हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 130 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 130 – मनोज के दोहे ☆

उड़ी चिरैया प्राण की, तन है पड़ा निढाल।

रिश्ते-नाते रो रहे, आश्रित हैं  बेहाल।।

 *

जीव धरा पर अवतरित, काम करें प्रत्येक ।

देख भाल करती सदा, धरती माता नेक।। 

 *

गरमी से है तप रहा, धरती का हर छोर।

आशा से है देखती, बादल छाएँ घोर।।

 *

दिल में उठी दरार को, भरना मुश्किल काम।

ज्ञानी जन ही भर सकें, उनको सदा प्रणाम।।

 *

ग्रीष्म तपिश से झर रहे, वृक्षों के हर पात।

नव-पल्लव का आगमन, देता शुभ्र-प्रभात।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

8/5/2024

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 283 ☆ आलेख – उंगली पर नाचता लोकतंत्र ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक आलेख – उंगली पर नाचता लोकतंत्र। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 283 ☆

? आलेख – उंगली पर नाचता लोकतंत्र ?

भारत के लोकतंत्र की रीढ़ उसके चौंकाने वाले निर्णय लेते मतदाता हैं।  सारे कथित बुद्धिजीवी और ढ़ेरों वरिष्ठ पत्रकार, आर्टीफीशियल इंटेलीजेंस तथा एक्स्ट्रा पोलेशन के ग्राफ से हर चुनाव के परिणाम के पूर्वानुमान लगाते रह जाते हैं और देश के मतदाता अपने  तरीके से निर्णय लेकर बरसों से कुरसियों पर काबिज क्षत्रपों को भी उठा कर खड़ा करने की ताकत रखते हैं। भारत में जनता खुद पर राज करने के लिये खुद ही अपने नेता चुनकर अपनी सरकारें बना लेते हैं। विशेषज्ञ एनालिसिस करते रह जाते हैं। भारत के मतदाता के निर्णय में भावना भी होती है, राष्ट्रभक्ति भी और दीर्घगामी परिपक्व सोच भी दिखती है। फ्री बीज से मताधिकार को प्रभावित करने के क्या कुछ प्रयत्न नहीं होते हैं, पर क्या सचमुच उससे परिणाम बदलते हैं? सरे आम धर्म और जाति के कार्ड खेले जाते हैं, राजनैतिक दल वोटर आबादी के अनुसार उम्मीदवार चुनते दिखते हैं किंतु क्या इससे पिछले ७७ सालों में लोकतंत्र कमजोर होता दिखता है? क्षेत्रीयता, आरक्षण, प्रलोभन, धन बल, बाहुबल, झूठा डर हमारे परिपक्व और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को कितना प्रभावित कर पाता है? दुनियां की अनेक विदेशी शक्तियां देश के चुनावों को प्रभावित करने के लिये स्पष्ट रूप से मीडीया के जरिये मनोवैज्ञानिक चालें चलती हैं और परोक्ष तरीकों से विदेशी धन हमारे चुनावों में इस्तेमाल करने की कोशिशें होती हैं, “लेकिन कुछ बात है कि हमारी हस्ती हम ही हैं”। क्या भारत के संविधान को बदलने की जरूरत है? क्या डेढ़ महीनो की लम्बी अवधि तक सरकारों को ठप्प करके चुनाव चलने चाहिये?

संविधान संशोधन आवश्यक हैं भी  तो कितने और क्या? ये सारी बातें प्रत्येक बुद्धिजीवी, साहित्यकार, पत्रकारिता में अभिरुचि रखने वालों और हमारे युवा कहे जाने वाले देश की नव युवा आबादी को हमेशा से परेशान करती रही हैं। सब इसके उत्तर चाहते हैं। घर परिवार में, मित्रों में आपस में, टी वी चैनलों पर पैनल डिस्कशन्स में खूब बहस होती हैं, चाय की गुमटियों पर जाने कितनी चाय पी जाती है, कितने ही पान खाये जाते हैं, बहस होती है, किन्तु गणना से पहले कोई निर्णायक अंतिम परिणाम नहीं निकल पाते।

