हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 154 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 154 – सजल – एक-एक कर बिछुड़े अपने ☆

 *जीवंत, सरोजिनी, पहचान, अपनत्व, अथाह।

 

सुख-दुख में हँस मुख *रहें,जीना है जीवंत

कर्म सुधा का पान कर, अमर बनें श्रीमंत।।

 **

मन सरोजिनी सा खिले, दिखे रूप लावण्य।

मोहक छवि अंतस बसे, प्रेमालय का पुण्य।।

 *

सतकर्मों से ही बनें ,मानव की पहचान

दुष्कर्मों के भाव से, रावण होता जान।।

 *

जीवन में अपनत्व का, जिंदा रखिए भाव।

प्रियतम के दिल में बसें, डूबे कभी न नाव।।

प्रेम सिंधु में डूब कर, नैया लगती पार।

दुख-अथाह, जीवन-खरा, प्रभु का कर आभार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 37 – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे )

? मेरी डायरी के पन्ने से # 37 – संस्मरण – मुखौटे में छिपे चेहरे  ?

एक अत्यंत अनुभवी तथा वयस्क महिला से मिलने का सुअवसर मिला। उनसे मेरा परिचय संप्रति एक यात्रा के दौरान हुआ था। संभवतः उन्हें मेरा स्वभाव अच्छा लगा जिस कारण वे कभी -कभी फोन भी कर लिया करती थीं। उन दिनों लैंड लाइन का प्रचलन था।

महिला जीवन के कई क्षेत्रों का अनुभव रखती थीं। साथ ही लेखन कला में भी उनकी रुचि थी।

आखिर एक दिन अपने घर पर चाय पीने के लिए लेखिका महोदया ने मुझे आमंत्रित किया। मैं अपनी स्कूली ज़िंदगी और गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों को लेकर खूब व्यस्त रहती हूँ। उनके कई बार निमंत्रण आने पर भी मैं समय निकालकर उनसे मिलने न जा सकी। पर आज तो उन्होंने क़सम दे दी कि शाम को चाय पर मुझे जाना ही होगा उनके घर।

एक पॉश कॉलोनी में वे रहती हैं।

मैं उनके घर शाम के समय पहुँची। हँसमुख मधुरभाषी लेखिका ने मेरा दिल खोलकर स्वागत किया। किसी लेखिका से मिलने का यह मेरा पहला ही अनुभव था। अभी मेरी उम्र भी कम है तो निश्चित ही अनुभव भी सीमित ही है। मन में एक अलग उत्साह था कि मैं किसी रचनाकार से मिल रही हूँ।

सुंदर सुसज्जित उनका घर उनकी ललित कला की ओर झुकाव का दर्शन भी करा रहा था। हर कोना पौधों से सजाया हुआ था।

वार्तालाप प्रारंभ हुआ । बातों ही बातों में कई ऐतिहासाक तथ्यों पर हमारी चर्चा भी हुई।

उनकी रचनाएँ प्रकृति की सुंदरता, स्त्री की स्वाधीनता, पशु- पक्षियों के प्रति संवेदना आदि मूल विषय रहे।

थोड़ी देर में उनके घर की सेविका चाय नाश्ता लेकर आई। वह टिश्यू पेपर साथ लाना भूल गई तो उन्होंने उसे मेरे सामने ही डाँटा। (वह चाहती तो अपनी मधुर वाणी में भी निर्देश दे सकती थीं) हमने चाय नाश्ता का आनंद लिया। हम खूब हँसे और विविध विषयों पर चर्चा भी करते रहे।

उनकी कुछ रचनाएँ उन्होंने पढ़कर सुनाई। उन्होंने मेरी भी कुछ रचनाएँ सुनी और उसकी स्तुति भी की। कुल मिलाकर उनका घर जाना और समय बिताना उस समय मुझे सार्थक ही लगा था।

मैं जब वहाँ से निकलने लगी तो किसी ने कहा नमस्ते, फिर आना मैं आवाज़ सुनकर चौंकी क्योंकि उस कमरे में हम दोनों के अलावा और कोई न था।

