हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 224 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 224 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

पल रही थी

कोई कामना

कोई उत्तेजना ?

माधवी ।

अक्षत योनि एक धोखा है

मानसिक प्रपंच है

विज्ञान सम्मत नहीं ।

स्त्री के

शरीर की

संरचना

और

आयु के

प्राकृतिक

परिवर्तनों को विरुद्ध

कोई कैसे जा सकता है?

मानता हूँ

कि

नारी

होती है

नदी के मानिन्द,

दुष्प्रयासों के बावजूद

सदानीरा, निर्मल, पवित्र ।

किन्तु

कोई

सप्रयास

उसे

मलिन करे

बाँधे

तो

दोष किसका?

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 224 – “कितनी पीड़ायें नयनों से…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत कितनी पीड़ायें नयनों से...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 224 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “कितनी पीड़ायें नयनों से...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

एक सकोरा पानी दाना

रक्खा करती माँ

औरों की खातिर चिड़िया सी

उड़ती रहती माँ

 

छाती में दुनिया जहाँन की

लेकर पीडायें

आँचल भर उसको सारी

जैसे हों क्रीड़ायें

 

आगे खिड़की में आँखों के

चित्र कई टाँगे

कितनी पीड़ायें नयनों से

देखा करती माँ

 

बाहर हाँफ रही गौरैया

उस मुडेर तोती

जहाँ उभरती दिखी

सभी को आशा की धोती

 

गरमी गलेगले तक आकर

जैसे सूखगई

इंतजार में रही सूखती

पानी कहती माँ

 

लम्बे चौड़े टीमटाम है

बस अनुशासन के

जहाँ टैंकर खाली दिखते

नगर प्रशासन के

 

वहीं दिखाई देती सबकी

खुली सजल आँखें

इन्ही सभी में खुले कलश सी

छलका करती माँ

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

02-02-2025

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ – “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर ☆

श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर

श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर मध्य प्रदेश के कटनी नगर के प्रतिष्ठित कवि एवं लेखक हैं । आप शासकीय सेवा से निवृत्त होने के उपरान्त अपना पूरा समय साहित्य, कला, संस्कृति को दे रहे हैं । यों तो नगर की समस्त साहित्यिक संस्थाओं में आपकी सक्रिय भागीदारी रहती है तथापि आप इंटेक कटनी चेप्टर में को कन्वीनर हैं । इनकी पुस्तक “ठाकुर राजेंद्र सिंह के बालगीत” काफी चर्चित रही । राजेंद्र सिंह जी कटनी क्षेत्र के पुरातत्व महत्व के क्षेत्रों सहित कटनी नगर की विरासत पर महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं ।

(ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व ““कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

 

स्व. खुइया मामा

☆ कहाँ गए वे लोग # ४४ ☆

☆ “कर्णदेव की दान परम्परा वाले, कटनी के पान विक्रेता स्व. खुइया मामा” ☆ श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर 

कटनी शहर से 15 कि. मी. के फासले पर बिलहरी नामक क़स्बा है। यहाँ बौद्ध, जैन, कल्चुरी जैसे विभिन्न इतिहास काल के प्रचुर पुरा अवशेष पुरातत्व विभाग के संरक्षण में आज भी देखे जाते हैं। लोककथाओं, दंतकथाओं में कहा जाता है कि वर्तमान बिलहरी में कभी कर्णदेव नामक एक राजा थे। वह प्रतिदिन अपनी देवी की पूजा करते और खौलते तेल के कड़ाह में कूद कर स्वयं को देवी मां को समर्पित कर देते। प्रसन्न होकर देवी उन्हें पुनः जीवित कर सवा मन सोना देती थीं। आत्म बलिदान से प्राप्त धन को राजा प्रतिदिन गरीबों में बाँट देते थे।

कटनी के लोगों ने राजा कर्णदेव को तो नहीं देखा, किन्तु सन 1930 – 1980 के दौरान शहर में दान परंपरा के एक अन्य सामान्य पुरुष को देखा है, जिन्हें कटनी ही नहीं अन्य शहरों के लोग भी खुइया मामा के नाम से जानते थे, ये कटनी रेलवे स्टेशन के सामने एक पान दुकान का संचालन करते थे। इन्होंने एक छोटी सी दुकान से अर्जित कमाई से अपने जीवन में गरीबों को जो दान दिया वह आज के मूल्य के अनुसार करोड़ों रुपयों का होगा।

