हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #227 ☆ भावना के दोहे – माँ जगदम्बे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे –  माँ जगदम्बे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 227 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे –  माँ जगदम्बे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

मां तुम जननी जगत की, करती जग उद्धार।

कृपा आपकी बरसती, मिलता प्यार अपार।।

*

दीप ज्ञान का जल रहा, लगता मां में ध्यान।

राह कठिन है मां करो, मेरा तुम कल्याण।।

*

ब्रह्मचारिणी मातु को, करते सभी प्रणाम।

नौ देवी की नवरात्रि, द्वितीय तेरे नाम।।

*

तप करती तपश्चारिणी, निर्जला निराहार।

हाथ जोड़कर पूजते, हो देवी अवतार।।

*

करना अंबे दया तुम, रखना मेरी लाज।

भाव भक्ति से कर रहे, माता तेरे काज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #209 ☆ बाल गीत – सबसे न्यारा उल्लू ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बाल गीत – सबसे न्यारा उल्लू ।आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 209 ☆

☆ बाल गीत – सबसे न्यारा उल्लू  ☆ श्री संतोष नेमा ☆

उल्लू    सबसे   न्यारा  है

जो लक्ष्मी का  दुलारा  है

उल्लू   सबसे    न्यारा  है

*

लगता  वो  भोला   भाला

रूप  जिसका  है  निराला

बाहन बन कर  लक्ष्मी का

लगता   सबको  प्यारा  है

*

रिपु ज्ञान  का इसे  समझो

हाथ दिखा कभी न उलझो

सबको   उल्लू  खूब   बना

फैलाते    अँधियारा      हैँ

*

पूजा   जो   इसकी  करता

वो  मति सब उसकी हरता

बोल कभी न भाते  इसके

चीख  के  उल्लू पुकारा  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय सातवा — ज्ञानविज्ञानयोग — (श्लोक १ ते १०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय सातवा — ज्ञानविज्ञानयोग — (श्लोक १ ते १०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

श्रीभगवानुवाच :

मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युंजन्मदाश्रय: ।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।१।।

कथिय श्री भगवंत 

ऐश्वर्या विभूती सामर्थ्य गुणांनी पार्था तू युक्त 

माझ्या ठायी अनन्य भावे मत्परायण तू भक्त

सकल जीवांचा आत्मरूप मी सर्वांचा प्राण

चित्त करुनी एकाग्र ऐकुनी स्वरूप माझे जाण ॥१॥

*

ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत: ।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।।२॥

*

अतिगहन हे ज्ञान सांगतो तुजला पूर्ण विश्वाचे

यानंतर ना काही  उरते ज्ञान जाणुनी घ्यायाचे ॥२॥

*

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत: ।।३।।

*

सहस्रातुनी एखादा असतो यत्न करी मम प्राप्तीचा

मत्परायण होउनी एखाद्या आकलन मम स्वरूपाचा ॥३॥

*

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।

अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।४।।

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।।५।।

*

पृथ्वी आप वायु अग्नी व्योम बुद्धी मन अहंकार

मम अपरा प्रकृतीचे हे तर असती  अष्ट प्रकार

सामग्र विश्व जिने धारिले जाण तिला अर्जुना

परा प्रकृती माझी तीच शाश्वत जाणावी चेतना ॥४,५॥

*

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।

अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभवः प्रलयस्तथा ।।६।।

*

उत्पत्ती समस्त जीवांची प्रकृतीतूनी या उभय

जगताचे मी कारण मूळ निर्माण असो वा प्रलय ॥६॥

*

मत्त: परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय ।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ।।७।।

*

जग माझ्यात ओवलेले सूत्रात ओवले मणि जैसे 

माझ्याविना यत्किंचितही जगात दुसरे काही नसे॥७॥

*

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो: ।

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु ।।८।।

*

हे कौंतेया जाणी मजला जलातील प्रवाह मी

चंद्राचे चांदणे मी तर  सूर्याचा प्रकाश मी

गगन घुमटाचा शब्द मी वेदांचा ॐकार मी

पुरुषांचे षुरुषत्व मी विश्वाचा तर या गुण मी ॥८॥

*

पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ।।९।।

*

पवित्र सुगंध मी वसुंधरेचा पावकाचे  तेज मी

सकल तपस्व्यांचे तप मी जीवसृष्टीचे जीवन मी ॥९॥

*

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।

बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।।१०।।

*

धनंजया हे भूतसृष्टीचे बीज जाण मज 

विद्वानांची मी प्रज्ञा मी तेजस्व्यांचे तेज ॥१०॥

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 1 – जूँ पुराण ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

परिचय 

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

जन्म विवरणः 28 जनवरी, 1981  – वाराणसी, उ.प्र.

शिक्षा :एम. ए. हिंदी (स्वर्ण पदक)  एम. ए. अंग्रेजी (स्वर्ण पदक)  एम. ए. शिक्षा  (डिस्टिंक्शन)  हिंदी शिक्षक प्रशिक्षण, आई.ए.एस.ई., हैदराबाद (स्वर्ण पदक)  स्नातकोत्तर अनुवाद डिप्लोमा (स्वर्ण पदक) केंद्रीय विश्वविद्यालय हैदराबाद  राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) उत्तीर्ण  एडवांस डिप्लोमा इन डेस्कटॉप पब्लिशिंग कोर्स (स्वर्ण पदक) एपी कंप्यूटर इंस्टीट्यूट – मानव संसाधन विकास मंत्रालय  पोस्ट.एम.ए. अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान डिप्लोमा – कें.हिं.सं. दिल्ली (स्वर्ण पदक)  आईसीटी प्रशिक्षण, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस, मुंबई से उत्तीर्ण (डिस्टिंक्शन)  अशोक वाजपेयी के काव्य में आधुनिकता बोध विषय पर पीएच.डी. उत्तीर्ण उस्मानिया विश्वविद्यालय हैदराबाद