भारतीय चुनावों को समझने के इच्छुक युवाओ के लिये आदर्श आचार संहिता, चुनाव प्रक्रिया, उम्मीदवारों की योग्यता, राजनैतिक दलों की पात्रता हर वोटर को समझना जरूरी है।  हमारी संस्कृति में भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा कर प्रजा जनो को वृष्टि आपदा से बचा लिया था। हर गृहणी पर आरोप लगता है कि वह अपनी उंगली पर अपने पति को नचा रही है। उसकी उंगली में कितनी ताकत प्रधानमंत्री जितनी शक्ति संहित होती है, या केवल राष्ट्रपति की ताकत सी नजर भर आती है, यह वास्तविकता तो सारी गृहस्थी का भार उठाये वह महिला ही जानती है। मतदाता के वोट डाल चुकने की सहज पहचान के लिये उसकी उंगली पर त्वरित रूप से न मिटने वाली स्याही से निशान लगा दिया जाता है, पोलिंग बूथ पर खड़ा मतदाता  दरअसल वह मदारी है जिसकी  उंगली पर लोकतंत्र  नाचता है, उसे रिझाने मनाने बड़ी बड़ी रैलियां, रोड शो, सभायें होती हैं। धड़कने थामें खुद मतदाता भी चुनाव परिणामों का इंतजार करते हैं, यह जानते हुये भी कि बहुत कुछ रातों रात बदलने वाला नहीं है, कोई नृप होय हमें का हानि, चेरी छोड़ न हुई हैं रानी !

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 11 – संस्मरण # 5 – ऋण और ऋणी ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 11 – संस्मरण # 5 – ऋण और ऋणी ?

नारायण अल्प शिक्षित था। गाँव में कोई खास काम ना मिलने के कारण और अपनी खेती बाड़ी भी ना होने के कारण उसने अपनी बेटियों को लेकर शहर आ जाना ही उचित समझा। शहर में भी कोई बहुत बड़ा रोज़गार तो नहीं मिला था, हाँ एक छोटे से दफ़्तर में चपरासी का ही काम करता था जिससे राज़ी रोटी चल जाती थी।

समय के साथ- साथ थोड़ा बहुत धन भी उसने जुटा लिए थे। आखिर बड़े परिवार को पालने और बेटियों को पढ़ाने -लिखाने के लिए एक ऑटो रिक्शा खरीदी।ऑटो रिक्शा के कारण अच्छी ख़ासी जीविका की व्यवस्था हो गई। स्थायी आय पाने के लिए उसने अपनी रिक्शा में दोनों तरफ़ दरवाज़े लगा लिए और स्कूल के बच्चों को लाने – छोड़ने का काम करने लगा। उन दिनों अपने शहर का संभवतः वह पहला व्यक्ति था जिसकी रिक्शा में सुरक्षा हेतु दरवाज़े थे।

मृदुभाषी और सज्जन व्यक्ति होने के कारण अभिभावक भी उसका सम्मान करते थे और जब कभी आवश्यकता महसूस होती तो यहाँ -वहाँ जाने के लिए उसे ही बुला लेते थे।यह उसके लिए ऊपरी आय भी हो जाती थी।

नारायण की बच्चियाँ स्कूल में पढ़ने लगीं जीवन अपनी गति से चलने लगा। नारायण ईमानदार, कठोर परिश्रमी और सत्यवादी था जिस कारण आस-पड़ोस के लोग उससे स्नेह करते थे और सम्मान भी।

लड़कियाँ पढ़-लिख गईं। समय और उम्र के अनुसार अपनी ससुराल चली गईं।जो जमा पूँजी थी, पत्नी के जेवर थे सबकुछ देकर बच्चियों की शादी की।

कहते हैं न मुसीबत कभी बताकर नहीं आती! बस यही कहावत नारायण के विषय में उचित सिद्ध हुई। इधर हाथ खाली हुए और उधर कोरोना काल आ धमका।