लेखिका मुस्कराई बोलीं- यह मेरा पालतू तोता पीहू है। बोल लेता है।

मैंने उसे देखने की इच्छा व्यक्त की तो वे मुझे अपनी बेलकॉनी में ले गईं। वहाँ एक कुत्ता चेन से बँधा था। मुझ अपरिचित व्यक्ति को देखकर वह भौंकने लगा। चेन खींचकर आगे की ओर बढ़ने लगा। लेखिका ने काठी दिखाई तो अपने कान पीछे करके वह चुप हो गया। वहीं पर एक पिंजरे में वह बोलनेवाला तोता बंद पड़ा था। उन्होंने कहा “पीहू नमस्ते करो” और तोते ने नमस्ते कहा।

दृश्य अद्भुत था! पशु चेन से बँधा और पक्षी पिंजरे में कैद! रचनाओं में पशु -पक्षी की आज़ादी की बातें! स्त्री की स्वाधीनता की बातें करनेवाली ने किस तरह सेविका को फटकारा कि मेरा ही मन काँप उठा। मेरा मन विचलित हो उठा। मैं घर लौट आई।

काफ़ी समय तक मुखौटे में छिपा वह चेहरा मुझे स्मरण रहा पर कथनी और करनी में जो अंतर दिखाई दिया उसके बाद मैं उनके साथ संपर्क क़ायम न रख सकी।

लेखक अगर पारदर्शी न हो तो सब कुछ दिखावा और दोगलापन ही लगता है। जो कुछ हम अपनी रचना में लिखते हैं वह हमारे जीवन का अगर अंश न हो तो हम भी मुखौटे ही पहने हुए से हैं।

 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 316 ☆ कविता – “एक शब्द चित्र – भोपाल की गैस त्रासदी…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 316 ☆

?  कविता – एक शब्द चित्र भोपाल की गैस त्रासदी…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कलम

कहती है

खींचो एक शब्द चित्र भोपाल की गैस त्रासदी का.

बुद्धि कहती है छेड़ो एक जिहाद मौत के सौदागरों के खिलाफ.

निर्दोष, अनजान लोगों को काल कवलित हुये जो,

अब दे ही क्या सकते हो ? श्रद्धांजलि के सिवाय.

लौटा सकते हो एक भी जिंदगी मुकदमों से,

मुआवजों से.

प्रगति के नाम पर कैसा षडयंत्र

रो उठता है दिल

विचार विभ्रम

कुंठित कलम अधूरी रचना… 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 110 – देश-परदेश – धूम्रपान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 110 ☆ देश-परदेश – धूम्रपान ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त चित्र को देखकर कई मित्र तो माचिस ढूंढने लग गए होंगे। साठ से नब्बे के दशक तक सिगरेट के भी खूब ठाठ हुआ करते थे। खैनी से बीड़ी पर पहुंचे लोग, सिगरेट की तरफ बढ़ चुके थे।

फिल्मी हीरो, फिल्मों और पत्र पत्रिकाओं के विज्ञापन में सिगरेट का सेवन करते हुए अतिरिक्त राशि भी अर्जित करते थे। सस्ते ब्रांड में पनामा और चारमीनार प्रचलित हुआ करते थे।

सिगार का चलन बड़े वाले अमीर परिवार या अंग्रेजी फिल्मों में होता था। हमने भी फिल्मों में ही इसके दर्शन किए थे, क्योंकि अमीर लोग हमारे परिचय में नहीं थे।

सिगरेट के असली शौकीन तो पाउच वाली सिगरेट बना कर पीते थे। इसका लाभ ये होता था, कि सिगरेट कम पी जाती थी। स्वयं पाउच से कागज में तंबाकू भरने के बाद चिपका कर सिगरेट का सेवन, समय और पेशेंस मांगता है, जो बहुत कम लोगों के पास होता था। साधारण पान की दुकानों में पाउच मिलता भी नहीं था।

इंडियन टोबैको और गोल्डन टोबैको बहुत बड़े विख्यात नाम हुआ करते थे, सिगरेट उद्योग के लिए। केंद्रीय बजट में हर वर्ष सिगरेट महंगी होती थी। सिगरेट की लंबाई भी इसकी कीमत तय करने का पैमाना हुआ करता था।

कॉलेज के दिनों में हम भी जेब में माचिस रखा करते थे, ताकि किसी शौकीन को आवश्यकता पड़े, तो काम आ सकें। हमारी माचिस के एवज में कुछ सुट्टे या एक आध सिगरेट का सेजा हो ही जाता था। ऐसे मौके यात्रा के समय बस और ट्रेन में अधिक मिलते थे।

सिगरेट के धुएं से छल्ले बनाकर हवा में उड़ाने से लड़कियां भी आकर्षित हो जाया करती थी, ऐसा हमने बॉलीवुड की फिल्मों में खूब देखा था। हमने भी प्रयास किया था, लेकिन असफल रहे थे।

टाइम पास के लिए भी सिगरेट एक अच्छा साधन हुआ करता था, जैसे आजकल मोबाइल भी हैं। सिगरेट आपके फेफड़ों को छलनी कर देता है, तो मोबाइल आपके दिमाग को छलनी कर रहा है।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #264 ☆ भेटतो चांदवा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 264 ?

भेटतो चांदवा ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

माझ्या प्रीतीच्या फुलात, रात्री पाहतो चांदवा

आकाशात नाही तरी, आहे भेटतो चांदवा

 *

मीही भाग्यवंत आहे, चांदण्यांच्या सोबतीने

आहे अंगणात माझ्या, पिंगा घालतो चांदवा

 *

आडवाटेचा हा मार्ग, नाही साथ सोडलेली

रोज सोबतीने माझ्या, रस्ता चालतो चांदवा

 *

काही दिवसांचा खाडा, ठेवे अंधारात मला

चंद्र किरणेही स्वतःची, देणे टाळतो चांदवा

 *

आकाशाच्या गादीवर, त्याला झोप येत नाही

घरी जाण्याच्याचसाठी, घटका मोजतो चांदवा

 *

माझी आठवण ठेवली, नाही दुर्लक्षित झालो

माझ्या दारात येऊन, कायम थांबतो चांदवा

 *

हाती त्याच्या ना घड्याळ, तरी पाळतो तो वेळा

कामावरती वेळेवर, आहे पोचतो चांदवा

 

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – २० ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – २० ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)

आप्पा

आप्पांविषयी माझ्या वडिलांना नुसताच आदर नव्हता तर त्यांच्यावर त्यांचे अलोट प्रेम होते. आप्पा म्हणजे माझ्या वडिलांसाठी ते त्यांच्या पित्यासमान होते. पप्पांनी त्यांच्या वडिलांना पाहिले सुद्धा नव्हते कारण ते जेमतेम चार महिन्याचे असतानाच त्यांच्या वडिलांचे निधन झाले.

आप्पा म्हणजे पप्पांच्या मावशीचे यजमान. पप्पांचे बालपण, कुमार वय घडवण्यात माझ्या आजीचा वाटा, तिचा त्याग, तिची तळमळ आणि केवळ मुलासाठी जगण्याचं तिचं एकमेव ध्येय हे तर अलौकिकच होतं. पण या सर्व बिकट वाटेवर माझ्या आजीला आप्पांनी खूप सहाय्य केलं होतं. अगदी निस्वार्थपणे. त्यांनीच आजीला शिवणाचे मशीन घेऊन दिले आणि तिच्या उदरनिर्वाहाची सोय करून दिली होती. शिवाय पप्पांचीही त्या त्या वेळची मानसिकता त्यांनी सांभाळली होती. बरंच व्यावहारिक, बाहेरच्या जगात वावरताना आवश्यक असणारं शिक्षण त्यांच्याकडूनच पप्पांनी घेतलं असावं. अगदी भाजीपाला, फळे, मटण, मासे यांची पारख कशी करावी इथपासून सहजपणे जाता जाता अप्पांनी त्यांना बरंच काही शिकवले होते. माय—लेकाच्या आयुष्यात कुठलंही लहान मोठं संकट उभं राहिलं की आप्पांचा त्यांना आधार असायचा.

आप्पा आणि गुलाबमावशीला चार मुलं. भाऊ, पपी, बाळू आणि एक मुलगी कुमुद आत्या. या परिवाराविषयी पप्पांना अपरंपार जिव्हाळा होता आणि तितकाच जिव्हाळा त्यांना सुद्धा पप्पांविषयी होता. पप्पा म्हणजे त्यांचा मोठा भाऊच होता. मोठ्या भावाविषयी असावा इतका आदर त्यांनाही पप्पांविषयी होता. पप्पांची तीच फॅमिली होती आणि पर्यायाने आमचीही. आमची एकमेकांमधली नाती प्रेमाची होती, रुजलेली होती, अतूट होती आणि आजही ती टिकून आहेत अगदी तिसऱ्या पिढीपर्यंत.

पप्पांच्या आयुष्यातले आप्पा आणि मी मोठी होत असताना पाहिलेले, अनुभवलेले अप्पा यांच्यात मात्र तशी खूप तफावत होती. माझ्या आठवणीतले आप्पा पन्नाशी साठीतले असतील. डोक्यावरचे गुळगुळीत टक्कल, अंगावर शुभ्र पांढरा सदरा पायजमा आणि दोन्ही खांद्यावर अडकवलेली शबनम पिशवी.. एखाद्या पुढार्‍यासारखेच ते मला कधी कधी वाटायचे. सकाळ संध्याकाळ ते घराबाहेर पडायचे. तसे ते निवृत्तच होते पण घरासाठी बाजारहाट ते करायचे, देवळात वगैरेही जायचे. त्यांचा थोडाफार मित्रपरिवारही असावा. संध्याकाळी मात्र ते ठाण्याच्या स्टेशन रोडवरच्या मराठी ग्रंथ संग्रहालयात जात आणि घरी येताना त्यांच्या शबनम पिशवीत निरनिराळ्या वर्तमानपत्राच्या घड्या आणत. ते नियमित पेपर वाचन करत आणि राजकारणावरच्या जोरदार चर्चा त्यांच्या घरी घडलेल्या मी ऐकल्या आहेत त्यात माझे पप्पाही असायचे.

मला आता नक्की आठवत नाही पण कुणा एका जिवलग मित्राला कर्ज घेताना त्यांनी गॅरंटी म्हणून सही दिली होती आणि त्यांच्या या जिवलग मित्राने बँकेचे कर्ज न फेडता गावातून गाशा गुंडाळला होता. तो चक्क बेपत्ता झाला आणि आप्पा गॅरेंटियर म्हणून बँक कर्ज वसुलीसाठी त्यांच्या मागे लागली. आप्पांची मालमत्ता म्हणजे त्यांचं राहतं घर… त्यावरही टाच आली. कर्जाची रक्कम तरी ही पूर्ण भरली गेली नसती तर आप्पांना अटकही होऊ शकत होती. पण अशा संकट समयी त्यांचे सुसंस्कारी आणि आप्पांविषयी आदर बाळगणारे त्यांचे जावई बाळासाहेब पोरे त्यांच्यापाठी खंबीरपणे उभे राहिले. आमच्या कुमुदात्यावर त्यांचं निस्सीम प्रेम होतं. तिच्या डोळ्यात साठलेल्या अश्रुंमुळेही ते भावुक झाले असावेत पण त्यांनी त्यांच्या जवळची सगळी पूंजी, स्वतःचे घर मोडून आप्पांसाठी बँकेतलं कर्ज फेडलं आणि या गंडांतरातून आप्पांना सहीसलामत मुक्त केलं. या बदल्यात बाळासाहेब, कुमुदआत्या आणि त्यांची तीन मुलं यांच्या राहण्याची व्यवस्था आप्पांनी त्यांच्याच घरातल्या माळ्याचे नूतनीकरण करून आणि तो माळा राहण्यायोग्य करून केली. कदाचित हा खर्चसुद्धा बाळासाहेबांनीच केला असावा. आता त्या घरात वरती कुमुदआत्याचा परिवार आणि खाली आप्पांचा परिवार असे एकत्र राहू लागले. अर्थात या सर्व प्रकरणात खरी गैरसोय सोसली ती बाळासाहेब आणि कुमुदआत्यांनी.. पण तरीही भावंडं, आई वडील यांच्यावरील प्रेमामुळे तसे सारेच आनंदाने राहत होते आणि या अखंड परिवाराला आमचाही परिवार जोडलेला होताच. आज जेव्हा मी या सर्वांचा विचार करताना माझ्या बालपणात जाते तेव्हा मला एक जाणवते की नाती का टिकतात? ती का बळकट राहतात ? असं कुठलं रसायन अशा नात्यांमध्ये असतं की जे अविनाशी असतं! 

हीच नाती नंतरच्या काळात बदलत गेलेली मी पाहिली, पण आज मला फक्त याच टप्प्यापर्यंत जाणवलेलं तुम्हाला सांगायचं आहे आणि जेव्हा या परिवाराच्या चौकटीतल्या, जरी सुखी असलेली ही चौकट असली तरीही तिच्या केंद्रबिंदूविषयीचा विचार करताना, अर्थात या केंद्रबिंदूशी आप्पांची मूर्ती असायची आणि असं वाटायचं आज जे काही चित्र आहे ते केवळ आप्पांमुळे. हे वेगळं असू शकलं असतं. पहिला प्रश्न माझ्या मनात यायचा की पप्पांना व्यवहाराचे धडे देणारे आप्पा असे फसवणुकीच्या जाळ्यात अडकलेच कसे आणि कुठेतरी मला असंही वाटायचं आप्पांच्या मनात अपराधीपणाचा लवलेशही नव्हता. त्यांची नोकरीही टिकली नव्हती तरी त्यांचं घरातलं बोलणं, वागणं रुबाबदारच असायचं. त्यांच्यामुळे त्यांच्या थोरल्या मुलाला— भाऊला पुढे शिकता आलं नाही. मिळेल ती नोकरी पत्करून लहान भावंडांचे शिक्षण पूर्ण करण्यासाठी, आई-वडिलांच्या संसाराला हातभार लावण्याची जबाबदारी त्याला उचलावी लागली होती आणि कदाचित परिवारामध्ये जे पुढे कलह निर्माण झाले त्याची कुठेतरी बीजं इथेच रोवली गेली असावीत.

बाळासाहेब आणि कुमुदआत्यांनी तर स्वतःच्या संसाराला मुरड घालून आप्पांना वेळोवेळी मदत केली पण आप्पांनी कधीच कुठल्याही प्रकारचं अपराधीपण स्वतःवर पांघरून घेतलंच नाही. किती गमतीशीर असतं हे जीवन!

माझ्या आठवणीले आप्पा हे असे पुढचे होते म्हणून त्यांच्याविषयी माझ्या मनात थोडा राग होता. मला ते दुसर्‍यांच्या जीवावर आरामशीर जगणारे वाटायचे. पण याच आप्पांनी माझ्या आजीला आणि वडिलांना मायेचा आधार दिला होता, त्याची नोंद मी का ठेवू शकत नव्हते? उपकारकर्त्या आप्पांची प्रतिमा माझ्या मनात निर्माण होत नव्हती. त्यावेळी मी पप्पांना आवडणार नाही म्हणून माझा आप्पांविषयी असलेला एक वेगळाच सुप्त राग कधी उघड करू शकले नाही.

आप्पा ही व्यक्ती मला फारशी नाही आवडायची. शिवाय तो राग कधीही निवळला नाही त्याला आणखी एक कारण होतं, ते म्हणजे माझ्या आठवणीत ते गुलाबमावशीशी म्हणजे त्यांच्या पत्नीशी कधीही चांगले प्रेमाने, आदराने, वागले नाहीत. गुलाबमावशी मला फार आवडायची……. गोरीपान, ठुसका थुलथुलीत बांधा, गळ्यातलं ठसठशीत मंगळसूत्र आणि कपाळावरचं गोल कुंकू, गुडघ्यापर्यंत अंगावर कसंतरी गुंडाळलेलं सैलसर काष्टा असलेलं नऊवारी लुगडं पण तरीही ती सुंदरच दिसायची आणि अशी ही गुलाबमावशी मला फार आवडायची. ती माझ्या आजीइतकी हुशार नव्हती, भोळसट, भाबडी होती, तिचं बोलणंही खूप वेळा गमतीदारच असायचं. तिला नक्की काय म्हणायचं ते कळायचे नाही. आणि हो ती अत्यंत सुंदर स्वयंपाक करायची.

आमची शाळा त्यांच्या घरापासून जवळ असल्यामुळे शाळा सुटल्यावर मी खूप वेळा गुलाबमावशीकडे जायची. मला खूप भूक लागलेली असायची. मग ती डब्यातली सकाळची नरम पोळी, आणि वालाचं बिरडं किंवा कुठलीतरी भाजी, तिने केलेलं कैरीचं लोणचं ताटलीत वाढायची. अमृताची चव असायची त्या अन्नाला. पैशाची इतकी ओढाताण असलेल्या कुटुंबातही ती जे घरात उरलं सुरलं असेल त्यातून चविष्ट पदार्थ रांधून सगळ्यांना पोटभर खायला द्यायची मग तिला अन्नपूर्णा का नाही म्हणायचे? आणि अशा या भाबड्या अन्नपूर्णेवर आप्पा पुरुषी हक्काने, मिजासखोर नवरेगिरी करायचे. सतत तिला हुडुत हुडुत करायचे. कुणाही समोर तिचा अपमान करायचे. ती जर काही आपली मतं मांडू लागली तर तिची अक्कल काढायचे आणि तिला जागच्या जागी गप्प बसवायचे. त्यावेळी मला ती गुलाबमावशी नव्हे तर गुलाममावशी भासायची. तिच्या अशा अनेक उतरलेल्या चर्या माझ्या मनात आजही वस्ती करून आहेत. कुणीच का आप्पांना रोखत नाही असे तेव्हा मला वाटायचे आणि आज वाटते की “मी पण का नाही गुलाब मावशीची बाजू घेऊन आप्पांना कधीच बोलले नाही?” केवळ लहान होते म्हणून? पप्पाच सांगायचे ना, ” जिथे चूक तिथे राहू नये मूक”.

पप्पांचे आप्पांइतकेच गुलाबमावशी वर प्रेम होतं. मग त्यांनीही आप्पांना कधीच का नाही त्यांच्या या वागण्याविषयी नापसंती दर्शविली? या कुठल्याही प्रश्नांची उत्तर मला तेव्हा आणि नंतरही कधीच मिळाली नाहीत. पण ही न मिळालेली उत्तरं शोधणं हा एक प्रकारे माझ्या जडणघडणीचा भाग ठरत होता.

गुलाबमावशी आमच्या घरी यायची तेव्हा आजीजवळ मन मोकळं करायची. आजीही बहिणीच्या मायेने तिची आसवं पुसायची. आप्पांचे उपकार जाणून ती आप्पांविषयी गैर बोलू शकली नसेल पण गुलाबमावशीला धीर द्यायची. कधी बोचक्यात तांदूळ बांधून द्यायची. तिच्या आवडीचा गोड मिट्ट चहा द्यायची. आमच्या घरातल्या मधल्या खोलीत चाललेलं या दोन वृद्ध बहिणींचं मायेचं बोलणं आजही माझ्या मनाला चरे पाडतं.

पण त्यावेळी मुलगी म्हणून जगत असताना मी मात्र मनाशी एक ठरवलं होतं, “आयुष्यात आपली कधीही गुलाबमावशी होऊ द्यायची नाही. जगायचं ते सन्मानानेच, स्वत:चा स्वाभिमान, स्वत्व आणि ओळख ठेऊनच.

 – क्रमशः… 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 216 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 216 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

ऋषिवर

गालव,

जानते हो

गुरु दक्षिणा देने के

हठाग्रह ने

विस्फोटित किया

ज्वालामुखी

और

उसके लावे में

बह गई

तुम्हारी पवित्रता ।

तार-तार हो गई

संस्कृति

छिन्न-भिन्न हो गई

मर्यादा

दफन हो गया

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते

का पुण्य घोष ।

यानी

नारी को

माता को, बहिन, बेटी को

निर्वस्त्र कर

नीलाम पर चढ़ा दिया

भरे बाजार में।

चार बार ।

क्यों किया

यह हठाग्रह तुमने?

