(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -27 – भगत सिंह और पाश से जुड़ने के दिन… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)
चंडीगढ़ के मित्रों के नाम या उनका काम, स्वभाव बताते संकोच नहीं हुआ। इतने दिन में दो बार बड़े भाई जैसे मित्र फूल चंद मानव का कहीं कहीं थोड़ा सा जिक्र जरूर आया। आज चलता हूँ उनकी ओर ! फूल चंद मानव नाभा से संबंध रखते हैं और नाभा एक ही बार देखा जब इनकी शादी में एक बाराती बन कर वहाँ से दिल्ली गया था। कब और कैसे परिचय हुआ, यह तो अब ठीक ठीक सा याद नही आ रहा पर ये उन दिनों पंजाब के सूचना व सम्पर्क विभाग में कार्यरत थे। सेक्टर सताइस में आवास मिला हुआ था। इनका छोटा भाई रमेश और मां भी इनके साथ रहते थे। लेखन का जोश, ज़ज्बा और सरकारी नौकरी। फिर वे उन दिनों मुख्यमंत्री ज्ञानी ज़ैल सिंह के पीआरओ भी बने, जिसका नशा आज भी इनकी बातों में झलक जाता है। समझिये कि पत्रकारिता का अनुभव भी यहीं हो गया ! फिर इन्हें पंजाब की हिंदी पत्रिका ‘ जागृति’ के संपादन का सुनहरी अवसर भी मिला, जिस पर मानव अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे। उन दिनों मुझे मानव ने प्रसिद्ध व्यंग्यकार व पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डाॅ इंद्रनाथ मदान, बलवंत रावत, बलराज जोशी और एक बार दिल्ली से आईं लेखिका देवकी अग्रवाल आदि कितने ही रचनाकारों से परिचय का अवसर दिया। बलवंत रावत डाॅ योजना रावत के पिता हैं जबकि बलराज जोशी कार्टूनिस्ट संदीप जोशी के पिता थे। इस तरह ये फूल चंद मानव का ही कमाल था कि एक ही परिवार की दो दो पीढ़ियों के सदस्यों से मिलने का अवसर बना दिया।
मुख्य तौर पर आज फूल चंद मानव को एक शानदार अनुवादक व कवि के रूप में जाना जाता है जबकि सबसे पहले इनका कहानी के प्रति जुनून था और इनकी कहानी ‘ अंजीर’ उन दिनों ‘ “धर्मयुग’में प्रकाशित हुई थी और इसी शीर्षक से इनका कथा संग्रह भी आया था। इसी कथा संग्रह की समीक्षा लिखने का अवसर देकर मानव ने मुझ अनाड़ी खिलाड़ी को समीक्षा क्षेत्र में उतार दिया यानी यह रूप मिला ‘अंजीर’ से, जिसका क, ख, ग भी मैं नहीं जानता था। जाहिर है कि यह समीक्षा जागृति में आई।
जब मैं बीए प्रधम वर्ष का छात्र था नवांशहर के आर के आर्य काॅलेज में, तब हमारे हिंदी प्राध्यापक डाॅ महेंद्र नाथ शास्त्री के स़पादन में मैंने सन् 1970 में लघु पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया तो फूल चंद मानव और मैं संपादन सहयोगी बन गये। यह वही पत्रिका है, जिसके पहले अंक में मेरी पहली लघुकथा आई और दूसरा ही अंक लघुकथा विशेषांक रहा, जो हिंदी के पहले पहले लघुकथा विशेषांकों में एक है और वह भी पंजाब जैसे अहिंदी भाषी क्षेत्र से, इसलिए इसकी चर्चा उन दिनों ‘सारिका’ के नयी पत्रिकाओं काॅलम में भी हुई !
