हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १७ ☆

डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जीवन तो मिलता नहीं, हमको बारंबार।

ईश्वर ने हमको दिया, ये अमूल्य उपहार॥

मनुष्य चूँकि सामाजिक प्राणी है, अतः समाज के सर्वजनीन और सर्वकालीन सरोकारों की दृष्टि से आदर्श व्यक्ति और उसके साथ आदर्श व्यक्तित्व की कसौटी है। इस कसौटी पर खरे उतरने वाले व्यक्ति समाज के दिशादर्शक और सच्चे अर्थों में समाज के निर्माता होते हैं। जो विभिन्न माध्यमों से अपने इस महायज्ञ में निर्लिप्त भाव से संलग्न होते हैं। ऐसा ही एक व्यक्तित्व डॉक्टर श्री राम ठाकुर दादा के नाम से पहचाना जाता है।

कृतिकार रहे ना रहे, कृति जीवित रहती है जिसके माध्यम से कृतिकार अमर हो जाता है। हम स्मरण करते हैं स्वर्गीय डॉक्टर श्री राम ठाकुर ‘दादा’ को जो आज हमारे बीच नहीं हैं परंतु जिन्होंने कविता ‘ कहानी ‘लघु कथा’ व्यंग्य, उपन्यास, संस्मरण आदि अपना संपूर्ण साहित्य हमें दिया। हम उनके कृतज्ञ हैं निश्चित तौर पर दादा ने सद्‌कार्य करते हुए साहित्य सृजन किया। साहित्य समाज का दर्पण होता है और साहित्यकार एक सच्चा समाज सुधारक होता है विशाल व्यक्तित्व के धनी थे। ‘दादा’ यानि सिर्मौर।

संस्कारधानी जबलपुर के साहित्यकार -डॉक्टर श्री राम ठाकुर “दादा?

फूलों की सुगंध वायु के विपरीत नहीं जाती है परंतु मानव के गुणों की सुगंध चारों ओर जाती है।

व्यंग्यकार : डॉ. श्री राम ठाकुर “दादा” का लेखन परिवेश

जन्म :- 28 जनवरी 946 ग्राम बारंगी, तहसील सोहागपुर, जिला होशंगाबाद

शिक्षा: – एम.ए., पी.एच. डी. (संस्कृत), साहित्य रत्न (हिंदी)

सृजन :- व्यंग्य लेख, कविताएं, लघुकथाएं, उपन्यास, कहानियां

मध्य प्रदेश के रचनाधर्मियों की संपर्क संचयिका ‘हस्ताक्षर’ सृजनधर्मी, साहित्य अकादमी की हुजह॒ ऑफ इंडिया राइटर्स, एशिया इंटरनेशनल, की लर्नेंड इंडिया, हिंदी साहित्यकार संदर्भ कोष, ” हू ज हू ‘ इन मध्यप्रदेश हिंदी आदि परिचय ग्रंथों में उल्लेखा

पुस्तकें- दादा के छक्‍्के- हास्य व्यंग काव्य संग्रह, अभिमन्यु का सत्ताव्यूह- लघुकथा संग्रह, ऐसा भी होता है -व्यंग्य निबंध, पच्चीस घंटे- व्यंग्य उपन्यास” सृजन परिवेश,

मेरी प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाएं- गद्य व्यंग्य, प से पर्स, पिल्‍ला और पति -व्यंग्य लेख, दादा की रेल यात्रा- व्यंग्य खंडकाव्य, अफसर को नहीं दोष गुसाईं -व्यंग्य लेख, स्वतंत्रयोत्तर संस्कृत काव्य में हास्य व्यंग्य – शोध ग्रंथ, आत्म परिवेश, दांत दिखाने के- व्यंग्य लेख, मेरी प्रिय छब्बीस कहानियां -निजी कहानी संग्रह, मेरी एक सौ इक्कीस लघु कथाएं, बात पते की -व्यंग्य निबंध, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं (गद्य)

संपादन- साहित्य निर्देशिका, पोपट, अभिव्यक्ति एवं दूरसंचार विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका नर्मदा संचार का संपादन

प्रसारण- दूरदर्शन, सिटी केबल, डायनामिक मीडिया से रचनाएं प्रसारित, जबलपुर, भोपाल, रायपुर, रीवा, छतरपुर, बालाघाट, जगदलपुर आकाशवाणी केंद्रों से रचनाएं प्रसारित।

पुरस्कार सम्मान और अलंकरण- मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार, मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार, मध्य प्रदेश लेखक संघ द्वारा पुष्कर जोशी सम्मान, जबलपुर पत्रकार संघ द्वारा हरिशंकर परसाई स्मृति पुरस्कार, करवट कला परिषद भोपाल द्वारा रत्र भारती पुरस्कार, पत्रकार विकास मंच जबलपुर द्वारा परसाई सम्मान -95, मित्र संघ जबलपुर द्वारा विशिष्ट कवि सम्मान, अखिल भारतीय कला संस्कृति, साहित्य परिषद मथुरा उत्तर प्रदेश द्वारा साहित्य अलंकार सम्मान उपाधि » महाप्रबंधक जबलपुर दूरसंचार द्वारा हिंदी पुस्तक लेखक सम्मान, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मुरादाबाद (उ. प्र.) द्वारा डॉ. परमेश्वर गोयल व्यंग्य शिखर सम्मान, साहित्यिक सांस्कृतिक कला संगम अकादमी परियावा, प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) द्वारा विवेकानंद सम्मान, मध्य प्रदेश लघुकथाकार परिषद द्वारा व्यंग्यकार रासबिहारी पांडे स्मृति सम्मान अलंकरण, मध्य प्रदेश नवलेखन संघ भोपाल द्वारा साहित्य मनीषी सम्मान, अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच पटना द्वारा डॉ. परमेश्वर गोयल लघुकथा शिखर सम्मान, सृजन सम्मान संस्था रायपुर द्वारा “लघुकथा गौरव सम्मान, अखिल भारतीय अंबिका प्रसाद दिव्य स्मृति रजत अलंकरणा इनके अतिरिक्त देश के विभिन्न नगरों में आयोजित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ कई गोष्टियों व समारोहों में व्याख्यान एवं अनेक संस्थाओं द्वारा स्वागत एवं सम्मान।

डॉ. श्री राम ठाकुर दादा का नाम किसी परिचय का मुखापेक्षी नहीं है। विगत 40 वर्षों से अधिक वर्षों से भी अपनी व्यंग्य रचनाओं से जनमानस को गुदगुदाते रहे हैं और एक वैचारिक आंदोलन को बड़ी सहजता से चला रहे हैं। उनकी लघुकथाएं चेतना के विभिन्न स्तरों पर पाठकों को झकझोरती रही हैं और अपनी तरह के अनूठे मौलिक शिल्प वाला उपन्यास लिखकर वे चर्चाओं के केंद्र में रहे हैं। मध्य प्रदेश साहित्य परिषद में “पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार तथा मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी पुरस्कार की चर्चा जब भी होती है तो जबलपुर के संदर्भ में दादा का उल्लेख अनिवार्य होता है। आकाशवाणी और दूरदर्शन के अतिरिक्त विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में दादा की उपस्थिति सहज रूप से दिखलाई देती है।

हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रविंद्र नाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल और उनके समकालीन साहित्यकारों ने साहित्य में व्यंग्य को विशिष्ट स्थान दिलाने में सफलता प्राप्ति की। वहीं उनके बाद की पीढ़ी के साहित्यकारों ने इसे समृद्ध किया और निखारा भी। इन रचनाकारों में डॉ. श्री राम ठाकुर “दादा? का महत्वपूर्ण स्थान है।

