हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #239 – 124 – “अहवाल दिल का पहले काँटों से पूछ ले,…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल अहवाल दिल का पहले काँटों से पूछ ले…” )

? ग़ज़ल # 124 – “अहवाल दिल का पहले काँटों से पूछ ले…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

रोशनदान  नहीं  अंधेरों की बात कर,

तू मत सियासी सियारों की बात कर।

*

झुलस ले तू मई की तपती दुपहरी में,

बाद उसके मस्त फुहारों की बात कर।

*

अहवाल दिल का पहले काँटों से पूछ ले,

तब तू ख़ुशबू ओ गुलज़ारों की बात कर।

*

ख़ुद तू कितना बरहम है इन हैवान से,

मत रोज बिकते अख़बारों की बात कर।

*

बेशुमार दर्द पलता रक्काशा के दिल में,

तू मत घुँघरू के झंकारों की बात कर।

*

सुनसान  कमरे में  बैठा  क्या  सोचता,

बाहर निकल मत अंधियारों की बात कर।

*

आतिश ज़मीन पर ज़िंदगी भरपूर जी ले,

ना  आसमान पर  सितारों की बात कर।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 117 ☆ मुक्तक – ।।हर धड़कन में हिंदी हिंदुस्तान चाहिए।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 117 ☆

☆ मुक्तक – ।।हर धड़कन में हिंदी हिंदुस्तान चाहिए।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हर रंग से भी हमें रंगीन हिंदुस्तान चाहिए।

खिले बागों   बहार सा  गुलिस्तान चाहिए।।

चाहिए विश्व में नाम   ऊँचा भारत      का।

विश्व   गुरु   भारत   का  सम्मान   चाहिए।।

[2]

मंगल चांद को  छूता भारत महान चाहिए।

अजेय  अखंड विजेता  हिंदुस्तान  चाहिए।।

दुश्मन नजर उठा  कर देख भी  न    सके।

हर शत्रु का   हमको   काम तमाम चाहिए।।

[3]

हमें गले मिलते राम और रहमान   चाहिए।

एक दूजे के लिए  प्रणाम  सलाम चाहिए।।

चाहिए हमें मिल कर रहते हुए सब    लोग।

एक दूजे के लिए दिलों में एतराम चाहिए।।

[4]

एक सौ पैंतीस करोड़ सुखी अवाम   चाहिए।

कश्मीर से कन्याकुमारी प्रेम पैगाम चाहिए।।

चाहिए विविधता में एकता का शक्ति दर्शन।

सम्पूर्ण विश्व में राष्ट्र का  यशो  गान चाहिए।।

[5]

पुरातन संस्कार मूल्य का  गुणगान चाहिए।

हर भारतवासी के चेहरे पर मुस्कान चाहिए।।

चाहिए गर्व और  गौरव   अपने भारत का।

हर धड़कन में  हिन्दी हिंद का पैगाम चाहिए।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 179 ☆ ३० मई -पत्रकार दिवस विशेष >> पत्रकार ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “अभी भी बहुत शेष है। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ३० मई -पत्रकार दिवस विशेष >> पत्रकार ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

जनतांत्रिक शासन के पोषक

जनहित के निर्भय सूत्रधार

शासन समाज की गतिविधि के विश्लेषक जागृत पत्रकार

 

लाते है खोज खबर जग की देते नित ताजे समाचार

जिनके सब से , सबके जिनसे रहते है गहरे सरोकार

जो धडकन है अखबारो की जिनसे चर्चायेे प्राणवान

जो निगहवान है जन जन के निज सुखदुख से परे निर्विकार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

चुभते रहते है कांटे भी जब करने को बढते सुधार

कर्तव्य पंथ पर चलते भी सहने पडते अक्सर प्रहार

पर कम ही पाते समझ कभी संघर्षपूर्ण उनकी गाथा

धोखा दे जाती मुस्काने भी उनको प्रायः कई बार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