प्रसिद्धीः

  • प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्यकार व कवि के रूप में
  • हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल की पुस्तक के प्रथम ऑनलाइन संपादक के रूप में
  • तेलंगाना सरकार की पाठशाला, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय स्तर की कुल 55 पुस्तकों में बतौर लेखक, संपादक तथा समन्वयक के रूप में
  • जमैका, त्रिनिदाद, सूरीनाम, मॉरीशस और सिंगापुर के लिए हिंदी पाठ्यपुस्तकों का लेखन

प्रकाशनः    

  • तेलंगाना गांधी के.सी.आर (कवि- कविता संग्रह)
  • सरल, सुगम, संक्षिप्त व्याकरण (लेखक – व्याकरण पुस्तक)
  • एक तिनका इक्यावन आँखें (लेखक – व्यंग्य संग्रह)
  • हिंदी भाषा के विविध आयामः वैश्विक परिदृश्य (संपादन)
  • हिंदी भाषा साहित्य के विविध आयाम (संपादन)
  • हिंदी साहित्य और संस्कृति के विविध आयाम (संपादन)
  • आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहासः आचार्य रामचंद्र शुक्ल (ऑनलाइन संपादन)
  • सबरंग में मेरे रंग (लेखक – पंजाब केसरी में प्रकाशित व्यंग्य माला)
  • सदाबहार पांडेयजी (सुपरिचित व्यंग्यकार लालित्य ललित के व्यंग्य संग्रह – संपादन)
  • दक्षिण भारत में प्राथमिक स्तर की हिंदी पाठ्यपुस्तकों का एक गहन अध्ययन (संपादन)
  • शिक्षा के केंद्र में बच्चे (लेखन)
  • एनसीईआरटी श्राव्य आलेख (लेखन – एनसीईआरटी की ऑडियो-पुस्तक)
  • नन्हों का सृजन आसमान (लेखन – बाल साहित्य की पुस्तक)
  • म्यान एक तलवार अनेक (लेखक – व्यंग्य संग्रह)
  • इधर-उधर के बीच में (लेखक – व्यंग्य उपन्यास)

व्यंग्यकार : शिक्षक की मौत शीर्षकीय व्यंग्य से अब तक के सबसे ज्यादा पढ़े, देखे और सुने गए व्यंग्यकार के रूप में कीर्तिमान स्थापित किया है। आज तक समाचार चैनल में मात्र चार दिनों के भीतर इस व्यंग्य को पाँच लाख श्रोताओं-पाठकों का प्रेम मिला है, जो अब तक के किसी भी व्यंग्यकार से अधिक पढ़ा और सुना गया है।

देश विदेश के प्रसिद्ध समाचार पत्रों (बीबीसी, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी, जनसत्ता, हिंदुस्तान, अमर उजाला, के साथ-साथ देश-विदेश के अनेकों समाचार पत्रो में अब तक एक हजार व्यंग्य प्रकाशित

ऑनलाइन संप्रतिः   

  • विश्व हिंदी सचिवालय (भारत और मॉरीशस सरकार के अधीन कार्य करने वाली हिंदी की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकारी संस्था) – http://www.vishwahindidb.com/show_scholar.aspx?id=695
  • भारतदर्शन – https://bharatdarshan.co.nz/author-profile/240/dr-suresh-kumar-mishra.html
  • साहित्य कुंज – https://m.sahityakunj.net/lekhak/suresh-kumar-mishra-urtript
  • कविताकोश – kavitakosh.org/kk/सुरेश_कुमार_मिश्रा%27उरतृप्त%27
  • गद्यकोश – gadyakosh.org/kk/सुरेश_कुमार_मिश्रा%27उरतृप्त%27
  • विकिपीडिया – https://hi.wikipedia.org/s/24vq
  • विकिपुस्तक – https://hi.wikibooks.org/wiki/हिंदी साहित्य का विधागत इतिहास/हिन्दी व्यंग्य का इतिहास
  • कविताशाला – https://kavishala.com/nayaSahitya/do-suresa-kumara-misra-uratrpta/kitabom-ki-antima-yatra

पुरस्कार व सम्मानः 

  • स्वर्ण जन्मभूमि पुरस्कार (मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायुडु) – 2002
  • राज्य स्तरीय श्रेष्ठ पाठ्यपुस्तक लेखक पुरस्कार – 2013 (आंध्र प्रदेश, भारत, मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी)
  • राज्य स्तरीय श्रेष्ठ पाठ्यपुस्तक लेखक, संपादक व समन्वयक पुरस्कार – 2014 (तेलंगाना, भारत, मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव)
  • राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार (म. ते. संगठन, भारत सरकार) – 2015
  • तेलंगाना गांधी के.सी.आर. काव्य ग्रंथ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार (केरल सरकार) – 2015
  • राष्ट्रीय दलित साहित्य पुरस्कार (केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान) – 2016
  • विश्व हिंदी अकादमी का श्रेष्ठ लेखक पुरस्कार (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से)– 2020
  • प्रभासाक्षी का राष्ट्रीय हिंदी सेवा सम्मान (पूर्व स्पीकर नज्मा हेफ्तुल्ला के करकमलों से) – 2020
  • इंडियन बेस्टीज़ अवार्ड-2021 सम्मान, (राजस्थान के परिवहन मंत्री श्री प्रताप खचारवसिया के करकमलों से) एनआरबी फाउंडेशन, जयपुर
  • हिंदी अकादमी, मुंबई द्वारा नवयुवा रचनाकार सम्मान, (महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशयारी के करकमलों से) 2021
  • तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से)
  • व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान, 2021 – (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से)
  • साहित्य सृजन सम्मान-2020 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से

ई-अभिव्यक्ति में डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी का स्वागत। आज से आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी प्रथम व्यंग्य रचना जूँ पुराण)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 1 – जूँ पुराणडॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

जूँ पुराण आरंभ करने से पहले दुनिया के समस्त जुँओं को मैं प्रणाम करता हूँ। मुझे नहीं लगता कि लेख समाप्त होने-होने तक वे मुझे बख्शेंगे। आज मैं उनसे जुड़े कई रहस्य की परतें खोलने वाला हूँ। जैसा कि सभी जानते हैं कि हम सब समाज पर निर्भर प्राणी हैं। हम जितना दुनिया के संसाधनों का हरण करते हैं, शायद ही कोई करता हो। किंतु इस मामले में जुँओं की दाद देनी पड़ेगी। वे हमसे भी ज्यादा पराश्रित हैं। जिस तरह हमारे लिए हमारा सिर महत्वपूर्ण होता है, ठीक उसी तरह हमारा सिर जुँओं के लिए जरूरी होता है। वे हमेशा हमारे साथ रहते हैं। हमारा साथ नहीं छोड़ते। सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते, खेलते-कूदते, पढ़ते-लिखते, सिनेमा देखते चाहे जहाँ चले जाएँ हम, वे हमें बख्शने वाले नहीं हैं। जुँओं को हमारे वैध-अवैध संबंध, शराब-सिगरेट की लत, पसंद-नापसंद जैसी सारी बातें पता होती हैं। यदि उन्हें खुफिया एजेंसी में नौकरी मिल जाए तो कइयों की जिंदगी पल में तबाह कर सकते हैं। इसीलिए ‘ये दोस्ती हम नहीं तोडेंगे, तोडेंगे दम मगर तेरा साथ न छोड़ेंगे’ की तर्ज पर हमारे साथ चिपके रहते हैं। वे इतने बेशर्म, बेहया, बेगैरत होते हैं कि हम उन्हें जितना भगाने की कोशिश करेंगे वे उतना ही हमसे चिपके रहने का प्रयास करेंगे। बड़े ही ‘चिपकू’ किस्म के होते हैं।

जूँ बड़े आदर्शवान होते हैं। उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। वे बड़े मेहनती होते हैं। वे हमारी तरह ईर्ष्यालु अथवा झगड़ालु नहीं होते। वे अत्यंत मिलनसार तथा भाई-चारा का संदेश देने वाले महान प्राणी होते हैं। इस सृष्टि की रचना के आरंभ से उनका और हमारा साथ फेविक्विक से भी ज्यादा मजबूत है। वे जिनके भी सिर को अपना आशियाना बना लेते हैं, उसे मंदिर की तरह पूजते हैं। ‘तुम ही मेरे मंदिर, तुम ही मेरी पूजा, तुम ही देवता हो’ की तर्ज पर हमारी खोपड़ी की पूजा तन-मन से करते हैं। जुँएँ बाहुबली की तरह शक्तिशाली होते हैं। उनकी पकड़ अद्वितीय है। उनकी चाल-ढाल और गतिशीलता बिजली की भांति तेज होती है। हम तो उनके सामने फेल हैं। पलक झपकते ही सिर में ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे उनके पंख लगे हों। वे बड़े संघर्षशील तथा अस्तित्वप्रिय होते हैं। वे हमारी तरह डरपोक नहीं होते। बड़ी-बड़ी मुसीबतों का सामना हँसते-हँसते करते हैं। वे धूप, बरसात, आंधी, बाढ़ सबका सामना ‘खड़ा हिमालय बता रहा है, डरो न आंधी पानी में, खड़े रहो तुम अविचल होकर, सब संकट तूफानी में’ की तर्ज पर करते हैं। किसी की मजाल जो उन्हें भगा दें। जब तक उनके बारे में खोपड़ी वाले को पता न चले, तब तक वे बाहर नहीं निकलते। बेचारे अपने सभी काम उस छोटी सी खोपड़ी पर करते हैं। कभी जगह की कमी की शिकायत नहीं करते। जो मिला उसे भगवान की देन मानकर उसी में अपना सब कुछ लगा देते हैं। स्थान और समय प्रबंधन के महागुरु हैं। हमारे नहाने के साथ वे नहा लेते हैं। त्यौहार का दिन हो तो उनका जीना मुश्किल हो जाता है। उस दिन शैंपू, हेयर क्लीनर के नाम पर न जाने कितने रासायनिक पदार्थों का सामना करते हैं। फिर भी जुँएँ संघर्ष का परचम फहराने से नहीं चूकते। ये सब तो उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है। उनकी शामत तो सिर पर तौलिया रगड़ने से आती है। जैसे-तैसे प्राण बचाने में सफल हो जाते हैं। हेयर ड्रायर की जोरदार गर्म हवा से इनके शरीर का तापमान गरमा जाता है और अपनों से बिछुड़ जाते हैं। फिर भी अपने आत्मविश्वास में रत्ती भर का फर्क नहीं आने देते। आए दिन उन पर खुजलाने के नाम पर, कंघी के नाम पर हमले होते ही रहते हैं। सबका डटकर सामना करते हैं। यदि वे हमारे हत्थे चढ़ भी जाते हैं, तो नाखूनों की वेदी पर हँसते-हँसते ‘कर चले हम फिदा जानो-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले ये ‘सिर’ साथियों’ की तर्ज पर प्राण त्याग देते हैं।

वैसे जुँओं से नुकसान ही क्या है? केवल खुजली ही तो पैदा करते हैं। इस एक अपराध को छोड़ दें तो वे बड़े भोले-भाले होते हैं। वे इतने शांतप्रिय होते हैं कि उनके होने का आभास भी नहीं होता। उनके इसी गुण के कारण ‘कान पर जूँ न रेंगना’ मुहावरे की उत्पत्ति हुई है। वे हमारा थोड़ा-सा खून ही तो पीते हैं। भ्रष्टाचार, धांधली, धोखाधड़ी, लूटखोरी, कालाबाजारी के नाम पर चूसे जाने वाले खून की तुलना में यह बहुत कम है। जुँएँ अपने स्वास्थ्य व रूप से बड़े आकर्षक होते हैं। हम खाने को तो बहुत कुछ खा लेते हैं और तोंद निकलने पर व्यायाम करने से कतराते हैं। इस मामले में जुँएँ बड़े चुस्त-दुरुस्त और स्लिम होते हैं। वास्कोडिगामा ने भारत की खोज क्या कर दी उसकी तारीफ के पुल बाँधते हम नहीं थकते। जबकि जुँएँ एक सिर से दूसरे सिर, दूसरे सिर से तीसरे और न जाने कितने सिरों की खोज कर लेते हैं। वे वास्कोडिगामा जैसे यात्रियों को यूँ मात देते दिखायी देते हैं। वे तो ऐसे उड़न छू हो जाते हैं जैसे सरकार ने गब्बर पर नहीं इन पर इनाम रखा हो।

सरकार नौकरी दे या न दे, किंतु जुँएँ कइयों को रोजगार देते हैं। इन्हें मारने के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियाँ टी.वी., समाचार पत्रों, सामाजिक माध्यमों में आए दिन प्रचार-प्रसार करते रहते हैं। इनके नाम पर करोड़ों-अरबों रुपयों का तेल, शैंपू, साबून, रासायनिक पदार्थ, हेयर ड्रायर लुभावने ढंग से बेचे जाते हैं। यदि उनकी उपस्थिति न हो तो कई कंपनियाँ रातोंरात बंद हो जाएँगी, सेंसेक्स मुँह के बल गिर जाएगा और हम नौकरी गंवाकर बीवी-बच्चों के साथ दर-दर की ठोकर खाते नजर आएँगे। उनकी बदौलत कई परिवार रोटी, कपड़ा और मकान का इंतजाम कर पाते हैं। इसलिए हमें उनके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए।

हमने अपने अस्तित्व के लिए पर्यावरण की हत्या की। आज भी बदस्तूर जारी है। असंख्य प्राणियों की विलुप्तता का कारण बने। हमारे जैसा स्वार्थी प्राणी शायद ही दुनिया में कोई हो। इतना होने पर भी सृष्टि के आरंभ से लेकर अब तक जुँएँ ‘अभी मैं जिंदा हूँ’ की तर्ज पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हुए हैं। उनकी संघर्ष भावना के सामने नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकते। कई बातों में वे हमसे श्रेष्ठ हैं। वे बड़े निस्वार्थ तथा अपनी कौम के लिए हँसते-हँसते जान गंवाने के लिए तैयार रहते हैं। वे हमारी तरह जात-पात, लिंग, धर्म, भाषा के नाम पर बिल्कुल नहीं लड़ते। उनके लिए ‘जूँ’ बने रहना बड़े गर्व की बात होती है और एक हम हैं जो इंसान छोड़कर सब बनने के लिए लड़ते-झगड़ते रहते हैं। उनके गुणों की प्रशंसा की जाए तो कागज और स्याही की कमी पड़ जाएगी। इसलिए उनसे बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। विशेषकर उनके ‘जूँ’ बने रहने की तर्ज पर हमारा ‘इंसान’ बने रहने की सीख।जूँ पुराण आरंभ करने से पहले दुनिया के समस्त जुँओं को मैं प्रणाम करता हूँ। मुझे नहीं लगता कि लेख समाप्त होने-होने तक वे मुझे बख्शेंगे। आज मैं उनसे जुड़े कई रहस्य की परतें खोलने वाला हूँ। जैसा कि सभी जानते हैं कि हम सब समाज पर निर्भर प्राणी हैं। हम जितना दुनिया के संसाधनों का हरण करते हैं, शायद ही कोई करता हो। किंतु इस मामले में जुँओं की दाद देनी पड़ेगी। वे हमसे भी ज्यादा पराश्रित हैं। जिस तरह हमारे लिए हमारा सिर महत्वपूर्ण होता है, ठीक उसी तरह हमारा सिर जुँओं के लिए जरूरी होता है। वे हमेशा हमारे साथ रहते हैं। हमारा साथ नहीं छोड़ते। सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते, खेलते-कूदते, पढ़ते-लिखते, सिनेमा देखते चाहे जहाँ चले जाएँ हम, वे हमें बख्शने वाले नहीं हैं। जुँओं को हमारे वैध-अवैध संबंध, शराब-सिगरेट की लत, पसंद-नापसंद जैसी सारी बातें पता होती हैं। यदि उन्हें खुफिया एजेंसी में नौकरी मिल जाए तो कइयों की जिंदगी पल में तबाह कर सकते हैं। इसीलिए ‘ये दोस्ती हम नहीं तोडेंगे, तोडेंगे दम मगर तेरा साथ न छोड़ेंगे’ की तर्ज पर हमारे साथ चिपके रहते हैं। वे इतने बेशर्म, बेहया, बेगैरत होते हैं कि हम उन्हें जितना भगाने की कोशिश करेंगे वे उतना ही हमसे चिपके रहने का प्रयास करेंगे। बड़े ही ‘चिपकू’ किस्म के होते हैं।

जूँ बड़े आदर्शवान होते हैं। उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। वे बड़े मेहनती होते हैं। वे हमारी तरह ईर्ष्यालु अथवा झगड़ालु नहीं होते। वे अत्यंत मिलनसार तथा भाई-चारा का संदेश देने वाले महान प्राणी होते हैं। इस सृष्टि की रचना के आरंभ से उनका और हमारा साथ फेविक्विक से भी ज्यादा मजबूत है। वे जिनके भी सिर को अपना आशियाना बना लेते हैं, उसे मंदिर की तरह पूजते हैं। ‘तुम ही मेरे मंदिर, तुम ही मेरी पूजा, तुम ही देवता हो’ की तर्ज पर हमारी खोपड़ी की पूजा तन-मन से करते हैं। जुँएँ बाहुबली की तरह शक्तिशाली होते हैं। उनकी पकड़ अद्वितीय है। उनकी चाल-ढाल और गतिशीलता बिजली की भांति तेज होती है। हम तो उनके सामने फेल हैं। पलक झपकते ही सिर में ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे उनके पंख लगे हों। वे बड़े संघर्षशील तथा अस्तित्वप्रिय होते हैं। वे हमारी तरह डरपोक नहीं होते। बड़ी-बड़ी मुसीबतों का सामना हँसते-हँसते करते हैं। वे धूप, बरसात, आंधी, बाढ़ सबका सामना ‘खड़ा हिमालय बता रहा है, डरो न आंधी पानी में, खड़े रहो तुम अविचल होकर, सब संकट तूफानी में’ की तर्ज पर करते हैं। किसी की मजाल जो उन्हें भगा दें। जब तक उनके बारे में खोपड़ी वाले को पता न चले, तब तक वे बाहर नहीं निकलते। बेचारे अपने सभी काम उस छोटी सी खोपड़ी पर करते हैं। कभी जगह की कमी की शिकायत नहीं करते। जो मिला उसे भगवान की देन मानकर उसी में अपना सब कुछ लगा देते हैं। स्थान और समय प्रबंधन के महागुरु हैं। हमारे नहाने के साथ वे नहा लेते हैं। त्यौहार का दिन हो तो उनका जीना मुश्किल हो जाता है। उस दिन शैंपू, हेयर क्लीनर के नाम पर न जाने कितने रासायनिक पदार्थों का सामना करते हैं। फिर भी जुँएँ संघर्ष का परचम फहराने से नहीं चूकते। ये सब तो उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है। उनकी शामत तो सिर पर तौलिया रगड़ने से आती है। जैसे-तैसे प्राण बचाने में सफल हो जाते हैं। हेयर ड्रायर की जोरदार गर्म हवा से इनके शरीर का तापमान गरमा जाता है और अपनों से बिछुड़ जाते हैं। फिर भी अपने आत्मविश्वास में रत्ती भर का फर्क नहीं आने देते। आए दिन उन पर खुजलाने के नाम पर, कंघी के नाम पर हमले होते ही रहते हैं। सबका डटकर सामना करते हैं। यदि वे हमारे हत्थे चढ़ भी जाते हैं, तो नाखूनों की वेदी पर हँसते-हँसते ‘कर चले हम फिदा जानो-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले ये ‘सिर’ साथियों’ की तर्ज पर प्राण त्याग देते हैं।

वैसे जुँओं से नुकसान ही क्या है? केवल खुजली ही तो पैदा करते हैं। इस एक अपराध को छोड़ दें तो वे बड़े भोले-भाले होते हैं। वे इतने शांतप्रिय होते हैं कि उनके होने का आभास भी नहीं होता। उनके इसी गुण के कारण ‘कान पर जूँ न रेंगना’ मुहावरे की उत्पत्ति हुई है। वे हमारा थोड़ा-सा खून ही तो पीते हैं। भ्रष्टाचार, धांधली, धोखाधड़ी, लूटखोरी, कालाबाजारी के नाम पर चूसे जाने वाले खून की तुलना में यह बहुत कम है। जुँएँ अपने स्वास्थ्य व रूप से बड़े आकर्षक होते हैं। हम खाने को तो बहुत कुछ खा लेते हैं और तोंद निकलने पर व्यायाम करने से कतराते हैं। इस मामले में जुँएँ बड़े चुस्त-दुरुस्त और स्लिम होते हैं। वास्कोडिगामा ने भारत की खोज क्या कर दी उसकी तारीफ के पुल बाँधते हम नहीं थकते। जबकि जुँएँ एक सिर से दूसरे सिर, दूसरे सिर से तीसरे और न जाने कितने सिरों की खोज कर लेते हैं। वे वास्कोडिगामा जैसे यात्रियों को यूँ मात देते दिखायी देते हैं। वे तो ऐसे उड़न छू हो जाते हैं जैसे सरकार ने गब्बर पर नहीं इन पर इनाम रखा हो।

सरकार नौकरी दे या न दे, किंतु जुँएँ कइयों को रोजगार देते हैं। इन्हें मारने के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियाँ टी.वी., समाचार पत्रों, सामाजिक माध्यमों में आए दिन प्रचार-प्रसार करते रहते हैं। इनके नाम पर करोड़ों-अरबों रुपयों का तेल, शैंपू, साबून, रासायनिक पदार्थ, हेयर ड्रायर लुभावने ढंग से बेचे जाते हैं। यदि उनकी उपस्थिति न हो तो कई कंपनियाँ रातोंरात बंद हो जाएँगी, सेंसेक्स मुँह के बल गिर जाएगा और हम नौकरी गंवाकर बीवी-बच्चों के साथ दर-दर की ठोकर खाते नजर आएँगे। उनकी बदौलत कई परिवार रोटी, कपड़ा और मकान का इंतजाम कर पाते हैं। इसलिए हमें उनके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए।

हमने अपने अस्तित्व के लिए पर्यावरण की हत्या की। आज भी बदस्तूर जारी है। असंख्य प्राणियों की विलुप्तता का कारण बने। हमारे जैसा स्वार्थी प्राणी शायद ही दुनिया में कोई हो। इतना होने पर भी सृष्टि के आरंभ से लेकर अब तक जुँएँ ‘अभी मैं जिंदा हूँ’ की तर्ज पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हुए हैं। उनकी संघर्ष भावना के सामने नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकते। कई बातों में वे हमसे श्रेष्ठ हैं। वे बड़े निस्वार्थ तथा अपनी कौम के लिए हँसते-हँसते जान गंवाने के लिए तैयार रहते हैं। वे हमारी तरह जात-पात, लिंग, धर्म, भाषा के नाम पर बिल्कुल नहीं लड़ते। उनके लिए ‘जूँ’ बने रहना बड़े गर्व की बात होती है और एक हम हैं जो इंसान छोड़कर सब बनने के लिए लड़ते-झगड़ते रहते हैं। उनके गुणों की प्रशंसा की जाए तो कागज और स्याही की कमी पड़ जाएगी। इसलिए उनसे बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। विशेषकर उनके ‘जूँ’ बने रहने की तर्ज पर हमारा ‘इंसान’ बने रहने की सीख।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 190 ☆ छिन्न पात्र ले कंपित कर में… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना छिन्न पात्र ले कंपित कर में। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 190 ☆ छिन्न पात्र ले कंपित कर में

वैचारिक क्रांति के बहाने, मीठे सुर ताल में, कड़वे बोल, लयबद्ध तरीके से, लोकभाषा की आड़ में बोलने पर तकनीकी लाभ भले हो पर आत्म सम्मान नहीं मिलेगा। लोग देखेंगे, सुनेंगे पर मन ही मन ऐसी ओछी हरकत पर कोसेंगे। जिस डाल पर बैठें हों, उसे काटना कहाँ की समझदारी है।

जब बात अच्छी शिक्षा हो तो ऐसे लोगों के आसपास रहने वालों से भी दूर हो जाना चाहिए।ये पहले घर पर ही माचिस लगाते हैं उसके बाद दाना पानी, चूल्हा चौका सब बंद करवा कर रोजी रोटी पर हाथ साफ करते हैं। इनके शुभचिंतक बेरोजगारी का दामन थामें, पिछलग्गू बनकर इन्हें गाड़ी में बिठाकर इधर से उधर पहुँचाते हैं। भीड़तंत्र का मतलब ये नहीं है कि आप लोकतंत्र को चुनौती दे पाएंगे, आज भी सच्चाई, धर्म की शक्ति, आस्थावान लोग, न्यायप्रियता के साथ भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। जोड़तोड़ के बल पर असत्य की राह पकड़कर, कमजोर के सहारे हार को ही वरण किया जा सकता है। जब तक श्रेष्ठ मार्गदर्शक न हो तब तक मंजिल नहीं मिलेगी। कभी कुछ कभी कुछ करते हुए बस टाइमपास हो सकता है। जैसी संगत वैसी रंगत,सब असहाय साथ होने से कोई सहाय नहीं होगा। एक दूसरे को डुबा -डुबा कर चलते रहिए, जो तैरना जानते हैं वे किनारे पकड़ कर मनपसंद तट पर जा पहुँचेगे बाकी तो हो हल्ला करते हुए दोषारोपण करेंगे और करवाने के लिए बिना दिमाग़ के कमजोर लोगों को इकट्ठा करके करवाएंगे।

आप की आस्था किसके साथ है ये तो आने वाला वक्त तय करेगा। अभी समय है, सत्य के साथ जुड़िए क्योंकि हर युग में जीत केवल धर्म की होती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 274 ☆ आलेख – भगत सिंह की राह के ही राही उधमसिंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख भगत सिंह की राह के ही राही उधमसिंग। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 274 ☆

? आलेख – भगत सिंह की राह के ही राही उधमसिंग ?

उधमसिंग और भगत सिंह में अद्भुत साम्य था. जो कार्य देश में भगत सिंह कर रहे थे उधमसिंग देश से बाहर वही काम कर रहे थे.

13 मार्च 1940 की उस शाम लंदन का कैक्सटन हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था. मौका था ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक का. हॉल में बैठे कई भारतीयों में एक ऐसा भी था जिसके ओवरकोट में एक मोटी किताब थी. यह किताब एक खास मकसद के साथ यहां लाई गई थी. इसके भीतर के पन्नों को चतुराई से काटकर इसमें एक रिवॉल्वर रख दिया गया था.

बैठक खत्म हुई. सब लोग अपनी-अपनी जगह से उठकर जाने लगे. इसी दौरान इस भारतीय ने वह किताब खोली और रिवॉल्वर निकालकर बैठक के वक्ताओं में से एक माइकल ओ’ ड्वायर पर फायर कर दिया. ड्वॉयर को दो गोलियां लगीं और पंजाब के इस पूर्व गवर्नर की मौके पर ही मौत हो गई. हाल में भगदड़ मच गई. लेकिन इस भारतीय ने भागने की कोशिश नहीं की. उसे गिरफ्तार कर लिया गया. ब्रिटेन में ही उस पर मुकदमा चला और 31 जुलाई 1940 को उसे फांसी हो गई. इस क्रांतिकारी का नाम उधम सिंह था.  

भरी सभा चलाई गई  इस गोली के पीछे अमृतसर के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर के बाजू में जलियांवाला बाग के बंद मैदान में किया गया गोलीकांड था. यह गोलीकांड 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुआ था. इस दिन अंग्रेज जनरल रेजिनाल्ड एडवार्ड हैरी डायर के हुक्म पर इस बाग में इकट्ठा हुए हजारों लोगों पर गोलियों की बारिश कर दी गई थी.  ड्वॉयर के पास तब पंजाब के गवर्नर का पद था और उसने जनरल डायर की कार्रवाई का समर्थन किया था. मिलते-जुलते नाम के कारण बहुत से लोग मानते हैं कि उधम सिंह ने जनरल डायर को मारा. लेकिन ऐसा नहीं था. इस गोलीकांड को अंजाम देने वाले जनरल डायर की 1927 में ही लकवे और कई दूसरी बीमारियों की वजह से मौत हो चुकी थी.

जलियांवाला बाग  एक बंद मैदान है  जहाँ से बाहर जाने का एक ही संकरा मार्ग  है, उस पर जनरल डायर की पोलिस जमी हुई थी. घिरे हुये लोगो का वह दिल दहला देने वाला हत्याकाण्ड उधमसिंह ने बेबस एक कोने में दुबके हुये स्वयं देखा था.   तभी उन्होंने ठान लिया था कि इस नरसंहार का बदला लेना है. उधमसिंह भगत सिंह से बहुत प्रभावित थे. दोनों दोस्त भी थे.  भगत सिंह से उनकी पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी. दोनों क्रांतिकारियों की कहानी में बहुत दिलचस्प समानताएं  हैं.  दोनों पंजाब से थे. दोनों ही नास्तिक थे. दोनों हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे. दोनों की जिंदगी की दिशा तय करने में जलियांवाला बाग कांड की बड़ी भूमिका रही. दोनों को लगभग एक जैसे मामले में सजा हुई. जहाँ स्काट की जगह भगत सिंह ने साण्डर्स पर सरे राह गोली चलाई वहीं मुझे जनरल डायर की जगह  ड्वायर को निशाना बनाना पड़ा, क्योकि डायर की पहले ही मौत हो चुकी थी. भगत सिंह की तरह उधमसिंह ने भी फांसी से पहले कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ने से इनकार कर दिया था. उधमसिंह भी सर्व धर्म समभाव में यकीन करते थे. इसीलिए उधमसिंह  अपना नाम  मोहम्मद आज़ाद सिंह लिखा करते थे . उन्होंने यह नाम अपनी कलाई पर भी गुदवा लिया था.

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #42 ☆ कविता – “मुर्शिद…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 42 ☆

☆ कविता ☆ “मुर्शिद…☆ श्री आशिष मुळे ☆

मुर्शिद तुमने जाग़ जगाई

आंख में मेरे जान जो आई

रातों की अब नींद गवाई

तुमने एहसास की आग लगाई

मुर्शिद तुमने जाग़ जगाई

इश्क़ की ये आंधी उठाई

नहीं लगता जब दुश्मन कोई

कैसी अजब ये जीत दिलाई

 *

मुर्शिद तुमने जाग़ जगाई

जैसे सियाही ये पिघलाई

लफ़्ज़ों की हद तूने मिटाई

अनहद गवाही ये गुंजाई

 *

मुर्शिद तुमने जाग़ जगाई

रौशन शब अब दे दुहाई

था अंधेरा बड़ा जाहिली

अल-क़मर तूने रात सजाई

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 336 ⇒ पंखों में हवा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंखों में हवा।)

?अभी अभी # 336 ⇒ पंखों में हवा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मेरे घर में पंखे हैं, वे मुझे हवा देते हैं। पक्षियों के पंख होते हैं, जिनके कारण वे हवा में उड़ते हैं। मेरे घर के पंखों और पंछियों के पंखों में हवा कौन भरता है, मैने कभी गौर नहीं किया। लेकिन जब अचानक रात के दो बजे के बाद मेरे घर के पंखों ने हवा देना कम कर दिया तो मुझे यही लगा, शायद पंखों की हवा की गारंटी खत्म हो गई है।

होता है, जब रसोई गैस की गैस खत्म हो जाती है, तो सिलेंडर खाली हो जाता है। वैसे भी भरे हुए की ही गारंटी होती है, खाली की क्या गारंटी।।

मेरे घर में एसी कूलर की सुविधा नहीं, बस कमरों में सीलिंग फैन लगे हैं। जब तक बिजली रहती है, घर में रोशनी भी रहती है, और टीवी, पंखा भी चलता रहता है। जहां बार बार बिजली जाती है, वहां लोग इन्वर्टर और जनरेटर की व्यवस्था कर लेते हैं। मैं तो पूरी तरह बिजली आपूर्ति पर ही आश्रित हूं।

लगता है, बिजली का दबाव कम है, लो वोल्टेज है, लाइट भी जल तो रही है, लेकिन रोशनी में दम नहीं है। पंखे इतने तेज चल रहे हैं, कि आप गिन लो, पंखों में कितनी ब्लेड है। ऐसा लगता है किसी ने उनकी हवा निकाल ली है।।

अब तक साइकिल, स्कूटर और कार के पहियों की हवा तो निकलते देखी थी, अब तो पंखों में भी हवा कम होने लग गई है। लगता है, पंखों में भी हवा भरवानी पड़ेगी। इतनी हवा से तो बदन का पसीना भी नहीं सूखता। जितना पसीना आता है, उतना गला सूखता है, और शरीर उतना ही पानी मांगता है और उतनी ही हवा भी।

उधर चुनाव की गर्मी और इधर पानी का अभाव शुरू। रात से ही हमारी मल्टी में पानी का टैंकर आना शुरू हो गया है। एकमात्र पंखा ही तो सहारा है, रात को चैन की नींद सोने का। एकाएक वही हुआ, जिसका अंदेशा था, लाइट पूरी चली गई। और अभी अभी अधूरा ही रह गया आज का।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #165 – बाल कहानी – कलम की पूजा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक बाल कहानी – कलम की पूजा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 165 ☆

बाल कहानी – कलम की पूजा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

 श्रेया ने जब घर कदम रखा तो अपनी मम्मी से पूछा, “मम्मीजी! एक बात बताइए ना?” कहते हुए वह मम्मी के गले से लिपट गई।

“क्या बात है?” श्रेया मम्मी ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हो पूछा, “आखिर तुम क्या पूछना चाहती हो?”

“यही कि गुरुजी अपनी कलम की पूजा बसंत पंचमी को क्यों करते हैं?” श्रेया ने पूछा तो उसकी मम्मी ने जवाब दिया, “यह भारतीय संस्कृति और परंपरा है जिस चीज का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है हम उस को सम्मान देने के लिए उसकी पूजा करते हैं।

“इससे उस उपयोगी चीज के प्रति हमारे मन में अगाध प्रेम पैदा होता है तथा हम उसका बेहतर उपयोग कर पाते हैं।”

“मगर बसंत पंचमी को ही कलम की पूजा क्यों की जाती है?” श्रेया ने पूछा।

“इसका अपना कारण और अपनी कहानी है,” मम्मी ने कहा, “क्या तुम वह कहानी सुनना चाहोगी?”

“हां!” श्रेया बोली, “सुनाइए ना वह कहानी।”

“तो सुनो,” उसकी मम्मी ने कहना शुरू किया, “बहुत पहले की बात है। जब सृष्टि की संरचना का कार्य ब्रह्माजी ने शुरू किया था। उस समय ब्रह्माजी ने मनुष्य का निर्माण कर लिया था।”

“जी।” श्रेया ने कहां।

“उस वक्त सृष्टि में सन्नाटा पसरा हुआ था,” मम्मीजी ने कहना जारी रखा, “तब ब्रह्माजी को सृष्टि में कुछ-कुछ अधूरापन लगा। हर चीज मौन थीं। पानी में कल-कल की ध्वनि नहीं थी।

“हवा बिल्कुल शांति थीं। उसमें साए-साए की ध्वनि नहीं थी। मनुष्य बोलना नहीं जानता था। इसलिए ब्रह्माजी ने सोचा कि इस सन्नाटे को खत्म करना चाहिए।

“तब उन्होंने अपने कमंडल से जल निकालकर छिटका। तब एक देवी की उत्पत्ति हुई। यह देवी अपने एक हाथ में वीणा और दूसरे हाथ में पुस्तक व माला लेकर उत्पन्न हुई थी।

” इस देवी को ब्रह्माजी की मानस पुत्री कहा गया। इसका नाम था सरस्वती देवी। उन्होंने ब्रह्माजी की आज्ञा से वीणा वादन किया।”

“फिर क्या हुआ मम्मीजी,” श्रेया ने पूछा।

“होना क्या था?” मम्मीजी ने कहा, “वीणा वादन से धरती में कंपन हुआ। मनुष्य को स्वर यानी- वाणी मिली। जल को कल-कल का स्वर मिला। यानी पूरा वातावरण से सन्नाटा गायब हो गया।”

“अच्छा!”

“हां,” मम्मीजी ने कहा, “इसी वीणा वादन की वर्ण लहरी से बुद्धि की देवी का वास मानव तन में हुआ। जिससे बुद्धि की देवी सरस्वती पुस्तक के साथ-साथ मानव तन-मन में समाहित हो गई।”

“वाह! यह तो मजेदार कहानी है।”

“हां। इसी वजह से माघ पंचमी के दिन सरस्वती जयंती के रुप में हम बसंत पंचमी का त्यौहार मनाते हैं,” मम्मी ने कहा, “इस वक्त का मौसम सुहावना होता है। ना गर्मी,  ना ठंडी और ना बरसात का समय होता है। प्रकृति अपने पूरे निखार पर होती है।

“फसल पककर घर में आ चुकी होती है। हम धनधान्य से परिपूर्ण हो जाते हैं। इस कारण इस दिन बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की पूजा करके इसे धूमधाम से मनाते हैं।

“चूंकि शिक्षक का काम शिक्षा देना होता है। वे सरस्वती के उपासक होते हैं। इस कारण कलम की पूजा करते हैं,” मम्मी ने कहा।

“तब तो हमें भी कलम की पूजा करना चाहिए।” श्रेया ने कहा, “हम भी विद्यार्थी हैं। हमें विद्या की देवी विद्या का उपहार दे सकती है।”

“बिल्कुल सही कहा श्रेया,” मम्मी ने कहा और श्रेया को ढेर सारा आशीर्वाद देकर बोली, “हमारी बेटी श्रेया आजकल बहुत होशियार हो गई है।”

“इस कारण वह इस बसंत पंचमी पर अपनी कलम की पूजा करेगी,” कहते हुए श्रेया ने मैच पर पड़ी वीणा के तार को छेड़ दिया। वीणा झंकृत हो चुकी थी।

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-12-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 199 ☆ यह अपना  नूतन वर्ष है ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 199 ☆

☆ यह अपना नूतन वर्ष है ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

शस्य श्यामला धरती पर

हरषे नर्तन की शहनाई

तब अपना नूतन वर्ष है।

मंद-सुगंध चले पुरवाई

तब अपना नूतन वर्ष है।।

 *

यह सर्द कुहासा छँटने दो

रातों का पहरा हटने दो

धरती का रूप निखरने दो

फागों के गीत थिरकने दो

कुछ करो प्रतीक्षा और अभी

प्रकृति को दुल्हन बनने दो

खुशियों में गाए अमराई

तब अपना नूतन वर्ष है

मंद-सुगंध चले पुरवाई

तब अपना नूतन वर्ष है।।

 *

प्रतिप्रदा चैत की आने दो

धरती को सुधा लुटाने दो

चहुँदिश को ही महकाने दो

तन-मन में फाग सुनाने दो

यह कीर्ति सदा है आर्यों की

यह आर्यावर्त की प्रीत रही

जब धरा दुल्हन-सी मुस्काई

तब अपना नूतन वर्ष है

मंद-सुगन्ध बहे पुरवाई

तब अपना नूतन वर्ष है।।

  

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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