उन दिनों पंजाब में नक्सलवादी आंदोलन चल रहा था, जिसके मुख्य केन्द्र खटकड़ कलां व निकटवर्ती गांव मंगूवाल ही थे और मेरी अनियतकालीन पत्रिका ‘प्रयास’ भी सीआईडी के निशाने पर आ गयी ! यह बात मुझे खुद सीआईडी के उस इ़ंस्पेक्टर ने बताई, जिसकी ड्यूटी मेरी डाक से आई चिट्ठियों को गुप्त रूप से पढ़ने की एक माह तक लगाई गयी थी। मैं खुद डाकखाने में अपनी डाक लेने जाता था तो एक दिन हमारे इलाके के डाकिए रामकिशन ने कहा कि एक इंस्पेक्टर तुमसे मिलना चाहता है। वह मुझे इंस्पेक्टर के पास ले गया और इंस्पेक्टर मुझे देखता ही रह गया ! फिर बोला कि आप मुझे जानते नहीं बेटे लेकिन मुझे बताना नहीं चाहिए था फिर भी तुम्हारी उम्र देखकर बताना पड़रहा है कि मैं सीआईडी इंस्पेक्टर हूं और एक महीने तक तुम्हारी डाक सेंसर करने का आदेश था। मैं पहले आप की डाक देखता था और बाद में वैसी की वैसी पैक कर आपको मिलती थी।
– ऐसा क्यों?
– आप नही जानते कि अनियतकालीन पत्रिकाओं का प्रकाशन मुख्य तौर पर आजकल नक्सलवादी विचारधारा के लोग करते हैं लेकिन एक माह तक सेंसर किये जाने के बावजूद आपके खिलाफ कोई ऐसा सबूत नहीं मिला जो रिपोर्ट मैं देने जा रहा हूँ लेकिन आपकी छोटी उम्र देखकर सलाह देता हूं कि यदि पत्रिका निकालनी ही है तो इसे रजिस्टर्ड करवा लो।
– कैसे करवाते हैं?
– जालंधर जाओ और डी सी ऑफिस में रजिस्ट्रार ऑफ न्यूज पेपर के ऑफिस में फाॅर्म भर आओ ! इस तरह मैंने फाॅर्म भरा जालंधर जाकर और अनियतकालीन पत्रिका ‘प्रयास’ से ‘प्रस्तुत’ बन गयी! ऐसे सरकार की नज़र में चढ़ने से पहले पहले उस इंस्पेक्टर ने मुझे अपने बेटे की तरह सही राह बता दी। जिन दिनों मैं एम ए, बीएड कर खटकड़ कलां यानी शहीद भगत सिंह के पैतृक गांव में गवर्नमेंट आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल में पहले हिंदी प्राध्यापक और बाद में कार्यकारी प्रिंसिपल बना, उन दिनों खटकड़ कलां व मंगूवाल के दर्शन खटकड़ व इनके छोटे भाई जसवंत खटकड़ , छात्र नेता परमजीत पम्मी व पुनीत सहगल आदि से स्कूल में इनसे परिचय हुआ और इनके नाटक लोहा कुट्ट ( बलवंत गार्गी) को देखने का अवसर अनेक बार मिला और यही खटकड़ कलां में मुझे शहीद भगत सिंह के सारे परिवारजनों से मिलने का अवसर मिला जिसके आधार पर मैंने तेइस पेज लम्बा आलेख लिखा – भगत सिंह के पुरखों का गांव ! इसे तब सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक ‘ धर्मयुग’ ने प्रमुख तौर पर प्रकाशित किया, जिसके चलते ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के उस समय समाचार संपादक सत्यानंद शाकिर ने मेरी पीठ थपथपाई थी और सहायक संपादक विजय सहगल ने कहा था कि तुमने तो भगत सिंह पर रिसर्च ही कर डाली ! यह भी बता दूँ कि मेरे आलेख वाली प्रतियां राज्यसभा में लहराई गयी थीं, जिसके बाद ही खटकड़ कलां में शहीद भगत सिंह स्मारक बनाने का ख्याल सरकार को आया और भगत सिंह को सही श्रद्धांजलि!! यह मेरा कलम का कमाल ही रहा।
खैर, वापस फूल चंद मानव की ओर आता हूँ। मानव बठिंडा में हिंदी लैक्चरर बन कर चले गये और कुछ वर्ष तक हमारा सम्पर्क टूटा रहा !
