ़ियों के साथ-साथ कुछ जर्जर लकड़ी के पुल भी हैं, जिन्हें पार किया जा सकता है। सबसे ऊँचे स्तर पर स्थित मंदिर में बुद्ध की एक प्रतिमा है। प्रत्येक इमारत में एक झूलती हुई बालकनी है, जहाँ से नीचे की ओर सुंदर पारो घाटी का दृश्य दिखाई देता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए और लौटने के लिए 1800 सीढ़ियाँ चढ़ने और उतरने की आवश्यकता होती है।
पेमा से सारी विस्तृत जानकारी हासिल कर हम लोग लौटने की तैयारी करने लगे तो रास्ते में ढेर सारे घोड़े बँधे हुए दिखे। यहाँ के घोड़ों की पीठ पर थोड़े लंबे लंबे बाल होते हैं और ऊँचाई में भी वे कम होते हैं।
कुछ दूरी पर अनेक कुत्ते दिखे। आश्चर्य की बात यह थी कि सभी कुत्ते काले रंग के ही थे। भूटान में जहाँ – तहाँ ये काले कुत्ते दिखाई देते हैं जो ठंडी के कारण सुस्ताते रहते हैं। हमने पास की दुकान से ढेर सारे पार्लेजी बिस्कुट खरीदकर कुत्तों को खिलाया और उन्हें प्यार किया। ये सरल जीव पूँछ हिलाते हुए हमें अलविदा कहने गाड़ी तक आए। हृदय भीतर तक पसीज गया। थोड़े से बिस्कुटों और स्पर्श ने उनके भीतर की सरल आत्मा के स्वामीभक्ति वाला भाव अभिव्यक्त कर दिया।
आगे हम पारो किचू मंदिर के दर्शन के लिए गए। यह भूटान का सबसे पुराना मंदिर है। इस मंदिर को 7वीं सदी में तिब्बत के राजा साँग्तेसन गैम्पो ने बनवाया था। वह तिब्बत का 33वाँ राजा था जिसने लंबे समय तक राज्य भी किया था। इस राजा ने भू सीमा की रक्षा हेतु 108 मंदिर बनवाए थे। यह उनमें से एक है। कहा जाता है कि राक्षसों के निरंतर उत्पातों से बचने के लिए ये 108 मंदिरों की स्थापना की गई थी। मंदिर का परिसर स्वच्छ है तथा भक्त गण दर्शन करने आते रहते हैं। इस मंदिर के साथ एक छोटा सा संग्रहालय तथा पुस्तकालय भी है। बाहर सुंदर फूलों के पेड़ लगे हुए हैं।
यहाँ से निकलकर हम भूटान नैशनल म्यूज़ियम देखने गए। यह बाहर से तो दो मंजिली इमारत है परंतु भीतर प्रवेश करने पर भीतर यह पाँच मंज़िली इमारत है। एक – एक मंज़िल की दीवारों पर पुराने समय से उपयोग में लाए जानेवाले अस्त्र -शस्त्र सजे हुए हैं। भूटानी भाषा में वहाँ का इतिहास लिखा हुआ है। जो हम पढ़ न सके पर यह जानकारी मिली कि तिब्बत और भूटान के बीच नियमित युद्ध हुआ करते थे। भूटान के वर्तमान राजा पाँचवी पीढ़ी है जिनके पूर्वजों ने संपूर्ण भूटान को एक छ्त्र छाया में इकत्रित करने का काम किया था। भूटान स्वतंत्र राज्य था और अब भी है। आज वाँगचुक परिवार राज्य करता है।
इस संग्रहालय में आम पहने जाने वाले भूटानी वस्त्र, योद्धाओं के वस्त्र, मुद्राएँ, अलंकार, बर्तन आदि रखे गए हैं। यह एक संरक्षण के लिए बनाया गया किला था जो अब संग्रहालय में परिवर्तित है। हम मूल रूप से पाँचवीं मंजिल से उतरने लगे, प्रत्येक मंजिल में दर्शन करते हुए निचली मंजिल पर उतरे और उसी सड़क से गाड़ी की ओर बढ़े। पहाड़ी इलाकों में रास्ते के साथवाली ज़मीन पर बननेवाली मंज़िल सबसे ऊपर की मंज़िल होती है। उसके बाद पहाड़ काटकर नीचे की ओर इमारत बनाई जाती है।