समाज में फैली विद्वरूपताओं, भ्रष्टाचार, असमानताओं, कुरीतियों, भाई- भतीजावाद, लोगों के बदले नैतिक मूल्य आदि पर जितनी तीखी चोट व्यंग्य कर सकता है उतनी अन्यथा कोई विधा नहीं। व्यंग्य  वर्तमान व्यवस्था पर लिखा जाता है उसका प्रभाव भी तात्कालिक होता है किंतु पाठक वर्ग में यह सदैव अभिरुचि का साहित्य रहा है इसी का प्रतिफल है कि आज साहित्य में व्यंग्य की अलग पहचान है।

स्वतंत्र उत्तर संस्कृत काव्य में हास्य व्यंग – *दादाः अत्यंत पढ़ाकू और परिश्रमी व्यक्ति थे। वे किसी कार्य को करने की ठान लेते तो अपने श्रम और निष्ठा के बल पर पूरी करके ही दम लेते थे।

इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है पी .एच . डी. करना। “दादा? ने अपनी संपूर्ण शिक्षा दूरसंचार विभाग में नौकरी करते हुए प्राप्त की है। एक तरफ पढ़ाई, दूसरी तरफ गृहस्थी और तीसरी तरफ साहित्य सृजन और चौथी तरफ साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन में भागीदारी करना। इन सब क्षेत्रों में मेहनत और लगन से वे हमेशा अग्रणी रहे और उन्होने पी .एच .डी. भी ऐसे मौलिक एवं श्रमसाध्य विषय पर की जिसके प्रकाशित होने के लिए ख्याति लब्ध संस्कृत विद्वान डॉ. कमलेश दत्त त्रिपाठी ने अपनी अनुशंसा में लिखा है -‘प्रस्तुत ग्रंथ एक ओर सामान्य रूप से आधुनिक युग के प्रमुख संस्कृत महाकाव्यों, खंड काब्यों, मुक्तकों, काव्य संग्रहों, गीति काव्य, नाटकों, रुपको तथा स्फुट रचनाओं का सर्वेक्षण करता है और दूसरी ओर उन्हें दृश्यमान हास्य और व्यंग्य की प्रवृत्तियों को रेखांकित करता है।

हम जानते हैं कि लेखन की सबसे बड़ी और उच्चतम प्रयोजनीयता, विकृतियों से दूर मनीष को सच्चा इंसान बनाना और हमेशा बेहतरी की ओर ले जाने से जुड़ी रहती है। इस तरह वह समाज के लिए बेहतरी की लड़ाई का अगवा होता है जिसमें उसे जुगाड़ -तुगाड़ के समझौतों से परे, लगातार अपने रास्ते पर खुद की प्रतिभा और परिश्रम से अपने को विकसित करते हुए, लेखन के भीतरी और बाहरी संघर्ष से सीधे जुड़ कर आगे बढ़ना जरूरी हो जाता है। वाहवाही लूटने का अंदाज ज्यादा कारगर नहीं होता, अपितु निरंतर अपने काम में लगे रहने और अपनी आंतरिक और बाहरी पड़ताल को खुला रख पाने से ही लेखन संभव हो पाता है। ‘ दादा ने इन कसौटियों पर अपने को रखा और सतत लेखक बने रहे। लेखक और एक अच्छा इंसान, क्योंकि इंसानियत के रास्ते को आगे और सजग और व्यापक बनाना बल्कि संभव करना ही लेखक का पहला काम है। वे सहज स्वभाव के लेखक थे, कोई बनावटी लहजा नहीं या किसी तरह के आडंबर या अहम के शिकार व्यक्ति की तरह, एकदम नहीं। उनकी आत्मीयता, प्रेम, स्वभाविक विनम्रता, सक्रियता और अपनी बोली- वाणी में उनके एक खास तरह के मीठेपन से सभी परिचित हैं। यही वजह है कि उनके नगर के साहित्यिक साथियों से अच्छे संबंध थे और वे उनसे यथोचित आदर व स्नेह भी पाते थे।

साहित्यिक चेतना के विस्तार में, लोगों में रुचि और लगाव पैदा करने के मामले में, नगर में, उन्होंने जो कार्य किया, उससे सभी परिचित हैं। इस मंच के माध्यम से नई पीढ़ी के युवक और पाठक संपर्क में आए और इस वर्ग का अपेक्षित परिष्कार भी संभव हो सका। इसलिए यह कहना ठीक लगता है कि साहित्यिक आयोजनों के सिलसिले में “दादा’ का नाम एक सक्रिय व्यक्ति के रूप में था।

“दादा? जीवन भर एक साधारण, सरल व्यक्ति रहे अभिजात्य उनके जीवन से दूर ही रहा। इसलिए उनकी रचनाओं में साधारण व्यक्ति की रोजमर्रा की समस्याएं ही अधिक महत्व पाती हैं। वे अपने आसपास होते अन्याय और भ्रष्टाचार से अधिक व्यथित रहते थे।

“दादा? के लेखन की शुरुआत हास्य व्यंग की कविताओं से हुई और नए सोपान गढ़ती गई उनकी यह लेखनी। बीच-बीच में स्पुट रूप से उन्होंने कहानियां और रिपोर्ताज शैली का भी उपयोग करते हुए लेखन

किया ।बाद में वे चंपू काव्य, लघुकथा के क्षेत्र में भी आए। उनकी अनेक विधाओं पर निरंतर चलती लेखनी रुकी नहीं अंतिम दिनों में भी सक्रिय बनी रही।

लेखन में दादा ने सामाजिक, राजनैतिक एवं लौकिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर जहां भी दृष्टि डाली, वहां से व्यंग के पक्षको उजागर किया और समाज के सामने रखा तथा लोगों को उस ओर भी सोचने समझने के लिए बाध्य किया, झकझोरा । उनके व्यंग में तीखापन तो है ही , मीठी चुटकी भी असरदार है। मारक क्षमता के साथ चुटीला पन खासतौर पर सहजता लिए दिखता है। जिसे परसाई जी सटायर की संज्ञा देते थे । वे तमाम पक्ष दादा की रचनाओं में यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं।

“दादा? ने अपने समय में जब लघुकथा एक फिलर के रूप में अखबारों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थी, तब से लघुकथा का लेखन कार्य किया और उसे एक स्वतंत्र मंच देने की महती भूमिका अदा की ।

लघुकथा पर दादा? ने अनेक लेख लिखे तथा उसकी महत्ता पर बल दिया। जबलपुर में लघु कथा को एक मंच प्रदान करते हुए दादा के सहयोग से मोइनुद्दीन अतहर द्वारा युवा रचनाकार समिति का गठन हुआ जिसमें प्रमुख रुप से प्रदीप शशांक अभय बोर्ड निर्मोही, गुरु नाम सिंह रीहल, कुंवर प्रेमिल, रमेश सैनी, धीरेंद्र बाबू खरे तथा रविंद्र अकेला जैसे रचनाकारों को एक मंच दिया । जिसे अब मध्यप्रदेश लघुकथाकार परिषद के नाम से जाना जाता है। इस मंच के माध्यम से लघुकथा पढ़ी गई। लघु कथा के वर्तमान स्वरूप पर आलेख पढ़े गए तथा उस पर केंद्रित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं की चर्चा भी की गई और सभी प्रकार के कार्यक्रमों में दादा” की अपनी भूमिका रहा करती थी जिसका जबलपुर क्षेत्र की साहित्य विधा में एक अलग महत्व है।

जाने-अनजाने ऐसे और भी रचनाधर्मी होंगे जिनको दादा का यथा समय योगदान मिलता रहा है चाहे वह परोक्ष रूप में अथवा अपरोक्ष रूप में | श्री राम ठाकुर दादा ने सभी को हर संभव सहायता प्रदान की है चाहे वह किसी भी रूप में हो | अतः दादा की छवि उन सभी के दिलों में आज भी स्थान बनाए हुए हैं।

याद कोई आए तो इस तरह ना आए

जिस तरह घटा कोई बिजलियां गिराती हैं

सम्मान और पुरस्कार की परंपरा में भी दादा का योगदान नगर की अनेक संस्थाओं को मिला| जिससे संस्थाएं भी गौरवान्वित हुई और जबलपुर का मान भी बढ़ा।

दादा के द्वारा पाठक मंच की अनेक गोष्ठी आयोजित की गई और जबलपुर के साहित्य जगत को बांध के रखा अनेक समीक्षा गोष्टियों में उन्होंने नए पुराने साहित्यकारों को शामिल किया। समीक्षाओं पर मंतव्य व्यक्त किए और उस पर बहस की परंपरा भी डाली। ऐसी समीक्षा गोष्ठियों में उभरते साहित्यकार एक नई ऊर्जा के साथ सामने आए। जिसका श्रेय ठाकुर *दादा” को ही जाता है। इस तरह ‘दादा’ ने परंपराओं को गढ़ा है। उनका सरल, सहज स्वभाव व्यक्ति को अपनी ओर खींच लेता था। चाहे वह उनका सहकर्मी हो या आम आदमी। होटल पर बैठे हुए रिक्शेवाले हो अथवा पान के टपरे पर खड़ा व्यक्ति। जुझारू, जीवट और जमीन से जुड़े रहने वाले दादा का हंसमुख स्वभाव और प्रसन्नचित्त रहने का गुण मनुष्य मात्र को जीवन जीने की प्रेरणा देता है । उनकी लेखन शैली जबलपुर साहित्य के नए शिल्पियों को सदा ही प्रेरणा प्रदान करती रहेंगी ।

उनका व्यंग्य लेखन मरते दम तक चलता रहा उनकी अंतिम 2 पुस्तकें मृत्यु के। या 2 माह पूर्व दिल्‍ली से प्रकाशित होकर आई। उन्होंने अपने लेखन में व्यंग्य को प्रमुखता दी और एक सफल व्यंग्यकार के रूप में अपने आप को प्रस्तुत किया। हरिशंकर परसाई जैसा बेबाक कथन तथा शरद जोशी जैसा तीखा तेवर वाले इस महान व्यंग्य शिल्पी ने व्यंग्य के लगभग पन्द्रह तीर चलाएं जिसने साहित्य के क्षेत्र में धूम मचाई कि चारों ओर दादा का नाम बड़े सम्मान से लिया जाने लगा। मान- सम्मान, पुरस्कार, अलंकरण से पूरे देश में सम्मानित डॉ. श्री राम ठाकुर ‘दादा’ के व्यक्तित्व में घमंड की छांव तक नहीं थी। वह बहुत सरल तथा सहज व्यक्तित्व के धनी थे। जो भी उनके संपर्क में आता उनसे प्रभावित होकर धन्य हो जाता। उनके व्यक्तित्व का खास पहलू यह है कि उन्हें सभी छोटे -बड़े “दादा” कहकर पुकारते थे।

सपनों के दर्पणों में निहारा किए तुम्हें

यादों की पालकी से उतारा किए तुम्हें

डॉक्टर श्री राम ठाकुर “दादा अपने सृजन के आरंभ काल से जीवन के संध्या काल तक संघर्षरत रहे। उनकी साहित्यिक कृतियां अमूल्य धरोहर हैं। कुल मिलाकर यदि हम “दादा? की जीवन स्थितियों का निष्पक्ष अवलोकन करें तो सहजी उनकी मूल्यवत्ता से साक्षात्कार कर सकेंगे। पाठक मंच के माध्यम से संगठनकर्ता के रूप में भी “दादा ने सराहनीय योग दिया है।

डॉ. श्री राम ठाकुर “दादा” आज हमारे बीच नहीं हैं परंतु एक साहित्यकार सुधि चिंतक, सहृदय विचार वान व्यक्तित्व के रूप में भी सदैव जीवंत रहेंगे।

डॉ. श्री राम ठाकुर दादा” ऐसे समर्थ कृतिकार हैं जो आडंबरहीन भाषा और संक्षिप्त प्रारूप में यानी लघुकथाओं में मनुष्य के बहुरंगी मन और आधुनिक जीवन को विविध भंगिमाओं में प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते हैं।

“दादा’ की जिजीविषा और जीवन के प्रति उनका राग जबरदस्त था। इसीलिए उनका अचानक चले जाना हमें स्तब्ध कर गया। लगता है ऐसे जिजीविषा- संपन्न लोगों के साथ जीवन अधिक छल करता है।

जमाना बड़े शौक से सुन रहा था,

हमीं सो गए दास्तां कहते कहते।

डॉ. श्री राम ठाकुर *दादा”के निधन पर श्रद्धांजलि

कुमार सोनी- उनका साहित्य, उनका विनोद खसतौर से रेलयात्रा का उल्लेख बरबस याद आता है। नये-पुराने को बटोरकर चलना आज के समय में दुरूह कार्य है। दादा जिसे बखूबी निभाते रहे।

रमेश सैनी –मुझे दादा के पहले उपन्यास’ पच्चीस घंटे’की घटनाओं में उनका जीवन संघर्ष, जीवन के प्रति जिजीविषा, मुस्कुरा कर जवाब देने का उनका नायाब तरीका और विद्वूपता से मुठभेड़ करता उनका भरा- पूरा चेहरा याद आ गया।

कुंवर प्रेमिल – दादा जरूर इस भौतिक संसार से रूठ गए हैं पर ऐसे विचारक, कवि, कहानीकार, व्यंग्यकार और लघु कथा कार को हम सब हमेशा हमेशा याद करते रहेंगे दादा को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है।

गुरनाम सिंह रीहल- मैं दादा से सदा से प्रभावित रहा उनके साथ मैंने जीवन के विगत 30 वर्षों के कालखंड को, अपने अमूल्यवान यादों के साथ संजोकर रखा है। वे क्षण बेशकीमती धरोहर के रूप में यूँ मेरे साथ रच बस गए हैं कि उन्हें कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।

आनंद कृष्ण- दादा के विराट व्यक्तित्व में महासागरों से प्रशांति थी पर भीतर लहरें उद्वेलित होती थीं जब कोई बात हद से बाहर गुजरती तो उनकी कलम उसे कागज पर उगल देती और उसके बाद उस विसंगति या विद्वूप से उत्पन्न उनका संभास भी शांत होता यह अमोघ मंत्र है, जो रचनाकार को संयत और संयमित रखने में मदद करता है इसका मैंने भी स्वयं व्यावहारिक रूप से अनुभव किया है।

श्रीमती नम्नता पंचभाई- डॉक्टर श्री राम ठाकुर दादा एक महान साहित्यकार थे। एकदम शांत गंभीर से दिखने वाले ‘दादा ‘अपने अंदर इतनी कला छुपाए हुए थे जिसका अंदाजा उनके द्वारा रचित साहित्य को पढ़ने के बाद से ही पता चलता है। जिस प्रकार सागर की गहराई का पता नहीं चलता उसी प्रकार दादा के अंदर कितने रत्नों का भंडार साहित्य के रूप में भरा पड़ा था वह किसी को पता नहीं। ऐसी महान हस्ती का हमारे बीच से असमय चले जाना एक बहुत बड़ी क्षति है जिसकी पूर्ति असंभव है।

प्रदीप शशांक- ‘दादा’ के सहज हंसमुख, मिलनसार स्वभाव के कारण हमें बिल्कुल भी महसूस नहीं होता था कि दादा उम्र में हमसे काफी बड़े तथा साहित्य क्षेत्र की बहुत बड़ी हस्ती हैं उनमें घमंड तो लेशमात्र भी नहीं था।

हमारी रचनाओं को पढ़कर वे मुक्त कंठ से सराहना करते थे तथा बड़े भाई के रूप में महत्वपूर्ण सुझाव देने के साथ ही विभिन्न व्यंग पत्रिकाओं के पते भी देते थे।

 

आज आज दादा हमारे बीच नहीं हैं, किंतु साहित्य जगत में उनका नाम अमर हो गया है। ईमानदार, स्वाभिमानी और सहज व्यक्तित्व के धनी ‘दादा’ की अनगिनत अंमूल्य यादें सदा हमारे साथ रहेंगी।

मलय – दादा एक पिछड़े समाज से आए और उन्होंने अपनी समझ को विकसित करते हुए प्रतिभा को प्रति फलित करते हुए लेखन को पूरी मशक्कत के रास्ते से धीरे-धीरे अर्जित किया दादा के लेखन और सक्रियता की बढ़ती पहचान के कारण ही मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद ने उन्हें जबलपुर में पाठक मंच का संयोजक बनाया इसलिए यह कहना ठीक लगता है कि साहित्यिक आयोजनों के सिलसिले में ‘दादा’ का नाम एक सक्रिय व्यक्ति के रूप में था और नगर की इस क्षति का तत्काल ही पूरी कर पाना संभव नहीं लगता।

कुंदन सिंह परिहार- ‘दादा’ बड़े स्वाभिमानी थे। अपने साथ होने वाले किसी भी अन्याय को वे बर्दाश्त नहीं करते थे, चाहे उन्हें कितनी भी क्षति क्‍यों न हो [साहित्य में भी उन्हें जहां पक्षपात दिखाई पड़ता था वे तत्काल उसका विरोध करते थे। ‘दादा’ के जाने से उनके मित्रों का संसार जरूर संकुचित हुआ है और इस क्षति की पूर्ति बहुत मुश्किल है क्योंकि दादा सिर्फ एक संख्या नहीं थे।

गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त- ‘दादा’ नाम जबान पर आते ही, उनकी मधुर मुस्कान के साथ उनका अक्स एक चलचित्र की भांति मेरे मस्तिष्क में उभर आता है। उनकी एक स्वाभाविक भाव मुद्रा बरबस ही अपनी ओर खींच लेती है। ‘ दादा’ की शिराओं में खून के साथ-साथ एक व्यंग की धारा भी सहज रूप में प्रवाहमान रही है [ उनका बातचीत करने का ढंग, कहने और सुनाने की कला बड़ी ही रोचक लगती थी। वे जब भी लिखते एक आम आदमी के इर्द-गिर्द घटती हर बारीक से बारीक चीज को पकड़ कर लिखते थे। यह सहजपन बड़ा ही कठिन होता है, जो ‘दादा’ में था। व्यंग के हास्य और हास्य के साथ व्यंग दादा में एक दूसरे के पूरक रहे हैं उन्हें अलग -अलग नहीं किया जा सकता, यही ‘दादा ‘की लेखन शैली की अपनी पहचान को उजागर करता है। उनकी लेखन शैली जबलपुर साहित्य के नये शिल्पियों को सदा ही प्रेरणा प्रदान करती रहेगी।

राजेंद्र दानी- दादा” की सक्रियता व्यक्ति केंद्रित कभी नहीं रही। अपने लेखन से तथा अपनी भौतिक सक्रियताओं से बार-बार यह प्रमाणित करते रहे कि वे जिन सरोकारों के लिए क्रियाशील हैं, उनसे दुखों, असमानताओं, जातिगत संकीर्ण विश्वासों, अभावों और बौद्धिक सीमाओं का अंत अवश्यंभावी है और वे अपनी समग्र द्रढ़ताओं के साथ इससे पीछे हटने वाले नहीं है। लंबी काया के इस द्रढ़ व्यक्ति ने कभी हार नहीं मानी और जीवन पर्यत अपनी समस्त ऊर्जा के साथ साहित्य सृजन के लिए समर्पित रहे।

अपने लेखन के लिए जिस माध्यम का चयन उन्होंने किया वह बेहद चुनौतीपूर्ण था और उस पर एकांगी और निषेधता के आरोप तब भी लगते थे और अब भी लगते हैं यह व्यंग था, यह परसाई की राह थी, यह शरद जोशी की राह थी और श्रीलाल शुक्ल की राह थी और श्रीलाल शुक्ल की राह अब भी है।

अफसोस यह है कि ‘दादा’ की यात्रा अभी जारी थी और उन्हें मिलो दूर जाना था वह सेवानिवृत्त हो चुके थे और अपनी राह को निरंतर चौड़ा होते देखना चाहते थे। ऐसे में उनका जाना बहुत बड़ी सामाजिक और व्यक्तिगत क्षति है। यह तथ्य कल्पनातीत है श्री राम ठाकुर ‘दादा’ का निधन एक ऐसी ही बड़ी दुर्घटना है।

मोहम्मद मुइनुद्दीन अतहर‘- सादा जीवन उच्च विचार के धनी मौन तपस्वी ज्योतिष श्री राम ठाकुर दादा ने अपने 63 वर्ष की अल्पायु में अपने सामाजिक और पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए साहित्य के क्षेत्र में जो योगदान दिया है जो भुलाया नहीं जा सकता। अपने कार्य के प्रति जिस लगन, निष्ठा / वैर्य तथा ईमानदारी से कार्य करते हुए मैंने दादा को देखा किसी अन्य को नहीं। “दादा? के इस उद्बार को मैंने अपने गले का हार बना लिया और एक लक्ष्य बनाकर उनके साथ हो लिया।

* दादा? के सत्संग से मुझे उनसे यह प्रेरणा मिली सत्सहित्य का पठन, चिंतन, मनन ही हमारे जीवन को संवार सकता है। साहित्य के पौधे को चिंतन से जितना सींचोगे उतना ही वह परवान चढ़ेगा। साहित्य हमारे विवेक को जागृत करता है और मुख्य बात यह है कि यह समाज सुधारक की भूमिका अदा करता है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 182 ☆ # “घरौंदा” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता घरौंदा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 182 ☆

☆ # “घरौंदा” #

जीवन भर की

मेहनत से

लगन से

बचत से

हम एक घरौंदा बनाते हैं  

अपनी आशाएं

इच्छाएं

संभावनाएं

लगाकर

उसे सजाते हैं

हमारी सिर्फ

यही कोशिश होती है

कि  पूरा परिवार

साथ रह सके

खुशी हो या गम

कांटे हो या फूल

दुःख हो या सुख

साथ-साथ सह सकें

जब घरौंदा बनता है

प्यार और स्नेह

आपस में छनता है

हर पल खिलखिलाहट

घर में जगमगाहट

रिश्तों की नई पहचान होती है

घर की आन और शान होती है

हम आत्मविभोर हो जाते हैं

सुन्दर सपनों में खो जाते हैं

मीठी मीठी नींद गुदगुदाती है

ठंडी ठंडी हवा

आगोश में सुलाती है

 

तभी आसमान से

एक परी उतरती है

घर में सज धज कर आती है

सारा घर उसके स्वागत में

पलकें बिछाता है

छोटा हो या बड़ा

हर कोई गले लगाता है

वो सबके आंखों

का नूर होती है

अपनी प्रशंसा से

मगरूर होती है

धीरे धीरे वो अपना

रंग दिखाती है

दूसरे देश से आई है

यह अपने व्यवहार से दर्शाती है

घर की खुशियां

बिखर जाती है

अपने तानों से

सबका दिल दुखाती है

अपने प्राणाधार के साथ

दूसरी दुनिया में

चली जाती है

घरौंदा टूटता है

राख बच जाती है

 

पति-पत्नी जीवन भर

एक खुशगवार फूलों सा

घरौंदा बनाने का

सपना देखते हैं

ऐसी परियां

उनके सपने तोड़ कर

कौड़ी के दाम

बेचते हैं

जीवन के आखिरी पड़ाव पर

क्या यही उनके जीवन भर के

त्याग, परिश्रम का मोल है ?

टूटते घरौंदे, बिखरते परिवार

बिलखते मां-बाप

असहाय, निर्बल

क्यों

घर और बाहर

दोनों जगह बेमोल हैं ? /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – हमारा देश…भारत ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता हमारा देश…भारत।)

☆ कविता – हमारा देश…भारत ☆

सिर पर ताज हिमालय का है,

 सागर चरण पखारता,

गंगा यमुना की बाहों को,

 अंबर पुलक निहारता,

 देश के हर कोने से उठता,

 हर स्वर यही पुकारता,

 वंदे मातरम्, वंदे मातरम्,

*

 राम कृष्ण की भूमि है ये,

इस मिट्टी की शान है,

सभी देवता गोद में खेले,

 भारत भूमि महान है,

एक बंधन में हम सब आएं

एक ही सुर में मिलकर गाएं,

वंदे मातरम्, वंदे मातरम्,

*

आओ मिलकर शपथ उठाएं,

भारत मां की आन की,

कभी शान ना झुकने पाए,

भारत मां की शान की,

भारत मां का दर्शन पाएं

सभी देवता सस्वर गाएं,

वंदे मातरम्, वंदे मातरम्.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 178 ☆ नको कुणाची चाकरी… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 178 ? 

☆ नको कुणाची चाकरी ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

(काव्य प्रकार:- अंत्यओळ अष्टाक्षरी.)

(विषय:- मृग बरसून जावा.)

मृग बरसून जावा

धरा तृप्त शांत व्हावी

धूळ निघूनिया जावी

छटा धरेची खुलावी.!!

*

छटा धरेची खुलावी

मुक्त धरणी हसावी

छटा दिसाव्या बोलक्या

ऐसी करणी होवावी.!!

*

ऐसी करणी होवावी

बळीराजा तो हसावा

हाती घेऊनिया हल

कष्ट करण्या निघावा.!!

*

कष्ट करण्या निघावा

त्याला नं चिंता असावी

बीज रोपताना भूमी

भूमी निर्भेळ बोलावी.!!

*

भूमी निर्भेळ बोलावी

बीज ग्रहण करावे

यावे अंकुर जोमाने

सोने कष्टाचे होवावे.!!

*

सोने कष्टाचे होवावे

मिळो सर्वांना भाकरी

दिस बदलो सर्वांचे

नको कुणाची चाकरी.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 246 ☆ कहानी – एक मुलाकात ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य रचना – एक मुलाकात। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 246 ☆

☆ कहानी – एक मुलाकात

अचानक सुबह सात बजे टेलीफोन की घंटी बजी। सेठी जी ने फोन उठाया– ‘हलो’।

‘सेठी जी हैं?’

‘बोल रहा हूँ। ‘

‘नमस्ते, मैं आपका मित्र बोल रहा हूँ। ‘

सेठी जी अचकचाए। सबेरे सबेरे यह कौन मित्र है? उन्होंने कहा, ‘माफ करें जी। मैंने पहचाना नहीं। ‘

‘अभी तो पाँच महीने ही हुए हैं। अभी से पहचानना बन्द कर दिया भैया?’

सेठी जी के दिमाग में कुछ कौंधा,बोले, ‘अरे जड़िया जी! माफ कीजिएगा, आवाज़ कुछ समझ में नहीं आ रही थी। ‘

‘इतनी जल्दी आवाज़ मत भूलो भैया। कुछ दिन याद किये रहो। ‘

सेठी जी संकुचित हुए,बोले, ‘कैसी बातें करते हैं? आप को भला कैसे भूल सकते हैं? इतना पुराना साथ है। कहिए, इतने सबेरे कैसे याद किया?’

‘याद करने के लिए कोई वजह ज़रूरी है क्या भाई? याद तो बस याद है। जब उसकी मरजी हुई, आ जाती है। ‘

सेठी जी कुछ और सकुचाये,बोले,  ‘बड़ी अच्छी बात है। आप हम सबको याद तो करते हैं। ‘

‘और क्या करें भैया? अब कुछ काम धाम तो रहा नहीं, इसलिए जिन्दगी में जो अच्छा वक्त गुजरा उसी की दिमाग में रिवाइंडिंग करते रहते हैं। ‘

‘ठीक कहा आपने। अच्छी बातों और अच्छे दोस्तों को याद करते रहना चाहिए। और सुनाइए। ‘

‘बस सब ठीक है। आज शाम को फुरसत है क्या? आपसे मिलना था। ‘

सेठी जी अचकचा गये। यह रिटायर्ड आदमी किसलिए मिलना चाहता है? रिटायर्ड आदमी से मिलना मतलब सब काम छोड़कर बिलकुल बेफिकर होकर बैठना होता है। अब जिन्दगी में इतनी बेफिक्री और इतना इत्मीनान कहाँ है कि फैलकर बातचीत की जा सके।

वे एक क्षण सोचकर बोले, ‘आज तो थोड़ा बिज़ी हूँ। आज गुरुवार है। आप इतवार को सुबह आइए न। इत्मीनान से  बातें होंगीं। चलेगा?’

‘सब चलेगा। यहाँ अब सब दिन बराबर हैं। क्या गुरुवार और क्या इतवार। ‘

‘तो फिर ठीक है। मैं इतवार को आपका इन्तज़ार करूँगा। ‘

‘बिलकुल ठीक। नौ बजे के करीब ठीक रहेगा?’

‘हाँ, हाँ, आइए। ‘

सेठी जी ने फोन रख दिया। फोन रखने के साथ मूड गड़बड़ हो गया। रिटायर्ड आदमी के साथ बैठना मतलब घंटा डेढ़-घंटा बरबाद करना। आधे घंटे तो बातचीत ठीक, फिर ज़बर्दस्ती वक्त के खालीपन को भरना। निरर्थक मुद्दे उठा उठाकर सामने रखते रहो। रिटायर्ड आदमी अप्रासंगिक हो जाता है, वह न वर्तमान के काम का रहता है, न  भविष्य के। वह बस इतिहास का हिस्सा बन जाता है। अब उससे क्या बातें करें और उसके सामने अपना कौन सा दुखड़ा रोयें? जिन्हें रोने के लिए कोई भी कंधा चाहिए उनके लिए ठीक है। बाकी जिन्हें काम-धाम करना है, भविष्य की योजनाएँ बनानी हैं, उनके लिए रिटायर्ड आदमी का संग-साथ किस काम का? रिटायर्ड आदमी तो अपने जैसों के गोल में ही शोभा देते हैं, जहाँ बैठकर वे गठिया, कब्ज और बहुओं की लापरवाही और अकर्मण्यता का रोना रोते रहते हैं।

सेठी जी  सोचते हैं अब ज़माना भी बदल गया। उनके बाप-दादा के ज़माने में परिचित और दोस्त घर में चाहे जब आते जाते रहते थे। शादी-ब्याह में रिश्तेदार हफ्तों पड़े रहते थे। घर में रोज़ शाम को महफिल लगती थी। दुनिया भर की बातें होती थीं, जिनके बारे में आज सोचना भी हास्यास्पद लगता है। अब आधे घंटे की खातिरदारी के बाद मेहमान को भी अड़चन होने लगती है और मेज़बान को भी। अपनी दुनिया से बाहर निकलने की फुरसत नहीं है। सब अपने-अपने टापू में कैद हैं। इसलिए सेठी जी सोचते हैं कि जड़िया जी आएँगे तो उनसे क्या बातें होंगीं?

जड़िया जी ज़िन्दगी भर रहे भी अटपटे ही। न कभी ज़िन्दगी को व्यवस्थित किया, न कोई ख़ाका बनाया। दफ्तर में ज़िन्दगी गला दी, लेकिन शिकार फाँसने की विधि नहीं सीखी। जो भेंट-उपहार मिल गया, उसी में खुश हो लिये। न ज़मीन-ज़ायदाद बनायी, न शेयर वगैरः खरीदे। ज़िन्दगी को साधने की कला में फिसड्डी रहे। लेकिन इन बातों का महत्व उनकी समझ में कभी नहीं आया, न ही कभी अपने अनाड़ीपन पर उन्हें कोई अफसोस हुआ।

जड़िया जी के विदाई कार्यक्रम में तो हस्बमामूल उनकी तारीफ ही हुई थी। नौकरी और ज़िन्दगी से रुखसत होते आदमी के लिए भला बोलने का ही कायदा होता है। फिर जो लोग अपनी ज़िन्दगी बिना ज़्यादा दाँव-पेंच चलाये सीधे-सीधे गुज़ार देते हैं, उनके प्रति लोग भावुक भी हो जाते हैं।

विदाई कार्यक्रम के बाद सेठी जी को जड़िया जी बाज़ार में दो तीन बार दिखायी दिये थे। एक बार एक दुकान में साइकिल पर थैला लटकाये खड़े दिखे। एक बार और स्कूटर पर एक बच्चे को सामने खड़ा किये जाते दिखे। दोनों ने हाथ उठाकर एक दूसरे को अभिवादन किया। एक बार दफ्तर में भी दिखे थे। तब बस ‘कैसे हैं?’, ‘कैसे हैं?’ हुआ था। जड़िया जी से मिलने की कोई खास इच्छा सेठी जी को कभी नहीं हुई थी। रिटायर्ड आदमी से मिलने की इच्छा तभी होती है जब उससे कुछ काम पड़े, और रिटायर्ड आदमी के पास लोगों का काम कम ही अटकता है। वजह यह कि रिटायर्ड आदमी ज़िन्दगी के राजमार्ग से हटा हुआ होता है।

इसीलिए सेठी जी इस बात को लेकर परेशान हो गये कि जड़िया जी उनसे क्यों मिलना चाहते हैं। शायद कोई काम हो। सीधे-सादे आदमी के सामने ज़िन्दगी की दस झंझटें होती हैं। परिवार को अव्यवस्थित और अनियोजित रखने के परिणाम रिटायरमेंट के बाद पूरी शिद्दत से सामने आने लगते हैं। जड़िया जी ने कभी भविष्य की चिन्ता तो की नहीं। शायद कोई आर्थिक समस्या आ खड़ी हुई हो।

जड़िया जी दो चार हज़ार रुपये माँगने लगें तो क्या होगा? पहले से निर्णय कर लेना ठीक होगा। पैसे की तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन जड़िया जी लौटा न पाये, तब क्या होगा? इस संभावना पर विचार करने के बाद ही पैसा देना उचित होगा। वैसे तो जड़िया जी भले आदमी हैं, लेकिन लौटाने की स्थिति में न हुए तो क्या किया जा सकेगा? उनसे यह पूछना भी तो उचित नहीं होगा कि उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है और वह किस उद्देश्य से पैसे चाहते हैं।

सोचते-सोचते सेठी जी अशान्त हो गये। यह कहाँ की परेशानी आ गयी? बिना उद्देश्य के आदमी क्यों मिलना चाहता है? उन्हें रिटायर्ड आदमियों पर गुस्सा भी आया कि बेमतलब एक घर से दूसरे घर डोलते रहते हैं। अपने घर में बैठकर राम नाम भजें, सोई अच्छा। एक मन हुआ, इतवार को सुबह कहीं सटक लें। फिर सोचा, यह ठीक नहीं होगा। एक तो जड़िया जी को सफाई देना मुश्किल होगा, दूसरे इस तरह से जड़िया जी से कब तक बचेंगे? जिसे मिलना ही है, वह दुबारा आ जाएगा।

इतवार को सबेरे सेठी जी जड़िया जी का इन्तज़ार करते बैठे रहे। करीब सवा नौ बजे वे साइकिल पर आते दिखे। कपड़ों- लत्तों के बारे में उनका औघड़पन साफ दिखता था। कुर्ते की एक बाँह कुहनी के ऊपर चढ़ी थी, तो दूसरी नीचे तक लटकी थी। कॉलर एक तरफ उठा था, तो दूसरी तरफ दबा था।

गेट में घुसकर वे कुछ देर बाहर बिलम गये। सेठी जी ने झाँककर देखा तो वे साइकिल का हैंडल थामे, माली से बात करने और क्यारियों में उगे हुए पौधों के बारे में जानकारी लेने में मसरूफ थे। ‘ये कभी नहीं सुधरेंगे’, सेठी जी ने सोचा। अन्ततः जड़िया जी अन्दर आ ही गये। बहुत जोश से दोनों पुराने सहकर्मियों का मिलन हुआ। रिटायर्ड आदमी के स्वास्थ्य के बारे में पूछना सबसे पहले ज़रूरी होता है, सो सेठी जी ने किया। फिर दफ्तर की बातें छिड़ गयीं— साथियों की बातें, ऊपर के अधिकारियों की बातें और जो पहले रिटायर हो गये या ऊपर चले गये उनकी स्मृतियाँ।

सेठी जी से बात करते जड़िया जी तो भाव-विभोर थे, लेकिन सेठी जी के मन में खिंचाव था। वे भीतर से सावधान थे। जड़िया जी की बातें उन्हें असली बात के आसपास लगायी गयी फूल-पत्तियाँ लग रही थीं। उन्हें विश्वास था कि अन्ततः जड़िया जी कोई ना कोई माँग ज़रूर करेंगे। इसलिए उनका जोश और जड़िया जी की बातों पर छूटती उनकी हँसी बड़ी सीमा तक नकली थी। उन्होंने सोच रखा था कि अगर जड़िया जी पैसे की माँग करेंगे तो वे ज़्यादा से ज़्यादा हजार रुपया देकर मजबूरी ज़ाहिर कर देंगे ताकि अगर पैसा डूब भी जाए तो ज़्यादा न अखरे।

बात करते घंटा भर से ऊपर हो गया लेकिन जड़िया जी मतलब की बात पर नहीं आये। सेठी जी का सब्र का बाँध टूटने को आया। जब भी बातों में विराम आता, सेठी जी कुछ तनाव की स्थिति में आ जाते, यह सोचकर कि अब जड़िया जी के मन की बात प्रकट होगी। लेकिन फिर बातों का सिलसिला किसी दूसरी दिशा में मुड़ जाता। सेठी जी को खीझ होने लगी कि यह आदमी इतना ढोंग क्यों कर रहा है।

अन्ततः जड़िया जी कुर्सी से आधे उठे, बोले, ‘काफी वक्त हो गया। खूब आनन्द आया। अब आप भी अपना कामकाज निपटाइए। हम तो रिटायर्ड हैं। अपने पास वक्त ही वक्त है। ‘

सेठी जी अभी भी तनावमुक्त नहीं हुए थे। अब वे खुद ही बोल पड़े, ‘और मेरे लायक कोई काम हो तो बताइएगा। ‘

जड़िया जी बोले, ‘काम क्या? इतनी देर आपके साथ बैठकर मन हल्का कर लिया, इससे बड़ा काम और क्या हो सकता है?’

जड़िया जी चल दिए। सेठी जी पीछे पीछे चले। अब उनके मन में ग्लानि थी। जड़िया जी को ज़रूरतमन्द समझ कर ठीक से बात भी नहीं कर पाये। पूरे समय लगभग मुक्ति पाने के अन्दाज़ में बातें हुईं। कुछ ढीले होकर बात करते तो मज़ा आता। गलतफहमी पालने से अपने प्रति और जड़िया जी के प्रति अन्याय हो गया।

गेट पर आकर जड़िया जी ने साइकिल निकाली तो सेठी जी आजिज़ी के स्वर में बोले, ‘फिर आइए। अभी कुछ मज़ा नहीं आया। मन नहीं भरा। ‘

जड़िया जी हँसकर बोले, ‘फिर आ जाएँगे। रिटायर्ड आदमी को तो इशारा काफी है। आप एक बार बुलाएँगे तो हम दो बार आ जाएँगे। ‘

सेठी जी भावुक को गये। लगा जैसे गले में कुछ अटक रहा है। भाव-विभोर होकर उन्होंने जड़िया जी को अपनी बाँह में लपेट लिया। फिर देर तक खड़े, जड़िया जी की अटपटी काया को साइकिल पर दाहिने बाएँ झूलते, धीरे-धीरे विलीन होते देखते रहे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – गरीब की गरीबी – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है  मारीशस में गरीब परिवार  में बेटी की शादी और सामजिक विडम्बनाओं पर आधारित लघुकथा गरीब की गरीबी।) 

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी ☆ — गरीब की गरीबी — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

संदर्भ : मॉरिशस में गरीब परिवार की बेटी की शादी और सामाजिक विडंबनाओं पर आधारित यह लघुकथा यहाँ के अनेक घरों का एक आईना है। 

बेटी की शादी की दौड़ धूप में लगे हुए माँ – बाप थक कर चूर हो गए थे। बेटी ससुराल गई। माँ – बाप अपनी बेटी के लिए कल्पना लोक में खोये हुए थे। भगवान बेटी के नाम जीवन भर का सुख लिख दे। परिवार के जो एक दो लोग रह गए थे वे शाम होने से पहले चले गए थे। पंडाल तोड़ा जा चुका था। कुरसियाँ घर के किनारे में रखी हुई थीं। कल सुबह यह सब वापस चला जाता। पति – पत्नी को आज की रात बहुत सावधानी बरतनी पड़ती। इधर चोरियाँ बढ़ गई हैं। इन चीजों को चुराने वाले मौके की ताक में रहते हैं। वे जानते हैं शादी पूरी हो जाने पर लोग अपनी समस्या का निदान मान कर रात को सोते हैं तो थकान के कारण नींद उन्हें बहुत दबोचती है। वे इधर खुर्राटे ले रहे हों और उधर आंगन में चोर सब कुछ चुरा कर ले जाने की ताक में हों।

बच्चे सो गए थे। पति पत्नी की आँखों में नींद होने के बावजूद वे बैठे हुए थे। बाहर की चीजों के लिए उन्हें जागना तो था। पर इससे कहीं अधिक अपने भविष्य की आपदाओं का लेखा – जोखा आवश्यक मान कर उन्हें अपनी आँखों की नींद को भूल जाना था। जहाँ तक हो सका शादी के लिए अपनी कमाई से आपूर्ति करते रहे और कर्ज ने भी गर्दन तक की सवारी कर ली। सोनार को थोड़ा देना अभी बाकी था। इधर उधर के सारे कर्ज को मिलाएँ तो वह बोझिल ही था।

दोनों इन्हीं बातों में खोये हुए थे कि दामाद का फोन आया। उसने कहा, “आप की बेटी जो उपहार ले कर आई है एक उपहार में सिन्दूर, नींबू, धान, राख, सरसों, कबूतर का सिर वगैरह मिला है। हमारे यहाँ हलचल मची हुई है। सब डरे हुए हैं। शादी तो हमारे लिए जंजाल बन गई। कहीं ऐसा न हो यहाँ से जोड़े मुर्दे निकलें।”

दामाद को पता था यहाँ एक नामी ओझा रहता है। वह कह रहा था उस ओझा को ले कर अभी ही आएँ। दामाद ने न कह कर भी एक तरह से कह ही तो दिया उपहार में मिली ये सारी समस्याएँ आप लोगों की ओर से हैं तो आप लोग ही संभालें।

अपनी बेटी होने से माँ – बाप उसके लिए अपनी जान लड़ाते। सवाल पैदा हुआ इतनी रात को उस ओझा के घर जाना होता। उससे कहें तो क्या वह अभी जाने के लिए तैयार होगा? कौन नहीं जानता वह दस बीस हजार की बात करता है। जाने के लिए टैक्सी भी देखनी पड़ती। टैक्सी वाला ना नुकर करते दाम दोगुना कहता। यह सब मानो अग्नि परीक्षा हो !

गरीब की गरीबी आखिर किससे देखी न गई?

***

© श्री रामदेव धुरंधर

15 – 06 — 2024

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 245 – पुनरपि जननं पुनरपि मरणं.. ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 245 ☆ पुनरपि जननं पुनरपि मरणं.. ?

श्मशान में हूँ। देखता हूँ कि हर क्षेत्र की तरह यहाँ भी भारी भीड़ है। लगातार कोई ना कोई निष्प्राण देह लाई जा रही है। देह के पीछे सम्बंधित मृतक के परिजन और रिश्तेदार हैं।

दहन के लिए चितास्थल खाली मिलना भी अब भाग्य कहलाने लगा है। दो देह प्रतीक्षारत हैं। कुछ समय बाद दो खाली चितास्थलों पर  चिता तैयार की जाने लगी हैं। मृतक के परिजन और रिश्तेदार केवल ज़बानी निर्देश तक सीमित हैं। सारा काम तो श्मशान के कर्मचारी कर रहे हैं।

पुरोहित अंतिम संस्कार कराने में जुटे हैं। हर संस्कार की भाँति यहाँ भी उनसे शॉर्टकट की अपेक्षा है। मृतक के पुत्र, पौत्र, निकटवर्ती अपने केश अर्पित कर रहे हैं। उपस्थित लोगों में से अधिकांश के चेहरे पर घर या काम पर जल्दी जाने की बेचैनी है। ज़िंदा रहने के लिए महानगर की शर्तें, संवेदनाओं को मुर्दा कर रही हैं। इन मृत संवेदनाओं की तुलना में मरघट मुझे चैतन्य लगता है। यूँ भी देखें तो महानगरों के मरघट की अखंड चिताग्नि ‘मणिकर्णिका’ का विस्तार ही है।

मानस में जच्चा वॉर्ड के इर्द-गिर्द भीड़ का दृश्य उभरता है। अलबत्ता वहाँ आनंद और उल्लास है, चेहरों पर प्रसन्नता है। प्रसूतिगृह में जीव के आगमन का हर्ष है, श्मशान मेंं जीव के गमन का शोक है।

बार-बार आता है, बार-बार जाता है, फिर-फिर लौट आता है। जीव अन्यान्य देह धारण करता है। चक्र अनवरत है। विशेष बात यह कि जो शोक या आनन्द मना रहे हैं, वे भी उसी परिक्रमा के घटक हैं। आना-जाना उन्हें भी उसी रास्ते है। जीवन का रंगमंच, पात्रोंं से निरंतर भूमिकाएँ बदलवाता रहता है। आज जो कंधा देने आए हैं, कल उन्हें भी कंधों पर ही आना है।

‘भज गोविंदम्’ के 21वें पद में आदिशंकराचार्य जी महाराज कहते हैं-

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।

इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥

भावार्थ है कि बार-बार जन्म होता है‌। बार-बार मृत्यु आती है। बार-बार माँ के गर्भ में शयन करना होता है। बार-बार का यह चक्र अनवरत है। यही कारण है कि संसार रूपी महासागर पार करना दुस्तर है। वस्तुत: काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, राग-द्वेष, निंदा सभी तरह के राक्षसी विषयों का यह संसार महासागर है। यह अपरा है, यहाँ किनारा मिलता ही नहीं। ऐसे राक्षसों के अरि अर्थात मुरारि, भवसागर पार करने की शक्ति प्रदान करें।

श्मशान से श्मशान तक की यात्रा से मुक्त होने का पहला चरण है भान होना। भान रहे कि सब श्मशान की दिशा में यात्रा कर रहे हैं। यह पंक्तियाँ  लिखनेवाला और इन्हें पढ़नेवाला भी। श्मशान पहुँँचने के पहले निर्णय करना होगा कि पार होने का प्रयास करना है या फेरा लगाते रहना है। ..इति।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 192 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 192 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 192) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 192 ?

☆☆☆☆☆

गुफ़्तुगू करे हैं अक्सर

उंगलियां ही अब तो..

ज़बां तरसती है

कुछ कहने के लिए..

☆☆

Fingers only chat 

these days now ..

The tongue  longs

To say something…

☆☆☆☆☆

तेरी बात को यूँही…

खामोशी से मान लेना

ये भी एक अंदाज़ है,

मेरी  नाराज़गी  का…

☆☆

Just simply accepting

your  words  quietly…

Is  also  my  way  of

expressing resentment…

☆☆☆☆☆

रूबरू  होने   की  तो  छोड़िये,

गुफ़्तगू से  भी  क़तराने  लगे हैं,

ग़ुरूर ओढ़ते  हैं  रिश्ते  अब तो,

हैसियत पर अपनी इतराने लगे हैं…

☆☆

Leave apart being face to face,

They’ve begun  to avoid talking,

Relations are so conceited now,

Proudly unmask their haughtiness

☆☆☆☆☆

बहुत ही नादान है वो,

ज़रा समझाइए ना उसे,

बात न करने से कभी,

मोहब्बत कम नहीं होती…

☆☆

She is too innocent,

Please explain to her that

Not talking to someone

Doesn’t reduce love for him!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 191 ☆ द्विपदियाँ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है द्विपदियाँ …।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 191 ☆

☆ द्विपदियाँ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

परवाने जां निसार कर देंगे.

हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..

*

तितलियों की चाह में भटको न तुम.

फूल बन महको चली आएँगी ये..

*

जब तलक जिन्दा था रोटी न मुहैया थी.

मर गया तो तेरहीं में दावतें हुईं..

*

बाप की दो बात सह नहीं पाते

अफसरों की लात भी परसाद है..

*

पत्थर से हर शहर में मिलते मकां हजारों.

मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता..

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९.४.२०१०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-22 – आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -22 – आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

आजकल पासबुक से बड़ी कोई बुक नहीं….

मित्रो, चल रहा हूँ, यादों की पगडंडियों पर – बिल्कुल बेखबर कि ये मुझे कहां ले जाने वाली हैं पर मैं डरते-डरते चलता जा रहा हूँ। आज पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ की बहुत याद आ रही है, जिसकी कवरेज लगभग छह साल तक की, यानी छह साल तक इस विश्वविद्यालय के हर मोड़ पर अनजाने चलता गया !

सबसे पहले यादों में आ रहे हैं- योगेन्द्र यादव! वही जो पहले चुनाव विश्लेषक रहे डी डी चैनल पर, फिर आप पार्टी में शामिल हुए और इसके बाद ‘ स्वराज’ पार्टी बनाई। आजकल कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के साथ हैं। भारत जोड़ो यात्रा में एक महत्त्वपूर्ण यात्री रहे !

जिन दिनों मैं पंजाब विश्वविद्यालय कवर करता था, योगेन्द्र यादव विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र में प्राध्यापक थे और विभाग के नोटिस बोर्ड पर कोई न कोई टिप्पणी लिख कर लगा देते ! मुझे बहुत इंटरेस्टिंग लगी यह बात और ‘दैनिक ट्रिब्यून’ का एक साप्ताहिक स्तम्भ था, हर सोमवार – चंडीगढ़ दर्शन‌’ उसमें हम स्टाफ के लोग चंडीगढ़ की कोई न कोई रोचक घटना देते थे। ‌एक बार मैंने योगेन्द्र यादव की इस तरह की आदत पर

‘चंडीगढ़ दर्शन’ पर छोटी सी टिप्पणी दे दी, जिसके बाद हमारा परिचय हुआ, जो आज तक बना हुआ है। ‌हालांकि योगेन्द्र यादव जल्द ही पंजाब विश्वविद्यालय से दिल्ली चले गये। ‌इनके पिता श्री संग्राम सिंह हरियाणा के बड़े सर्वोदयी नेता थे। पिता के ही पदचिन्हों पर योगेन्द्र यादव भी चले और चलते चलते राजनीति में आ गये। जब कभी हिसार आते हैं, मुझे दिल्ली से चलते समय ही फोन आ जाता है और हमारी मुलाकातें हिसार में ज्यादा हुईं। एक बार अपना कथा संग्रह देते समय हमारे सहयोगी छायाकार मित्र फोटो खींचने लगे तब बोले कि यह दोस्ताना फोटो है और ये पत्रकार से पहले हमारे दोस्त हैं ! वे अपनी जगह राजनीति में टटोल रहे हैं और मैं पत्रकारिता व लेखन में, पर अलग अलग रास्तों के राही दोस्ती की डगर पर चल‌ रहे हैं। सालों साल से ! हम हैं राही अलग अलग दिशाओं के !

पंजाब विश्वविद्यालय के उन दिनों पी आर ओ हुआ करते संजीव तिवारी, जो कम रोचक नहीं थे! उन्होंने बिल्कुल  अपने पीछे एक वाक्य लिखवा रखा था, जिसका भाव यह था कि यदि आप सोचते हैं कि आपके आते ही सब हो जायेगा तो धैर्य रखना सीखिए, सब कुछ आपकी सोच के अनुसार नहीं होगा ! बहुत दिलचस्प ! उन्होंने अपनी ओर से पत्रकारों को आराम की सुविधा भी दे रखी थी। यदि आप आराम करना चाहें तो सामने छोटे से कमरे में जाइये और वहाँ एक बढ़िया वाले तख्तपोश पर आराम कीजिये, चाय या नींबू पानी आ जायेगा ! ऐसा पी आर ओ मैंने फिर कहीं नहीं देखा। ‌हिसार आने के बावजूद जब कभी चंडीगढ़ आना होता तो चलने से पहले तिवारी को फोन लगाता कि एक कमरा बुक करवा दीजिये और कमरा बुक मिलता ! उनकी बहन रत्निका तिवारी सेक्टर दस के गवर्नमेंट गर्ल्ज काॅलेज में संगीत प्राध्यापिका थीं और बहुत ही अच्छी गायिका ! उन्हें जाना बड़ी बेटी रश्मि के चलते क्योंकि वह इसी काॅलेज की छात्रा रही  बीए में। उनके कार्यक्रम जालंधर दूरदर्शन पर भी आते थे। कुछ समय विनीत पूनिया भी पंजाब विश्वविद्यालय के पी आर  ओ रहे, जो आजकल कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं! वे हिसार के गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के छात्र हैं!

इसी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के जिक्र के बिना आगे नहीं बढ़ पाऊंगा ! यहीं पर डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता, डाॅ यश गुलाटी, डाॅ सत्यपाल सहगल, डाॅ परेश और आजकल अपने दैनिक ट्रिब्यून के सहयोगी रहे डाॅ गुरमीत सिंह, डाॅ जगमोहन, डाॅ अतुलवीर अरोड़ा और इन दिनों डाॅ योजना रावत आदि से कुछ कम और कुछ ज्यादा जान पहचान रही ! न जाने कितने साहित्यिकारो को सुनने का अवसर मिला, जिनमें अपने प्रिय लेखक निर्मल वर्मा और प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी भी शामिल हैं। इन दोनों के इंटरव्यू जो दैनिक ट्रिब्यून के लिए किये, मेरी ‘ यादों की धरोहर’ पुस्तक में शामिल हैं! भीष्म साहनी की बात नहीं भूली कि आजकल साहित्य कम पढ़ा जाता है और आज जो बुक सबसे ज्यादा पढ़ी जाती है वह है बैंक की पासबुक !

कितनी ही साहित्यिक गोष्ठियों की कवरेज और कितने ही रचनाकारों को सुनने का अवसर मिला। मुझे डाॅ मेहंदीरत्ता ने कहा कि कमलेश, अब तुम पीएच डी कर लो, मैने बताया कि मेरा सपना डाॅ धर्मपाल ने तोड़ दिया था, दूसरे डाॅ इंद्रनाथ मदान ने बहुत प्यारी सलाह दी थी कि हिंदी में बहुत बड़ी गिनती में डाॅक्टर हो गये हैं और अब कुछ अच्छे कंपाउंडरों की जरूरत है और मैं चाहता हूँ कि तुम पर  पीएचडी हो और यह बात सच साबित हुई, मेरे लेखन पर तीन शोध प्रबंध आ चुके हैं!

खैर! अपने यशोगान के लिए माफी, यह मेरा इरादा बिल्कुल नहीं था ! आज की राम राम!

कल भी पंजाब विश्वविद्यालय ही जाना चाहूँगा ! अभी बहुत प्यारी सी यादें शेष हैं !

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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