हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 203 ☆ बाल गीत – भिन्न – भिन्न सबके चेहरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 203 ☆

☆ बाल गीत – भिन्न – भिन्न सबके चेहरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

प्रभु की लीला अजब गजब है

भिन्न – भिन्न सबके चेहरे।

कोई काला कोई गोरा

कुछ लँगड़े हैं कुछ बहरे।।

सभी इन्द्रियाँ जिनकी अच्छी

तन – मन जिनका स्वस्थ बनाया।

भाग्यवान ही वही मनुज हैं

जिनको घर , भोजन मिल पाया।।

 *

जो ईश्वर से खुश हैं रहते

नित पूजें शाम सवेरे।।

 *

नहीं अहम , बहम होता है अच्छा

सत्य मार्ग पर सदा चलो।

सरल , सहज जीवन अपनाकर

लक्ष्य बनाकर सदा बढ़ो।।

 *

हिम्मत कभी नहीं हारें हम

छट जाते सभी अँधरे।।

 *

सोच सदा अच्छी ही रखना

यही प्रेम ,आशा ,परिभाषा।

वाणी में यदि प्रेम घुल गया

हटे कपट , मन वैर निराशा।।

 *

सबमें खोजा यदि ईश्वर को

हटें भेद तेरे – मेरे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ गोड गोडुला ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक  

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? गोड गोडुला श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

जागतिक पुस्तकदिनाच्या शुभेच्छा !

न कळत्या वयामधे 

धरून पुस्तक हाती

मन लावून शोधतो

जणू जगाची उत्पत्ती

*

पाहून ही एकाग्रता

चक्रावली मम मती

वाचाल तर वाचाल

हे त्रिवार सत्य अंती

*

आदर्श गोड गोडुल्याचा

सगळ्यांनी तो घ्यावा

चांगल्या पुस्तकात मिळे

तुम्हां ज्ञानामृताचा ठेवा

तुम्हां ज्ञानामृताचा ठेवा

© प्रमोद वामन वर्तक

संपर्क – दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.) 400610 

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #228 – लघुकथा – ☆ वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा वातानुकूलित संवेदना” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #228 ☆

☆ वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती छिटपुट धूप-छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये एक रिक्शा चालक पर अचानक उनकी नज़र पड़ी।

लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर साहित्यजीवी बुद्धिप्रकाश जी उसके पास पहुँच कर देखते हैं –

वह व्यक्ति खर्राटे भरते हुए इत्मीनान से गहरी नींद सोया है।

समस्त सुख-संसाधनों के बीच सर्व सुविधाभोगी,अनिद्रा रोग से ग्रस्त बुद्धिप्रकाश जी को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने गहरे से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से स्वाभाविक ही ईर्ष्या होने लगी।

इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे  पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वे वापस अपनी कार में सवार हो गए और घर पहुँचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में जुट गए।

‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने  की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरी करते हुए बुद्धिप्रकाश जी आत्ममुग्ध हो एक अलग ही स्फूर्ति व उल्लास से भर गए।

रिक्शाचालक पर सृजित अपनी इस दयनीय सशक्त कहानी को दो-तीन बार पढ़ने के बाद उनके मन-मस्तिष्क पर इतना असर हो रहा है कि, खुशी में अनायास ही इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी जोरों से मन में हिलोरें लेने लगी।

तो ताजे-ताजे मिले इस संवेदना परक विषय पर कविता लिखना बुद्धिप्रकाश जी ने इसलिए भी जरूरी समझा कि, हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से पात्र रिक्शेवाले के ज़रिए उन्हें किसी सम्मानित मुकाम तक पहुँचा कर कल को प्रतिष्ठित कर दे।

यश-पद-प्रतिष्ठा और सम्मान के सम्मोहन में बुद्धिप्रकाश जी अपने शीत-कक्ष में अब कविता की उलझन में व्यस्त हैं।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 52 ☆ खिलखिलाती अमराइयाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खिलखिलाती अमराइयाँ…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 52 ☆ खिलखिलाती अमराइयाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