सब कुछ ठप्प पड़ गया।स्कूल बंद हो गए, सड़कें सूनी हो गईं।लोगों ने घर से निकलना बंद कर दिया।रिक्शा अपनी जगह चुपचाप खड़ी रही।

समय बीतता गया, छह माह बीत गए न स्कूल खुले न रोज़गार ही प्रारंभ हुआ ! नारायण और उनकी पत्नी के लिए रोटी के लाले पड़ गए। जैसे -तैसे प्याज़, अचार से रोटी खाकर कुछ समय काट लिए।

एक दिन किसी कारणवश एक अभिभावक ने नारायण से कहा कि उन्हें कहीं जाना है तो वह आ जाए। नारायण समय पर पहुँचा और उनसे निवेदन किया कि रिक्शा में वे पेट्रोल डलवा दें। बातों ही बातों में अभिभावक को उसकी दरिद्रता की छवि दिखाई दी।

घर लौटकर उसे दो मिनिट रुकने के लिए कहा और बिना कुछ कहे वे अपनी बिल्डिंग के ऊपर चले गए। लौटकर आए तो नारायण के हाथ में एक चेक थमा दिया बोले- जब तक सब कुछ सामान्य न हो इससे तुम्हारा गुज़ारा संभवतः चल जाएगा। लाख मना करने पर भी

वे न मानें तो नारायण उनके हाथों को माथे से लगाकर चूमते हुए आँखों से बहते कृतज्ञता व्यक्त करते हुए वहाँ से उसने विदा ली।

साल बीत गया।स्कूल अब भी न खुले थे पर हाँ रिक्शा सड़क पर निकल तो आई थी। दो वक्त की रोटी जुटाने लायक व्यवस्था हो रही थी।

नारायण की पत्नी मितभाषी और धर्म-परायण महिला थीं। जब और जितना बोलती थी वह बातें मार्गदर्शन के लिए योग्य होती थीं।

एक दिन वह अपने पति से बोली –

आहो, साहेब के पैसे लौटा दीजिए।

– कैसे ?

– रिक्शा बेच दीजिए …..

– और हम दोनों खाएँगे क्या?

– मैं लोगों के घर भोजन पकाने का काम कर लूँगी और आप भी कहीं किसी दुकान में काम देख लेना ….

– पागल हो गई हो क्या? इस उम्र में तुम बाहर जाकर काम करोगी ?

– क्या आपको इस ऋण को चुकाने के लिए एक और जन्म लेने की इच्छा है? उऋण होकर मरेंगे हम तो मन को शांति मिलेगी न!

नारायण कुछ न बोला, वह पत्नी की बातों की गहराई को समझ रहा था।

नारायण भले ही अल्प शिक्षित हो पर वह इस पचास साल की उम्र में अनुभवी तो था ही।

उसने रिक्शा बेच दी और रकम लेकर साहेब के घर पहुँचा।

– अरे, नारायण आओ आओ, कैसे हो ? बहुत दिनों के बाद आए।बैठो, बैठो!

– साहेब …..ये..उधार चुकाने आया था साहिब।आपकी बड़ी कृपा रही मुझ गरीब पर, पर अब और ऋण का बोझ नहीं ढो सकता।

– पर मैंने तो तुम्हें कभी पैसों के लिए तगादा नहीं दिया! फिर स्कूल भी शुरू नहीं हुए, कहाँ से आए पैसे?

– नारायण ने सिर झुकाकर, धीमी आवाज़ में बोला -साहेब, मैंने रिक्शा बेच दी।साल बीत गया मैं ब्याज तक न दे सका, मुद्दल की क्या कहूँ!

– ठीक है, आ जाते पैसे पर रिक्शा क्यों बेची? रोज़गार का ज़रिया क्या होगा? खाओगे क्या….

