हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 132 ☆ मुक्तक – ॥ वरिष्ठ नागरिक, खेलनी उसी जोश से दूसरी पारी ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 132 ☆

☆ मुक्तक ॥ वरिष्ठ नागरिक, खेलनी उसी जोश से दूसरी पारी॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

अब   शुरू हो गई  जीवन की दूसरी  पारी है।

अब अपनी रुचियाँ पूरी  करने की   बारी  है।।

जो अभिरुचि रह गई थी  सुप्त    अब  तक।

अब खत्म हो गई  जैसे  समय की   लाचारी है।।

[2]

मिल गई हमें जैसे    कि   दूसरी जिंदगानी अब।

पत्नी की दी गई समझ मेंआ रही कुरबानीअब।।

साथ पत्नी का  अब और अधिक भाने    लगा  है।

पत्नी लगती है  और अधिक प्यारी दीवानी   अब।।

[3]

छूटी हुई रिश्तों  की  दुनियादारी निभानी है अब।

घर के बच्चों को भी  जिम्मेदारी सिखानी है अब।।

काम के बोझ से  मुस्कुरा भी न पाए खुल कर।

हँसती   हुई  एक  महफ़िल हमें जमानी है  अब।।

[4]

कुछ जीवन में  सेवा कार्य  करने हैं अब हमको।

वरिष्ठ नागरिक के  कर्तव्य   भरने हैं अब हमको।।

अपने  अनुभव को बांटना  है समाज परिवार में।

कुछ धर्म-कर्म परोपकार कार्य तरने हैं अब हमको।।

[5]

रुकना नहीं थमना नहीं  बढ़ना  है हमको आगे।

जोड़ने हैं   अब हमको दोस्ती के टूटे हुए धागे।।

रखना हैअपने स्वास्थ्य का खूब ख्याल हमको।

ऊर्जा जोश तन-मन मेंअब भी रोज़ हमारे जागे।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 196 ☆ जो जैसा है सोचता वैसे करता काम… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “जो जैसा है सोचता वैसे करता काम…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 196 ☆ जो जैसा है सोचता वैसे करता काम… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

चेहरा है शरीर का ऐसा अंग प्रधान

जिससे होती आई है हर जन ही पहचान।

द्वेष भाव संसार में है एक सहज स्वभाव

जाता है बड़ी मुश्किल से कर ढेरों उपाय ।

 *

स्वार्थ, द्वेष हैं शत्रु दो सबके प्रबल महान

जो उपजाते हृदय में लोभ और अभियान |

 *

होती प्रीति की भावना गुण-दोषों अनुसार

पक्षपात होता जहाँ दुखी वही परिवार

 *

जिनका मन वश में सदा औ खुद पर अधिकार

उन्हें डरा सकता नहीं कभी भी यह संसार ।

 *

इस दुनियाँ में हरेक का अलग अलग संसार

वैसा करता काम जन जैसा सोच विचार

 *

बहुतों को होता नहीं खुद का पूरा ज्ञान

 क्योंकि उनकी बुद्धि को हर लेता अभिमान।

 *

 हर एक जैसा सोचता वैसे करता काम

सहना पड़ता भी किये करमो का परिणाम ।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #251 ☆ सार्थक सोच बनाम सफलता ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सार्थक सोच बनाम सफलता। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 251 ☆

☆ सार्थक सोच बनाम सफलता ☆

‘दु:ख के दस्तावेज़ हों या सुख के कागजा़त/ ध्यान से देखोगे तो नीचे ख़ुद के ही दस्तख़त  पाओगे’ से स्पष्ट है कि मानव अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है। दूसरे शब्दों में वह भाग्य-विधाता है। परंतु यदि वह सत्कर्म करता है तो उसे अच्छा फल मिलेगा और यदि वह किसी का अहित अर्थात् बुरे कर्म करता है तो उसका फल भी बुरा व हानिकारक होगा। उसकी निंदा होगी, क्योंकि जैसे वह कर्म करेगा, वैसा ही फल पाएगा। जीवन में यदि आप किसी का भला करेंगे, तो भला होगा, क्योंकि भला का उल्टा लाभ होता है। यदि जीवन में किसी पर दया करोगे तो वह याद करेगा, क्योंकि दया का उल्टा याद होता है। सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आप परहित व करुणा की राह अपनाते हैं या दूसरों के अधिकारों का हनन कर गलत कार्यों की ओर प्रवृत्त होते हैं।