हवा कुछ ऐसी चली है

खिलखिलाने लगीं हैं अमराइयाँ।

माघ की ख़ुशबू

सोंधापन लिए है

चटकती सी धूप

सर्दी भंग पिए है

रात छोटी हो गई है

नापने दिन लगे हैं गहराइयाँ।

नदी की सिकुड़न

ठंडे पाँव लेकर

लग गई हैं घाट

सारी नाव चलकर

रेत पर मेले लगे हैं

बड़ी होने लगीं हैं परछाइयाँ।

खेत पीले मन

सरसों हँस रही है

और अलसी,बीच

गेंहूँ फँस रही है

खेत बासंती हुए हैं

बज रहीं हैं गाँव में शहनाइयाँ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़म ख़ुशी का है सिलसिला न डरो… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ग़म ख़ुशी का है सिलसिला न डरो“)

✍ ग़म ख़ुशी का है सिलसिला न डरो… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जब ग़ज़ल अपना सर उठाती है

शाहों के तख़्त तक गिराती है

ज़िन्दगीं साथ कब निभाती है

मौत से कितना ख़ौफ़ खाती है

 *

उससे इतना तो रब्त है मेरा

वो ग़ज़ल मेरी गुनगुनाती है

 *

मेरा जब भी उदास मन होता

माँ ख़यालों में मुस्कराती है

 *

नेवले साँप दोस्त बन जाते

जब सियासत हुनर दिखाती है

 *

हार से लेके जो सबक लड़ता

ज़िन्दगीं उसको ही जिताती है

 *

ग़म ख़ुशी का है सिलसिला न डरो

ज़िन्दगीं हर कदम बताती है

 *

मदरसों में जो हम न पढ़ पाए

ज़िन्दगीं वो हमें सिखाती है

 *

इस जहाँ की हवस है ऐसी हवस

खून का रिश्ता भूल जाती है

 *

लगता बच्चे किसान को झूमें

फ़स्ल जब उसकी लहलहाती है

 *

ये अदालत है न्याय कब करती

अपना बस फैसला सुनाती है

 *

दस्त पर जिसको है यक़ीन अरुण

मुफ़लिसी उसको कब सताती है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 102 – मत बोल बच्चन :1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  मत बोल बच्चन :1

☆ कथा-कहानी # 102 – मत बोल बच्चन :1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

ये शहर छोटी छोटी बातों पर होने वाले झगड़ों के नाम पर पहचाना जाता है. कभी कभी तो झगड़ालू दल बाद में सोचता रहता कि किस बात पर या फिर बिना किसी बात के ही झगड़ गये।ये द्वंद्व सिर्फ मौखिक ही हुआ करता, जिन्हें भीड़ में घुसकर तमाशा देखने के शौकीन “जुबानी जमाखर्च” कहते और आगे बढ़ जाते।इस शहर ने कई स्टंट फिल्मों के डॉयलाग राइटर भी पैदा किये थे जो फाईट मास्टर तो नहीं थे पर “दुश्मन के खून से घर क्या गली रंगने” जैसे धांसू डॉयलॉग लिखकर लाईमलाईट में आये थे।प्राय: ऐसे जन्मजात और खानदानी प्रतिभा साथ संपन्न कलाकारों के घर पर, गली के नुक्कड़ पर और दिमाग में भी भूसे की जगह “श्याम से कहना कि छेनू आया था, अगली बार मेरे किसी लड़के को हाथ भी लगाया तो पूरा मोहल्ला राख कर दूंगा” ये सुपरहिट डॉयलॉग हमेशा घूमता रहता था। ऐसे मोहल्लों का हर प्रतिभाशाली युवा, जवान होने के दौरान ऐसे बहुत से डॉयलॉग बोलने का रियाज कर कर के कर कर के ऐसे जवां होता रहता। इनके अग्रज याने अर्सा पहले इसी  जालिम जवानी के दौर से गुजर चुके सूरमाओं के दो ही शौक हुआ करते थे पहला तमाशबीन बनकर हर ऐसे झगडों का बिना कोई जोखिम उठाए मजे लेना और फिर अपने दौर के और खुद की बहादुरी के मिर्च मसाले से भरे अतिशयोक्ति पूर्ण किस्से सुनाना। इसके अलावा इन्हें खुद को “भाई” के नाम से पुकारा जाना बेहद पसंद होता। ये “भाई” फेंकने में उस्ताद तो होते ही थे पर मौके की नज़ाकत को पहचान कर समझदार बनना भी बखूबी जानते थे।

किस्मत से “असहमत” की भी एक ऐसे ही भाई से दोस्ताना संबंध थे यद्यपि “भाई” उसे अपना नालायक शागिर्द मानते थे।

तो जिस दिन की यह घटना है,उस दिन गर्मी अपने शबाब पर थी,सूरज कहर ढा रहा था और शहर का तापमान 45 डिग्री के पार जा रहा था, असहमत के कूलर, एयर कंडीशनर विहीन घर के हुक्मरान बनाया सीलिंग फेन याने पंखों ने भी बगावत की घोषणा करते हुये अपनी समझ से ‘चकाजाम’ कर दिया याने अपनी सहचरी ब्लेड्स (पंखुड़ियों) को थम जाने का फरमान जारी कर दिया। घर की प्रजा के लिये यह मामला नाजुक और सहनशक्ति से बाहर हो गया तो असहमत को बड़ी निर्ममतापूर्वक संबोधित करते हुये तुरंत इलेक्ट्रीशियन के पास दौड़ाया गया ताकि वो आकर इस बेचैनी से निज़ात दिलाये और घर को हवादार बनाए।

क्रमशः… याने झगड़े का समापन अगले अंक में 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 22 – मुक्ति मार्ग ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मुक्ति मार्ग।)

☆ लघुकथा – मुक्ति मार्ग श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

भूखे पेट भजन न होय गोपाला। भूख तो सबको लगती है भगवान के दर्शन हो जाएं तो मन तृप्त होता है लेकिन शरीर के लिए तो भोजन आवश्यक है ।

देखो बहू मैं साड़ी देख रही थी तो तुम्हें और जीतू को ऐतराज हो रहा था मैं तुम्हारे लिए ही साड़ी बनाना चाह रही थी।  डिजाइन को अपने दिमाग में बिठा रही थी देखो चूड़ी बिंदी तो सब जगह मिलती है, लेकिन तुम्हारा मन ललचाया ।

कोई बात नहीं तुम देखो?

तब तक मैं सभी के खाने की व्यवस्था करती हूं। उस सामने वाले रेस्टोरेंट में आ जाना।

तभी मां एवं जीतू के पास एक बुजुर्ग आती है और कहती है बहन जी काशी में आई है कुछ दान पुण्य तो कर लीजिए, मुक्ति मार्ग दान के सहारे ही मिलेगा।

हां अब बस तुम ही तो बाकी रह गई हो उपदेश देने को उधर मंदिर में पुजारी, टीवी खोल कर बैठो तो साधु से लेकर युवा पीढ़ी सभी लोग फेसबुक, व्हाट्सएप जाने कहां से इतना सभी के पास ज्ञान आता है ?

बेटा हम तुम भोजन करें वही हमारे लिए मुक्ति मार्ग है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 229 ☆ मृदगंध ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 229 ?

☆ मृदगंध ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

 पुढच्याच महिन्यात पाऊस येईल,

मृगाचा!

जून मधला पाऊस मला खरा वाटतो,

तुझ्यासारखा!

दरवर्षी नवा !

— कोऱ्या पाठ्यपुस्तकांसारखा!!

त्या कोऱ्या पुस्तकांचा वास

आणि मृदगंध!

कुठल्याही सुवासिक फुलाला किंवा

महागड्या अत्तरालाही,

नाहीच त्याची सर !

 

नेमेचि येतो…..म्हणण्या सारखा,

नाही राहिला पाऊस!

तो ही आता बेभरवशाचा!

 

पण आठवणी नेहमीच

असतात भरोश्याच्या…शाश्वत!

मला जून मधला पाऊस,

जुन्या आठवणींच्या गावात घेऊन जातो !

ती शाळा..भिजलेली वाट…

वर्ग…खिडकी ..पाऊसधारा!

 

आपलं गाव दुष्काळी,

पण पाऊस नेहमीच असतो,

सुजलाम सुफलाम!

  वैशाख वणव्यात तापलेल्या

धरणीला तृप्त करताना,

दरवळणारा मृदगंध—

थेट प्राणात जाऊन पोहचलेला,

 

आणि सखे तू ही तशीच !

 

 म्हणायचीस,

“जिवंतपणी तर मी तुला विसरूच शकत नाही पण,

मेल्यानंतरही तुझी आठवण,

माझ्या आत्म्याबरोबर असेल”

आणि

तू  अकालीच निघून गेलीस….

पण थेट प्राणात रुतून बसली

आहेस—-

 

पाऊस कसाही मोसमी- बेमोसमी,

 

तू मात्र शाळेत असल्यापासून,

श्वासात भरून घेतलेल्या,

मृदगंधासारखी !!!

© प्रभा सोनवणे

४  मे २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “चंद्रनागरीचा शब्द” – (काव्य-संग्रह)- कवी : प्रा. अशोक दास ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ “चंद्रनागरीचा शब्द” – (काव्य-संग्रह)- कवी : प्रा. अशोक दास ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

पुस्तक : चंद्रनागरीचा शब्द (काव्यसंग्रह)

कवी : प्रा. अशोक दास

प्रकाशक : तेजश्री प्रकाशन

प्रथमावृत्ती: ११|१२|२०२३

मूल्य : रु. १५०

भावनांच्या चांदण्यात न्हाऊन निघालेला चंद्रनागरीचा शब्द प्रा. अशोक दास यांच्या ‘ चंद्रनागरीचा शब्द ‘ या काव्यसंग्रहाची सुरूवातच ‘ वारीस जाऊ चला ‘ या भक्ती काव्याने होते. इथून पुढे शब्दांच्या सहवासात वाटचाल करताना या मार्गावरूनच आपल्याला जायचे आहे असेच जणू काही कवीला सुचवायचे आहे. कवीच्या घरातील धार्मिक वातावरण व त्यातून झालेली सांस्कृतिक जडणघडण यांच्या प्रभावामुळे कवीच्या अनेक रचना या सात्त्विकतेने ओथंबलेल्या आहेत हे स्पष्टपणे जाणवते. ‘संतांची अमृतवाणी’ आपले जीवन घडवण्यासाठी वाट दाखवत असते याची जाणीव कवीला आहे. तोच वारसा पुढे चालू रहावा म्हणून कवीही ज्ञानदेव माऊलींप्रमाणे खळजनांचे मन सुंदर व्हावे आणि पांडुरंगाने सर्वांना सुखी करावे एवढेच ‘ मागणे ‘ मागत आहे. वारक-यांच्या ‘दिंडी’ तून अभंग गात गात जाताना माय मराठी तर धन्य होतेच आहे पण वातावरणच असे भक्तीमय होऊन जाते की ‘ देव सर्वांच्याच मनात ‘ वास करू लागतो. अशा भक्तीप्रवाहात डुंबत असताना सुखदुःखे, अहंकार, काळाचे भान सारे काही विसरून जायला होते आणि नकळत मन ‘ अध्यात्मिक ‘ बनून जाते. विठ्ठलाचे ‘ दर्शन ‘ झाल्यावर नेत्र सुखावतात आणि जन्मोजन्मी हेच मुख दिसत राहो एवढी एकच आस मनाला लागून राहते. पण काही कारणाने वारी घडलीच नाही तर ? तरी काही हरकत नाही. कारण आतून भक्ती करणा-याचा देव पाठीराखा असतो.. चराचरी त्याचे दर्शन होते. आपली दृष्टी विशाल असेल तर ‘ सर्वांठायी पांडुरंग ‘ भेटतो. अशी दृष्टी लाभली की पांडुरंगाच्या ठायी दिसू लागतात  ‘रुपे श्रीरामाची’. त्याच्या विविध गुणांचे दर्शन होते. नकळतपणे सितापती ‘ रखुमापती ‘ बनतो आणि भक्तांच्या अंतःकरणात वास करतो. अशा भक्तांना सुखी करण्यासाठी ‘विठ्ठल आमुचा कैवारी’ आहे याची खात्री पटलेली असते. संतांच्या ‘ भक्तीचा मळा ‘ तर चंद्रभागेकाठी कायम फुललेला असतो. याच ‘ संतांचे स्मरण करावे ‘ आणि त्यांनी शिकवलेल्या धर्माचे पालन करावे. प्रपंच आणि परमार्थ यांची सांगड घालून अवघे ज्ञान साठवावे

अशी अपेक्षा व्यक्त करणा-या अनेक कविता आपल्याला या संग्रहात वाचायला मिळतात. कवीचा पिंड त्यातून दिसून येतो. डाॅ. वासमकर यांनी प्रस्तावनेत म्हटल्याप्रमाणे कवीचे व्यक्तीमत्व त्याच्या कवितेतून प्रतिबिंबित होत आहे यात शंकाच नाही.

या संग्रहातील भक्तीमय काव्य रचना जशा लक्ष वेधून घेतात तशाच निसर्ग कविताही वैशिष्ट्यपूर्ण वाटतात. निसर्गातील महत्वाचा घटक म्हणजे पाऊस. पावसात भिजल्याशिवाय आणि पावसाची आठवण काढल्याशिवाय कोणताच कवी आपली लेखणी थांबवू शकत नाही. त्यामुळे श्री. दास सरही त्याला अपवाद नाहीत. पावसाच्या थेंबामुळेच बीज अंकुरत आहे आणि हिरवाई भराला येणार आहे. ‘समृद्धीचा सागर ‘ पावसाच्याच हाती आहे. अशा पावसाची फार वाट पाहणे शक्य नाही. जीवघेणी प्रतिक्षा सहन होत नसल्यामुळेच कवी बरसण्यासाठी ‘पावसास आवाहन’ करीत आहे. नंतर कोसळणा-या या पावसात आपल्याच तो-यात नाचताना कवी फुलांच्या गंधात न्हाऊन निघत आहे. पण नको तेव्हा पडणारा ‘ अवकाळी पाऊस’ शेतात राबणा-याला उद्ध्वस्त करतो तेव्हा मात्र कवीचे मन उद्विग्न होते. मग तो ‘ वरुणास आवाहन ‘ करतो आणि तांडव थांबवण्याची विनंती करतो.

याच पावसातून उगवलेल्या झाडांकडे जेव्हा कवीचे लक्ष जाते तेव्हा कवीच्या हे लक्षात येते की ‘ झाडे ‘ म्हणजे निसर्गातील संतच आहेत. निरपेक्षपणे देत राहणे, स्पर्धा न करता आपला ध्यास जपत राहणे, दुस-याच्या प्रगतीत आनंद मानणे असे सगळे सद्गुण कवीला झाडांच्या ठायी दिसतात. यातून कवीच्या दृष्टीचे वेगळेपण दिसून येते. जगाव कसं हे शिकवणा-या या झाडांतून मग कुठेतरी डवरलेला, बहरलेला पारिजात दिसतो. आभाळाचे दान लाभलेला हा पारिजात जेव्हा मातीस्तव फुलून येतो तेव्हा आपले मनही विरक्तपणे त्या सुगंधी सौंदर्याचा आस्वाद घेते. असा हा पारिजात श्रावणाशिवाय कसा डवरेल ? कवीला तर ‘ श्रावण म्हणजे अवघा उत्सव ‘ वाटतो. रंग गंधाच्या या मासाचे कवीने केलेले चित्रण त्यातील ध्वनीसह डोळ्यासमोर श्रावणमास उभे करते. ऊनपावसाच्या जरतारी सरी लेवून येणारा हा मांगल्याचा मास कवीचा ‘ लाडका श्रावण ‘ होऊन जातो. असा निसर्ग काव्यातून उभा करता करता कवीची शब्द फुलांची बागही फुलून येते आणि सा-या परिसरात शब्द गंध पसरुन राहतो.

असा निसर्ग डोळेभरून जो पाहतो आणि संतांची शिकवण मनात साठवून ठेवतो, त्या कवीची जीवनाकडे पाहण्याची दृष्टी कशी असेल ? ऋतूच्या रंगांनी निसर्ग बहरावा तसे कवीचे जीवनही सुखदुःखाच्या ‘ ‘ऋतरंगा’नी रंगून गेले आहे. आलेल्या सर्व ऋतूंना अंगावर झेलत कवी ‘ आयुष्य ‘ नावाच्या नव्या ऋतूलाही सामोरा जात आहे. ही ताकद कुठून येते. निसर्गच तर शिकवतो, फक्त शिकून घ्यायला पाहिजे. ‘श्रावण’सरीत न्हाऊन निघणारा प्राजक्त विरक्ती शिकवतो, मनाची निर्मळता शिकवतो. दुस-याच्या जीवनात सुगंध पेरायला शिकवतो. आपल्या दुःखाचा बाजार न मांडता दुःख खांद्यावर घेऊन चालण्याचा आणि इतरांना आधार देऊन त्यांच्यासाठी सावली बनण्याचा ‘ धडा ‘ आत्मसात ‘ केल्याशिवाय मनाची एवढी तयारी होऊ शकत नाही. ‘ कालचक्रा ‘ च्या फे-यामध्य गेलेल्याचा, सरलेल्याचा शोक न करता निसर्ग नियम समजून घेऊन कालक्रमण करत राहणे यातच खरा पुरुषार्थ आहे. फुलांच उमलणं आणि कोमेजणं समजून घेऊन त्यांच्याप्रमाणं आपल जीवन सार्थकी लावावं. सुख दुःखाच्या लहरी येतील आणि जातील, आपणच आपल्या आयुष्याच गणित सोडवायचं असतं.

भक्तीच्या मार्गाने आणि निसर्गाच्या सहवासात जीवनाचा अर्थ शोधत असताना कवीचे भवताली घडणा-या घटनांकडेही लक्ष आहे. सत्ता, संपत्ती, स्वार्थ यांत गुरफटलेल्या समाजात संयम आणि सत्य यांना मात्र फारसे स्थान नाही. एकीकडे युगपुरुषांचा

जयजयकार करत दुसरीकडे लोकशाही मूल्ये पायदळी तुडवणारे नेते पाहिले की कवीचे मन विषण्ण होऊन जाते. गारपिटीने त्रस्त झालेल्या शेतक-याला मदत करण्याचे नाटक करतानाही एकमेकांशी स्पर्धा करणारे पुढारी केवळ खुर्चीसाठी पळापळ करत असतात हे जनतेने आता ओळखले आहे. मतांचा जोगवा मागायला झुंडीने येणारे पुढारी हे लोकांचे तारणहार होऊच शकत नाहीत. सत्ता ही उपभोगासाठी नसते तर ते सेवेचे फक्त साधन असते हे यांना कधी समजणार ? तरीही कवी आशा सोडत नाही. कृतीशून्य सत्तांधाना फेकून देऊन नवी नीती घडवणारे नवे नेते, नवे राष्ट्रपुरुष जन्माला येतील अशी कवीला खात्री आहे. समाजातील आपपरभाव नष्ट करुया आणि एकमेकांचे मैत्र बनून राहुया हे कवीचे स्वप्न आहे. सर्वांची ताकद एकवटली तर मानवतेचे मंदिर उभारणे अशक्य नाही. या संग्रहातील गारपीट, झुंडी, सारे सारे आपुले, मानवतेची मंदिरे, ठेकेदार, नवे नेते नवी नीती या कवितांतून कविच्या सामाजिक जाणीवा स्पष्ट होतात.

या संग्रहात ‘ मैत्री ‘ चा चंद्रमा आहे. ‘ गुरुजनांच्या’ आठवणी आहेत. ‘ संस्कारशील घरा ‘ चे चित्र आहे. अनंत काळ सर्वांचे हित होत राहो अशी प्रार्थना आहे. प्रत्येकाचे मन आभाळाचे झाले तर विश्व सुखी व्हायला वेळ लागणार नाही हा आशावाद आहे. शहिदांचे मनोगत आहे अन् दीपाचेही मनोगत आहे. कवी बादासाहेबांच्या कार्याचा गौरवही करतो आणि आईच्या आठवणी मनात बाळगत तिच्या नसण्याच्या दुःखाने हळवाही होत आहे. तो कधी जगाच्या पसा-यापासून दूर जाऊन आत्ममग्न होतो तर कधी बालकांच्या समवेत गीतांमध्ये रमून जातो. हे सगळे कशामुळे शक्य होते ? केवळ शब्दांनी इमानाने साथ दिली म्हणून. एकप्रकारे ‘ शब्दांतूनच आयुष्य कहाणी ‘ सांगण्याची किमया कवीला साधली आहे. कवी खुल्या दिलाने मान्य करतो

 “शब्दांनीच जगण्याचे बळ दिले

 शब्दांनीच रस्ता ही दाखविला

 शब्दांनीच, आतल्या आत 

 रडताना

 आपसूक डोळे पुसण्याची क्रिया

 केली “

कवितासंग्रहातील अनेक कविता मुक्तछंदातील असल्या तरीही काही कवितांमधून उत्तम लय साधली आहे. संतांची अमृतवाणी, पारिजात मी, पाऊस, मैत्री, शोध या कवितांचा त्यादृष्टीने उल्लेख करावा लागेल. काही काव्यपंक्तीही उल्लेखनीय वाटतात. उदाहरणार्थ —- समृद्धीचा सागर पावसाच्या हाती, आयुष्य नावाचा ऋतुरंग, सत्ता सेवेचे केवळ साधन असते, इत्यादी. काही शब्द कदाचित सदोष छपाईमुळे अशुद्ध स्वरुपात छापलेले दिसतात. परंतू निरभ्र मुखपृष्ठावरील पूर्णचंद्र आणि अंतरंगातील शब्दांचे चांदणे मनाला शीतल करते यात शंकाच नाही. पूर्णचंद्राच्या प्रकाशात शब्दाचे हे चांदणे जास्त जास्त पसरत राहो एवढीच सदिच्छा !

पुस्तक परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 52 – नाहक, तीरथधाम किया है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – नाहक, तीरथधाम किया है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 52 – नाहक, तीरथधाम किया है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

ऊँचा, तेरा नाम किया है 

पर, तुमने बदनाम किया है

*

तुम कतराते रहे, हमेशा 

मैंने, सदा प्रणाम किया है

*

वादा किया, न फिर भी आये

जीना यहाँ हराम किया है

*

मैंने, रात तड़पकर काटी 

तुमने तो आराम किया है

*

दर्शन तेरे, हुए न पहले 

नाहक, तीरथधाम किया है

*

चलो, देर से ही आये, पर 

वातावरण ललाम किया है

*

प्रणय कथानक, बढ़ सकता है

अभी न, पूर्ण विराम किया है

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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