हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-16 – दिल को छू लेती है आज भी मासूम हंसी! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-16 – दिल को छू लेती है आज भी मासूम हंसी! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

यादों का यह सिलसिला जालंधर से शुरू होकर, न जाने किस तरफ अपने आप ही मोड़ ले लेता है और मित्रो मैं कोई नोट्स लेकर किसी तयशुदा मंजिल की ओर नहीं चल रहा । आज सोचता हूँ कि राजीव भाटिया और वंदना भाटिया के बहाने चंडीगढ़ के कुछ और रंगकर्मियों को याद करूँ पर उससे पहले पंजाब के अभी तक छूट रहे रंगकर्मी ललित बहल को याद कर लूँ! ललित बहल का मैं फैन हो गया था उनकी दूरदर्शन के लिए बनाई फिल्म, शायद उसका नाम ‘चिड़ियां दा चम्बा’ ही था, जिसमें एक ही दामाद ससुराल की बाकी लडकियों के साथ भी संबंध ही नहीं बनाता बल्कि सबको नर्क जैसा जीवन देता है। ‌ललित की पत्नी नवनिंद्र कौर बहल ने भी इसमें भूमिका निभाई थी! इसके साथ ही ललित बहल का लिखा ‘कुमारस्वामी’ नाटक न जाने कितनी बार यूथ फेस्टिवल में देख चुका हूँ। ‌अब बता दूँ  कि ललित बहल भी कपूरथला से संबंध रखते थे। मेरी इनसे एक ही मुलाकात हुई और वह भी यमुनानगर के यूथ फेस्टिवल में, जिसमें हम दोनों नाटक विधा के निर्णायक थे! उस रात हमें एक गन्ना मिल के बढ़िया गेस्ट हाउस में अतिथि बनाया गया। ‌जैसे ही खाना खाया तब हम दोनों सैर के लिए निकले! मैंने पूछा कि ललित! आखिर ‘कुमारस्वामी’ लिखने का आइडिया कहां से और कैसे आया?

पहले यह बता दूं कि ललित बहल ने इसकी पहली प्रस्तुति चंडीगढ़ के टैगोर थियेटर में दी थी , जिसमें राजीव भाटिया ने भी एक भूमिका निभाई थी और सभी चरित्र निभाने वालों को अपने सिर बिल्कुल सफाचट करवाने पड़े थे और‌ इन सबका एक फोटो एकसाथ ‘ट्रिब्यून’ में आया था, जो आज तक याद है! यह साम्प्रदायिक दंगों को केंद्र में रखकर लिखा गया है, जिसमें दो सम्प्रदाय आपस में अपने सम्प्रदाय को बड़ा मानते हुए लड़ मरते हैं और जबरदस्ती एक संत को अनशन पर बिठा दिया जाता है जबकि उसके ही बड़े महंत उसकी रात के समय हत्या करवा कर दूसरे सम्प्रदाय पर सारा दोष मढ़ देते हैं और‌ ये हत्या होती है ‘कुमारस्वामी’ की जो धर्म का मर्म सीखने आया है!

ललित बहल ने बताया कि आपको संत सेवा दास की याद है? मैंने कहा कि हां, अच्छी तरह! कहने लगे कि हमारे कपूरथला के दो चार युवा नेता चाहते थे कि हाईकमान के आगे उनका नाम हो जाये, तो उन्होंने संत सेवा दास को आमरण अनशन के लिए तैयार कर लिया ! अब आमरण अनशन पर उन‌ दिनों मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने सीआईडी तैनात कर दी कि संत सिवाय पानी के कोई चीज़ चोरी चुपके  से भी न खा सके! तीसरे दिन तक सेवा दास की टैं बोल गयी और उन्होंने युवा नेताओं को कहा कि मैं तो यह आमरण अनशन नहीं कर पाऊंगा लेकिन वे नहीं माने और‌ आखिरकार‌ सेवा दास रात के समय चुपके से अनशन तोड़ कर भाग निकला ! दूसरे संत फेरुमान रहे, जिन्होंने आमरण अनशन नहीं छोड़ा और प्राण त्याग दिये ! इन दोनो को मिला कर ‘कुमारस्वामी’ लिखा गया! अब मैं यूथ फेस्टिवल में लगातार चौदह वर्ष तक थियेटर की विधाओं में निर्णायक बनाये जाने वाले रंगकर्मी व कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय के सांस्कृतिक विभाग के निदेशक अनूप लाठर को याद कर रहा हूँ । उन्होंने हरियाणवी की आज तक सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म ‘ चंद्रावल’ में चंदरिया का रोल निभाया था और उन्होंने मुम्बई न जाकर दूसरे तरीके से हरियाणवी का विस्तार किया ! विश्वविद्यालय के निदेशक होने के चलते ‘रत्नावली’ जैसा उत्सव दिया जिसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गयी है कि हर साल नवम्बर में कलाकार इसकी प्रतीक्षा करते हैं! बूढ़े बुजुर्ग भी देर रात तक सांग प्रतियोगिता देखने कम्बल ओढ़ कर बैठे रहते हैं और अनूप हर वर्ष एक न एक नयी विधा इसमें जोड़ते चले गये! ‘हरियाणवी आर्केस्ट्रा’ अनूप लाठर की ही देन है। इसके पीछे उनकी सोच यह रही कि हरियाणवी साजिंदों को काम मिले! खुद अनूप लाठर ने नाटक और संगीत पर पुस्तकें लिखीं हैं। ‌मेरी कहानी ‘ जादूगरनी’ इतनी पसंद आई कि उस पर नाटक बनाने की सोची! इसी तरह पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के मोहन महर्षि ने भी डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरता के घर आयोजित ‘ अभिव्यक्ति’ की गोष्ठी में मेरी इस कहानी को सुनकर नाटक बनाने की सोची थी कि मेरी ट्रांसफर हिसार हो जाने पर यह मामला बीच मंझधार में ही रह गया! इसी तरह अनूप लाठर की रिहर्सल के दौरान जादूगरनी का रोल‌ निभाने वाली महिमा व जौड़े के मामा के बेटे का रोल‌ निभाने वाले कैंडी का सचमुच आपस में प्यार हो गया और कैंडी रोज़ी रोटी के लिए नोएडा चला गया। ‌दोनों को मेरी कहानी ने मिला दिया और‌ मैं आज भी महिमा को जादू ही कहता हूँ और‌ कैंडी मेरे मित्र व हरियाणा के चर्चित लेखक दिनेश दधीचि का बेटा है और अच्छा संगीतकार है। ‌अनूप लाठर ने साहित्यिक कार्यशाला भी शुरू कीं जो आज तक चल रही हैं और इसके माधयम से भी रोहित सरदाना जैसा तेज़ तर्रार एंकर निकला और अफसोस कि कोरोना ने उसे लील गया! आजकल अनूप लाठर दिल्ली विश्वविद्यालय में पी आर का काम देखते हैं और पिछले वर्ष पुस्तक मेले पर इनकी संगीत पर लिखी किताब के विमोचन पर प्यारी सी मुलाकात हुई और‌ वे वैसी ही निर्मल हंसी के साथ मिले कि दिल को छू गये! फिर भी एक मलाल है उन्हें कि हरियाणा की किसी सरकार ने सम्मानित नहीं किया!

आज बस इतना ही! क्या क्या आगे लिखूंगा आज की तरह कल भी नहीं जानता!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #235 – 122 – “कोई किसी का नहीं होता जहाँ में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल कोई किसी का नहीं होता जहाँ में…” ।)

? ग़ज़ल # 120 – “कोई किसी का नहीं होता जहाँ में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मैं चाहूँ तुझे ये मेरी फ़ितरत है,

ना चाहे तू मुझे मेरी क़िस्मत है,

*

तेरे लिए मैं बेमतलब ही तो हूँ,

तुझ पे मरना तो मेरी सूरत है।

*

देखकर छुप जाना छुपकर देखना,

ये ऑंख मिचौली बेजा हरकत है।

*

कोई किसी का नहीं होता जहाँ में,

शायद वो मेरा हो जाए मुरव्वत है। 

*

है  मेरी  दौलत  तेरी  ही चाहत,

मेरे जीवन की यही बस हसरत है।

*

मुझे  तरसाना  खूब  उसे  आता है,

तग़ाफ़ुल में उसको हासिल महारत है।

*

तेरी फुरकत में आह भरता आतिश,

तेरी आह दिल में बसाना मुहब्बत है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 113 ☆ मुक्तक – ।। आपकी ऊंगली छाप से संभव होते देश के ख्वाब ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 113 ☆

☆ मुक्तक – ।।आपकी ऊंगली छाप से संभव होते देश के ख्वाब।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

मत आँकों वोट की कीमत कम सुई नहीं तलवार है।

एक एक वोट से मिल कर  ही  बनती सरकार है।।

यह भीषण समर  और     है यह    पावन पर्व भी।

बाहर निकल कर वोट   देना   समय की दरकार है।।

[2]

ऊंगली नहीं यह तो तेरे हाथ में जैसे एक हथियार है।

हटा सकते हो तुम कि अगर कोई खोटी सरकार है।।

तेरे वोट की सही दिशा निश्चित करती देश की दशा।

उचित दृष्टि से देखें तो जनता देश की रचनाकार है।।

[3]

हमारा मत बदल   सकता   हवा का गलत रुख है।

हमारे वोट से ही निश्चित होता देश का दुख सुख है।।

वोट करता बहुत चोट   हटा सकते जिसमें है खोट।

सही मतदान करने से मिलता मन को संतोष सुख है।।

[4]

मतदान करके हम स्वयंऔर राष्ट्र पर करते उपकार।

हम चाहते जैसी सरकार करें वैसा  ही मताधिकार।।

वोट डाल कर राष्ट्रधर्म का निर्वहन सबको है करना।

भूमिका रहे न आपकी अधूरी आप भी बने भागीदार।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 175 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “लोहे का घोड़ा (साइकिल)” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “लोहे का घोड़ा (साइकिल)। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “लोहे का घोड़ा (साइकिल)” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

काला कलुआ है यह घोड़ा,

सदा जागता कभी न सोता

नहीं माँगता दाना-पानी,

कभी नहीं करता मनमानी।

 *

कभी कभी बस तेल पिलाओ,

भूख लगे तो हवा खिलाओ

कभी बिगड़ कर चलता है जब,

खटर पटर भर करता है तब।

 *

चाहे जहाँ इसे ले जाओ,

दूर-दूर तक घूम के आओ

धीरे-धीरे भी चल लेता,

चाहो तो सरपट दौड़ाओ।

 *

छोटे-बड़े सबों का यार,

सदा दौड़ने को तैयार

चपरासी से साहब तक

सब सदा इसे करते हैं प्यार।

 *

माता इसकी लोह खदान

वर्कशाप है पिता महान्

सबको देता सेवा अपनी,

मालिक हो या हो मेहमान ।

 *

सीधा सच्चा इसका काम,

सबको देता है आराम

बाइक’ और कारों से ज्यादा

उपयोगी, ऊँचा है नाम।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “दि हिडन लाईफ ऑफ ट्रीज” – मूळ लेखक : पीटर ओहृललेबेन – मराठी अनुवाद : गुरुदास नूलकर – परिचयकर्ता : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? पुस्तकांवर बोलू काही ?

☆ “दि हिडन लाईफ ऑफ ट्रीज” – मूळ लेखक : पीटर ओहृललेबेन – मराठी अनुवाद : गुरुदास नूलकर – परिचयकर्ता : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆ 

पुस्तक: द हिडन लाईफ ऑफ ट्रीज

(झाडांच्या अबोल विश्वाचं बोलकं दर्शन) 

मूळ लेखक: पीटर ओहृललेबेन

मराठी अनुवाद:गुरुदास नूलकर

प्रकाशन: मनोविकास प्रकाशन

पृष्ठ:२०८  

मूल्य:३२०/

अतिशय लोकप्रिय ठरलेले पुस्तक:”द हिडन लाईफ ऑफ ट्रीज” मराठी अनुवाद ,पुन्हा उपलब्ध झाले आहे..कृपया आपल्या वृक्ष मित्रांना कळवावे!

सगळेच कसे अचंबित करणारे!

झाडं आपसात बोलतात, ते आपल्याकडील माहिती इतरांना पोहोचवतात!ते रडतात आणि आपल्या लेकरांची काळजी ही घेतात…जखमी झाडाची काळजी घेऊन त्याला दुरुस्त करतात….

अद्यावत संशोधनाचा आधार घेत एका वनरक्षकांच्या रमणीय गोष्टी वाचकाला जंगलाच्या अद्भुत दुनियेत घेऊन जातात. वनस्पतींचा संवाद कसा चालतो, ते एकमेकांची काळजी कशी घेतात,याचा उलगडा वाचकांना सहज होतो. पथदर्शक संशोधनाचा आधार घेत वनस्पतीचे जीवन हे मानवी कुटुंब रचनेपेक्षा काही वेगळे नाही, हे लेखक “लाइफ ऑफ ट्रीज” या पुस्तकातून दाखवतात.

जंगलातील झाडे आपल्या लेकरांसोबत राहून त्यांचा सांभाळ करतात, त्यांना पोषणद्रव्य पुरवितात, त्यांच्याशी संवाद साधतात आजारपणात सुश्रुषा करतात आणि धोक्याची पूर्व सूचनाही देतात!

सहजीवनात वाढणाऱ्या समूहातील झाडे सुरक्षित असतात आणि त्यांना दीर्घायु लाभते. याउलट रस्त्यावर एकटेपणात वाढणाऱ्या झाडाचे जीवन मात्र खडतर असते आणि जंगलात राहणाऱ्या झाडापेक्षा त्याचे आयुष्य ही कमी असते…

तुम्हाला हे वाचताना खरचं वाटणार नाही….वेगवेगळ्या झाडांच्या वेगवेगळ्या तऱ्हा! कोठे मैत्री तर कोठे शत्रुत्व! जसे सहजीवन तसे परजीवन!

झाडांच्या माहीत नसलेल्या या कथा अर्थात वैज्ञानिक माहिती आपल्याला आणि आपल्या पाल्यांना वाचताना नक्कीच विस्मय होईल आणि खूप महत्त्वाची माहिती वाचली याचा आनंदही!

हे पुस्तक वाचताना संत तुकाराम महाराज आणि डॉ जगदीशचंद्र बोस यांची नक्की आठवण होईल….कारण यांचा झाडांशी स्नेह होता.होय जॉर्ज वॉशिंग्टन कार्व्हर ही झाडांना बोलायचे….आपल्याला सर्वांना हे मान्य आहे की, झाडांना संवेदना असतात…पण प्रस्तुत पुस्तकात लेखकाने जी निरीक्षणे नोंदवली आहेत ती वाचताना तो अद्भुत ग्रंथ निलावंती वाचतोय की काय असे वाटायला लागेल…सांगण्याचा हेतू हाच की वैज्ञानिक निरीक्षण करून लिहिलेल्या या गोष्टी वाचकाला विस्मयकारक वाटतात….

तुम्हाला एकटं राहायला नको वाटतं अगदी तसचं तुमच्या झाडांनाही!एकट्या झाडाचे आयुर्मान ही कमी असतं!होय झाडं ही सामाजिक जीवन जगतात.ते एकमेकांची काळजी घेतात..इतकेच नव्हे तर तोडलेल्या झाडाच्या बुंध्याला इतर झाडं अन्न पुरवठा होईल यासाठी मदत करतात….एक दोन दिवस नव्हे तर वर्षानुवर्षे…इतकंच नव्हे तर झाडे ही परस्परांना माहिती पुरवतात.त्यांचे विस्तीर्ण असे www सारखे जाळे असते.ज्यात अमर्याद अशी माहिती असते.  त्यांचे ही एक www आहे…त्याला आपल्याला wood wide web म्हणावे लागेल इतकेच!

चंदन शेती करणाऱ्या शेतकऱ्याला विचारा चंदनाच्या शेतीत कडुलिंब का लावतात? तर तो हेच सांगेल की  हे सहजीवन त्यांना मानवते.अर्थात त्यामुळे त्यांची वाढ चांगली होते. मित्रांमध्ये ते खुश राहतात….

आपल्याला नवल वाटेल की झाडांनाही स्मरणशक्ती असते. त्यांना ऐकू येत आणि त्यांची एक भाषा ही असते. ते मित्रमंडळींचा गोतावळा जमा करतात,त्यांना रंग दिसतात…. तुम्ही म्हणाल बस झालं ना राव…निघतो आता.पण थांबा हे वाचून घ्या आधी…

एखाद्या झाडावर काही संकट आले असेल तर ते झाड इतरांसाठी ही माहिती देतो. सगळी झाडं या मुळे येणाऱ्या संकटावर मात करण्यासाठी सज्ज होतात.आवश्यक ते जैवरासायनिक  बदल स्वतःमध्ये घडवून आणतात…

१९८० मध्ये डेहराडून जवळ चंद्रबनी मध्ये वाईल्ड लाईफ इन्स्टिट्यूशन ऑफ इंडियाची इमारत “साल” (समूहात वाढणारे झाडं)जंगलाला साफ करून उभी केली गेली. या संस्थेच्या आवारात एकटी राहिलेली “सालची” झाडं एक एक करून मरू लागली. आपल्या सजातीयांशी संपर्क तुटल्यामुळे त्यांचा अंत झाला, पण हे त्यांना कसं कळलं? त्यांची संभाषण यंत्रणा कशी आहे ?

या पुस्तकाविषयी फार जास्त लिहिणं आवश्यक वाटत नाही….कारण याच्या प्रत्येक पानावर अतिशय अद्भुत अशी माहिती आहे. झाडांच्या  नवलाईची दुनिया आपण आणि आपली मित्र नक्की वाचणार याची खात्री आहे.

पोस्ट आपल्या प्रत्येक वृक्षमित्राला पाठवू !

मूळ लेखक : पीटर ओहृललेबेन              

मराठी अनुवाद : गुरुदास नूलकर   

परिचयकर्ता : अज्ञात 

प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170 e-id – [email protected]

≈संपादक –  श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #230 ☆ अनुभव और निर्णय… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का  संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख अनुभव और निर्णय। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 230 ☆

☆ अनुभव और निर्णय… ☆

अगर आप सही अनुभव नहीं करते, तो निश्चित् है कि आप ग़लत निर्णय लेंगे–हेज़लिट की यह उक्ति अपने भीतर गहन अर्थ समेटे है। अनुभव व निर्णय का अन्योन्याश्रित संबंध है। यदि विषम परिस्थितियों में हमारा अनुभव अच्छा नहीं है, तो हम उसे शाश्वत् सत्य स्वीकार उसी के अनुकूल निर्णय लेते रहेंगे। उस स्थिति में हमारे हृदय में एक ही भाव होता है कि हम आँखिन देखी पर विश्वास रखते हैं और यह हमारा व्यक्तिगत अनुभव है–सो! यह ग़लत कैसे हो सकता है? निर्णय लेते हुए न हम चिन्तन-मनन करना चाहते हैं; ना ही पुनरावलोकन, क्योंकि हम आत्मानुभव को नहीं नकार सकते हैं?

मानव मस्तिष्क ठीक एक पैराशूट की भांति है, जब तक खुला रहता है, कार्यशील रहता है–लार्ड डेवन का यह कथन मस्तिष्क की क्रियाशीलता पर प्रकाश डालता है और उसके अधिकाधिक प्रयोग करने का संदेश देता है। कबीरदास जी भी ‘दान देत धन न घटै, कह गये भक्त कबीर’ संदेश प्रेषित करते हैं कि दान देते ने से धन घटता नहीं और विद्या रूपी धन बाँटने से सदैव बढ़ता है। महात्मा बुद्ध भी जो हम देते हैं; उसका कई गुणा लौटकर हमारे पास आता है–संदेश प्रेषित करते हैं। भगवान महाबीर भी त्याग करने का संदेश देते हैं और प्रकृति का भी यही चिरंतन व शाश्वत् सत्य है।

मनुष्य तभी तक सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वगुण-सम्पन्न व सर्वपूज्य बना रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता–ब्रह्मपुराण का भाव, कबीर की वाणी में इस प्रकार अभिव्यक्त हुआ है ‘मांगन मरण एक समान।’ मानव को उसके सम्मुख हाथ पसारने चाहिए, जो सृष्टि-नियंता व जगपालक है और दान देते हुए उसकी नज़रें सदैव झुकी रहनी चाहिए, क्योंकि देने वाला तो कोई और…वह तो केवल मात्र माध्यम है। संसार में अपना कुछ भी नहीं है। यह नश्वर मानव देह भी पंचतत्वों से निर्मित है और अंतकाल उसे उनमें विलीन हो जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ उक्त भाव को व्यक्त करती हैं…’यह किराये का मकान है/ जाने कौन कब तक ठहरेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा’ और ‘प्रभु नाम तू जप ले रे बंदे!/ वही तेरे साथ जाएगा’ यही है जीवन का शाश्वत् सत्य।

मानव अहंनिष्ठता के कारण निर्णय लेने से पूर्व औचित्य- अनौचित्य व लाभ-हानि पर सोच-विचार नहीं करता और उसके पश्चात् उसे पत्थर की लकीर मान बैठता है, जबकि  उसके विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करना आवश्यक होता है। अंततः यह उसके जीवन की त्रासदी बन जाती है। अक्सर निर्णय हमारी मन:स्थिति से प्रभावित होते है, क्योंकि प्रसन्नता में हमें ओस की बूंदें मोतियों सम भासती हैं और अवसाद में आँसुओं सम प्रतिभासित होती हैं। सौंदर्य वस्तु में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है ‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।’ सो! चेहरे पर हमारे मनोभाव प्रकट होते हैं। इसलिए ‘तोरा मन दर्पण कहलाए’ गीत की पंक्तियाँ आज भी सार्थक हैं।

दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है, क्योंकि हम स्वयं को बुद्धिमान व दूसरों को मूर्ख समझते हैं। परिणामत: हम सत्यान्वेषण नहीं कर पाते। ‘बहुत कमियाँ निकालते हैं/ हम दूसरों में अक्सर/ आओ! एक मुलाकात/ ज़रा आईने से भी कर लें।’ परंतु मानव अपने अंतर्मन में झाँकना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह आश्वस्त होता है कि वह गुणों की खान है और कोई ग़लती कर ही नहीं सकता। परंतु अपने ही अपने बनकर अपनों को प्रताड़ित करते हैं। इतना ही नहीं, ‘ज़िन्दगी कहाँ रुलाती है/ रुलाते तो वे लोग हैं/ जिन्हें हम अपनी ज़िन्दगी समझ बैठते हैं’ और हमारे सबसे प्रिय लोग ही सर्वाधिक कष्ट देते हैं। ढूंढो तो सुक़ून ख़ुद में है/ दूसरों में तो बस उलझनें मिलेंगी। आनंद तो हमारे मन में है। यदि वह मन में नहीं है, तो दुनिया में कहीं नहीं है, क्योंकि दूसरों से अपेक्षा करने से तो उलझनें प्राप्त होती हैं। सो! ‘उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ बेवजह ही न किसी से ग़िला कीजिए’ स्वरचित गीत की पंक्तियाँ उलझनों को शीघ्र सुलझाने व शिक़ायत न करने की सीख देती हैं।

उत्तम काम के दो सूत्र हैं…जो मुझे आता है कर लूंगा/ जो मुझे नहीं आता सीख लूंगा। यह है स्वीकार्यता भाव, जो सत्य है और यथार्थ है उसे स्वीकार लेना। जो व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकार लेता है, उसके जीवन पथ में कोई अवरोध नहीं आता और वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। ‘दो पल की है ज़िन्दगी/ इसे जीने के दो उसूल बनाओ/ महको तो फूलों की तरह/ बिखरो तो सुगंध की तरह ‘ मानव को सिद्धांतवादी होने के साथ-साथ हर स्थिति में खुशी से जीना बेहतर विकल्प व सर्वोत्तम उपाय  है। 

बहुत क़रीब से अंजान बनके निकला है/ जो कभी दूर से पहचान लिया करता था–गुलज़ार का यह कथन जीवन की त्रासदी को इंगित करता है। इस संसार म़े हर व्यक्ति स्वार्थी है और उसकी फ़ितरत को समझना अत्यंत कठिन है। ज़िन्दगी समझ में आ गयी तो अकेले में मेला/ न समझ में आयी तो भीड़ में अकेला…यही जीवन का शाश्वत्  सत्य व सार है। हम अपनी मनस्थिति के अनुकूल ही व्यथित होते हैं और यथासमय भरपूर सुक़ून पाते हैं।

तराशिए ख़ुद को इस क़दर जहान में/ पाने वालों को नाज़ व खोने वाले को अफ़सोस रहे। वजूद ऐसा बनाएं कि कोई तुम्हें छोड़ तो सके, पर भुला न सके। परंतु यह तभी संभव है, जब आप इस तथ्य से अवगत हों कि रिश्ते एक-दूसरे का ख्याल रखने के लिए होते हैं, इस्तेमाल करने के लिए नहीं। हमें त्याग व समर्पण भाव से इनका निर्वहन करना चाहिए। सो! श्रेष्ठ वही है, जिसमें दृढ़ता हो; ज़िद्द नहीं, दया हो; कमज़ोरी नहीं, ज्ञान हो; अहंकार नहीं। जिसमें इन गुणों का समुच्चय होता है, सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को मिलती है, क्योंकि अक्सर समय पर समझ नहीं आती और समझ आने पर समय निकल जाता है। प्राय: जिनमें समझ होती है, वे अहंनिष्ठता के कारण दूसरों को हेय समझते हैं और उनके अस्तित्व को नकार देते हैं। उन्हें किसी का साथ ग़वारा नहीं होता और एक अंतराल के पश्चात् वे स्वयं को कटघरे में खड़ा पाते हैं। न कोई उनके साथ रहना पसंद करता है और न ही किसी को उनकी दरक़ार होती है। 

वैसे दो तरह से चीज़ें नज़र आती हैं, एक दूर से; दूसरा ग़ुरूर से। ग़ुरूर से दूरियां बढ़ती जाती हैं, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। दुनिया में तीन प्रकार के लोग होते हैं–प्रथम दूसरों के अनुभव से सीखते हैं, द्वितीय अपने अनुभव से और तृतीय अपने ग़ुरूर के कारण सीखते ही नहीं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। बुद्धिमान लोगो में जन्मजात प्रतिभा होती है, कुछ लोग शास्त्राध्ययन से तथा अन्य अभ्यास अर्थात् अपने अनुभव से सीखते हैं। ‘करत- करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ कबीरदास जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि हमारा अनुभव ही हमारा निर्णय होता है। इनका चोली-दामन का साथ है और ये अन्योन्याश्रित है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 5 – गीत – नव चिंतन है नवल चेतना… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – गीत – नव चिंतन है नवल चेतना

? रचना संसार # 5 – गीत – नव चिंतन है नवल चेतना…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

 

मन तुरंग उड़ता ही जाता

डालो भले नकेल।

 *

कभी पढ़े कबीर की साखी,

कभी पढ़े वह छंद।

तृषित हृदय की प्यास बुझाता,

पीकर मधु मकरंद।।

अंग-अंग में बजती सरगम,

चलती प्रीति गुलेल।

 *

संकल्पों की सीढ़ी चढ़ता,

हों कितने अवरोध।

हर चौखट पे अमिय ढूँढ़ता,

करता है अनुरोध।।

चढ़कर अनुपम शुचिता डोली,

नवल खेलता खेल।

 *

नव चिंतन है नवल चेतना,

शब्द-शक्तियाँ साथ।

शब्दकोश करता समृद्ध भी,

सजे गीत हैं माथ।।

मधुरिम नवरस अलंकरण की,

चलती जैसे रेल।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #230 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 230 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

द्वारे मालन बेचती,  भांति भांति के फूल।

ईश्वर को अर्पित किए, श्रद्धा के अनुकूल।

*

खुश होकर माला गुथी, श्रद्धा लिए अपार।

कृपा दृष्टि रखना प्रभु, हे करना आगार।।

*

चुनती मालन फूल है, धन्य हुए वो बाग।

भेंट मंदिरो में करे, खुलते उसके भाग।।

*

रंग बिरंगे फूल का, बने जतन से हार।

बेंच रही है रोज वो, बैठी प्रभु के द्वार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #212 ☆ गीत – उन्हें तसव्वुर हो ना हो मगर… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना – उन्हें  तसव्वुर हो ना हो मगर आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 212 ☆

☆ गीत – उन्हें  तसव्वुर  हो  ना हो  मगर… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

गीत प्यार  के हम  गाने लगे  हैं

देखो हम अब  मुस्कुराने लगे हैं

*

दिल में डेरा है अब हसरतों  का

ख्वाब कई  हम सजाने  लगे  हैं

*

पंख लग गये अरमानों के बहुत

कबूतर  प्रेम  के  उड़ाने  लगे हैँ

*

उन्हें  तसव्वुर  हो  ना हो  मगर

याद हमें वो हरदम आने लगे हैँ

*

दास्तां इश्क़ की इस कद्र फैली

लोग चुपके से बतियाने लगे हैँ

*

जिनको सहूर नहीं आशिक़ी का

पाठ इश्क़ का वही पढ़ाने लगे हैँ

*

इश्क़ जब सच्चा होता है संतोष

वहाँ आशियाने जगमगाने लगे हैँ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 220 ☆ महाराष्ट्र गौरव… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

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