हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 197 – “सॉंझ सकारे सामंजस्य बिठाने…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत सॉंझ सकारे सामंजस्य बिठाने...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 197 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “सॉंझ सकारे सामंजस्य बिठाने...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

एक युद्ध घर के बँटवारे का

सहने को तत्पर , माँ

और दूसरा देख रही बेटों में

आज भयंकर, माँ

 

बहुओं का युद्धाभ्यास

समझाता है इस आशय को

सालेगा अपमान सहित

जो बढी हुई माँ की वय को

 

इन सब का अनदेखा करती

रोज शिवाला जाती है

सहज दिखाई देती हर क्षण

संस्कार की आकर,  माँ

 

इस घर की गतिविधियाँ ध्वंसक

रोज संवरण करने में

धो लेती है समय-समय पर

जिन्हें अश्रु के झरने में

 

सॉंझ सकारे सामंजस्य बिठाने

में खटती रहती

गोया माँ, माँ न होकर

इस घर की हो बस चाकर , माँ

 

सपने कैसे चूर- चूर

होते हैं यह उसने जाना

और यही है नियति विश्व की

यह भी उसने अब माना

 

और कभी इस घर में मंगल

का जिसने रोपा पौधा

उसकी खातिर रहजाती है

जी सहला- सहला कर , माँ

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

30-09-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब”)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

पद्मश्री शेख गुलाब

☆ कहाँ गए वे लोग # १९ ☆

☆ “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

शेख गुलाब का जन्म अविभाजित मण्डला जिले के डिंडौरी में हुआ था। अब मण्डला से अलग होकर डिंडौरी भी स्वतंत्र जिला बन गया है। तब यह गाँव बहुत छोटा था। नर्मदा के किनारे। नर्मदा के पानी से होकर इस अंचल की कला और संस्कृति जैसे शेख गुलाब की रगों में दौड़ने-फिरने लगी थी। इलाकाई नाच-गाने का उन्हें जुनून-सा था। सारा समय इसी को तलाशने, देखने, समझने, सुनने-गुनने में बीतता। बिल्कुल शुरुआती दौर में ही उन्होंने इस बात को पकड़ लिया था कि आने वाला समय बाज़ार के साथ मिलकर पारंपरिक कलाओं की इस अनमोल धरोहर पर बड़ा हमला करने वाला है। इसीलिए उन्होंने अपना सारा ध्यान दो बिंदुओं की ओर केंद्रित किया; एक तो लोक कलाओं की परंपरा, स्वरूप, शैली आदि का दस्तावेजीकरण और दूसरे नई पीढ़ी के बीच जाकर इन कलाओं को प्रायोगिक रूप में आगे बढ़ाना। इस काम के लिए उन्हें डिंडौरी का परिवेश जरा संकुचित लग रहा था।

मण्डला जबलपुर रोड पर आदिवासी गांव कालपी है  कालपी में हेड-मास्टर की पोस्ट थी, वे एक दर्जा नीचे थे। उन्होंने कहा कि वे अपने-आप को साबित कर दिखाएंगे और न कर पाए तो जीवन-भर प्रमोशन नहीं लेंगे। तब के लोगों के पास रीढ़ की हड्डी नामक दुर्लभ चीज भी हुआ करती थी और वे नियमों की लकीर पीटते बैठे नहीं रहते थे। स्कूल इंस्पेक्टर ने हेड मास्टर साहब को किसी ट्रेनिंग में भेज दिया और शेख गुलाब को कालपी में तैनात कर दिया। यहाँ आकर वे अपने काम में इस तरह जुटे की देश भर में उनका नाम फैलने लगा और दिलीप कुमार जैसी शख्सियत को भी यहाँ आना पड़ा। वे आदिवासी लोक-जीवन पर आधारित एक फ़िल्म “काला आदमी” बनाना चाहते थे। 

इस फ़िल्म के नृत्य-संगीत को लेकर शेख गुलाब के साथ उन्होंने लम्बी चर्चा की। आगे यह फ़िल्म बन तो नहीं सकी पर इस मुलाकात की चर्चा के साथ शेख गुलाब का नाम वे भी जानने लगे थे, जो अब तक उनके नाम और काम से वाकिफ़ न थे।

चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल भारत आया हुआ था। डेलिगेशन के सम्मान में होने वाले आयोजन के लिए कालपी से शेख गुलाब को याद किया गया। गुलाब साहब के दल को गेंड़ी नृत्य प्रस्तुत करना था।  

पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक, प्रधानमंत्री निवास में शेख गुलाब  का इस तरह से आना-जाना रहा कि गोया दरबान भी उन्हें पहचानने लगे थे।  शेख गुलाब को अलबत्ता पद्मश्री सम्मान मिल गया था। सम्मान लेने के लिए उन्होंने लोगों के दबाव में एक अदद कुर्ता-सलवार सिलवाया था। वे सादगी पसंद थे। जीवन भर धोती-कुर्ता पहनते रहे। उन्हें लगा कि एक सम्मान के लिए इस तरह से भेस बदलना बहुरूपियों का काम है। आखिरी वक्त में वे मौलिक रूप में आ गए। सलवार-कुर्ता धरा रह गया। बाज लोग तो सम्मान के लिए क्या-क्या स्वांग धर लेते हैं। इन काग के भाग में सम्मान के बदले फ़क़त कुछ मोर पंख होते हैं, जिन्हें  इन्हें अपनी दुम में खोंसना होता है।

शेख गुलाब को सबसे ज्यादा मकबूलियत गेंड़ी नाच की वजह से मिली। गेंड़ी नाच की इससे पहले कोई सुदीर्घ परम्परा नहीं रही। इसकी शुरुआत संयोगवश हुई और इसी नृत्य ने शेख गुलाब को खूब नाम दिया। बारिश वाले दिनों में जब खेतों में कीचड़ होता है तब किसान गेंड़ी का इस्तेमाल यहाँ आने-जाने में करते हैं। 

गेंड़ी नाच की कोई स्थापित परम्परा नहीं रही। वर्ष 1952 में शेख गुलाब मिडिल स्कूल के अपने छात्रों को लोक-नृत्य की तालीम दे रहे थे। गाँव के कुछ लड़के गेड़ियों में चढ़कर नाच का देखने आए थे। जब अभ्यास खत्म हुआ गेंड़ी में सवार दर्शकों में से एक बालक हू ब हू नाच की नकल करने लगा। शेख गुलाब के जेहन में उसी तरह बिजली कौंध गई जैसे बारिश में पतंग उड़ाते हुए बेंजामिन फ्रेंकलिन के जेहन में चमकी होगी। उन्हें लगा कि लोक-नृत्य गेड़ियों पर भी किए जा सकते हैं। उन्होंने बालकों के लिए कतिपय छोटी-छोटी गेड़ियाँ बनवाई और इन पर छोटे-छोटे बालकों ने जरा बड़ा काम कर दिखाया।

गेंड़ी वाला करतब नृत्य तक सीमित नहीं रहा। गेंड़ी पर सवार होकर फुटबॉल भी खेला जा सकता है। जाने कैसे यह खबर ऑल इंडिया फुटबॉल एसोसिएशन तक पहुँच गई। उन्होंने कालपी की गेंड़ी फुटबॉल टीम को कोलकाता ( तब कलकत्ता) आमंत्रित किया। फुटबॉल वहाँ के लोगों ने खूब देखा था, पर गेंड़ी फुटबॉल एक अजूबा था। पूरे शहर में गेंड़ी फुटबॉल खेलने वाले बालकों के ‘कट आउट’ लग गए थे। बालक अपने ही होर्डिंग्स को हैरानी से देख रहे थे और यकीन नहीं कर पा रहे थे कि ये वही हैं। एमसीसी की क्रिक्रेट टीम भी वहीं थी। टीम के कप्तान हावर्ड जाफरी अपने दल-बल के साथ मैदान में मौजूद थे। मण्डला वाले इलाके में तब जंगल और भी घने हुआ करते थे, इसलिए टीम के नामकरण में थोड़ा ‘जंगलीपन’ जरूरी था। एक टीम का नाम ‘शेर दल’ था और दूसरा ‘भैंसा दल’ था। जंगली भैंस और शेर के बीच भिड़ंत बहुत जबरदस्त होती है। यहाँ भी जबरदस्त टक्कर हुई और दोनों दलों ने मिलकर लोगों का दिल जीत लिया। जैसा शोर गोल होने पर मचता है, इस मुकाबले में वैसा शोर एक-एक ‘किक’ पर मचता था, जो गेड़ियों से लगाई जाती थी। अगले दिन के अखबार मैच के विवरण से भरे पड़े थे। 

