सूचनाएँ/Information ☆ – २९ मई २०२४ को अहिल्यानगर (अहमदनगर) में राष्ट्रीय हिंदी लघुकथा सम्मेलन का आयोजन – ☆ संयोजिका – डॉ ऋचा शर्मा ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

संयोजिका – डॉ. ऋचा शर्मा

🌹– २९ मई २०२४ को अहिल्यानगर (अहमदनगर) में राष्ट्रीय हिंदी लघुकथा सम्मेलन का आयोजन –🌹

अहिल्यानगर – साहित्य समाज का दर्पण होता है। हिंदी साहित्य में लघुकथाओं के द्वारा समाज से जुड़े अनेक प्रश्न उपस्थित किए जाते हैं तथा पाठक उन पर चिंतन प्रारंभ कर देता है। साहित्य समाज को संस्कारित भी करता जाता है।

अहमदनगर में लघुकथाकारों को मंच प्रदान कराने हेतु २९ मई २०२४ के दिन, स्नेहालय पुनर्वसन संकुल, एम आय डी सी में राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी लघुकथा सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है,  यह जानकारी संयोजक डॉ गिरीश कुलकर्णी तथा डॉ ऋचा शर्मा द्वारा प्राप्त हुई।

स्नेहालय, डॉ शंकर केशव आडकर चैरिटेबल ट्रस्ट, आचार्य जगदीशचंद्र मिश्र लघुकथा सम्मान समिति, हिंदी सृजन सभा तथा लघुकथा शोध केंद्र के संयुक्त तत्वावधान में  ‘लघुकथा : वर्तमान स्वरूप और संभावनाएं’  विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया है। इसमें पूरे देश से लघुकथाकार, हिंदी भाषा तथा साहित्यप्रेमी शामिल हो रहे हैं।

दिनांक २९ मई को  सुबह ९ बजे से शाम ५ बजे तक सम्पन्न होनेवाली संगोष्ठी में दिल्ली के वरिष्ठ लघुकथाकार  डॉ बलराज अग्रवाल, पुणे के डॉ दामोदर खडसे, हरियाणा करनाल के डॉ अशोक भाटिया, नागपुर के डॉ मिथिलेश अवस्थी, लघुकथा शोध केंद्र समिति भोपाल मध्यप्रदेश की निदेशक श्रीमती कांता रॉय,  पुणे की श्रीमती नरेंद्र कौर छाबड़ा, आदि मान्यवरों का मार्गदर्शन प्राप्त होगा ।

दोपहर के सत्र में ‘लघुकथाकार तथा पाठक’ चर्चा – सत्र सम्पन्न होगा। आचार्य जगदीशचंद्र मिश्र लघुकथा सम्मान समिति अहमदनगर  की ओर से देशव्यापी लघुकथा प्रतियोगिता आयोजित की गई है। पुरस्कार प्राप्त  लघुकथाकारों  को पुरस्कृत तथा सम्मानित किया जाएगा ।

इस सम्मेलन में सभी साहित्यप्रेमियों का स्वागत है। यह पूर्णत: नि:शुल्क है। इस कार्यक्रम की संयोजिका डॉ ऋचा शर्मा ने राष्ट्रीय लघुकथा सम्मेलन में अधिक से अधिक संख्या में सहभागी होने का आवाहन किया  है। अधिक जानकारी के लिए ८९९९०३९८८२ नंबर पर संपर्क करें।

संयोजिका –  डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001, e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

संयोजक – लघुकथा शोध केंद्र ,अहमदनगर तथा हिंदी सृजन सभा, अहमदनगर

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ काबीज… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ काबीज ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

निळ्या शुभ्र उन्हाझळात

पांघरुन माया ही छाया

किती सुख कळपाशी

हि ऋतू निसर्ग किमया.

तळव्याची चटके खरी

धरा अस्वस्थ मनाची

हळू सूर्य खाली येताना

पशू प्राणी ग्रीष्म गोची.

