हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 186 ☆ मुक्तिका – सृजन ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मुक्तिका – सृजन)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 186 ☆

☆ मुक्तिका – सृजन ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

 

मेहनत अधरों की मुस्कान

मेहनत ही मेरा सम्मान

बहा पसीना, महल बना

पाया आप न एक मकान

वो जुमलेबाजी करते

जिनको कुर्सी बनी मचान

कंगन-करधन मिले नहीं

कमा बनाए सच लो जान

भारत माता की बेटी

यही सही मेरी पहचान

दल झंडे पंडे डंडे

मुझ बिन हैं बेदम-बेजान

उबटन से गणपति गढ़ दूँ

अगर पार्वती मैं लूँ ठान

सृजन ‘सलिल’ का है सार्थक

मेहनतकश का कर गुणगान

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२०-४-२१

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ ज्याचे त्याचे श्रद्धास्थान… – चित्र एक काव्ये दोन ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के आणि श्री आशीष ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? ज्याचे त्याचे श्रद्धास्थान… – चित्र एक काव्ये दोन ? सुश्री नीलांबरी शिर्के आणि श्री आशिष बिवलकर 

सुश्री नीलांबरी शिर्के

( १ )

ज्याचे त्याचे श्रद्धास्थान

ज्याला त्याला प्रिय असते

दारूची बाटली म्हणूनच

दारुड्याला प्रिय असते

*

रिकामी  झाली तरीही

तिनेच नभात उंच नेले

दिवसाढवळ्या मनाला

एक वेगळे जग दिले

*

अशी ही रिक्त बाटली

त्याचे श्रद्धास्थान बनते

भक्तिभावे म्हणून तिची

मनोभावे पूजा होते

*

दारूच्या बाटली बाई

नेहमीच तू प्रसन्न रहा

वेगवेगळ्या रूपामधे

मला तू भेटत रहा

*

नित्य तुझी पुजा करीन

भरलेली असो वा रिकामी

सेवेत खंड पडणार नाही

शपथ घेऊन देतो हमी

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

मो 8149144177

( २ )

श्री आशिष बिवलकर

चषक मदिरेचे रिचवून,

रिक्त केली बाटली |

श्रद्धेने फुल पान अर्पून,

श्रद्धा मनात दाटली |

*

 नशा दारूत असती,

तर ती ही नाचली असती |

नशेबाज माणूस असतो,

उगाच बदनाम झालीय ती |

*

भरलेली असताना,

तळीरामांना खुणावत असते |

अप्सराही फिकी वाटावी,

इतकी ती मादक भासते |

*

कृतघ्नतेच्या दुनियेत,

दुर्मिळ एक श्रद्धावान असतो |

पान फूल वाहून,

मिळाल्या तृप्तीला जागतो |

*

छोटा रिचार्ज, क्वार्टर , खंबा,

तिची विविध परिमाण आहेत |

ज्याची त्याची रिचवायची ताकद,

आरोग्यावर तिचे परिणाम आहेत |

*

कितीही समाजवा त्याला,

दारू ही सर्वात वाईट आहे |

फरक नाही पडत त्याला,

तळीराम मोहात टाईट आहे |

© श्री आशिष बिवलकर

बदलापूर 

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-17 – क्या मोहन राकेश ही कालिदास तो नहीं थे? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-17 – क्या मोहन राकेश ही कालिदास तो नहीं थे? ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

पता नहीं, किधर से किधर , यादों की गलियों में निकल जाता हूँ और बहुत बार यादों में खोया-खोया, किसी एक में पूरी तरह खो जाता हूँ। आज जालंधर के बहाने पंजाब के ही नहीं, देश के प्रसिद्ध नाटककार मोहन राकेश की ओर वापस आ रहा हूँ। उनके ठहाके आज भी जालंधर के पुराने लेखकों को याद हैं, उन ठहाकों के पीछे का दर्द कम ही लोग जानते हैं! जगजीत सिंह की गायी ग़ज़ल जैसी हालत है :

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

क्या गम है, जिसको छुपा रहे हो!.

मोहन राकेश के हाथों में शादी की सही लकीर नहीं थी! तीन तीन शादियों के बावजूद वे ठहाकों के पीछे अपना दर्द छिपाते रहे! पर उनके नाटकों की ओर आता हूँ।

मोहन राकेश ने जीवन में तीन नाटक लिखे-आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस और‌ आधे अधूरे। चौथा नाटक  पूरा नहीं कर पाये, जिसे बाद में उनके कथाकार  त्रयी में से एक मित्र कमलेश्वर ने ‘पैर तले की ज़मीन’ के रूप में पूरा किया। ‘आषाढ़ का एक दिन’ से ‘आधे अधूरे’ तक तीनों नाटक खूब पढ़े ही नहीं देश भर में खूब मंचित किये जा रहे हैं ! आषाढ़ का एक दिन पंजाब विश्वविद्यालय के थियेटर विभाग में दैनिक ट्रिब्यून के शुरुआती दिनों में देखा था ओर संयोग देखिये कि मल्लिका के रूप में भावपूर्ण अभिनय करने वाली छात्रा को आज भी जानता हूँ ओर वे हैं वंदना राजीव भाटिया! हिसार के ही ऱगकर्मी राजीव भाटिया की पत्नी। इस नाटक में कालिदास की प्रेमिका की भूमिका बहुत ही भावनाओ में बहकर निभाने वाली वंदना को कैसे भूल सकता हूँ! वह भी राजीव भाटिया के साथ मुम्बई रहती हैं और कुछेक विज्ञापनों में अचानक देखा है वंदना को! मुम्बई सबकी कला का सही इस्तेमाल कहाँ करती है! यह बात प्रसिद्ध अभिनेत्री दीप्ति नवल ने मेरे साथ फोन पर हुई इंटरव्यू में कही थी कि मैं बाकायदा कत्थक नृत्य प्रशिक्षित थी लेकिन किसी भी निर्देशक ने किसी भी फिल्म में मेरी इस कला का कोई उपयोग नहीं किया! मुझे यह खुशी है कि दीप्ति नवल के पिता हमारे नवांशहर के ही थे और‌ दीप्ति नवल कभी भी नवांशहर आ सकती हैं, अपने पिता के शोरियां मोहल्ले में! खैर, हम बात कर रहे थे, मोहन राकेश के नाटकों की ! आषाढ़ का एक दिन का आखिरी संवाद है कि क्योंकि समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता ! कालिदास राजा के आमंत्रण पर राज दरबार में जाना नहीं चाहता लेकिन मल्लिका जैसे कैसै मना कर कालिदास को भेजती है लेकिन उसकी माँ कहती है कि वह तुम्हें साथ क्यों नहीं लेकर गया तब मल्लिका कहती है कि भावनाओं को आप नही समझोगी, मां! मैने भावना में भावना का वरन किया है और मल्लिका कालिदास से खामोश प्यार करती रहती है जबकि उसकी शादी विलोम से हो जाती है। जब सब कुछ गंवा कर कालिदास वापस मल्लिका के पास आता है तब मल्लिका उसे भोजपत्रों का पुलिंदा यह कहकर सौ़पती है कि सोचा था, यह आपको दूंगी ताकि इस पर कोई ग्रंथ लिख सको! कालिदास उन भोजपत्रों को यह कह कर लौटा देता है कि इन पर तो पहले ही एक ग्र्ंथ की रचना हो चुकी है यानी उन पन्नों पर मल्लिका के कालिदास के वियोग के बहाये आंसू दिखते हैं ! यह नाटक एन एस डी से लेकर न जाने देश के किस किस कोने में मंचित नहीं किया गया! यही हाल लहरों के राज हंस का रहा और आधे अधूरे का भी! लहरों के राजहंस में संवाद देखिये जो ऩंद की पत्नी कहती है कि नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनाता है तो नारी का अपकर्षण उसे महात्मा बुद्ध बना देता है ! आखिर मे़ ऩंद लहरों के राज़हंस की तरह पत्नी सु़दरी को कहता है कि मैं जाकर बुद्ध से पूछूँगा कि उसने मेरे बालों का क्या किया? यह है इंसान‌ जो लहरों के राजहंसो़ की तरह अपने ही फैसले बदलता रहता है !

