(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण गीत – गीत यह तुमको समर्पित…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 184 – सुमित्र के गीत… गीत यह तुमको समर्पित
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “जोश भरे दरवाजे...”)
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।
प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है पत्रकार, सहियकार “स्व अजित वर्मा जी” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆
पत्रकार, साहित्यकार अजित वर्मा का स्मरण आते ही उनका चिंतन-मनन और लेखन में डूब हुआ धीर-गम्भीर चेहरा सामने आ जाता है। उन्होंने इले. इंजीनियरिंग की पढाई की थी फिर राजनीति शास्त्र में एम.ए., एल.एल.बी., साहित्यरत्न, कोविद (संस्कृत) एवं पत्रकारिता में पत्रोपाधि की। कुछ समय म.प्र.उच्च न्यायालय में वकालत और शासन के रिवीजन ऑफ़ गजेटियर्स में राजपत्रित अधिकारी के रूप में कार्य किया, किन्तु वे तो सकारात्मक चिंतन करने, जनहित में लिखने और पत्रकारिता के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों, अपराधियों, भ्रष्टाचारियों पर तीखे प्रहार करके उन्हें समाज के सम्मुख लाने, समाज को दिशा प्रदान करने, प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करते हुए उन्हें उचित मार्गदर्शन देने और कलमकारों के हित में कुछ करने के लिए ही पैदा हुए थे अतः उन्हें राजपत्रित अधिकारी का पद पसंद नहीं आया। उन्होंने जीवन यापन के लिए उद्देश्य पूर्ण पत्रकारिता का कष्ट कंटकों भरा मार्ग चुना। वर्मा जी ने पत्रकारिता की शुरुआत अपने छात्र जीवन से ही प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘युगधर्म’ से कर दी थी। उन्होंने नई दुनिया, नवीन दुनिया, दैनिक नवभास्कर के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य करते हुए नई पीढ़ी के पत्रकारों का मार्गदर्शन किया। अजित वर्मा जी ने 30 वर्ष पूर्व स्वयं के संपादकत्व में सांध्य दैनिक “जयलोक” समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। विशाल ह्रदय के स्वामी अजित भाई ने “जयलोक” को दीवारों और घेरों से मुक्त, बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय की नीति पर आगे बढ़ाया। “जयलोक” के द्वार हर नए-पुराने जरूरतमंद पत्रकार के लिए खोल दिए। उल्लेखनीय है कि सिद्धान्तवादी पत्रकारों का जीवन बहुत अस्थिर होता है। मुझे यह लिखते हुए हर्ष हो रहा है कि भाई अजित वर्मा की इस उदार नीति पर उनके सुपुत्र “जयलोक” के वर्तमान संपादक श्री परितोष वर्मा एवं अजित जी के परम मित्र “जयलोक” के समूह संपादक श्री सच्चिदानंद शेकटकर आज भी चल रहे हैं। अजित वर्मा और “जयलोक” को पत्रकारिता की पाठशाला का विशेषण यों ही नहीं मिला। इधर जहाँ ससम्मान अनेक नामी पत्रकारों ने अपने जीवन की संध्या गुजारी वहीं इन वरिष्ठ पत्रकारों और अजित वर्मा जी के मार्गदर्शन और अनुशासन में अनेक नए पत्रकारों की कलम में धार पैदा हुई जो आज विभिन्न पत्रों में कार्य करते हुए यश-कीर्ति अर्जित कर रहे हैं।