किती हिरवे प्रेमळ

पान बहर काळीज

याच मुळांचे शाखांनी

सृष्टीस केले काबीज.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #230 – कविता – ☆ नदियों में न पानी है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता नदियों में न पानी है…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #230 ☆

☆ नदियों में न पानी है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

नदियों में न पानी है

पूलों की जुबानी है

अपनी पीड़ाएँ ले कर चली

सिंधु प्रिय को सुनानी है।

*

सिर्फ देना है जिसका धरम

तौल पैमाना कोई नहीं

कौन है देखने वाला ये

कब से नदिया ये सोई नहीं,

*

खोज में अनवरत चल रही

राह दुर्गम अजानी है

पूलों की जुबानी है….।

*

चाँद से सौम्य शीतल हुई

सूर्य के ताप की साधिका

स्वर लहर बाँसुरी कृष्ण की

प्रेम रस में पगी राधिका,

*

साक्ष्य शुचिता के तटबंध ये

दिव्यता की कहानी है

पूलों की जुबानी है….।

*

फर्क मन में कभी न किया

कौन छोटा, बड़ा कौन है

हो के समदर्शिता भाव से

खुद ही बँटती रही मौन ये,

*

भेद पानी सिखाता नहीं

सीख सुंदर सुहानी है

पूलों की जुबानी है….।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 54 ☆ दर्द हुआ घायल (पुराना गीत)… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “दर्द हुआ घायल (पुराना गीत)…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 54 ☆ दर्द हुआ घायल (पुराना गीत)… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

मन के आँगन में हलचल

शायद दुख ने करवट बदली

दर्द हुआ है घायल।

*

आँखों ने पिए सभी आँसू

पलकों ने गीलापन

सपने बुझे-बुझे से दीपक

खोज रहे उजलापन

*

उम्र बहे गालों पर ऐसी

ज्यों विधवा का काजल।

*

अब तो धुँधवाती सी भर है

अपनेपन की समिधा

होम हुए जा रहे प्राण हैं

साँसों की पा सुविधा

*

धू-धू करके जला आग में

संबंधों का काठ महल ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ कभी किरदार मैंने इतना भी गिरते नहीं देखा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “कभी किरदार मैंने इतना भी गिरते नहीं देखा“)

✍ कभी किरदार मैंने इतना भी गिरते नहीं देखा… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मदद को मुफ़लिसों की हाथों को उठते नहीं देखा

किसी भी शख़्स को इंसान अब बनते नहीं देखा

 *

हवेली को लगी है आह जाने किन गरीबों की

खड़ी वीरान है मैंने कोई  रहते नहीं देखा

 *

मसीहा था गरीबों का हुआ क्या तख़्त को पाकर

कभी किरदार मैंने इतना भी गिरते नहीं देखा

 *

किसी की आह लेकर ज़र जमीं कब्ज़े में मत लेना

गलत दौलत से मैंने घर कोई हँसते नहीं देखा

 *

परिंदों की चहक शीतल पवन  पूरब दिशा स्वर्णिम

वो क्या जानें जिन्होंने सूर्य को उँगते नहीं देखा

 *

अगर बे-लौस रहना है तो चुप रहिए यही जायज़

इबादतगाह जब तुमने कोई ढहते नहीं देखा

 *

जहां में जो भी आया है हों चाहे ईश पैग़ंबर

समय की मार से उनको यहाँ बचते नहीं देखा

 *

बनेगा वो कभी क्या अश्वरोही एक नम्बर का

जिसे गिरकर दुबारा अस्प पे चढ़ते नहीं देखा

 *

जमा बारिश के पानी से पडेगें सोच में कीड़े

विचारों को जमा पानी सा जो बहते नहीं देखा

 *

बड़े बरगद की  छाया से अरुण कर लो किनारा तुम

कभी इसके बराबर का कोई बढ़ते नहीं देखा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 104 – बैंक: दंतकथा: 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  बैंक: दंतकथा: 1

☆ कथा-कहानी # 104 –  बैंक: दंतकथा: 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बैंक: एक दंतकथा:1

बैंक की परिपाटी कि “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना जो हमारी विरासत है, हमारी आदत बन चुकी थी और  है भी, और शायद बैंक के संस्कारों के रूप में हमने भावी पीढ़ी को सौंपा भी है. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में उपयुक्त शीर्षक के साथ इस कथा का सृजन करने का प्रयास है. पात्र और प्रसंग काल्पनिक होते हुये भी सत्य के करीब लग सकते हैं, इसका खतरा तो रहेगा. उम्मीद है इसे भी अन्य रचनाओं की तरह प्रेम और स्नेह मिलेगा.