इधर मैं खटकड़ कलां से जुड़ता गया वामपंथी नाटककार भाजी गुरशरण सिंह से, क्रांतिकारी कवि पाश, दर्शन खटकड़, हरभजन हल्वारवी से ही नहीं बल्कि शहीद भगत सिंह के भांजे प्रो जगमोहन सिंह से, जो उन दिनों ‘भगत सिंह व उनके साथियों के दस्तावेज’ पुस्तक डाॅ चमन लाल के सहयोग से तैयार कर रहे थे, कुछ कुछ मेरा भी सहयोग रहा इसमें ! पाश की कविताओं ने सबको अचंभित कर दिया और
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
जो आज बहुचर्चित और बहुपठित कविता है ! पाश से तीन चार मिलना भी हुआ, इन्हीं दिनों ! मैंने ‘धर्मयुग’ वाले आलेख में लिखा था कि यदि कुरूक्षेत्र की धरती आज भी लाल पाई जाती है तो भगत सिंह के गांव की माटी भी आज तक लाल ही है ! यह विचार की धरती है, क्रांति की धरती है और मै इस रंग में रंगता चला गया ! प्रिंसिपल के साथ एक ऐसा रिपोर्टर जिससे ‘धर्मयुग’ ने लगातार तीन वर्ष भगत सिंह के शहीदी दिवस मेले की कवरेज करवाई ! फिर पाश विदेश चला गया लेकिन एक वर्ष वह भारत लौटा और शहीदी दिवस पर खटकड़ कलां भगत सिंह को नमन् करने आया और निकटवर्ती गांव काहमा गांव में वह उग्रवादियों की गोलियों का शिकार बना। एक ही दिन भगत सिंह और पाश का बन गया ! तब तक मैं दैनिक ट्रिब्यून के संपादक मंडल का हिस्सा बन चुका था और वही बात अपने प्रिय कवि पाश के बारे में लिखने का जिम्मा मुझे ही सौ़प दिया विजय सहगल ने , मेरे अतीत को जानते हुए। पाश के तीनों काव्य संग्रह खरीद कर लाया और उसकी मुलाकातों में खोये लिखा ! एक कविता जिसे मैं आज भी अपनी बेटी रश्मि को सुनाया करता हूँ, इसका अंश है :
इह चिड़ियां दा चम्बा
इहने किते नहीं जाना !
इहने ब्याह तों बाद
इक खेत तों उठके
बस दूजे पिंड दे खेत विच
उही घाह कटना!
इह चिड़ियां दा चम्बा
किते नईं जाना!
आज शहीद भगत सिंह और पाश की यादों में खो गया, फूल चंद मानव की बाकी कहानी फिर सही !
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “रूहे उदास को कुछ लगा यूँ…” ।)
ग़ज़ल # 130 – “रूहे उदास को कुछ लगा यूँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “दुनियां में अकेले हैं…”। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा # 187 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – दुनियां में अकेले हैं… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
☆
दुनियाँ में अकेले हैं नहीं कोई हमारा, तकदीर के मारों का भला कौन सहारा ?
सरिता ने बुझाई मुझे जीवन की पहेली, देती रही हैं हौसला बस लहरें अकेली ।
दिखता जिन्हें है दूर का भी पास किनारा ।।१।।
*
दुनियाँ में अकेले हैं
थक के हों चूर, ओठों में होंगी नहीं आहें ये पग न डगमगायेंगे चलते हुये राहें
मिलती उसी को जीत जो मन से नहीं हारा ।।२।।
*
दुनियाँ में अकेले
कहते हैं उसे राह दिखाते हैं सितारे, चलता चले आगे कभी हिम्मत न जो हारे
सबसे बड़ा दुनियाँ में है अपना ही सहारा ।।३।।
*
दुनियाँ में अकेले
आ पहुंचे यहाँ तक जो तो फिर देर कहाँ है ? पाना है जिसे वो तो सभी पास यहां है।
छंद – शिकवणे, युट्युब वर व्हिडिओ निर्मिती, इंग्रजी व मराठी पुस्तकांचे वाचन, लिखाण (चारोळ्या, कविता, पुस्तक परीक्षण), साहित्यिकांना भेटणे व ऐकणे सूत्रसंचालन, व्याख्यान देणे इ.
पुस्तकांवर बोलू काही
☆ “आपले ‘से ‘” – लेखक : डॉ. अनिल अवचट ☆ परिचय – सौ. स्वाती सनतकुमार पाटील ☆
लेखक – डॉक्टर अनिल अवचट.
प्रकाशन वर्ष -२०१७.