अंतिम नाटक आधे अधूरे आज के समाज को आइना दिखाने के लिए काफी है कि हम सब आधी अधूरी ख्वाहिशों के साथ जीते हैं! इस नाटक का आइडिया मोहन राकेश को उनकी पत्नी अनिता राकेश ने ही दिया था और इसकी भावभूमि उनकी ससुराल ही थी!

आज काफी हो गया! कल फिर मिलते हैं! कभी कभी बता दिया कीजिये कुछ तो!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #236 – 121 – “मुहब्बत का  दस्तूर कुछ ऐसा है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल मुहब्बत का  दस्तूर कुछ ऐसा है…” ।)

? ग़ज़ल # 121 – “मुहब्बत का  दस्तूर कुछ ऐसा है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मैं तुम्हें  कुछ बताना चाहता हूँ,

मैं तुमसे कुछ छुपाना चाहता हूँ।

*

पशोपेश इस कदर दिमाग़ में है,

मुझे मालूम नहीं क्या चाहता हूँ।

*

मुहब्बत का  दस्तूर कुछ ऐसा है,

न हूँ मैं जो  जताना  चाहता हूँ।

*

जिसे  दुनिया  सरेआम  लूटती है,

मैं तेरे हुस्न को सजाना चाहता हूँ।

*

मुझे  आप  कह लें सौदाई आतिश,

तुझे  झूठ सच  बताना  चाहता हूँ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 114 ☆ गीत – ।। मेरी आपकी सबकी एक जैसी कहानी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 114 ☆

☆ गीत – ।। मेरी आपकी सबकी एक जैसी कहानी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

मेरी   आपकी  सबकी  एक  जैसी  कहानी  है।

हम सब के लिए उनकी आंख में आता पानी है।।

*

पत्नी  बहु भाभी मामी बनके जीवन में आती है।

आकर घर के हर कोने कोने में वह बस जाती है।।

आने से किलकारी गूंजती कोई बनता दादी नानी है।

मेरी   आपकी  सबकी  एक  जैसी  कहानी  है।

*

अन्नपूर्णा पूजन अर्चन भी जीवन का हिस्सा बनते हैं।

तू तू मैं मैं भी अब  जीवन   का एक किस्सा बनते हैं।।

उसके साथ ही बीतता सारा बुढ़ापा और जवानी है।

मेरी   आपकी  सबकी  एक  जैसी  कहानी  है।

*

आहार उपचार उपहार उसके बिन लगता अधूरा है।

उसके वाम अंग में आने पर ही युगल होता पूरा है।।

पत्नी बिन हर कण–कण क्षण-क्षण सब बेमानी है।

मेरी   आपकी  सबकी  एक  जैसी  कहानी  है।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 176 ☆ “मतदान करो !” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक प्रेरक रचना  – “मतदान करो !। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 176 ☆

☆ “मतदान करो !” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

जो कुछ जनहित कर सके , उसकी कर पहचान

मतदाता को चाहिये , निश्चित हो मतदान

 *

अगर है देश प्यारा तो , सुनो मत डालने वालों

सही प्रतिनिधि को चुनने के लिये ही अपना मत डालो

 *

सही व्यक्ति के गुण समझ , कर पूरी पहचान

मतदाताओ तुम करो , सार्थक निज मतदान

 *

सोच समझ कर , सही का करके इत्मिनान

भले आदमी के लिये , करो सदा मतदान

 *

जो अपने कर्तव्य  का , रखता पूरा ध्यान

मतदाता को चाहिये , करे उसे मतदान

 *

लोकतंत्र की व्यवस्था में , है मतदान प्रधान

चुनें उसे जो योग्य हो , समझदार इंसान

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ व.पु.काळे यांची एक बोधकथा – कथालेखक : व. पु. काळे ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

? वाचताना वेचलेले ?

व. पु. काळे यांची एक बोधकथा – कथालेखक : व. पु. काळे ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे

गावे का दुसऱ्याच्या मनासारखे ? हे समजावणारी सुंदर अशी व.पु.काळेंची बोधकथा

बायकोनं घरात मांजर पाळलेलं. तिचं ते खूप लाडकं. ती जेवायला बसली की तिलाही घेवून बसायची. एका वाटीत दूध भाकर कुस्करुन द्यायची. 

पण नवऱ्याला ते मांजर अजिबात आवडायचं नाही. उघडं दिसेल त्या भांड्यात तोंड घालायची त्याला सवय. त्याचा त्याला प्रचंड राग यायचा… 

एकदा नवरा जेवायला बसलेला, आणि नेमकं मांजराने त्याच्या ताटात तोंड घातलं. नवरा चिडला आणि रागारागाने शेजारी असलेला पाटा त्याच्या डोक्यात घातला.  

घाव वर्मी बसल्याने मांजर बराच वेळ निपचित पडून राहीलं. ‘मेलं की काय’ अशी शंका येत असतांनाच ते अंग झटकून उठून बसलं. 

त्याने हळूच नवऱ्याकडे हसून बघीतलं, आणि चक्क ‘शॉरी यार, मी मघाशी तुझ्या ताटात तोंड घातलं. क्या करे आदत से मजबूर हूँ, पुन्हा नाही असं करणार..’ असं माणसासारखं बोललं. नवरा वेडा व्हायचाच बाकी..!

त्यानंतर मांजर नम्र आणि आज्ञाधारक झालं. ताटात तोंड घालणे तर सोडाच, दारातला पेपर आणून दे, 

टी पॉय वरचा चष्मा आणून दे…  अशी बारीकसारीक कामं ते करू लागलं.

मग काय, नवऱ्याची आणि त्याची छान गट्टी जमली. ऑफिसमधून येताच मांजर दिसलं नाही की तो अस्वस्थ व्हायचा. ‘अग मन्या दिसत नाही गं कुठं ?’ बायकोला सतत विचारत राहायचा.

असेच काही दिवस गेल्यावर एकेदिवशी सोसायटीच्या गेटसमोर बेवारस कुत्री आणि मांजरं पकडून नेणारी महापालिकेची व्हॅन येऊन थांबली. 

मन्याने खिडकीतून ती व्हॅन बघितली. त्याच्या मनात काय आलं कोण जाणे, पण धावत जावून तो व्हॅन मधे बसला. 

नवऱ्याने हे बघितले.  हातातला पेपर पटकन बाजूला टाकून तो मन्यामागे धावला. मन्या व्हॅनमध्ये निवांत बसलेला.

नवरा म्हणाला, “मन्या, अरे इथं गाडीत का बसलायस? ही गाडी बेवारस मांजरासाठी आहे. तुझ्यासाठी नाही.”

“मला माहितेय..! पण मला जायचंय आता.” मन्या शांतपणे बोलला.

“मन्या, अरे असं काय करतोस? तू किती लाडका आहेस आम्हा दोघांचाही.  माझं तर पानही हालत नाही तुझ्याशिवाय. तू क्षणभर नजरेआड गेलास तरी मला करमत नाही. मी इतकं प्रेम करतो तुझ्यावर आणि तू खुशाल मला सोडून निघालास ? ए प्लिज, प्लिज उतर रे आता.” काकुळतीला येवून नवरा बोलला.

मन्या गोड हसला, आणि बोलला, “तू माझ्यावर प्रेम करतोस? माझ्यावर?”

“म्हणजे काय शंकाय का तुला?”

“मित्रा, अरे मी जेंव्हा माझ्या मनासारखं वागत होतो,  हवं तिथं हवं तेंव्हा  तोंड घालत होतो, तेंव्हा मी तुझा नावडता होतो.  सतत रागवायचास माझ्यावर. अगदी माझ्या जीवावर उठला होतास तू एकदा

पण जेंव्हा मी तुझ्या मनासारखं वागू लागलो,  तुला हवं तसं करू लागलो…. तेंव्हा तुला आवडू लागलो. तू माझ्यावर प्रेम करू लागलास, यात नवल ते काय?” 

नॉट सो स्ट्रेंज यार…!!

वपुंची ही कथा खूप काही सांगून जाते……

जेंव्हा आपण एखाद्यावर प्रेम करतो, तेंव्हा ते खरंच त्याला बरं वाटावं म्हणून, की स्वतःला बरं वाटावं म्हणून करतो ?

समोरचा जो पर्यंत आपल्या मनासारखं वागत असतो, तोपर्यंत त्याच्यावर आपलं प्रचंड प्रेम असतं. कारण त्याचं वागणं आपल्याला सुखावणारं असतं. 

पण जेंव्हा तो आपलं ऐकत नाही, आपल्याला हवं तसं वागत नाही, तेंव्हा त्याचं आपल्या सोबत असणंही आता नकोसं वाटतं. त्याला टाळत राहतो.

भेटलाच कधी तर त्याच्यावर चिडतो, रागावतो. त्यानं नाहीच ऐकलं की मग वर्मी घाव घालून नातंच संपवून टाकतो. ज्याच्यावर जीवापाड प्रेम असतं, त्याला क्षणात परकं करून टाकतो.

आश्चर्य आहे ? का वागतो असं आपण ? त्याच्यावर खरंच आपलं प्रेम असतं की निव्वळ time pass म्हणून केलेली खोटी भावनिक गुंतवणूक?

आपल्या मनासारखं वागणाऱ्या माणसावर कुणीही प्रेम करतं.

अवघड असतं त्याच्यावर प्रेम करणं, त्याला समजून घेणं, जेंव्हा तो आपल्या मनासारखं वागत नसतो..!!

कथालेखक :  व.पु.काळे

संग्रहिका : प्रभा हर्षे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #231 ☆ ज़िन्दगी समझौता है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ज़िन्दगी समझौता है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 231 ☆

ज़िन्दगी समझौता है… ☆

‘ज़िन्दगी भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और हर स्थिति में मानव को अपनी भावनाओं का त्याग कर यथार्थ को स्वीकारना पड़ता है।’ यदि हम यह कहें कि ‘ज़िंदगी संघर्ष नहीं, समझौता है’, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे औरत को तो कदम-कदम पर समझौता करना ही पड़ता है, क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज में उसे दोयम दर्जे का प्राणी समझा जाता है और कानून द्वारा प्रदत्त समानाधिकार भी कागज़ की फाइलों में बंद हैं। प्रसाद जी की कामायनी की यह पंक्तियां ‘तुमको अपनी स्मित-रेखा से/ यह संधि-पत्र लिखना होगा’—औरत को उसकी औक़ात का एहसास दिलाती हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी की ‘आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ द्वारा नारी जीवन का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करते हुए उसकी नियति, असहायता, पराश्रिता व विवशता का आभास कराया गया है; जो सतयुग से लेकर आज तक उसी रूप में बरक़रार है।

यहाँ हम आधी आबादी की बात न करके सामान्य मानव के जीवन के संदर्भ में चर्चा करेंगे, क्योंकि औरत के पास समझौते के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प होता ही नहीं। चलिए! दृष्टिपात करते हैं कि ‘जीवन भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और वह मानव की नियति है।’ यह संघर्ष है…हृदय व मस्तिष्क के बीच अर्थात् जो हमें मिला है… वह हक़ीक़त है; यथार्थ है और जो हम चाहते हैं; अपेक्षित है…वह आदर्श है, कल्पना है। हक़ीक़त सदैव कटु और कल्पना सदैव मनोहारी होती है; जो हमारे अंतर्मन में स्वप्न के रूप में विद्यमान रहती है और उसे साकार करने में इंसान अपना पूरा जीवन लगा देता है। मानव को अक्सर जीवन के कटु यथार्थ से रू-ब-रू होना पड़ता है और उन परिस्थितियों का विश्लेषण व गहन चिंतन-मनन कर के समझौता करना पड़ता है। वैसे भी जीवन की हक़ीक़त व सच्चाई कड़वी होती है। सो! मानव को ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चल कर, विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचना होता है। इस स्थिति में यथार्थ को स्वीकारना उसकी नियति बन जाती है। इसमें सबसे अधिक योगदान होता है…हमारी पारिवारिक, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का …जो मानव को विषम परिस्थितियों का दास बना देती हैं और लक्ष्य-प्राप्ति के निमित्त उसे हरपल उनसे जूझना पड़ता है। वास्तव में वे विकास के मार्ग में अवरोधक के रूप में सदैव विद्यमान रहती हैं।

आइए! चर्चा करते हैं पारिवारिक परिस्थितियों की… जैसा कि सर्वविदित है कि प्रभु द्वारा प्रदत्त जन्मजात संबंधों का निर्वहन करने को व्यक्ति विवश होता है। परंतु कई बार आकस्मिक आपदाएं उसका रास्ता रोक लेती हैं और वह उनके सम्मुख नतमस्तक हो जाने को विवश हो जाता है। पिता के देहांत के बाद बच्चे अपने परिवार का आर्थिक- दायित्व वहन करने को मजबूर हो जाते हैं और उनके स्वर्णिम सपने राख हो जाते हैं। अक्सर पढ़ाई बीच में छूट जाती है और उन्हें मेहनत-मज़दूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता है। उस विषम परिस्थिति में वे सृष्टि-नियंता को भी कटघरे में खड़ा कर प्रश्न कर बैठते हैं कि ‘आखिर विधाता ने उन्हें जन्म ही क्यों दिया? अमीर- गरीब के बीच इतनी असमानता व दूरियां क्यों पैदा कर दीं?’ ये प्रश्न उनके मनोमस्तिष्क को निरंतर कचोटते रहते हैं और सामाजिक विसंगतियाँ–जाति-पाति विभेद व अमीरी-गरीबी रूपी वैषम्य उन्हें उन्नति के समान अवसर प्रदान नहीं करतीं।

प्रेम सृष्टि का मूल है तथा प्राणी-मात्र में व्याप्त है। कई बार इसके अभाव के कारण उन अभागे बच्चों का बचपन तो खुशियों से महरूम रहता ही है; वहीं युवावस्था में भी वे माता-पिता की इच्छा के प्रतिकूल, मनचाहे साथी के साथ विवाह-बंधन में नहीं बंध पाते; जिसका घातक परिणाम हमें ऑनर-किलिंग व हत्या के रूप में दिखाई पड़ता है। अक्सर उनके विवाह को अवैध क़रार कर खापों व पंचायतों द्वारा उन्हें भाई-बहिन के रूप में रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है; जिसके परिणाम-स्वरूप वे अवसाद की स्थिति में पहुँच जाते हैं और चंद दिनों पश्चात् आत्महत्या तक कर लेते हैं।

‘शक्तिशाली विजयी भव’ के रूप में समाज शोषक व शोषित दो वर्गों में विभाजित है। दोनों एक-दूसरे के शत्रु रूप में खड़े दिखाई पड़ते हैं; जिससे सामाजिक-व्यवस्था चरमरा कर रह जाती है और उसका प्रमाण इंडिया व भारत के रूप में परिलक्षित है। चंद लोग ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में सुख-सुविधाओं से रहते हैं; वहीं अधिकांश लोग ज़िंदा रहने के लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। उनके पास सिर छुपाने को छत भी नहीं होती; जिसका मुख्य कारण अशिक्षा व निर्धनता है। इसके प्रभाव-स्वरूप वे जनसंख्या विस्फोटक के रूप में भरपूर योगदान देते हैं। जहाँ तक चुनावों का संबंध है…हमारे नुमांइदे उनके आसपास मंडराते हैं; शराब की बोतलें देकर इन्हें भरमाते हैं और वादा करते हैं– सर्वस्व लुटाने का, परंंतु सत्तासीन होते ये दबंगों के रूप में शह़ पाते हैं।’ आजकल सबसे सस्ता है आदमी…जो चाहे खरीद ले…सब बिकाऊ है…एक बार नहीं, तीन-तीन बार बिकने को तैयार है। यह जीवन का कटु यथार्थ है; जहां समझौता तो होता है, परंतु उपयोगिता के आधार पर और उसका संबंध हृदय से नहीं; मस्तिष्क से होता है।