अविनाश बैंक के आंचलिक कार्यालय में उपप्रबंधक के पद पर सुशोभित थे और अभी अभी अपने सहायक महाप्रबंधक से, उनके चैंबर में डांट खाकर बाहर आ चुके थे. उनका यह अटल विश्वास था कि चैंबर की घटनाएं चैंबर के अंदर ही रहती हैं और उनकी गूंज से बाहरवाले अंजान रहते हैं. जो इस गुप्त राज का पर्दाफाश करता है, वो बाहर निकलने वाले पात्र का चेहरा होता है अत: अविनाश की आंचलिक कार्यालय की दीर्घकालीन पदस्थापनाओं ने उनके अंदर यह सिद्धि स्थापित कर दी थी कि उनके चेहरे की रौनक और हल्की मुस्कान बरकरार रहती चाहे वो चैंबर के अंदर हों या बाहर. पर आज उनकी बॉडी लैंग्वेज ने उनका साथ देने से साफ साफ मना कर दिया.

ऐसा माना जाता है कि दुश्मन से ज्यादा दुखी बेवफा दोस्त करता है. जी हां, डांटने वाले और डांट खाने वाले किसी ज़माने में एक ही शाखा में सहायक के रूप में पदस्थ थे, अगल बगल में काउंटरों के संचालक थे और हम उम्र, हमपेशा, और रूमपार्टनर हुआ करते थे. अंतर सिर्फ उनकी संस्कृति, मातृभाषा, काया, रंग और अंग्रेज़ी में वाक्पटुता का होता था. अविनाश भांगड़ा की संस्कृति को प्रमोट करते थे तो कार्तिकेय भरतनाट्यम संस्कृति के हिमायती थे. किसी को कुलचे पराठे लुभाते थे तो किसी को इडली के साथ सांभर की खुशबू अपनी ओर खींचती थी. दोनों की आंखों में पानी आता तो था पर अलग अलग स्वाद की याद आने से. ये उनका दुर्भाग्य था कि उनकी पहली पदस्थापना के उस कस्बे से कुछ बड़ी सी जगह में न कुलचा पराठा मिलता था न ही इडली सांभर. अविनाश के नाम में पंजाबियत का सौंधापन नहीं था बल्कि उत्तरप्रदेश के बनारस या काशी की नगरी की पावनता थी जो बनारस निवासी उनकी माताजी के कारण थी. अब ये तो पता नहीं पर संतान के लक्षणों से अंदाज तो लगाया जा सकता ही था कि अविनाश, पेरेंटल प्रेमविवाह के परिणाम थे.

प्रथम पदस्थापना पर जैसा कि होता है, अविनाश और कार्तिकेय भी अविवाहित थे और दोनों की पाककला का प्रशिक्षण, बैंकिंग सीखने से कदम से कदम मिलाकर चल रहा था. दोनों मित्र दाल चांवल बनाना सीख चुके थे और अविनाश की दाल फ्राई करने की कला न केवल भोजन को स्वादिष्ट बनाती थी, वरन उन्हें कार्तिकेय पर सुप्रीमेसी स्थापित करने का अवसर भी प्रदान करती थी. बदले में स्वादिष्ट और चटपटे अचार की प्रबंधन व्यवस्था कार्तिकेय करते थे.

कथा चलती रहेगी, जमाना विद्युतीय और सौर ऊर्जा का है पर आपकी प्रतिक्रिया भी लेखक को ऊर्जावान बना सकती है।

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 24 – लाचारी ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – लाचारी।)

☆ लघुकथा – लाचारी श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

क्या हो गया जी आप उस काले कोट वाले को देखकर क्यों घबरा रहे हो?

कुछ नहीं भाग्यवान बस तुम चुप रहना अपना मुंह मत खोलना वह टिकट देखने के लिए इस ट्रेन का टीसी बाबू है।

तभी उसने कहा अंकल जी आप अपना टिकट दिखाइए और आप यहां गेट का पास क्यों बैठे हैं?

