(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है व्यंग्य की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ व्यंग्य # 91 ☆ देश-परदेश – अंतरराष्ट्रीय विवाह ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज प्रातः काल फोन की घंटी बजी प्रथम तो हमें भ्रम सा प्रतीत हुआ, क्योंकि हमारे फोन पर कॉल आवक शून्य है, हां, जावक ही जवाक हैं। सभी परिचित विभिन्न समूहों में ही हमारे लेख पर प्रतिक्रिया देकर अपने जीवित रहने का प्रमाण दे देते हैं।
फोन करने वाले की आवाज कुछ पहचानी सी लगी, लेकिन उसने बताया वो फलां ग्रुप ऑफ इंडस्ट्रीज से बोल रहा है। उसने शिकायत भरे अंदाज में बोला कि आपने, अपने लेख में हमारे परिवार के विवाह को उसके वैभव से बहुत कम आंका है, वो देश या राष्ट्रीय विवाह के स्तर से कहीं बढ़ कर अंतरराष्ट्रीय स्तर से भी ऊपर है।
पूरे विश्व से अनेक बड़ी बड़ी हस्तियां अपने अपने चार्टर्ड विमानों द्वारा कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए आ रहे हैं। इतनी अधिक संख्या में विमानों की पार्किंग पड़ोस के कुछ हवाई अड्डों तक पर भी की जा रही हैं।
आप अपनी गलती को सुधार कर इसके वास्तविक स्वरूप को जनता के समक्ष प्रस्तुत करें।
हमने डरते हुए क्षमा याचना मांग कर, अपनी भूल को माफ करने का आग्रह किया। इसके साथ हमने विश्वास दिलाया कि हम आज ही इस विवाह को अंतरराष्ट्रीय स्तर का मान कर लेख लिख देंगे।
सामने वाले ने कहा वो तो ठीक, लेकिन जब आप मुंबई में रहे थे, तो हमारी सेवाएं क्यों नहीं ली ? हमारा मोबाइल कभी भी उनके रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हैं। यदि आपने वहां कभी सेवाएँ ली होती तो, आप को भी सोन पापड़ी का आधा किलो का डिब्बा मिल जाता।
फिर हंसते हुए वो बोला, हम जॉकी नावेद खान बोल रहे है, और आप रेडियो मिर्ची मुर्गा पर लाइव हैं।
(ही अतिशय महत्वपूर्ण माहिती देणारी लेखमाला दर सोमवारी आणि मंगळवारी प्रकाशित होईल)
मागील भागात डार्कवेब चांगल्या कामासाठी कोण आणि का वापरते याबद्दल चर्चा केली. आज मात्र डार्कवेबच्या अनुचित वापराबद्दल बोलणार आहे. यातील सगळ्यात वाईट गोष्ट ही की डार्कवेबचा ७०% ते ८०% वापर अनुचित गोष्टींसाठीच केला जातो.
डार्कवेबवर त्या सगळ्या गोष्टी केल्या जातात ज्याला सभ्य समाज मान्यता देत नाही. किंवा त्या त्या देशाचे कायदे अटकाव करतात. इथे तुम्हाला हत्यारांची खरेदीविक्री, माणसांची खरेदी विक्री, लहान मुलांच्या अश्लील फिल्म, आतंकवाद्यांचे परस्परातील व्यवहार या सगळ्याच गोष्टी येतात. कारण यावर कोणत्याही देशाच्या सरकारला किंवा सुरक्षा यंत्रणाना नियंत्रण ठेवणे शक्य होऊ शकत नाही. ज्यावेळी एखादी गोष्ट पूर्णतः बंद करणे शक्य नसते त्यावेळी त्या गोष्टीचा समाजासाठी चांगला वापर कसा करता येईल हेच बघणे जास्त फायदेशीर असते. आणि तेच अनेक देशांच्या सुरक्षा यंत्रणा करतात.
याचे एक उदाहरण देतो. अमीर खानचा एक चित्रपट आला होता. ‘सरफरोश’ नावाचा. त्यात दोन पात्र दाखवले आहेत. एक आहे इन्स्पेक्टर ‘सलीम’ आणि दुसरा आहे ‘फटका’ ( जो मुंबईच्या अशा भागात राहतो जिथे अपराधिक गोष्टी केल्या जातात. ) इन्स्पेक्टर सलीम कायम त्या ‘फटका’ला पैसे देऊन त्याच्याकडून वेगवेगळी माहिती मिळवत असतो. आता जर तो अधिकारी त्या भागात ये जा करत असेल तर त्याला ते बंद करता येणे शक्य नाहीये का? उत्तर मिळते, ‘नाही’. कारण त्याने एका ठिकाणी धाड टाकली तर तो व्यवसाय दुसऱ्या ठिकाणी चालू होईल. दुकान बंद करता येईल पण पण मानसिकता कशी बदलणार? त्यापेक्षा त्या गोष्टी तशाच चालू द्यायच्या, फक्त त्यातून समाजाचा समतोल ढळणार नाही याची काळजी घ्यायची. अगदी त्याच प्रमाणे अनेक सुरक्षा यंत्रणेचे अधिकारी आपली ओळख लपवून डार्कवेबवर वावरत असतात. आणि त्या ठिकाणी जी माहिती मिळेल त्यातून समाजाचे कमीत कमी नुकसान होईल याचा प्रयत्न करतात.
आता काहींना असाही प्रश्न पडेल की नुसते वावरल्याने माहिती कशी मिळते? डार्कवेबवर कायम वेगवेगळे समूह बनवले जातात. जे अगदी काही दिवसांपुरते किंवा अनेकदा तर काही तासांपुरते सक्रीय असतात. ज्या सदस्यांना अशा समुहात सामील व्हायचे असते त्यांना एक लिंक पाठवली जाते ज्याच्या आधारे ते त्या समूहात सभासद बनतात. ( whatsapp चा वापर करणाऱ्या माणसाला हे लगेच लक्षात येऊ शकेल. कारण त्याचे बरेचशे कार्य डार्कवेबसारखेच असते. ) त्या समूहाच्या माध्यमातून संदेश दिले घेतले जातात. किंवा मग एखादी खरेदी विक्री केली जाते. एकदा का त्याचा उद्देश पूर्ण झाला की तो समूह बंद केला जातो. आणि हेच कारण आहे की जोपर्यंत सुरक्षा यंत्रणा अशा समूहातील गोष्टी डिकोड करतात, समूह बंद केलेला असतो किंवा त्या सदस्यांनी आपले स्थान बदललेले असते. मग कसे कुणाला पकडता येईल?
तुम्हाला हे whatsapp चे उदाहरण यासाठी दिले कारण मध्यंतरी एका मित्राशी चर्चा करताना त्याने हा प्रश्न उपस्थित केला होता की, whasapp ला डार्कवेब म्हणता येईल का? इथेही सगळे संदेश एनकोड करून पाठवले जातात. इथे कधीही समूह तयार करता येतो, कधीही बंद करता येतो. इथे कोणकोणते समूह आहेत हे कुणालाही कुणी सांगितल्याशिवाय समजत नाही. तुम्हालाही हा प्रश्न पडला का? या प्रश्नांचे उत्तर आहे, ‘whatsapp ला डार्कवेब म्हणता येत नाही.’ याला दोन कारणे आहेत. पाहिले कारण म्हणजे इथे तुम्ही तुमच्या फोन नंबर किंवा इमेल आयडी वरून लॉगीन होतात. या दोन्ही गोष्टी तुमची ओळख असतात. म्हणजेच इथे तुम्ही आपली ओळख लपवू शकत नाहीत. आणि दुसरे कारण म्हणजे तुम्ही whasapp वर जे समूह बनवतात त्याचा डेटा जरी एनकोड केलेला असला तरी तो एका सर्व्हरवर साठवलेला असतो. आणि जर सुरक्षा यंत्रणानी सबळ कारण देऊन मागणी केली तर तो त्यांना मिळू शकतो.
आता अजून एक प्रश्न तुमच्या मनात निर्माण झाला असेल. नेटवर्क जर सर्व्हर आणि क्लाईंट मिळून तयार होते तर इथेही सर्व्हर असणार ना? हो असतोच. पण कोणत्याही सरकारचे त्यावर नियंत्रण नसते. सरकारला त्यावर का नियंत्रण ठेवता येत नाही हे मात्र पुढील भागात.
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – नया शब्द संदर्भ…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 198 – नया शब्द संदर्भ…
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य “धांधलियों से आगे धांधली तक का सफ़र.…”।)
☆ शेष कुशल # 41 ☆
☆ व्यंग्य – “धांधलियों से आगे धांधली तक का सफ़र…”– शांतिलाल जैन ☆
विशाल सभागृह, अर्धवृत्ताकार मंच, श्रोताओं में शिक्षक, अभिभावक, नीट में धांधली का शिकार छात्रों का समूह, शिक्षा के व़जीर और उनके महकमे के मुलाज़िम. उपस्थित समूह की जननायक से हुई काल्पनिक चर्चा और सवाल-जवाब की संक्षिप्त रपट यहाँ प्रस्तुत है.
“जननायक के सामने सबसे कठिन प्रश्न था बच्चों को हिम्मत हारने से बचने के सुझाव देना. उन्होंने कहा कि परीक्षा में धांधली के शिकार छात्रों को निराश नहीं होना चाहिए. आपने चुनाव में धांधली के शिकार किसी नेता को आत्मघाती कदम उठाते हुए कभी देखा है? वो धांधलियों से आगे धांधली करना सीखता है. राजनीति में जो जितनी अधिक धांधलियाँ कर लेता है उसे उतनी अधिक सफलताएँ प्राप्त होती हैं. जननायक तो अपनी ही पार्टी के एक्जामपल देना चाह रहे थे कि टेलीप्रोम्प्टर पर आई सलाह ने उन्हें रोक दिया. उन्होंने छात्रों को बताया कि ये आर्यावर्त है, यहाँ धांधली कभी सहना होती है, कभी करना होती है. नीट की परीक्षा में धांधली आपके लिए एक स्टेपिंग स्टोन है. आपको धांधली सहना और धांधली करना दोनों सीख लेना चाहिए, अवसर मिले तो कर डालिए नहीं तो सहन करते हुए अवसर की प्रतीक्षा कीजिए. और, अब आर्यावर्त में ऐसा कुछ नहीं रहा कि धांधलियों से जन-विश्वास कमज़ोर हो जाते हों. ये राजनेताओं पर जन-विश्वास ही है जो व्यापम से नीट तक तमाम कारगुजारियों के बावजूद हर बार छात्रों को परीक्षा हॉल तक ले आता है. आर्यावर्त में जीवन धांधलियों से आगे धांधली तक की यात्रा है. यात्रा से याद आया, आप यात्रा करके परीक्षा देने जिस शहर में आए हैं हमने इसका मुगलकालीन नाम बदल दिया है. नाम बदलने से युवाओं का भविष्य सुरक्षित होता है, पेपर लीक रोकने से नहीं.
बैचमेट्स की सफलताओं के दबाव और दोस्तों के बीच कॉम्पिटीशन के सवाल पर जननायक ने कहा कि कॉम्पिटीशन हेल्दी होना चाहिए. एक बार फिर उन्होंने राजनीति का उदहारण सामने रखते हुए कहा कि राजनेता जेल में डालनेवाला हो या जेल में डलनेवाला दोनों के बीच टॉम एंड ज़ेर्री नुमा प्रतिस्पर्धा होती है. जब इसका समय आता है उसको जेल में डाल देता है, जब उसका समय आता है इसको जेल में डाल देता है. एक होड़ सी मची रहती है किसने किस पार्टी के कितने जेल में डाले. अपोजिशन का गला काट लेना लोकतंत्र स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की निशानी है. सिमिलरली, कॉम्पिटीशन मेडिकल कॉलेजों की मंडी में भी कम नहीं है. बारह हज़ार करोड़ रूपये सालाना का बाज़ार है. सीटें भरती नहीं हैं, नीलाम होती हैं. सरकार का काम है मार्किट को सपोर्ट करना. बिग कार्पोरेट्स को इंसेंटिव चाहिए, सरकार देती है. नीट में चहेतों को ग्रेस मार्क्स चाहिए, सरकार देती है. मेडिकल सीट्स के ओपन मार्किट में सर्वाईवल ऑफ़ दी फिटेस्ट का प्रिंसिपल समझ लेंगे तो कभी आत्मघाती कदम नहीं उठाएँगे.
जननायक ने अल्टरनेटिव् कॅरियर के बारे में भी सलाह दी. अभिभावकों से आग्रह किया कि अगर वे डॉक्टरी की सीट अफोर्ड नहीं कर सकते तो बच्चों को पानी-पतासी बेचने जैसे कामों में लगाएँ. उन्हें समझाएँ कि कोई कितना भी बड़ा डॉक्टर क्यों न बन जाए एक दिन वो आपके बच्चे के सामने हाथ में दोना लेकर हींग के पानीवाली पतासी जरूर मांगेगा. पतासी बेचनेवाले युवा की उपलब्धि नीट से परीक्षा पास डॉक्टर की उपलब्धि से कमतर नहीं है. कुछ लोग जो आज संसद में और विधानसभाओं में हैं कभी वे भी पानी-पतासी ही बेचा करते थे. नीट में चूक जाने पर नकारात्मकता का संचार होता है, पानी-पतासी बेचने से सकारात्मकता आती है. आई ऑलवेज सी ए लुकरेटिव कॅरियर इन सेलिंग ऑफ़ पानी पतासी.
परीक्षा के तनाव से मुकाबला करने के लिए उन्होंने रील बनाने की जरूरत पर जोर दिया. रील बनाते रहने में छात्रों के तनाव दूर करने की क्षमता है. सरकार ने डाटा सस्ता रखा है. आप रील बनाएँ और भूल जाएँ कि आपके साथ धोखा हो रहा है. फनी रील बनानेवाले – ‘पापा, मुझे माफ़ कर देना. मैं आपका सपना पूरा नहीं कर सका. आई लव यू पापा’ लिखकर आत्महत्या करना कायरता है, रील बनाते रहना वीरता है.
छात्रों को प्रेरित करने में शिक्षकों की भूमिका पर जोर देते हुए कहा कि शिक्षकों को आदिवासी युवा और राजकुमारों में फर्क करना आना चाहिए. राजशाही हो कि लोकशाही, अंगूठा किसका लेना है और धनुर्धर किसको बनाना है यह हैसियत से तय होता आया है. अपना आकलन आप स्वयं करें – पाँच सितारा निजी मेडिकल कॉलेज में जाने की हैसियत रखते हैं कि गांधीज में से किसी के नाम पर धरे गए सरकारी कॉलेज में. सर्वाईवल ऑफ़ दी फिटेस्ट. यहाँ फिट नहीं हो पा रहे तो डॉक्टरी पढ़ने यूक्रेन, बेलारूस या चीन निकल जाएँ. वहाँ के वार की चिंता न करें. हम निकाल लाएंगे आपको.
जाँच पर एक अभिभावक के प्रश्न के उत्तर में जननायक ने कहा कि सरकार को सब ज्ञात होता है, मगर वो मामले अज्ञात पर दर्ज करती है. अज्ञात को कब ज्ञात कराना है और ज्ञात को कब अज्ञात करा देना है वो आप हम पर छोड़ दीजिए. आप लोग ज्ञात-अज्ञात के फेर में न रहें, दूरदर्शन पर टी-20 फ्री टेलीकास्ट हो रहा है, एन्जॉय करें.
अंत में, शिक्षा के वज़ीर ने आश्वस्त करते हुए कहा कि सरकार पेपर लीक करने और सॉल्व करने के कारोबार को इंडस्ट्री का दर्जा देने पर गंभीरता से विचार कर रही है. हम चाहते हैं सॉल्वर-गैंग में प्रतिभाशाली बेरोजगार युवा जुड़े और ‘पेपर-लीक एंड सॉल्विंग इंडस्ट्रीज (प्रा.) लिमिटेड’ जैसे स्टार्ट-अप लगा सकें. उन्होंने जननायक और श्रोताओं का धन्यवाद अदा किया और सभी को शुभकामनाएं देकर विदा ली.”
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “जो झुके नहीं किंचित...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 198 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “जो झुके नहीं किंचित...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी”।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(अगस्त 2023 – अगस्त 2024 हिंदी के महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्मशती वर्ष है।)
देशभर के कोने कोने उनके जन्मशती वर्ष पर परसाई पर केंद्रित लगातार आयोजन हो रहे हैं। हिंदी साहित्य में हरिशंकर परसाई जैसा दूसरा व्यक्ति नहीं हुआ। परसाई के तीखे व्यंग्य बाणों ने सत्ता के अन्तर्विरोधों की पोल खोल दी और अपने युग की राजनीतिक सामाजिक विडंबनाओं को तीखे ढंग से पेश किया। हिन्दी साहित्य में परसाई ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जो प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक माने जाते हैं। आजादी के बाद आज तक वे व्यंग्य के सिरमौर बने हुए हैं, 1947 से 1995 के बीच परसाई जी की कलम ने घटनाओं के भीतर छिपे संबंधों को उजागर किया है, एक वैज्ञानिक की तरह उसके कार्यकारण संबंधों का विश्लेषण किया है और एक कुशल चिकित्सक की तरह उस नासूर का आपरेशन भी किया। वे साहित्यकार के सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहेे और अपनी रचनाओं से जन जन के बीच लोकशिक्षण का काम किया।परसाई जी जीवन के अंतिम समय तक पीड़ा ही झेलते रहे, यह व्यक्तिगत पीड़ा भी थी, पारिवारिक पीड़ा भी थी, समाज और राष्ट्र की पीड़ा भी थी, इसी पीड़ा ने व्यंग्यकार को जीवन दिया। उनका व्यंग्य कोई हंसने हंसाने, हंसी – ठिठोली वाला व्यंग्य नहीं, वह आम जनमानस में गहरे पैठ कर मर्मांतक चोट करता है, वह उत्पीड़ित समाज में नई चेतना का संचार करता है, उन्हें कुरीतियों, अज्ञान के खिलाफ जेहाद छेड़ने बाध्य करता है, वह सरकारी अमले को दिशानिर्देश देता प्रतीत होता है, यह साहस हर कोई नहीं जुटा सकता। समाज से, सरकार से, मान्य परंपराओं के विरोध करने में जो चुनौती का सामना करना होता है उससे सभी कतराते हैं, पर यह पीड़ा परसाई जी ने उठाई थी । व्यंग्य को लोकोपकारी स्वरूप प्रदान करने में उनके भागीरथी प्रयत्न की लम्बी गाथा है।अब उनके व्यंग्य की परिधि आम आदमी से घूमते घूमते राष्ट्रीय सीमा लांघ अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर स्थापित हो चुकी है। दिनों दिन बढ़ती उनकी लोकप्रियता, चकित करने वाली उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता, उनके चाहने वालों की बढ़ती संख्या से अहसास होता है कि कबीर इस धरती पर दूसरा जन्म लेकर हरिशंकर परसाई बनकर आए थे।
जो परसाई की “पारसाई” को जानता है, वही परसाई जी को असल में जानता है, उनके लिखे ‘गर्दिश के दिन’ पढ कर हर आंख नम हो जाती है, हर व्यक्ति के अंदर करूणा की गंगा बह जाती है। ‘गर्दिश के दिन’ पढ़कर एक युवा लेखक ने परसाई के नाम पत्र लिखा, जो उस समय गंगा पत्रिका में छपा था…..
जनाब परसाई जी,
मैं नया जवान हूं। कुछ साल पहले मैंने लिखना शुरू किया था। मेरी महत्वाकांक्षा थी कि मैं हरिशंकर परसाई बनूंगा पर आपका लिखा “गर्दिश के दिन” पढ़कर और आपके द्वारा भोगे गये घोर कष्टों का वर्णन पढ़कर मैंने यह विचार त्याग दिया है। मैं हरिशंकर परसाई अब नहीं बनूंगा। हरिशंकर परसाई बनना आपको ही मुबारक हो। मैं हमदर्दी भेजता हूं।
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परसाई दुनिया के ऐसे अकेले लेखक हैं जिनके जीते जी उनकी “रचनावली” प्रकाशित हुई थी, उनकी रचनाओं में धारदार हथियार करूणा के रस में डूबा रहता था, उनकी रचनाओं में ऐसा धारदार सच होता है, एक बार उनकी रचना पढकर कुछ लोगों ने उनको इतना पीटा और उनकी दोनों टांग तोड दी, पर वे टूटी टांग लिए जीवन भर लिखते रहे। आजादी के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लोकप्रिय लेखक श्री हरिशंकर परसाई ने अपनी रचनाओं के मार्फत सामाजिक सुधार में अपनी बड़ी भूमिका निभाई है, उनकी रचनाओं को पढ़कर भ्रष्टाचारियों ने भ्रष्टाचार छोड़ा,गिरगिट की तरह रंग बदलने वाली मनोवृत्ति वालों ने अपना स्वाभाव बदला, पुलिस वाले सुधरे, सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था और व्यवहार में कुछ हद तक सुधार हुआ और होता जा रहा है, लाखों लोग उनकी रचनाओं से प्रेरणा लेकर समाज सुधार में लगे हैं। वास्तव में ऐसे समाज सुधारक लोकप्रिय,लोक शिक्षक लेखक भारत रत्न के हकदार होते हैं। परसाई अपने आसपास बिखरे साधारण से विषय को अपनी कलम से असाधारण बना देते थे, उनकी रचनाएं पाठक को अंत तक पकड़े रहतीं हैं। हाईस्कूल के पंडित जी तो सबको मुहावरे और सुभाषित पढ़ाते हैं पर उनकी गहराई में जाकर परसाई जी हंसाते हुए आम आदमी की प्रवृत्तियों को उजागर करते हैं। ऐसी सहज सरल भाषा में जो आमतौर पर सब तरफ हर कान में सुनाई देती है। राजनीति परसाई जी को मुख्य विषय रहा है, राजनैतिक बदलाव की इतनी सारी स्थिति के बाद भी उनकी रचनाएं आज भी सबसे ताजा लगतीं हैं, उनकी घटना प्रधान रचनाएं कहीं से भी बासी नहीं लगती। वाह परसाई,गजब परसाई, हां परसाई …. तेरी गजब पारसाई।
परसाई जी की पहली रचना 1947 में ‘प्रहरी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, और परसाई जी ने अपने सम्पादन में पहली पत्रिका वसुधा 1956 में निकाली थी। कालेज के दिनों से हम परसाई जी के सम्पर्क में रहे और उनका विराट रूप देखा, उनकी रचनाएँ पढ़ी, “गर्दिश के दिन” में भोगे घोर कष्टों का वर्णन पढ़ा, उनसे हमने लम्बा साक्षात्कार लिया जो बाद में हंस, जनसत्ता,वसुधा में प्रकाशित हुआ। नेपथ्य में चुपचाप हम थोड़ा बहुत रचनात्मक कामों में लगे रहे, पढ़ते रहे लिखते रहे, उन्हें बहुत करीब से जाना समझा।
इस लेख के साथ उसका संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक लगता है ताकि नयी पीढ़ी परसाई जी को जान सके।
हरिशंकर परसाईं का जन्म 22 अगस्त¸ 1924 को जमानी¸ होशंगाबाद¸ मध्य प्रदेश में हुआ था। वे हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के–फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा है। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी पैदा नहीं करतीं¸ बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने–सामने खड़ा करती हैं¸ जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढ़िवादी जीवन–मूल्यों की खिल्ली उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान–सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा–शैली में खास किस्म का अपनापा है¸ जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. किया| उन्होंने 18 वर्ष की उम्र में जंगल विभाग में नौकरी भी की। खण्डवा में 6 महीने अध्यापक रहे। दो वर्ष (1941–43) जबलपुर में स्पेस ट्रेनिंग कालिज में शिक्षण कार्य का अध्ययन किया। 1943 से वहीं माडल हाई स्कूल में अध्यापक रहे। 1952 में यह सरकारी नौकरी छोड़ी। 1953 से 1957 तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। 1957 में नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरूआत की। जबलपुर से ‘वसुधा’ नाम की साहित्यिक मासिकी निकाली¸ नई दुनिया में ‘सुनो भइ साधो’¸ नयी कहानियों में ‘पाँचवाँ कालम’¸ और ‘उलझी–उलझी’ तथा कल्पना में ‘और अन्त में’ इत्यादि का लेखन किया। कहानियाँ¸ उपन्यास एवं निबन्ध–लेखन के बावजूद मुख्यत: हरिशंकर परसाईं व्यंग्यकार के रूप में अधिक विख्यात रहे| परसाई जी जबलपुर रायपुर से निकलने वाले अखबार देशबंधु में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। स्तम्भ का नाम था-पूछिये परसाई से। पहले हल्के इश्किया और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे । धीरे-धीरे परसाईजी ने लोगों को गम्भीर सामाजिक-राजनैतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया। दायरा अंतर्राष्ट्रीय हो गया। यह सहज जन शिक्षा थी। लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिये अखबार का इंतजार तक करते थे।
हरिशंकर परसाईं जी का सन 1995 में देहावसान हो गया।
कहानी–संग्रह: हँसते हैं रोते हैं¸ जैसे उनके दिन फिरे।
उपन्यास: रानी नागफनी की कहानी¸ तट की खोज, ज्वाला और जल।
संस्मरण: तिरछी रेखाएँ , के अलावा और बहुत सी संग्रह।
लेख संग्रह: तब की बात और थी¸ भूत के पाँव पीछे¸ बेइमानी की परत¸ अपनी अपनी बीमारी, प्रेमचन्द के फटे जूते, माटी कहे कुम्हार से, काग भगोड़ा, आवारा भीड़ के खतरे, ऐसा भी सोचा जाता है, वैष्णव की फिसलन¸ पगडण्डियों का जमाना¸ शिकायत मुझे भी है¸ सदाचार का ताबीज¸ विकलांग श्रद्धा का दौर¸ तुलसीदास चंदन घिसैं¸ हम एक उम्र से वाकिफ हैं।
सम्मान: ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित। अनेकों पुरस्कार/ सम्मानों से सम्मानित।
सन् 1985 में प्रकाशित परसाई रचनावली में स्वयं परसाई द्वारा लिखे गये निवेदन का एक अंश…
35 साल अपने विश्वास को मजबूती से पकड़कर, बिना समझौते के, मैंने जो सही समझा, लिखा है। जो कुछ मानव विरोधी है, उस पर निर्मम प्रहार किया है। नतीजे भोगे हैं, अभी भोग रहा हूँ, आगे भी भोगता जाउॅंगा। पर मैं लगातार उसी स्फूर्ति, शक्ति ओर विश्वास से लिखता जा रहा हूँ।
मेरा लिखा हुआ कुल इतना नहीं है, जो इस रचनावली में है। अभी बहुत कुछ शेष है जो आगे प्रकाशित होगा। फिर मैं मरा नहीं हूँ। जिन्दा हूँ और लिख रहा हूँ।
पुराने मित्रों में मैं ‘स्वामीजी’ कहलाता हूँ। परम्परा है कि संन्यासी अपना श्राद्ध स्वयं करके मरता है। तो रचनावली मेरा अपना श्राद्ध कर्म है, जो कर के दे रहा हॅू। वैसे मैं अभी जवान हूँ, मगर श्राद्ध अभी कर दे रहा हूँ।
श्री जय प्रकाश पाण्डेय
416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “जीने दो मुझको”)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘मन के धागे…‘।)