(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 196 – कथा क्रम (स्वगत)…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “आँखो में घिरते हैं बादल...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 196 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “आँखो में घिरते हैं बादल...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय जी द्वारा लिखित – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप”।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
वह 1972 का कोई दिन था. मैं शहर से अपने घर आधारताल की तरफ लौट रहा था, कि मेरे एक पुराने मित्र मार्तण्ड व्यास मिल गए थे. वे उन दिनों कविता में हाथ आजमा रहे थे और मैंने भी कागज़ काले करने की दिशा में कदम बढ़ा रखे थे. हमारी दोस्ती का पुल यही था.
हमने बल्देवबाग तिराहे की एक दूकान पर चाय पी और वे पान खाने के लिए पान के टपरे के सामने पान लगवाने लगे. वे ज़र्दा के शौक़ीन थे, और उसे चिंतन -चूर्ण कहते थे. वे हथेली पर चूना और तम्बाकू को रगड़ -रगड़ कर उन्हें एकसार कर रहे थे और इसी के साथ गप्पें लगाने का काम भी कर रहे थे.
उसी समय एक प्रौढ़ सज्जन अपने साथ दो और लोगों को लिए हुए उसी टपरे पर आ पहुंचे. उनका व्यक्तित्व और पहिरावा मुझे सम्मोहन में खींच ले गया. गौर वर्ण, प्रशस्त ललाट, काले लम्बे केश जो गर्दन के पीछे जाकर पुनः शीर्ष पर लौटने की मंसा में कुछ मुड़ चले थे. खादी का श्वेत कुरता -पाजामा, उस पर खादी की ही हल्की पीलाभ जैकेट. वाणी में खनक. साफ़ उच्चारण. गंभीर भाव. चेहरे से झरता तरल स्नेह.
मैं बात इधर कर रहा था और मन उधर को लपका जा रहा था. आँखें और कान उसी दिशा में भगदड़ सी मचाए हुए थे.
मैंने मित्र से कहा, वे कोई कवि लगते हैं…!
मित्र ने उनके केशों को लक्ष्य करके जवाब दिया – बालकवि होंगे…!
मन उनकी तरफ जा चुका था, पर तन संकोच में पड़ा रहा. उसके पाँव न बढ़े. हमने अपनी सायकलें सम्हालीं और वहाँ से निकल पड़े.
कुछ दिनों बाद ‘नई दुनिया ‘ अख़बार के दफ्तर जाना हुआ, जो उसी बल्देवबाग तिराहे पर था. मैंने उन्हें वहाँ दोबारा देखा. एक समाचार देना था, तो उन्हीं से पूछा किसे देना चाहिए. उन्होंने दीवार पर लगे लकड़ी के एक डब्बे की ओर इशारा कर कहा उधर डाल दो. समाचार को डब्बे के हवाले कर मैं फिर उनकी मेज पर गया. उसके सामने वाली बेन्च पर बैठते हुए पूछा – क्या आपसे कुछ बात कर सकता हूँ…?
— हाँ, ज़रूर.
मैंने पहले अपना परिचय दिया, बताया कि लिखता हूँ. उन दिनों के चर्चित कवियों और कथाकारों की रचनाओं के सम्बन्ध में उन्हें बताया. धूमिल, मुक्तिबोध, अज्ञेय, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर जैसे नामों को सुनकर उन्होंने कलम बन्द करते हुए कहा – चलो चाय पीते हैं.
हम दोनों बातें करते हुए चाय के उसी टपरे पर जा पहुंचे. अब उन्होंने बोलना शुरू किया. मिठास के साथ. खनक से भरी. आँखें भी बोलने लगीं. पलकों ने फड़कना आरम्भ कर दिया. मैं उनकी मुहब्बत में पड़ता चला गया. लगा हमारा दीर्घकाल से परिचय है. मैं उन्हें जानने के पहले से जनता हूँ. मैं उनसे मिलने के पहले मिल चुका हूँ. वे नाम से ही नहीं, ह्रदय से भी सुमित्र हैं, दिल इसकी ताईद कर चुका था. वे मित्रता का सगुण स्वरुप ही लगते थे.