बेटा यह टिकट है। बेटे के अपने दोस्त से कहा उसने टिकट हमें दे दिया, ट्रेन छूट रही थी सभी डिब्बों में भीड़ थी ये डिब्बा खाली देखा इसलिए हम यहां पर चढ़ गए और यहां दरवाजे के पास चादर बिछा कर बैठ गए, हमारे पैरों में बहुत दर्द रहता है।

अंकल जी यह टिकट तो स्लीपर क्लास का है यह एसी सेकंड क्लास का डिब्बा है अगले स्टेशन में आप उतरकर उस डिब्बे में बैठ जायेगा। ट्रेन रात के 2:00 बजे पहुंचेगी तब तक आप लोगों को तकलीफ होगी। अभी आप मेरी सीट पर बैठ जाइए।

धन्यवाद बेटा पर हम वहां पर कैसे बैठे जाकर हमें कुछ समझ नहीं आ रहा है हम पहली बार रेल यात्रा कर रहे हैं।

कोई बात नहीं अंकल जी मैं आपको चलकर बैठा दूंगा।

दूसरा स्टेशन आते ही टीसी बसंत कुमार ने बुजुर्ग दंपति को उनकी सीट पर बैठा दिया और वह बोला – माताजी आपका स्टेशन किशनगढ़ रात में आएगा?

बगल में बैठे यात्री से कहा किशनगढ़ आने पर इन्हें बता देना।

उसने एक कागज पर अपना फोन नंबर लिख कर दिया और बोला यदि आपको अंकल कोई तकलीफ होगी तो मुझे इस नंबर पर फोन कर देना अब मैं चलता हूं।

तभी उस बुजुर्ग महिला कमला ने कहा कि बेटा तुमने हमारी इतनी मदद की है तुम्हारा बहुत-बहुत धन्यवाद मैं घर से पूरी सब्जी बनाकर लाई हूं थोड़ा सा खाना खा लो और उसे अपने साथ खाना खिलाया ।

बसंत को भी रात भर यह चिंता लगी रहती थी कि बेचारे कैसे अपने बेटे के पास पहुंचेंगे कैसे बच्चे हैं मां-बाप को अकेले आने को बोल देते हैं कैसे बच्चे हैं?

 स्टेशन पर जब गाड़ी रूकी तो वह बुजुर्ग दंपति को रात के 2:00 बजे ढूंढने लगा ।

फिर विचार करने लगा मुझे क्या करना है ?

जब उसके बेटे को चिंता नहीं है लेकिन फिर सोच इंसानियत नाम की तो कोई चीज होती है उसने देखा वह बेचारे अकेले दूर बैठे थे।

अंकल जी कैसे हैं आप उतर गए आपको कोई लेने नहीं आया।

नहीं बेटा कोई नहीं आया थोड़ा सबेरा हो तब कोई गाड़ी पकड़ कर हम जाएं।

आप पता मुझे दिखाइए और वह पता लेकर एक ऑटो वाले के पास जाता है और उन्हें कहता लिए इसमें बैठ जाइए मैं आपको छोड़ देता हूं।

बेटा तुम हमारी इतनी मदद क्यों कर रहे हो हमारे कारण तुम परेशान होंगे कोई बात नहीं अंकल मैं उसी तरफ रहता हूं मेरा घर है। रास्ते में एक जगह उतरना है और बोलना अंकल जी मेरा घर है यदि कोई दिक्कत होगी तो आप आ जाना और ऑटो वाले को कहकर आगे के चौराहे के पास छोड़ देना वही घर है।

वह घर में आराम से सो रहा था तभी अचानक दरवाजा जोर-जोर से खटखट की आवाज हुई।

क्या बात हुई? कौन खटखटा रहा है?

वह उसे बुजुर्ग दंपति को सामान के साथ देखकर दंग रह जाता है क्या वह अंकल जी बेटे का घर नहीं मिला क्या?

लेकिन उसकी शादी हो रही है इसीलिए उसने बुलाया था ?

बहुत सारे अच्छे लोग सूट बूट पहने थे हमें इस हालत में देखकर उसने पहचानने से इंकार किया और चौकीदार से कहकर हमें घर से बाहर निकाल दिया।

बिचारी बुजुर्ग महिला बहुत रोने लगी और वह बोली बेटा हमारे पास तो पैसे भी नहीं है अब हम अपने गांव कैसे पहुंचे अपने बेटा के लिए यह घी और थोड़ा सा चावल लेकर आए थे अब तुम यह ले लो बस हमारी टिकट कर दो जिससे हम गांव तक पहुंच सके। तुम्हें रात से  तकलीफ दे रहे हैं पर क्या करें कुछ दिमाग हमारा काम ही नहीं कर रहा है दोनों कांप रहे थे और रोए जा रहे थे। तभी उसकी पत्नी ने आवाज दिया क्या हो गया कुछ नहीं गांव से चाचा जी आए काम से आए, बस रात में सोएंगे सुबह चले जाएंगे।

उसने उन्हें एक कमरे में ले जाकर कहा आप यहां आराम से रहिए सुबह हम चलेंगे। और उन्हें चाय बना कर दिया साथ में ब्रेड भी दिया अब उनकी आंखों में एक उत्साह दिख रहा था। बुजुर्ग महिला कामना ने कहा बेटा तुम तो देवदूत हो इस जन्म में नहीं लेकिन अगले जन्म में भगवान तुम जैसा ही बेटा हमें दे लोग तो दूसरों से धोखा खाकर सावधान रहते हैं जब अपने ही धोखा दे तो कैसा लगता है आज तो हमारे शरीर में काटो तो खून नहीं। तुमने कृष्ण भगवान की तरह हमें इस संकट से उबारा है।

कोई बात नहीं माताजी आप परेशान न होइए मेरे मां-बाप भी बुजुर्ग हैं और गांव में ही रहते हैं मैं समझ सकता हूं आपकी मनोस्थिति…।

मुझे पता है मैंने बहुत अभाव में पढ़ाई की है और आज इस पद पर पहुंचा हूं। परीक्षा के लिए मैं भी इधर-उधर भटकता था लाचारी क्या चीज है मुझे पता है…।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 231 ☆ दुनियादारी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 231 ?

☆ दुनियादारी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आजकाल शोफर ड्रिव्हन कार असणं,

हे खूप मोठं स्टेटस मानलं जातं,

विचारलं परवा,

एका नातेवाईकानं,

यायचंय का मुंबईला?

म्हटलं “कसे आले आहात?”

तर ते म्हणाले,

माझ्याकडे शोफर ड्रिव्हन कार असते !

मी म्हणाले… “ओह्ह ग्रेट!”

 

आता प्रवासभर असंच काही

ऐकावं लागणार,

याची कल्पना आलीच!

 

तरीही गाण्याचा चाॅईस

चांगला होता…..

चलो न गोरी मचल मचलके….

खूप वर्षानी ऐकलं !

सी. एच. आत्माचा आवाज

मनाला वेढून राहिला

असतानाच,

 

काल “तू डायरेक्ट इकडेच ये रिक्षाने”

असं म्हणून फोन

कट करणारणीचा फोन,

 

म्हटलं, “मी प्रवासात आहे” !

“उद्या येतीयेस ना संध्याकाळी”

म्हटलं, “नाही” अगं….

परत कालच्या सारखाच,

फोन कट !

 

मी हसले स्वतःशीच!

आपल्याला दुनियादारी

समजली नाही….

की,

ही रीतच आहे दुनियेची,

“मुझसे बडा न कोय”!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ ‘प्रेम रंगे ऋतुसंगे’ – कवी : श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ परिचय – सौ.अश्विनी कुलकर्णी ☆

सौ.अश्विनी कुलकर्णी

? पुस्तकावर बोलू काही ?

 ☆ ‘प्रेम रंगे ऋतुसंगे’ – कवी : श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ परिचय – सौ.अश्विनी कुलकर्णी  

पुस्तक– प्रेम रंगे ऋतुसंगे (काव्यसंग्रह)

कवी– श्री सुहास रघुनाथ पंडित, सांगली

प्रकाशक– अक्षरदीप प्रकाशन व वितरण, कोल्हापूर

मूल्य– 150/-

कवितासंग्रहावर परीक्षण लिहिण्याइतकी मी मोठी नाही, समीक्षक तर नाहीच… पण कवितेची अतीव आवड असणारी एक वाचक म्हणून मनापासूनअभिप्राय द्यावासा वाटला.

श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

जेष्ठ कवी सुहास पंडित यांच्या ‘प्रेम रंगे, ऋतुसंगे’ या कविता संग्रहासाठी अभिप्राय !

