हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 20 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 20 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

चुपचाप उतरता रहा

दुनिया का चुप

मेरे भीतर,

मेरी कलम चुपचाप

चुप्पी लिखती रही।

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 9:26 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना ज्येष्ठ पूर्णिमा तदनुसार 21 जून से आरम्भ होकर गुरु पूर्णिमा तदनुसार 21 जुलाई तक चलेगी 🕉️

🕉️ इस साधना में  – 💥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 💥 मंत्र का जप करना है। साधना के अंतिम सप्ताह में गुरुमंत्र भी जोड़ेंगे 🕉️

💥 ध्यानसाधना एवं आत्म-परिष्कार साधना भी साथ चलेंगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 135 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत हैं “मनोज के दोहे ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 135 – मनोज के दोहे ☆

प्रिये हुआ मन अनमना, चली गई तुम छोड़।

सूना-सूना घर लगे, अजब लगे यह मोड़।।

*

अकथ परिश्रम कर रहे, मोदी जी श्री मान।

पार चार सौ चाहते,  माँगा था वरदान।।

*

गिरे हमारे आचरण, का हो अब प्रतिरोध।

तभी प्रगति के पथ चढ़ें, यही रहा है शोध।।

*

न दिखतीं अमराईयाँ, कटे वृक्ष की मेढ़।

कहाँ गईं हरियालियाँ, चाट गईं हैं भेड़।।

*

अधिक नहीं अनुपात में, हो भोजन का लक्ष्य।

अनुशासित जीवन जिएँ, यही बड़ा है कथ्य।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 18 – संस्मरण # 12 – – बिखरता कुनबा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण बिखरता कुनबा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 18 – संस्मरण # 12 – बिखरता कुनबा ?

गाँव छोड़े मुझे काफी समय बीत गया। बाबूजी ने खेतों के बीचोबीच एक बड़ा – सा घर बनाया था। घर में प्रवेश से पहले लिपा पुता आँगन, तुलसी मंच और एक कुआँ हमारा स्वागत करता।

फिर आती एक सीढ़ी, जिसे चढ़कर तीन तरफ से खुला बरामदा हुआ करता था। यहाँ कपड़े और लकड़ी की सहायता से बनी एक आराम कुर्सी रखी रहती जिस पर बाबूजी अक्सर बैठे हुक्का गुड़गुड़ाया करते थे। कौन आया कौन गया, हाथ पैर धोए या नहीं, पैरी पौना (प्रणाम) किया या नहीं इन सब बातों की ओर उनका पूरा ध्यान रहता था। हाँ, उनके हाथ में एक जापमाला भी हुआ करती थी और वह दिवा – रात्रि उँगलियों में उसे फेरा करते थे।

बाबूजी जब अस्सी के ऊपर थे तब भी कमाल था कि कोई बात भूलते हों! संस्कारों में, रीति-रिवाज के पालन में, लेन -देन में, बहुओं की देखभाल में कहीं कोई कमी न आने देते। घर का सारा अंकुश उनके हाथ में था। सबको अपना हिस्सा मिले, सब स्वस्थ रहें, बहुएँ समय -समय पर अपने पीहर जाएँ, ज़ेवर बनाएँ, वस्त्र खरीदे इन सब बातों की ओर बाबूजी का पूरा ध्यान रहता था। खेतीबाड़ी साझा होने के कारण घर में धन का अभाव न था।

बाबूजी बहुत मेहनती थे। सत्तर साल की उम्र तक सुबह – शाम पहले तो खुद ही गोठ में जाते, गैया मैया की पूजा करते, उनके पैरों को छूकर प्रणाम करते उन्हें नहलाते, साफ करते फिर उनके पास उनके बछड़े को छोड़ते। वह भरपेट दूध पी लेते तो वे बाकी दूध दुहकर घर के भीतर ले लाते।

ताज़ा दूध उबल जाने पर अपनी आँखों के सामने बिठाकर अपने दोनों बेटों को और हम बच्चों को दूध पिलाते। घर में दो भैंसे भी थीं, उनकी भी खूब सेवा करते। दूध दुहकर लाते और उसी दूध से बेबे (दादीमाँ) दही जमाती, पनीर बनाती, मक्खन निकालती, घी बनाती। सुबह पराँठे के साथ ढेर सारा मक्खन मिलता, दोपहर को लस्सी, रात को पनीर। वाह ! बीजी ( माँ) और चाईजी ( चाचीजी) दोनों के हाथों में जादू था। क्या स्वादिष्ट भोजन पकाया करती थीं कि बस हम सब उँगलियाँ चाटते रहते थे।

घर के भीतर आठ बड़े कमरे थे और एक खुला हुआ आँगन। रसोई का कमरा भी बड़ा ही था और वहीं आसन बिछाकर हम सब भोजन किया करते थे। आँगन में बच्चों की तेल मालिश होती, मेरे चारों बड़े भाई मुद्गल उठा -उठाकर व्यायाम करते, उनकी भी मालिश होती और वे कुश्ती खेलने अखाड़ों पर जाते।

बेबे आँगन के एक कोने में कभी गेहूँ पीसती तो कभी चने की दाल। कभी मसालेदार बड़ियाँ बनाती तो कभी सब मिलकर पापड़। बेबे को दिन में कभी खाली बैठे हुए नहीं देखा। वह तो सिर्फ साँझ होने पर ही बाबूजी के साथ बैठकर फुरसत से हुक्का गुड़गुड़ाया करती और बतियाती।

बाबूजी सुबह- सुबह पाठ करते और बेबे नहा धोकर सब तरफ जल का छिड़काव करतीं। तुलसी के मंच पर सुबह शाम दीया जलाती। गायों को अपने हाथ से चारा खिलाती और अपनी दिनचर्या में जुट जातीं। बेबे हम हर पोता-पोती को अलग प्यार के नाम से पुकारती थीं। घर में किसी और को उस नाम से हमें पुकारने का अधिकार न था। मैं घर का सबसे छोटा और आखरी संतान था। वे मुझे दिलखुश पुकारा करती थीं। बेबे के जाने के बाद यह नाम सदा के लिए लुप्त हो गया। आज चर्चा करते हुए स्मरण हो आया।

ठंड के दिनों में गरम -गरम रोटियाँ, चूल्हे पर पकी अरहर की दाल, अरबी या जिमीकंद या पनीर मटर की स्वादिष्ट सब्ज़ियाँ सब चटखारे लेकर खाते। सब कुछ घर के खेतों की उपज हुआ करती थी। ताजा भोजन खाकर हम सब स्वस्थ ही थे। हाँ कभी किसी कारण पेट ऐंठ जाए तो बेबे बड़े प्यार से हमारी नाभी में हींग लगा देती और थोड़ी ही देर में दर्द गायब!कभी दाँत में दर्द हो तो लौंग का तेल दो बूँद दाँतों में डाल देतीं। दर्द गायब! सर्दी हो जाए तो नाक में घी डालतीं। सर्दी गुल! खाँसी हो जाए तो हल्दी वाला दूध रात को पिलाती। शहद में कालीमिर्च का चूर्ण और अदरक का रस मिलाकर पिलाती। खाँसी छूमंतर ! पर हम इतने सारे भाई बहन कभी किसी वैद्य के पास नहीं गए।

घर के हर लड़के के लिए यह अनिवार्य था कि दस वर्ष उम्र हो जाए तो बाबा और चाचाजी की मदद करने खेतों पर अवश्य जाएँ। गायों, भैंसो को नहलाना है, नाँद में चारा और चौबच्छे में पीने के लिए पानी भरकर देना है। बाबूजी अब देखरेख या यूँ कहें कि सुपरवाइजर की भूमिका निभाते थे।

लड़कियों के लिए भी काम निश्चित थे पर लड़कों की तुलना में कम। बहनें भी दो ही तो थीं। बेबे कहती थीं- राज करण दे अपणे प्यो दे कार, ब्याह तो बाद खप्पेगी न अपणे -अपणे ससुराला विच। ( राज करने दे अपने पिता के घर शादी के बाद खटेगी अपनी ससुराल में ) और सच भी थी यह बात क्योंकि हम अपनी बेबे, बीजी और चाइजी को दिन रात खटते ही तो देखते थे।

दोनों बहनें ब्याहकर लंदन चली गईं। बाबूजी के दोस्त के पोते थे जो हमारे दोस्त हुआ करते थे। घर में आना जाना था। रिश्ता अच्छा था तो तय हो गई शादी। फिर बहनें सात समुंदर पार निकल गईं।

दो साल में एक बार बहनें घर आतीं तो ढेर सारी विदेशी वस्तुएँ संग लातीं। अब घर में धीरे – धीरे विदेशी हवा, संगीत, पहनावा ने अपनी जगह बना ली। घर में भाइयों की आँखों पर काला चश्मा आ गया, मिक्सर, ज्यूसर, ग्राइंडर, टोस्टर आ गए। जहाँ गेहूँ पीसकर रोटियाँ बनती थीं वहाँ डबलरोटी जैम भी खाए जाने लगे। हर भोजन से पूर्व सलाद की तश्तरियाँ सजने लगीं। घर में कूलर लग गए। रसोई से आसन उठा दिए गए और मेज़ कुर्सियाँ आ गईं। ठंडे पानी के मटके उठा दिए गए और घर में फ्रिज आ गया। जिस घर में दिन में तीन- चार बार ताज़ा भोजन पकाया जाता था अब पढ़ी -लिखी भाभियाँ बासी भोजन खाने -खिलाने की आदी हो गईं।

सोचता हूँ शायद हम ही कमज़ोर पड़ गए थे सफेद चमड़ियों के सामने जो वे खुलकर राज्य करते रहे, हमें खोखला करते रहे। वरना आज हमारे पंजाब के हर घर का एक व्यक्ति विदेश में न होता।

बेबे चली गईं, मैं बीस वर्ष का था उस समय। बाबूजी टूट से गए। साल दो साल भर में नब्बे की उम्र में बाबूजी चल बसे। वह जो विशाल छप्पर हम सबके सिर पर था वह हठात ही उठ गया। वह दो तेज़ आँखें जो हमारी हरकतों पर नज़र रखती थीं अब बंद थीं। वह अंकुश जो हमारे ऊपर सदैव लगा रहता था, सब उठ गया।

घर के बड़े भाई सब पढ़े लिखे थे। कोई लंदन तो कोई कैलीफोर्निया तो कोई कनाडा जाना चाहता था। अब तो सभी तीस -बत्तीस की उम्र पार कर चुके थे। शादीशुदा थे और बड़े शहरों की पढ़ी लिखी लड़कियाँ भाभी के रूप में आई थीं तो संस्कारों की जड़ें भी हिलने लगीं थीं।

बीस वर्ष की उम्र तक यही नहीं पता था कि अपने सहोदर भाई -बहन कौन थे क्योंकि बीजी और चाईजी ने सबका एक समान रूप से लाड- दुलार किया। हम सबके लिए वे बीजी और चाईजी थीं। बाबा और चाचाजी ने सबको एक जैसा ही स्नेह दिया। हम सभी उन्हें बाबा और चाचाजी ही पुकारते थे। कभी कोई भेद नहीं था। हमने अपने भाइयों को कभी चचेरा न समझा था, सभी सगे थे। पर चचेरा, फ़र्स्ट कज़न जैसे शब्द अब परिवार में सुनाई देने लगे। कभी- कभी भाभियाँ कहतीं यह मेरा कज़न देवर है। शूल सा चुभता था वह शब्द कानों में पर हम चुप रहते थे। जिस रिश्ते के विषय से हम बीस वर्ष की उम्र तक अनजान थे उस रिश्ते की पहचान भाभियों को साल दो साल में ही हो गई। वाह री दुनिया!

पहले घर के हिस्से हुए, फिर खेत का बँटवारा। अपने -अपने हिस्से बेचकर चार भाई बाहर निकल गए।

बहनें तो पहले ही ब्याही गई थीं।

अगर कोई न बिखरा था तो वह थीं बीजी और चाइजी। उन्होंने बहुओं से साफ कह दिया था – सोलह साल दी उम्रा विच इस कार विच अस्सी दुआ जण आई सन, हूण मरण तक जुदा न होणा। बेशक अपनी रोटी अलग कर ले नुआँ। ( सोलह साल की उम्र में हम दोनों इस घर में आई थीं अब मरने तक जुदा न होंगी हम। बेशक बहुएँ अपनी रोटी अलग पका लें)

हमारा मकान बहुत बड़ा और पक्का तो बाबूजी के रहते ही बन गया था। सब कहते थे खानदानी परिवार है। गाँव में सब हमारे परिवार का खूब मान करते थे। बिजली, घर के भीतर टूटी (नल), ट्रैक्टर आदि सबसे पहले हमारे घर में ही लाए गए थे। पर सत्तर -अस्सी साल पुराना कुनबा विदेश की हवा लगकर पूरी तरह से बिखर गया।

आज मैं अकेला इस विशाल मकान में कभी – कभी आया जाया करता हूँ। अपनी बीजी, चाइजी और चाचाजी से मिलने आता हूँ। वे यहाँ से अन्यत्र जाना नहीं चाहते थे। खेती करना मेरे बस की बात नहीं सो किराए पर चढ़ा दी। जो रोज़गार आता है तीन प्राणियों के लिए पर्याप्त है। मैं यहीं भटिंडा में सरकारी नौकरी करता हूँ। बाबा का कुछ साल पहले ही निधन हुआ। अविवाहित हूँ इसलिए स्वदेश में ही हूँ वरना शायद मैं भी निकल गया होता।

आज अकेले बैठे -बैठे कई पुरानी बातें याद आ रही हैं।

बाबूजी कहते थे, *दोस्तानुं कार विच न लाया करो पुत्तर, पैणा वड्डी हो रही सन। ( अपने दोस्तों को लेकर घर में न आया करो बेटा, बहनें बड़ी हो रही हैं। )

हमारी बहनों ने हमारे दोस्तों से ही तो शादी की थी और घर पाश्चात्य रंग में रंग गया था। बाबूजी की दूरदृष्टि को प्रणाम करता हूँ।

बेबे कहती थीं – हॉली गाल्ल कर पुत्तर दीवारों दे भी कान होंदे। ( धीरे बातें करो बेटे दीवारों के भी कान होते हैं)

बस यह दीवारों के जो कान होने की बात बुजुर्ग करते थे वह खाँटी बात थी। घर के दूसरे हिस्से में क्या हो रहा था इसकी खबर पड़ोसियों को भी थी। वरना इस विशाल कुनबे के सदस्य इस तरह बिखर कर बाहर न निकल जाते।

© सुश्री ऋता सिंह

27/4/1998

फोन नं 9822188517, ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 162 ☆ “एजी ओजी लोजी इमोजी” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक – श्री अरुण अर्णव खरे ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री अरुण अर्णव खरे जी द्वारा लिखित  “ एजी ओजी लोजी इमोजी ” (व्यंग्य संग्रह) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 161 ☆

☆ “एजी ओजी लोजी इमोजी” (व्यंग्य संग्रह) – लेखक – श्री अरुण अर्णव खरे ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक – एजी ओजी लोजी इमोजी (व्यंग्य संग्रह)

लेखक  – श्री अरुण अर्णव खरे

प्रकाशक – इंक पब्लीकेशन

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

सर्वप्रथम बात इंक पब्लीकेशन की, दिनेश जी वाकई वर्तमान साहित्य जगत में अच्छी रचनाओं के प्रकाशन पर उम्दा काम कर रहे हैं, उन्हे और उनके चयन के दायरे में अरुण अर्णव खरे जी के व्यंग्य संग्रह हेतु दोनो को बधाई।

अरुण अर्णव खरे जी इंजीनियर हैं, अतः उनके व्यंग्य विषयों के चयन, नामकरण, शीर्षक, विषय विस्तार में ये झलक सहज ही दिखती है। किताब पूरी तो नही पढ़ी पर कुछ लेख पूरे पढ़े, कई पहले ही अन्यत्र पढ़े हुए भी हैं। पुस्तक का शीर्षक व्यंग्य सोशल मीडिया में इमोजी की चिन्ह वाली भाषा से अनुप्रास में प्रायः हमारी पीढ़ी की पत्नियो द्वारा अपने पतियों को एजी के संबोधन से जोड़कर बनाया गया है। बढ़िया बन पड़ा है। लेख भी किंचित हास्य, थोड़ा व्यंग्य, थोड़ा संदेश, कुछ मनोरंजन लिए हुए है। संग्रह इकतालीस व्यंग्य लेख संजोए हुए है। टैग बिना चैन कहां, सच के खतरे, झूठ के प्रयोग ( गांधी के सत्य के प्रयोग से प्रेरित विलोम ), नमक स्वादानुसार, ड्रीम इलेवन ( श्री खरे अच्छे खेल समीक्षक भी हैं ), पाला बदलने का मुहूर्त रचनाएं प्रभावोत्पादक है। आत्म कथन में अरुण जी ने प्रिंट  किताब के भविष्य पर अपनी बात रखी है, सही है। पीडीएफ होते हुए भी, अवसर मिला तो इस कृति को पुस्तक के रूप में पढ़ने का मजा लेना पसंद करूंगा। अस्तु

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 197 – ब्रम्ह कमल ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “ब्रम्ह कमल”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 197 ☆

🌻 लघु कथा 🌻 ब्रम्ह कमल 🌻

भोर होते ही श्वेत दमकता मनमोहक हरी लताओं के बीच देवी प्रसाद – माया जी के यहाँ बगीचे में ब्रम्ह कमल खिला।

चेहरे पर असीम शांति, मन उत्साह उमंग से भरपूर कि आज कुछ शुभ संदेश मिलेगा।

कांपते हाथों से, मोबाइल ले दोनों को जैसा बना कई बार तस्वीरें खींचे और, बेटा – बेटी को शेयर किया।

जो दूर परदेश अपने – अपने परिवारों के साथ रहते थे।

लिखा – – ‘बच्चों आज हमारे आँगन में ब्रम्ह कमल खिला। तुम सब भी होते तो देखते। बड़े ही सौभाग्य से ये पुष्प खिलता है।’

बिटिया रानी ने तो मुस्कुराते ईमोजी बनाकर भेज दिया। परन्तु बेटा जो कभी फोन में बात भी करना पसंद नही करता, आज मेसेज लिखा–“आप क्या समझते हैं, तस्वीर को सब को दिखाऊँ। यहाँ इससे भी कई प्रकार के फ्लावर मैने अपने रुम में सजा कर रखा है। लोटस दिखाकर आप मुझसे लौटने की उम्मीद मत करना।बेहतर होगा आप जितनी जल्दी हो सके ये बातें समझ जायें।”

पिता जी रिटायर्ड परसन थे। आँखों में अश्रुं दबाते, ऊँगली मोबाइल पर चल पड़ी – – ‘सुना था ब्रम्ह कमल खिलने पर कुछ शुभ संदेश मिलता है। Thanks to God! !’ 🙏🙏👍

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य / आलेख # 90 – देश-परदेश – चर्चा : राष्ट्रीय विवाह ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है व्यंग्य/आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ व्यंग्य # 90 ☆ देश-परदेश – चर्चा : राष्ट्रीय विवाह ☆ श्री राकेश कुमार ☆

खिलाड़ी और बॉलीवुड के विवाह की चर्चा तो होती ही रहती हैं। कुछ दिन पूर्व रामायण परिवार की सुपुत्री सोनाक्षी का विवाह चर्चा और विवाद में रहा हैं। अभिताभ बच्चन का विवाह के फोटो में ना दिखना आदि। जब तक कोई और फिल्मी विवाह नहीं हो जाता तब तक इसके किस्से और अफवाहें गर्म रहेंगे।

इसी बीच एक भारतीय आर्थिक भगोड़े ने अपने पुत्र का विवाह लंदन में आयोजित कर दिया। कुछ चर्चा भी हुई, विशेष कर एक अन्य चर्चित नाम ललित मोदी उपस्थित थे। चोर चोर मोसरे भाई।

हाल ही में एक सर्वे रिपोर्ट आई है, जिसमें ये जानकारी दी गई है, कि भारतीय शिक्षा से अधिक विवाह में खर्च करते हैं। इस बात का राष्ट्रीय विवाह जोकि 12 जुलाई को अम्बानी परिवार में होने जा रहा है, से कोई दूर दूर तक संबंध नहीं हैं।

विवाह पूर्व आयोजनों को प्रोहत्सन देने के लिए देश व्यापी प्रचार के लिए दो कार्यक्रम तो संपन्न हो चुके हैं। ये तो ट्रेलर है, पिक्चर अभी बाकी हैं, मेरे व्हाट्स एपिया दोस्तों।

विषय राष्ट्रीय है, निमंत्रण पत्र, मेहमान, स्थान, भोजन, रिटर्न गिफ्ट, आदि लंबी सूची है। अलग अलग विषयों पर चर्चा भी तो अलग अलग ही होनी चाइए।

हमने तो आशीर्वाद के रूप में प्रति माह कुछ राशि जियो के जुलाई माह से बढ़े हुए बिल के माध्यम से देना तय कर लिया हैं। आप भी तो कुछ तय करें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #244 ☆ प्रीतिची शिल्लक… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 244 ?

प्रीतिची शिल्लक ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

वार एवढे नको करू तू  पाठीवरती

अनेक जखमा तुझ्याच आहे नावावरती

*

हृदय वाहुनी तुला टाकले नको काळजी

वार झेलण्या मीही तत्पर छातीवरती

*

जुने वाद ते नकोच आता उकरुन काढू

बोलत जा ना कधीतरी तू प्रेमावरती

*

साक्षर नव्हती बहिणाबाई तरी प्रतीभा

बहिणाईला ओव्या सुचल्या जात्यावरती

*

युद्धासाठी तो आलेला रणांगणावर

शर नाही तर गुलाब दिसले भात्यावरती

*

नको वल्गना नकोच चिंता नकोच संशय

शुद्ध भावना डाग नसावा नात्यावरती

*

नको बंगला नकोच गाडी प्रेम असावे

मज प्रीतिची शिल्लक दिसुदे खात्यावरती

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 197 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 197 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

जाओ

इनका अभीष्ट सिद्ध करो।

मूक माधवी

चल पड़ी

गालव के पीछे

जैसे

एक सीधी गाय

जाती है

वधिक के पीछे

वध स्थल की ओर।

(स्तब्ध निस्तब्ध और प्रश्न हीन )

माधवी के साथ

चले गालव

और

पहुंचे

इच्वाकुवंशी नृपतिशिरोमणि

महापराक्रमी

हर्यश्व के पास

जो थे

चतुरंगिनी सेना संपन्न ।

गालव ने

शुभाशीष देते हुए

स्पष्ट किया

आने का प्रयोजन।

राजेन्द्र

तुम चाहो तो

शुल्क देकर

इस सौन्द्रर्यवती से

कर सकते हो

विवाह

 क्रमशः आगे —

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 197 – “सॉंझ सकारे सामंजस्य बिठाने…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत सॉंझ सकारे सामंजस्य बिठाने...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 197 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “सॉंझ सकारे सामंजस्य बिठाने...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

एक युद्ध घर के बँटवारे का

सहने को तत्पर , माँ

और दूसरा देख रही बेटों में

आज भयंकर, माँ

 

बहुओं का युद्धाभ्यास

समझाता है इस आशय को

सालेगा अपमान सहित

जो बढी हुई माँ की वय को

 

इन सब का अनदेखा करती

रोज शिवाला जाती है

सहज दिखाई देती हर क्षण

संस्कार की आकर,  माँ

 

इस घर की गतिविधियाँ ध्वंसक

रोज संवरण करने में

धो लेती है समय-समय पर

जिन्हें अश्रु के झरने में

 

सॉंझ सकारे सामंजस्य बिठाने

में खटती रहती

गोया माँ, माँ न होकर

इस घर की हो बस चाकर , माँ

 

सपने कैसे चूर- चूर

होते हैं यह उसने जाना

और यही है नियति विश्व की

यह भी उसने अब माना

 

और कभी इस घर में मंगल

का जिसने रोपा पौधा

उसकी खातिर रहजाती है

जी सहला- सहला कर , माँ

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

30-09-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब”)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

पद्मश्री शेख गुलाब

☆ कहाँ गए वे लोग # १९ ☆

☆ “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

शेख गुलाब का जन्म अविभाजित मण्डला जिले के डिंडौरी में हुआ था। अब मण्डला से अलग होकर डिंडौरी भी स्वतंत्र जिला बन गया है। तब यह गाँव बहुत छोटा था। नर्मदा के किनारे। नर्मदा के पानी से होकर इस अंचल की कला और संस्कृति जैसे शेख गुलाब की रगों में दौड़ने-फिरने लगी थी। इलाकाई नाच-गाने का उन्हें जुनून-सा था। सारा समय इसी को तलाशने, देखने, समझने, सुनने-गुनने में बीतता। बिल्कुल शुरुआती दौर में ही उन्होंने इस बात को पकड़ लिया था कि आने वाला समय बाज़ार के साथ मिलकर पारंपरिक कलाओं की इस अनमोल धरोहर पर बड़ा हमला करने वाला है। इसीलिए उन्होंने अपना सारा ध्यान दो बिंदुओं की ओर केंद्रित किया; एक तो लोक कलाओं की परंपरा, स्वरूप, शैली आदि का दस्तावेजीकरण और दूसरे नई पीढ़ी के बीच जाकर इन कलाओं को प्रायोगिक रूप में आगे बढ़ाना। इस काम के लिए उन्हें डिंडौरी का परिवेश जरा संकुचित लग रहा था।

मण्डला जबलपुर रोड पर आदिवासी गांव कालपी है  कालपी में हेड-मास्टर की पोस्ट थी, वे एक दर्जा नीचे थे। उन्होंने कहा कि वे अपने-आप को साबित कर दिखाएंगे और न कर पाए तो जीवन-भर प्रमोशन नहीं लेंगे। तब के लोगों के पास रीढ़ की हड्डी नामक दुर्लभ चीज भी हुआ करती थी और वे नियमों की लकीर पीटते बैठे नहीं रहते थे। स्कूल इंस्पेक्टर ने हेड मास्टर साहब को किसी ट्रेनिंग में भेज दिया और शेख गुलाब को कालपी में तैनात कर दिया। यहाँ आकर वे अपने काम में इस तरह जुटे की देश भर में उनका नाम फैलने लगा और दिलीप कुमार जैसी शख्सियत को भी यहाँ आना पड़ा। वे आदिवासी लोक-जीवन पर आधारित एक फ़िल्म “काला आदमी” बनाना चाहते थे। 

इस फ़िल्म के नृत्य-संगीत को लेकर शेख गुलाब के साथ उन्होंने लम्बी चर्चा की। आगे यह फ़िल्म बन तो नहीं सकी पर इस मुलाकात की चर्चा के साथ शेख गुलाब का नाम वे भी जानने लगे थे, जो अब तक उनके नाम और काम से वाकिफ़ न थे।

चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल भारत आया हुआ था। डेलिगेशन के सम्मान में होने वाले आयोजन के लिए कालपी से शेख गुलाब को याद किया गया। गुलाब साहब के दल को गेंड़ी नृत्य प्रस्तुत करना था।  

पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक, प्रधानमंत्री निवास में शेख गुलाब  का इस तरह से आना-जाना रहा कि गोया दरबान भी उन्हें पहचानने लगे थे।  शेख गुलाब को अलबत्ता पद्मश्री सम्मान मिल गया था। सम्मान लेने के लिए उन्होंने लोगों के दबाव में एक अदद कुर्ता-सलवार सिलवाया था। वे सादगी पसंद थे। जीवन भर धोती-कुर्ता पहनते रहे। उन्हें लगा कि एक सम्मान के लिए इस तरह से भेस बदलना बहुरूपियों का काम है। आखिरी वक्त में वे मौलिक रूप में आ गए। सलवार-कुर्ता धरा रह गया। बाज लोग तो सम्मान के लिए क्या-क्या स्वांग धर लेते हैं। इन काग के भाग में सम्मान के बदले फ़क़त कुछ मोर पंख होते हैं, जिन्हें  इन्हें अपनी दुम में खोंसना होता है।

शेख गुलाब को सबसे ज्यादा मकबूलियत गेंड़ी नाच की वजह से मिली। गेंड़ी नाच की इससे पहले कोई सुदीर्घ परम्परा नहीं रही। इसकी शुरुआत संयोगवश हुई और इसी नृत्य ने शेख गुलाब को खूब नाम दिया। बारिश वाले दिनों में जब खेतों में कीचड़ होता है तब किसान गेंड़ी का इस्तेमाल यहाँ आने-जाने में करते हैं। 

गेंड़ी नाच की कोई स्थापित परम्परा नहीं रही। वर्ष 1952 में शेख गुलाब मिडिल स्कूल के अपने छात्रों को लोक-नृत्य की तालीम दे रहे थे। गाँव के कुछ लड़के गेड़ियों में चढ़कर नाच का देखने आए थे। जब अभ्यास खत्म हुआ गेंड़ी में सवार दर्शकों में से एक बालक हू ब हू नाच की नकल करने लगा। शेख गुलाब के जेहन में उसी तरह बिजली कौंध गई जैसे बारिश में पतंग उड़ाते हुए बेंजामिन फ्रेंकलिन के जेहन में चमकी होगी। उन्हें लगा कि लोक-नृत्य गेड़ियों पर भी किए जा सकते हैं। उन्होंने बालकों के लिए कतिपय छोटी-छोटी गेड़ियाँ बनवाई और इन पर छोटे-छोटे बालकों ने जरा बड़ा काम कर दिखाया।

गेंड़ी वाला करतब नृत्य तक सीमित नहीं रहा। गेंड़ी पर सवार होकर फुटबॉल भी खेला जा सकता है। जाने कैसे यह खबर ऑल इंडिया फुटबॉल एसोसिएशन तक पहुँच गई। उन्होंने कालपी की गेंड़ी फुटबॉल टीम को कोलकाता ( तब कलकत्ता) आमंत्रित किया। फुटबॉल वहाँ के लोगों ने खूब देखा था, पर गेंड़ी फुटबॉल एक अजूबा था। पूरे शहर में गेंड़ी फुटबॉल खेलने वाले बालकों के ‘कट आउट’ लग गए थे। बालक अपने ही होर्डिंग्स को हैरानी से देख रहे थे और यकीन नहीं कर पा रहे थे कि ये वही हैं। एमसीसी की क्रिक्रेट टीम भी वहीं थी। टीम के कप्तान हावर्ड जाफरी अपने दल-बल के साथ मैदान में मौजूद थे। मण्डला वाले इलाके में तब जंगल और भी घने हुआ करते थे, इसलिए टीम के नामकरण में थोड़ा ‘जंगलीपन’ जरूरी था। एक टीम का नाम ‘शेर दल’ था और दूसरा ‘भैंसा दल’ था। जंगली भैंस और शेर के बीच भिड़ंत बहुत जबरदस्त होती है। यहाँ भी जबरदस्त टक्कर हुई और दोनों दलों ने मिलकर लोगों का दिल जीत लिया। जैसा शोर गोल होने पर मचता है, इस मुकाबले में वैसा शोर एक-एक ‘किक’ पर मचता था, जो गेड़ियों से लगाई जाती थी। अगले दिन के अखबार मैच के विवरण से भरे पड़े थे। 

अगले ही बरस, यानी वर्ष 1954 में दिल्ली की गणतंत्र दिवस की परेड में पहली बार लोक-नृत्यों को शामिल किया गया। मध्य-प्रदेश की टीम तैयार करने की जिम्मेदारी प्रख्यात कथक नृत्यांगना सितारा देवी को सौंपी गई। सितारी देवी के बारे में ज्यादा जानना हो तो उन पर लिखा मंटो का आलेख पढ़ना चाहिए। सितारा शास्त्रीय कलाकार थीं और उनके जिम्मे जो टीम दी गई वो लोक-कलाकार थे। एक विधा कड़े अनुशासन और प्रशिक्षण वाली और इसके बरक्स दूसरी विधा ऐसी जो सहज जीवन शैली से आती है और थोड़ा खिलंदड़ापन लिए हुए होती है। दोनों के बीच पटरी बैठ नहीं पा रही थी। सितारा देवी भी असहज महसूस कर रही थीं। पंडित रविशंकर शुक्ल ने एक अभ्यास देखा तो वे पूरी तरह से उखड़ गए। उन्होंने शेख गुलाब का नाम सुन रखा था। आखिरकार लोक-कलाकारों की यह मंडली शेख गुलाब के हवाले कर दी गई। वे इसी काम के लिए बने थे।

कलाकारों के इस दल ने दिल्ली की परेड में जमकर नाच दिखाया। दर्शकों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के अलावा फिल्मकार व्ही शांताराम भी मौजूद थे। वे “झनक झनक पायल बाजे” की तैयारी में लगे हुए थे। व्ही शांताराम ने कलाकारों के कैम्प में आकर शेख गुलाब से भेंट की और कहा कि वे एक बार फिर से इस नृत्य की रिहर्सल देखने की ख्वाहिश रखते हैं। रिहर्सल हुई। व्ही शांताराम की पूरी टीम रिहर्सल के दौरान नृत्य देखकर झूमती रही। फिर अगले दिन पूरी वेशभूषा के साथ शूटिंग की बात हुई। गाँव के कुछ बालक जानते भी न थे कि शूटिंग क्या बला होती है। पर वे जमकर नाचे। व्ही शांताराम ने नृत्य के इस टुकड़े को अपनी फिल्म में जगह दी। 

श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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