क्या ज्ञात नहीं थीं तुम्हें

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 216 – “लौट कर आया नहीं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत लौट कर आया नहीं...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 216 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “लौट कर आया नहीं...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

मैं नयनका बोझ था

कैसे तुम्हारा

गिर गया तो कह रहे

आँसू हमारा

 

रोज के सपने तुम्हें

सोने न देते

अगर मुमकिन तो

समय अनुमान लेते

 

साथ में छल अनिश्चय

लेकर चले तो

डिग गया सम्बंध का

निश्चल सहारा

 

लौट कर आया नहीं

था राह में पर

टूटता ही रहा था

परवाह से घर

 

और था मुश्किल

तुम्हारा साथ लेकिन

जान पाया था जिसे

मैं दिशाहारा

 

यदि तुम्हारे प्रेम

का पर्याय होता

तो अभी तक

आँख में मैं बसा होता

 

और सब चेतन जगत

के असंतोषों का

बना होता कहीं

छोटा सा किनारा

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

24-11-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 228 – “बैठे ठाले – एक ठो व्यंग्य – ‘ऐसा भी होता है’” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है पितृपक्ष में एक विचारणीय व्यंग्य  – “बैठे ठाले – ‘एक ठो व्यंग्य – ‘ऐसा भी होता है”।)

☆ व्यंग्य जैसा # 228 – “बैठे ठाले – ‘एक ठो व्यंग्य – ‘ऐसा भी होता है☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

एक ही शहर के तीन विधायक बैठे हैं एमएल रेस्ट हाऊस के एक बंद कमरे में। चखने के साथ कुछ पी रहे हैं, ठेकेदार दे गया है ऊंची क्वालिटी की। पीते पीते एक नेता बोला – ये अपने शहर से ये जो नया लड़का धोखे से इस बार जीत क्या गया है, बहुत नाटक कर रहा है, लोग जीतने के बाद अपनी कार के सामने बड़े से बोर्ड में लाल रंग से ‘विधायक’ लिखवाते हैं इस विधायक ने अपनी कार में ‘सेवक’ लिखा कर रखा है, अपना इम्प्रेशन जमाने के लिए हम सबकी छबि खराब कर रहा है, ठीक है कि चुनाव के समय हम सब लोग भी वोट की खातिर हाथ जोड़कर जनता के सामने कभी ‘सेवक’ कभी ‘चौकीदार’ कहते फिरते हैं पर जीतने के बाद तो हम उस क्षेत्र के शेर कहलाते हैं और रोज नये नये शिकार की तलाश में रहते हैं, रही विकास की बात तो विकास तो नेचरल प्रोसेस है होता ही रहता है, उसकी क्या बात करना, विकास के लिए जो पैसा आता है उसके बारे में सोचना पड़ता है।

दूसरे विधायक ने तैश में आकर पूरी ग्लास एक ही बार में गटक ली और बोला –  तुम बोलो तो…उसको अकेले में बुलाकर अच्छी दम दे देते हैं, जीतने के बाद ज्यादा जनसेवा का भूत सवार है उसको, हम लोग पुराने लोग हैं हम लोग जनता को अच्छे से समझते हैं जनता की कितनी भी सेवा करो वो कभी खुश नहीं होती। अरे धोखे से जीत गए हो तो चुपचाप पांच साल ऐश कर लो, कुछ खा पी लो, कुछ आगे बढ़ाकर अगले चुनाव की टिकट का जुगाड़ कर लो। मुझे देखो मैं चार साल पहले उस पार्टी से इस पार्टी में आया, मालामाल हो गया, बीस पच्चीस तरह के गंभीर केस चल रहे थे, यहां की वाशिंग मशीन में सब साफ स्वच्छ हो गए, वो पार्टी छोड़कर आया था तो यहां आकर मंत्री बनने का शौक भी पूरा हो गया, इतना कमा लिया है कि सात आठ पीढ़ी बैठे बैठे ऐश करती रहेगी, जनता से हाथ जोड़कर मुस्कुरा कर मिलता हूं, चुनाव के समय कपड़ा -लत्ता सोमरस और बहुत कुछ जनता को सप्रेम भेंट कर देता हूं, जनता जनार्दन भी खुश, अपन भी गिल्ल…. और क्या चाहिए। ये नये लड़के कुछ समझते नहीं हैं, राजनीति कुत्ती चीज है, ऊपर वाला नेता कब आपको उठाकर पटक दे कोई भरोसा नहीं रहता, कितनी भी चमचागिरी करो ऐन वक्त पर ये सीढ़ी काटकर नीचे गिरा देते हैं। अभी छोकरा नया नया है  हम लोग सात आठ बार के विधायक हैं हम लोग अनुभवी लोग हैं खूब राजनीति जानते हैं, लगता है एकाद दिन अकेले में कान उमेठ कर छोकरे को राजनीति और कूटनीति समझाना पड़ेगा।

तीसरा मूंछें ऐंठते हुए बोला – यंग छोकरा है  ज्यादा होशियार बनने की कोशिश कर रहा है अपन वरिष्ठों की इज्जत नहीं कर रहा है सबकी इच्छा हो तो विरोधी पार्टी की यंग नेत्री (जो अपनी खासमखास है) को भिजवा देते हैं एकाद दिन… पीछे से कोई वीडियो बना ही लेगा, फिर देखना मजा आ जायेगा। पहला वाला बोला – होश में आओ अपनी ही पार्टी से जीता है, गठबंधन सरकार में एक एक विधायक का बहुत महत्व होता है। अकेले में समझा देना नहीं तो नाराज़ होकर दूसरी पार्टी ज्वाइन कर लेगा, सुना है आजकल एक विधायक की कीमत पचीस से चालीस करोड़ की चल रही है। नया खून है, जल्दी गरम हो जाता है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 200 ☆ # “मेरा आत्मसम्मान चाहिए…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मेरा आत्मसम्मान चाहिए…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 200 ☆

☆ # “मेरा आत्मसम्मान चाहिए…” # ☆

इस पल पल बदलती दुनिया में

मुझे आत्म गौरव, मान चाहिए

मुझे जीने के लिए बस

मेरा आत्मसम्मान चाहिए

 

कब तक जिएगा कोई

बैसाखियों के सहारे

वो हर बार ही जीते

हम हर बार ही हारे

चौसठ खानों की बिसात पर

शतरंज तुम्हारी, मोहरे भी तुम्हारे

इस शह और मात की बाजी में

सच्चाई और इमान चाहिए

मुझे जीने के लिए बस

मेरा आत्मसम्मान चाहिए

 

कितने उद्दंड है

बहते हुए धारे

डुबोने बेचैन है

कश्ती को हमारे

कश्ती भले ही जीर्ण हो

हममें जुनून है

पहुंचा ही देंगे

हम कश्ती को किनारे

दरिया के पानी में

बस एक तूफान चाहिए

मुझे जीने के लिए बस

मेरा आत्मसम्मान चाहिए

 

यह कैसा पाखंड है

हम बट रहे खंड खंड है

यह किस गुनाह का

मिल रहा दंड है

वहशी हवाओं में

वेग प्रचंड है

इस प्रलय को रोक सके

ऐसा एक इन्सान चाहिए

मुझे जीने के लिए बस

मेरा आत्मसम्मान चाहिए /

 

कविता

 

” जीवन चक्र  “

 

जीने के लिए हम

क्या क्या नहीं करते हैं

रोज जीते हैं

रोज मरते हैं

दो जून की रोटी के लिए

क्या क्या नहीं करते हैं

चाहे दिन हो या रात

ठंड हो, गर्मी हो

या हो बरसात

किसी भी मौसम में

खुद की परवाह नहीं करते हैं

सुबह घर से निकलते हैं

दौड़ लगाते हैं

भीड़ का हिस्सा

बन जाते हैं

परिश्रम करते हैं

पसीना बहाते हैं

तब –

दो रोटी का

परिवार के लिए

इंतजाम हो पाता है

कुछ पल के लिए

आदमी सो पाता है

रोज अपने परिवार

की जरूरते

जो अनंत हैं

पर जरूरी हैं

उसे पूरा करना

हर शख्स की

मजबूरी है

 

यह ऐसी जंग है

जिसका अलग ही रंग है

इससे हर कोई लड़ता है

एक एक कदम

आगे बढ़ता है

किसी के भाग्य का

सितारा चमकता है

तो वो नया इतिहास

गढ़ता है

और कोई

हर रोज संघर्ष करता है

पर निराश है

बेकारी, भूख , गरीबी

उसके पास है

झूठे वादे

अंधविश्वास ही

उसको रास है

वो जीवित तो है पर

एक जिंदा लाश है

 

जो तूफानों से टकराता है

आंधियों से नहीं घबराता है

वो भवसागर पार

कर जाता है

और

जो डरता है

हिम्मत हारता है

वो टूटकर

बिखर जाता है

जीवन चक्र में

अनजाना सा

मर जाता है

यही जीवन का

 अकाट्य सत्य है/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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