सो! अपने कर्मों के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं।

हमें सोच-समझकर यह देख लेना चाहिए कि जो कार्य हमारे लिए हितकारक हैं, उनसे किसी का अहित व हानि तो नहीं हो रही, क्योंकि अधिकार व कर्त्तव्य अन्योश्रित हैं। जो हमारे अधिकार हैं, दूसरों के कर्त्तव्य हैं और दूसरों के कर्त्तव्य हमारे अधिकार। सो! हमारे लिए मौलिक अधिकारों के सैद्धांतिक के पक्ष को समझना अत्यंत आवश्यक है।

सुख-दु:ख मेहमान हैं। थोड़ा समय ठहरने के पश्चात् लौट जाते हैं। इसलिए उनसे घबराना कैसा? ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं अर्थात् परिवर्तन सृष्टि का नियम है। प्रकृति के

सभी उपादान यथासमय अपने-अपने कार्य में रत रहते हैं। आवश्यकता है, इनसे प्रेरित होने की– सूर्य अकेला रोज़ चमकता है और उसकी आभा कभी कम नहीं होती। चांद-सितारे भी समय पर उदित व अस्त होते हैं तथा कभी थकते नहीं। मौसम भी क्रमानुसार बदलते रहते हैं। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए, क्योंकि जो आया है; उसका लौट जाना निश्चित् है।

महत्वपूर्ण सफलताएं ना तो भाग्य से मिलती हैं; ना ही सस्ती पगडंडियों के सहारे काल्पनिक उड़ान भरने से मिलती हैं। उसके लिए योजनाबद्ध ढंग से अनवरत पुरुषार्थ व परिश्रम करना पड़ता है। योग्यता बढ़ाना, साधन जुटाना और बिना थके साहस-पूर्वक अनवरत श्रम करते रहना– सफलता के तीन उद्गम स्त्रोत हैं। इसलिए कहा जाता है–हिम्मत से हारना, लेकिन हिम्मत कभी मत हारना अर्थात् अभिमन्यु की सोच आज भी सार्थक है। मूलत: दृढ़-निश्चय, अनवरत परिश्रम, योग्यता बढ़ाना व साधन जुटाना सफलता के सोपान हैं।

सीखना बंद मत करो, क्योंकि ज़िंदगी सबक देना कभी बंद नहीं करती– के माध्यम से मानव को निरंतर परिश्रम व अभ्यास करने का संदेश प्रेषित करती है। ‘नर हो, न निराश करो मन को’ उक्ति सदैव आशान्वित रहने का संदेश देती है और हमारी सोच ही हमारी सफलता की कारक है। ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’ हमारी सोच पर प्रकाश डालती है। इसलिए कहा जाता है कि ‘नज़र बदलिए, नज़ारे स्वयं बदल जाएंगे।’ सौंदर्य भी दृष्टा के नेत्रों में निहित होता है। इसलिए जो अच्छा लगे, उसे अपना लो; शेष को छोड़ दो। उस पर ध्यान व अहमियत मत दो तथा उसके बारे में सोचो व चिंतन-मनन मत करो। इस तथ्य से भी आप वाक़िफ़ होंगे कि ‘समय से पहले व भाग्य से अधिक इंसान को कभी कुछ नहीं मिलता।’ इसलिए सृष्टि नियंता के न्याय पर विश्वास रखो। उसके यहाँ न्याय व देर तो है; अंधेर नहीं और आपके भाग्य में जो लिखा है, आपको मिलकर ही रहेगा। ‘माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय’ उक्ति में अकाट्य सत्य  समाहित है।