पृष्ठ संख्या-१६८
मूल्य-२००
बहुआयामी व्यक्तिमत्व( डॉक्टर, लेखक ,संपादक ,काष्ठशिल्पकार, चित्रकार, बासरी वादक, गायक, ओरिगामी चे प्रणेते व समाजसेवक) डॉक्टर अनिल अवचट यांना त्यांच्या आयुष्यात अनेक व्यक्ती भेटल्या म्हणून त्यांचे आयुष्य समृद्ध झाले. गुणदोषांनी युक्त या सर्व व्यक्तींमधील चांगुलपणाचा मध त्यांनी टिपला व त्यांना ‘आपले’से’ केले, त्या अनुभवांचे संकलन म्हणजे हे पुस्तक आहे. या अर्थाने त्याचे शीर्षक व मुखपृष्ठ साजेशे व समर्पक आहे. या पुस्तकात विविध क्षेत्रातील 23 व्यक्तींना लेखकाने आपलेसे करून शब्दबद्ध केले आहे.
या पुस्तकात सुनीताबाई देशपांडेंचा तडफदार स्वभावाच्या असल्या तरी मुक्तांगण साठी बेभानपणे कार्य करताना दिसतात,गौरी देशपांडे या तर महर्षी कर्वे यांची नात -इरावती कर्वे यांची कन्या जिच्या बदल ते लिहितात-” समरस होऊन जीवन जगणारी एकटेपणाने शुष्क झाली .” सरोजिनी वैद्यांच्या पी.एच.डी. साठी ‘नाट्यछटाकार दिवाकर’ हा विषय अभ्यासताना स्कूटर वरून केलेली वणवण व लेखकाने हमालावर लेख लिहिला त्यावेळी “कादंबरीचा विषय फुकट घालवलास” असे हक्काने सांगणाऱ्या सरोजिनी वैद्य भेटतात. पुढे “बुडणारया बोटीत कशाला चढता राव” असे सांगणारे अनेक जण होते पण “पुढच्या लेखाचा ऍडव्हान्स समजा, हे पैसे घ्या. गो अहेड” असे म्हणणारे दत्ताराव भेटतात. तर वंचितांसाठी “पोट दुखतंय तोच ओवा मागतो” असे म्हणणारे यशवंतराव भेटतात. पुस्तकात कुठेतरी रद्दी वाले दामले थेट केशवसुतांचा वारसा सांगताना दिसतात. फिनिक्स चे ग्रंथपाल पोंडा तर तीन पिढ्यांना पुस्तक पुरवताना दिसतात. “सारे मुकाट्याने सहन करते म्हणून घराला घरपण येते “म्हणत लिव्हरची सुगरणीशी तुलना करणारी डॉक्टर मंजिरी भेटते तर कुठे केंद्र सरकारच्या खात्याचा प्रमुख असलेल्या अधिकाऱ्याच्या पोटी जन्मलेले नायर व्यसनी, गुन्हेगार, अज्ञात होऊन लेखकाच्या आयुष्यात येतो, लेखक त्याच्या व्यसनमुक्तीसाठी प्रयत्न करताना दिसतात व ते अजूनही आशावादी आहेत .पीक पॉकेटिंग करणारा व स्वतःला आर्टिस्ट म्हणून घेणारा गौतम तर त्याच्या सर्व कला मोकळेपणाने सांगतो. अशा लेखकाच्या आयुष्यात आलेल्या वेगवेगळ्या थरातील या सर्व लोकांच्यातील चांगुलपणाचा मध लेखकाने टिपला आणि स्वतःचं आयुष्य मधापरी गोड बनवले.
प्रकाशनावेळेच्या मुलाखतीत सर स्पष्टपणे सांगतात की या सर्व लोकांत त्यांना आपलेपण जाणवले. काहीतरी विशेष दिसले. म्हणून त्यांनी ते संकलित केले. या पुस्तकाचे आणखी एक वैशिष्ट्य म्हणजे यातील बहुसंख्य व्यक्ती या गेल्यानंतरच लेखकाने लिहिण्याचा हा प्रयत्न केला आहे .त्याबद्दलही ते स्वतःच्या मनास प्रश्न विचारताना दिसतात. आता मोकळेपणाने ते आपल्या भावना मांडू शकतात असे त्यांना वाटते.
स्वतः लेखकाचा विचार केला तर राहीबाईच्या भावंडांचा खर्च करणारे, ओरिगामी शिकवणारे, घर बांधून देणारे ,व्यसनमुक्तीसाठी धडपडणारे, सर्वांना मदत करणारे लेखक एक ‘माणूस’ म्हणून मोठे वाटतात .आणि आपल्या आयुष्यातही त्यांना ‘आपले’से’ करावेसे वाटते. असे हे पुस्तक वाचायलाच हवे…..