आज शाम पाँच बजे ही हम होटल में लौट आए क्योंकि अगली सुबह हमें लंबी यात्रा करनी थी।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री सुदर्शन सोनी द्वारा लिखित पुस्तक “नौकरी धूप सेंकने की…” (जीवनी)पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 165 ☆
☆ “नौकरी धूप सेंकने की” – लेखक … श्री सुदर्शन सोनी☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
व्यंग्य संग्रह – नौकरी धूप सेंकने की
लेखक – श्री सुदर्शन सोनी, भोपाल
प्रकाशक …आईसेक्ट पब्लीकेशन, भोपाल
पृष्ठ ..२२४, मूल्य २५० रु
चर्चा …. विवेक रंजन श्रीवास्तव
मो ७०००३७५७९८
धूप से शरीर में विटामिन-D बनता है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की मानें, तो विटामिन डी प्राप्त करने के लिए सुबह 11 से 2 बजे के बीच धूप सबसे अधिक लाभकारी होती है। यह दिमाग को हेल्दी बनाती है और इम्यून सिस्टम को मजबूत करती है। आयुर्वेद के अनुसार, शरीर में पाचन का कार्य जठराग्नि द्वारा किया जाता है, जिसका मुख्य स्रोत सूर्य है। दोपहर में सूर्य अपने चरम पर होता है और उस समय तुलनात्मक रूप से जठराग्नि भी सक्रिय होती है। इस समय का भोजन अच्छी तरह से पचता है। सरकारी कर्मचारी जीवन में जो कुछ करते हैं, वह सरकार के लिये ही करते हैं। इस तरह से यदि तन मन स्वस्थ रखने के लिये वे नौकरी के समय में धूप सेंकतें हैं तो वह भी सरकारी काम ही हुआ, और इसमें किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिये। सुदर्शन सोनी सरकारी अमले के आला अधिकारी रहे हैं, और उन्होंने धूप सेंकने की नौकरी को बहुत पास से, सरकारी तंत्र के भीतर से समझा है। व्यंग्य उनके खून में प्रवाहमान है, वे पांच व्यंग्य संग्रह साहित्य जगत को दे चुके हैं, व्यंग्य केंद्रित संस्था व्यंग्य भोजपाल चलाते हैं। वह सब जो उन्होने जीवन भर अनुभव किया समय समय पर व्यंग्य लेखों के रूप में स्वभावतः निसृत होता रहा। लेखकीय में उन्होंने स्वयं लिखा है ” इस संग्रह की मेरी ५१ प्रतिनिधि रचनायें हैं जो मुझे काफी प्रिय हैं “। किसी भी रचना का सर्वोत्तम समीक्षक लेखक स्वयं ही होता है, इसलिये सुदर्शन सोनी की इस लेखकीय अभिव्यक्ति को “नौकरी धूप सेंकने की” व्यंग्य संग्रह का यू एस पी कहा जाना चाहिये। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने किताब की भूमिका में लिखा है ” सरकारी कर्मचारी धूप सेंक रहे हैं, दफ्तर ठप हैं, पर सरकार चल रही है, पब्लिक परेशान है। सरकार चलाने वाले चालू हैं वे काम के वक्त धूप सेंकते हैं। ”