अगले ही बरस, यानी वर्ष 1954 में दिल्ली की गणतंत्र दिवस की परेड में पहली बार लोक-नृत्यों को शामिल किया गया। मध्य-प्रदेश की टीम तैयार करने की जिम्मेदारी प्रख्यात कथक नृत्यांगना सितारा देवी को सौंपी गई। सितारी देवी के बारे में ज्यादा जानना हो तो उन पर लिखा मंटो का आलेख पढ़ना चाहिए। सितारा शास्त्रीय कलाकार थीं और उनके जिम्मे जो टीम दी गई वो लोक-कलाकार थे। एक विधा कड़े अनुशासन और प्रशिक्षण वाली और इसके बरक्स दूसरी विधा ऐसी जो सहज जीवन शैली से आती है और थोड़ा खिलंदड़ापन लिए हुए होती है। दोनों के बीच पटरी बैठ नहीं पा रही थी। सितारा देवी भी असहज महसूस कर रही थीं। पंडित रविशंकर शुक्ल ने एक अभ्यास देखा तो वे पूरी तरह से उखड़ गए। उन्होंने शेख गुलाब का नाम सुन रखा था। आखिरकार लोक-कलाकारों की यह मंडली शेख गुलाब के हवाले कर दी गई। वे इसी काम के लिए बने थे।

कलाकारों के इस दल ने दिल्ली की परेड में जमकर नाच दिखाया। दर्शकों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के अलावा फिल्मकार व्ही शांताराम भी मौजूद थे। वे “झनक झनक पायल बाजे” की तैयारी में लगे हुए थे। व्ही शांताराम ने कलाकारों के कैम्प में आकर शेख गुलाब से भेंट की और कहा कि वे एक बार फिर से इस नृत्य की रिहर्सल देखने की ख्वाहिश रखते हैं। रिहर्सल हुई। व्ही शांताराम की पूरी टीम रिहर्सल के दौरान नृत्य देखकर झूमती रही। फिर अगले दिन पूरी वेशभूषा के साथ शूटिंग की बात हुई। गाँव के कुछ बालक जानते भी न थे कि शूटिंग क्या बला होती है। पर वे जमकर नाचे। व्ही शांताराम ने नृत्य के इस टुकड़े को अपनी फिल्म में जगह दी। 

श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 184 ☆ # “मौसम बड़ा सुहाना है” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मौसम बड़ा सुहाना है

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 184 ☆

☆ # “मौसम बड़ा सुहाना है” #

आजकल मौसम बड़ा सुहाना है

रिमझिम बूंदों से रिश्ता पुराना है

*

कबसे प्यासा है यह तन और मन

कबसे व्याकुल था भिगने यह बदन

कबसे आंखें बिछाए बैठा है यह चमन

भिगने और भिगोने का जमाना है

*

वसुंधरा पर छा रही है हरियाली

कितना खुश है बगिचे का माली

अमराई में कूक रही है कोयल काली

यौवन का प्रकृति लुटा रही खजाना है

*

पगडंडी यों पर छोटे छोटे पांव है

खेती में जुटे गांव के गांव है

पानी में चलती छोटी छोटी नाव है

माटी की सौंधी सुगंध से दिल लुभाना है

*

वो दोनों भीग रहे हैं लेकर हाथों में हाथ

ऐसे लिपटे है मानो जनम जनम का हो साथ

 होंठ खामोश है

आंखों से हो रही है बात

भीगी हुई काया का हर शख्स दीवाना है

*

सबकी आंखों में रंगीन सपने है

इंद्रधनुष के सात रंग लगते अपने है

प्रियतम के बिना कहां अच्छे लगने है

प्रित अमर है फिर इसे क्यों छुपाना है ?

*

आजकल मौसम बड़ा सुहाना है

रिमझिम बूंदों से रिश्ता पुराना है

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – परिवर्तन… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘परिवर्तन…‘।)

☆ कविता – परिवर्तन…☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

पुष्प भी सहम गए हैं, हमारी तरह,

डर गए हैं, बिल्कुल हमारी तरह,

आखिर हमारे साथ ही तो रहते हैं,

वो भी सोचने लगे हैं, हमारी तरह,

अब  खिलखिलाकर हंसते नही,

अब हवा के साथ झूमते भी नहीं,

ना जाने कहां से गर्म हवा आ गई,

वो भी झुलस गए हैं, हमारी तरह,

अब पुष्पों में वो महक नहीं रही,

तितली भी तो पास में आती नहीं,

रंगऔर खुशबू भी तो बदल गई है,

पुष्प भी बदल गए हैं,हमारी तरह,

काली घटाएं पहले भी, बरसती थीं,

बिजलियां पहले भी चमकती थीं,

पर पहले वो गैर नहीं लगती थीं,

अब वो गैर हो गई हैं, हमारी तरह,

पुष्प भी सहम गए हैं, हमारी तरह,

 डर गए हैं,बिलकुल  हमारी तरह.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ माणूस… कवी – डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण – सुश्री नीलिमा खरे ☆

सुश्री नीलिमा खरे

? काव्यानंद ?

☆ माणूस… कवी – डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆ रसग्रहण – सुश्री नीलिमा खरे ☆

आपण सध्याच्या युगात वेगवेगळे “डेज” साजरे करत असतो.आज १जुलै चा दिवस डॉ.बी सी.राय यांचा जन्म दिवस.. हा दिवस

“डॉक्टर्स डे” मानला जातो .   आजचा दिवस समाजातील वैद्यकीय व्यावसायिक लोकांप्रती आदरभाव व कृतज्ञता व्यक्त करण्याचा!! किमान या एका दिवशी तरी आपण सारे मनापासून,अंत: करण्यापासून त्या सर्वांप्रती व्यक्त होऊ या.

वैद्यकीय व्यवसाय हा थेट माणसाच्या जीवनाशी निगडीत असल्याने समाजाच्या दृष्टीने अतिशय महत्त्वाचा आहे.

संपूर्णपणे  ज्ञानाधिष्ठित  असा हा व्यवसाय. वेळेवर व योग्य औषधोपचार झाल्यास संबंधित माणूस जगण्याची /आजारातून बरा होण्याची शक्यता निर्माण होते.बहुतांश डॉक्टर या पेशाकडे केवळ अर्थार्जनाचा व समाजात मानाने व प्रतिष्ठित पणे जगण्याचा दृष्टिकोन ठेवून जगत नसतात.तर एक माणूस म्हणून समाजासाठी आपल्या वैद्यकीय ज्ञानाचा उपयोग करण्यात आनंद मानत असतात.आपले विधित कार्य करत असताना डॉक्टर लोकांना ही समाजाने त्यांच्या विषयी काही भावना जपाव्यात असे वाटले तर त्यात गैर काहीच नाही.

पुण्यातील अनुभवी,ज्येष्ठ व प्रथितयश स्री रोग तज्ञ डॉ. निशिकांत श्रोत्री हे मान्यवर साहित्यिक ही आहेत.त्यांनी स्वतःच्या भावना “माणूस”या कवितेतून व्यक्त केल्या आहेत.

आज या कवितेचा आस्वाद घेऊ या. त्यातील भाव भावना, कवितेतील आंतरिक तळमळ ,कळकळ समजून घेऊ या. त्यातून कवीचा जीवनाकडे पाहण्याचा दृष्टिकोनही आपल्याला समजून येणार आहे.

☆ माणूस ☆

*

नका देऊ देवत्व मजला म्हणू नका राक्षस

भावभावनांतुन हिंदोळत साधा मी  माणूस

*

माझे ते जवळी होते अपुले जाणून

कोणाला ना दूर लोटले परके मानून

सेवा हे तर ब्रीद मानले आशा नाही फलास

कधि सावरलो कधी घसरलो परी ना हव्यास

*

देवपूजा करीत आलो मनात ठेवुन भक्ती

मानवसेवा माधवसेवा नाही मनी विरक्ती

मानवतेला कर्म जाणुनी मानिली न तोशीस

भुकेजल्या पाहुनी भरविला मम मुखीचा घास

*

निज आत्म्याचे दर्शन मजला सकलांच्या अंतरी

परमात्म्याची जाण काही नाही मजला जरी

सकल जनांच्या नेत्री मोद बघण्याचा ध्यास

अन्य काही आशा नाही रुचली मन्मनास

©️ डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

रसग्रहण

“माणूस” हे कवितेचे शीर्षक कवितेचा विषय व आशय अगदी सुस्पष्ट करते. त्यामुळे वैयक्तिक माणूस म्हणूनही या कवितेशी आपला संबंध सहजपणे जुळून येतो. डॉक्टर श्रोत्रींनी जीवनाशी संबंधित अनेक भावनांना त्यांच्या कवितांमधून स्पर्श केला आहे .आज माणूस या कवितेतून ते त्यांच्या स्वतःविषयीच्या /स्वतःच्या मनातल्या भावना आपल्यासमोर मांडत आहेत. कवी पेशाने स्त्रीरोगतज्ञ आहेत .

अनेक स्त्रियांच्या प्रसुतीचे वैद्यकीय कार्य डॉक्टर या नात्याने त्यांनी  समर्थपणे पार पाडले आहे. अनेक वेळेला अडल्या-नडल्यांचे ते जणू देवच ठरले असतील किंवा तसे भासले असतील. तसेही वैद्यकीय

व्यवसाय हा संपूर्णपणे माणसाच्या जीवनाशी थेट निगडित असल्याने डॉक्टरांकडे “पृथ्वीवरील देव” या भूमिकेतून आपण  सर्वसामान्य जण बघत असतो. खरंतर असे देवत्व बहाल झाले असता /लाभले असता कुणी ही माणूस सुखावून जाईल,आनंदून जाईल.परंतु सत्याशी प्रामाणिक असलेला आणि जाणीवेने जाणींवाविषयी आणि जाणिवांशी बध्द असलेला डाॅ. श्रोत्री सरांसारखा कवी  माणूस या भूमिकेशी फारकत घेताना दिसतो.या विषयीचे विचार अत्यंत स्पष्टपणे कवीने कवितेतून मांडले आहेत.

नका देऊ देवत्व मजला म्हणू नका राक्षस

भावभावनांतुन हिंदोळत साधा मी  माणूस

मी केवळ डॉक्टर आहे म्हणून मला देवत्व बहाल करू नका असे कवी स्पष्ट करत आहे . कवी पुढे म्हणतो की कदाचित काही लोक ,काही माणसे यांच्या मते ते (डॉक्टर किंवा माणूस म्हणून ) राक्षस किंवा दानव ही असू शकतील. कारण काही वेळेला रुग्णाच्या भावनेशी ,परिस्थितीशी डॉक्टरांना काही घेणे दिले नसते असे समजणारे ही खूप लोक समाजात वावरत असतात. त्यांच्याकडे निर्देश करून कवी म्हणतो की असे जर वाटत असेल तर मला राक्षस मात्र म्हणू नका. मी देवही नाही व राक्षस ही नाही. तर मी एक सर्वसामान्य माणूस आहे ज्याने वैद्यकीय ज्ञान प्राप्त केले आहे .व त्या ज्ञानार्जनामुळे  वैद्यकीय व्यावसायिक म्हणून समाजात वावरत आहे, त्या दृष्टीने कार्यरत आहे. कवी पुढे म्हणतो की मी  सर्वांसारखाच भावभावनांच्या हिंदोळ्यावर  झुलणारा माणूस आहे.चांगले /वाईट ,भले /बुरे अशा भावनांना सामोरे जाणारा मी ही एक सर्वसामान्य माणूस आहे हे  अत्यंत स्पष्टपणे मान्य केले आहे..द्विधा मनस्थितीचा कदाचित खुद्द कवीला सामना करावा लागलेला असू शकतो हे सूचित केले आहे. मनात आलेल्या/ उद्धवलेल्या भावनांचा प्रांजळपणे / प्रामाणिक पणे स्वीकार करणे /ते मान्य करणे यासाठी मनाची एक विशिष्ट धारणा लागते ती या कवितेतून आपल्याला प्रत्ययास येते. खरंतर ही भावना व्यक्त करून कवीने आपण एक चांगला माणूस आहोत हे जाणवून दिले आहे. अशाप्रकारे देव नाही व राक्षस नाही परंतु एक अतिशय निरपेक्ष भावनेने वैद्यकीय क्षेत्रात काम करणारा माणूस म्हणून समाजाने आपल्याकडे पहावे अशी माफक अपेक्षा कवीने या ध्रुवपदातून व्यक्त केली आहे. ती सूज्ञ माणसाला नक्कीच रास्त वाटेल.

माझे ते जवळी होते अपुले जाणून

कोणाला ना दूर लोटले परके मानून

सेवा हे तर ब्रीद मानले आशा नाही फलास

कधि सावरलो कधी घसरलो परी ना हव्यास

कवितेच्या पहिल्या कडव्यातून कवी म्हणतो/ आपल्याला सांगतो की अपुले ज्यांना जाणले म्हणजे जे कवीला आपले वाटले व ज्यांना कवी आपला वाटला ते लोक कवीच्या नेहमीच जवळ होते. “अपुले” या शब्दावरील हा श्लेष अतिशय समर्पक आणि कवितेतील आशयाला पुष्टी देणारा. कवी मनाची प्रगल्भता व साहित्यिक जाण नेमकेपणाने दाखवणारा ही!!

कवीने सर्वांना अपुले जाणून जवळ केले, कुणालाही परके म्हणून दूर लोटलेले नाही . सर्वांना आपले मानून सर्वांशी एकसमान व्यवहार केला. त्यांना वैद्यकीय सेवा प्रदान केली ती रुग्ण आणि डॉक्टर या भावनेने व माणूस व माणुसकीच्या नात्याने सुध्दा.. हे सर्व करण्याचे  कारण म्हणजे समाजातील गरजू लोकांची सेवा हेच जीवन असे ब्रीद कवीने मानले आहे. अशा वेळी सेवा करेल त्याला मेवा मिळेल अशा आशयाची वृत्ती मात्र कदापी मनात ठेवलेली नाही .फळाची आशा मनात कधीच धरली नाही.”आशा नाही फलास” मधील दुसरा श्लेषात्मक अर्थ असा  की फळाला आशा लाभली नाही. कदाचित गरजू लोकांनी कवीच्या मनातील वैद्यकीय व्यावसायिक व माणूस म्हणून जगण्याची भावना जाणली नाही .तशा प्रकारे कधीतरी निराशाही वाट्याला आली असावी .कवी प्रांजलपणे कबूल करतो अशा वातावरणाचा/परिस्थितीचा सामना करावा लागला तेव्हा कधी तरी कवी त्याच्या निरलस मनोवृत्ती पासून दूर झाला.लोकांच्या वागणूकीने बैचेन झाला.तरी ही त्याने कुणाकडून कसली ही अपेक्षा केली नाही.त्याच्या ब्रीदापासून/ ध्येयापासून तो कधी थोडा  घसरला असला तरी बाजूला सरला  नाही.व कुठल्याही प्रकारचा हव्यास  मनात ठेवलेला नाही. निरपेक्षपणे /तटस्थपणे आपले सेवेचे कार्य कवीने अव्याहत चालू ठेवले.वर उल्लेख केल्याप्रमाणे या कडव्यात योजलेले दोन ठिकाणचे श्लेष अलंकार व जाणून,मानून तसेच फलास, हव्यास मधील यमक सुंदर तऱ्हेने  जुळले आहे.साहजिकच यामुळे कवितेला लाभलेली नादमयता मनाला मोहविते.अतिशय साधे,सहज सोपे शब्द पण अर्थ आशयपूर्ण आहे.

देवपूजा करीत आलो मनात ठेवुन भक्ती

मानवसेवा माधवसेवा नाही मनी विरक्ती

मानवतेला कर्म जाणुनी मानिली न तोशीस

भुकेजल्या पाहुनी भरविला मम मुखीचा घास

उच्च शिक्षण घेतले आहे किंवा माणसाला जीवनदान देण्याचे पुण्य किंवा मह्तकार्य करतो आहे अशी भावना मनात येऊन स्वतः देव असल्याची भावना कवीच्या मनात कधीच डोकावली नाही.करता करविता देव आहे ,जी अदृश्य शक्ती आहे तिच्या प्रती त्याने मनोमन श्रद्धा जपली आहे. त्याची मनापासून पूजा केली, त्यामागील खरा भक्ती भाव जपून ,जाणून व ठेवून .हे सर्व केवळ उपचार म्हणून नव्हे. स्वतःचे नेमस्त काम करता करता ते करण्याची प्रेरणा देणारा, ताकद देणारा जो ईश्वर त्याच्या प्रती अगदी मनोमन, खरेपणाने श्रद्धा भाव कवीने जपलेला लक्षात येतो.

मानव सेवा करता करता माधव सेवा म्हणजे कृष्ण सेवा/ कृष्णाची भक्ती ही केली.मानवसेवा हीच माधवसेवा म्हणजे ईशसेवा ही भगवान श्री सत्यसाईबाबांची सुप्रसिद्ध शिकवण कवीने आचरणात आणली आहे.पण महत्वाचे म्हणजे हे करताना मनाला विरक्तीची भावना मात्र जाणवली नाही.माणूस म्हणून जगण्याची ही प्राथमिक जाणीव कवीने  कसोशीने पाळली. रुग्ण सेवा करताना जरी कधी काही निराशा जनक प्रसंग उद्भवले असले तरीही त्यापासून दूर होण्याचा विचार चुकून सुद्धा कवीच्या मनात आलेला नाही. त्या क्षेत्रापासून/ त्या व्यवसायापासून विरक्ती घेण्याचा विचार कधीच मनात आलेला नाही. विरक्ती या शब्दावरील श्लेषही अतिशय सुंदर . आध्यात्मिक विरक्ती व व्यावसायिक विरक्ती असे हे दोन अर्थ अतिशय चपखलपणे येथे कवीने मांडलेले आहेत. त्यातील भावार्थाची सखोलता मनाला स्पर्शून उरणारी. व्यावहारिक पातळीवरील जीवन जगण्याचा आटोकाट व प्रामाणिक प्रयत्न कवीने केला आहे हे सहजपणे लक्षात येते.मानवतेला कर्म मानल्यामुळे त्या प्रतीचे कर्तव्य निभावताना कुठल्याही प्रकारची वेगळी तोशीस स्वतः ला लागत आहे अशी भावना कधीही कवीच्या मनात उद्भवलेली नाही. मानवतेचे कर्म हा कवीच्या जीवनाचा धर्म बनला.

“भुकेजल्या पाहुनी भरविला मम मुखीचा घास” या चरणातील “भुकेजल्या” या शब्दावरील श्लेष अतिशय मार्मिक व मर्मभेदी आहे. भुकेजला म्हणजे केवळ अन्नाच्या दृष्टीने नव्हे तर जो गरजवंत आहे, जो गरजू आहे ,ज्याला कुठल्या तरी प्रकारची भूक आहे तो भुकेजला असा व्यापक अर्थ येथे अभिप्रेत असावा असे वाटते. या ठिकाणी वैद्यकीय व्यवसायातील सेवेची ज्याला गरज आहे तो भुकेजला.. अशा व्यक्तिला सेवा तर दिलीच पण वेळ प्रसंगी स्वतःच्या मुखातील घासही भरवला. “मुखातील घास “या शब्द योजनेतील श्लेष ही अतिशय समर्पक आहे व विलक्षणही आहे. लौकिक अर्थाने “मुखीचा घास” म्हणजे कुणा गरजवंताला /भुकेल्या व्यक्तिला खायला देणे. असे करताना कदाचित देणाऱ्याला स्वतःच्या तोंडचा घास काढून भुकेल्या व्यक्तिला द्यावा लागेल.

येथे या बरोबरच दुसरा अर्थ असा की जी वैद्यकीय सेवा रुग्णाला प्रदान करुन  कवीने त्या बद्दलचा मोबदला म्हणून अर्थार्जन केले असते व त्याला स्वतःच्या व त्याच्याशी संबंधित इतरेजनांच्या मुखात घास घालता आला असता तो त्याने बाजूला सारला/ त्यागला म्हणजे मोफत रुग्णसेवा देली.

या दुसऱ्या कडव्यात ही वर निर्देश केलेले श्लेष अलंकार उत्तम. भक्ती, विरक्ती आणि तोशीस,घास मध्ये  यमक छान साधले आहे.

मानवसेवा,माधवसेवा मधील “मा”चा अनुप्रास लक्षवेधी आहे.साध्या , सोप्या व सुयोग्य साहित्यिक अलंकारांच्या वापरातून कवीने त्याच्या मनातली भावना अतिशय उच्च प्रतीवर नेऊन ठेवलेली आहे.

निज आत्म्याचे दर्शन मजला सकलांच्या अंतरी

परमात्म्याची जाण काही नाही मजला जरी

सकल जनांच्या नेत्री मोद बघण्याचा ध्यास

अन्य काही आशा नाही रुचली मन्मनास

तिसरे कडवे म्हणजे आचरणातली व आचरणाची परिसीमा ठरेल अशी.कवीने ही  भावना स्पष्ट पणे विशद / व्यक्त केलेली जाणवते. स्वतःच्या आत्म्याचे जो खरतर अदृश्य आहे पण त्याची जाण आहे आणि जो प्रत्येकाला प्रिय आहे  त्याचे दर्शन कवीला सगळ्यांच्या अंतरी झाले. सगळ्यांच्यात त्याने स्वतःला पाहिले . स्वतःचा  आत्मा प्रत्येकाला सर्वात जास्त प्रिय असतो.त्या विषयीची भावना /आसक्ती वेगळीच असते.तो भाव, तसे प्रेम इतरांच्या आत्म्यात पाहणे हे खरं तर दुरापास्त.. सर्व साधारणतः कुणी तो विचार ही करणार नाही.परंतु कवीने मात्र जाणीवपूर्वक तो विचार केला व प्रत्यक्षात आणण्यासाठी जीवाचे रान केले.अर्थात स्वतः कवी व इतरेजन यांच्यात भेदभाव केला नाही.स्वत:ला स्वतः साठी जे अपेक्षित असते तोच भाव आ‌जूबाजूच्या , संपर्कात आलेल्या लोकांसाठी ठेवला असा भावार्थ. इतरांच्या अस्तित्वाशी, त्यांच्या भाव भावनांशी अतिशय प्रामाणिक पणे तो समरस होऊन गेलेला आहे.हे सर्व घडताना कवी मान्य करतो की त्याला परमात्म्याची /ईश्वराची जाण जराही नाही. म्हणजे ईश्वराविषयी /त्याच्या अस्तित्वाविषयी त्याला ज्ञान नाही हे कबूल करण्याचा प्रामाणिकपणा कवीने बाळगला आहे /दर्शवला आहे.परोपकारी वागण्याने इतरांना आनंद दिल्याने परमात्मा प्राप्त होतो ,मोक्ष मिळतो अशी जन सामान्यांची समजूत असते.प्रत्यक्षात असे होते का, परमात्मा खरंच अस्तित्वात आहे का याची जाणीव कवीला नाही . अर्थात कवीने अशा प्रकारचा कुठला मोह मनात बाळगला नाही.स्वत:चा लाभ ही कल्पना ही कवीच्या हृदयात नाही.केवळ सद्भाव व  विवेकी विचारांना प्राधान्य देणे हे कवीने महत्वाचे मानले आहे.सर्वांच्या डोळ्यात आनंद बघणे ,सर्वांना सुखी बघणे हाच एक ध्यास कवीच्या मनाने घेतलेला आहे .इतर कसलीही आशा नाही .धन, संपत्ती, पैसा अडका, कीर्ती, प्रसिद्धी त्याच्या मनाला रुचलेली नाही .त्यांची आस नाही.केवळ या साऱ्या गोष्टींकडे पाहून कवीने रुग्णसेवेचे व्रत आचरले नाही.स्वत:च्या कृतीने दुसऱ्या च्या डोळ्यात आनंद पाहणे हा सर्वश्रेष्ठ आनंद आहे अशी कवीची मनोधारणा आहे.आयुष्यभर जतन केलेले तत्वज्ञान कवीने अंत:करणापासून आचरणात आणले आहे.विचाराला आचाराची जोड दिली आहे. “निज आत्म्याचे दर्शन मजला संकलांच्या अंतरी” हा चरण वाचताना श्री शंकराचार्यांनी विशद केलेला अद्वैतवाद प्रकर्षाने आठवतो.मी व समोरची व्यक्ती ही मीच अशी भावना/भूमिका कवीने निरंतर मनात जाणीवपूर्वक जपलेली आहे.व महत्वाचे म्हणजे तसेच आचरण ही कायम केले आहे.ते ही कुठल्याही प्रकारची स्वार्थ भावना मनात न ठेवता!! तसेच दुसरा श्लेषात्मक अर्थ आत्मा व परमात्मा ही एकच आहेत. त्यांच्या अस्तित्वाचा अद्वैत भाव कवीने जाणला आहे.म्हणून कवी स्पष्ट करतो की त्याला परमात्म्याची कुठल्याही प्रकारे जाण जराही नाही.कारण कवीने स्वतःचा आत्मा परिपूर्ण परिपक्व पध्दतीने जाणला आहे.त्या विषयी कसलाही, कुठलाही संदेह अगदी कणभर सुध्दा त्याच्या मनात नाही.त्यामुळे आत्म्याला जे योग्य वाटते,पटते ते कवी मनापासून करतो आहे.त्या आत्म्याला दुसऱ्याच्या डोळ्यातील आनंद पहाण्यात आनंद/मोद होत असल्याने त्याच्या वागण्यात बदल होत नाही.स्वत:च्या आनंदाच्या शोधात व तो प्राप्त करण्यात कवी मनापासून प्रयत्न करत आहे.असे वागताना साहजिकच दुसऱ्या आत्म्याला/परमात्म्याला (पर -दुसरा)ही आनंद लाभणार याची कवीला खात्री आहे.इतरे जनांना आनंद देताना आत्म्याला परमोच्च आनंद मिळणार हे कवी जाणून आहे.