– नहीं साहेब, कहीं भी मज़दूरी कर लूँगा पर मैं ऋणी होकर मरना नहीं चाहता। इस जन्म में गरीबी झेल ली, एक और जन्म ऋण चुकाने के बोझ से जन्म नहीं लेना चाहता।इस जन्म का हिसाब इसी जन्म में चुकता हो जाए तो ईश्वर की बड़ी कृपा होगी।।

रुपयों का लिफ़ाफ़ा मेज़ पर रखकर, हाथ जोड़कर नारायण दरवाज़े से धीरे -धीरे बाहर चला गया।

नारायण जहाँ खड़ा था वहाँ की रज साहेब ने अपने माथे से लगा ली बोले- नारायण, तुम केवल नाम के ही नारायण नहीं तुम तो कर्म के भी नारायण हो! तुम आदर्श हो! ईश्वर तुम जैसे लोगों से इस संसार को भर दें तो सारी दुनिया ही बदल जाएगी।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 193 – मृग मरीचिका ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है जीवन के कटु सत्य को उकेरती एक संवेदनात्मक एवं विचारणीय लघुकथा मृग मरीचिका”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 193 ☆

🌻मृग मरीचिका🌻

भीषण गर्मी में तपती दोपहरी को लंबी दूरी तय करते समय दूर देखने पर ऐसा लगता है मानो पानी भरा हुआ है।

इसे मृग मरीचिका कहते हैं या यूँ कह लीजिए आँखों का धोखा।

गर्मी में जहाँ चारों तरफ सिर्फ गर्म हवा लू चल रही हो वहाँ पर अचानक जल प्रवाह दिखना आँखों का धोखा होता है। क्षणिक मात्र के लिए ही सही परंतु यह बड़ा सुखद होता है।

अखबार को सीने से लगाए बैठा दीनदयाल मन ही मन आनंदित हो रहा था। जिसमें पूरे परिवार की तस्वीर छपी है।

बुजुर्ग घर परिवार की धरोहर होते हैं। बदलती परिभाषा को अपने लिए बनते मृग मरीचिका को, परंतु उसे आज अच्छा लग रहा था। आँखों का धोखा ही सही। आत्मा को बहुत सुकून पहुंचा रही थी।

दीनदयाल वृद्धावस्था के चलते सभी बातों से लाचार हो चुके थे। धर्मपत्नी भी समय होते-होते साथ छोड़ चली गई थी। आज वह चुपचाप देख रहा था कि उसे बेटे-बहु ने बहुत ही सुंदर-सुंदर बातें करके कुछ अच्छा सा कपड़ा पहनाया। साथ ही बोल रहे थे… कुछ पेपर वाले आएंगे हमारे घर परिवार का फोटो छपेगा।

जैसा बोल रहे हैं ठीक वैसा ही आपको कहना है। कुछ भी ज्यादा नहीं कहना है। अन्यथा वृद्धा आश्रम में पहुंचा दिए जाओगे। बेटे के कहे शब्द कानों में चुभ रहे थे।

बस उसी समय बेटे ने लगभग पेपर खींचते हुए बोला… अच्छा हुआ पिताजी आपने सब बहुत सुंदर बोला और जैसा ही कहा था, वैसा ही किया।

देखिए पेपर में बहुत सुंदर छपा है। सारे दोस्त और परिचित बधाई दे रहे हैं। दीनदयाल ने धीरे से कहा.. भीषण गर्मी में बेटा मृग मरीचिका आँखों को बहुत राहत देती है।

पीछे से बहू ने आवाज लगाई… अब बोलने दीजिए जो बोलना है कौन सुनता है। बस सोसाइटी में अपना नाम हो गया। दीनदयाल चुपचाप अपनी कमीज की बाजू से आँसू पोंछते पानी पीने लगे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 84 – देश-परदेश – मुम्बई मतलब बॉलीवुड ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 84 ☆ देश-परदेश – मुम्बई मतलब बॉलीवुड ☆ श्री राकेश कुमार ☆

जब भी मुम्बई की बात होती है, तो हमारा मीडिया बॉलीवुड को भी उसके साथ फेविकोल से जोड़ देता हैं। बीस मई को वहां भी आम चुनाव था।

टीवी चैनल ने इस मौके को कवर करने के लिए अपने अपने स्टूडियों में प्रातः आठ बजे से ही विशेषज्ञों की पूरी टीम बैठा दी थी उनके संवाददाता मुम्बई के फिल्मी बाहुल क्षेत्रों में मुस्तैदी से तैनात कर दिए गए थे।

हमारे जैसे फुरसतिया भी सुबह का नाश्ता छोड़ मोबाइल के न्यूज चैनल पर इंतजार करने लगे कि कौन कौन अभिनेता अपने मताधिकार का प्रयोग करने आयेंगे?

एक टीवी चैनल दर्शकों को मुफ्त में हेलीकॉप्टर यात्रा का प्रलोभन भी दे रहा हैं। लालच में ना पड़े। वैसे, ईरान में हाल ही में एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना का शिकार हो गया हैं।

आरंभ में सुश्री जानवी कपूर जी सज धज कर पधारी, तो टीवी वाले कहने लगे कितनी सुबह सुबह नहा धोकर फिल्मी लोग वोट दे रहे हैं। लाइव चैनल पर किसी ने लिखा वो अभी रात्रि क्लब से सीधा वोट डालने आई हैं।

फिर फरहान अख्तर अपनी बहन जोया अख्तर और पुरानी वाली मम्मी जी के साथ वोट देने आए हैं। पिता श्री जावेद अख्तर जोड़ों के दर्द के कारण प्रातः नही आ सके, दोपहर बाद नई वाली पत्नी के साथ वोट डाल कर गए

हिंदू धर्म को मानने वाले, और दो दो विवाह कर चुके वृद्ध धर्मेंद्र भी दूसरी पत्नी के साथ वोट डालकर क्या संदेश दे रहे थे, युवाओं को मेरे जैसे बनो!

अक्षय कुमार पान मसाला वाले भी जल्दी पहुंच गए थे। मीडिया बार बार जोर देकर कह रहा था, देखो बड़े बड़े फिल्मी दिग्गज प्रातः ही वोट दे रहे है, सभी नागरिक इनको फॉलो कर जल्दी वोट देवें।

फिल्मी चेहरे जो हमेशा अपना संपूर्ण जीवन मुखोटे लगा कर जीते है, क्या सीख देंगे, जनमानस को ? पान मसाला खाओ, ऑनलाइन रमी खेलो या मिलावटी जानलेवा मसालों का सेवन करों।

“कर लो दुनिया मुट्ठी में” का नारा देने वाले के अभागे पुत्र भी, जोकि स्वास्थ्य के लिए प्रतिदिन मरीन लाइंस पर दौड़ते हुए दिखाई देते है, भी दौड़ते हुए प्रातः काल ही वोट कर चले गए।

चंद पैसों की खातिर, जनता के विश्वास को धोखा देकर आर्थिक, मानसिक और शारीरिक हानि ही तो पहुंचा रहें हैं, ये फिल्मी दुनिया के so called सितारे।

के.चू.आ. भी प्रयास रत है, गिरते हुए मतदान प्रतिशत में वृद्धि की जा सके। इस बार की चुनाव तिथियां अधिकतर सप्ताह के आरंभ या अंत में रखकर जनता को घूमने का मौका देना, कहीं मतदान के कम प्रतिशत का ठीकरा इसी कारण पर तो नहीं फोड़ा जायेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #238 ☆ भूक प्रीतिची… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 238 ?

☆ मातृदिनानिमित्त – भूक प्रीतिची ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

जीव गुंतला केवळ माझा

फुगली छाती तुटला काजा

*

मन हे माझे येते बहरुन

रोज भेटणे होते चोरुन

नकोच त्याचा गाजावाजा

जीव गुंतला केवळ माझा

*

प्रीत जडाया बहू कारणे

प्रीत सोडुनी ‌नसे मागणे

भूक प्रीतिची माझा राजा

जीव गुंतला केवळ माझा

*

समजुन घे ना माझा हेतू

बंद पापण्या मिटून घे तू

नकोच उघडा तो दरवाजा

जीव गुंतला केवळ माझा

*

सरपण होते चूल पेटली

तवा भाकरी अशी भेटली

पाणी लावा खमंग भाजा

जीव गुंतला केवळ माझा

*

लाल गुलाबी गर्द पाकळी

तुझ्याचसाठी आहे मोकळी

नको मुखी तो आता बाजा

जीव गुंतला केवळ माझा

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ जीवनचक्र … ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– जीवनचक्र  – ? ☆श्री आशिष  बिवलकर ☆