कटनी शहर का अस्तित्व सन 1867 में अंग्रेजों द्वारा मुड़वारा नामक छोटे से गाँव से कुछ दूर रेल स्टेशन स्थापित किये जाने से आया। धीरे धीरे अन्य शहरों के अमीर – गरीब जीविका की तलाश में यहाँ आकर बसने लगे। ऐसे ही लोगों में एक थे अग्रवाल परिवार के खुइया मामा जो चित्रकूट के निकट एक गांव से आकर कटनी में बस गए और रेलवे स्टेशन के बाहर पान दुकान का संचालन करने लगे। उस समय तक शहर इतना अधिक विकसित नहीं था। स्टेशन के पास ही कुछ चाय पान की दुकान थीं और वहां से बस्ती के बीच सूनापन रहता था। छह सवा छह फुट ऊँचे, पहलवानी कद काठी वाले मानवीय गुणों से ओतप्रोत खुइया मामा दबंग स्वभाव के थे। ये यात्रियों का उदार भाव से सहयोग भी करते थे। आपकी दुकान यात्रियों को सुरक्षा के प्रति आश्वस्त भी कराती थी। बाहर के यात्रियों के लिये आपकी दुकान एक तरह से अमानती सामान गृह एवं पूछताछ केंद्र की तरह भी थी। जिस समय अन्य दुकानों में पाँच पैसे का एक पान मिलता था, वहीँ आपकी दुकान में पांच पैसे में दो यानि जोड़ी से पान मिलते थे। अकेली पान दुकान एवं उदार स्वभाव होने के कारण आपका कारोबार चल निकला।

खुइया मामा की एक पुत्री थी जो वाक्यों का उच्चारण नहीं कर पाती थी। अतः उसके जीवन के प्रति उनके अंतर्मन में नमीं बनी रहती थी। खुइया मामा  दोपहर का भोजन करने रिक्शे में बैठकर  दुकान से घर को जाते थे। उस समय उनके साथ दुकान में अर्जित फुटकर सिक्कों की एक पोटली होती थी। कुर्ते के जेब में भी सिक्के भरे होते थे। जिन्हें राह में मिलने वाले गरीब याचकों को बांटते चलते थे। यह उनका नित्य नियम था। दो पैसे की आस में भिखारी और गरीब लोग उनके दुकान से चलने के पूर्व से ही वहां झुंड बनाकर एकत्र हो जाते थे। रास्ते में भी लोग उनके इंतजार में खड़े रहते थे और जब घर पहुंचते तो वहां भी पैसे पाने वालों का हुजूम उनके स्वागत में खड़ा मिलता था। खुइया मामा पैसों की पोटली या जेब से सिक्का निकाल कर सभी को देते चलते थे। कभी कभी तो उनकी पोटली खाली भी हो जाती थी। उनका यह नियम कोई तीस चालीस साल तक अनवरत चलता रहा। इस तरह खुइया मामा ने पान की दुकान से कमाए पैसों का एक बड़ा भाग नित्य के दान पुण्य में खर्च किया। उक्त राशि को बचाकर यदि उन्होंने मकान, जमीन खरीद कर रखे होते तो निश्चय ही आज उनका बाजार मूल्य करोड़ों रुपये में होता।

खुइया मामा की एक आदत और थी, जब चाहे वे पानी में फूले चने तलवा लेते, रसगुल्ला बनवा लेते और उसे आसपास के लोगों में वितरित करवाते। लोग छक कर खाते और आनंद मनाते।

गीता प्रेस गोरखपुर की धार्मिक पुस्तकें जिन्हें बेचने से कोई आर्थिक लाभ नहीं होता, इन्हें भी विक्रय के लिए खुइया मामा अपनी दुकान में उपलब्ध कराते थे। उस समय कटनी शहर में गीता प्रेस की पुस्तकों वाली यह अकेली दुकान होती थी, जहाँ से केवल स्थानीय लोग ही नहीं बल्कि अन्य शहरों के लोग भी पुस्तक खरीदने आते थे। सन 1984 में कटनी शहर के इस अनोखे दानवीर ने निर्वाण प्राप्त किया। वर्तमान में आपकी दुकान यद्यपि अपने पूर्व स्थान में नहीं रह गई है, किन्तु स्टेशन के सामने ही अन्य स्थान पर आपके पौत्र खुइया मामा पान भंडार का संचालन आज भी कर रहे हैं।

© श्री राजेंद्र सिंह ठाकुर

कटनी (म. प्र.)