गीता में भी भगवान कृष्ण यही कहते हैं कि हमें अपने कर्मों का फल जन्म- जन्मांतर तक अवश्य झेलना पड़ता है और उसके प्रकोप से कोई भी बच नहीं सकता। स्वरचित पंक्तियाँ ‘प्रभु सिमरन कर ले बंदे/ सिर्फ़ यही तेरे साथ जाएगा। शेष सब इस धरा का, धरा पर धरा रह जाएगा’… और एक दिन यह हंसा देह को छोड़ उड़ जाएगा।  कौन जानता है, मानव को इस संसार में कब तक ठहरना है? ‘यह किराए का मकाँ है, कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘जिंदगी का अजब फ़साना है/ इसका मतलब तो आना और जाना है’ मानव जीवन की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डालती हैं। यह सृष्टि का निरंतर क्रम है। सो! उसका शोक नहीं करना चाहिए। यदि कोई हमारी ग़लतियों निकलता है, तो हमें खुश होना चाहिए, क्योंकि कोई तो है जो हमें पूर्ण दोष-रहित बनाने के लिए अपना समय दे रहा है। वास्तव में वह हमारा सबसे बड़ा हितैषी है, क्योंकि वह स्वयं से अधिक हमारे हित की कामना करता है, चिंता करता है।

‘ऐ ज़िंदगी! मुश्किलों के सदा हल दे/ थक ना सकें हम/ फ़ुरसत के कुछ पल दे/ दुआ यही है दिल से/ कि जो सुख है आज/ उससे भी बेहतर कल दे।’ यही है जीवन जीने की कला, जिसमें मानव ज़िंदगी से मुश्किलों व आपदाओं का सामना करने का हल माँगता है और निरंतर परिश्रम करना चाहता है। वह सबके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता है और अपने कल को बेहतर बनाने का हर संभव प्रयास करता व तमन्ना रखता है।

‘ख्वाब भले टूटते रहें/ मगर हौसले फिर भी ज़िंदा हों/ हौसला अपना ऐसा रखो/ कि मुश्किलें भी शर्मिंदा हों।’ मानव को साहसपूर्वक कठिनाइयों व आपदाओं का सामना करना चाहिए, क्योंकि ‘लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती’ और कबीर के ‘मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारा बैठ’ में कितना भाव-साम्य है। ख्वाब भले पूरे न हों, मगर हौसला कभी भी टूटना नहीं चाहिए अर्थात् मानव को निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। ‘सोचने से कहाँ मिलते हैं तमन्ना के शहर/ चलने की ज़िद भी ज़रूरी है मंज़िलों के लिए।’ इसलिए मानव को सदैव दृढ़-प्रतिज्ञ होना चाहिए, क्योंकि कल्पना के महल बनाने से इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। मंज़िल तक पहुंचने के लिए चलने की ज़िद व प्रबल इच्छा-शक्ति होनी आवश्यक है। सो! मानव को उचित दिशा में अपने कदम बढ़ाने चाहिए तथा सकारात्मक सोच रखते हुए सत्कर्म करने चाहिए, क्योंकि दु:ख के दस्तावेज़ों में सुख के कागज़ों पर उसी के हस्ताक्षर होते हैं अर्थात् हमारे कर्मों के लिए दूसरा उत्तरदायी कैसे हो सकता है? आवश्यकता है, आस्था व अगाध विश्वास की– जब हम अपना सर्वस्व उस प्रभु को समर्पित कर देते हैं तो अंतर्मन में आशा की किरण जाग्रत होती है, जो हमें सत्कर्म करने को, प्रेरित करती है, जिससे हमें मोक्ष की प्राप्ति भी  हो सकती है।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – अंजुरी (काव्य-संग्रह)– पुष्पा गुजराथी ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 14 ?

?अंजुरी (काव्य-संग्रह)– पुष्पा गुजराथी  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- अंजुरी 

विधा- कविता

कवयित्री – पुष्पा गुजराथी 

? ढलती दुपहरी की अंजुरी में ओस की बूँदें  श्री संजय भारद्वाज ?

माना जाता है कि कविता लिखना संतान को जन्म देने जैसा है। तथापि निजी अनुभव प्रायः कहता है कि कविता संतान की नहीं अपितु माँ की भूमिका में होती है। कवि, कविता को चलना सिखा नहीं सकता बल्कि उसे स्वयं कविता की उंगली पकड़ कर चलना होता है। एक बार उंगली थाम ली तो अंजुरी खुद-ब-खुद संवेदना की तरल अभिव्यक्ति से भर जाती है। पुष्पा गुजराथी की अनुभूति ने कविता की उंगली इतने अपनत्व से थामी है कि उनकी अंजुरी की अभिव्यक्ति नवयौवना नदी-सी श्वेत लहरियों वाला वस्त्र पहने झिलमिल-झिलमिल करती दिखती है।

पुष्पा गुजराथी की कविताओं के ये पन्ने भर नहीं बल्कि उनके मन की परतों पर लिखे भावानुभवों के संग्रहित दस्तावेज़ हैं। कवयित्री ने हर कविता लिखने से पहले संवेदना के स्तर पर उसे जिया है। यही कारण है कि उनकी कविता स्पंदित करती है। यह स्पंदन इन दस्तावेज़ों की सबसे बड़ी विशेषता और सफलता है।

ओशो दर्शन कहता है कि उद्गम से आगे की यात्रा धारा है जबकि उद्गम की ओर लौटने के लिए राधा होना पड़ता है। पुष्पा गुजराथी इन कविताओं में धारा और राधा, दोनों रूपों में एक साथ प्रवाहित होती दिखती हैं। ये कविताएँ कभी अतीत की केंचुली उतारकर जीवन का वसंतोत्सव मनाना चाहती हैं तो कभी अतीत के सुर्ख़ गुलाब की पंखुड़ियाँ सहेज कर रख लेती हैं। कभी धूप और बरखा के मिलन से उपजा  इंद्रधनुषी रंग वापस लौटा लाना चाहती हैं तो कभी यादों को यंत्रणाओं की शृंखलाओं-सा सिलसिला मानकर स्वयं को थरथराती दीपशिखा घोषित कर देती हैं। कवयित्री कभी सरसराती हवा के परों पर सवार हो जाती हैं तो कभी हौले से आकाश से नीचे उतर आती हैं, यह जानकर कि आकाश में घर तो बनता नहीं।

पुष्या गुजराथी की ‘अंजुरी’ को खुलने के लिए जीवन की ढलती दुपहरी तक प्रतीक्षा क्यों करनी पड़ी, यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय है।  आश्चर्य से अधिक सुखद बात यह है कि ढलती दुपहरी में खुली अंजुरी में भी ओस की बूँदे ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं। यह बूँदें उतनी ही ताज़ा, चमकदार और स्निग्ध हैं जितनी भोर के समय होती हैं।

कच्चे गर्भ-सी रेशमी यह नन्हीं ‘अंजुरी’ पाठक के मन के दरवाज़े पर हौले से थाप देती है, मन की काँच-सी पगडंडियों पर अपने पदचिह्न छाप देती है। पाठक मंत्रमुग्ध होकर कविता के कानों में गुनगुनाने लगता है- ‘आगतम्, स्वागतम्, सुस्वागतम् ।’

हिंदी साहित्य में पुष्या गुजराथी की सृजनधर्मिता का स्वागत है। वे निरंतर चलती रहें –

जागो !

उठो चलो।

चलते ही रहो,

चलना ही तुम्हारी मंज़िल है,

अगर रुके तो ख़त्म !

हर एक के हिस्से में आता है,

दर्द अपना-अपना,

किसी के हिस्से चलने का !

किसी के हिस्से रुकने का !

कवयित्री को ढेरों शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #23 – ग़ज़ल – आज मिलती है कहां शर्मो -हया लोगों में… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम – ग़ज़ल – आज मिलती है कहां शर्मो -हया लोगों में

? रचना संसार # 23 – ग़ज़ल – आज मिलती है कहां शर्मो -हया लोगों में…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

मुझको मंज़ूर नहीं और से कमतर होना

मेरी फ़ितरत में ही ईमान की चादर होना

 *

काम मुश्किल ही है क़िस्मत का सिकंदर होना

सर बुलंदी को भी साथ में लश्कर होना

 *

चाह सबकी ही रही मीर सा बेहतर होना

बस में सबके तो नहीं यार सुख़नवर होना

 *

आज मिलती है कहां शर्मो -हया लोगों में

कितना दुश्वार है तहज़ीब का ज़ेवर होना

 *

मेरी हसरत है यही हो ये ज़ुबां भी शीरी

खलता है बहुत इसका भी नश्तर होना

 *

लोग उँगली ही उठाते हैं सदा नेकी पर

कितना मुश्किल है ज़माने में पयम्बर होना

 *

मौत आने का नहीं तय है समय भी मीना

क्या ज़रूरी है तेरे जिस्म का जर्जर होना

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #251 ☆ भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष  ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 251 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

घर  आँगन में बैठते, पति पत्नी के संग।

पुरखों का हैं आगमन, उनका हैं सत्संग।।

*

श्राद्ध पक्ष में हम करें, करें  पिंड का दान।

पितरों का तर्पण करें, करते वो कल्याण।।

*

गौ का  ग्रास निकालते, काग श्वान का भाग।

आस लगाए बैठते, गौ माता अरु काग।।

*

श्रद्धा प्रादुर्भाव से, श्राद्ध पक्ष में आज।

पुरखों के आशीष से, बनते बिगड़े काज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #233 ☆ कविता – तर्पण… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है कविता – तर्पण आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 231 ☆

☆ कविता – तर्पण ☆ श्री संतोष नेमा ☆

नर्मदा  तट  पर  भीड़  भारी  है

पितरों  का  तर्पण अब जारी है

*

उनको समर्पित है यह पखवाड़ा

यह  उनकी  ही  तो  फुलवारी है

*

देते   हैं  श्रद्धा   से   जल   उन्हें

जो  होता   बहुत  चमत्कारी  है

*

पिंड  दान  दे शांति  पितरों  को

महिमा जिसकी सबसे  न्यारी है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-३☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

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☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-३ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

आमची आई.. .

आईने केला कोंड्याचा मांडा. माझी आई सौ. इंदिरा द. माजगावकर, दुसरी श्यामची आई होती. इतके दिवस नाही पण आता संसारात पडल्यावर जाणवतय, आईने कसा संसार केला असेल ? घरात आई नाना, आम्ही चौघी बहिणी, एक भाऊ, माझे काका (अण्णा), आत्या (आक्का) इतकी माणसे होती. पण मिळवणारे एकटे नानाच होते. त्यातून शिक्षकांना अगदी अपुरा पगार, पण आईने कोंड्याचा मांडा करून संसार सजवला.

45 ते 50 चा तो काळ, रेशनचे दिवस होते ते! धान्य आणून स्वच्छ करून निवडून रेशनला लाईनीत उन्हातान्हांत उभं राहून जड ओझं घरी आणायचं, घामाघूम व्हायची बिचारी! शिवाय आम्हा मुलांचं सगळ्यांचं आवरून हे सगळं आई एकटी करायची. आई माहेरी धाकटी होती. शेंडेफळ म्हणून लाडाकोडात वाढलेली आई सासरी मोठी सून म्हणून आली, हे मोठेपणाच शिवधनुष्य वेलतांना तिची खूपच दमछाक झाली.

आईचं लग्न अगदी मजेशीर झालं, माझे मामा (दादामामा )आणि माझे वडील नाना दोघे मित्र होते. एकदा नाना अचानक दादा मामांना भेटायला म्हणून आईच्या घरी गेले. बाहेर ओसरीवर माझ्या आईचा सागर गोट्यांचा डाव रंगात आला होता, नाना म्हणाले, “अहो यमुताई (आईचं माहेरचं नाव) दत्तोपंत आहेत का घरात? हे कोण टिकोजी आले मध्येच. ‘ असं पुटपुटत सागर गोट्याचा रंगलेला डाव सोडून आईने गाल फुगवले आणि परकराचा घोळ सावरत दादा मामांना बोलवायला ती आत पळाली. तिला काय माहित या टिकोजीरावांशीच आपली लग्न गाठ बांधली जाणार आहे म्हणून. लग्नानंतर आपल्या मित्राला, म्हणजे मोठ्या मामांना, हा किस्सा आमच्या वडिलांनी आईकडे मिस्कीलपणे बघत रंगवून सांगितला होता. मग काय मामांच्या चेष्टेला उधाणच आलं,

आम्ही मोठे झाल्यानंतर ही गंमत आमच्यापर्यंत मामांनी पोहोचवली होती. तर अशी ही आईनानांची पहिली भेट. नंतर संसाराची निरगाठ पक्की झाली, आणि त्यांचे शुभमंगल झाले. नाशिकच्या जोशांची कनिष्ठ कन्या मोठी सून म्हणून माजगावकरांच्या घरांत आली. कर्तव्याची, कष्टाची जोड देऊन तिने नानांचा संसार फुलवला. आता ति. आई नाना दोघेही नाहीत पण आठवणींची ही शिदोरी उलगडतांना मन बालपणात जात, आणि त्यांच्या आठवणीने व्याकुळ होत… व्याकुळ होतं..

मातृ देवो भव पितृ देवो भव  .

– क्रमशः भाग तिसरा 

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — १४  — गुणत्रयविभागयोग — (श्लोक ११ ते २0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १४  — गुणत्रयविभागयोग — (श्लोक ११ ते २0) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते । 

ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥ ११ ॥

*

देहात इंद्रिये अंतःकरणी होता जागृत चैतन्य

विवेकबुद्धी हो उत्पन्न वृद्धिंगत होता सत्वगुण ॥११॥

*

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा । 

रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥ १२ ॥

*

लोभ प्रवृत्ती स्वार्थ प्रेरित कर्मफलाशेने कर्म

अशांती कामलालसा हे रजोगुणवृद्धीचे वर्म ॥१२॥

*

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च । 

तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥ १३ ॥

*

अंधःकार अंतःकरणी गात्रात उदासीनता कर्मात

निद्राप्रियता अकारण चळवळ तमोगुणाच्या वृद्धीत ॥१३॥

*

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत्‌ । 

तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥ १४ ॥

*

सत्त्वगुणाची वृद्धी असता होता देहाचे पतन 

आत्म्यासी त्या निर्मल दिव्य स्वर्गप्राप्ती पावन ॥१४॥

*

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते । 

तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥ १५ ॥

*

रजोगुणाची वृद्धी असता होता देहाचे पतन

कर्मासक्त नरदेही वा मूढयोनीत त्यासी जनन ॥१५॥

*

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्‌ । 

रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्‌ ॥ १६ ॥

*

सात्त्विक कर्माचे फल सात्विक सुख वैराग्य ज्ञान

राजस कर्माचे फल दुःख तामस कर्मफल अज्ञान ॥१६॥

*

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च । 

प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ १७ ॥

*

सत्त्वगुणे ज्ञानोत्पत्ती लोभ रजोगुणापासून 

मोह प्रमाद उत्पत्ती होतसे तमोगुणापासून ॥१७॥

*

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । 

जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥ १८ ॥

*

सत्वगुणींना लाभे ऊर्ध्वगती मध्ये तिष्ठत रजोगुणी

नीच वृत्तीत रमुनी अधोगती प्राप्त करित तमोगुणी ॥ १८॥

*

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति । 

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ १९ ॥

*

त्रिगुण केवळ नाही कर्ता करितो दुजा कोणी

सच्चिदानंदघन त्रिगुणातीत परमात्मा जाणी

तत्वज्ञानी जाणावे त्या द्रष्टा पुरुष म्हणुनी

मम स्वरूपा प्राप्त होई तो त्रिगुणमुक्त होउनी ॥१९॥

*

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्‌ । 

जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ २० ॥

*

देहोत्पत्तीला कारण तिन्ही गुणांना उल्लंघुन

परमानंदी तयास मुक्ती जननमरणजरे पासुन ॥२०॥

 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 216 ☆ चरण से आचरण तक… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना चरण से आचरण तक। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 216 ☆ चरण से आचरण तक

शब्दों से पहले आचरण हमारी जीवन गाथा कह देता है, जिस माहौल में परवरिश होती है वही सब एक – एक कर सामने आते हैं। ऐसी कोशिश होनी चाहिए कि बोली और भावाव्यक्ति किसी को आहत न करे।

जब निर्णयों पर प्रश्न चिन्ह लगने लगे तो अवश्य चिन्तन करें कि कहाँ भूल हो रही है कि लोग आपकी नीतियों का विरोध एक स्वर में कर रहें हैं। बिना प्रयोगशाला के विज्ञान का अध्ययन संभव ही नहीं। जैसे – जैसे उम्र बढ़ती जाती है वैसे- वैसे सोचने समझने की क्षमता भी सकारात्मक होने लगती है, लोग क्या सोच रहे हैं या क्या सोचेंगे ये भाव भी क्रमशः घटने लगता है।

जैसे हम तन – मन के सौंदर्य का ध्यान रखते हैं वैसे ही वैचारिक दृष्टिकोण का ध्यान रखें। नकारात्मक विचारों को हटा कर श्री चिंतन की ओर उन्मुख हों। स्पष्टवादिता से अक्सर विवाद खड़े होते हैं। उचित समय का ध्यान रखने वाला इससे साफ बचकर निकल सकता है।

श्री शब्द का अलग ही रुतबा है, जब नाम के आगे सुशोभित होता है तो एक सुखद अहसास जगाता है। एक श्रीमान बहुत ही न्याय प्रिय थे उनके इस गुण से सभी प्रसन्न रहते।

एक विवाद के सिलसिले में उनको समझ ही नहीं आ रहा था क्या फैसला किया जाए, सभी की दृष्टि उन पर थी। पर कहते हैं न समय के फेर से कोई नहीं बच सकता तो वे कैसे अछूते रहते उन्होंने वैसा ही निर्णय दे दिया जैसा कोई भी करता, कारण न्याय केवल तथ्य नहीं देखता वो व्यक्ति व उसकी उपयोगिता भी देखता है।

यदि वो हमारे काम का है तो पड़ला उसकी तरफ़ झुकना स्वाभाविक है।

खैर होता वही है जो श्री हरि की इच्छा, पर कहीं न कहीं सारे लोग जो आज तक आप की ओर आशा भरी निगाहों से देखा करते थे वे अब मुख मोड़कर जा चुके हैं, उम्मीद तो एक की टूटी जो जुड़ जायेगी वक्त के साथ-साथ किन्तु आपके प्रति जो विश्वास लोगों था वो धराशायी हुआ।

जो भी होता है वो अच्छे के लिए होता है बस आवश्यकता इस बात की है कि आप उसमें छुपे संदेशों को देखें।

कई बार संकोचवश भी आपको ऐसी नीतियों का समर्थन करना पड़ता है जो उसूलों के खिलाफ हों पर जब पानी सर के ऊपर जाने की स्थिति हो तो सत्य की राह पर चलना ही श्रेस्कर होता है। भले ही लोगों का साथ छूटे छूटने दो क्योंकि शीर्ष पर व्यक्ति अकेला ही होता है, वहाँ इतनी जगह नहीं होती की पूरी टीम को आप ले जा सकें और जो जिस लायक है वो वही करे तभी उन्नति संभव है।

वर्तमान को सुधारें जिसके लिए आज पर ध्यान देना जरूरी है। कार्य करते रहें बाधाएँ तो आपकी कार्य क्षमता को परखने हेतु आतीं हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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