(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे… । आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ व्रतोपासना – ९. पशू पक्षी यांचा आदर करावा ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆
आपण ज्या पृथ्वीवर रहातो तेथे मानव एकटाच नसतो. पृथ्वीवर जी जीवसृष्टी आहे त्यातील माणूस हा एक प्राणी आहे. माणूस बुध्दीने सर्वश्रेष्ठ असल्याने सर्वांच्या वरचढ ठरला आहे. तसे पाहिले तर इतर प्राण्यांच्या कडे जे आहे त्यातील काहीच माणसाकडे नाही. पण आपल्या बुद्धीच्या बळावर तो सर्वांना ताब्यात ठेवू शकतो. प्राण्यांच्या ठायी असलेल्या शक्ती मशिन द्वारे प्राप्त करतो. खरे तर सर्व पशू पक्षी निसर्गात महत्वाचे असतात. ते निसर्गाचा समतोल राखतात. त्यांच्या मुळे निसर्गाचे संवर्धन होते. या मुळे आपले जीवन समृध्द होते. निसर्गाचे चक्र अव्याहत चालू रहायचे असेल तर हे पशू, पक्षी, कीटक, वृक्ष, नद्या, डोंगर आवश्यक आहेत. परंतू हे लक्षात न घेता माणसाने आपल्या बुद्धीचा स्वार्थी व बेबंद वापर केला तर माणसाचीच सर्वात जास्त हानी होणार आहे. ज्या जीवसृष्टीच्या आधारे माणूस सुखात जगत असतो, ज्यांच्या आधाराने जगत असतो त्यांचे आपण ऋणी असले पाहिजे. ही साधी माणुसकी आहे.
या विषयी भारतीय संस्कृतीने उच्च आदर्श जपला आहे. श्राद्ध या कृतज्ञता विधीमध्ये धर्मपिंड दिले जाते. ते सर्व पशू, पक्षी, वृक्ष, नद्या, पर्वत ज्या सर्वांनी आपल्याला पोसले त्या सर्वांना हे धर्मपिंड असते.
कोणीही कितीही श्रेष्ठ असेल, बुद्धिवादी असेल तरी कोणालाही क्षुद्र म्हणून हिणवू नये, निंदा करू नये, लाथाडू नये. या निसर्गा पुढे नम्र व्हावे. आणि सर्वांच्या कल्याणासाठी प्रार्थना करावी.
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा ‘डबल पैसा ? ‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 147 ☆
☆ लघुकथा – डबल पैसा ?☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
“रिक्शावाले भइया! चौक चलोगे?”
“हां बिटिया! काहे न चलब”
“पैसा कितना लेबो?”
रिक्शावाले ने एक नजर हम दोनों पर डाली और बोला – “दुई सवारी है पैसा डबल लगी। रस्ता बहुत खराब है और चढ़ाई भी पड़त है। ”
“पैसा डबल काहे भइया! रास्ते में जहां चढ़ाई होगी हम दोनों रिक्शे से उतर जाएंगे”
“दो लोगन का खींचै में हमार मेहनत भी डबल लगी ना बिटिया!”
अदिति ने उसको मनाते हुए कहा- “अरे! चलो भइया हो जाएगा, थोड़ा ज्यादा पैसा ले लेना और दोनों जल्दी से रिक्शे में बैठ गईं। ”
रिक्शावाला सीट पर बैठकर रिक्शा चलाने लगा। चढ़ाई होती तो वह सीट से नीचे उतरकर एक हाथ से हैंडिल और एक से सीट को पकड़कर रिक्शा आगे खींचता। चढ़ाई आने पर हम रिक्शे से उतर भी गए फिर भी रिक्शावाला पसीने से तर-बतर हो बार- बार अँगोछे से पसीना पोंछ रहा था। पैडल पर रखे उसके पैर जीवन जीने के लिए भीड़, उबड़-खाबड- रास्तों और विरुद्ध हवा से जूझ रहे थे।
रिक्शावाले की बात मेरे दिमाग में घूमने लगी ‘डबल सवारी है तो पैसा डबल लगेगा’। बचपन से मैंने माँ को घर और ऑफिस की डबल ड्यूटी करते हुए चकरघिन्नी सा घूमते ही तो देखा है। दोनों के बीच तालमेल बिठाने के लिए वह जीवन भर दो नावों में पैर रखकर चलती रही। घर का काम निपटाकर ऑफिस जाती और वापस आने पर रात का खाना वगैरह न जाने कितने छोटे-मोटे काम—
निरंतर घूम रहे पैडल के साथ- साथ बचपन की यादों के न जाने कितनी पन्ने खुलने लगे। सुबह होते ही स्कूल के लिए भाग-दौड़ और शाम को हम दोनों का होमवर्क, स्कूल की यूनीफॉर्म, बैग तैयार करके रखना सब माँ के जिम्मे, साथ में पारिवारिक जीवन के उतार, चढ़ाव, तनाव—-। थोड़ी देर में ही मन अतीत की गलियों में गहरे विचर आया। स्त्रियों को उनकी इस डबल ड्यूटी के बदले क्या मिलता है ?
“बिटिया! आय गवा चौक बाजार, उतरें।”
“दीदी! उतरो नीचे किस सोच में डूब गई” – आस्था ने कहा
उसकी आवाज से मानों तंद्रा टूटी। मैंने रिक्शावाले के हाथ में बिना कुछ कहे दुगने पैसे रख दिए।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “चरैवेति चरैवेति…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 230 ☆चरैवेति चरैवेति…… ☆
आस्था और भक्ति के रंगों से सराबोर श्रद्धा व विश्वास सहित महाकुम्भ में मौनी अमावस्या पर अमृत स्नान की डुबकी हमें मानसिक मजबूती प्रदान करेगी। जो चाहो वो मिले यही भाव मन में रखकर श्रद्धालु कई किलोमीटर की पैदल यात्रा से भी नहीं घबरा रहे हैं। मेलजोल का प्रतीक प्रयागराज सबको जीवन जीने की कला सिखाने का सुंदर माध्यम बन रहा है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “मेड, इन इंडिया… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 330 ☆
व्यंग्य – गए थे कुंभ नहाने, मिल गई मोनालिसा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
धन्य हैं वे श्रद्धालु जो कुंभ में गंगा दर्शन की जगह मोनालिसा की चितवन लीला की रील सत्संग में व्यस्त हैं. स्त्री की आंखों की गहरी झील में डूबना मानवीय फितरत है. मेनका मिल जाएं तो ऋषि मुनियों के तप भी भंग हो जाते हैं. हिंदी लोकोक्तियाँ और कहावतें बरसों के अध्ययन और जीवन दर्शन, मनोविज्ञान पर आधारित हैं. “आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’ एक प्रचलित लोकोक्ति है. इसका अर्थ है कि किसी विशेष उद्देश्य से हटकर किसी अन्य कार्य में व्यस्त हो जाना. बड़े लक्ष्य तय करने के बाद छोटे-मोटे इतर कामों में भटक जाना”.
कुम्भ में इंदौर की जो मोनालिसा रुद्राक्ष और 108 मोतियों वाली जप मालाएं बेचती हैं उनकी मुस्कान से अधिक उनकी भूरी आंखों की चर्चा है. वे शालीन इंडियन ब्लैक ब्यूटी आइकन बन गई हैं. यह सब सोशल मीडिया का कमाल है. एक विदेशी युवती सौ रुपए लेकर कुंभ यात्रियों के साथ सेल्फी खिंचवा रही है. दिल्ली में वड़ा पाव बेचने वाली सोशल मीडिया से ऐसी वायरल हुई कि रियल्टी शो में पहुंच गई. मुंबई के फुटपाथ पर लता मंगेशकर की आवाज में गाने वाली सोशल मीडिया की कृपा से रातों रात स्टार बन गई. जाने कितने उदाहरण हैं सोशल मीडियाई ताकत के कुछ भले, कुछ बुरे. बेरोजगारी का हल सोशल इन्फ्लूएंसर बन कर यू ट्यूब और रील से कमाई है.
तो कुंभ में मिली मोनालिसा की भूरी चितवन इन दिनों मीडिया में है. यद्यपि इतालवी चित्रकार लियोनार्दो दा विंची की विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग मोनालिसा स्मित मुस्कान के लिए सुप्रसिद्ध है. यह पेंटिंग 16वीं शताब्दी में बनाई गई थी. यह पेंटिंग फ़्लोरेंस के एक व्यापारी फ़्रांसेस्को देल जियोकॉन्डो की पत्नी लीज़ा घेरार्दिनी को मॉडल बनाकर की गई थी. यह सुप्रसिद्व पेंटिंग आजकल पेरिस के लूवर म्यूज़ियम में रखी हुई है. इस पेंटिंग को बनाने में लिओनार्दो दा विंची को 14 वर्ष लग गए थे. पेंटिंग में 30 से ज़्यादा ऑयल पेंट कलर लेयर्स है. इस पेंटिंग की स्मित मुस्कान ही इसकी विशेषता है. यूं भी कहा गया है कि अगर किसी परिस्थिति के लिए आपके पास सही शब्द न मिलें तो सिर्फ मुस्कुरा दीजिये, शब्द उलझा सकते है किन्तु मुस्कुराहट हमेशा काम कर जाती है.
तो अपना कहना है कि मुस्कराते रहिए. माला फ़ेरत युग गया, माया मिली न राम, कुंभ स्नान से अमरत्व मिले न मिले, पाप धुले न धुलें, किसे पता है. पर राम नामी माला खरीदिए, मोनालिसा के संग सेल्फी सत्संग कीजिए, इसमें त्वरित प्रसन्नता सुनिश्चित है. हमारे धार्मिक मेले, तीज त्यौहार और तीर्थ समाज के व्यवसायिक ताने बाने को लेकर भी तय किए गए हैं. आप भी कुंभ में डुबकी लगाएं.
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 38 – निःशुल्क वस्तुओं का जाल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
आजकल भारत में एक नई संस्कृति प्रचलित हो गई है – ‘फ्रीबी कल्चर।’ जैसे ही चुनावों का मौसम आता है, नेता लोग निःशुल्क वस्तुओं का जाल बुनने लगते हैं। अब ये निःशुल्क वस्तुएँ क्या हैं? एकबारगी तो यह सुनकर आपको लगेगा कि ये किसी जादूगर की जादुई छड़ी का कमाल है, लेकिन असल में यह तो केवल राजनैतिक चालाकी है।
राजनीतिक पार्टी के नेता जब मंच पर चढ़ते हैं, तो उनका पहला वादा होता है: “आपको मुफ़्त में ये मिलेगा, वो मिलेगा।” जैसे कि कोई जादूगर हॉटकेक बांट रहा हो। सोचिए, अगर मुहावरे में कहें, तो “फ्री में बुरा नहीं है।” पर सवाल यह है कि ये निःशुल्क वस्तुएँ हमें कितनी आसानी से मिलेंगी?
एक बार मैंने अपने मित्र से पूछा, “तूने चुनावों में ये निःशुल्क वस्तुएँ ली हैं?” वह हंसते हुए बोला, “लेता क्यों नहीं, बही खाता है।” जैसे कि मुफ्त में लड्डू खाने के लिए किसी ने उसे आमंत्रित किया हो। उसकी बात सुनकर मुझे लगा, हम सभी मुफ्तखोर बन गए हैं।
फिर मैंने सोचा, आखिर ये नेता किस प्रकार का जादू कर रहे हैं? क्या ये सब्जियों की दुकान से खरीदकर ला रहे हैं या फिर फलों की टोकरी से निकालकर हमें थमा रहे हैं? नहीं, ये सब तो हमारे कर के पैसे से ही आता है। तो जब हम मुफ्त में कुछ लेते हैं, तो क्या हम अपने ही पैसों को वापस ले रहे हैं? यह एक प्रकार का आत्मा का हंसी मजाक है, जहां हम अपने ही जाल में फंसे हुए हैं।
और जब हम फ्रीबी की बात करते हैं, तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ये फ्रीबी कोई बिस्किट का पैकेट नहीं है, यह तो एक ऐसे लोन का जाल है, जिसका भुगतान हमें भविष्य में करना है। यह एक नारा है – “हम आपको देंगे, लेकिन इसके लिए आप हमें अपनी आवाज़ दें।” इसलिए, जब भी कोई निःशुल्क वस्तु मिलती है, हमें उस पर दो बार सोचना चाहिए।
आधुनिकता के इस दौर में, मुफ्त में चीजें लेना जैसे एक नया धर्म बन गया है। लोग अपनी गरिमा को भूलकर उन मुफ्त वस्तुओं की कतार में लग जाते हैं। और नेता भी इस बात का फायदा उठाते हैं। वे यह सोचते हैं कि “अगर हम मुफ्त में कुछ देते हैं, तो हमें वोट मिलेंगे।” तो क्या हम अपनी आत्मा को बिकने के लिए तैयार कर रहे हैं? यह तो जैसे अपने घर की दीवारों को बेचने जैसा है।
इस फ्रीबी संस्कृति के चलते, हमने अपनी मेहनत की कीमत कम कर दी है। अब लोग काम करने के बजाय मुफ्त में चीजें पाने की तलाश में रहते हैं। और नेता? वे खुश हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि हम मुफ्त में चीजें लेकर खुश हैं। यह एक चक्रव्यूह है, जिसमें हम सभी फंसे हुए हैं।
मैंने तो सुना है कि कुछ जगहों पर लोग मुफ्त में शराब और सिगरेट भी पाने के लिए वोट देते हैं। तो क्या हम अपनी सेहत की भीख मांग रहे हैं? यह एक ऐसी स्थिति है, जहां हम अपने स्वास्थ्य का सौदा कर रहे हैं। हमें यह समझना चाहिए कि “फ्रीबी” का मतलब सिर्फ मुफ्त में चीजें लेना नहीं है, बल्कि यह हमारे भविष्य को दांव पर लगाना है।
और तो और, जब ये नेता अपने वादों को पूरा नहीं कर पाते, तो हमें याद दिलाते हैं कि “देखो, हमने तो फ्रीबी दी थी।” तो क्या यह हम पर निर्भर नहीं है कि हम अपने अधिकारों के लिए खड़े हों? हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी कि मुफ्त में मिले सामान का मतलब यह नहीं कि हमने अपनी आवाज़ बेच दी है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या हमें फ्रीबी की संस्कृति को खत्म करना चाहिए? या फिर हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा? हम केवल इसलिए मुफ्त में चीजें नहीं ले सकते क्योंकि यह हमें आसान लगती है। हमें अपने वोट की कीमत समझनी होगी और उसे केवल मुफ्त वस्तुओं के बदले नहीं बेचना चाहिए।
समाप्ति में, मैं यह कहूंगा कि फ्रीबी लेना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन हमें यह समझना होगा कि यह एक सतत चक्र है। हमें अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी और अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहना होगा। तब ही हम इस निःशुल्क वस्तुओं के जाल से बाहर निकल पाएंगे। और जब हम इस जाल से बाहर निकलेंगे, तब हम वास्तविकता का सामना कर पाएंगे। इसलिए, फ्रीबी को छोड़कर, अपने मेहनत के पैसे पर भरोसा करना ही बेहतर है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 202 ☆
☆ व्यंग्य – इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग इंटरनेट मीडिया का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस इंटरनेट मीडिया में भी फेसबुक सबसे ज्यादा प्रचलित, लोकप्रिय और मोबाइल के कारण तो जेब-जेब तक पहुंचने वाला माध्यम हो गया है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।
उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्र-पत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर इंटरनेट मीडिया पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।
‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है। मगर उसकी चर्चा इंटरनेट मीडिया पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पोस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।
ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज पांच से सात घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकाना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है। कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वे छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकाना उन्हें नहीं आता है। वे इंटरनेट मीडिया से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है। जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।
तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर
लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा इंटरनेट मीडिया पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।
चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में इंटरनेट मीडिया पर बने रहते हैं।
ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।
पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है, जितनी रचना छप जाती है। उसे इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।
छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं, जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।
कहने का तात्पर्य यह है कि इंटरनेट मीडिया के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह इंटरनेट मीडिया पर अपना ‘फेस’ चमकते रहते हैं।
इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।