बुडापासून अस्तित्व केले नष्ट,

पुन्हा उगवण्याची जिद्द आहे |

येणाऱ्या प्रत्येक आव्हानांशी 

लढायला पुन्हा एकदा सिद्ध आहे |

*

कित्येकदा छाटले कापले,

तरी जगण्याची आशा आहे |

शून्यातून उभे राहण्याची,

देहबोलीत भाषा आहे |

*

उन वारा पाऊस थंडी 

झेलायाची हिम्मत आहे |

जमिनीत घट्ट रोवणाऱ्या 

मुळांची किंमत आहे |

*

ज्यांनी काटले छाटले,

भविष्यात त्यांनाही छाया आहे |

निसर्गत: परोपकार अंगी,

प्रत्येक प्राणीमात्रासाठी माया आहे |

*

सोसलेल्या घावांच्या वेदना,

फक्त अंतरालाच ठाऊक आहे |

पुन्हा नव्याने अंकुरताना,

मन थोडेसे भावुक आहे |

*

मातीत उगवायचे, मातीत मिळायचे 

जीवनाच्या चक्राची रीत आहे |

प्रत्येक क्षण चैतन्याने जगायाचा,

हेच जीवनाचे गीत आहे |

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 190 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 190 – कथा क्रम (स्वगत)✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

संभवतः

शिष्य के

हठ की

अहंकार की

विदीर्ण करने

मौन मुखरित हुआ

‘वत्स

स्वीकारता हूँ तुम्हारा आग्रह

जाओ –

गुरु दक्षिणा हेतु लाओ

आठ सौ श्यामकर्ण अवश्वमेधी अश्व।

सुन, गुरु वचन

अवाक् गालव

स्तब्ध मन,

क्षणांश में

हुआ सचेत

और

बोला

‘जो आज्ञा गुरु देव।’

प्रणाम अर्पित कर

गालव ने छोड़ा आश्रम ।

वनमार्ग पर

चलते चलते

सोचा

आठ सौ श्याम कर्ण अश्व

कहाँ पाऊँ

कैसे जुटाऊँ?

विपत्ति में

स्मरण आते हैं

क्रमशः आगे —

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 191 – “लड़ लड़ कर थक गया…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “लड़ लड़ कर थक गया...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 191 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “लड़ लड़ कर थक गया...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

बड़के भैया ने खत डाला

छोटे भाई को-

पैसे भेजो !कैसे पाटूँ

घर की खाई को ?

 

लगी नौकरी जिस दिन से

तुमने मुँह फेर लिया ।

पता नहीं किस आफत ने

इस घर को घेर लिया ।

 

कभी कभार नहीं जल

पाता है घर का चूल्हा –

कहने को कुछ नहीं पास

जो कहूँ सफाई को ।

 

” भैया, समझ न पाओगे

मेरी तकलीफों को ।

महानगर के रहने में

दिक्कतें शरीफों को ।

 

कई छेद वाली बनियाइन

और फटे मोजे ।

झेल नहीं पाता भैया,

भीषण महगाई को ॥

 

नहीं भरी है फीस पुत्र की

तीन महीनों से ।

विद्यालय कहता है पाला

पड़ा जहीनोंसे ।

 

भेजूँगा जरूर पैसे

गर सम्भव हो पाया,

लड़ लड़ कर थक गया

यहाँ इस कठिन लड़ाई को॥”

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

05-11-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆

☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

सामान्यतः लोगों का परिचय उनके पिता के नाम और वंश परंपरा से बंधा होता है, किंतु कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने पुरुषार्थ – पराक्रम, कार्यों और परिणामों से स्वतः अपना परिचय बनाते हैं। ऐसे व्यक्तियों का किसी परंपरा, बंधन और विरासत के दायरे में बंधे रहना कठिन ही नहीं असम्भव रहता है। वे स्वयं अपना अस्तित्व अनुभव करते हैं और उसी की प्रामाणिकता के लिए जीवन को संघर्ष की कसौटी पर कस देते हैं। सेठ गोविन्द दास इसी श्रेणी के व्यक्ति थे। 16 अक्तूबर 1896 को जबलपुर के अति संपन्न और प्रतिष्ठित परिवार में उन्होंने जन्म लिया। दीवान बहादुर जीवनदास उनके पिता और राजा गोकुलदास उनके पितामह थे।

सेठ गोविन्द दास ने अपने विश्वास, सिद्धान्त प्रियता और अटूट देश प्रेम के कारण विशिष्ट पारिवारिक स्थितियों में अपनी विशाल पैतृक संपदा को भी त्याग दिया और संसार में स्वत: अपनी पहचान बनाने के संघर्ष भरे मार्ग पर चल पड़े। जीवन संघर्ष के बीच उन्होंने अपने बुद्धि चातुर्य, विवेक और धीरज से न केवल अपने को वरन अपने नाम से पूर्वजों को भी परिचित और प्रकाशित करने का काम किया। आज देशवासी सेठ गोविन्द दास को महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू का साथी, देशभक्त स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, धर्मनिरपेक्ष समाजसेवी, कुशल राजनीतिज्ञ एवम हिंदी के प्रबल पक्षधर, साहित्यकार के रूप में जानते हैं। चूंकि सेठ गोविन्द दास द्वारा रचित साहित्य में वृहत नाटकों एवम एकांकियों की संख्या सौ से भी अधिक है इसी कारण उन्हें सर्वाधिक ख्याति नाट्य शिल्पी के रूप में मिली। सेठ गोविन्द दास जी का जन्म दिवस “नाट्य दिवस” के रूप में मनाया जाता है।

अपने कर्म और पौरुष पर विश्वास करने वाले सेठ गोविन्द दास की भावना उनके प्रसिद्ध नाटक “कर्ण” में स्पष्ट परिलक्षित होती है, जिसमें कर्ण गुरु द्रोण से कहता है – “वर्ण और वंश” माता पिता का नाम ! वर्ण तथा वंशों का द्वंद्व होना है या अर्जुन का और मेरा, आचार्य ? मेरी दृष्टि से आप अर्जुन के वर्ण – वंश और माता – पिता का विवरण कर उल्टा अर्जुन का अपमान कर रहे हैं। उन्हें गर्व होना चाहिए अपना और अपने पौरुष का। जन्म तो देवाधीन है आचार्य ! हां पौरुष स्वयं के आधीन है। मुझे अपने कुल का परिचय देने की आवश्यकता नहीं, वह मेरे हांथ में नहीं। मेरे हांथ में है मेरा पौरुष तथा मेरा पौरुष ही मेरा सच्चा परिचय है यदि वर्ण और वंश का महत्व है तो वह तो भूतकाल को महत्व देना हुआ। अर्जुन को यदि अपने अतीत काल का गर्व है तो मुझे वर्तमान एवं भविष्य का। मैं अपना वंश बनाऊंगा, अपना वर्ण बनाऊंगा। आचार्य, मैं अपने पूर्वजों के कारण प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित नहीं होना चाहता, मेरे वंशज मेरे कारण यशस्वी होंगे। “

अपने इस मत के प्रतिपादन में सेठ गोविन्द दास ने पारिवारिक सिद्धांत, सुविधाएं व संपत्ति छोड़ कर अपने सार्वजनिक जीवन के साथ साहित्य क्षेत्र और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लेकर इस गौरव अभियान में स्वत: को समर्पित कर दिया।

सेठ जी ने अपने प्रत्येक नाटक में एक सशक्त कथानक और आदर्श रखा है, किसी में देश प्रेम है तो किसी में मानव धर्म, पीड़ितों की सेवा, माता – पिता की आज्ञा पालन। वे सामाजिक बुराइयों, कुरीतियों और अंधविश्वासों पर चोट करने से भी अपने नाटकों में नहीं चूके। “भविष्यवाणी” में उन्होंने पाखंडी भविष्य वक्ता के चक्कर में फंसे हुए कुछ परेशान लोगों का सजीव चित्रण किया है। उनके कुछ अन्य प्रसिद्ध नाटक हैं – कर्तव्य, कुलीनता, हर्ष, विश्व प्रेम, प्रकाश, पाकिस्तान, दलित कुसुम, सिद्धांत – स्वातंत्र्य, स्पर्धा आदि। नाट्य कला पर उन्होंने “नाट्य कला मीमांसा” पुस्तक भी लिखी है।

“कर्तव्य” नाटक के पूर्वार्द्ध में रामचरित मानस तथा उत्तरार्ध में कृष्ण के जीवन के विशिष्ट प्रसंगों का चित्रण है। राम के प्रति अत्यधिक श्रद्धावान होते हुए भी सेठ जी ने उन्हें अवतार के रूप में नहीं वरन जागरूक आत्मा के महापुरुष के रूप में चित्रित किया है। जब किसी मर्यादा का खण्डन होता है तो उनके मन में द्वंद्व खड़ा हो जाता है। कृष्ण का चित्रण भी एक विद्रोही एवं नई मान्यताओं के प्रतिष्ठाता के रूप में है।

हर्ष नाटक के निवेदन में सेठ जी ने कहा है – “मेरा मत है कि नाटक, उपन्यास या कहानी में लेखकों को यह अधिकार नहीं है कि वह किसी भी पुरानी कथा को तोड़ – मरोड़ कर उसे एक नई कथा ही बना दें। हां कथा का अर्थ वह अवश्य अपने मतानुसार कह सकता है। ” नाटक में बताया है कि हर्ष साम्राज्य की स्थापना के लिए शक्ति का उपयोग न करके हृदय परिवर्तन और स्वेच्छा को साधन बनाना चाहता है, इसलिए आरंभ में शक्ति का सहारा लेता है किंतु अंत में उसे त्याग देता है। यहां सेठ जी ने गांधीवादी अहिंसा और प्रजातांत्रिक विचारों का प्रतिपादन किया है। हर्ष में नारी के सम्मान को भी उभारा गया है। विधवा को भी मंगलमयी और तपस्वनी कहा गया है, इसलिए राज्यश्री विधवा होते हुए भी सम्राज्ञी बनाई जाती है। प्रकाश नाटक उपरोक्त नाटकों से अलग है। यह वर्तमान स्थितियों के संदर्भ में विरचित नाटक है। सत्य को समाज के सम्मुख रखना इस समाज का काम है। सत्य के मार्ग से ही ग्राम और नगरवासियों के दुखों का परिमार्जन किया जाए, यही इस नाटक का केंद्रीय भाव है। जो भी हो सेठ जी की अपनी मान्यताएं हैं, उनके अपने निश्चय हैं, इन्हें ही व्यक्त करने के लिए उन्होंने मूर्तता को आधार बनाया अथवा इन्हें ही अभिव्यक्ति देने के लिए उन्होंने अपनी योजनाएं बनाईं और पात्र चुने। वे प्रसिद्ध पाश्चात्य नाटककार “इबसन” की भांति स्वाभाविकता के भी हिमायती रहे हैं और उनके नाटकों में इसके दर्शन भी होते हैं।

साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा नाटक की विधा अधिक तकनीकी है। उसका अपना व्याकरण यत् किंचित दुरूह होता है, किंतु सेठ गोविन्द दास ने पूर्वी और पश्चिमी प्रणालियों के अध्ययन द्वारा कौशल और भावों के धरातल को ऊंचाई तक ले जाने का सफल प्रयत्न किया है। ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, गुणी, समर्पित देशभक्त, साहित्यकार जो 50 वर्षों तक सांसद रहे और हिंदी को राष्ट्रभाषा  बनाने आजीवन प्रयत्न करते रहे उन्हें सादर नमन।

श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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