वर्मा जी के द्वारा विविध विषयों पर निर्भीक होकर लिखी लेख मालाएं बहुत चर्चित रहीं। उनकी रचित प्रकाशित पुस्तकों में जीवन दर्शन, लोकतंत्र सूली पर, आहुति (जबलपुर में स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास), अनहर्ड क्राइज (जबलपुर भूकम्प), दिग्विजयी लोकनीति, तहलका और हम, विमर्श और सान्निध्य की अर्द्धशती (जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी के साथ) तथा वीरांगना दुर्गावती प्रमुख हैं। वर्मा जी का प्रमाण पुष्ट लेखन बताता है कि विभिन्न विषयों पर उनका कितना गहन अध्ययन-चिंतन था।
वे 1979 से 83 तक जबलपुर पत्रकार संघ के महामंत्री और फिर अध्यक्ष रहे। उन्हीं के कार्यकाल में पत्रकार भवन का निर्माण हुआ। उन्होंने पांच दशकों से अधिक समय तक पूरी प्रतिबद्धता व निष्ठा के साथ श्रेष्ठतम मूल्यों और आदर्शों के अनुरूप पत्रकारिता को नए आयाम दिए। वे अ.भा.आध्यात्मिक संघ के सक्रिय प्रदेश महामंत्री भी रहे। ऐसा नहीं कि चिंतन-मनन, लेखन, धर्म-आध्यात्म और पत्रकारिता ने उनकी सरसता छीन ली हो। अजित वर्मा जी ने अपने साथियों के साथ 1967 में सांस्कृतिक संस्था “मित्रसंघ” की स्थापना की और नगर के श्रोता-दर्शकों को वर्षों तक उत्कृष्ट कार्यक्रमों की श्रृंखला दी। मित्रसंघ द्वारा प्रारम्भ भूले बिसरे गीतों का कार्यक्रम अति लोकप्रिय हुआ था इसकी सौ से अधिक प्रस्तुतियां हुईं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी स्मृति शेष भाई अजित वर्मा शारीरिक शिथिलता के बावजूद अंतिम सांस तक चैतन्य और बौद्धिक रूप से सक्रिय रहे।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है विश्व कविता दिवस परआपकी भावप्रवण कविता “एक सूर्य निकला था ”)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘गुरु की महिमा…’।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय एवं अप्रतिम व्यंग्य – ‘बंडू की फौजदारी‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 237 ☆
☆ व्यंग्य – बंडू की फौजदारी ☆
बंडू ने फिर लफड़ा कर लिया। अपने पड़ोसी महावीर जी की फुरसत से मरम्मत करके भागा भागा फिर रहा है और महावीर जी अपने दो-तीन शुभचिंतकों को लिये, गुस्से में बौराये हुए, हिसाब चुकाने के लिए उसे ढूँढ़ते फिर रहे हैं। फिलहाल बंडू मेरे घर में छिपा बैठा है।
बंडू के साथ मुश्किल यह है कि वह बिलकुल दुनियादार नहीं है। न उसे मुखौटे पहनना आता है, न छद्म करना। जो आदमी उसे पसन्द नहीं आता उसके साथ पाँच मिनट गु़ज़ारना उसे पहाड़ लगता है। मन की बात बिना लाग-लपेट के फट से बोल देता है और सामने वाले को नाराज़ कर देता है। तिकड़म और जोड़-जुगाड़ में लगे होशियार लोगों से उसकी पटरी नहीं बैठती। इसी वजह से तकलीफ भी उठाता है, लेकिन अपनी फितरत से मजबूर है।
दूसरी तरफ उसके पड़ोसी महावीर जी नख से शिख तक दुनियादारी में रसे-बसे हैं। दफ्तर में जिस दिन ऊपरी कमाई नहीं होती उस दिन उन्हें दुनिया बेईमान और बेवफा नज़र आती है। उस दिन वे दिन भर घर में झींकते और भौंकते रहते हैं। जिस दिन जेब में वज़न आ जाता है उस दिन उन्हें दुनिया भरोसे के लायक लगती है। उस दिन वे सब के प्रति स्नेह से उफनते, गुनगुनाते घूमते रहते हैं।
कपड़े-लत्ते के मामले में महावीर जी भारी किफायत बरतते हैं। घर में ज़्यादातर वक्त कपड़े की बंडी और पट्टेदार अंडरवियर में ही रहते हैं। कमीज़ पायजामा पहनने की फिज़ूलखर्ची तभी करते हैं जब घर में कोई ‘सम्माननीय’ मेहमान आ जाता है। अगर मेहमान ‘अर्ध- सम्माननीय’ होता है तो अंडरवियर पर सिर्फ पायजामा चढ़ाकर काम चला लेते हैं, कमीज़ को दुरुपयोग से फिर भी बचा लेते हैं।
इसी किफायतसारी के तहत महावीर जी अखबार नहीं खरीदते। जब पड़ोस में बंडू के घर अखबार आता है तो उन्हें खरीदने की क्या ज़रूरत? सबेरे से अंडरवियर का नाड़ा झुलाते आ जाते हैं और कुर्सी पर पालथी मार कर अखबार लेकर बैठ जाते हैं। सबसे पहले राशिफल पढ़ते हैं। कभी खुश होकर बंडू से कहते हैं, ‘आज लाभ का योग है’, कभी मुँह लटका कर कहते हैं, ‘आज राशिफल गड़बड़ है। देखो क्या होता है।’ राशिफल के बाद बाजार के भाव पढ़ते हैं, फिर दूसरी खबरें। दुर्घटना, हत्या, अन्याय, क्रूरता, सामाजिक उथल-पुथल की खबरों को सरसरी नज़र से देख जाते हैं, फिर मुँह बिचका कर कहते हैं, ‘इन अखबार वालों की नज़र भी कौवों की तरह गन्दी चीज़ों पर ही रहती है।’
फिर नाड़ा झुलाते, गुनगुनाते वापस चले जाते हैं।
बंडू की हालत उल्टी है। वह अखबार को सुर्खियों से पढ़ना शुरू करता है। हत्या और क्रूरता की खबरें उसे विचलित कर देती हैं। नेताओं के भाषणों से उसे एलर्जी है। कहता है, ‘कहीं झूठ और पाखंड का अंतर्राष्ट्रीय मुकाबला हो तो पहले दस पुरस्कार हमसे कोई नहीं ले सकता। ग्यारहवें से ही दूसरे देशों का नंबर लग सकता है।’
बंडू दुखी होकर महावीर जी से कहता है, ‘देखिए तो, बांग्लादेश में कैसी भीषण बाढ़ आयी है। हजारों लोग खत्म हो गये। लाखों बेघर हो गये।’
महावीर जी निर्विकार भाव से कहते हैं, ‘विधि का लिखा को मेटन हारा। जिसकी जब लिखी है सो जाएगा।’
बंडू चिढ़ जाता है। कहता है, ‘इतनी बड़ी दुर्घटना हो गयी और आप उसे कुछ समझ ही नहीं रहे हैं।’
महावीर जी ‘ही ही’ करके हँसते हैं, तोंद में आन्दोलन होता है। कहते हैं, ‘अरे, आप तो ऐसे परेशान हो रहे हो जैसे बांग्लादेश की बाढ़ आपके ही घर में घुस आयी हो।’
कभी बंडू कहता है, ‘देश में बेईमानी और भ्रष्टाचार बहुत बढ़ रहा है। पता नहीं इस देश का क्या होगा।’
महावीर जी सन्त की मुद्रा में जवाब देते हैं, ‘सब अच्छा होगा। भ्रष्टाचार होने से काम जल्दी और अच्छा होता है, नहीं तो आज के जमाने में कौन दिलचस्पी लेता है। और फिर बेईमानी और भ्रष्टाचार कौन आज के हैं। हमेशा से यही होता आया है। अब हमेंइ देखो, दो पैसे ऊपर लेते हैं लेकिन काम एकदम चौकस करते हैं। मजाल है कोई शिकायत कर जाए।’
बंडू भुन्ना जाता है।
कभी बंडू चिन्ताग्रस्त होकर कहता है, ‘रोजगार की समस्या बड़ी कठिन हो रही है।’
महावीर जी हँसकर कहते हैं, ‘भैया आप बड़े भोले हो। बेरोजगारी की समस्या बेवकूफों के लिए है। अब हमें देखो। हमारे बेटों को नौकरी की क्या जरूरत? एक को दुकान खुलवा देंगे, दूसरे से ठेकेदारी करवाएँगे, तीसरे को एक दो ट्रक खरीद देंगे। चार पैसे खुद खाओ, चार ऊपर वालों को खिलाओ। खुश रहोगे। हम तो नौकरी करके पछताये। दो-तीन साल में रिटायरमेंट लेकर धंधा करेंगे और चैन से रहेंगे।’
महावीर जी अक्सर तरह-तरह के धंधों के प्रस्ताव लेकर बंडू के पास आते रहते हैं। कभी कहते हैं, ‘पाँच दस हजार की अलसी भर लो। अच्छा मुनाफा मिल जाएगा।’ कभी कहते हैं, ‘सरसों भर लो। चाँदी काटोगे।’ बंडू को इन बातों से चिढ़ होती है। गुस्सा बढ़ता है तो तीखे स्वर में कहता है, ‘आप ही यह भरने और खाली करने का धंधा कीजिए। इस मुनाफाखोरी में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है।’
बंडू के गुस्से को महावीर जी उसकी नादानी समझते हैं। वे फिर भी बंडू का ‘भला’ करने की नीयत से नये-नये प्रस्ताव लेकर आते रहते हैं। कभी कहते हैं, ‘चलो सहकारी दुकान से एक बोरा शक्कर दिलवा देते हैं। मुनाफे पर बेच लेना।’ और बंडू उन्हें दरवाजा दिखाता रहता है।
पश्चिमी सेनाओं और इराक के बीच युद्ध के समय एक दिन जब महावीर जी अखबार पढ़ने पधारे तब बंडू सिर पकड़े बैठा था। महावीर जी सहानुभूति से बोले, ‘क्या बात है भाई? तबियत खराब है क्या?’
बंडू बोला, ‘तबियत खराब नहीं है। जरा अखबार पढ़ो। अमेरिका के मिसाइल ने बंकर को तोड़कर तीन चार सौ स्त्रियों बच्चों को माँस के लोथड़ों में बदल दिया।’
महावीर जी ताली पीट कर हँसे, बोले, ‘वह खबर तो हमने रात को टीवी पर सुन ली थी। भई, हम तो अमरीका की तारीफ करते हैं कि क्या मिसाइल बनाया कि इतने मोटे कंक्रीट को तोड़कर बंकर के भीतर घुस गया। कमाल कर दिया भई।’
बंडू बोला, ‘और जो तीन चार सौ निर्दोष स्त्री बच्चे मरे सो?’
महावीर जी बाँह पर बैठे मच्छर को स्वर्गलोक भेजते हुए बोले, ‘अरे यार, लड़ाई में तो ये सब मामूली बातें हैं। लड़ाई में आदमी नहीं मरेंगे तो क्या घोड़े हाथी मरेंगे?’
फिर कहते हैं, ‘लेकिन ब्रदर, पहली बार लड़ाई का मजा आया। टीवी पर बमबारी क्या मजा देती है! बिल्कुल आतिशबाजी का आनन्द आता है।’
लड़ाई की नौबत जिस दिन आयी उसके एक दिन पहले से ही बंडू महावीर जी से जला-भुना बैठा था। एक दिन पहले वे बंडू को गर्व से बता चुके थे कि कैसे दफ्तर में एक देहाती का काम करने के लिए उन्होंने उसकी जेब का एक-एक पैसा झटक लिया था। उन्होंने गर्व से कहा था, ‘साला एक पचास रुपये का नोट दबाये ले रहा था, लेकिन अपनी नजर से पैसा बच जाए यह नामुमकिन है। साले को एकदम नंगा कर दिया।’
तब से ही बंडू का दिमाग खराब था। बार-बार महावीर जी की वह हरकत उसके दिमाग में घूमती थी और उसका माथा खौल जाता था।
दुर्भाग्य से दूसरे दिन महावीर जी फिर आ टपके। प्रसन्नता से दाँत निकाल कर बोले, ‘बंधु, मुनाफा कमाने का बढ़िया मौका है। निराश्रित लड़कों के हॉस्टल के लिए खाने की चीजें सप्लाई करने का ठेका मिल रहा है।’
बंडू गुस्से में भरा बैठा था। उसने कोई जवाब नहीं दिया।
महावीर जी अपनी धुन में बोलते रहे, ‘मैंने सब मामला ‘सेट’ कर लिया है। जैसा भी माल सप्लाई करेंगे सब चल जाएगा। थोड़ा वहाँ के अफसरों को खिलाना पड़ेगा, बाकी हमारा। चालीस पचास परसेंट तक मुनाफा हो सकता है।’
और बंडू किचकिचा कर महावीर जी पर चढ़ बैठा। महावीर जी इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबराकर चित्त हो गये। बंडू ने उन्हें कितने लात- घूँसे मारे यह उसे खुद भी नहीं मालूम। महावीर जी का आर्तनाद सुनकर लोग दौड़े और बंडू को अलग किया। महावीर जी उस वक्त तक हाथ-पाँव हिलाने लायक भी नहीं रह गये थे।
बस तभी से बंडू मेरे घर में छिपा बैठा है और महावीर जी अपने पहलवानों के साथ उसे हिसाब चुकाने के लिए ढूँढ़ते फिर रहे हैं।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 236☆ या घट अंतर बाग़-बग़ीचे
‘चरन्मार्गान्विजानाति।’
(महाभारत, आदिपर्व 133-23)
पथिक को मार्ग का ज्ञान स्वत: हो जाता है।
मनुष्य शाश्वत पथिक है। एक जीवन में सारी जिज्ञासाओं का शमन नहीं हो सकता। फलत: वह लौट-लौट कर आता है। 84 लाख योनियों में जगत का भ्रमण करता है, पर्यटन करता है।
ध्यान रहे कि यात्रा पर्यटन नहीं है पर यात्रा का पर्यटन से गहरा संबंध है। पर्यटन के लिए यात्रा अनिवार्य है। पर्यटन निर्धारित स्थान की सायास घुमक्कड़ी है। तथापि हर यात्रा अपने आप में अनायास पर्यटन है।
भारत के संदर्भ में अधिकांश पर्यटन स्थल तीर्थ हो जाते हैं। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था, “टू अदर कंट्रीज़, आई मे गो एज़ अ टूरिस्ट, बट टू इंडिया, आई कम एज़ अ पिलग्रिम।” (“मैं दूसरे देशों में पर्यटक के तौर पर जा सकता हूँ पर भारत में मैं तीर्थयात्री के रूप में आता हूँ।”)
स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।
हम मानस तीर्थ की यात्रा पर चर्चा करेंगे। दुनिया का भ्रमण कर चुके पर्यटक भी इस अनन्य पर्यटन से वंचित रह जाते हैं। सच तो यह है कि हममें से अधिकांश इस पर्यटन स्थल तक कभी पहुँचे ही नहीं।
एक दृष्टांत द्वारा इसे स्पष्ट करता हूँ। एक भिक्षुक था। भिक्षुक बिरादरी में भी घोर भिक्षुक। जीवन भर आधा पेट रहा। एक कच्ची झोपड़ी में पड़ा रहता। एक दिन आधा पेट मर गया। बाद में उस स्थान पर किसी इमारत का काम आरंभ हुआ। झोपड़ी वाले हिस्से की खुदाई हुई तो वहाँ बेशकीमती ख़ज़ाना निकला। जिस ख़ज़ाने की खोज में वह जीवन भर रहा, वह तो ठीक उसके नीचे ही गड़ा था। हम सब की स्थिति भी यही है। हम सब एक अद्भुत कोष भीतर लिए जन्मे हैं लेकिन उसे बाहर खोज रहे हैं।
भीतर के इस मानसतीर्थ का संदर्भ महाभारत के अनुशासन पर्व में मिलता है। दान-धर्म की चर्चा करते हुए अध्याय 108 में युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से सब तीर्थों में श्रेष्ठ तीर्थ की जानकारी चाही है। अपने उत्तर में मानस तीर्थ का वर्णन करते हुए पितामह कहते हैं, “जिसमें धैर्यरूप कुण्ड और सत्यरूप जल भरा हुआ है तथा जो अगाध, निर्मल एवं अत्यन्त शुद्ध है, उस मानस तीर्थ में सदा परमात्मा का आश्रय लेकर स्नान करना चाहिए। कामना और याचना का अभाव, सरलता, सत्य, मृद भाव, अहिंसा, प्राणियों के प्रति क्रूरता का अभाव- दया, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह- ये ही इस मानस तीर्थ के सेवन से प्राप्त होने वाली पवित्रता के लक्षण हैं। जो ममता, अहंकार, राग-द्वेषादि द्वन्द्व और परिग्रह से रहित हैं, वे विशुद्ध अन्तःकरण वाले साधु पुरुष तीर्थस्वरूप हैं, किंतु जिसकी बुद्धि में अहंकार का नाम भी नहीं है, वह तत्त्वज्ञानी पुरुष श्रेष्ठ तीर्थ कहलाता है।”
वास्तव में स्थूल शरीर के माध्यम से यात्रा करते हुए हम स्वयं को शरीर भर मान बैठते हैं। सच तो यह है कि हम शरीर नहीं अपितु शरीर में हैं। सत्य को भूलकर हम भीतर से बाहर की यात्रा में जुट जाते हैं जबकि अभीष्ट बाहर से भीतर की यात्रा होती है।
इस यात्रा पर जो निकला, वह मालामाल हो गया। सारी सृष्टि के बाग़-बग़ीचे भी फीके हैं इस भीतरी पर्यटन के आगे। संत कबीर लिखते हैं,
या घट अंतर बाग़-बग़ीचे, या ही में सिरजनहारा।
या घट अंतर सात समुंदर, या ही में नौ लख तारा।
या घट अंतर पारस मोती, या ही में परखनहारा।
या घट अंतर अनहद गरजै, या ही में उठत फुहारा।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, या ही में साँई हमारा॥
भीतर का पर्यटन सायास और अनायास दोनों है। इस पर्यटन में सतत अनुसंधान भी है।
यह एक ऐसा पर्यटनलोक है, जिसके एक खंड की रजिस्ट्री हर मनुष्य के नाम हैं। हरेक के पास स्वतंत्र हिस्सा है। ऐसा पर्यटनलोक जो सबके लिए सुलभ है, नि:शुल्क है, बारहमासी है, प्रति पल है।
जितनी यात्रा भीतर होगी, जगत को देखने की दृष्टि उतनी ही बदलती चली जाएगी। लगेगा कि आनंद ही आनंद बरस रहा है। रसघन है, छमाछम वर्षा हो रही है, भीग रहे हो, सब कुछ नेत्रसुखद, सारे भारों से मुक्त होकर नृत्य करने लगोगे।
छुट्टियों का समय है, पर्यटन का समय है। चलो पर्यटक बनें, अपने भीतर का भ्रमण करें। पर्यटन से अभिप्रेत परमानंद यही है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित साधना मंगलवार (गुढी पाडवा) 9 अप्रैल से आरम्भ होगी और श्रीरामनवमी अर्थात 17 अप्रैल को विराम लेगी 💥
🕉️ इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी करें। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना भी साथ चलेंगी 🕉️
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