एक चाय ने अकूत चाह के दरवाज़े खोल दिए. मुलाक़ातें होने लगीं. कोतवाली के बगल में चुन्नीलाल के बाड़े में भी उनसे मिलने, जाना होने लगा. बैठकें लगने लगीं. लिखा हुआ सुनना -सुनाना होने लगा.
वे राजकुमार सुमित्र थे. काया से राजकुमार और आत्मा से सुमित्र. उनके मुरीदों की संख्या अपार है. सब उम्रों के लोग उनके प्रभामंडल में हैं. उन्होंने जबलपुर में सांस्कृतिक वातावरण बनाने में अपने को खपा दिया. एक क्षितिज तैयार किया. उसमें असंख्य तारे टांकते रहे. उनकी रोशनी भी वही बने.
वे बोधि वृक्ष थे. उनके सानिध्य से मन की विचलन मुरझाने लगती थी. रचनात्मकता का आगार थे वे. नए लिखने वालों की पाठशाला थे. अपनी उपस्थिति से आयोजनों को गरिमामय बना देते थे. उनका होना आश्वस्ति थी, न होना वंचना.
वे चले गए. पर उनका जाना, चले जाना नहीं है. वे हममें कहीं शेष हैं. शेष बने रहेंगे. हम उन्हें सदा महसूस करते रहेंगे. जब कोई कठोर आघात करेगा, वे याद आएँगे. जब भी दोस्ताने की परिभाषा में खलल डाला जाएगा, तब भी वे मन में कौंध जाएंगे. जब भी निर्मल प्रेम के प्रतीक खोजे जाएंगे, तो प्रतिफल में वही मिलेंगे. उदारता के व्यंजनार्थ में वे पाए जाएंगे. आम्र -पल्ल्लवों की छाया में उन्हीं की शीतलता घुली होगी. वसन्त में शामिल रहेगा उनका दुलार और होली के रंगों में सबसे गहरा रंग भी वही होंगे.
लेखक – श्री राजेन्द्र चन्द्रकांत राय
साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “कोई वजह तो होगी ”)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘वक्त…‘।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य रचना – ”मेरे मकान के ख़रीदार‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 247 ☆
☆ व्यंग्य – मेरे मकान के ख़रीदार ☆
रमनीक भाई कॉलोनी में चार छः मकान आगे रहते हैं। सबेरे टहलने निकलते हैं। घर के गेट पर मैं दिख गया तो वहीं ठमक जाते हैं। इधर उधर की बातें होने लगती हैं। रमनीक भाई बातों के शौकीन हैं। बातों का सिलसिला शुरू होता है तो सारी दुनिया की कैफियत ले ली जाती है। उनके पास हर समस्या का हल मौजूद है, बशर्ते उनकी राय कोई ले। रूस-यूक्रेन और इसराइल- ग़ज़ा की समस्या का फौरी हल उनके पास है, लेकिन नेतन्याहू और पुतिन उनकी तरफ रुख़ तो करें।
एक दिन रमनीक भाई चेहरे पर कुछ परेशानी ओढ़े मेरे घर आ गये। बैठकर बोले, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूँ, बाउजी? आप शहर छोड़ कर जा रहे हैं?’
मैंने जवाब दिया, ‘विचार चल रहा है, रमनीक भाई। यहांँ हम मियाँ बीवी कब तक रहेंगे? इस उम्र में कुछ उल्टा सीधा हो गया तो किसकी मदद लेंगे? बड़ा बेटा पीछे पड़ा है कि यहाँ की प्रॉपर्टी बेच कर उसके पास पुणे शिफ्ट हो जाऊँ।’
रमनीक भाई दुखी स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करते हैं, बाउजी! मदद के लिए हम तो हैं। आप कभी आधी रात को आवाज देकर देखो। दौड़ते हुए आएँगे। कॉलोनी छोड़ने की बात मत सोचो, बाउजी। आप जैसे लोगों से रौनक है।’
मैंने उन्हें समझाया कि अभी कुछ फाइनल नहीं है। जैसा होगा उन्हें बताएँगे। वे दुखी चेहरे के साथ विदा हुए।
दो दिन बाद वे फिर आ धमके। बैठकर बोले, ‘ मैं यह सोच रहा था, बाउजी, कि जब आपको मकान बेचना ही है तो हमें दे दें। हमारे साले साहब इसी कॉलोनी में मकान खरीदना चाहते हैं। नजदीकी हो जाएगी। भले आदमी को देने से आपको भी तसल्ली होगी।’
मैंने फिर उन्हें टाला, कहा, ‘फाइनल होने पर बताऊँगा।’
फिर वे रोज़ गेट खटखटाने लगे। रोज़ पूछते, ‘फिर क्या सोचा, बाउजी? साले साहब रोज फोन करते हैं।’
एक दिन कहने लगे, ‘वो रौनकलाल को मत दीजिएगा। सुना है कि वो आपके मकान में इंटरेस्टेड है। बहुत काइयाँ है। दलाली करता है। आपसे खरीद कर मुनाफे पर बेच देगा।’
मैंने उन्हें आश्वस्त किया।
दो दिन बाद एक सज्जन बीवी और दो बच्चों के साथ आ गये। बोले, ‘मैं रमनीक जी का साला हूँ। उन्होंने आपके मकान के बारे में बताया था। आपको तकलीफ न हो तो ज़रा मकान देख लूँ।’
मेरा माथा चढ़ गया। रमनीक भाई के लिहाज में मना भी नहीं कर सकता था। उन्हें मकान दिखाया। वे देख देख कर टिप्पणी करते जाते थे कि कौन सी जगह कौन से इस्तेमाल के लिए ठीक रहेगी। बच्चों में झगड़ा होने लगा कि वे कौन से कमरे पर कब्ज़ा जमाएँगे।
अगले दिन फिर रमनीक भाई आ गये। मैंने उनसे निवेदन किया कि अभी कुछ फाइनल नहीं है, परेशान न हों। यह भी कहा कि पत्नी को इस घर से बहुत लगाव है, इसलिए निर्णय लेने में समय लगेगा। सुनकर वे प्रवचन देने लगे, बोले, ‘बाउजी, बेटा बुला रहा है तो उसकी बात मान लेना चाहिए। आप ठीक कहते हो कि यहाँ कुछ उल्टा सीधा हो गया तो कौन सँभालेगा। वैसे, बाउजी, मकान से क्या लगाव रखना? ना घर मेरा, ना घर तेरा, चिड़िया रैन बसेरा। ईंट पत्थर से क्या दिल लगाना।’
दो दिन बाद वे फिर गेट पर मिले तो मैंने उनसे कहा कि अभी मकान की बात न करें, अभी हमारा इरादा उसे बेचने का नहीं है। सुनकर वे उखड़ गये, नाराज होकर बोले, ‘ये तो ठीक बात नहीं है, बाउजी। मैंने साले साहब को भरोसा दिया था कि मकान मिल जाएगा। यह दुखी करने वाली बात है। आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।’
उस दिन के बाद रमनीक भाई मेरे गेट से तो बदस्तूर गुज़रते रहे, लेकिन उन्होंने मेरी तरफ नज़र डालना बन्द कर दिया। मुँह फेरे निकल जाते। मतलब यह कि मकान के चक्कर में हम सलाम-दुआ से भी जाते रहे।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 246 – साधो देखो जग बौराना ☆
कल कबीर जयंती थी। यूँ कहें तो कबीर याने फक्कड़ फ़कीर, यूँ समझें तो कबीर याने दुनिया भर का अमीर। वस्तुत: कबीर को समझने के लिए पहले आवश्यक है यह समझना कि वस्तुतः हमें किसे समझना है। पाँच सौ साल पहले निर्वाण पाए एक व्यक्ति को या कबीर होने की प्रक्रिया को? दहन किये गए या दफ़्न किये गए या विलुप्त हो गये दैहिक कबीर को पाँच सदी की लम्बी अवधि बीत गई। अलबत्ता आत्मिक कबीर को समझने के लिए यह समयावधि बहुत कम है।
प्रश्न तो यह भी है कि कबीर को क्यों समझें हम? छोटे मनुष्य की छोटी सोच है कि कबीर से हमें क्या हासिल होगा? कबीर क्या देगा हमें? कबीर जयंती पर इस प्रश्न का स्वार्थ अधिक गहरा जाता है।
कबीर को समझने में सबसे बड़ा ऑब्सटेकल या बाधा है कबीर से कुछ पाने की उम्मीद। कबीर भौतिक रूप से कुछ नहीं देगा बल्कि जो है तुम्हारे पास, उसे भी छीन लेगा। पाने नहीं छोड़ने के लिए तैयार हो तो कबीर आत्मिक रूप से तुम्हें मालामाल कर देगा।
आत्मिक रूप से मालामाल कर देने का एक अर्थ कबीर का ज्ञानी, पंडित, आचार्य, मौलाना, फादर या प्रीस्ट होना भी है। इन सारी धारणाओं का खंडन खुद कबीर ने किया, यह कहकर,
‘मसि कागद छूयौ नहिं, कलम नहिं गहि हाथ।
कबीर दीक्षित है, शिक्षित नहीं।
कबीर अंगूठाछाप है। ऐसा निरक्षर जिसके पास अक्षर का अकूत भंडार है। कबीर कुछ सिखाता नहीं। अनसीखे में बसी सीख, अनगढ़ में छुपे शिल्प को देखने-समझने की आँख है कबीर। हासिल होना कबीर होना नहीं है, हासिल को तजना कबीर है। भरना पाखंड है, रीत जाना आनंद है। पाना रश्क है, खोना इश्क है,
हमन से इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या
रहे।
आज़ाद या जग से, हमन को दुनिया से यारी क्या।
और जब इश्क या प्रेम हो जाए तो अनसीखा आत्मिक पांडित्य तो जगेगा ही,
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।
कबीर सहज उपलब्ध है। कबीर होने के लिए, उसकी संगत काफी है। ओशो ने सहक्रमिकता के सिद्धांत या लॉ ऑफ सिंक्रोनिसिटी का उल्लेख कबीर के संदर्भ में किया है। किसी वाद्य के दो नग मंगाये जाएँ। कमरे के किसी कोने में एक रख दिया जाए। दूसरे को संगीत में डूबा हुआ संगीतज्ञ ( ध्यान रहे, ‘डूबा हुआ’ कहा है, ‘सीखा हुआ’ नहीं) बजाए। सिंक्रोनिसिटी के प्रभाव से कोने में रखा वाद्य भी कसमसाने लगता है। उसके तार अपने आप कसने लगते हैं और वही धुन स्पंदित होने लगती है।
कबीर का सान्निध्य भीतर के वाद्य को स्पंदित करता है। भीतर का स्पंदन मनुष्य में मानुषता का सोया भाव जाग्रत कर देता है। जाग्रत अवस्था का मनुष्य, सच्चा मनुष्य हो जाता है और बरबस कह उठता है,
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी।
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Anonymous Litterateur of Social Media # 193 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 193)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 193
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है सॉनेट – याद…।)
☆ लुप्त होत असलेल्या व्यक्ती – शेजार ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆
जाता जाता सहज एक संवाद कानावर पडला. बागेत फिरायला आलेल्या व्यक्तींची ओळख झाली आणि बोलता बोलता त्यांना समजले आपण शेजारी आहोत. त्या दोन शेजारी राहणाऱ्या शेजाऱ्यांची ओळख बागेत झाली. किती जग पुढे गेले आहे ना (?)
त्या मानाने आमची पिढी फारच मागास म्हणावी लागेल. कारण आम्ही म्हणजे घरातली भाजी आवडली नाही म्हणून हक्काने शेजारी जाऊन जेवत होतो. आपल्या घरात काय चालले आहे याची माहिती शेजाऱ्यांना असायची. लग्नाच्या मुलीला बघायला पाहुणे येणार असतील तर तिचे आवरणे (मेकअप) शेजारच्या घरात होत होता. आणि जास्त पाहुणे आले तर शेजारी त्यातील काही पाहुणे स्वतःच्या घरी नेत होते.आणि त्यांचा व्यवस्थित पाहुणचार करत होते. हे सर्व वाडा किंवा चाळ संस्कृतीत होत होते. अगदी वाटीभर साखर,चार लसूण पाकळ्या,दोन मिरच्या,दोन कोथिंबीरीच्या काड्या यांची हक्काने देवाण घेवाण चालायची आणि गरम पोहे,भाजी आपुलकीने घरात यायची. सगळी मुले सगळी घरे आपलीच असल्या प्रमाणे वावरत होते. आणि शेजारी हक्काने प्रेम व शिक्षा दोन्ही करत होते. आणि त्यावर कोणाची काहीच हरकत नव्हती. ठराविक वेळेत घराचे दार उघडले नाही तर शेजारी चौकशी करत होते. जर उशिरा उठायचे असेल तर आदल्या दिवशी शेजारी सांगावे लागत होते.
सामान आणायला गेल्यावर दुकानदार हक्काने कोणताही पाढा किंवा कविता म्हणायला लावायचा. आणि काही चुकले तर घरी रिपोर्ट जायचा. आमच्या घरा जवळचे एक दुकानदार दुकानात येणाऱ्या मुलांना पाढे म्हणायला लावायचे आणि पाढा आला नाही तर वस्तू द्यायचे नाहीत. मग त्यांच्याकडे तो पाढा पाठ करून जावे लागत होते. अशी समाजाकडून प्रगती होत होती.
त्यामुळे बाहेर वावरताना एक धाक होता. आपले काम सोडून कोणी मूल इतरत्र दिसले तर शेजारी हक्काने कान पकडून घरी आणत होते. आणि घरातील व्यक्ती म्हणायच्या असेच लक्ष असू द्या. त्यामुळे मुले बिघडण्याचे प्रमाण खूप कमी होते. प्रत्येक घरात संध्यादीप लागले की शुभंकरोती म्हंटले जात होते. सर्व मुले एकत्रित पाढे,कविता म्हणत होते. आणि एखाद्या मुलाला घरी यायला उशीर झाला तर सगळे शेजारी त्याला शोधायला बाहेर पडत होते.
अगदी लग्न ठरवताना वधू किंवा वर यांची चौकशी समाजातील किराणा दुकानदार, न्हावी, शिंपी यांच्याकडे केली जात होती. कारण ती चर्चेची ठिकाणे होती. आणि त्यांनी वधू किंवा वर यांची वर्तणूक चांगली आहे असे सांगितले की, ते लग्न निश्चित ठरायचे. अशा खूप आठवणी आहेत.
पण माणसे प्रगत झाली. शेजारचे जवळचे नेबर झाले. घरे फ्लॅट झाली. शेजारचे काका अंकल झाले. ज्यांची ओळख आपोआप होत होती त्यांची ओळख बागेत होऊ लागली. शेजाऱ्यांच्या घरातील वावर कमी झाला. शेजारी फोन करून घरी आहात का? येऊ का? असे विचारु लागले. दोन घरात एकच भिंत असून मनात दुरावा वाढला. तुम्हाला काय करायचे आहे? किंवा आपल्याला काय करायचे? अशी भूमिका दोन शेजाऱ्यांच्या मनात निर्माण झाली. आणि सर्वांनाच अपेक्षित पण घातक स्वातंत्र्य मिळाले. सध्याच्या काही मुलांच्या बाबतीतल्या घटना बघितल्या की वाईट वाटते. आणि कुठेतरी हे ओढवून घेतलेले स्वातंत्र्य याला कारण असावे असे वाटते. आपुलकीचा शेजार असेल तर नकळत संस्कार होतात. मुलांना थोडा धाक असतो. हल्ली पालक वारेमाप पैसा मिळवतात. आणि मुलांना पुरवतात. कोणाचाच धाक नाही. आम्ही काहीही करु तुम्ही कोण विचारणारे? असे विचार वाढत आहेत. याला कोणते स्वातंत्र्य म्हणायचे हेच कळत नाही.
माझ्या सारख्या शेजाऱ्यांच्या प्रेमात व धाकात वाढलेल्या ( सध्या याला मागासलेले म्हणतील ) व्यक्तीला हे अती स्वातंत्र्य खुपते आणि चिंता वाटते. सगळे माझ्या मताशी सहमत असतील असे नाही.पण मला लुप्त होत असलेले शेजारी आठवतात. आणि आवश्यक वाटतात.