संकलन – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २५ – “कलम के सिपाही – मुंशी प्रेमचंद” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २६ – “यादों में रहते हैं सुपरिचित कवि स्व चंद्रकांत देवताले” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २७– “स्व. फ़िराक़ गोरखपुरी” ☆ श्री अनूप कुमार शुक्ल ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २८ – “पद्मश्री शरद जोशी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २९ – “सहकारिता के पक्षधर विद्वान, चिंतक – डॉ. नंद किशोर पाण्डेय” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३० – “रंगकर्मी स्व. वसंत काशीकर” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३१ – “हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, फारसी के विद्वान — कवि- शायर पन्नालाल श्रीवास्तव “नूर”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३२ – “साइकिल पर चलने वाले महापौर – शिक्षाविद्, कवि पं. रामेश्वर प्रसाद गुरु” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३३ – “भारतीय स्वातंत्र्य समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी” ☆ डॉ. आनंद सिंह राणा ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३४ –  “जिनके बिना कोर्ट रूम भी सूना है : महाधिवक्ता स्व. श्री राजेंद्र तिवारी” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३५ – “सच्चे मानव – महेश भाई” – डॉ महेश दत्त मिश्रा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३६ – “महिलाओं और बच्चों के लिए समर्पित रहीं – विदुषी समाज सेविका श्रीमती चंद्रप्रभा पटेरिया” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३७ – “प्यारी स्नेहमयी झाँसी वाली मामी – स्व. कुमुद रामकृष्ण देसाई” ☆ श्री सुधीरओखदे   ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३८ – “जिम्मेदार शिक्षक – स्व. कवि पं. दीनानाथ शुक्ल” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३९ – “सहृदय भावुक कवि स्व. अंशलाल पंद्रे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४० – “मानवीय मूल्यों को समर्पित- पूर्व महाधिवक्ता स्व.यशवंत शंकर धर्माधिकारी” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४१ – “प्रखर पत्रकार, प्रसिद्ध कवि स्व. हीरालाल गुप्ता” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४२ – “जिनकी रगों में देशभक्ति का लहू दौड़ता था – स्व. सवाईमल जैन” ☆ डॉ. वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४३ – “संवेदनशील कवि – स्व. राजेंद्र तिवारी “ऋषि”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 207 ☆ # “अखबार…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता अखबार…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 207 ☆

☆ # “अखबार…” # ☆

सुबह चाय की चुस्कियाँ  

और अखबार

हर शख्स है तलबगार

दिन अधूरा अधूरा सा है

बिन अखबार

पाठक होता है पूरा परिवार

 

टपरी वाला हो

या चाय की दुकान

मजदूर हो या किसान

झोपड़ी हो या ऊंचा मकान

स्टूडेंट हो या विद्वान

सब की जरूरत अखबार है

सब करते इसका इंतजार है

 

कुछ अच्छी खबरें

कुछ बुरी खबरें होती हैं

कुछ सच्ची खबरें

कुछ जरूरी खबरें होती हैं  

कुछ हैडलाइन

ध्यान  आकर्षित करती है

कुछ हैडलाइन

जिज्ञासा बढ़ाती है

तो कुछ हैडलाइन

त्रासदी पर

मन को रुलाती है

 

आजकल,

खबरें सेंसर होकर आ रही हैं

पत्रकारिता गुणगान गा रही है

सच्ची आलोचना विलुप्त हो गई

पत्रकारों को लगी यह कैसी बिमारी है

 

पत्रकार अगर डर जाएगा तो

अखबार का मूल उद्देश्य बिखर जाएगा

कालांतर में वह अखबार मर जाएगा

व्यवस्था की विसंगतियां

फिर बाहर कौन लायेगा ?

 

अखबार लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है

अखबार विस्फोटक खबरों से भरा एक बारूदी बम है

बड़ी-बड़ी सियासतों को

अखबारों ने बदल डाला है

जनता के दिलों में राज करते हैं

इन अखबारों में बहुत दम है

 

आजकल पेड न्यूज़ का चलन हो गया है

हर अखबार बस विज्ञापन हो गया है

मूल उद्देश्य से भटक गए हैं

संपन्नता और ऐशो आराम के लिए

पत्रकारिता का सिद्धांत दफन हो गया है

 

अखबार अगर लिख नहीं सच पाएगा

तो सामाजिक क्रांति का

आंदोलन कैसे रच पाएगा

सियासत को आईना ना दिखा सका

तो अपना लोकतंत्र कैसे बच पाएगा ?/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – रिश्ता… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता रिश्ता…।)

☆ कविता – रिश्ता… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

एक अजीब सा रिश्ता है,

मेरे तुम्हारे बीच में,

जिसका कोई नाम नहीं है,

कोई नाम हो ही नहीं सकता,                   

कोई नाम दिया ही नहीं गया,

नाम देना चाहे तो क्या नाम दें ?

आकर्षण, प्रेम, लगाव या क्या?

 

नाम कोई भी हो मगर एक,

अनाम रिश्ते की डोर बंधी है,

अटूट, अलौकिक, अकथनीय,

महसूस कराती हमारे बीच, 

दिल का स्पंदन, सांसों का बंधन, 

एक दूसरे की फिक्र,

एक दूसरे का जिक्र,

मिलने की चाहत,

ना बिछड़ने की हसरत,

एक अनजान सा रिश्ता,

अनोखा अनाम सा रिश्ता,

तुम ही बताओ क्या नाम दें?

बेनाम रिश्ते को क्या नाम दें?

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 201 ☆ कपाट… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 201 ? 

☆ कपाट… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

बंद कपाटाच्या ओठांवर

श्वास कुठला गुंतला आहे?

स्मृतींच्या धुळकट पानावर

विस्मृतीचा तुटला भाव आहे.!!

 

उघडले की वास जुना

काही गुपित सांडलेले

आठवणींची पत्रे जुनी

काळजाच्या घडीत गुंफलेले.!!

 

कधी पुस्तकांची गर्दी

कधी कपड्यांची शिस्त

पण आत कुठेतरी लपली

न पाळलेल्या कर्तव्याची भिस्त.!!

 

कधीतरी हात फिरवताना

एखादा स्वप्नमेख लागतो

बंद दाराआड दडलेला

काल पुन्हा हुंदका देतो.!!

 

कपाट म्हणजे केवळ सामान

का काळाचा एक ठेवा?

उघडले तर आठवणींचा सागर

बंद केले तर मौनाचा मेवा.!!

 

काळवंडले जुने कपाट

स्तब्ध उभा कविराज

पाहुनी त्याची ही व्यथा

हलला अंतःकरणाचा राज!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 275 ☆ व्यंग्य – साहित्य और ‘सुधी पाठक’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘साहित्य और ‘सुधी पाठक’ ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 275 ☆

☆ व्यंग्य ☆ साहित्य और ‘सुधी पाठक’

हर भाषा के साहित्य से जुड़े कुछ लोग होते हैं जिन्हें ‘सुधी पाठक’ कहा जाता है। ‘सुधी पाठक’ वे पाठक होते हैं जिनकी सुध या याददाश्त बड़ी तगड़ी होती है। किसी भी भाषा में निकलने वाली पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं और लेखकों की पिछले 25-50 साल की जानकारी सुधी पाठकों के पास मिल जाती है। इसलिए कोई लेखक जनता- जनार्दन की याददाश्त कमज़ोर मानकर कुछ लाभ लेने की कोशिश करता है तो सुधी पाठक लपक कर उसकी गर्दन थाम लेते हैं। हमला इतना अचानक होता है कि लेखक को जान छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। इसलिए जिन लोगों को अपनी इज़्ज़त प्यारी है उन्हें सुधी पाठकों से ख़बरदार रहना ज़रूरी है।

कुछ  समय पहले एक प्रतिष्ठित कथा-पत्रिका में एक वरिष्ठ कथाकार की कहानी छपी। ज़्यादातर लोगों को उसमें कुछ भी गड़बड़ नज़र नहीं आया, लेकिन महीने भर के भीतर ही दो सुधी पाठक अपनी बहियों की धूल झाड़ते हुए मैदान में आ गये। लेखक पर आरोप लगा कि उनकी वह कहानी 25 साल पहले एक पत्रिका में छप चुकी है। उन सुधी पाठकों ने पत्रिका का नाम, संपादक का नाम, सन् वगैरह सब गिना दिया। लेखक के लिए सब दरवाज़े बन्द करते हुए उन्होंने लिखा कि उस पुरानी पत्रिका की प्रति उनके पास सुरक्षित है। दो में से एक सुधी पाठक ने बताया कि उन्होंने उस कहानी के भूतकाल में प्रकाशन का पता अपने व्यक्तिगत पत्रिकालय और पुस्तकालय को छान मारने के बाद लगाया। जहां ऐसे जागरूक और चुस्त पाठक हों वहां लेखक को हमेशा फूंक-फूंक कर पांव रखना होगा।

कुछ साल पहले सुधी पाठकों ने एक स्थापित कथा-लेखिका को संकट में डाल दिया था। लेखिका ने भी अपनी एक कहानी दुबारा कहीं छपा ली थी। बस, सुधी पाठकों ने अपनी बहियां पटकनी शुरू कर दीं और लेखिका को उन्हीं ‘याद नहीं’, ‘शायद भूल से’ वाले धराऊ बहानों की ओट लेनी पड़ी। मुश्किल यह है कि एक बार पकड़ में आने के बाद फिर कोई बहाना काम नहीं आता। सब जानते हैं कि कोई ‘भूल’ नहीं होती। लेखक जितने बहाने करता है उतने ही उसके झूठ के कपड़े टपकते जाते हैं।

कई साल पहले एक और कलाकार हिन्दी साहित्य में उभरे थे। वे दूसरों की कहानियों को कुछ समय बाद अपने नाम से छपा लेते थे। इतनी मौलिकता उनमें ज़रूर थी कि रचना का शीर्षक और पात्रों के नाम बदल देते थे। बड़े बहादुर और आला दर्ज़े के बेशर्म थे। रचना के साथ बाकायदा अपना फोटो और परिचय छपाते थे। कुछ भी पोशीदा नहीं रखते थे। लेकिन ज़माने से उनका सुख न देखा गया और एक दिन वे पकड़ में आ गये। मरता क्या न करता। उन्होंने बहाना गढ़ा कि वे कहानियों का संग्रह करने के आदी थे और उनकी पत्नी ने गलती से वह कहानी उनका नाम लिखकर पत्रिका को भेज दी थी। इस देश में वीर पुरुषों पर जब जब बड़ा संकट आता है तब तब वे बेचारी पत्नी को आगे कर देते हैं। कभी पत्नी के बल पर दया प्राप्त करने की कोशिश करते हैं, तो कभी पत्नी को जाहिल और मूर्ख बता कर अपनी करनी उसके सिर थोप देते हैं। बहरहाल, उन लेखक महोदय का यह बहाना चला नहीं और उनके उज्ज्वल साहित्यिक जीवन का असमय ही अन्त हो गया। साहित्य की इस बेवफाई के बाद अब वे शायद किसी और क्षेत्र में अपना हस्तलाघव दिखा रहे होंगे। अगर सुधी पाठक उनके पीछे न पड़ते तो अपनी जोड़-तोड़ के बल पर वे अब तक दो-चार साहित्यिक पुरस्कार अपनी झोली में डाल चुके होते।

दरअसल जब लेखक के प्रेरणास्रोत सूखने लगते हैं तब मजबूरी में पुरानी रचनाओं को ‘रिसाइकिल’ करना पड़ता है। कारण यह है कि शोहरत का चस्का आसानी से छूटता नहीं। ‘छुटती नहीं है काफ़िर मुंह से लगी हुई’। एक और बात यह है कि दुबारा छपाने का काम अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण रचनाओं के साथ ही हो सकता है क्योंकि महत्वपूर्ण रचनाएं सुधी पाठकों के ज़ेहन और ज़ुबान पर ज़्यादा रहती हैं। फिर भी सुधी पाठक का कोई भरोसा नहीं। जिस रचना को लेखक दो गज़ ज़मीन के नीचे दफ़न मान लेता है उसी को कंधे पर लादे सुधी पाठक दौड़ता चला आता है और लेखक इस साहित्यिक डिटेक्टिव का करिश्मा देखकर अपनी मूर्खता पर पछताता रह जाता है। लेकिन यह सब सामर्थ्यहीन लेखक ही करते हैं। जो सामर्थ्यवान होते हैं वे ‘न लिखने का कारण’ पर बहस भी चला लेते हैं और उस पर पुस्तक भी छपवा लेते हैं। यानी ‘चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरी’।  कुछ लोग ज़िन्दगी भर ‘कागद कारे’ करके भी गुमनामी में डूबे रहते हैं और कुछ लिखने से मिली शोहरत को न लिखने का कारण बता कर उसे और लंबा कर लेते हैं। सामर्थ्यवान और सामर्थ्यहीन के बीच के फ़र्क का इससे बेहतर नमूना भला क्या होगा?

जो भी हो, यह ‘सुधी पाठक’ नाम का जीव खासा ख़तरनाक होता है। वह साहित्यिक नैतिकता का चौकीदार, साहित्य का ‘ओम्बड्समैन’ होता है। वह बड़े-बड़े लेखकों को भी नहीं बख्शता। सब लेखकों की कर्मपत्री उसके पास सुरक्षित होती है। उसकी नज़र जॉर्ज ऑरवेल के ‘बिग ब्रदर’ की नज़र से ज़्यादा तेज़ होती है। लेखक अपनी मर्यादा से तनिक भी दाएं-बाएं हुआ कि भारतवर्ष के किसी दूरदराज़ के कस्बे से एक सुधी पाठक हाथ उठाकर खड़ा हो जाता है। जिन लेखकों को अपनी रचनाओं की चोरी-बटमारी का डर हो वे सुधी पाठक के भरोसे निश्चिन्त सो सकते हैं।

चुनांचे, जिन लेखकों की स्याही सूख चुकी है उनके लिए सम्मान का मार्ग यही है कि सुधी पाठक को नमस्कार करके मंच से उतर जाएं। नयी बोतल में पुरानी शराब भरेंगे तो सुधी पाठक बोतल लेखक के मुंह पर मार देगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 276 – ऋतुराज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 276 ऋतुराज… ?

हर क्षण तन छीज रहा,

हर क्षण मन रीझ रहा,

जितना छीजता, उतना रीझता,

छीजना, रीझना, स्वयं पर खीजना,

विरोध का आभास अथाह,

विरुद्ध का समानांतर प्रवाह,

तब पाट का आकुंचन होना,

समानांतर का मिलन होना,

अब न छीजना, अब न रीझना,

भीतर-बाहर मानो संत होना,

देहकाल में  ऐसा भी वसंत होना…!

जीवन बहुआयामी है। वसंत केवल रंगों का समुच्च्य भर नहीं, अपितु विभिन्न राग-भावों का समग्र स्वरूप भी है। हर रंग का अपना अस्तित्व है, हर रंग का अपना महत्व है। जीवन में हर रंग की आवश्यकता भी है।

विचार करें तो रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की स्थूल अथवा प्रत्यक्ष मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। अभिव्यक्ति सूक्ष्म या परोक्ष आवश्यकता है। जिस प्रकार सूक्ष्म देह के बिना स्थूल का अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार अभिव्यक्ति या मानसिक विरेचन के बिना मनुष्य जी नहीं सकता। अक्षर की इकाई को शब्द, वाक्य एवं भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति का, सूक्ष्म का सर्वाधिक सशक्त साधन बनाने वाली वागीश्वरी माँ सरस्वती सरस्वती का आज अवतरण दिवस है।

पौराणिक आख्यान है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना तो कर चुके थे पर सर्वव्यापी मौन का कोई हल ब्रह्मा जी के पास नहीं था। तब माँ शारदा प्रकट हुईं। निनाद,  वाणी एवं कलाओं का जन्म हुआ।  जल के प्रवाह और पवन के बहाव को में स्वर प्रस्फुटित हुआ। मौन की अनुगूँज भी सुनाई देने लगी। आहद एवं अनहद नाद गुंजायमान हुए। चराचर ‘नादब्रह्म’ है।

अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतवायदक्षरम् ।

विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतोयतः॥

अर्थात् शब्द रूपी ब्रह्म अनादि, विनाश रहित और अक्षर है तथा उसकी विवर्त प्रक्रिया से ही यह जगत भासित होता है।

शब्द और रस का अबाध संचार ही सरस्वती है। शब्द और रस के प्रभाव का एकात्म भाव से अनन्य संबंध है। इसका एक उदाहरण संगीत है। आत्म और परमात्म का एकात्म रूप संगीत है। संगीत को मोक्ष की सीढ़ियाँ माना गया है। महर्षि याज्ञवल्क्य इसकी पुष्टि करते हैं-

वीणावादनतत्वज्ञः श्रुतिजातिविशारदः।

तालश्रह्नाप्रयासेन मोक्षमार्ग च गच्छति।

वैदिक संस्कृति के नेत्रों में समग्रता का भाव है। कोई पक्ष उपेक्षित नहीं है। यही कारण है कि  वसंत पंचमी रति और कामदेव का उत्सव भी है। इस ऋतु में सर्वत्र विशेषकर खिली सरसों का पीला रंग दृष्टिगोचर होता है। प्रकृति का चटक पीला रंग आकर्षित करता है पुरुष को। प्रकृति और पुरुष का एकात्म होना मदनोत्सव है।

मदन भाव से श्मशान वैराग्य तक, सृष्टि में सभी कुछ उत्सव है। जीवन के हर पक्ष को उत्सव की भाँति ग्रहण करने का संदेश है वसंत।  हर भाव को समग्रता से, परिपूर्णता से जीने का प्रतीक है वसंत। यही कारण है कि ऋतुराज कहलाया वसंत।

आज वसंत पंचमी है। आप सबको वसंत पंचमी की मंगलकामनाएँ।💐🙏

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of social media # 222 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

 

? Anonymous Litterateur of social media # 222 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 221) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..! 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 222 ?

☆☆☆☆☆

रिश्तों का नूर तो

मासूमियत से है…

ज़्यादा समझदारियों से

रिश्ते  फ़ीके पड़ने लगते हैं..

☆☆

Lustre of relationship

Lies in its innocence…

Excess sensibility results

In fading of relationships .

☆☆☆☆☆

हक़ीकत की भीड़ से..

कुछ गुमशुदा सपने ढूँढ रहे हैं

आज कल हम अपनो में…

कुछ अपने ढूँढ रहे हैं …

☆☆

In the crowd of stark reality…

Looking for few missing dreams

Nowadays I’m searching for 

Very own in midst of our own…

☆☆☆☆☆

गुज़र जाते हैं खूबसूरत लम्हें

यूं ही मुसाफिरों की तरह..

यादें वहीं खडी रह जाती हैं

रूके रास्तों की तरह…

☆☆

Beautiful moments slip away

Just like the passengers…

Memories stagnate there

Like the paused paths…

☆☆☆☆☆

तेरे दीदार का शौक है मुझे

और तेरी याद में सुकून …

समझ नहीं आता तुझे देखूं या

बंद आंखों से तुझे याद करुं.. 

☆☆

Seeing you is my weakness while

Find solace in your remembrance

Too confused whether to see you

Or remember you with closed eyes

☆☆☆☆☆

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 221 – पलाशी शारद वंदना ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता – पलाशी शारद वंदना)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 221 ☆

पलाशी शारद वंदना ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

(पलाश के १७ नाम सहित)

शारद! लिए पलाश आए हम, माँ सिंगार करो।

किंशुक कुसुम लगा वेणी में, भव-भय पीर हरो।।

करधन टेसू, कंगन  छेवला, पायल सजे समिद्धर।

कौसुंबी कंचुकी, हरित आँचल स्वीकार करो।।

धारण कर गलहार त्रिपर्णी, बाले पहन सुपर्णी।

माते! बीजस्नेह दे संतति का उद्धार करो।।

करक ब्रह्मपादप पोरासू पलसु पिलासु पुतद्रु,

पालोशी पांगोंग लिए हम हँस उपहार वरो।।

अनुपम छवि रस रूप मनोहर स्वर व्यंजन मतिमय लख।

जीव सभी संजीव हो सकें, मातु! सलिल सह विचरो।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१३.१.२०२५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/स्व.जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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