हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 23 – चबूतरी का चक्कर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 23 – चबूतरी का चक्कर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

अरे भाई, किस्सा ऐसा है कि गाँव का चौधरी हमेशा अपनी चाल में बड़े गुमान से रहता था। उसका तो बस ये मानना था कि जो वो कहे, वही सही। एक दिन चौधरी अपने चौपाल पे बैठा था, गाल पे हाथ धरे, जब एकाएक गाँव में हड़कंप मच गया। खबर आई कि चौधरी ने जो नई बनाई थी बड़ी-बड़ी चबूतरी (गाँव की बैठकें), वो सब धड़ाम से गिर गई।

एक चेला दौड़ता-भागता चौधरी के पास पहुंचा। बोला, “चौधरी साब, आपने जो चबूतरी बनवाई थी, वो सब गिर गई।”

चौधरी की आँखें फैल गईं, “के कह सै रे?”

“हाँ चौधरी साब, बिलकुल सही कह रह्या हूँ, चबूतरी टूट कर जमीन पे बिखरी पड़ी हैं।”

चौधरी जो हमेशा दूसरों पे धौंस जमाने का आदी था, अब खुद पे आई तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। उसने चेला को घूरते हुए कहा, “के तू झूठ बोल रा सै? झूठी बात निकली तो तेरा बंटाधार हो जाएगा!”

चेला ने सिर झुकाए हुए कहा, “चौधरी साब, अगर मेरी बात झूठ निकली, तो मुझे आप गाँव के चौराहे पे उल्टा लटका देना।”

चौधरी एक पल के लिए सोच में पड़ गया। खुद भी तो ऐसे ही डायलॉग मारने का शौक रखता था। पर इस बार मामला सच्चा था। उसने फिर चेले से पूछा, “तू अपनी आँखों से देखी सै ये बात?”

चेला बोला, “हाँ जी चौधरी साब। कोई चबूतरी की दीवार ढह गई सै, किसी की छत नीचे आ गिरी सै, और एक तो पूरी की पूरी चबूतरी मिट्टी में मिल गई सै।”

चौधरी का मुँह सूख गया। उसने जल्दी से गाँव के ठेकेदार को बुलाया और चबूतरियों के गिरने की जांच के आदेश दे दिए।

ठेकेदार ने तुरंत एक कमेटी बना दी, जिसमें मिस्त्री से लेकर मजदूर तक सबको डाल दिया। मिस्त्री ने कहा, “किस बात का रोना कर रा सै भाई? चबूतरियां तो पक्की थी, बस मिट्टी थोड़ी कमजोर थी। चबूतरी फिर से बनवा देंगे, जब तक साँस है, तब तक चबूतरी बनेगी।”

आखिरकार, जांच की रिपोर्ट भी आ गई। जांच कमेटी ने माना कि चबूतरियां तो ठीक थी, पर जमीन ने धोखा दे दिया। असली कसूर तो जमीन का सै, चबूतरी बनाने वाले निर्दोष हैं। और जो पैसा लगाया गया था, वो तो बिल्कुल जायज था। कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ। और ये भी हो सकता सै कि विरोधी पार्टी ने ही जमीन को कमज़ोर कर दिया हो।

रिपोर्ट पढ़कर चौधरी मियां खुश हो गया, क्योंकि वो जानता था कि ऐसी ही रिपोर्ट आएगी। अगर भ्रष्टाचार का पता चलता, तो उसका नाम मिट्टी में मिल जाता।

अगले दिन चौधरी ने पूरे गाँव में ऐलान करवा दिया कि चबूतरियां गिरने का असली गुनहगार जमीन है। उसने जमीन को दुरुस्त करने के आदेश दिए और नए चबूतरी बनाने का काम शुरू करा दिया। अब ठेकेदार और मिस्त्री फिर से हाथों में नया काम देख कर खुश हो गए। नई चबूतरियों के लिए फिर से गाँव का खजाना खुल गया।

और भाई, चौधरी की चालें भले ही तिरछी हों, पर उसकी किस्मत हमेशा सीधी रही। इस खेल में सबकी चाँदी हो गई, बस गाँव वालों की मुश्किलें फिर वहीँ की वहीँ रह गईं।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 305 ☆ कथा-कहानी – “मुक्ति” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 305 ☆

?  कथा-कहानी – “मुक्ति” ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

वह शहर के नामचीन कालेज में हिन्दी के प्रोफेसर हैं। आंखों में चश्मा चढ़ चुका है। सर के बालों में भी इतनी सफेदी तो आ ही गई है कि वे वरिष्ठ माने जाने लगे हैं। अब सभा गोष्ठियों में उन्हें अध्यक्ष के रूप में आखिर तक बैठना होता है। गंभीरता का सोबर सा मंहगा दुशाला लपेट, फुलपैंट के साथ घुटनो तक लम्बा खादी का कुर्ता पहनने का ड्रेस कोड उन्होंने अपना लिया है। वरिष्ठता की उम्र के इस संधि स्थल पर बच्चे पर फड़फड़ाते स्वयं उनके घोंसले बनाने दूर शहरों में उच्च शिक्षा के लिये पढ़ने जा चुके हैं।

बड़े से घर पर वे और उनकी पत्नी ही रह गई हैं। और रह गई है, घर और उनकी देखभाल करने के लिये निशा। निशा उनके बंगले के निकट ही बस्ती में रहती है। निशा साफ सुथरी हाई स्कूल पास कोई पैंतीस बरस की शांत लेडी है। निशा तब से उनके घर को संभाले हुये है, जब बच्चे स्कूल में थे। कहते हैं न कि यदि किसी को समझना हो तो पता कीजीये कि उनके ड्राइवर, घर के नौकर चाकर कितने लम्बे समय से उनके पास कार्यरत हैं। बच्चे निशा को दीदी कहते हैं। और गाहे बगाहे सीधे निशा दीदी को फोन करके उनकी तथा अपनी मम्मी की कैफियत भी पता कर लेते हैं। निशा अधिकार पूर्वक उनकी चाय से शक्कर गायब कर देती है। वह सोहबत में कोलेस्ट्राल जैसे बड़े और भारी भरकम शब्द सीख गई है, जिनका इस्तेमाल कर उनके लिये अंडे की सफेदी का ही आमलेट बनाती है।

आशय यह है कि निशा प्रोफेसर के परिवार के सदस्य के मानिन्द ही बन चुकी है। ये और बात है कि निशा का एक शराबी पति और एक उत्श्रंखल बेटा भी है। जिनका पेट निशा ही पाल रही है। प्रोफेसर साहब के परिवार को देख निशा के अरमान भी होते हैं कि उसका बच्चा भी अच्छा पढ़ लिख ले और जिंदगी में कुछ ठीक ठाक कर ले। निशा अधिकारों के प्रति सचेत है, भले ही वह किचन में खाना बना रही हो पर उसके कान चल रहे ड्राइंग रूम में टी वी पर चल रहे समाचार सुन रहे होते हैं। क्रिकेट का उसे शौक है, इतना कि खास निशा के लिये प्रोफेसर साहब को हाट स्टार की सदस्यता लेनी पड़ी, क्योंकि वर्ल्ड कप के प्रसारण दूरदर्शन पर नहीं आ रहे थे। निशा ने पार्षद से लड़ भिड़ कर स्वयं के लिये उज्जवला योजना का गैस सिलेंडर तक हासिल कर लिया है। वह आयुष्मान योजना का कार्ड जैसी सरकारी योजनाओ का लाभ भी ले लेती है।

उस दिन निशा ने चहकते हुये आगामी छुट्टी को पिकनिक के लिये नर्मदा में लम्हेटा घाट से नौकायन का प्रस्ताव मैडम के सम्मुख रखा। मैडम की या प्रोफेसर साहब की और कोई व्यस्तता थी नहीं, इसलिये निशा का सुझाव सहजता से मान्य हो गया। पिकनिक की बास्केट निशा ने रेडी कर ली। ड्राइवर को भी निशा सीधे इंस्ट्रक्शन दे दिया करती थी। नियत समय पर निशा की अगुवाई में प्रोफेसर साहब का कारवां पिकनिक के लिये निकल पड़ा।

लम्हेटा घाट पर पहुंच एक नाविक का इंतजाम ड्राइवर ने कर लिया। और सभी नाव पर सवार हो गये। काले बेसाल्ट के पहाड़ कप काट अविरल धार से अपना मार्ग बनाती नर्मदा युगों युगों से बहे जा रही थी, दोनो तटों के उस अप्रतिम नयनाभिराम सौंदर्य को निहारते प्रोफेसर साहब विचारों में खो गये। नर्मदा अर्वाचीन नदी है, इसका प्रवाह पश्चिम की ओर है। मध्य भारत की जीवन रेखा के रूप में मान्यता प्राप्त नर्मदा चिर कुंवारी सदा नीरा के रूप में प्रतिष्ठित हैं। स्कंद पुराण का पूरा एक खण्ड ही नर्मदा पर है। मगरमच्छ की सवारी करने वाली नर्मदा मैया की परिक्रमा सदियों से आस्था प्रेमी जन करते रहे हैं। इस १३१२ किलोमीटर की इस परकम्मा में आस्था, विश्वास, रहस्य, रोमांच, और खतरों के संग प्रकृति के विलक्षण सौंदर्य के सानिध्य के अनुभव निहित हैं। गंगा को ज्ञान, यमुना को भक्ति, ब्रम्हपुत्र को तेज, गोदावरी को ऐश्वर्य, कृष्णा को कामनापूर्ति और लुप्त हो चुकी सरस्वती को आज भी विवेक के प्रतिष्ठान के लिये पूजा जाता है। नदियों कि यही प्रतिष्ठा भारतीय संस्कृति की विशेषता है जो जीवन को प्रकृति से जोड़ती है। वे सोच रहे थे विदेश यात्राओं में जब पश्चिम की निर्मल स्वच्छ नदियों का प्रवाह दिखता है तो लगता है कि नदियों की पूजा करने वाले भारत को क्यों नदी स्वच्छता अभियान चलाने पड़ते हैं।

प्रोफेसर साहब की तंद्रा टूटी, निशा मैडम को बता रही थी कि बीच नदी में यह जो चट्टान है उस पर एक शिवालय है, जहाँ हर मनोकामना पूरी होती है। निशा भोले बाबा से यही मनाने आई है कि उसके पति की शराब से उसे मुक्ति मिले। उसने बताया कि कल तो उसके पति ने इतनी ज्यादा पी ली कि पुलिस उसे सड़क से पकड़कर ले गई है, वह कह रही थी कि यहां से लौटकर उसे छुड़ाने जाना होगा, वह बोली अब और सहन नहीं होता, अब तो न केवल निशा को बेवजह अपने ही बेटे को भी मारता है। अब वह चाहती है कि भोले बाबा उसे इस सबसे मुक्ति दें। प्रोफेसर साहब कुछ कहकर निशा की आस्था और भोले बाबा पर भरोसे को नहीं तोड़ना चाहते थे, वे मन ही मन हंस पड़े और सोचने लगे अपनी हर बेबसी को काटने के लिये मनुष्य ने चमत्कार की आशा में भगवान को गढ़ लिया है। क्या आस्था मनोवैज्ञानिक उपचार ही है ?
शाम हो चली थी, सूरज दूसरे गोलार्ध में सुबह करने यहां से बिदा ले रहा था। रक्ताभ लालिमा से आसमान नहा रहा था, वीराने में हवा की सरसराहट और नर्मदा के प्रवाह का कलकल नाद गुंजायमान था। मैडम नाव से ही झुककर अपने हाथों से नर्मदा जल से किलोल कर रही थीं, नाव किनारे की तरफ वापस पहुंचने को थी। शायद निशा भोले बाबा से अपनी प्रार्थना दोहराये जा रही थी, क्योंकि उसकी आँखें उसी शिवालय वाली चट्टान को निहारे जा रहीं थीं।

पिकनिक मनाकर सब घर पहुंचे, रात हो गई थी, इसलिये मैडम ने ड्राइवर से निशा को उसके घर ड्राप करवा दिया।

अगली सुबह, प्रोफेसर साहब के घर अजीब सा सन्नाटा था। निशा के घर से आई खबर ने प्रोफेसर साहब को झकझोर दिया। वे और उनकी पत्नी तुरंत ही निशा के घर पहुंचे।

निशा का घर शोक में डूबा हुआ था। निशा की आंखें सूजी हुई थीं और चेहरा उदास था। मेडम ने निशा को सांत्वना दी और उसके पति के निधन पर श्रद्धांजलि अर्पित की। निशा ने बताया, शराब उसे पी गई। पुलिस ने उसे हवालात में डाल दिया था, जहां उसकी तबियत बिगड़ गई, उसे अस्पताल शिफ्ट कर मुझे खबर दी गई। खबर मिलते ही मैं तुरंत अस्पताल पहुंची, लेकिन वह नहीं बच पाया।

ढ़ाड़स बंधाने के लिये प्रोफेसर साहब का शब्द कोष उन्हें बौना लग रहा था। उनकी पत्नी ने निशा को धैर्य रखने के लिए कहा और कहा, “तुम हमारे परिवार की सदस्य हो। हम तुम्हारे साथ हैं। निशा की आंखों में आंसू थे, वह जानती थी कि उसके पास अब भी एक परिवार है। प्रोफेसर साहब सोच रहे थे इसे भोले बाबा की कृपा कहें ? या मुक्ति कहें ?

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #187 – बाल कथा – “चतुराई धरी रह गई” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  बाल कथा – “चतुराई धरी रह गई”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 187 ☆

☆ बाल कथा – चतुराई धरी रह गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

चतुरसिंह के पिता का देहांत हो चुका था. उस ने अपने छोटे भाई कोमलसिंह को बंटवारा करने के लिए बुलाया, “बंटवारे के पहले खाना खा लेते है. ” खाने परोसते हुए चतुरसिंह ने कोमलसिंह से कहा.

कोमलसिंह ने जवाब दिया, “ भैया ! बंटवारा आप ही कर लेते. मुझे अपना हिस्सा दे देते. बाकि आप रख लेते. मुझे बुलाने की क्या जरुरत थी ?”

“नहीं भाई. मै यह सुनना बरदाश्त नहीं कर सकता हूँ कि बड़े भाई ने छोटे भाई का हिस्सा मार लिया, ” कहते हुए चतुरसिंह ने भोजन की दो थाली परोस कर सामने रख दी.

एक थाली में मिठाई ज्यादा थी. इस वजह से वह थाली खालीखाली नजर आ रही थी. दूसरी थाली में पापड़, चावल, भुजिए ज्यादा थे. वह ज्यादा भरी हुई नज़र आ रही थी. मिठाई वाली थाली में दूधपाक, मलाईबरफी व अन्य कीमती मिठाइयाँ रखी थी.

“जैसा भी खाना चाहो, वैसी थाली उठा लो,” चतुरसिंह ने कहा, वह यह जानना चाहता था कि बंटवारे के समय कोमलसिंह किस बात को तवज्जो देता है. ज्यादा मॉल लेना पसंद करता है या कम.

चूँकि कोमलसिंह को मीठा कम पसंद था. इसलिए उस ने पापड़भुजिए वाली थाली उठा ली, “भैया मुझे यह खाना पसंद है, ” कहते हुए कोमलसिंह खाना खाने लगा.

चतुरसिंह समझ गया कि कोमलसिंह को ज्यादा मल चाहिए. वह लालची है. इस कारण  उस ने ज्यादा खाना भरी हुई थाली ली है. इसे इस का मज़ा चखाना चाहिए. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने बंटवारे के लिए नई तरकीब सोच ली.

खाना खा कर दोनों भाई कमरे में पहुंचे. चतुरसिंह ने घर के सामान के दो हिस्से कर रखे थे.

“इन सामान में से कौनसा सामान चाहिए ?” चतुरसिंह ने सामने रखे हुए सामान की ओर इशारा किया.

एक ओर फ्रीज़, पंखें, वाशिंग मशीन रखी थी. दूसरी ओर ढेर सारे बरतन रखे थे. चुंकि कोमलसिंह के पास फ्रीज़, पंखे, वाशिंग मशीन थी. उस ने सोचा कि भाई साहब के पास यह चीज़ नहीं है. इसलिए ये चीज़ भाई साहब के पास रहना चाहिए.

यह सोचते हुए कोमलसिंह ने बड़े ढेर की ओर इशारा कर के कहा, “मुझे यह बड़ा वाला ढेर चाहिए. ”

चतुरसिंह मुस्कराया, “ जैसी तेरी मरजी. यूँ मत कहना कि बड़े भाई ने बंटवारा ठीक से नहीं किया, ” चतुरसिंह अपनी चतुराई पर मंदमंद मुस्कराता हुआ बोला. जब कि वह जानता था कि उसे ज्यादा कीमती सामान प्राप्त हुआ है.

कोमलसिंह खुश था. वह अपने बड़े भाई की मदद कर रहा था.

“अब इन दोनों ढेर में से कौनसा ढेर लेना पसंद करोगे ?” चतुरसिंह ने अपने माता की जेवरात की दो पोटली दिखाते हुए कहा.

कोमलसिंह ने बारीबारी दोनों पोटली का निरिक्षण किया, एक पोटली भारी थी, दूसरी हल्की व छोटी. उस ने सोचा कि चतुरसिंह बड़े भाई है. इसलिए उन्हें ज्यादा हिस्सा चाहिए.

“भैया ! आप  बड़े है. आप का परिवार बड़ा है, इसलिए आप बड़ी पोटली रखिए, ” कोमलसिंह ने छोटी पोटली उठा ली, “यह छोटी पोटली मेरी है.”

“नहीं नहीं भाई, तुम बड़ी पोटली लो, “ चतुरसिंह ने बड़ी पोटली कोमलसिंह के सामने रखते हुए कहा.

“नहीं भैया, आप बड़े है, बड़ी चीज़ पर आप का हक बनता है, ” कहते हुए कोमलसिंह ने छोटी पोटली रख ली.

चतुरसिंह चकित रह गया. उस ने बड़ी पोटली में चांदी के जेवरात रखे थे. छोटी पोटली में सोने के जेवरात थे. वह जानता था कि कोमलसिंह लालच में आ कर बड़ी पोटली लेगा. जिस में उस के पास चांदी के जेवरात चले जाएँगे और वह सोने के जेवरात ले लेगा.

मगर, यहाँ उल्टा हो गया था.

अब की बार चतुरसिंह ने चतुराई की, “ कोमलसिंह इस बार तू बंटवारा करना. नहीं तो लोग कहेंगे कि बड़े भाई ने बंटवारा कर के छोटे भाई को ठग लिया, “ चतुरसिंह ने कोमलसिंह को ठगने के लिए योजना बनाई.

कोमलसिंह कोमल ह्रदय था. वह बड़े भाई साहब का हित चाहता था. बड़े भाई के ज्यादा बच्चे थे. इसलिए वह चाहता था कि जमीन का ज्यादा हिस्सा बड़े भाई साहब को मिले. इसलिए वह चतुरसिंह को अपने पैतृक घर पर ले गया.

“भाई साहब ! यह अपने पैतृक मकान है. पिताजी ने आप के जाने के बाद इसे बनाया था, ” कोमलसिंह ने कहा.

चतुरसिंह ने देखा कि एक ओर दो मकान और तीन मंजिल भवन खड़ा है, दूसरी ओर एक दुकान के पास से अन्दर जाने का गेट है. यानि एक ओर बहुमंज़िल भवन के साथ दो दुकान बनी हुई थी. दूसरी ओर एक दुकान और पीछे जाने का गेट था.

चतुरसिंह नहीं चाहता था कि जेवरात की तरह ठगा जाए इसलिए उस ने कहा, “ कोमलसिंह तुम ही बताओ. मुझे कौनसा हिस्सा लेना चाहिए ?”

“ भाई साहब, मेरी रॉय में तो आप दूसरा हिस्सा ले लेना चाहिए, ” कोमलसिंह ने कहा तो चतुरसिंह चकित रह गया.

छोटा भाई हो कर बड़े भाई को ठगना चाहता है. खुद बहुमंजिल मकान और दो दुकान हडप करना चाहता है. मुझे एक दुकान और छोटासा बाड़ा देना चाहता है. यह सोचते हुए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमलसिंह, मेरा परिवार बड़ा है, इसलिए मै चाहता हूँ कि यह बहुमंजिल मकान वाला हिस्सा में ले लूँ. ”

इस पर कोमलसिंह ने कहा, “ भैया ! आप हिस्सा लेने से पहले यह दूसरा हिस्सा देख ले. ” कोमलसिंह ने चतुरसिंह से कहा. वह चाहता था कि बड़े भाई को ज्यादा हिस्सा मिलें. क्यों कि दूसरे हिस्से के अंदर १० मकान और लंबाचौडा खेत था, साथ ही बहुत सारे मवेशी भी थे.

मगर, चतुरसिंह ने सोचा कि छोटा भाई उसे ठगना चाहता है. इसलिए चतुरसिंह ने कहा, “ कोमल, मुझे कुछ नहीं देखना है, यह दूसरा हिस्सा तेरे रहा, पहला हिस्सा मेरे पास रहेगा.”

“भैया ! एक बार और सोच लो, ” कोमलसिंह ने कहा, “ आप को ज्यादा हिस्सा चाहिए, इसलिए आप यह दूसरा हिस्सा ले लें.”

चतुरसिंह जानता था कि खाली जमीन के ज्यादा हिस्से से उस का यह बहुमंजिल मकान अच्छा है. इसलिए उस ने छोटे भाई की बात नहीं मानी. सभी पंचो के सामने अपने अपने हिस्से का बंटवारा लिख लिया.

“भैया. एक बार मेरा हिस्सा भी देख लेते, ” कहते हुए कोमलसिंह चतुरसिंह को अपना हिस्सा दिखने के लिए दुकान के पास वाले गेट से अंदर गया.

आगेआगे कोमलसिंह था, पीछेपीछे चतुरसिंह चल रह था. जैसे ही वे गेट के अंदर गए, उन्हें गेट के पीछे लम्बाचौड़ा खेत नजर आया. सामने की तरफ १० भवन बने हुए था. कई मवेशी चर रहे थे.

यह देख कर चतुरसिंह ढंग रह गया, “कोमल यह हिस्सा पापाजी ने कब खरीदा था ?”

“ भैया ! आप के जाने के बाद, ” कोमलसिंह ने बताया, “ इसीलिए मै आप से कहा रहा था कि आप बड़े है, आप को बड़ा हिस्सा चाहिए, मगर, आप माने नहीं, ”

मगर, अब चतुरसिंह क्या करता ? उस की चतुराई की वजह से वह स्वयम ठगाया जा चूका था. वह चुप हो गया.

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 221 ☆ बाल गीत – साहस करो जीत ही होगी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 221 ☆ 

बाल गीत – साहस करो जीत ही होगी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

साहस करो जीत ही होगी

कर्म करो, पुरुषार्थ करो।

पैराओलंपिक है प्रेरक

हर बाधा को पार करो।

शीतल ने बिन हाथों के ही

देश के लिए जीता मैडल ।

गौरव, सौरभ हुआ है उज्ज्वल

पैरों में अद्भुत है बल।

 *

जिनके हाथ साथ हैं साथी

प्रेरित हो उपकार करो।

साहस करो जीत ही होगी

कर्म करो, पुरुषार्थ करो।।

 *

हार नहीं मानी उनने भी

तन से अंग-भंग हैं चेते।

लक्ष्य बना मंजिल तक पहुँचे

नाव स्वयं ही रहे वे खेते।

 *

जिनका तन है सही सलामत

खुद में सदा सुधार करो।

साहस करो जीत ही होगी

कर्म करो, पुरुषार्थ करो।

 *

सदा देश हित जीना अच्छा

सार्थक जीवन करो मगर।

मुश्किल में भी मत घबराओ

तब होगी आसान डगर।

 *

मोबाइल में व्यर्थ न उलझो

कुछ तो अच्छे कार्य करो।

साहस करो जीत ही होगी

कर्म करो, पुरुषार्थ करो।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग २७ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग २७ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र- ” इथे तुझी भरभराट होणाराय. बघशील तू. माझे आशीर्वाद आहेत तुला”

 सरांनी‌ मनापासून दिलेल्या आशिर्वादांचे हे शब्द सरांच्या मनातल्या तत्क्षणीच्या भावना व्यक्त करीत होते हे खरेच. पण त्याच शब्दांत नजीकच्या भविष्यकाळात घडून येणाऱ्या अनेक उत्साहवर्धक घटनांचे भविष्यसूचनही लपलेले होते याचा प्रत्ययही मला लवकरच येणार होता याची मात्र मला त्याक्षणी पुसटशीही कल्पना नव्हती! )

माधवनगरला अतिशय प्रशस्त अशा ब्रॅंच-मॅनेजर क्वार्टर्स होत्या. त्याही ब्रॅंचला जोडून. मधे फक्त एक काॅमन दरवाजा. त्यामुळे येण्याजाण्याचा वेळ तर वाचायचाच शिवाय एरवीच्या मोकळ्या वेळेत किंवा सुट्टीच्या दिवशीही महत्त्वाचा पत्रव्यवहार विचारपूर्वक हातावेगळा करायला मला भरपूर निवांतपणाही मिळायचा. असे सौख्य मला ना पूर्वी कधी अनुभवायला मिळालं होतं आणि ना नंतरही. त्यामुळे माधवनगर ब्रॅंचमधलं प्रचंड वर्कलोडही मला सुसह्य झालं होतं. माझ्यासाठी आणखी एक अतिशय समाधानाची बाब म्हणजे नाईकसरांचं घर आमच्या बॅंकेच्या अगदी जवळ म्हणजे समोरचा रस्ता ओलांडला की त्याला लागूनच होतं. त्यामुळे आमची रोजच भेट व्हायची. त्यांच्या नित्य भेटी, विविध विषयांवरील गप्पा हा माझ्यासाठी विरंगुळाच नव्हे तर एक प्रकारचा सत्संगच असायचा. सरांची ‘आध्यात्मिक आणि साहित्यक्षेत्रातली अधिकारी व्यक्ती’ ही ओळख माझ्यासाठी नवीन होती. त्यांचं बोलणं अतिशय शांत, लाघवी आणि ओघवतं असे. त्यांच्याशी अल्पकाळाचं मोजकं बोलणंही एक वेगळीच ऊर्जा देऊन जात असे. माझ्या मनातल्या कितीतरी शंकांचं निरसन अनेकदा त्यांना नेमकं कांही न विचारताही त्यांच्याकडून नकळत आपोआपच केलं जातं असे. तो अतिशय विलक्षण अनुभव असायचा!

माझ्या सासुरवाडीच्या सर्वांशीही नाईक-कुटुंबियांचा परिचय आणि जवळीक होतीच. त्यामुळे मी महाबळ कुटुंबाचा जावई असणं ही सरांसाठी विशेष कौतुकाची बाब असे. त्यामुळे पहिल्या भेटीनंतरच्या लगेचच्या निवांत भेटीतच सरांनी आरती/सलिलची आवर्जून चौकशी केली होती. तिची नोकरी, राजीनामा, जूनमधलं फॅमिली शिफ्टिंग हे सगळं त्यांना सांगितलं तेव्हा ते विचारात पडले.

“हे बघ, इथलं नवीन शैक्षणिक वर्ष लवकरच सुरू होईल. अनेक शाळांमधल्या नवीन भरतीबद्दलच्या जाहिराती यायला सुरुवात होईल. आपल्या सांगली शिक्षण संस्थेच्या शाळांमधेही नवीन जागा भरायच्यात. अशा जाहिरातींकडे लक्ष ठेवून आरतीला तिथूनच तुझा इथला पत्ता देऊन ताबडतोब अर्ज करायला सांग. कारण ती इथे आल्यानंतर अर्ज करायचा म्हणशील तर मुदत संपून गेलेली असेल. अनुदानित शाळेतली नोकरी सोडल्यानंतर सहा महिन्याच्या आत जर दुसऱ्या अनुदानित शाळेत पुन्हा नोकरी मिळाली तरच पहिल्या नोकरीतली सिनिऑरिटी आणि इतर फायदे सुरक्षित राहू शकतात. त्यामुळे ही संधी सोडू नको म्हणावं. “

पुढे एकदोन दिवसांत ते म्हणाले तशी सांगली शिक्षण संस्थेची आणि सांगलीच्याच वुईमेन्स एज्युकेशन सोसायटीच्या रा. स. कन्याशाळेची अशा दोन जाहिराती माझ्या वाचनात आल्या तेव्हा त्याची कटिंग्ज महाबळेश्वरला आरतीकडे पाठवून मी तिला सरांचा निरोपही कळवला. दोन्हीकडे आरतीने लगेच अर्जही केले. जूनच्या पहिल्या आठवड्यात ती इकडे येण्यापूर्वीच दोन दिवस आधी तिची दोन्हीकडची इंटरव्ह्यूची काॅललेटर्स माझ्या पत्यावर येऊन पडली होती!’देता घेशील किती दो कराने’ ही उक्ती कृतीत दृश्यरुप होणं म्हणजे नेमकं काय याचा सुखद अनुभव मला आला तो दोन्हीकडे आरतीची सिलेक्शन झाल्याची बातमी आली तेव्हा!

महाबळेश्वरहून परतल्यावर लगेचच वेध लागले ते दोन्हीपैकी एक प्रस्ताव विचारपूर्वक निवडून नवीन रुटीनला सामोरं जायच्या तयारीचे. सांगली शिक्षण संस्थेत पहिलं पोस्टींग सांगलीतल्या शाळेतच होणार होतं. तरीही पुढे कधीही जिल्हाभर विखुरलेल्या संस्थेच्या कोणत्याही शाळेत होऊ शकणाऱ्या बदल्या गृहित धरुन सांगलीतल्या कायमच्या वास्तव्याची खात्री असणारी रा. स. कन्याशाळेची आॅफर आम्ही पूर्ण विचारांती स्विकारायचं ठरवलं आणि आम्हा तिघांचीही नव्या रुटीनला सामोरं जायची तयारी सुरु झाली.

सलिलची ‘बापट बाल शिक्षण मंदिर’या शाळेतली दुसरीतली अॅडमिशन, आरतीची एक जूलैपासून सुरु होणारी नवीन नोकरी, दोघांचंही सांगलीला जाण्यायेण्यातलं धावपळीचं रुटीन आणि अशा जाण्यायेण्याच्या त्रासापासून पूर्णत: मुक्त असणारं माझं निवांत, स्वस्थ वेळापत्रक हे सगळं मला पुढे कितीतरी दिवस स्वप्नवतच वाटत राहिलं होतं! पण या स्वप्नातून अचानक दचकून जाग यावी तसा मी भानावर आलो ते केवळ हे असं कौटुंबिक स्थैर्य मिळणं सोयीचं व्हायला निमित्त व्हावं एवढ्यापुरत्या अगदी अल्पकाळासाठीच माझी इथे माधवनगरला बदली झाली असावी असं वाटायला लावणारी एक बातमी अचानक ब्रॅंचमधे येऊन धडकली तेव्हा! इथं येऊन मला चारसहा महिनेही झाले नव्हते आणि पुढच्या प्रमोशन प्रोसेसच्या हालचाली सुरु झाल्याची ती बातमी होती! 

सगळं प्रोसेस पूर्ण व्हायला चार एक महिनेच लागणार होते. प्रमोशनची संधी हा आनंदाचा भाग असला तरी माझ्यापुरता विचार करायचा तर प्रमोशन नंतरची ‘आऊट ऑफ स्टेट पोस्टींग’ ची टांगती तलवार माझ्या संकल्पसिध्दीत फार मोठा अडसर निर्माण करणारी ठरणार होती आणि हेच माझ्या मनात डोकावू लागलेल्या अस्वस्थतेचं मुख्य कारण होतं. घरचं हसरं वातावरण पाहिलं कीं हे सगळं घरी सांगायचं मी टाळतंच होतो. जे व्हायचं तेच होणार असेल तर आत्तापासूनच सगळ्यांना याचा त्रास कशाला असा विचार करुन मी स्वतःचीच समजूत काढत रहायचो.

ब्रॅंचमधल्या दिवसभराच्या कामांमधली व्यस्तता सोडली तर एरवी मनात नजीकच्या काळात निर्माण होऊ शकणाऱ्या अस्थिरतेचा विचार ठाण मांडून असायचाच. एक दिवस न रहावून मी नाईकसरांना माझ्या मनातली ही बोच बोलून दाखवली. त्यांनी नेहमीच्या शांतपणे हसतमुखाने सगळं ऐकून घेतलं. म्हणाले, “यालाच तर आयुष्य म्हणायचं. ते येईल तसं आनंदाने स्विकारायचं. जिथे जाशील तिथे दत्तमहाराज आहेतच ना पाठीशी?मग काळजी कसली? ते असणारच आहेत. आणि म्हणूनच तुझ्या उत्कर्षाची वाट वळणावळणांची असणाराय. खाचखळग्यांची नाही हे लक्षात ठेव”

त्यांचे हे नेमकी दिशा दाखवत मला निश्चिंत करणारे आश्वासक शब्द त्याक्षणी माझ्यासाठी अतिशय दिलासा देणारे होते! 

माझी यापुढची उत्कर्षाची वाट वळणावळणाची असणाराय असं सर म्हणाले ते अनेक अर्थांनी खरं ठरणार होतं आणि त्या वाटेवरचं पहिलं वळण हाकेच्याच अंतरावर माझी वाट पहात तिष्ठत थांबलेलं. पण आता मी निश्चिंत होतो. मनात उत्सुकता होतीच पण ना कसलं दडपण ना अस्वस्थता. कारण सर म्हणाले तसं ‘तो’ होताच माझ्या सोबत आणि समोरच्या त्या वळणवाटेवरही तो असणारच होता सोबतीला.. !

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #248 – कविता – ☆ तू चलता चल, अपने बल पर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता तू चलता चल, अपने बल पर” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #248 ☆

☆ तू चलता चल, अपने बल पर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

तू चलता चल, अपने बल पर

संकल्प नहीं सौगंध नहीं, अब जो जैसा है ढलने दें

उस कालचक्र की मर्जी पर, वो जैसा चाहें चलने दें

जो हैं शुभचिंतक बने रहें, उनसे ही तो ऊर्जा मिलती

हैं जो ईर्ष्या भावी साथी ,वे जलते हैं तो जलने दें।

हो कर निश्छल, मन निर्मल कर।

तू चलता चल, अपने बल पर।।

*

अब भले बुरे की चाह नही, अपमान मान से हो विरक्त

हो नहीं शत्रुता बैर किसी से, नहीं किसी के रहें भक्त

एकात्म भाव समतामूलक, चिंता भय से हों बहुत दूर,

हो देह शिथिल,पर अंतर्मन की सोच सात्विक हो सशक्त।

मत ले सम्बल, आश्रित कल पर।

तू चलता चल, अपने बल पर।।

*

जीवन अनमोल मिला इसको अन्तर्मन से स्वीकार करें

सत्कर्म अधूरे रहे उन्हें, फिर-फिर प्रयास साकार करें

बोझिल हो मन या हो थकान, तब उम्मीदों की छाँव तले

बैठें विश्राम करें कुछ पल, विचलित मन का संताप हरें

मत आँखें मल, पथ है उज्ज्वल।

तू चलता चल, अपने बल पर।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 72 ☆ गाँव में… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “गाँव में…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 72 ☆ गाँव में… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

छोड़ आया हूँ शहर को

पास वाले गाँव में।

 

हवा उत्सुकता भरी

घूँघट उठाए घूमती है

धार निश्छल

हँसी रखकर

तटों का मन चूमती है

 

पकड़ लाया हूँ लहर को

गीत गाती नाव में।

 

बना चौकीदार पीपल

करे स्वागत बजा ताली

भोर पगडंडी पहनकर

निकलता है सूर्य माली

 

बिठा आया हूँ सफर को

गुनगुनी सी छाँव में।

 

गली आँगन बाग बखरी

रँभा गैया टेरती है

गोधूलि चंदन तिलक दे

नीम बाँहें घेरती है

 

बाँध आया हूँ नहर को

नदी वाले ठाँव में।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 76 ☆ करोगे दूर कैसे उसको दिल से… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “करोगे दूर कैसे उसको दिल से“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 76 ☆

✍ करोगे दूर कैसे उसको दिल से… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मेरी नज़रों में वो इंसां बड़ा है

मदद को गैर की तत्पर खड़ा है

 *

मुहाजिर किसको तुम बतला रहे हो

मेरा भी नाल भारत में गड़ा है

*

करोगे दूर कैसे उसको दिल से

अँगूठी के नगीने सा जड़ा है

मुनासिब हक़ नहीं जो कौन देगा

मग़र बच्चों सा तू ज़िद पर अड़ा है

*

समझ आती न उसको बात अच्छी

नसीहत दो न वो चिकना घड़ा है

 *

जुड़ा है तार जिसका रब से मेरे

उसी के ताज़ कदमों में पड़ा है

 *

मिटा सकता नहीं पर ज़ोम उसमें

अँधेरों से तभी जुगनू लड़ा है

 *

ढलेगा शाम होते सोच लेना

तुझे नश्शा जो शुहरत का चढा है

 *

मुहब्बत फ़र्ज़ में है जंग जारी

अरुण अब फैसला लेना कड़ा है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 118 – बैंक : हमारी कहानी ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा   “जीवन यात्रा“

☆ कथा-कहानी # 118 – app, logo, media, popular, social, whatsapp बैंक : हमारी कहानी  ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆ 

ग्रुप के शुरुआती दौर की पोस्ट है. कमानिया के पास गनपत मिल गया, अकेला था हमने पूछा गुरुजी कहां गये? बोला बड़कुल के यहां से खोबे की जलेबी लेने गये हैं. हमने तुरंत मौके का फायदा उठाते हुये कहा “गनपत भैया, जरा पास की स्टेट बैंक की ब्रांच चले जाओ. गनपत ने साफ मना कर दिया, बोला गुरु जी से बिना पूछे मैं कहीं नहीं जाता. हमने कहा तुम जाओ तो सही, हम उनसे पोस्टफेक्टो सेंक्शन ले लेंगे.

गनपत कुछ देर तक तो हमको ऊपर से नीचे तक देखता रहा, फिर धृष्टता से व्यंग्य भरी मुस्कान फेंककर पूछा: ये क्या होता है और इससे क्या गुरुजी हमारी क्लास नहीं लगायेंगे.

हमने कहा कि ये बैंक की शब्दावली है जब नियंत्रक को शाखा प्रबंधक पर पूरा विश्वास हो कि ये गड़बड़ नहीं करेगा या अगर कर भी लिया तो हमारे हिसाब में गड़बड़ नहीं करेगा तो वो शाखाप्रबंधक के कान में विश्वास या अंधविश्वास का मंत्र फूंक देते हैं और काम सबका चलता रहता है. खैर बात तो गनपत के सर के ऊपर से अर्जुन के तीर के समान सांय से गुजर गई और उसने फिर से, इस बार मजबूती से हमारे सम्मान की वाट लगाते हुये फिर मना कर दिया.

हमने अगला तीर निशाने में लगाने की फिर कोशिश की कि गनपत, गुरुजी हमारे बड़े भाई के समान हैं, वो हमारे ग्रुप में भी हैं जिसमें हम एडमिन बन कर बैठे हैं.

गनपत : कौन सा ग्रुप?

मैं : बैंक : हमारी कहानी

गनपत :इसमें क्या होता है?

मैं : हम लोग बैंक में जो काम करते थे न, उसकी कहानी कहते हैं. बाहर की बात भी कर सकते हैं पर पकापकाया माल एलाउड नहीं है, लोग बहुत अच्छे हैं, मान गये हैं, हमको सब लोग पसंद भी हैं. इत्ता तो नौकरी करते वक्त भी नहीं करते थे.

रोज बॉस की डांट खाते थे.

गनपत :और ये एडमिन क्या होता है.

मैं : ये बिना पावर बिना वेतन का अधिकारी होता है.

गनपत : ये तो हमको भी गुरुजी बताये थे कि शाखा में चेक पास करने और पेटीकेश का मनमुताबिक उपयोग करने के अलावा कोई डायरेक्ट अधिकार नहीं होता और जो अधिकार होता है वो अधिकार कम फसौवल ज्यादा हैं. पर एडमिन भैया आपको तन्खा नहीं मिलती, मानदेय तो मिलता होगा.

एडमिन : मानदेय मतलब मान देना पड़ता है गनपत, अब जल्दी से बैंक जाकर पता कर लो कि चल रही है क्या हमारे बिना.

गनपत : जाने की क्या जरूरत, यहीं कमानिया के पास खड़े होकर बता रहे हैं, बहुत बढ़िया चल रही है, पहले से बेहतर चल रही है क्योंकि नये लड़के तो कंप्यूटर के मास्टर हैं, सब खुद ही ठीक कर लेते हैं. आप बिल्कुल भी चिंता मत पाले, अपने ग्रुप पर ध्यान दो, कभी कभी भटक जाता है. अब मैं जा रहा हूँ, वो देखिए गुरुजी आ रहे हैं.

हमने नपे तुले कदमों से बड़कुल के सामने महावीर दूध भंडार की तरफ रुख किया और ऑर्डर प्लेस किया एक केसरिया दूध मलाई मारके. गिलास गरम लगा तो ऑंख खुल गई, वास्तविकता में पत्नी ने हमारी कनिष्ठा उंगली चाय के कप से टच कर दी थी.

गुरुजी से पोस्टफेक्टो सेंक्शन की उम्मीद से 💐🙏

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 41 – गोबर गणेश…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी, पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)

☆ लघुकथा # 41 – गोबर गणेश श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

माॅं तुम हमेशा मुझे पढ़ने को क्यों बोलती रहती हो?

मैं घर का सारा काम भी तो करता हूं और तुम्हारी कितनी मदद करता हूं। क्या यह सब तुम्हें अच्छा नहीं लगता? तुम और पिताजी हमेशा मुझे डांटे रहते हो। बड़े भाई बहनों को तो तुम लोग कुछ नहीं बोलते मुझे हमेशा क्यों रहते हो दिमाग में गोबर भरा  है। गोबर गणेश की तो पूजा भी करते हैं।

बेटा हम तुम्हारे भले की ही बात कहते हैं। देखा! गणेश जी को भी कुछ अरसे बाद रखें और विसर्जित कर देते हैं। जीवन भर हम भी नहीं रहेंगे और तुम्हारा जीवन कैसे चलेगा?

बाद में तुम पछताओगे और समय निकल जाने के बाद किसी की कोई कीमत नहीं होती। जितनी जल्दी यह सब बातें तुम अपने दिमाग में समझ लोगे उतना ही अच्छा रहेगा।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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