या तिसऱ्या व अंतिम कडव्यात योजलेले श्लेष,यमक अलंकार अतिशय परिणाम कारक आहेत.कवितेतील भावनेला वाचकांपर्यंत समर्थ पणे पोहचवितात.

माणूस या संकल्पनेशी बांधिलकी जपत कवीने आयुष्यात आपला मार्ग कसा अनुसरला व त्यानुसार निरंतर मार्गक्रमणा केली हे या कवितेत सांगितले  आहे. स्वतःच्या जगण्याबद्दलचे व त्याविषयीच्या दृष्टिकोनाचे स्वरूप साध्या ,सुलभ पण तरीही परिणामकारक शब्दात कवीने व्यक्त केले आहे. जगण्याचा आशावाद आणि आदर्शवाद जपताना कवीने स्वतः एक आदर्श घालून दिला आहे असे वाटते, नव्हे  खात्री पटते.अशा पद्धतीने प्रत्येक व्यक्ती/माणूस जर खऱ्या अर्थाने माणूस म्हणून जगला तर साऱ्या मानव जातीचे कल्याण/ हित व तदनुषंगिक संपूर्ण समाजाचे कल्याण होईल हे निर्विवाद. डॉक्टर श्रोत्री यांच्यासारख्या वैद्यकीय व्यावसायिक व्यक्तीने कर्म करताना त्यातील धर्म भाव सश्रद्ध भावनेने  कसा जगावा/जपावा याचा वस्तुपाठ घालून दिला आहे.वैद्यकीय व्यावसायिक व्यक्ती, जागरूक  कवी मन व या दोन्ही गोष्टींचा सुरेख संगम या कवितेत आपल्याला दिसून येतो..

जगण्याचा परिपूर्ण पाठ देणारी व आयुष्याला दिशा देणारी अशी ही कविता आहे. ही सर्व स्तरावर नक्कीच पोहोचली पाहिजे असे वाटते.

मला येथे आवर्जून एक निरीक्षण/मत नोंदवायचे आहे.रसग्रहणासाठी जेव्हा ही कविता पहिल्यांदा वाचली तेव्हा साधी, सोपी वाटली.तेव्हा  यात एवढा खोल व गहन अर्थ सामावलेला आहे हे लक्षात आले नाही.परंतु जसं जसं रसग्रहण लिहायला सुरुवात केली तेव्हा यात मांडलेला जीवनाचा /जीवन विषयक दृष्टीकोनाचा पैस ध्यानात आला..वरवर साधी वाटणारी ही कविता तिच्या अंतरंगात शिरल्यावर किती प्रांजळ, सुसंगत, सुसंवादी, सुसंस्कृत विचार धारा उलगडून दाखविणारी आहे हे लक्षात आले.ही जाणीव या कवितेचे बलस्थान आहे हे मुद्दाम नमूद करावेसे वाटते.चांगल्या/उत्तम काव्याचे हे यश आहे हे निश्चित.. अर्थात याचे सर्व श्रेय कवीला!!

© सुश्री नीलिमा खरे

१४-६-२०२४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ चार अनुवादित लघुकथा : भाग्यवान // वेळेचा अभाव // संशोधन // ममत्व ☆ भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? जीवनरंग ?

☆ चार अनुवादित लघुकथा : भाग्यवान // वेळेचा अभाव // संशोधन // ममत्व ☆ भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर 

१.  भाग्यवान

दादा आणि भाऊ बालमित्र. दोघेही एका शाळेत, एका वर्गात शिकले. पुढे दादासाहेब शाळेत मास्तर झाले आणि नंतर हेडमास्तर. भाऊसाहेब एका कचेरीत कारकून म्हणून लागले. पुढे हेड क्लार्क झाले.

दोघांची लग्ने जवळपास एकदमच काही महिन्यांच्या अंतराने झाली. दादांचा मुलगा आदित्य आणि भाऊंचा मुलगा गौरव हेही समवयस्क. दादांना पुढे अमेय झाला. भाऊंना मुलगी झाली गौरी. ही सारी मुलेही एकाच शाळेत शिकली.

दादांची मुले आदित्य आणि अमेय अतिशय हुशार आणि प्रखर बुद्धीची. सतत नंबरात असलेली. स्कॉलरशिप मिळवणारी. दादांना त्यांचा अभिमानच नव्हे, तर गर्व होता. भाऊंच्या पुढे ते आपल्या मुलांचं वारेमाप कौतुक करत. आपण किती नशीबवान आहोत, हे वारंवार बोलून दाखवत. त्यांना थोडसं हिणवतसुद्धा. भाऊंची मुलेही हुशार होती, पण दादांच्या मुलांप्रमाणे चमकत्या करिअरची नव्हती.

आदित्य पवईहून एम. टेक. झाला. त्याला चांगल्या पगाराची नोकरी लागली. सुंदर, सुविद्य पत्नी मिळाली. पुढे परदेशात मोठे पॅकेज मिळाले. तो अमेरिकेला निघून गेला. अमेयही त्याच्या पाठोपाठ अमेरिकेला गेला. तिथेच स्थिरावला. तिथेच लग्न केले. संसार मांडला.

गौरव डिप्लोमा झाला. नंतर एम. बी. ए . केले. टू व्हीलर दुरुस्तीचा वर्कशॉप सुरू केला. गोड बोलणं, कष्ट करण्याची तयारी यामुळे गौरवचा धंद्यात चांगलाच जम बसला. पुढे त्याने टू व्हीलर गाड्यांची एजन्सी घेतली. त्याचाही संसार मार्गी लागला.

दादा आणि भाऊ आता निवृत्त झाले होते. ते रोज संध्याकाळी भेटत. एकत्र फिरायला जात. वाढत्या वयानुसार रोजची भेट अधून मधून झाली. नंतर नंतर दुर्मिळ होऊ लागली. दोघांच्या तब्बेतीच्या तक्रारी सुरू झाल्या. गौरव आपल्या वडलांची काळजी घेत होता. अधून मधून आपल्या दादा काकांकडे येऊन त्यांचीही विचारपूस करत होता. त्यांना काय हवं- नको ते बघत होता. गरजेच्या गोष्टी आणून देत होता.

दादांची मुले अमेरिकेत गेल्यानंतर सुरूवातीला एक-दोनदा येऊन गेली. नंतर नंतर मात्र त्यांना यायला वेळ मिळेनासा झाला. दादांना पेन्शन होती. ते काही आर्थिकदृष्ट्या आपल्या मुलांवर अवलांबून नव्हते.

दादांचे प्रोस्टेटचे ऑपरेशन करायचे ठरले. गौरवने दादांच्या मुलांना कळवले. मुले म्हणाली, ‘पैसे पाठवू का?  यायला वेळ नाही.’ दादांच्या रक्तप्रवाहात ब्लॉकेजेस निघाली. अ‍ॅंजिओप्लास्टी करायचे ठरले. गौरवने दादांच्या मुलांना कळवले. मुले म्हणाली, ‘पैसे पाठवू का?  यायला वेळ नाही.’ दादांना माईल्ड हार्ट अ‍ॅटॅक आला. गौरवने दादांच्या मुलांना कळवले. मुले म्हणाली, ‘पैसे पाठवू का?  यायला वेळ नाही.’ गौरवने दादांचे सारे मुलाच्या मायेने केले.

दादांना आताशी वाटू लागलय, आपली मुलं थोडी कमी हुशार असती तर बरं झालं असतं. भाग्यवान आपण नाही. भाऊ आहे.