‘प्रेम रंगे, ऋतुसंगे’ या काव्य संग्रहाच्या नावातूनच प्रेम आणि ऋतू म्हणजेच निसर्ग यांचं अद्वैत जाणवतं! 

कवी सुहास पंडित यांनी म्हटले आहे की, कवींच्या कविता… भावनांचा कल्लोळ ‘निसर्गदत्त’ असतो. निसर्गाचे मानवाने केलेले रूप पाहता, निसर्गाशी साहित्यातून जवळीक साधण्यासाठीची त्यांची धडपड त्यांच्या मनोगतातून दिसली.

एकीकडे माणसामाणसातला स्वार्थ, मत्सर वाढत असताना… दुसरीकडे कवी सुहास पंडीत  यांना वाटत की, जगणं समृद्ध होण्यासाठी माणसातील प्रेम, एकी, आपुलकी  नात्यातील जपणूक आणि निसर्गाचा अखंड सहवास, त्याच संवर्धन याचा  अतूट बंध निर्माण करणे खूप गरजेचे आहे.

जेष्ठ समीक्षक विष्णू वासमकर यांनी अभ्यासपूर्ण प्रस्तावना दिली आहे. प्रस्तावनेतून साहित्य शास्त्रातील काव्याबद्दलचे विस्तृत वर्णन केले आहे. त्यामुळे त्यांची ही नुसतीच प्रस्तावना वाटत नसून एक अभ्यास वाटला. प्राचीन काव्य आणि शास्त्रकारांची मते, त्याबाबतची माहिती अशा अनेक गोष्टी शिकण्यास मिळाल्या. काव्यशास्त्रीय विवेचन हे किती  महत्वाचे आहे हे लक्षात आले. काव्य म्हणजे काय इथपासून ते काव्य कसे करावे, ते कसे असावे त्याची शास्त्रीय तथ्य हे सर्व अतिशय विस्ताराने उलगडुन सांगितले आहे.

काव्य संग्रहातील ‘भेट अचानक’ ही पहिली कविता वाचून, कवीने प्रेयसीच्या भेटीचा आठव शब्दातून शृंगारला आहे त्या प्रीतीचे, रोमांचक भेटीचे चित्र हुबेहूब डोळ्यासमोर उभं राहिलं.

 ‘अपुरी आपुली भेट’ या कवितेत रोजची प्रेयसीची भेट अधुरी, अपुरी वाटते… तृप्ततेतून, अतृप्तता जाणवते. भेटीचे समाधान पण विरह जाणवणारी ही कविता…

*शब्दांचे पक्षी होतील, ते गाणी गात ते तू समजून घे* असे कवी प्रेयसीला म्हणत आहेत. एक अतीव आर्तता ह्या कवितेतून जाणवली. हे वेगळेपण खूप भावले.

“पुढती पुढती काटे पळता, मन वैर असे का धरते, मनी का भलते सलते येते?”

कवींच्या कवितेतील वरील ओळीत, प्रेयसीच्या वेळेत न येण्याने त्याची जी व्याकुळ अवस्था होत आहे ती  सहज सुंदर शब्दात व्यक्त केली आहे. प्रत्येकाची अशी अवस्था कधीतरी होते, होत असते… तेव्हा कवींच्या  ह्या ओळी नक्कीच आठवतील!

कधीही न पाहिलेले असे काल रात्री पाहिले, असे ‘ध्यास’ ह्या कवितेत कवी सांगतात… तेव्हा ती उत्सुकता वाढत जाते. ओसंडून वाहणारं  यौवन…

‘संयमाला धार होती, तो रोख होता वेगळा’ ही ओळ बरेच काही सांगून जाते!

स्वप्न की सत्य, की भास हे न कळण्यासारखी अवस्था होती. एक  अत्युच्य उत्कटता प्रवाहीत होणारी ही कविता कवीचं हृदय कुठे गुंतले आहे याचे दर्शन घडवते.

प्रीतीची रीत कशी सर्वानाच खुणावते तशी कवीलाही प्रेमाची अनामिक ओढ वाटू लागते. ह्या प्रीतीला शब्दबद्ध करून या  कवितेसाठी ‘अमृतवेल’ हे शीर्षक दिले आहे. निसर्गाच अन प्रेमाच अद्वैत या शिर्षकातून उठून दिसते!