परिचय : सौ.स्वाती सनतकुमार पाटील.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सोच व संस्कार… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 242 ☆
☆ सोच व संस्कार… ☆
सोच भले ही नई रखो, लेकिन संस्कार पुराने ही अच्छे हैं और अच्छे संस्कार ही अपराध समाप्त कर सकते हैं। यह किसी दुकान में नहीं; परिवार के बुज़ुर्गों अर्थात् हमारे माता- पिता, गुरूजनों व संस्कृति से प्राप्त होते हैं। वास्तव में संस्कृति हमें संस्कार देती है, जो हमारी धरोहर हैं। सो! अच्छी सोच व संस्कार हमें सादा जीवन व तनावमुक्त जीवन प्रदान करते हैं। इसलिए जीवन में कभी भी नकारात्मकता के भाव को पदार्पण न होने दें; यह हमें पतन की राह पर अग्रसर करता है।
संसार में सदैव अच्छी भूमिका, अच्छे लक्ष्य व अच्छे विचारों वाले लोगों को सदैव स्मरण किया जाता है– मन में भी, जीवन में भी और शब्दों में भी। शब्द हमारे सोच-विचार व मन के दर्पण हैं, क्योंकि जो हमारे हृदय में होता है; चेहरे पर अवश्य प्रतिबिंबित होता है। इसीलिए कहा जाता है कि चेहरा मन का आईना है और आईने में वह सब दिखाई देता है; जो यथार्थ होता है। ‘तोरा मन दर्पण कहलाए/ भले-बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए।’ दूसरी ओर अच्छे लोग सदैव हमारे ज़ेहन में रहते हैं और हम उनके साथ आजीवन संबंध क़ायम रखना चाहते हैं। हम सदैव उनके बारे में चिन्तन-मनन व चर्चा करना पसंद करते हैं।
‘रिश्ते कभी ज़िंदगी के साथ नहीं चलते। रिश्ते तो एक बार बनते हैं, फिर ज़िंदगी रिश्तों के साथ चलती है’ से तात्पर्य घनिष्ठ संबंधों से है। जब इनका बीजवपन हृदय में हो जाता है, तो यह कभी भी टूटते नहीं, बल्कि ज़िंदगी के साथ अनवरत चलते रहते हैं। इनमें स्नेह, सौहार्द, त्याग व दैन्य भाव रहता है। इतना ही नहीं, इंसान ‘पहले मैं, पहले मैं’ का गुलाम बन जाता है। दोनों पक्षों में अधिकाधिक दैन्य व कर्त्तव्यनिष्ठा का भाव रहता है। वैसे भी मानव से सदैव परहिताय कर्म ही अपेक्षित हैं।
इच्छाएं अनंत होती है, परंतु उनकी पूर्ति के साधन सीमित हैं। इसलिए सब इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। सो! इच्छाओं की पूर्ति के अनुरूप जीने के लिए जुनून चाहिए, वरना परिस्थितियाँ तो सदैव मानव के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल रहती हैं और उनमें सामंजस्य बनाकर जीना ही मानव का लक्ष्य होना चाहिए। जो व्यक्ति इन पर अंकुश लगाकर जीवन जीता है, आत्म-संतोषी जीव कहलाता है तथा जीवन के हर क्षेत्र व पड़ाव पर सफलता प्राप्त करता है।
लोग ग़लत करने से पहले दाएँ-बाएँ तो देख लेते हैं, परंतु ऊपर देखना भूल जाते हैं। इसलिए उन्हें भ्रम हो जाता है कि उन्हें कोई नहीं देख रहा है और वे निरंतर ग़लत कार्यों में लिप्त रहते हैं। उस स्थिति में उन्हें ध्यान नहीं रहता कि वह सृष्टि-नियंता परमात्मा सब कुछ देख रहा है और उसके पास सभी के कर्मों का बही-खाता सुरक्षित है। सो! मानव को सत्य अपने लिए तथा सबके प्रति करुणा भाव रखना चाहिए – यही जीवन का व्याकरण है। मानव को सदैव सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए तथा उसका हृदय सदैव दया, करुणा, ममता, त्याग व सहानुभूति से आप्लावित होना चाहिए– यही जीने का सर्वोत्तम मार्ग है।
जो व्यक्ति जीवन में मस्त है; अपने कार्यों में तल्लीन रहता है; वह कभी ग़लत कार्य कर ही नहीं सकता, क्योंकि उसके पास किसी के विषय में सोचने का समय ही नहीं होता। इसलिए कहा जाता है कि खाली दिमाग़ शैतान का घर होता है अर्थात् ऐसा व्यक्ति इधर-उधर झाँकता है, दूसरों में दोष ढूंढता है, छिद्रान्वेषण करता है और उन्हें अकारण कटघरे में खड़ा कर सुक़ून पाता है। वैसे भी आजकल अपने दु:खों से अधिक मानव दूसरों को सुखी देखकर परेशान रहता है तथा यह स्थिति लाइलाज है। इसलिए जिसकी सोच अच्छी व सकारात्मक होती है, वह दूसरों को सुखी देखकर न परेशान होगा और न ही उसके प्रति ईर्ष्या भाव रखेगा। इसके लिए आवश्यक है प्रभु का नाम स्मरण– ‘जप ले हरि का नाम/ तेरे बन जाएंगे बिगड़े काम’ और ‘अंत काल यह ही तेरे साथ जाएगा’ अर्थात् मानव के कर्म ही उसके साथ जाते हैं।
‘प्रसन्नता की शक्ति बीमार व दुर्बल व्यक्ति के लिए बहुत मूल्यवान है’–स्वेट मार्टिन मानव मात्र को प्रसन्न रहने का संदेश देते हैं, जो दुर्बल का अमूल्य धन है, जिसे धारण कर वह सदैव सुखी रह सकता है। उसके बाद आपदाएं भी उसकी राह में अवरोधक नहीं बन सकती। कुछ लोग तो आपदा को अवसर बना लेते हैं और जीवन में मनचाहा प्राप्त कर लेते हैं। ‘जीवन में उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ यूं ही बेवजह न ग़िला किया कीजिए’ अर्थात् जो व्यक्ति आपदाओं को सहर्ष स्वीकारता है, वे उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। इसलिए बेवजह किसी से ग़िला-शिक़वा करना उचित नहीं है। ऐसा व्यवहार करने की प्रेरणा हमें अपनी संस्कृति से प्राप्त होती है और ऐसा व्यक्ति नकारात्मकता से कोसों दूर रहता है।
गुस्सा और मतभेद बारिश की तरह होने चाहिए, जो बरसें और खत्म हो जाएं और अपनत्व भाव हवा की तरह से सदा आसपास रहना चाहिए। क्रोध और लोभ मानव के दो अजेय शत्रु हैं, जिन पर नियंत्रण कर पाना अत्यंत दुष्कर है। जीवन में मतभेद भले हो, परंतु मनभेद नहीं होने चाहिएं। यह मानव का सर्वनाश करने का सामर्थ्य रखते है। मानव में अपनत्व भाव होना चाहिए, जो हवा की भांति आसपास रहे। यदि आप दूसरों के प्रति स्नेह, प्रेम तथा स्वीकार्यता भाव रखते है, तो वे भी त्याग व समर्पण करने को सदैव तत्पर रहेंगे और आप सबके प्रिय हो जाएंगे।
ज़िंदगी में दो चीज़ें भूलना अत्यंत कठिन है; एक दिल का घाव तथा दूसरा किसी के प्रति दिल से लगाव। इंसान दोनों स्थितियों में सामान्य नहीं रह पाता। यदि किसी ने उसे आहत किया है, तो वह उस दिल के घाव को आजीवन भुला नहीं पाता। इससे विपरीत स्थिति में यदि वह किसी को मन से चाहता है, तो उसे भुलाना भी सर्वथा असंभव है। वैसे शब्दों के कई अर्थ निकलते हैं, परंतु भावनाओं का संबंध स्नेह,प्यार, परवाह व अपनत्व से होता है, जिसका मूल प्रेम व समर्पण है।
इनका संबंध हमारी संस्कृति से है, जो हमारे अंतर्मन को आत्म-संतोष से पल्लवित करती है। कालिदास के मतानुसार ‘जो सुख देने में है, वह धनार्जन में नहीं।’ शायद इसीलिए महात्मा बुद्ध ने भी अपरिग्रह अर्थात् संग्रह ना करने का संदेश दिया है। हमें प्रकृति ने जो भी दिया है, उससे आवश्यकताओं की आपूर्ति सहज रूप में हो सकती है, परंतु इच्छाओं की नहीं और वे हमें ग़लत दिशा की ओर प्रवृत्त करती हैं। इच्छाएं, सपने, उम्मीद, नाखून हमें समय-समय पर काटते रहने का संदेश हमें दिया गया है अन्यथा वे दु:ख का कारण बनते हैं। उम्मीद हमें अनायास ग़लत कार्यों करने की ओर प्रवृत्त करती है। इसलिए उम्मीदों पर समय-समय पर अंकुश लगाते रहिए से तात्पर्य उन पर नियंत्रण लगाने से है। यदि आप उनकी पूर्ति में लीन हो जाते हैं, तो अनायास ग़लत कार्यों की ओर प्रवृत्त होते हैं और किसी अंधकूप में जाकर विश्राम पाते हैं।
ज्ञान धन से उत्पन्न होता है, क्योंकि धन की मानव को रक्षा करनी पड़ती है, परंतु ज्ञान उसकी रक्षा करता है। संस्कार हमें ज्ञान से प्राप्त होते हैं, जो हमें पथ-विचलित नहीं होने देते। ज्ञानवान मनुष्य सदैव मर्यादा का पालन करता है और अपनी हदों का अतिक्रमण नहीं करता। वह शब्दों का प्रयोग भी सोच-समझ कर सकता है। ‘मरहम जैसे होते हैं कुछ लोग/ शब्द बोलते ही दर्द गायब हो जाता है।’ उनमें वाणी माधुर्य का गुण होता है। ‘खटखटाते रहिए दरवाज़ा, एक
दूसरे के मन का/ मुलाकातें ना सही आहटें आनी चाहिए’ द्वारा राग-द्वेष व स्व-पर का भाव तजने का संदेश प्रदत्त है। सो! हमें सदैव संवाद की स्थिति बनाए रखनी चाहिए, अन्यथा दूरियाँ इस क़दर हृदय में घर बना लेती है, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। हमारी संस्कृति एकात्मकता, त्याग, समर्पण, समता, समन्वय व सामंजस्यता का पाठ पढ़ाती है। ‘सर्वेभवंतु सुखिनाम्’ में विश्व में प्राणी मात्र के सुख की कामना की गयी है। सुख-दु:ख मेहमान है, आते-जाते रहते हैं। सो! हमें निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए और निरंतर खुशी से जीवन-यापन करना चाहिए। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला’ के माध्यम से मानव को आत्मावलोकन करने व ‘एकला चलो रे’ का अनुसरण कर खुशी से जीने का संदेश दिया गया है।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 6
सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध – लेखिका – सुश्री वीनु जमुआर समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
बोधगम्य, प्रबुद्ध – सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध☆ श्री संजय भारद्वाज
जिस तरह बीज में वृक्ष होने की संभावना होती है, उसी प्रकार मनुष्य की दृष्टि में सृष्टि का बीज होता है। अनेक बार बीज को अंकुरण के लिए अनुकूल स्थितियों की दीर्घ अवधि तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। लेखिका वीनु जमुआर की इस पुस्तक के संदर्भ में भी यही कहा जा सकता है। युवावस्था में पर्यटन की दृष्टि से बोधगया में बोधिवृक्ष के तले खड़े होकर नववधू लेखिका की दृष्टि में जो समाया, लगभग साढ़े पाँच दशक बाद, वह शब्दसृष्टि के रूप में काग़ज़ पर आया। बोधगम्य, प्रबुद्ध शब्दसृष्टि का नामकरण हुआ, ‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध।’
‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’ का बड़ा भाग बुद्ध की जीवनयात्रा का कथा शैली में वर्णन करता है। उत्तरार्द्ध में जातक कथाओं, ऐतिहासिक तथ्यों, बौद्ध मठों की जानकारी, बुद्ध के विचारों का संकलन भी दिया गया है। इस आधार पर इसे मिश्र विधा का सृजन कहा जा सकता है। तथ्यात्मक जानकारी के साथ अनुभूत बुद्ध को पाठकों तक पहुँचाने की अकुलाहट इसमें प्रमुखता से व्यक्त हुई है। पुस्तक की भूमिका में लेखिका ने इस बात को कुछ यूँ अभिव्यक्त भी किया है- ‘सत्य और शांति के अटूट रिश्ते का महात्म्य हम तभी समझ पाते हैं जब आंतरिक शांति की जिजीविषा हृदय को कचोटने लगती है।’ विचारों की साधना से यह कचोट, जटिलता से सरलता की ओर चल पड़ती है। लेखिका के ही शब्दों में-‘विचारों को साध लो तो जीवन सरल हो जाता है।’ पग-पग पर पगता अनुभव एक समृद्ध पिटारी भरता जाता है। बकौल लेखिका, ‘सत्य की सर्वदा जीत होती है, इस बात की पुष्टि अनुभवों की पिटारी करती है।’
जैसाकि उल्लेख किया गया है, कथासूत्र के साथ सम्बंधित स्थान, काल, घटना विशेष के इतिहास की यथासंभव जानकारी और पुरातत्व अभिलेखों का उल्लेख भी पुस्तक में हुआ है। उदाहरण के लिए लोकमान्यता में ‘पिप्राहवा’ को कपिलवस्तु मानना पर पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा ‘तौलिहवा’ को कपिलवस्तु के रूप में मान्यता देने का उल्लेख है। बुद्ध के जन्म स्थान लुम्बिनी का वर्णन करते हुए चीनी यात्रियों फाहियान तथा ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत का उल्लेख किया गया है। इस संदर्भ में सम्राट अशोक द्वारा ईसा पूर्व वर्ष 249 में स्थापित बलवा पत्थर के स्तंभ पर प्राकृत भाषा में बुद्ध का जन्म लिखा होने की जानकारी भी है। इस तरह की जानकारी किंवदंती, लोक-कथा, सत्य को तर्क, तथ्य, इतिहास और पुरालेख के प्रमाण देकर पुष्ट करती है। यही इस पुस्तक को विशिष्टता भी प्रदान करती है।
बुढ़ापा, रोग और मृत्यु के पार जाने का विचार बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण का आधार बना। एक संन्यासी के संदर्भ में सारथी चन्ना द्वारा कहा गया वाक्य- ‘इसने जग से नाता तोड़ ईश्वर से नाता जोड़ लिया है’, उनके लिए नए मार्ग का आलोक सिद्ध हुआ। तथापि नया नाता जोड़ने की प्रक्रिया में यशोधरा से नाता तोड़ने और स्त्री के मान को पहुँची ठेस तथा पीड़ा को भी लेखिका ने विस्मृत नहीं किया है। पिता राजा शुद्धोदन के आग्रह पर अपने गृह नगर कपिलवस्तु पहुँचे संन्यासी बुद्ध से गृहस्थ जीवन में पत्नी रही यशोधरा ने मिलने आने से स्पष्ट मना कर दिया। यशोधरा का दो टूक उत्तर है, “मैंने उन्हें नहीं त्यागा था, वे त्याग गए थे हमें।”
इतिहास को तटस्थ दृष्टिकोण से देखना वांछनीय होता है। इससे तात्कालिक सामाजिक मूल्यों के अध्ययन का अवसर मिलता है। जटाधारी साधुओं के प्रमुख पंडित काश्यप द्वारा गौतम बुद्ध को रात्रि निवास के लिए आश्रम में स्थान देना, ‘मतभेद हों पर मनभेद न हों’ की तत्कालीन सुसंगत सामाजिक सहिष्णुता का प्रतीक है। पुस्तक इस सहिष्णुता को अधोरेखित करती है।
भारतीय दर्शन में सम्यकता की जड़ें गहरी हैं। इसकी पुष्टि बुद्ध द्वारा अपने पिता राजा शुद्धोदन को किए उपदेश से होती है। बुद्ध ने पिता से कहा, ”महाराज जितना स्नेह और प्रेम अपने पुत्र से करते हैं, वही स्नेह और प्रेम राज्य के प्रत्येक व्यक्ति से रखेंगे तो सभी उनके पुत्रवत हो, वैसा ही प्रेम महाराज से करने लगेंगे।” राजवंश के दिनों में किये गए इस उपदेश में काफी हद तक प्रजातंत्र की ध्वनि भी अंतर्निहित है। यह उपदेश काल के वक्ष पर पत्थर की लकीर है।
‘सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध’ अनित्य से नित्य होने का मार्ग है। यह पुस्तक महात्मा के जीवन दर्शन को सामने रखकर पाठक को विचार करने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रेरणा से पाठक अपने भीतर, अपने बुद्ध को तलाशने की यात्रा पर निकल सके तो लेखिका की कलम धन्य हो उठेगी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – कान्हा-मुख-सुषमा प्यारी…।