लेखिका – सौ. उज्ज्वला केळकर    

२.  वेळेचा अभाव

फेसबुकवर जशी काही स्पर्धा चालू होती. क्षणांशात  एक नवीन पोस्ट त्याने टाकली.  त्यात अनेक फोटो सामील होते. रंग बदलणारे ढग, चित्रकार सूर्य, झाडांचे, पर्वतराज हिमालयाचे, मोहवणार्‍या आकर्षक धारणीचे, हसणार्‍या खिदळणार्‍या रत्नाकराचे, सर्पिणीसारख्या नागमोडी वळणाने जाणार्‍या सरितांचे, याचे… त्याचे… आणखी किती तरी… 

यावेळी दु:खी-कष्टी झालेल्या सुनीलने आपल्या मृत झालेल्या वडलांचा देह आणि हार घातलेला त्यांचा फोटो अपलोड केला. आसपासच्या आगरबत्यातून, वर वर चढत जाणार्‍या धूम्ररेखा नुकतंच त्यांचं निधन झाल्याची ग्वाही देत होत्या.

सगळ्यात जास्त लाईक्स या फोटोला मिळाले.

एका बहिणीने आपल्या भावाला फोन केला,

‘तू त्यांच्याकडे जाऊन का आला नाहीस? निदान पोस्टवर त्यांच्याविषयी श्रद्धांजलीचे दोन शब्द तरी लिहायचे. सुनीलला सांत्वना मिळाली असती.’

‘ताई तेवढा वेळ नव्हता. लाईक तर केलं ना?’ आणि तो पुन्हा विविध सुंदर दृश्यांचे फोटो आपलोड करू लागला.

मूळ कथा – समयाभाव   

मूळ लेखिका – अनिता रश्मि  

भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर

3. संशोधन   

‘मुलांनो, मला असं वाटतं, यावेळी शेतकर्‍यांवर संशोधन प्रबंध हाती घ्यावा.’

‘फारच छान!’

‘मग सगळ्यात आधी नामवंत लेखकांकडून या विषयावरच्या कथा मागवून घ्याव्या.’

‘ठीक आहे सर, पण याबाबतीत एक गोष्ट मनात येतेय.’

‘अरे, नि:संकोचपणे सांग.’

‘सर, शेतकर्‍यांवर संशोधन प्रबंध हाती घेत आहोत, तर त्यावरील कथांची गरज आहे का?’

‘म्हणजे काय? संशोधनासाठी कथेत शेतकरी हे पात्र असायलाच हवं.’

‘मला म्हणायचय, प्रत्यक्षात शेतकरी काय करतोय, कसा जगतोय, याचं वर्णन यायला नको का?’

‘अजबच आहे तुझं बोलणं! वास्तवातल्या पात्रांवर कधी संशोधन झालय?’

‘पण सर, संशोधनात नवीन गोष्टी यायला हव्यात नं?’

‘ओ! समजलं तुला काय म्हणायचय!’

‘मग काय त्याबद्दल माहिती गोळा करूयात?’

अरे बाबा, आपल्याला, लेखकाच्या लेखणीच्या टोकाच्या परिघात असलेल्या कथांमधील शेतकरी पात्रांवर संशोधन करायचय. त्यांच्याबद्दल वाचल्यानंतर अश्रूंसह दयाभव जागृत व्हायला हवा. शेत सोडून रस्त्यावरून ट्रॅक्टर फिरवणार्‍यांवर आपल्याला संशोधन करायचं नाहीये.’

‘पण असं तर ते आंदोलन करण्यासाठीच करताहेत नं!’

‘हे बघ, ज्या शेतकर्‍यांबद्दल तू बोलतोयस, त्यातील एक तरी अर्धा उघडा, अस्थिपंजर शरीर असलेला आहे का?’

‘पण सर, आता काळ बदललाय. प्रत्येक जण प्रगती करतोय.’

‘बाबा, एक गोष्ट लक्षात ठेव, संशोधनासाठी शोषित असलेलीच पात्र योग्य ठरतात. अशा पात्रांच्या कथाच काळावर विजय मिळवणार्‍या ठरतात.

मूळ कथा – शोध   

मूळ लेखिका – अर्चना तिवारी  

भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर

४. ममत्व

सावित्रीच्या मुलीच्या सासरहून फोन आला की पारोला मुलगा झालाय. आजी झाल्याच्या आनंदात तिने आसपास, परिचित नातेवाईक यांच्यामध्ये मिठाई वाटली. काही वेळाने मुलीचा फोन आला, ‘माझ्याकडे यायचं, तर आपला चांगला आब राखून ये. आपली इज्जत आणि प्रतिष्ठा वाढेल, अशी ये.’

पारोचं जेव्हा लग्नं ठरलं, तेव्हा मागणी तिच्या सासरच्यांकडून होती. त्यावेळी तिने आपले दागिने विकून आणि जी काही जमा-शिल्लक होती, ती काढून, मोठ्या थाटा-माटात तिचं लग्नं लावून दिलं होतं.

यावेळी मागणी तिच्या स्वत:च्या मुलीची होती. खरं तर पारोला आपल्या आईच्या परिस्थितीची चांगली जाणीव होती. सावित्रीने आपल्या दोन्ही मुलांना पारोच्या फोनबद्दल सांगितलं. पण दोघांनीही आपण स्वत:च पैशाच्या तंगीत आहोत, असं म्हणत हात झटकले. सावित्रीने मग आपल्या राहिलेल्या दोन सोन्याच्या बांगड्या विकल्या. आपल्या नातवाला सोन्याची चेन केली. मुलीच्या सगळ्या परिवारासाठी कापड-चोपड घेतलं. फळांच्या आणि, मिठाईच्या टोपल्या घेतल्या आणि ती पारोकडे आली. पारोच्या सासरी तिची इज्जत वाचली पण ती जेव्हा घरी आली, तेव्हा तिच्यावर दु:खाचा पहाड कोसळला.

सावित्रीने आपल्या बांगड्या विकल्याचे ऐकून तिची मुलं आणि सुना अशा संतापल्या की वाद-विवाद, भांडणात ती दोन घास अन्नालाही महाग झाली. आता सावित्री मंदिरात सेवा करून आपला जेवणाचा आणि औषधापाण्याचा खर्च चालवते आणि तिथल्या धर्मशाळेच्या तुटक्या-फुटक्या खोलीत खंत करत आपलं म्हातारपणाचं ओझं वहाते.

इकडे मुलं आणि सुना सांगत फिरतात की आईला देवाची इतकी ओढ लागली आहे, आता ती घराच्या बंधनात बांधून राहू इच्छित नाही. ती आता संन्यासिनी झालीय. आता ती घरीदेखील येत नाही.

मूळ कथा – ममत्व 

मूळ लेखक – अशोक दर्द   

भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर

अनुवादिका –  सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक –  श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ डार्क वेब : भाग – 3 ☆ श्री मिलिंद जोशी ☆

श्री मिलिंद जोशी

? इंद्रधनुष्य ?

 ☆ डार्क वेब : भाग – 3 ☆ श्री मिलिंद जोशी ☆ 

(ही अतिशय महत्वपूर्ण माहिती देणारी लेखमाला दर सोमवारी आणि मंगळवारी प्रकाशित होईल) 

इंटरनेटचा वापर करणाऱ्या जवळपास ६०% लोकांनी डार्कवेबचे नावही ऐकलेले नसते. उरलेल्या ४०% लोकांपैकी जवळपास ८०% लोकांच्या मनात डार्कवेब बद्दल अनेक गैरसमज आहेत. माझ्याच क्षेत्रातील एका मित्राशी बोलताना डार्कवेब बद्दलचा विषय निघाला.

“तुला डार्कवेब बद्दल काय माहिती आहे?” त्याने मला विचारले.

“अगदी जुजबी माहिती आहे.” मी उत्तर दिले.

“बरंय… याबाबतीत जितकी कमी माहिती, तितके चांगले.” त्याने सांगितले.

“का?”

“अरे खूप भयंकर जागा आहे ती. मी तुला सांगू नाही शकत, मला काय काय अनुभव आले तिथे.” त्याने चेहरा गंभीर करत सांगितले.

“ओह… तरीही सांगच तू. बघू तरी मलाही तसाच अनुभव येतोय का.” मी म्हटले.

“म्हणजे? मी खोटे बोलतोय असे वाटते का तुला?”

“नाही यार… पण मला जाणून घेण्याची इच्छा आहे.”

“तुला सांगतो मिल्या… दोन वर्षांपूर्वीची गोष्ट आहे ही. मी नवीनच डार्कवेब बद्दल ऐकले होते. नेटवर अजून माहिती मिळवली आणि केले ना टोर ब्राउजर डाउनलोड. लगेच इंस्टाल मारलं. पण ते काय गुगल नसतं. आपण एखादी साईट सर्च केली आणि लगेच ती समोर आली.” इतके बोलून त्याने थोडा पॉज घेतला.

“आयला… मग रे?”

“मग काय? जवळपास अर्धा पाऊण तास घालवला, आणि मिळवले काही साईटचे पत्ते.”

“क्या बात है यार… एक नंबर.” मी त्याला दाद दिली.

“तुला सांगतो, कधी कधी तिथे कोणती भाषा असते तेच आपल्याला समजत नाही. आणि आपल्या समोर जी लिंक असते त्यावर क्लिक केल्यानंतर काय होईल हेही आपल्याला समजत नाही.” त्याने सांगितले.

“बापरे…”

“पण आपल्यात एक मुंगळा असतो, तो काय शांत थोडाच बसू देतो? मी त्या लिंकवर क्लिक केले मात्र, माझ्यासमोर काही विंडो ओपन झाल्या. त्या सगळ्या विंडोमध्ये वेगवेगळे माणसं दिसत होते. त्यांच्या चेहऱ्यावर काहीही भाव नव्हते. सगळे अगदी हिप्नोटाईझ केल्यासारखे दिसत होते. आणि तुला खोटे वाटेल, त्यातील एका विंडोमध्ये मीही दिसत होतो.” त्याने सांगितले.

“आयला… डेंजरच…”

“तुला सांगतो… इतका घाबरलो मी, लगेच विंडो बंद केली. पण काही केल्या ती बंद होत नव्हती. मग हळूहळू त्यातून विचित्र आवाज येऊ लागला. माझी तर हालत पतली झाली. माझ्या चेहऱ्यावर घाम आला. आणि मग त्या माणसांच्या चेहऱ्यावर विचित्र हसू होते. मी लगेच लॅपटॉपचे पावर बटन दाबले. तरी तो बंद होईना. मग पावर बटन ५ सेकंद दाबून तो डायरेक्ट बंद केला.” त्याने सांगितले.

“बापरे… मग रे?”

“त्यानंतर एक दीड तास मी लॅपटॉपला हातच लावला नाही. पण जसा मी तो चालू केला, माझ्या समोर परत तीच स्क्रीन होती. तेच लोकं होते आणि मेसेज आला, ‘नाऊ यु आर ट्रॅपड्’…” हे सांगून तो माझ्या चेहऱ्याकडे बारकाईने बघू लागला. माझ्या चेहऱ्यावर थोडे हसू आले.

“तुला खोटे वाटते म्हणजे…” त्याने माझ्या चेहऱ्यावरील भाव ओळखले.

“नाही रे… खोटे वाटत नाही पण तू एक गोष्ट करायची ना… तुझ्या लॅपटॉपच्या कॅमेऱ्यावर बोट ठेवायचे. त्यांना काही दिसले नसते मग…”

“अबे येडे, पण माझा लॅपटॉप तर हॅक झाला ना…”

“होय… बरोबर…”

“म्हणून तुला सांगतो, कधीही तिकडे फिरकू नकोस…” त्याने सांगितले आणि मी मान हलवली.

आता अनेकांना वाटेल, खरेच का असे होऊ शकते? तर उत्तर आहे, ‘होय’… हे असे नक्कीच होऊ शकते. पण… अशी हॅकिंग आपल्या सर्फेस वेबवरही होऊ शकतेच की. म्हणून काय आपण सर्फेस वेब वापरायला घाबरतो का? नाही ना… बरे माझ्या मित्राने सांगितलेल्या कोणत्या गोष्टी आपल्या सर्फेस वेबवर होऊ शकत नाहीत? सगळ्याच होऊ शकतात. आपण झूम किंवा गुगल मिटिंग करतो त्यावेळी आपल्यासमोर अशाच अनेक विंडो येतात, ज्यात वेगवेगळ्या ठिकाणाहून लोक जोडले गेलेले असतात. आपण ज्यावेळी ती मिटिंग अटेंड करतो त्यावेळी आपला माईक, आपला कॅमेरा वापरण्याची परवानगी आपण त्या सॉफ्टवेअरला दिलेली असते. इथे फक्त एक गोष्ट जास्तीची झाली. आपण दिलेल्या परवानगीसोबत आपल्या सिस्टीमचा जास्तीचा अॅक्सेस ही वापरला गेला. थोडक्यात इथे सावधानी गरजेची आहे, भीती नाही.

अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेळणारे खेळाडू ज्यावेळी ताशी १४५ किलोमीटरच्या स्पीडने येणाऱ्या बॉलचा सामना करतात त्यावेळी त्यांच्या मनात भीती असेल तर त्यांना खेळता येईल का? पण त्यांच्या मनात भीती नसते याचा अर्थ ते गार्ड / पॅड / ग्लोज / हेल्मेटचा वापर करत नाहीत का? करतात ना? तसेच या बाबतीतही असते.

डार्कवेब हा प्रकार जरी आपल्याला वेगळा वाटत असला तरी तो फारसा वेगळा नाही हेच या लेखातून मला सांगायचे आहे. बाकी गोष्टी पुढील भागात.

– क्रमशः भाग तिसरा  

©  श्री मिलिंद जोशी

वेब डेव्हलपर

नाशिक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचतांना वेचलेले ☆ बघता बघता… – कवि : अज्ञात ☆ प्रस्तुती सौ. शुभदा भा. कुलकर्णी (विभावरी) ☆

सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी)

📖 वाचताना वेचलेले 📖

☆ बघता बघता… – कवि : अज्ञात ☆ प्रस्तुती सौ. शुभदा भा. कुलकर्णी (विभावरी) 

बघता बघता आई,

मी तुझ्यासारखी व्हायला लागले.

संध्याकाळ झाली की

हात जोडायला लागले.

 

आठवणीने तुळशीला दिवा लावते.

झोपाळ्यावर बसून

रामरक्षा ही म्हणायला लागले.

आणि झोपाळ्यावर डोलताना

कुठल्याही आठवणीनी डोळ्यात

पाणी साठवायला लागले.

 

चहाच्या कपाचा डाग पुसायला

पटकन फडकं शोधायला लागले.

धुतले नाही तरी त्यात

पाणी भरून ठेवायला शिकले.

 

कॉटनचे कपडे आणि मऊ स्पर्श

दोन्ही आठवणीने वापरायला लागले.

कपड्याचा दिसण्यापेक्षा

स्पर्शाचा आनंद 

शरीराला कळायला लागला.

 

रात्रीच्या जेवणानंतर 

थोडंसं गोड खावसं वाटायला लागलं.

स्वतःच्या पांढऱ्या होत जाणाऱ्या केसांकडे  पाहताना

तुझे काळे पांढरे लांब केस आठवायला लागले.

तुझ्या हातावरच्या सुरकुत्या

आता माझ्या हातावर उमटणार

याची वाट पाहायला लागले.

 

“म्हातारी झाले मी”

असं तू म्हणलीस कि मी,

अट्टाहासाने नाही म्हणायची.

आता मी म्हातारी झाले.

बघता बघता तुझ्यासारखी झाले.

 

काही दिवसांनी

दिसेनही तुझ्यासारखी.

आईची सावली अस कुणी म्हटलं

तर हरखून जायला लागले.

आई 

…. मी तुझ्यासारखी व्हायला लागले

 

कवयित्री : अज्ञात 

प्रस्तुती :  शुभदा भा.कुलकर्णी (विभावरी)

कोथरूड-पुणे

मो.९५९५५५७९०८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 248 ☆ व्यंग्य – किताब के कर्मकांड ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य रचना – किताब के कर्मकांड । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 248 ☆

☆ व्यंग्य – किताब के कर्मकांड 

कवि कोमल प्रसाद ‘उदासीन’ का पहला कविता-संग्रह छप पर आ गया है। ‘उदासीन’ जी बहुत प्रसन्न हैं। कल से मोबाइल कान से हट नहीं रहा है। सभी मित्रों, शुभचिन्तकों को खुशखबरी दे रहे हैं। मिलने वालों के लिए मिठाई का इन्तज़ाम कर लिया है।

अगले दिन शहर के तीन चार साहित्यकार मिलने आ गये। सबसे आगे नगर के वरिष्ठ कवि झलकनलाल ‘अनोखे’। सब ने ‘उदासीन’ जी को बधाई दी। ‘अनोखे’ जी बोले, ‘अब आप असली साहित्यकार बन गये। किताब छपे बिना लेखक पक्का साहित्यकार नहीं माना जाता। अब आप हमारी जमात में शामिल हो गये।’

‘उदासीन’ जी खुश हुए। ‘अनोखे’ जी को धन्यवाद दिया।

‘अनोखे’ जी बोले, ‘अब आप बाकी कर्मकांड भी कर डालिए। उसके बिना किताब के प्रति लेखक का फर्ज पूरा नहीं होता।’

‘उदासीन’ जी ने पूछा, ‘कैसा कर्मकांड?’

‘अनोखे’ जी बोले, ‘किताब का विमोचन, किताब की चर्चा, किताब का प्रचार। इनके बिना आजकल लेखन का काम पूरा नहीं होता।’

‘उदासीन’ जी सोच में पड़ गये।

‘अनोखे’ जी बोले, ‘हम इस काम में आपकी मदद करेंगे। ये जो ‘निर्मम’ जी हैं, इन्हें कल आपके पास भेजूँगा। इन्हें अभी बीस हजार रुपये दे दीजिएगा। ये हॉल की बुकिंग वगैरह करा लेंगे, बैनर वैनर बनवा लेंगे, नाश्ते पानी,फोटो वीडियो का इन्तजाम कर लेंगे। मैं दिल्ली के दो कवियों— ‘नश्तर’ जी और ‘खंजर’ जी से बात कर लूँगा। उनसे मेरी रसाई है। जब बुलाता हूँ, आ जाते हैं। उन्हीं के कर-कमलों से किताब का विमोचन हो जाएगा। शाम को किताब पर उनके व्याख्यान हो जाएँगे। फिर होटल में बीस-पच्चीस लोगों का भोजन हो जाएगा। उसमें पत्रकार भी आमंत्रित हो जाएँगे। पत्रकारों को छोटी-मोटी भेंट दे देंगे तो कार्यक्रम का अच्छा प्रचार हो जाएगा। ‘निर्मम’ जी सब प्रबंध कर लेंगे। उन्हें इन बातों का बहुत अनुभव है।

‘नश्तर’ जी और ‘खंजर’ जी के लिए भोजन से पहले कुछ तरल पदार्थ का इन्तजाम करना पड़ेगा। वह भी ‘निर्मम’ जी देख लेंगे। मेरे खयाल से चालीस पचास हजार तक किफायत से सब काम हो जाएगा।’

सुनकर ‘उदासीन’ जी की आँखें माथे पर चढ़ गयीं। भयभीत स्वर में बोले, ‘इतना पैसा कहाँ से लाऊँगा? यह मेरी हैसियत से बाहर है।’

‘अनोखे’ जी कुपित हो गये। बोले, ‘आपको कवि के रूप में अपने को स्थापित भी करना है और अंटी भी ढीली नहीं करनी है। दोनों बातें एक साथ कैसे चलेंगीं?

‘भैया, किताब के कर्मकांड के लिए लोग अपने प्रॉविडेंट फंड का पैसा खर्च कर देते हैं, बेटी के ब्याह के लिए रखा पैसा समर्पित कर देते हैं, और आप ऐसे आँखें फाड़ रहे हैं जैसे हम कोई अनुचित बात कर रहे हों।’

‘उदासीन’ जी बोले, ‘ना भैया, इतना पैसा खर्च करना अपने बस का नहीं है। किताब में दम होगा तो अपने आप प्रचार हो जाएगा।’

‘अनोखे’ जी अपनी मंडली के साथ उठ खड़े हुए, बोले, ‘किताब में कितना भी दम हो लेकिन शुरू में उसे लोगों की आँखों के सामने चमकाना पड़ता है। बिना हर्रा फिटकरी डाले रंग चोखा नहीं होता। सोच लो, मन बदल जाए तो फोन कर देना। हम ‘निर्मम’ जी को भेज देंगे।’

दरवाज़े तक पहुँच कर ‘अनोखे’ जी घूम कर बोले, ‘किताब के कर्मकांड में पैसा तो जरूर खर्च होता है, लेकिन उसकी खुमारी महीने,दो महीने तक रहती है। बाद में कसके तो कसकती रहे।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 247 – दो ध्रुवों के बीच ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 247 ☆ दो ध्रुवों के बीच ?

इसी सप्ताह की घटना है। मैं दोपहिया वाहन से घर लौट रहा था। बाज़ार से दूर स्थित बैंक के पास एक वृद्ध सज्जन खड़े दिखाई दिए। जाने क्यों लगा कि लिफ्ट चाहते हैं पर कह नहीं पा रहे हैं। कुछ आगे जाकर मैं रुका और पूछा कि उन्हें कहाँ जाना है? उन्होंने बताया कि  लम्बे समय से ऑटोरिक्शा की प्रतीक्षा कर रहे हैं पर कोई रिक्शा आया ही नहीं। फिर जानना चाहा कि क्या मैं उन्हें उनके गंतव्य तक छोड़ सकता हूँ? मैंने उन्हें बिठाया और उनके गंतव्य पर छोड़ दिया।

वे धीरे से उतरे। बोले,”रिक्शा की प्रतीक्षा में खड़ा-खड़ा मैं बहत थक गया था। आपने बड़ी सेवा की।” फिर एकाएक उन्होंने मेरे पैर छू लिए।

इस अप्रत्याशित व्यवहार से मैं संकोच से गड़ गया। कुछ कह पाता, उससे पूर्व अप्रत्याशित का कल्पनातीत अगला संस्करण भी सामने आ गया। उन्होंने जेब से रुपये दस का नोट निकाला और फिर बोले,” इतना ही दे सकता हूँ। कृपया इस बूढ़े के पैसे से एक कप चाय पी लीजिएगा।” अपमान और क्रोध से माथा भन्ना उठा। मैंने उन्हें हाथ जोड़े। नोट हाथ में लिए वे खड़े रहे और मैं वहाँ से एक तरह से रफूचक्कर हो गया।

गाड़ी की बढ़ी हुई गति के साथ विचारों को भी हवा मिली। अपने अपमान के भाव से आरम्भ हुआ विचार, वृद्ध के स्वाभिमान तक जा पहुँचा।

निष्कर्ष निकला कि वे स्वाभिमानी व्यक्ति थे। अनेक लोग ऐसे होते हैं जो किसीका एक नए पैसे का भी प्रत्यक्ष या परोक्ष ऋण अपने ऊपर नहीं चाहते। बैंक से उनके गंतव्य तक संभवत: शेयर रिक्शा दस रूपये ही लेता होगा। फलत:  उन्होंने मुझे दस रुपये देने का प्रयास किया था।

अनुभव हुआ कि ध्रुवीय अंतर है आदमी और आदमी के बीच। एक ओर किसीका किसी भी तरह का ऋण अपने माथे पर ना रखनेवाला यह निर्धन है तो दूसरी ओर वित्तीय संस्थानों के हज़ारों करोड़ डकार जाने वाले कथित धनिक।

अनुभव कहता है कि संस्कार से विचार उद्भूत होता है। विचार, कृति का जनक होता है। कृति, व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करती है।

ऋग्वेद का उद्घोष है-

‘‘अग्निना रयिमश्नवत पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम्।’’

संदेश स्पष्ट है कि हम धन अवश्य कमाएँ पर नीति-रीति से ही कमाएँ। अनीति से फटाफट धन की चाह, लोभ उत्पन्न करती है। लोभ अतृप्ति ढोने को अभिशप्त है।

अपनी कविता ‘पुजारी’ स्मरण हो आई-

मैं और वह

दोनों काग़ज़ के पुजारी,

मैं फटे-पुराने,

मैले-कुचले,

जैसे भी मिलते

काग़ज बीनता, संवारता,

करीने से रखता,

वह इंद्रधनुषों के पीछे भागता,

रंग-बिरंगे काग़ज़ों के ढेर सजाता,

दोनों ने अपनी-अपनी थाती

विधाता के आगे धर दी,

विधाता ने

उसके माथे पर अतृप्त अमीरी

और मेरे भाल पर

 समृद्ध संतुष्टि लिख दी..!

संत ज्ञानेश्वर महाराज पसायदान में कहते हैं,

जो जे वांछील तो ते लाहो ।

हरेक अपना वांछित पा सकता है।  तृप्ति या अतृप्ति, तोष या असंतोष, अनन्य मानव जीवन में अपना वांछित स्वयं तय करो।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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