आये दिन बढते जाते है उनके नये नये कर्तव्य भार

जब जग सोता ये जगते है कर्मठ रह तत्पर निराहार

औरो को देते ख्याति सदा खुद को पर रखते हैं अनाम

सुलझाने कोई नई उलझन को प्रस्तुत करते नये सद्विचार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

जग के कोई भी कोने में झंझट होती या अनाचार

ये ही देते नई सोच समझ हितदृष्टि हटा सब अंधकार

जग में दैनिक व्यवहारों मे बढते दिखते भटकाव सदा

उलझाव भरी दुनियाॅ में नित ये ही देते सुलझे विचार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

सुबह सुबह अखबारों से ही मिलते हैं सारे समाचार

जिनका संपादन औ प्रसार करते हैं नामी पत्रकार

निष्पक्ष और गंभीर पत्रकारों का होता बडा मान

क्योंकि सब गतिविधियों के विश्लेषक सच्चे पत्रकार

कर्तव्य परायण पत्रकार

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #234 ☆ सुनना और सहना… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सुनना और सहना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 234 ☆

☆ सुनना और सहना… ☆

‘हालात सिखाते हैं सुनना और सहना/ वरना हर शख्स फ़ितरत से बादशाह ही होता है’ गुलज़ार इस कथन के माध्यम से समय व परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हैं। वैसे यह तथ्य महिलाओं पर अधिक लागू होता है, क्योंकि ‘औरत को सहना है, कहना नहीं और यही उसकी नियति है।’ उसे तो अपना पक्ष रखने का अधिकार भी प्राप्त नहीं है। वैसे कोर्ट-कचहरी में भी आरोपी को अपना पक्ष रखने की हिदायत ही नहीं दी जाती; अवसर भी प्रदान किया जाता है। परंतु औरत की नियति तो उससे भी बदतर है। बचपन से उसे समझा दिया जाता है कि यह घर उसका नहीं है और पति का घर उसका होगा। परंतु पहले तो उसे यह सीख दी जाती थी कि ‘जिस घर से डोली उठती है, उस घर से अर्थी नहीं उठती। इसलिए तुम्हें इस घर में अकेले लौट कर नहीं आना है।’ सो! वह मासूम आजीवन उस घर को अपना समझ कर सजाती-संवारती है, परंतु अंत में उस घर से उस अभागिन को दो गज़ कफ़न भी नसीब नहीं होता और उसके नाम की पट्टिका भी कभी उस घर के बाहर दिखाई नहीं पड़ती।

परंतु समय के साथ सोच बदली है और आठ से दस प्रतिशत महिलाएं सशक्त हो गई हैं– शेष वही ढाक के तीन पात। कुछ महिलाएं समानता के अधिकारों का दुरुपयोग भी कर रही हैं। वे ‘लिव इन व मी टू’ के माध्यम से हंसते-खेलते परिवारों में सेंध लगा रही हैं तथा दहेज व घरेलू हिंसा आदि के झूठे इल्ज़ाम लगा पति व परिवारजनों को सीखचों के पीछे पहुंचा अहम् भूमिका वहन कर रही हैं। यह है परिस्थितियों के परिर्वतन का परिणाम, जैसा कि गुलज़ार ने कहा है कि समानता का अधिकार प्राप्त करने के पश्चात् महिलाओं की सोच बदली है। वे अब आधी ज़मीन ही नहीं, आधा आसमान लेने पर  आमादा हो रही हैं। मुझे स्मरण हो रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘मौसम भी बदलते हैं, हालात बदलते हैं/ यह समाँ बदलता है, जज़्बात बदलते हैं/ यादों से महज़ मिलता नहीं, दिल को सुक़ून/  ग़र साथ हो सुरों का, नग़मात बदलते हैं।’ जी हां! यही सत्य है जीवन का– समय के साथ- साथ व्यक्ति की सोच भी बदलती है। वैसे स्मृतियों में विचरण करने से दिल को सुक़ून नहीं मिलता। परंतु यदि सुरों अथवा संगीत का साथ हो, तो उन नग़मों की प्रभाव-क्षमता भी अधिक हो जाती है।

‘संसार में मुस्कुराहट की वजह लोग जानना चाहते हैं; उदासी की वजह कोई नहीं जानना चाहता।’ यहां ‘सुख के सब साथी, दु:ख में ना कोय।’ सो! इंसान सुखों को इस संसार के लोगों से सांझा नहीं करना चाहता, परंतु दु:खों को बांटना चाहता है। उस स्थिति में वह आत्म- केंद्रित रहते हुए दूसरों से संबंध-सरोकार रखना पसंद नहीं करता। अक्सर लोग सत्ता व धन- सम्पदा व सम्मान वाले व्यक्ति का साथ देना पसंद करते हैं; उसके आसपास मंडराते हैं, परंतु दु:खी व्यक्ति से गुरेज़ करते हैं। यही है ‘दस्तूर- ए-दुनिया।’

‘हौसले भी किसी हक़ीम से कम नहीं होते/ हर तकलीफ़ में ताकत की दवा देते हैं।’ मानव का साहस, धैर्य व आत्मविश्वास किसी वैद्य से कम नहीं होता। वे मानव को मुसीबतों में उनका सामना करने की राह सुझाते हैं। जैसे एक छोटी-सी दवा की गोली रोग-मुक्त करने में सहायक सिद्ध होती है, वैसे ही  संकट काल में सहानुभूति के दो मीठे बोल संजीवनी का कार्य करते हैं। ‘मैं हूं ना’ यह तीन शब्द से उसे संकट-मुक्त कर देते हैं। इसलिए मानव को विषम परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करना चाहिए तथा हार होने से पहले पराजय को नहीं स्वीकारना चाहिए। दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला कहते हैं ‘हिम्मतवान् वह नहीं, जिसे डर नहीं लगता, बल्कि वह है जो डर को जीत लेता है’ तथा वैज्ञानिक मैडम क्यूरी का मानना है कि ‘जीवन डरने के लिए नहीं: समझने के लिए है। सकारात्मक संकल्प से ही हम मुश्किलों से बाहर निकल सकते हैं।’ सो! संसार में वीर पुरुष ही विजयी होते और कायर व्यक्ति का जीना प्रयोजनहीन होता है। इसके साथ हम सकारात्मक सोच व दृढ़-संकल्प से कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। नैपोलियन का यह संदेश अनुकरणीय है कि ‘समस्याएं भय व डर से उत्पन्न होती हैं। यदि डर की जगह विश्वास ले ले, तो वे अवसर बन जाती हैं। वे विश्वास के साथ आपदाओं का सामना कर उन्हें अवसर में बदल डालते थे।’ इसलिए हर इंसान को अपने हृदय से डर को बाहर निकाल फेंकना चाहिए। यदि आप साहस-पूर्वक यह पूछते हैं–’इसके बाद क्या’ तो प्रतिपक्ष के हौसले पस्त हो जाते हैं। जिस दिन मानव के हृदय से भय निकल जाता है; वह आत्मविश्वास से आप्लावित हो जाता है और आकस्मिक आपदाओं का सामना करने में स्वयं को समर्थ पाता है। हमारे हृदय का भय का भाव ही हमें नतमस्तक होने पर विवश करता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में यही संदेश दिया है कि ‘अन्याय करने वाले से अधिक दोषी अन्याय सहन करने वाला होता है।’ हमारी सहनशीलता ही उसे और अधिक ज़ुल्म करने को प्रोत्साहित करती है। जब हम उसके सम्मुख डटकर खड़े हो जाते हैं, तो वह अपनी झेंप मिटाने के लिए अपना रास्ता बदल लेता है। यह अकाट्य सत्य है कि हमारा समर्पण ही प्रतिपक्ष के हौसलों को बुलंद करता है।

मौन नव निधियों की खान है; विनम्रता आभूषण है। परंतु जहां आत्म-सम्मान का प्रश्न हो, वहाँ उसका सामना करना अपेक्षित व श्रेयस्कर है। ऐसी स्थिति में मौन को कायरता का प्रतीक स्वीकारा जाता है। सो! वहाँ समझौता करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। भले ही सुनना व सहना हमें हालात सिखाते हैं, परंतु उन्हें नतमस्तक हो स्वीकार कर लेना पराजय है।

‘यदि तुम स्वयं को कमज़ोर समझते हो, तो कमज़ोर हो जाओगे। यदि ख़ुद को ताकतवर सोचते हो, तो ताकतवर’– स्वामी विवेकानंद जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। हमारी सोच ही हमारा भविष्य निर्धारित करती है। इसलिए जीवन में नकारात्मकता को जीवन में कभी भी घर न बनाने दो। रोयटी बेनेट  के अनुसार चुनौतियाँ व प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें हमारा साक्षात्कार कराने हेतु आती हैं कि हम कहां हैं? तूफ़ान हमारी कमज़ोरियों पर आघात करते हैं, लेकिन तभी हमें अपनी शक्तियों का आभास होता है। समाजशास्त्री प्रौफेसर कुमार सुरेश के शब्दों में ‘अगर हमारा परिवार साथ है, तो हमें मनोबल मिलता है और हम हर संकट का सामना करने को तत्पर रहते हैं।’ अरस्तु के शब्दों में ‘श्रेष्ठ व्यक्ति वही बन सकता है, जो दु:ख और  चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा मानकर आगे बढ़ता है।’ सो! मानव को उन्हें प्रभु-प्रसाद व अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल स्वीकारना चाहिए। माता देवकी व वासुदेव को 14 वर्ष तक काराग़ार में रहना पड़ा। देवकी के कृष्ण से प्रश्न करने पर उसने उत्तर दिया कि इंसान को अपने कृत-कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। आप त्रेतायुग में माता कैकेयी व पिता वासुदेव दशरथ थे। आपने मुझे 14 वर्ष का वनवास दिया था। इसलिए आपकी मुक्ति भी 14 वर्ष पश्चात् ही संभव थी। सो! ‘जो हुआ, जो हो रहा है और जो होगा, अच्छा ही होगा। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए और हर परिस्थिति का खुशी से स्वागत् करना चाहिए। समय कभी थमता नहीं; निरंतर गतिशील रहता है। इसलिए मन में कभी मलाल को मत आने दो। यह समाँ भी गुज़र जाएगा और उलझनें भी समयानुसार सुलझ जाएंगी। उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला दें, तो सब अच्छा ही होगा। औचित्य-अनौचित्य में भेद करना सीखें और विपरीत परिस्थितियों में प्रसन्न रहें, क्योंकि शरणागति ही शांति पाने का सर्वोत्तम साधन है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 9 – नवगीत – गुलमोहर के पेड़ो में अब… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – गुलमोहर के पेड़ो में अब

? रचना संसार # 9 – नवगीत – गुलमोहर के पेड़ो में अब…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

कुमुदिनियों के गजरे सूखे,

वसंत की अगवानी में।

रोम-रोम छलनी भँवरे का,

माली की मनमानी में।।

 *

परिवर्तन आया जीवन में

फूल गुलाबों के चुभते।

गुलमोहर के पेड़ो में अब,

बस काँटे निशदिन उगते।।

गयीं रौनकें हैं उपवन की

सुगंध न रातरानी में।

 *

बोली लगती सच्चाई की,

मिथ्या सजी दुकानों में।

प्रतिपक्षी आश्वासन देते,

नारों भरे विमानों में।।

दाग लगा अपनी निष्ठा को,

पोंछें चूनर धानी में।

 *

लाक्षागृह का जाल बुन रही,

बैठी कौरव की टोली।

विष का घूँट पी रहे पाँडव,

खाकर रिश्तों की गोली।।

जमघट अधर्मियों का लगता,

आग लगाते पानी में।

 *

पाँच सितारा होटल में तो,

भाग्य गरीबों का सोता।

नित्य करों के नये बोझ से,

व्यापारी बैठा रोता।।

चोट बजट घाटे का देता,

अपनी ही नादानी में।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #234 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  प्रदत्त शब्दों पर भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 234 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

चित्र बनाया आपका, देखे स्वप्न हज़ार।

मैं तुझमें खोती गई, तू ही मेरा प्यार।।

*

तुझको माना साजना, होकर भाव विभोर।

मैं दुल्हन तेरी बनी,  बांँधे जीवन डोर।।

*

दूर नहीं तुमसे हुए, चले गए  परदेश।

आओ जल्दी तुम सजन, बना वियोगी वेश।।

*

  सोये नहीं दिन रात हम, स्वप्न देखते जाग।

बिन तेरे निन्द्रा कहाँ, भड़क रही है आग।।

*

मैं तेरी अभिसारिका, बस तेरी है आस।

टूट रहा है स्वप्न अब, छूट रही है सांस।।

*

तेरी राह निहारती , नहीं मुझे अब चैन।

*कब आआगे पीव तुम, राह देखते नैन।।

*

तुम बिन तो सब रूठ गया, रूठ गया है प्यार।

बिछिया पायल कंगना,  रूठा है शृंगार।।

*

मोर पंख की लेखनी, लिखे भाव उद्गार।

प्रेम प्यार से लिख रहे, शब्दों की झंकार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #216 ☆ एक पूर्णिका – बैठे रहे किनारों पर जो… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – बैठे रहे किनारों पर जो आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 216 ☆

एक पूर्णिका – बैठे रहे किनारों पर जो ☆ श्री संतोष नेमा ☆

स्वप्न    सुनहरे   टूट     गए

अपने   हमसे    रूठ    गए

*

हाथ थामें कब तक सच का

दोस्त    पुराने    छूट     गए

*

मुंह   देखी  न  आती हमको

सच   बोला  तो   झूठ    गए

*

बैठे   रहे   किनारों   पर  जो

धार   देख  कर   कूद    गए

*

मंजिल  मिलती खुद्दारों  को

जो   डर   बैठे     चूक   गए

*

सदा वफा   से  दूर  रहा  जो

गम – सागर में वह  डूब  गए

*

गुलों से यारी  प्यार  गीत से

ये   “संतोष”  को   लूट   गए

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 198 ☆ तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 198 ☆ तुम्हारी भक्ति हमारे प्राण

कई दिनों से राई का पहाड़ देख रहीं हूँ, जैसे दाना गिरा वैसे  लोग झपटकर उसे उठा लेते हैं। बात का बतंगड़ बनाना और चीख चिल्लाहट करते हुए शांति की अपील करने का नाटक भला कब तक रास आएगा। कोई न कोई मुद्दा बना रहना चाहिए जिससे लोगों में उत्साह रहे।

कोई दस शीष लगा संकेतों में कुटिलता से हँस रहा है, कोई  धैर्यवान बन  पहाड़ टूट कर बिखरने का इंतजार कर रहा है। कोई कुछ भी न करते हुए बस दोषारोपण की राजनीति करता रहता। जिसको जैसा समझ में आयेगा वो वही तो करेगा।अपने – अपने तरकश से विष बुझे तीर चलाने में सभी उस्ताद हैं। जब भी युद्ध होता है परेशान निरीह प्राणी  होते हैं क्योंकि कोई जीते कोई हारे वे तो वही रहेंगे।  क्रोध की दशा में व्यक्ति की मनोवृत्ति का पता चलता है। पर कर्म योगी केवल कर्म को देखते हुए अराजक तत्वों को भी पुनः अपने स्नेह का पात्र बना लेते हैं।

सारी गड़बड़ियों की जड़ को पुनः अपना हिस्सा बना नए हिस्सों को जन्म देने लग जाते हैं।जब मन से मनुष्यता समाप्ति की ओर हो तो सब कुछ कैसे सही होगा।वैसे  ये घटनाक्रम तो  युग- युगान्तर से चल रहा है और इसके दोषी वही होते हैं जो गलतियाँ माफ़ करते हैं कोई कितना भी जरूरी क्यों न हो उसे  उसकी गलती का दंड मिलना चाहिए जैसे रावण, कंस, दुर्योधन व दुशासन को मिला।आवश्यकता इस बात की है कि सत्य को स्वीकार कर, सर्वधर्म सद्भाव को बढ़ावा मिले, अच्छी भावनाओं को फैलाते हुए नेकी करने वालों का सम्मान हो।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 7 – अजीब समस्या ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अजीब समस्या)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 7 – अजीब समस्या ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

रूढ़ीवादी सोच विज्ञान का मजाक उड़ाने में सबसे आगे होती है। यही कारण था कि उसकी कोख में बच्ची थी। अब आप पूछेंगे कि मुझे कैसे पता? कहीं डॉक्टरों को खिला-पिलाकर मालूम तो नहीं करवा लिया। यदि मैं कहूँ कि उसकी कोख में बच्चा था, तब निश्चित ही आप इस तरह का सवाल नहीं करते। आसानी से मान लेते। हमारे देश में लिंग भेद केवल व्याकरण तक सीमित है। वैचारिक रूप से हम अब भी पुल्लिंगवादी हैं। खैर जो भी हो उसकी कोख में बच्चा था या बच्ची यह तो नौ महीने बाद ही मालूम होने वाला था। चूंकि पहली संतान होने वाली थी सो घर की बुजुर्ग पीढ़ी खानदान का नाम रौशन करने वाले चिराग की प्रतीक्षा कर रही थी। वह क्या है न कि कोख से जन्म लेने वालौ संतान अपने साथ-साथ कुछ न दिखाई देने वाले टैग भी लाती हैं। मसलन लड़का हुआ तो घर का चिराग और लड़की हुई तो घर की लक्ष्मी। कोख का कारक पुल्लिंग वह इस बात से ही अत्यंत प्रसन्न रहता है कि उसके साथ पिता का टैग लग जाएगा, जबकि कोख की पीड़ा सहने वाली ‘वह’ माँ बाद में बनेगी, सहनशील पहले।

घर भर के लोगों को कोख किसी कमरे की तरह लग रहा है। जिसमें कोई सोया है और नौ महीने बाद उनके सपने पूरा करने के लिए जागेगा और बाहर आएगा। सबकी अपनी-अपनी अपेक्षाएँ हैं। सबकी अपनी-अपनी डिमांड है। दादा जी का कहना है कि उनका चिराग आगे चलकर डॉक्टर बनेगा तो दादी का कहनाम है कि वह इंजीनियर बनेगा। चाचा जी का कहना है कि वह अधिकारी बनेगा तो चाची जी उसे कलेक्टर बनता देखना चाहती हैं। पिता उसे बड़ा व्यापारी बनता देखना चाहते हैं तो कोई कुछ तो कुछ। सब अपनी-अपनी इच्छाएँ लादना चाहते हैं, कोई उसे यह पूछना नहीं चाहता कि वह क्या बनना चाहता है। मानो ऐसा लग रहा था कि संतान का जन्म इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए हो रहा है, न कि उसे खुद से कुछ करने की।

उसकी कोख में संतान की पीड़ा से अधिक घर भर की डिमांड वाली पीड़ा अधिक सालती है। आँसुओं के भी अपने प्रकार हैं। जो आँसू कोरों से निकलते हैं उसकी भावनात्मक परिभाषा रासायनिक परिभाषा पर हमेशा भारी पड़ती है। वह घर की दीवारों, खिड़कियों और सीलन पर पुरुषवादी सोच का पहरा देख रही है। उसकी कोख पीड़ादायी होती जा रही है। उसमें सामान्य संतान की तुलना में कई डिमांडों की पूर्ति करने वाले यंत्र की आहट सुनाई देती है। ऐसा यंत्र जिसे न रिश्तों से प्रेम है न संस्कृति-सभ्यता से। न प्रकृति से प्रेम है न सुरीले संगीत से। उस यंत्र के जन्म लेते ही रुपयों के झूले में रुपयों का बिस्तर बिछाकर रुपयों का झुंझुना थमा दिया जाएगा और कह दिया जाएगा कि बजाओ जितना बजा सकते हो। बशर्ते कि ध्वनि में रुपए-पैसों की खनखनाहट सुनाई दे। भहे ही रिश्तों के तार टूटकर बिखर जाएँ और अपने पराए लगने लगें। चूंकि जन्म किसी संतान का नहीं यंत्र का होने वाला है, इसलिए सब यांत्रिक रूप से तैयार हैं।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 158 ☆ “व्यंग्य लोक त्रैमासिकी” – संपादक – रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ. मीना श्रीवास्तव जी द्वारा श्री विश्वास विष्णु देशपांडे जी की मराठी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद – रामायण महत्व और व्यक्ति विशेषपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 158 ☆

☆ “व्यंग्य लोक त्रैमासिकी” – संपादक – रामस्वरूप दीक्षित ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

चर्चा पत्रिका की

व्यंग्य लोक त्रैमासिकी

वर्ष १ अंक १ प्रवेशांक मई जुलाई २०२४

संपादक – रामस्वरूप दीक्षित

समकालीन व्यंग्य समूह की त्रैमासिक

ई पत्रिका

सम्पर्क [email protected]

समकालीन_व्यंग्य समूह एक व्हाट्सअप समूह है। समूह में ३०० से ज्यादा प्रबुद्ध रचनाकार देश विदेश से जुड़े हुये हैं। समकालीन सक्रिय साहित्यिक समूहों में इस समूह का श्रेष्ठ स्थान है। व्यंग्य, कहानी, कविता, साहित्यिक मुद्दों पर लिखित चर्चा, पुस्तकों पर बातें,लेखक से प्रश्नोत्तर, आदि विभिन्न आयोजनो की रूपरेखा निर्धारित है, जिसे अलग अलग स्थानों से विभिन्न साहित्य प्रेमी अनुशासित तरीके से सप्ताह भर, हर दिन अलग पूरी गंभीरता से चलाते हैं। समूह के एडमिन टीकमगढ़ से प्रसिद्ध व्यंग्यकार राम स्वरूप दीक्षित हैं। उन्हीं की परिकल्पना के परिणाम स्वरूप समूह की त्रैमासिक ई पत्रिका व्यंग्य लोक का प्रवेशांक मई से जुलाई २०२४ हाल ही https://online.fliphtml5.com/rfcmc/bbfe/index.html पर सुलभ हुआ है। फ्लिप फार्मेट के प्रयोग से प्रिंटेड पत्रिका पढ़ने जैसा ही आनंद आया। ई पत्रिका के लाभ अलग ही हैं, कोई कागज का अपव्यय नहीं, यदि टैब या फिर कम से कम मोबाईल इंटरनेट के साथ है, तो आप दुनियां में जहां कहीं भी हों पत्रिका आपके साथ है। मैने भी इसे लंदन के हीथ्रो एयरपोर्ट पर अपनी फ्लाइट के इंतजार में पहली बार पढ़ा।

श्री रामस्वरूप दीक्षित

आत्म_लोक में संपादक जी समकालीन परिदृश्य पर लिखते हैं कि रचना प्रकाशित होते ही व्यंग्यकार का दिमाग लिखने से ज्यादा छपने में सक्रिय हो जाता है, पाँच छै व्यंग्य छपने के बाद तो कोई स्वयं को वरिष्ठ से कम मानने ही तैयार नहीं। पुरखों के कोठार से स्तंभ में लतीफ घोंघी जी का व्यंग्य हो जाये इसी बहाने एक श्रद्धांजली पुनर्प्रकाशित किया गया है। अपठनीयता के इस समकाल में यह स्तंभ उल्लेखनीय है। पहला ही चयन लतीफ घोंघी को लेकर किया गया यह महत्वपूर्ण है। लतीफ घोंघी और ईश्वर शर्मा की व्यंग्य की जुगलबंदी लम्बे समय तक चली, जिसमें दोनो व्यंग्यकार एक ही विषय पर लिखा करते थे।

पन्ना पलटते ही व्यंग्य विधा पर विचार लोक स्तंभ में डॉ सेवाराम त्रिपाठी, प्रेम जनमेजय, यशवंत कोठारी और अजित कुमार राय के वैचारिक लेख हैं। प्रेम जनमेजय का आलेख व्यंग्य के आज की उलटबासियां पढ़ा, अच्छा लगा।

व्यंग्य की पत्रिका में व्यंग्य तो होने ही थे, अरविंद तिवारी, सुभाष चंदर, सूरज प्रकाश, जवाहर चौधरी, सुधीर ओखदे, अख्तर अली राजेंद्र सहगल, शशिकांत सिंह शशि और कमलेश पांडेय की व्यंग्य रचनाएं व्यंग्यलोक के अंतर्गत छपी हैं। जवाहर चौधरी की रचना खानदानी गरीब घुइयांराम वार्तालाप शैली में लिखा गया अच्छा व्यंग्य है, घुइयांराम कहते हैं कि एक बार वोट को बटन दबा देने बाद हम रुप५या किलो के सड़ा गेहूं हो जात हैं…. तुम ठहरे खानदानी गरीब तुम लोकतंत्र की आत्मा हो । ऑफ द रिकॉर्ड स्तंभ में अनूप श्रीवास्तव का शैलेश मटियानी पर संस्मरण है।कविता लोक में राकेश अचल की पंक्तियां हैं ” सबके सब हैं जहर बुझे तीरों जैसे, किसके दल में शामिल हो जाउं बेटा “। डॉ विजय बहादुर सिंह, हेमंत देवलेकर, कमलेश भारतीय, विमलेश त्रिपाठी, और पद्मा शर्मा की कविताएं भी है।लंदन के तेजेंद्र शर्मा की कहानी दर ब दर कथा लोक में ली गई है। फेसबुक लोक एक हटकर स्तंभ लगा, त्वरित, असंपादित और पल में दुनियां भर में पहुंच रखने वाले फेसबुक को इग्नोर नही किया जा सकता, ये और बात है कि इंस्टाग्राम और थ्रेड युवाओ को फेसबुक से खींच कर अलग करते दिख रहे हैं। राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी की फेसबुक वाल से माखनलाल चतुर्वेदी के कर्मवीर के पहले अंक से १७ जनवरी १९१९ के संपादकीय की ऐतिहासिक सामग्री है, तब भी राजनीति का यही हाल समझ आया। पुस्तक लोक में प्रमोद ताम्बट, शांतिलाल जैन, धर्मपाल महेंद्र जैन, टीकाराम साहू आजाद और प्रियम्वदा पांडेय की किताबों पर क्रमशः राजेंद्र वर्मा, शशिकांत सिंह शशि, मधुर कुलश्रेष्ठ, किशोर अग्रवाल और हितेश व्यास की पुस्तकों की समीक्षाएं हैं। सूचना लोक में पिछले दिनों सम्पन्न हुए साहित्यिक कार्यक्रमों की जानकारी दी गई है।

लेखक जी कहिन स्तंभ में घुमक्कड़ कहानी लेखिका संतोष श्रीवास्तव का आत्मकथ्य है। बिना पूरी पत्रिका पढ़े आपको मजा नहीं आयेगा। पेज नंबर दिये जाने थे जो चूक हुई है। यह तो हिट्स ही बतायेंगे कि पत्रिका कितनी पढ़ी गई और कहां कहां पढ़ी गई। बहरहाल इस संकल्पना की पूर्ति पर रामस्वरूप दीक्षित जी के मनोयोग तथा समर्पण की उन्हें बधाई। वे निश्चित ही अगले अंक की तैयारियों में जुटे होंगे। ईश्वर करे कि इस अच्छी पत्रिका को कुछ विज्ञापन मिल जायें क्योंकि पत्रिकायें केवल हौसलों से नहीं चलती।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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