‘व्रत’ ही कविता खूप भावली, जगण्यातील उत्तर कवीने शोधले आहे.

हल्ली नात्यातील प्रेम संपत आले आहे, दुरावा निर्माण होत आहे त्यामुळे लोक म्हणतात कुणी कुणाच नसत. पण इथे कवीने हे म्हणणे खोडून काढत कुणी कुणाचं नसलं तरी मग आपण जगतो कुणासाठी? अस विचारलं आहे. नवीन नात्यासाठी, ते टिकण्यासाठी वागणं, बोलण कस असावं आणि तडजोड कशी करावी… हे तत्वज्ञान युक्त वर्णन अतिशय सुंदर केलं आहे! तुटत आलेली, लयास गेलेली नातीही कमलदलाप्रमाणे फुलतील अशी आशा कवी व्यक्त करतात.

मुलीच लग्न झालं! ती बाई अन आई ही झाली… तिला शहाणपण कस आलं! हे एक बाबा(कवी) ‘शहाणपण’ या कवितेतून हृदयस्पर्शी ओळीतून व्यक्त करतो!

‘सूर्यास्ताची वेळ असे’ ही कविता शब्दातीत वाटली! जीवन जगताना उतार वयात येणारी परिपक्वता ह्या ओळीतून जाणवते. शेवटी  जीवनाच्या सूर्यास्ताच्या वेळेस, काय सोडून द्यावं आणि काय शिल्लक आहे ते मनात ठेवावं हे उलगडून सांगताना कवी म्हणतात,

हिरवेपण जे उरले आहे… तेच जपू या समयाला     

सुर्यास्ताची वेळ असली तरी एक विलक्षण सकारात्मकता या कवितेतून जाणवली!

असतेस घरी तू जेव्हा

फिदा

खूप आवडल्या या कविता!

प्रत्येकाच्या घरी गुलमोहराचं झाड असत पण आपण कुठेतरी दूर शोधत असतो… हे खरं खुर सत्य कवींनी या कवितेत सांगितलं आहे. रोजच्या दैनंदिन आयुष्यातील प्रसंग तुम्हा आम्हा सर्वानाच वाटलेल्या अन दाटलेल्या भावना, इथे कल्पनेपेक्षा सत्य जास्त असल्याचे जाणवले. ते आपल्या वेगळ्या शैलीतून कवितेतून कवी सुहास पंडित यांनी मांडले आहे.

एक वधुपिता स्वतःला समजवतोय… आणि अशा अनेक वधुपित्यानाही, आपल्या ‘वधूपित्यास’ या कवितेतून. हे हृदयस्पर्शी शब्द, अन समजवणीचे सूर… कंठ दाटून आला.

कवी सुहास पंडित यांच्या अनेक कवितांमधून त्यांचा शब्दसंग्रह अतिशय उच्च दर्जाचा असल्याचं जाणवलं. कवितेतील शब्दालंकाराने कवितेला वेगळीच खासियत निर्माण होते. फक्त शब्दच नव्हे तर आशय गर्भता, प्रेम -निसर्ग हे साम्य असले तरीही विषयांची विविधता आणि त्यातून त्यांना दिसणार, जाणवणार त्यांचं अद्वैत हे अनेक कवितेतून प्रकर्षाने दिसून आलं. कवी निसर्गाशी समरस झाल्यामुळे माणसातील प्रेमाचे त्याच्याशी अनेकानेक प्रकारे साधर्म्य, एकरूपता आहे असे त्यांना वाटते. इतकंच नाही तर एक वेगळाच असा उच्च कोटीचा उत्कट समागम आहे असे त्यांना वाटत असावे.

कवींच्या कविता वाचताना त्यांच्या शब्दांमधून स्पर्श, गंध, तालाने खऱ्या अर्थाने पंचेद्रिये जागृत होतात.

कवितांची सुरुवात, मध्य आणि त्याचा शेवट इतका निट्स वाटतो कारण ते सगळं सहज घडून आलेलं शब्दबद्ध केलं आहे. त्यांच्या कवितांना लय आहे, एक ठेका आहे… त्याप्रमाणे वाचत गेलं की ती अर्थ, आशय, विषय यांनी एकरूप झालेली कवीता एक त्रिवेणी संगम वाटते.

   स्वप्नातले विश्व फुलवायचे

   गृहप्रवेश

   मैत्र 

   स्नेहबंध

प्रत्येक कविता आपल्या परीने वेगळी आहे. कोणतीही अढी न ठेवता..स्नेह ठेवण्याच्या ओळी कवी लिहितात… अस कवी म्हणतात तेव्हा त्यांचा स्वभाव एकमेकांना जोडण्याचा आहे असं जाणवतं, त्यांचे विचार आदर्श वाटतात…

कारण स्नेहबंध, नाती, मैत्री  दुरावत असताना आभासी झालेले असताना… कवीला हे वाटण आणि त्यांची अक्षरे कवितेतून झळकण हे विशेष आहे.

त्यांच्या पावसाच्या कविता असोत, प्रेमाच्या असोत, नदीच्या, बळीराजाच्या शेताच्या, श्रावणाच्या असोत प्रत्येकातून चैतन्य फुलते! 

कधी कोपणारा पाऊस, दुष्काळ, कृष्णामाईचा क्रोध, झाडांच्या कत्तलेचा जाब हे चित्र आपल्या कवितेतून श्री पंडित सर उभं करतात.

त्यांना जे हृदयातून वाटत  तस ते लिहितात, उतरवतात… म्हणूनच ते लगेचच रसिकांच्या, वाचकांच्या हृदयापर्यंत पोहोचतं ! अस परोपरीने जाणवलं.

श्री. सुमेध कुलकर्णी यांनी रेखाटलेलं मुखपृष्ठ या कवीता संग्रहातील कवितांना अनुसरून चपखल वाटलं. ‘माणसाचं अन निसर्गाच प्रेम’ हृदयाच प्रतीक म्हणून मानवी हातानी आणि त्यांच्याच कवितेत म्हटल्याप्रमाणे प्रत्येकाच्या घरात असलेल्या गुलमोहराच्या  झाडाच्या फांदीने केलेले बदामाचे चिन्ह आणि एकरूप झालेला निसर्ग हे बरच काही सांगून गेलं.

कविता संग्रहातील कविता अभ्यासण्यासारख्या आहेत. काही कवितांतून तत्वज्ञान मिळत, काही कविता नात्यांची गुंफण शिकवतात, काही कवीता दुष्काळात डोळे पाणावतात, तर काही कवीता निसर्गाचे व्यवस्थापन शिकवतात. काही कवीता समाजाच्या प्रश्नांनी डोळे उघडतात.

हा फक्त कवीता संग्रह नसून प्रेम आणि ऋतू यांना अग्रस्थान मानून, जाणवणारे सत्य, साध्या पण तितक्याच खऱ्या अर्थाने शब्दबद्ध केलेला सर्वांगीण समृद्धीसाठी तळमळ असणारा असा संग्रह आहे. अस मला वाटत. प्रत्येक वाचक- रसिकांनी यातील निसर्गाचा आस्वाद घ्यावा. त्यांची कवीता… आपण अनुभवतोय ही जाणीव आल्याशिवाय राहवणार नाही!

© सौ अश्विनी कुलकर्णी

मानसतज्ञ, सांगली  (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491 Email – [email protected]

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 54 – याचनाओं का भरण होने लगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – याचनाओं का भरण होने लगा।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 54 – याचनाओं का भरण होने लगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

प्यार का, उनके हृदय में अंकुरण होने लगा

आजकल उनका, द्रवित अंतःकरण होने लगा

*

रूठने का भी बहाना अब नहीं वे ढूंढ़ते

हर जटिल प्रश्नों का भी सरलीकरण होने लगा

*

अब हमारी भावनाओं का अनादर भी नहीं 

एक दूजे की सदिच्छा का वरण होने लगा

*

ना-नुकुर उनके दिखावे के लिये हैं मात्र अब 

हर निवेदक याचनाओं का भरण होने लगा

*

उनके कोमल हाथ का, जब स्पर्श मुझसे हो गया 

देह में, रोमांचक तब से स्फुरण होने लगा

*

कसमसाकर उनने बाँहों में मुझे जब से भरा

धमनियों में, तेज रक्तिम संचरण होने लगा

*

नींद भी आती नहीं, उनके बिना तो आजकल 

रात को भी, याद के सँग, जागरण होने लगा

 

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares