मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ सृजनता… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 

☆ सृजनता … ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के

करवतीने कापा करकर

घाव कुऱ्हाडीचे दणादण

पाण्यामधे करा प्रवाही

कुजेन मी मग तेथे कणकण

*

पाण्यामधे कुजता कुजता

शेवटपर्यंत जपेन सृजनता

जलावरच्या देही जन्मली

म्हणूनच ही सृष्टी संपन्नता

*

या निसर्ग वृत्तीमुळेच आहे 

अजूनही जगी या हिरवाई

अमानुष कत्तल  वृक्षांची

 अन कसरत ही समतोलाची

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-23 – हरियाणा से जुड़ा हिसार के रिपोर्टर से पहले रिश्ता… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -23 – हरियाणा से जुड़ा हिसार के रिपोर्टर से पहले रिश्ता… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

फिर एक नया दिन, फिर एक न एक पुरानी याद ! पंजाब विश्विद्यालय की कवरेज के दिनों एक बार छात्रायें अपनी हाॅस्टल की वार्डन के खिलाफ कुलपति कार्यालय के बाहर धरने पर बैठ गयीं। कड़ाके की सर्दी में रजाइयां ओढ़े धरना जारी रखा। मैं लगातार कवरेज करता गया। आखिरकार छात्राओं की जीत हुई और वार्डन को बदल दिया गया। छात्राओं की नेता का नाम था अनिता डागर और बरसों बाद हिसार में जब फतेह सिंह डागर उपायुक्त बने तब ध्यान आया अनिता डागर का। वह बताती थी कि भिवानी की रहने वाली हूं और डागर भी। बस, मन में आया कि हो न हो , उपायुक्त डागर का कोई कनेक्शन हो अनिता के साथ ! मैंने आखिर पूछ ही लिया ! श्री डागर बहुत हंसे और बोले कि अनिता मेरी ही बेटी है और आजकल मुम्बई रहती है और यही नहीं एक एन जी ओ चलाती है ! कमाल ! अनिता! कभी अपने पापा की ऊंची पोस्ट का जिक्र नहीं किया और भिड़ गयी कुलपति से ! जब वार्डन की ट्रांसफर दूसरे हाॅस्टल में हुई तब मुझे संपादक विजय सहगल ने बताया कि तुम जिसके खिलाफ धरने की कवरेज कर रहे थे, वह कोई और नही बल्कि ‘पंजाब केसरी’ के संपादक विजय चोपड़ा की बहन है ! आज ही विजय जी का फोन आया कि तुम्हारे रिपोर्टर ने छात्राओं के धरने की कवरेज कर हमारी बहन की ट्रांसफर करवा दी !

खैर ! जब फतेह सिंह डागर के यहां कोई मांगलिक कार्य था, तब उन्होंने मुझे भिवानी बुलाया तब मैंने पूछा कि अनिता आयेगी ? वे बोले कि भाई की शादी में बहन क्यों नही आयेगी ? इस तरह काफी सालों बाद उस ‘धाकड़ छोरी’ अनिता से मुलाकात हो पाई और उसी दिन उसकी इंटरव्यू नभ छोर में दी। मुझे राकेश मलिक लेकर गये थे ,  जो बीएसएनएल में एस डी ओ हैं ! अनिता से मैंने पूछा कि क्या अब भी लीडरी करती हो? वह हंसी और बोली कि अब लीडरी नहीं बल्कि समाजसेवा करती हूँ, मुम्बई में एनजीओ चला कर ! देखिए, कैसे पंजाब विश्वविद्यालय का कनेक्शन कहाँ हिसार व भिवानी से जुड़ता चला गया !

ऐसा ही मज़ेदार कनेक्शन जुड़ा हरियाणा में कांग्रेस की बड़ी नेत्री सैलजा से, जिसे हरियाणा में ‘बहन जी’ के रूप में जाना जाता है। ‌मुझे पजाब विश्वविद्यालय की कवरेज करते कुछ ही समय हुआ था कि केंद्रीय शिक्षा राज्यमंत्री सुश्री सैलजा का सम्मान डी एस डब्ल्यू डाॅ अनिरूद्ध जोशी ने विश्विद्यालय की ओर से रखा ! वीआईपी गेस्ट हाउस के पास के मैदान में ! उन्होंने बताया कि सैलजा एम ए अंग्रेज़ी के प्रथम वर्ष की छात्रा रही लेकिन एम ए पूरी न कर सकी क्योंकि उनके पिता व कांग्रेस नेता चौ दलबीर सिंह का निधन हो गया और उन्हें पिता की राजनीतिक जिम्मेदारी व विरासत संभालनी पड़ी। हमें यह खुशी है कि हमारी छात्रा अपने शिक्षकों से भी ऊपर पहुंच गयी है। ‌यही शिक्षक की सबसे बड़ी खुशी होती है कि उसके छात्र उससे ऊंचे उठें ! सच, आज तक याद रही यह बात ! फिर सैलजा आईं मंच पर और कहा कि वे हाॅस्टल में रहती थीं ऊपर की मंजिल पर और आज तक याद है कि कैसे किसी परिवारजन के मिलने आने पर महिला सेवादार ऊंची आवाज़ लगातीं कि हिसार वाली सैलजा नीचे आ जाओ, घर से मिलने आए हैं, जैसे कोर्ट में आवाज़ लगती है कि जल्दी पेश हो जाओ ! उन दिनों मुझे पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड मेरे बकाया पैसे नहीं दे रहा था ! मैं खटकड़ कलां के गवर्नमेंट आदर्श सीनियर स्कूल के प्रिंसिपल के पद से रिजाइन देकर ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में आया था। मैंने समारोह में बैठे बैठे ही सैलजा के नाम एप्लिकेशन लिख ली और जैसे ही हमें इंटरव्यू के लिए इनके पास बुलाया तो बातचीत के बाद मैंने अपनी अर्ज़ी भी सौ़ंप दी ! करिश्मा देखिये ! कुछ दिन बाद पंजाब स्कूल एजुकेशन बोर्ड के अकाउंट विभाग से दफ्तर में फोन आया कि आपने तो हमारी शिकायत केंद्रीय शिक्षा राज्यमंत्री सैलजा से कर दी , अब आप आकर अपनी बकाया राशि का चैक ले जाओ ! इस तरह यह मेरी सैलजा से पहली मुलाकात थी और मैंने कभी सोचा भी न था, कि कभी हरियाणा के हिसार में मैं रिपोर्टर बन कर आऊंगा और मुझे किराये का मकान बिल्कुल सुश्री सैलजा के पड़ोस में मिलेगा ! बाद में वही मकान मैंने खरीद लिया और इस तरह सुश्री सैलजा का पक्का पड़ोसी बन गया ! अब जो कोई मुझ से मेरे घर का पता पूछता है तो मैं बताता हूँ कि सैलजा का घर देखा है? बस, वहीं आकर मुझे फोन कर देना, मैं वहीं लेने आ जाऊंगा!

आज यहीं विराम, कल फिर सुनाऊंगा यादें!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #242 – 127 – “कुछ  रिश्तों  के  पोखर सूखे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “कुछ  रिश्तों  के  पोखर सूखे…” ।)

? ग़ज़ल # 127 – “कुछ  रिश्तों  के  पोखर सूखे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

एक साल धरा पर  बीत गया,

दिल हार गया मन जीत गया।

*

सधता कब सब कुछ जीवन में,

कुछ सुलझा कुछ विपरीत गया।

*

कुछ  रिश्तों  के  पोखर सूखे,

मन झरने  से  संगीत  गया।

*

बीता  साल  उमंग  भरा था,

समय गुज़रते वो  रीत गया।

*

महत्व   पाने  की  इच्छा  में,

व्यर्थ  जीवन   व्यतीत  गया।

*

यमदूत  सधा  काल नियम से,

मेरा  मन तो  भयभीत  गया।

*

बिछड़ कर वह रहा दिल में ही,

आतिश का पर  मनमीत गया।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 120 ☆ ।।मुक्तक।। ☆ ।। योग भगाए रोग ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 120 ☆

।।मुक्तक।। ☆ ।। योग भगाए रोग ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

।।विश्व योग दिवस।। – (21 – 06 – 2024)

[1]

योग से   बनता    है   मानव

शरीर   स्वस्थ  आकार।

योग एक  है   जीवन      की

पद्धति स्वास्थ्य आधार।।

योग से निर्मित होता तन मन

और  मस्तिष्क   सुदृढ़।

तभी तो   हम कर   सकते  हैं

हर जीवन स्वप्न साकार।।

[2]

भोग नहीं योग आज  की बन

गया   एक   जरूरत  है।  

रोग प्रतिरोधक क्षमता  से  ही

जीवन बचने की सूरत है।।

दस   वर्ष पूर्व सम्पूर्ण विश्व को

भारत ने दिखाया  रास्ता।

आज तो पूरी  दुनिया में भारत

बन गया योग की मूरत है।।

[3]

नित प्रतिदिन   व्यायाम  ही तो

योग का एक  रूप    है।

व्यवस्थित हो  जाती  दिनचर्या

बदलता    स्वरूप     है।।

निरोगी काया आर्थिक  स्थिति

भी होती योग  से सुदृढ़।

योग तो सारांश में तन मन की

सुंदरता का प्रतिरूप है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 182 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – दुख से घबरा न मन ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “अभी भी बहुत शेष है। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 182 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – दुख से घबरा न मन ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

दुख से घबरा न मन, कर न गीले नयन,

दुख तो मानव के जीवन का सिंगार है ।

इससे मिलता है बल, दिखती दुनियां सकल

आगे बढ़ने का ये सबल आधार है ।।۹ ۱۱

*

सुख में डूबा है जो, मन में फूला है जो,

समझो यह-राह भटका है, भूला है वो ।

दुख ही साथी है जो साथ चल राह में

रखता साथी को हरदम खबरदार है ।। २ ।।

*

सुख औ’ दुख धूप-छाया हैं बरसात की

उड़ती बदली शरद-चाँदनी रात की ।

सुख की साधे ललक, दुख की पाके झलक

जो भी डरता है वो कम समझदार है ।। ३ ।।

*

कर्म-निष्ठा से नित करते रहना करम भूलकर

सारे भ्रम आदमी का धरम फल तो देता है

खुद कर्म हर एक किया फल पै

कोई किसी का न अधिकार है ।। ४ ।।

*

जो भी चलते हैं पथ पै समझ-बूझकर

उन्हें सुख-दुख बराबर, नहीं कोई डर ।

उनकी मंजिल उन्हें देती अपना पता

सहना है जिंदगी – ये ही संसार है ।। ५ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ वटपौर्णिमा… ☆ श्री राहूल लाळे ☆

श्री राहूल लाळे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? – वटपौर्णिमा – ? ☆ श्री राहूल लाळे ☆

तो वड एक महान

घालून प्रदक्षिणा ज्याला

परत  मिळवले सावित्रीने

आपल्या प्रिय पतीचे प्राण

*

तो आणि असे अनेक वड

अजूनही उभे आहेत

पाय जमिनीत रोवून घट्ट

ऐकतात दरवर्षी ते

नवसावित्रींचें  पतीहट्ट

*

वडाला फेऱ्या मारणाऱ्या

दोरीचे बंध बांधणाऱ्या,

सगळ्याच स्त्रिया का  सावित्री असतात ?

ज्यांच्यासाठी  त्या व्रत करतात

सगळे का  ते सत्यवान असतात ?

*

सात जन्मी हाच मिळावा जोडीदार

यासाठीच  होते जरी प्रार्थना

मनात दोघांच्या असतात का

नक्की तशाच भावना ?

*

सावित्रीला आजच्या.. खरंच का हवा आहे

सत्यवान तो जन्मोजन्मी ?

आणि ज्याच्यासाठी उपास करतात

सत्यवानाला त्या  हवीय का तीच सावित्री पुढल्या तरी जन्मी !!!

*

सावित्री -सत्यवान महती त्यांची थोर

त्यांच्यापुढे आपण सारे लहानथोर

महत्वाची आहे तरी प्रेमभावना

*

सात जन्म कोणी पाहिलेत ?

हाच जन्म महत्वाचा

मिळाली ती सावित्री

आहे तो सत्यवान जपायचा

*

संस्कार म्हणून  वटपौर्णिमा

सण साजरा करत राहूया   …

पतीपत्नी सारे विश्वास अन् प्रेमाचं रोप सतत फुलवत ठेऊया

© श्री राहुल लाळे

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #237 ☆ सफलता प्राप्ति के मापदंड… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सफलता प्राप्ति के मापदंड… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 237 ☆

सफलता प्राप्ति के मापदंड… ☆

अमिताभ बच्चन का यह संदेश जीवन की आदर्श राह दर्शाता है कि यदि आप जीवन में सफलता पाना और आनंदपूर्वक जीवन बसर करना चाहते हैं, तो यह पांच चीज़ें छोड़ दीजिए …सब को खुश करना, दूसरों से ज़्यादा उम्मीद करना, अतीत में जीना, अपने आप को किसी से कम आंकना व ज़्यादा सोचना बहुत सार्थक है, अनमोल है, अनुकरणीय है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी यह कहा गया है कि अतीत के गहन अंधकार से बाहर निकल, वर्तमान में जीना सीखो। जो गुज़र गया, लौट कर कभी आयेगा नहीं। सो! उसकी स्मृतियों को अपने आज को, वर्तमान को नष्ट न करने दो। रात्रि के पश्चात् स्वर्णिम भोर का स्वागत करो; उसकी ऊर्जा को ग्रहण करो। उसकी लालिमा तुम्हें ओज, बल, शक्ति व उम्मीदों से आप्लावित कर देगी। वर्तमान सत्य है, हक़ीक़त है, उसे स्वीकार्य व उपास्य समझो। जो आज है; वह कल लौटकर नहीं आएगा, इसकी महत्ता को स्वीकारो। अतीत में की गई ग़लतियों से शिक्षा ग्रहण करो… उन्हें दोहराओ नहीं, यह सर्वश्रेष्ठ उपहार है।

जो इंसान अपने कृत-कर्मों से सीख लेकर अपने वर्तमान को सुंदर बनाता है– वह श्रेष्ठ मानव है और जो उनसे सीख नहीं लेता, पुन: वही ग़लतियां दोहराता है, निकृष्ट मानव है; त्याज्य है; निंदा का पात्र बनता है और जो दूसरों की ग़लतियों से सीख लेकर उनसे बचता है; दूर रहता है; उन्हें त्याग देता है … वह सब सर्वश्रेष्ठ मानव है। ऐसे महापुरुष महात्मा बुद्ध, महावीर भगवान, गुरु नानक, महात्मा गांधी व अब्दुल कलाम की भांति सदैव स्मरण किए जाते हैं; युग-युगांतर तक उनकी उपासना व आराधना की जाती है; उनकी शिक्षाओं का बखान किया जाता है तथा वे अनुकरणीय हो जाते हैं… क्योंकि वे सदैव सत्कर्म करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।

इसलिए ‘जो अच्छा है, श्रेष्ठ है, उसे ग्रहण करना उत्तम है और जो अच्छा नहीं है, उसे त्याग देना ही श्रेयस्कर है।’ यदि हम उनकी आलोचना में अपना समय नष्ट कर देंगे, तो हमारा ध्यान उनके गुणों की ओर नहीं जाएगा और हम उस निंदा रूपी भंवर से कभी भी मुक्त नहीं हो पाएंगे। इस संदर्भ में मुझे एक महान् उक्ति का स्मरण हो रहा है, ‘यदि राह में कांटे हैं, तो उस पर रेड-कारपेट बिछाने का प्रयास करने की अपेक्षा अपने पांव में जूते पहनना बेहतर है। सो! हमें सदैव उसी राह का अनुसरण करना चाहिए, जो सुविधा- जनक हो; जिसमें कम समय व कम परिश्रम की आवश्यकता हो, न कि व्यवस्था व व्यक्ति विशेष की निंदा करना अर्थात् जो प्रकृति व परमात्मा द्वारा प्रदत्त है, उसमें से श्रेष्ठ चुनने की दरक़ार है। जो मिला है, उसमें संतोष करना अच्छा है, बेहतर है। इसके साथ-साथ गीता का निष्काम कर्म व कर्म-फल का संदेश हमारे भीतर नवीन ऊर्जा संचरित करता है तथा ‘शुभ कर्मण से कबहुं न टरूं’ का संदेश देता है। जीवन में निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, थककर बैठना नहीं चाहिए। जो लोग आत्म-संतोषी होते हैं, अर्थात् ‘जो मिला है, उसी में संतुष्ट रहते हैं, तो उन्हें  वही मिलता है, जो परिश्रमी लोगों के ग्रहण करने के पश्चात् शेष बच जाता है। अब्दुल कलाम का यह संदेश अनुकरणीय है कि जो लोग भाग्यवादी होते हैं, आलसी कहलाते हैं। वे नियति पर विश्वास कर संतुष्ट रहते हैं कि जो हमारे भाग्य में लिखा था, वह हमें मिल गया है।

यह नकारात्मक भाव जीवन में नहीं आने चाहिएं। यदि आप सागर के गहरे जल में नहीं उतरेंगे, तो अनमोल मोती कहां से लाएंगे? सो! साहिल पर बैठे रहने वाले उस आनंद व श्रेष्ठ सीपियों से वंचित रह जाते हैं। प्रथम सीढ़ी पर कदम न रखने वाले अंतिम सीढ़ी तक पहुंचने की कल्पना भी नहीं कर पाते, उनके लिए आकाश की बुलंदियों को छूने की कल्पना बेमानी है। मुझे याद आ रही हैं, कवि दुष्यंत की वे पंक्तियां, ‘कौन कहता है/ आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो’ सकारात्मकता का संदेश देती हैं। हमें मंज़िल पर पहुंचने से पहले थककर नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि बीच राह से लौटने में उससे भी कम समय लगेगा और आप अपनी मंज़िल पर पहुंच जाएंगे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘एकला चलो रे’ कविता हमें यह संदेश देती है… जीवन की राह पर अकेले आगे बढ़ने का, क्योंकि ज़िंदगी के सफ़र में साथी तो बहुत मिलते हैं और छूट जाते हैं। उनका साथ देने के लिए बीच राह में रुकना श्रेयस्कर नहीं है और न ही उनकी स्मृतियों में अवगाहन कर अपने वर्तमान को नष्ट करने का कोई औचित्य है।

एकांत सर्वश्रेष्ठ उपाय है– आत्मावलोकन का, अपने अंतर्मन में झांकने का, क्योंकि मौन नव-निधियों को अपने आंचल में समेटे है। मौन परमात्मा तक पहुंचने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है और मौन रूपी साधना द्वारा हृदय के असंख्य द्वार खुलते हैं; अनगिनत रहस्य  उजागर होते हैं और आत्मा-परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है… यह ‘एकोहम्-सोहम्’ की स्थिति कहलाती है, जिससे मानव बाहर नहीं आना चाहता। यह कैवल्य की स्थिति है, जीते जी मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।

आइए! हम चर्चा करते हैं… स्वयं को किसी से कम नहीं आंकने व अधिक सोचने की, जो आत्मविश्वास को सर्वोत्तम धरोहर स्वीकार उस पर प्रकाश डालता है, क्योंकि अधिक सोचने का रोग हमें पथ-विचलित करता है। व्यर्थ का चिंतन, एक ऐसा अवरोध है, जिसे पार करना कठिन ही नहीं, असंभव है। आत्मविश्वास वह शस्त्र है, जिसके द्वारा आप राह की आपदाओं को भेद सकते हैं। इसके लिए आवश्यकता है, प्रबल इच्छा-शक्ति की… यदि आपका निश्चय दृढ़ है और आप में अपनी मंज़िल पर पहुंचने का जुनून है, तो लाख बाधाएं भी आपके पथ में अवरोधक नहीं बन सकतीं। इसके लिए आवश्यकता है…एकाग्रता की; एकचित्त से उस कार्य में जुट जाने की और लोगों के व्यंग्य-बाणों की परवाह न करने की, क्योंकि ‘कुछ तो लोग कहेंगे/ लोगों का काम है कहना’ अर्थात् दूसरों को उन्नति की राह पर अग्रसर होते देख, उनके सीने पर सांप लोटने लग जाते हैं और वे अपनी सारी शक्ति, ऊर्जा व समय उस सीढ़ी को खींचने व निंदा कर नीचा दिखाने में लगा देते हैं। ईर्ष्या-ग्रस्त मानव इससे अधिक और कर भी क्या सकता है? उस सामर्थ्यहीन इंसान में इतनी शक्ति, ऊर्जा व सामर्थ्य तो होती ही नहीं कि वह उनका पीछा व अनुकरण कर उस मुक़ाम तक पहुंच सके। सो! वह उस शुभ कार्य में जुट जाता है, जो उसके लिए शुभाशीष के रूप में फलित होता है। परंतु यह तभी संभव हो पाता है, यदि उसकी सोच सकारात्मक हो। इस स्थिति में वह जी-जान से अपने लक्ष्य की प्राप्ति में जुट जाता है। अगर वह अधिक बोलने वाला प्राणी है, तो उसका सारा ध्यान व्यर्थ की बातों की ओर केंद्रित होगा तथा वह मायाजाल में उलझा रहेगा। यदि परिस्थितियां उसके अनुकूल न रहीं, तो वह क्या करेगा और उसके परिवार का क्या होगा और यदि उसे बीच राह से लौटना पड़ा, तो…तो क्या होगा…वह इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने में स्वयं को असमर्थ पाता है। सो! अधिक सोचना आधि अथवा मानसिक रोग है, जिससे मानव अपनी प्रबल इच्छा-शक्ति व ऊर्जा के बिना लाख प्रयास करने पर भी उबर नहीं पाता।

जहां तक स्वयं को कम आंकने का प्रश्न है… वह आत्मविश्वास की कमी को उजागर करता है। मानव असीमित शक्तियों का पुंज है, जिससे वह अवगत नहीं होता। आवश्यकता है, उन्हें पहचानने की, क्योंकि घने अंधकार में एक जुगनू भी पथ आलोकित कर सकता है… एक दीपक में क्षमता है; अमावस के निविड़ अंधकार का सामना करने की, परंतु मूढ़ मानव न जाने इतनी जल्दी अपनी पराजय क्यों स्वीकार कर लेता है। विषम परिस्थितियों में वह थक-हार कर, निष्क्रिय होकर बैठ जाता है। अक्सर तो वह साहस ही नहीं जुटाता और उस राह पर अपने कदम बढ़ाता ही नहीं, क्योंकि वह अपनी आंतरिक शक्तियों व सामर्थ्य से परिचित नहीं होता। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वरचित काव्य- संग्रह अस्मिता की पंक्तियां ‘औरत! तुझे इंसान किसी ने माना नहीं/ तू जीती रही औरों के लिए/ तूने आज तक/ स्वयं को पहचाना नहीं’ के साथ-साथ मैंने ‘नारी! तू नारायणी बन जा, कलयुग आ गया है/ तू दुर्गा, तू काली बन जा/ कलयुग आ गया है’ के माध्यम से अपनी शक्तियों को पहचानने के साथ-साथ नारी को दुर्गा व काली बनकर शत्रुओं का मर्दन करने का संदेश दिया है। इसलिए मानव को कभी स्वयं को दूसरों से कम नहीं आंकना चाहिए। यदि हम इस रोग से मुक्ति पा लेंगे, तो हम सब को खुश करने व दूसरों से ज़्यादा उम्मीद करने के चक्कर में उससे मुक्त हो जाएंगे।

‘यदि किसी व्यक्ति के शत्रु कम है या नहीं हैं, तो उसने जीवन में बहुत से समझौते किए होंगे’ उक्त भाव की अभिव्यक्ति करता है। हमें दूसरों की खुशी का ध्यान तो रखना चाहिए, परंतु अपनी भावनाओं- इच्छाओं को अपने हाथों रौंद कर अथवा मिटाकर नहीं, क्योंकि हमारे लिए आत्म-सम्मान को बरक़रार रखना अपेक्षित है। वास्तव में जो स्वार्थ हित दूसरों की खुशी के लिए कुछ भी कर गुज़रते हैं, वे चाटुकार कहलाते हैं। हमें रीतिकालीन कवियों बिहारी, केशव आदि की भांति केवल आश्रयदाताओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन नहीं करना है, बल्कि उन्हें उनके कर्तव्य-पथ से अवगत कराना है … ‘नहीं पराग नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो,आगे कौन हवाल’ के द्वारा बिहारी ने राजा जयसिंह को अपने दायित्व के प्रति सजग रहने का संदेश दिया था। साहित्य में जहां सबको साथ लेकर चलने का भाव समाहित है; वहीं साहित्य का सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् भाव से आप्लावित होना भी अपेक्षित है।  वास्तव में यही सामंजस्यता है।

आइए! इसी से जुड़े दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात कर लें, यदि हम बात करें कि ‘हमें दूसरों से ज़्यादा उम्मीद नहीं रखनी चाहिए क्योंकि इच्छाएं,आकांक्षाएं व  लालसाएं तनाव की जनक हैं। उम्मीद सुंदर भाव है; हमें प्रेरित करता है; परिश्रम करने का संदेश देता है तथा हमारे अंतर्मन में ऊर्जस्वित करता है तथा असीमित शक्तियों को संचरित करता है। इसके साथ ही वह स्वयं से अपेक्षा रखने का संदेश देता है, क्योंकि यदि मानव दूसरों से अधिक उम्मीद रखता है, तो उसके एवज़ में उसे अपने आत्मसम्मान का अपने हाथों से क़त्ल कर, उसके कदमों में बिछ जाना पड़ता है और कठपुतली की भांति उसके इशारों पर नाचना पड़ता है; उसके दोषों पर परदा डाल उसका गुणगान करना होता है। अनेक बार हर संभव प्रयास करने के पश्चात् भी जब हमें मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो हम चिन्ता व अवसाद के व्यूह से बाहर आने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। अर्थशास्त्र का नियम भी यही है कि ‘अपनी इच्छाओं को सीमित रखो और उन पर अंकुश लगाओ।’ इसके साथ यह भी आवश्यक है कि दूसरों से कभी भी उम्मीद मत रखो, क्योंकि मनचाहा न मिलने पर निराशा का होना स्वाभाविक है। मुझे याद आ रहा है वह प्रसंग, जब एक संत प्रजा के हित में राजा से कुछ मांगने के लिए गया और वहां उसने राजा को सिर झुकाए इबादत करते हुए देखा, तो वह तुरंत वहां से लौट गया। राजा उस संत के लौटने की खबर सुन उससे मिलने कुटिया में गया और उसने वहां आने का प्रयोजन पूछा। संत ने स्पष्ट शब्दों में कहा’ जब मैंने आपको ख़ुदा की इबादत में मस्तक झुकाए इल्तिज़ा करते देखा, तो मैंने सोचा– आपसे क्यों मांगूं, उस दाता से सीधा ही क्यों न मांग लूं।’ यह दृष्टांत मानव की सोच बदलने के लिए काफी है। सो! मानव का मस्तक सदैव ख़ुदा के दर पर ही झुकना चाहिए; व्यक्ति की अदालत में नहीं, क्योंकि वह सृष्टि-नियंता ही सबका दाता है, पालनहार है। इसी संदर्भ में गुरु नानक देव जी का यह संदेश भी उतना ही सार्थक है ‘जो तिद् भावे,सो भली कार’…ऐ! मालिक वही करना, जो तुझे पसंद हो, क्योंकि तू ही जानता है; मेरे हित में क्या है? यह है सर्वस्व समर्पण की स्थिति, जिसमें मानव में मैं और तुम का भाव समाप्त हो जाता है। उसे केवल ‘तू और तेरा ही’ नज़र आता है। यह है तादात्म्य की मनोदशा, जहां अहं विगलित हो जाता है… केवल उस नियंता का अस्तित्व शेष रह जाता है। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए हठयोगी हजारों वर्ष तक एक ही मुद्रा में तपस्या करते हैं और मानव इस स्थिति को पाने के लिए लख चौरासी योनियों में भटकता रहता है।

अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि बच्चन जी का यह संदेश सफलता पाने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है; शांत मन से जीवन जीने की कला है; मैं से तुम हो जाने का सर्वोत्तम ढंग है… उपरोक्त पांच चीज़ो का त्याग कर आप आनंदमय जीवन बसर कर सकते हैं। सो! इसमें निहित हैं–समस्त दैवीय गुण। यदि आप इस मार्ग को जीवन में अपना लेते हैं, तो शेष सब पीछे-पीछे स्वत: चले आते हैं। ‘एक के साथ एक फ्री’ का प्रचलन तो आधुनिक युग में भी प्रचलित है। यहां तो आप उस नियंता की शरण में अपना अहं विसर्जित कर दीजिए; जीवन की सब समस्याओं-इच्छाओं का स्वत: शमन हो जाएगा और मानव  ‘मैं व मेरा भाव’ से विमुक्त हो जाएगा और ‘तू ही तू और तेरा भाव में परिवर्तित हो जाएगा, जिसकी चाहत हर इंसान को आजीवन रहती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि –  अंतरा (काव्य संग्रह) –  कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी  ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? समीक्षा का शुक्रवार # 1 ?

? संजय दृष्टि –  अंतरा (काव्य संग्रह) –  कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक – अंतरा

विधा – कविता

कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी

? पार्थिव यात्रा और शाश्वत कविता – श्री संजय भारद्वाज ?

रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएँ हैं। इसी प्रकार अभिव्यक्ति, मनुष्य की मूलभूत मानसिक आवश्यकता है। संवेदनाएँ भावात्मक विरेचन से ही प्रवहमान रहती हैं। भावात्मक विरेचन एवं व्यक्तित्व के चौमुखी विकास में काव्य कला को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भाग्यवान हैं वे लोग जो लेखनी द्वारा उद्भूत शब्दों के माध्यम से व्यक्त हो  पाते हैं। डॉ. पुष्पा गुजराथी उन्हीं सौभाग्यशाली लोगों में से एक हैं।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है,‘पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भूत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है। कवयित्री डॉ. पुष्पा गुजराथी के क्षितिज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रस्तुत कवितासंग्रह ‘अंतरा’ में यह प्रवाह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

कविता संवेदना की धरती पर उगती है। संवेदना मनुष्य की दृष्टि को उदात्त करती है। उदात्त भाव सकारात्मकता के दर्शन करता है-

पर

तुझे पता भी है?

पत्थर के बीच

झरना भी बहता है..!

कविता के उद्भव में विचार महत्वपूर्ण है। अवलोकन से उपजता है विचार। पुष्पा जी के सूक्ष्म अवलोकन का यह विराट चित्र प्रभावित करता है-

चिता पर रखी लकड़ी पर,

एक पौधे ने

खुलकर अंगड़ाई ली..!

विचार को अनुभव का साथ मिलने पर कविता युवतर पीढ़ी के लिए जीवन की राह हो जाती है-

अब मैैं

तुम्हारी आँखों के आकाश से

नीचे उतर जाती हूँ, क्योंकि-

आकाश में

घर तो बनता नहीं कभी..!

कवयित्री की भावाभिव्यक्ति के साथ पाठक समरस होता है। यह समरसता, व्यक्तिगत को समष्टिगत कर देती है। यही पुष्पा गुजराथी की कविता की सबसे सफलता है।

यूँ तो गैजेट के पटल पर एक क्लिक से सब कुछ डिलीट किया जा सकता है पर मानसपटल का क्या करें जहाँ ‘अन-डू’ का विकल्प ही नहीं होता।

अभी कुछ शेष है,

देह के कंकाल में

जो मुक्त होना नहीं चाहता,

गहरा अंतर तक खुद गया है,

यह ‘कुछ’ डिलीट नहीं होता..!

पूरे संग्रह में विशेषकर स्त्रियों द्वारा भोगी जाती उपेक्षा, टूटन की टीस प्रतिनिधि स्वर बनकर उभरती हैं।

हर बार वह

झुठला दी जाती,

अपनी क़ब्र में

दफ़न होने के लिए..

समय साक्षी है कि हर युग में स्त्री की भावनाओं, उसके अस्तित्व को दफ़्न करने के कुत्सित प्रयास हुए पर अपनी जिजीविषा से हर बार वह अमरबेल बनकर अंकुरित होती रही, विष-प्राशन कर मीरा बनती रही।

विष पीकर

वह निखरती रही,

मीरा बनती रही..

कवयित्री के अंतस में करुणा है, नेह है। विष पीनेवाली को भी एक अगस्त्य की प्रतीक्षा है जो उसके हिस्से के ज़हर को अपना सके, जिसके सान्निध्य में वह स्वयं को सुरक्षित अनुभव कर सके।

मैं आँखें खोल देखती हूँ

तुम्हारे नीले पड़े होठों को,

तुम कुछ कहते नहीं,

बस उठकर चल देते हो,

मेरा ज़हर स्वयं में समेटकर..

इस संग्रह की रचनाओं में मनुष्य जीवन के विभिन्न रंग और उसकी विविध छटाएँ अभिव्यक्त हुई हैं। प्रेम, टीस, पर्यावरण विमर्श, मनुष्य का ‘कंज्युमर’ होना, अध्यात्म, दर्शन, अनुराग, वीतराग, आत्मतत्व, परम तत्व जैसे अन्यान्य विषय हैं। विषयों की यह विविधता कवयित्री के विस्तृत भाव जगत की द्योतक हैं। हिडिम्बा जैसे उपेक्षित पात्र की व्यथा को कविता में उतारना उनकी संवेदनशीलता तो दर्शाता ही है, साथ ही उनके अध्ययन का भी परिचायक है।

इहलोक की पार्थिव यात्रा में कविता के शाश्वत होने को कुछ यूँ भी समझा जा सकता है-

शाश्वत-अशाश्वत की

सीढ़ियाँ चढता-उतरता हुआ

जब भी लम्बी यात्रा

पर निकल पड़ता है..!

कामना है कि डॉ. पुष्पा गुजराथी की साहित्यिक यात्रा प्रदीर्घ हो, अक्षरा हो।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 11 – नवगीत – जीवन को वसंत करो… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – जीवन को वसंत करो

? रचना संसार # 11 – नवगीत – जीवन को वसंत करो…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

पतझड़ से इस जीवन को तुम,

आकर कंत वसंत करो।

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला ,पंत करो।।

 *

शब्द -शब्द  माणिक कर  दो तुम,

भरो प्रेम की गागर तुम।

गुंजित सारा जग हो जाए,

वंशी तुम नटनागर तुम।।

भाव  सुपावन गंगाजल कर,

लेखन को जीवंत करो।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

 *

श्वेता की वीणा बजती हो,

सात सुरों की सरगम हो।

अलंकार रस छंद  निराले,

नवल सृजन का उद्गम हो,

नव रस की रसधारा में तुम,

पीडाओं का अंत करो।

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

 *

निष्ठाओं की डोर पकड़कर ,

तन -मन अर्पण करना है।

दिनकर -सा उजियारा करने ,

सार्थक चिंतन  करना है।।

जग -कल्याण भावना रखकर,

मन को सज्जन संत करो ।

जीवन को वसंत करो

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला ,पंत करो।।

 *

शब्द -शब्द  माणिक कर  दो तुम,

भरो प्रेम की गागर तुम।

गुंजित सारा जग हो जाए,

वंशी तुम नटनागर तुम।।

भाव  सुपावन गंगाजल कर,

लेखन को जीवंत करो।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

श्वेता की वीणा बजती हो,

सात सुरों की सरगम हो।

अलंकार रस छंद  निराले,

नवल सृजन का उद्गम हो,

नव रस की रसधारा में तुम,

पीडाओं का अंत करो।।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

निष्ठाओं की डोर पकड़कर ,

तन -मन अर्पण करना है।

दिनकर -सा उजियारा करने ,

सार्थक चिंतन  करना है।।

जग -कल्याण भावना रखकर,

मन को सज्जन संत करो ।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “तालियां बजाते रहो…”(व्यंग्य संग्रह)– श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” जी की कृति “तालियां बजाते रहो… “ की समीक्षा)

श्री सुरेश मिश्र “विचित्र”

☆ “तालियां बजाते रहो… ”(व्यंग्य संग्रह)– श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ 

(आज 22 जून को विमोचन पर विशेष)

पुस्तक चर्चा 

कृतिकार सुरेश मिश्र “विचित्र” के श्रेष्ठ व्यंग्य

विषयों के चयन, निर्भीक कथन और सहज – सरल चुटीली प्रवाह पूर्ण भाषा शैली के कारण व्यंग्यकार सुरेश मिश्र “विचित्र” ने व्यंग्यकारों और पाठकों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। यों विचित्र जी एक अच्छे कवि भी हैं। उनकी कविताओं में भी सहज ही व्यंग्य उपस्थित हो जाता है। विगत कुछ समय से उनके द्वारा लिखे जा रहे “यह जबलपूर है बाबूजी” में पाठकों को काव्य और व्यंग्य का दोहरा मजा आ रहा है। आज विचित्र जी के नवीन व्यंग्य संग्रह “तालियां बजाते रहो” का विमोचन हो रहा है। मुझे विश्वास है कि विचित्र जी के इस व्यंग्य संग्रह को भी पाठकों का भरपूर स्नेह प्राप्त होगा। किसी भी लेखक की सफलता इस बात में है कि जब पाठक उसकी रचना पढ़ना प्रारंभ करे तो उसकी रोचक शुरूआत में ऐसा फंसे की पूरी रचना पढ़ने पर मजबूर हो जाए। देश के अनेक दिग्गज कहे जाने वाले व्यंग्यकारों में पाठकों को अपनी रचना से बांधने का जो कला कौशल नहीं है वह कला भाई विचित्र जी के लेखन में है। इसलिए वे पढ़े भी जाते हैं और लोकप्रिय भी हैं। यह बात अलग है कि समझ में न आने वाला लिखने वाले जोड़ तोड़ से निरंतर सरकारी व गैरसरकारी सम्मान अर्जित कर रहे हैं, स्वयं अपने श्रेष्ठ होने का डंका बजवा रहे हैं। मैं समझता हूं कि लेखक का असली सम्मान उसके लेखन को समझने वाले, उसमें रस लेने वाले, उसकी प्रशंसा करने वाले पाठकों की संख्या से होता है जो विचित्र जी के पास है।

“तालियां बजाते रहो” व्यंग्य संग्रह में विभिन्न विषयों, संदर्भों पर 35 व्यंग्य रचनाएं हैं। इनमें राजनैतिक व्यस्था – उथलपुथल, विसंगतियों, विद्रूपता, अतिवाद, भ्रष्टाचार, कुत्सित मानवीय प्रवृत्तियों आदि को आधार बना कर व्यंग्य की चुटकी लेते हुए रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के नाम “तालियां बजाते रहो” शीर्षक से रचित व्यंग्य में विचित्र जी ने तालियां बजवाने और बजाने वालों के साथ साथ तालियों के प्रकार पर व्यापक चर्चा करते हुए उसके विविध अर्थ प्रकट किए हैं। संग्रह में तबादलों का मौसम खंड वृष्टि जैसा, पैजामा खींच प्रतियोगिता, वृद्धाश्रम का बढ़ता हुआ दायरा, भविष्यवाणियों का दौर जारी है, तृतीय विश्वयुद्ध के नगाड़े बज रहे, गधों को गधा मत कहो, नैतिकता के बदलते मापदंड, मेरे सफेद बाल जैसी संवेदना से भरपूर मारक व्यंग्य रचनाएं हैं। पाठक एक रचना पढ़ने के बाद तुरन्त ही दूसरी रचना पढ़ने के लिए बाध्य हो जायेगा।

“साहित्य सहोदर” संस्था के संस्थापक सुरेश मिश्र “विचित्र” वर्षों से समारोह पूर्वक कबीर जयंती समारोह माना रहे हैं। वे कबीर को सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार मानते हैं और उनकी रचनाओं का अध्ययन मनन करके, उनसे प्रेरणा प्राप्त करके ही उन्होंने लेखन की व्यंग्य विधा को चुना है। मैं समझता हूं कि न सिर्फ विचित्र जी वरन किसी भी रचनाकार की तुलना किसी भी अन्य रचनाकार से नहीं की जा सकती क्योंकि प्रत्येक रचनाकार का समयकाल, बचपन, उसका पालन पोषण, पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा, मित्र, पेशा, परेशानियों आदि का संयुक्त प्रभाव उसकी मनोदशा का निर्माण करता है जो उसकी रचनाओं में परिलक्षित होता है। अतः परसाई जी, शरद जोशी या किसी भी अन्य वर्तमान व्यंग्यकार से सुरेश मिश्र “विचित्र” की कोई तुलना नहीं। विचित्र जी “विचित्र” हैं और सदा सबसे अलग लिखने, दिखने वाले “विचित्र” रहेंगे। कृति विमोचन के अवसर पर सभी मित्रों, प्रशंसकों की ओर से उन्हें बहुत बहुत बधाई, मंगलकामनाएं। उनकी कलम निरंतर चलती रहे।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares