हिन्दी साहित्य – कविता ☆ टूट गई पतवार भँवर में… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “टूट गई पतवार भँवर में“)

✍ टूट गई पतवार भँवर में… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मन दर्पण में सुधियों का अंबार लगा

खुशियों में भी मेरे मन पर भार लगा

नूर नहीं चहरे पर दुख की छाया है

जिसको देखो आज वही बीमार लगा

 *

जो देता वो उसमें ही खुश रहना है

सब उपदेशों का यह मुझको सार लगा

 *

सच को सच कहने से मुखिया डरता है

कुर्सी पाकर वो कितना लाचार लगा

 *

टूट गई पतवार भँवर में नाँव फसी

ईश्वर मेरे तू ही मुझको पार लगा

 *

इक दिन जाना तय है जो भी आया है

चार दिनों का मेला यह संसार लगा

 *

मरघट सा सन्नाटा घर में फैला था

तुम आये तो भीड़ भरा बाजार लगा

 *

हाथ रखा जबसे तुमने सर पर मेरे

अपना हर सपना होता साकार लगा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 23 – दिखावे की दुनिया ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – दिखावे की दुनिया।)

☆ लघुकथा – दिखावे की दुनिया श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

बहुत दिन हो गया बंधु तुम्हारी मीठी आवाज नहीं सुनी।

जल्दी बताओ! यार फोन क्यों किया? तुम्हें पता है कि अभी कोचिंग क्लास में जाना है। तुम्हें तो पढ़ाई की चिंता नहीं है?

भाई मेरा जन्मदिन है। मॉल में आज शाम को पार्टी रखी है, सभी दोस्त आ रहे हैं। तुम भी जरूर आना एक दिन नहीं पढ़ोगे मेरे बुद्धि देव तो कुछ नहीं हो जाएगा।

ठीक है भाई आ जाऊंगा पर  पार्टी के खर्च के लिए पैसे कहां से आए? क्योंकि हमारे और तुम्हारे घर की स्थिति तो ऐसी है कि हमारे मां-बाप किसी तरह हमको यहां पढ़ने भेजे हैं  तुमने कैसे मैनेज किया ?

बंधु सुनो चुपचाप शाम को चले आना इसीलिए तुम्हें फोन नहीं करता और जोर से फोन पटक देता है।

राकेश सोचने लगता है कि इसे जरा भी चिंता नहीं है और मैं इसके घर में फोन करके यह बात कह भी नहीं सकता जाने दो मैं शाम को देखता हूं।

अरे !यार यह यहां पर तो  बड़े लोग भी खाना खाने से डरते हैं तुमने यहां कैसे पार्टी अरेंज की?

दोस्त इसके लिए बहुत जुगाड़ करना पड़ता है।

हम गरीब घर के है तो मेरी इज्जत यहां कोई नहीं करेगा धनवान का ही समान सदा होता है।  ये सब मैं मैनेज कर लिया अच्छा अब तुम अपना फोन मुझे दे दो बाकी के दोस्त कहां रह गए पूछना है?

क्यों तेरा फोन कहां गया?

और तेरी घड़ी भी तो नहीं दिख रही है मुझे?

ओ मेरे बुद्धि देव तू सवाल बहुत पूछता है?

कुछ दिनों के लिए और मैं इसे गिरवी रख दिया है अब यह बात किसी को नहीं बताना पार्टी इंजॉय करों। आम खा भाई गुठली गिन कर क्या करेगा?

राजेश गहरी सोच में डूब गया ऐसे दिखावे से क्या मतलब है और उसके मस्तिष्क पर गहरी रेखा आ गई और उसे बहुत घबराहट होने लगी। वहां पर लड़के लड़कियां बड़े आराम से सिगरेट पी रही थी और नशे का आनंद लेकर नाच रहे थे।

केक और लगे बढ़िया काउंटर पिज़्ज़ा, बर्गर और तरह-तरह के फास्ट फूड से भरे थे। वह चकित सब देखता रहा।

उसकी आंखों में आंसू आ गए। कुछ नहीं खाया गया वह चुपचाप वहां से अपने हॉस्टल रूम में आ गया।

वह अपनी पढ़ाई में लग गया लेकिन बार-बार उसके ध्यान में एक सवाल आ रहा था कि जब मैं आशुतोष के घर जाता था तो उसकी दादी हम दोनों को समझती थी कि जितनी चादर है उतना ही पैर पसारना चाहिए। यहां आकर अपने सारे संस्कार कैसे भूल गया?

दिखावे की दुनिया है क्या?

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 103 – मत बोल बच्चन : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  मिलन मोशाय : 3

☆ कथा-कहानी # 103 –  मत बोल बच्चन : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

भीषण गर्मी में तपते हुये जब “असहमत” मोहल्ले के इलेक्ट्रीशियन दयाराम के घर पहुंचा तो दयाराम के (घर का)दरवाजा अंदर से बंद था और अंदर जुगाड़ से बने जर्जर खड़खड़ाते कूलर की ठंडी ठंडी हवा का आनंद लेते हुये इलेक्ट्रीशियन घोर निद्रा में लिप्त था।दयाराम का शौक तो पहलवानी और गुंडागर्दी था पर इससे तो घर गृहस्थी चलती नहीं तो किस्मत ने उसके हाथ में रामपुरी चाकू की जगह बिजली का टेस्टर थमा दिया था।रात देर तक, बारातघर में झालर ठीक करते करते भोर में घर लौटा था और सपने में खुद अपना भी “शाल श्रीफल” से होता सम्मान देख रहा था,तभी जर्जर और बड़ी मुश्किल से ईंटों के दम पर टिके कूलर के गिरने की आवाज ने उसे सपनीले शॉल- श्रीफल से ज़ुदा कर दिया।बाहर असहमत की कर्कश आवाज और दरवाजे पर जोरदार धक्कों ने न केवल उसकी नींद तोड़ दी बल्कि उसका कूलर भी धराशायी कर दिया।प्याज,टमाटर और इलेक्ट्रीशियन के भाव सीजन में उछाल मारते हैं और नखरेबाजी में ये दूल्हे के दोस्तों को भी मात देते हैं।

इस सुनामी से दयाराम पूरी तरह से निर्दयता से भर उठा और कमरे के अंदर के 30 डिग्री से बाहर खुले वातावरण में आने पर 45 डिग्री ने, उसका सामना असहमत से करा दिया जो बाहर तप तप के वैसे ही और गुस्से से भी लाल था।फिर हुई ज़ुबानी जंग इस तरह रही।

दयाराम : अबे दरवाजा क्यों तोड़ रहा था,घंटी नहीं दिखी तुझे।

असहमत :अबे,काम करने के सीजन में गधे बेचकर सोया पड़ा है और ऊपर से मुझे ताव दिखा रहा है।

दयाराम : काम अपनी मरजी से और अपने समय से करता हूँ चिलगोजे।खुद तो कुछ काम धंधा है नहीं, साला मुझे ज्ञान बांट रहा है।चल निकल यहाँ से।

दोनों ही एक दूसरे की तबियत से ‘बेइज्जती’ खराब किये जा रहे थे और तपता मौसम,जले में नमक के छींटे मार रहा था।वाकयुद्ध जारी था और असहमत ने दयाराम पर पहले दिव्यास्त्र का प्रयोग किया।

असहमत : साले ,रुक अभी ,मैं “भाई” को लेकर आता हूँ।

दयाराम : अबे भाई की धमकी किसे देता है,लेकर आ,दोनों की एक साथ ठुकाई करता हूँ।

असहमत : ठीक है, तो भागना नहीं, अभी भाई को लेकर आता हूँ।घर के बाहर ही रहना नहीं तो घर में घुसकर मारूंगा।

दयाराम : अबे बेवकूफ समझा है क्या, इतनी गर्मी में, मैं बाहर खड़ा रहूं और तेरा इंतजार करता रहूँ।तू लेकर आ अपने भाई को और  दरवाजा तोड़ने के बजाय बाहर लगी घंटी बजाना। फिर दोनों का सरकिट फ्यूज़ करता हूँ।

इस वाकयुद्ध को 1-1 पर ड्रा छोड़कर जब असहमत आगे बढ़ा तो उसकी रास्ते में ही अपने तथाकथित “भाई” से मुलाकात हो गई और पूरा किस्सा सुनकर “भाई” भूल गया कि वो किसी प्राइवेट बैंक का करारनामे पर नियुक्त वसूली (भाई) अधिकारी है।ये रेप्यूटेशन का सवाल था तो दोनों दयाराम के घर पर पहुंचे और जैसे ही असहमत ने घंटी बजाई,बिजली के झटके ने उसे पीछे हटा दिया।वसूली भाई की तरफ देखकर,असहमत ने कहा :इसकी घंटी में करेंट है.पहले कटआउट निकालता हूँ, फिर बजाता हूँ।

भाई: अबे, जब लाईट ही नहीं रहेगी तो घंटी कहाँ से बजेगी,दयाराम ने बदमाशी कर दी है।चल दूसरे इलेक्ट्रीशियन के पास चलते हैं।

भीतर दयाराम को सुनाते हुये ,असहमत ने कहा ;अपने आप को साला,थामस अल्वा एडीसन समझता है,तीन टुकड़ों में बांट के अलग अलग फेंक दूंगा।एक तरफ थामस जायेगा तो दूसरी तरफ अल्वा और तीसरी दिशा में एडीसन।

और अपने जुगाड़ से बने कूलर को ठीक करते हुए इलेक्ट्रीशियन दयाराम ये नहीं समझ पा रहा था कि जाते जाते आखिर क्यों, असहमत उसे ये “थामस अल्वा एडीसन” नाम की अनजान डिग्री से सम्मानित कर गया।

— समाप्त —

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 230 ☆ मातृदिनानिमित्त : आई गेल्यावर… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 230 ?

☆ मातृदिनानिमित्त : आई गेल्यावर… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आई गेल्यानंतर..

तिचं कपाट आवरताना,

किती सहजपणे टाकून दिल्या..

तिने  अनेक वर्षे जपून ठेवलेल्या तिच्या वस्तू,

जुनी पत्रे..लग्नपत्रिका…कागदपत्रे…जुने फोटो..विणकामाच्या सुया ..लोकर आणि बरेच काही सटर फटर…. जे तिला खुप महत्वाचे वाटत  असावे!

 

तिच्या माहेरच्यांनी दिलेल्या,

त्या लाकडी कपाटाला नेहमीच कुलुप असायचे !

होते त्यात काहीतरी खुप जपून जपून ठेवलेले…

कादंब-या, पाकशास्र, भरतकाम विणकामाची दुर्मिळ पुस्तके….

एक सुलट एक उलट करता करता…संपून गेले आयुष्य!

 

आत्यांनी विचारले,जुन्या आठवणी  काढत…

“वहिनीं ची भावगीतांची पुस्तके आहेत का?,त्या म्हणून दाखवायच्या त्यातली गाणी…”

 

हाती लागलेल्या, “गोड गोड भावगीते” या पुस्तकांवर तिच्या लग्नाची तारीख… कुणीतरी लग्नात भेट दिलेला भावगीतांचा संच… मुखपृष्ठावर बासरी वाजवणारा कृष्ण…  शेजारी राधा… राधेच्या हातावर स्वर्गीय पक्षी!

 

आतल्या पानांवर… वाटवे, पोवळे, नावडीकर, शांता आपटे, माणिक वर्मा, मधुबाला जव्हेरी, ज्योत्स्ना भोळे… यांचे तरूण चेहरे आणि गाणी…

 

एक भला मोठा कालखंड बंदिस्त करून ठेवलेला त्या लाकडी कपाटात !

कपाटातल्या सा-याच भावमधूर स्मृती….किती विसंगत तिच्या वास्तवाशी!

कपाटात कोंडलेले… डाचत होते बहुधा तिला आतल्या आत  !

 

आईचे कपाट आवरताना…

बरेच काही समजले तिच्या अंतर्मनातले….!

 

राधेच्या हातावरचा स्वर्गीय पक्षी,

पंख पसरून तसाच स्थिर….गेली कित्येक वर्षे!

आईचा प्राणपक्षी दूर…दिगंतरा….    !

 

सत्तावन्न वर्षाच्या सासरच्या वास्तव्यातली…फडफड…तडफड….शांत…!

 

आई गेल्यानंतर पाहिले,

कित्येक वर्षे गोठविलेले कपाटातले बंदिस्त विश्व !

आता मनात एक रूखरुख….

किती सहजपणे टाकून दिले आम्ही, तिला महत्वाचे वाटणारे बरेच काही!

(आई गेली. ….तेव्हा ची कविता)

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 53 – खुद ही उंगली जला ली आपने… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – खुद ही उंगली जला ली आपने।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 53 – खुद ही उंगली जला ली आपने… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

बात मेरी न टाली आपने 

लाज सबकी बचा ली आपने

*

बंद, मुंह, कर दिया जमाने का 

माँग भर दी जो खाली आपने

*

तोड, जंजीर रूढ़ियों की सब 

हथकड़ी धागे की, डाली आपने

*

काटकर कुप्रथाओं के पर्वत 

राह उससे निकाली आपने

*

शत्रु लाचार को, शरण देकर 

कितनी जोखिम उठा ली आपने

*

शांति के यज्ञ में, हवन करके 

खुद ही, उंगली जला ली आपने

*

आग मजहब की तो, बुझा आये 

दुश्मनी, कितनों से पाली आपने

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 129 – ईश्वर ने उपकार किया है… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “ईश्वर ने उपकार किया है…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 129 – ईश्वर ने उपकार किया है… ☆

ईश्वर ने उपकार किया है ।

धरती का शृंगार किया है।।

 *

संघर्षों से जीना सीखा,

मानव का उद्धार किया है।।

 *

निज स्वारथ में डूबे रहते,

उनने बंटाढार किया है।

 *

संस्कार को जिसने रोपा,

सुख का ही भंडार किया है।

 *

लालच बुरी बला है यारो,

कुरसी पा अपकार किया है।

 *

जब-जब नेता भरें तिजोरी,

जन-मन अत्याचार किया है।

 *

सुख-दुख जीवन में हैं आते,

यही सत्य स्वीकार किया है।

 *

सुख की बदली जब भी बरसी,

जनता ने आभार किया है।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

8/5/2024

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 10 – संस्मरण # 4 – एक और गौरा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – एक और गौरा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 10 – संस्मरण # 4 – एक और गौरा ?

श्रावणी मासी मोहल्ले भर में प्रसिद्ध थीं। सबके साथ उठना – बैठना, सुख-दुख  में पास आकर सहारा देना उनका स्वभाव था। स्नान के बाद सिर पर एक गमछा बाँधकर वह दिन में एक दो परिवारों का हालचाल ज़रूर  पूछ आतीं  पर एक बात उनकी ख़ास थीं कि वे स्वयं कभी किसी से किसी प्रकार की चर्चा न करतीं,यहाँ का वहाँ न करतीं जिस कारण सभी अपनी पारिवारिक समस्याएँ उनके सामने रखते।

वे किसी से सहायता की अपेक्षा कभी नहीं रखतीं थीं। वे स्वयं सक्षम, समर्थ और साहसी महिला थीं। निरक्षर थीं वे पर अनुभवों का भंडार  थीं। समझदार बुद्धिमती तथा सकारात्मक दृष्टिकोण रखनेवाली स्त्री।

किसी ज़माने में जब हमारा शहर इतना फैला न था तो नारायण मौसाजी ने सस्ते में ज़मीन खरीद ली थी और एक पक्का मकान खड़ा कर लिया था। घर के आगे – पीछे खूब ख़ाली ज़मीन थी। श्रावणी मासी आज भी खूब रोज़मर्रा लगनेवाली सब्ज़ियांँ अपने बंगले के पिछवाड़े वाली उपजाऊ भूमि पर उगाती हैं। उन सब्ज़ियों का स्वाद हम मोहल्लेवाले भी लेते हैं। अपने तीनों बेटों के हर जन्मदिन पर वे पेड़ लगवाती, पर्यावरण से बच्चों को अवगत करातीं। आज उनके जवान बच्चों के साथ वृक्ष भी फलदार हो गए। आम,जामुन,अनार,अमरूद,सीताफल, पपीता , कटहल, कदली , चीकू , सहजन के पेड़ लगे हैं उनके बगीचे में। खूब फल लगते और मोहल्ले में बँटते हैं। आर्गेनिक फल और सब्जियाँ! पीपल, अमलतास , गुलमोहर वट, नीम के भी वृक्ष लगे हैं। हम सबके बच्चों ने पेड़ पर चढ़ना भी यहीं पर तो सीखा है।

अब शहर बड़ा हो गया, चारों ओर ऊँची इमारतें तन गईं, और उनके बीच श्रावणी मासीजी का बंगला पेड़ – पौधों से भरा हुआ खूब अच्छा दिखता है। कई बिल्डरों ने कई प्रलोभन दिए पर मासीजी का मन न ललचाया।

अब तीनों बेटे ब्याहे गए । घर में खूब हलचल है। बेटे भी सब पर्यावरण के क्षेत्र में काम करते हैं। पूरा परिवार प्रसन्न है।

अचानक सुनने में आया कि मासी जी के घर बछड़ा समेत एक सफ़ेद गाय लाई गई। गोठ बनाई गई , उसकी सेवा के लिए एक ग्वाला नियुक्त किया गया। अब हम सबको दही, घी, मट्ठ़े का भी प्रसाद मिलने लगा।

बार – बार सबके पूछने पर कि मासीजी को गाय खरीदने की जरूरत क्यों पड़ी भला! आज के आधुनिक युग में भी भला कोई गाय पालता है! कितनी गंदगी होगी, बुढ़ापे में काम बढ़ेगा कैसे संभालेंगी वे ये सब!

एक दिन श्रावणी मासी जी ने यह कहकर सबका मुँह बंद करवा दिया कि, अब तक आप सब आर्गेनिक सब्ज़ियों और फलों का आनंद लेते रहे । अब अपनी आनेवाली अगली पीढ़ी को भी शुद्ध दूध-दही,छाछ- मट्ठ़ा और घी- मक्खन खाकर पालेंगी।

आल आर्गेनिक थिंग्स। दूध भी आर्गेनिक,। हम सब मासीजी की बात पर हँस पड़े।

वे बोलीं, मेरी दो बहुएँ गर्भ से हैं। ये व्यवस्था उनके लिए है।आनेवाली पीढ़ी शुद्ध वस्तुओं के सेवन से स्वस्थ, ताकतवर बनेगी। इसकी शुरुआत मैं अब आनेवाले मेरे पोते-पोतियों से करती हूँ। श्रावणी मासी जी की दूरदृष्टि को सलाम।

मुझे महादेवी वर्मा जी की ‘ गौरा ‘ याद आ गई। जो किसी की ईर्ष्या का शिकार हो गई थी और तड़पकर मृत्यु मुखी हुई। और यहाँ आज एक गाय अपने बछड़े समेत खूब देख- भाल और सेवा पा  रही है। बछड़े का भी भविष्य उज्जवल है और आनेवाली पीढ़ी का भी। दोनों तंदरुस्त होंगे।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 281 ☆ कविता – कापी पेस्ट ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – कापी पेस्ट। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 280 ☆

? कविता – कापी पेस्ट ?

अब

मौलिक नया

कम,

 

ऊपर का नीचे

नीचे का पैरा ऊपर

पहला और अंतिम वाक्य

अपना

शीर्षक चटकारी

इसका उसमे

उससे इसमें

उनकी कविता

जाने किसके किसके

नाम

अपने नेरेटिव

स्थापित नामो के साथ

 

यदि एक दो

विदेशी भाषाएं

जानते हैं तब तो

पौ बारह

वरना अनुवाद भी सुलभ

 

विकिपीडिया

पुरानी किताबें हैं न

हर विषय पर

कापी पेस्ट

 

पुस्तकें ज्यादा

काम कम

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 192 – सुलोचना ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “सुलोचना ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 192 ☆

🌻 लघुकथा – सुलोचना 🌻

यही नाम था उस मासूम सी बिटिया का। माता-पिता की इकलौती संतान और सभी की दुलारी। मोहल्ले पड़ोस में सभी की आँखों का तारा। सुंदर नाक नक्श, रंग साँवला, पर नयन बला की सुन्दरता लिए पानीदार जैसे अभी बोल पड़े।

सुलोचना से सल्लों बनते देर नहीं लगी। समय और आज की दौर में छोटे-छोटे नामों का चलन।

बस सल्लों अपने आप में मस्त। सल्लों की बातें और समझदारी सभी को अच्छी लगती और सब उसे चाहते इसी बात को ध्यान में रखते हुए सुलोचना को चने की दाल बीनते – बीनते नैनों से अश्रुं धार बहने लगी ।

तभी सासु माँ ने जोर से आवाज लगाई। “अरी ओ! काली चना कुछ समझ में आया कि नहीं आज ही काम खत्म करना है। परंतु तुम्हारे भेजे में कुछ समाता ही नहीं है। काली चना जो ठहरी।”

इससे पहले की दर्द की दरिया बहे। ससुर जी पेपर के पन्ने पलटते कहने लगे… “अरे वो भाग्यवान! आओ तुम्हें बताता हूँ। काली चने के फायदे।”

” आज पेपर पर वही छपा है। तुम अनपढ़ को आज तक समझ नहीं आया कि गँवार फली को चाहे कितना भी विद्ववता से कोई बुलाए परंतु उसे गँवार फली ही कहा जाता है।

ज्ञानकली नहीं!!”

अपनी बाजी पलटते देखा सासु माँ ने समझ लिया कि अब यहाँ से खिसकने में ही भलाई है।

क्योंकि नाम उसका ज्ञान कली।

और वह अंगूठा छाप। सिर्फ मुँह चलाना जानती थी।

सुलोचना के आँसु कब कृतज्ञता के भाव में पिताजी के चरणों पर झुके और सुलोचना ने देखा कि दोनों हाथ पिताजी ने उसके सिर पर रखे हुए हैं। एक मजबूत सहारे की तरह। मैं हूँ न।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 83 – देश-परदेश – रिंकल्स अच्छे है! ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 83 ☆ देश-परदेश – रिंकल्स अच्छे है! ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में किसी वस्तु या अन्य पदार्थ के विज्ञापन की टैग लाइन जब प्रसिद्धि के उच्चतम शिखर पर पहुंच जाती है,तो लोग लंबे समय तक जनमानस के दिलों में अपना स्थान बना लेती हैं। “दाग अच्छे है” टैग लाइन भी उन प्रसिद्धि पा चुके में से एक हैं।

हमारे देश की सी एस आई आर जोकि एक वैज्ञानिक संस्था है,ने अपने कर्मचारियों का अव्वाहन किया है, कि प्रत्येक सोमवार के दिन वो बिना स्त्री(प्रेस) किए हुए वस्त्र पहनकर कार्बन की खपत में कटौती कर जन मानस को एक उदहारण प्रस्तुत कर जुगरूकता पैदा करें। हमारा देश विश्व के सबसे अधिक कार्बन खपत करने वाले देशों में अग्रणी हैं।

बचपन में हम पाठशाला गणवेश को सोते समय तकिए के नीचे या लोहे के संदूक के नीचे रखकर उसके रिंकल्स दूर कर लिया करते थे। धन के अपव्यय के साथ ही साथ कार्बन की खपत कम होती थी। बिजली से चलने वाली प्रेस सभी घरों में उपलब्ध है। आजकल एक नए प्रकार की स्टीम प्रेस भी आ गई है, जिसमें हैंगर पर टंगे हुए कपड़े भी प्रेस किए जा सकते हैं। प्रेस के कार्य में संलग्न धोबी आजकल जुगाड द्वारा एल पी जी गैस से भी कपड़े प्रेस करते हैं। कच्चे कोयले के उपगोग कर प्रेस का चलन कम हो गया हैं।

कपड़ो की सलवटे तो प्रेस से दूर हो जाती हैं। बिस्तर पर पड़ी हुई सलवटें, रात्रि नींद न आने पर करवट बदलने की गवाह बन जाती हैं। हमारे फिल्म वाले इस बात को अनेक गीतों के माध्यम से भुना चुके हैं।

कुछ समय पूर्व हमारे एक मित्र ने एक महंगी कमीज़ खरीदी थी, जिसकी वकालत विक्रेता ने ये कहकर की थी, ये “रिंकल फ्री” कमीज़ हैं। इसको प्रेस करने की आवश्यकता नहीं है, वो तो बाद में ज्ञात हुआ कि कमीज़ के साथ रिंकल्स फ्री में दिए जा रहे हैं।

कपड़े, बिस्तर आदि के रिंकल्स तो आप ठीक कर लेते हैं। हमारे जीवन के अंतिम पायदान के समय शरीर पर विकसित हो गई झुर्रियां शायद ये बयां करती हैं,” समय जिन  राजपथों से होकर गुजरता है, बोलचाल की भाषा में उन्हें ही झुर्रियां कहते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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