मैंने “नौकरी धूप सेंकने की” को पहले ई बुक के स्वरूप में पढ़ा, फिर लगा कि इसे तो फुरसत से आड़े टेढ़े लेटकर पढ़ने में मजा आयेगा तो किताब के रूप में लाकर पढ़ा। पढ़ता गया, रुचि बढ़ती गई और देर रात तक सारे व्यंग्य पढ़ ही डाले। लुप्त राष्ट्रीय आयटम बनाम नये राष्ट्रीय प्रतीक, व्यवस्था का मैक्रोस्कोप, भ्रष्टाचार का नख-शिख वर्णन, साधने की कला, गरीबी तेरा उपकार हम नहीं भूल पाएंगे, मेवा निवृत्ति, बाढ़ के फायदे, मीटिंग अधिकारी, नौकरी धूप सेकने की, सरकार के मार्ग, डिजिटाईजेशन और बड़े बाबू, एक अदद नाले के अधिकार क्षेत्र का विमर्श आदि अनुभूत सारकारी तंत्र की मारक रचनायें हैं। टीकाकरण से पहले कोचिंगकरण से लेखक की व्यंग्य कल्पना की बानगी उधृत है ” कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो अजन्मे बच्चे की कोचिंग की व्यवस्था कर लेंगे “। लिखते रहने के लिये पढ़ते रहना जरूरी होता है, सुदर्शन जी पढ़ाकू हैं, और मौके पर अपने पढ़े का प्रयोग व्यंग्य की धार बनाने में करते हैं, आओ नरेगा-नरेगा खेलें में वे लिखते हैं ” ये ऐसा ही प्रश्न है जेसे फ्रांस की राजकुमारी ने फ्रासीसी क्रांति के समय कहा कि रोटी नहीं है तो ये केक क्यों नहीं खाते ? “सर्वोच्च प्राथमिकता” सरकारी फाइलों की अनिवार्य तैग लाइन होती है, उस पर वे तीक्षण प्रहार करते हुये लिखते हैं कि सर्वोच्च प्राथमिकता रहना तो चाहती है सुशासन, रोजगार, समृद्धि, विकास के साथ पर व्यवस्था पूछे तो। व्यंग्य लेखों की भाषा को अलंकारिक या क्लिष्ट बनाकर सुदर्शन आम पाठक से दूर नहीं जाना चाहते, यही उनका अभिव्यक्ति कौशल है।
अगले जनम हमें मिडिल क्लास न कीजो, अनेक पतियों को एक नेक सलाह, हर नुक्कड़ पर एक पान व एक दांतों की दुकान, महँगाई का शुक्ल पक्ष, अखबार का भविष्यफल, आक्रोश जोन, पतियों का एक्सचेंज ऑफर, पत्नी के सात मूलभूत अधिकार, शर्म का शर्मसार होना वगैरह वे व्यंग्य हैं जो आफिस आते जाते उनकी पैनी दृष्टि से गुजरी सामाजिक विसंगतियों को लक्ष्य कर रचे गये हैं। वे पहले अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो व्यंग्य संग्रह लिख चुके हैं। डोडो का पॉटी संस्कार, जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन इससंग्रह में उनकी पसंद के व्यंग्य हैं। अपनी साहित्यिक जमात पर भी उनके कटाक्ष कई लेखों में मिलते हैं उदाहरण स्वरूप एक पुरस्कार समारोह की झलकियां, ये भी गौरवान्वित हुए, साहित्य की नगदी फसलें, श्रोता प्रोत्साहन योजना, वर्गीकरण साहित्यकारों का : एक तुच्छ प्रयास, सम्मानों की धुंध, आदि व्यंग्य अपने शीर्षक से ही अपनी कथा वस्तु का किंचित प्रागट्य कर रहे हैं।
एक वोटर के हसीन सपने में वे फ्री बीज पर गहरा कटाक्ष करते हुये लिखते हैं ” अब हमें कोई कार्य करने की जरूरत नहीं है वोट देना ही सबसे बड़ा कर्म है हमारे पास “। संग्रह की प्रत्येक रचना लक्ष्यभेदी है। किताब पैसा वसूल है। पढ़ें और आनंद लें। किताब का अंतिम व्यंग्य है मीटिंग अधिकारी और अंतिम वाक्य है कि जब सत्कार अधिकारी हो सकता है तो मीटिंग अधिकारी क्यों नहीं हो सकता ? ऐसा हो तो बाकी लोग मीटिंग की चिंता से मुक्त होकर काम कर सकेंगे। काश इसे व्यंग्य नहीं अमिधा में ही समझा जाये, औेर वास्तव में काम हों केवल मीटिंग नहीं।