मानव के हृदय पर सदैव बुद्धि भारी पड़ती है। हमारे आसपास का वातावरण और हमारी मजबूरियाँ हमारी दिशा-निर्धारण करती हैं और मानव उनके सम्मुख घुटने टेकने को विवश हो जाता है …क्योंकि उसके पास इसके अतिरिक्त अन्य विकल्प होता ही नहीं। अक्सर लोग विषम परिस्थितियों में टूट जाते हैं; पराजय स्वीकार कर लेते हैं और पुन: उनका सामना करने का साहस नहीं जुटा पाते। ‘वास्तव में पराजय गिरने में नहीं, बल्कि न उठने में है’ अर्थात् जब आप धैर्य खो देते हैं; परिस्थितियों को नियति स्वीकार सहर्ष पराजय को गले लगा लेते हैं–उस असामान्य स्थिति से कोई भी आपको उबार नहीं सकता अर्थात् मुक्ति नहीं दिला सकता और वे निराशा रूपी गहन अंधकार में डूबते-उतराते रहते हैं।

ग़लत लोगों से अच्छे की उम्मीद रखना; हमारे आधे दु:खों का कारण है और आधे दु:ख अच्छे लोगों में दोष-दर्शन से आ जाते हैं। इसलिए बुरे व्यक्ति से शुभ की अपेक्षा करना आत्म-प्रवंचना है, क्योंकि उसके पास जो कुछ होगा; वही तो वह देगा। बुराई-अच्छाई में शत्रुता है… दोनों इकट्ठे नहीं चल पातीं, बल्कि वे हमारे दु:खों में इज़ाफ़ा करने में सहायक सिद्ध होती हैं। अक्सर यह तनाव हमें अवसाद के उस चक्रव्यूह में ले जाकर छोड़ देता है; जहां से मुक्ति पाना असंभव हो जाता है। उस स्थिति में भावनाओं से समझौता करना हमारे लिए हानिकारक होता है। दूसरी ओर जब हम अच्छे लोगों में दोष व अवगुण देखना प्रारंभ कर देते हैं, तो हम उनसे लाभान्वित नहीं हो पाते और हम भूल जाते हैं कि अच्छे लोगों की संगति सदैव कल्याणकारी व लाभदायक होती है। इसलिए हमें उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जैसे चंदन घिसने के पश्चात् उसकी महक स्वाभाविक रूप से अंगुलियों में रह जाती है और उसके लिए मानव को परिश्रम नहीं करना पड़ता। भले ही मानव को सत्संगति से त्वरित लाभ प्राप्त न हो, परंतु भविष्य में वह उससे अवश्य लाभान्वित होता है और उसका भविष्य सदैव उज्ज्वल रहता है।

‘मानव का स्वभाव कभी नहीं बदलता।’ सोने को भले ही सौ टुकड़ों में तोड़ कर कीचड़ में फेंक दिया जाए; उसकी चमक व मूल्य कभी कम नहीं होता। उसी तरह ‘कोयला होय न उजरा, सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् ‘जैसा साथ, वैसी सोच’… सो! मानव को सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहना चाहिए, क्योंकि इंसान अपनी संगति से ही पहचाना जाता है। शायद! इसीलिए यह सीख दी गयी है कि ‘बुरी संगति से व्यक्ति अकेला भला।’ सो! व्यक्ति के गुण-दोष परख कर उससे मित्रता करनी चाहिए, ताकि आपको शुभ फल की प्राप्ति हो सके। आपके लिए बेहतर है कि आप भावनाओं में बहकर कोई निर्णय न लें, क्योंकि वे आपको विनाश के अंधकूप में धकेल सकती हैं; जहां से लौटना नामुमक़िन होता है।

सो! यथार्थ से कभी मुख मत मोड़िए। साक्षी भाव से सब कुछ देखिए, क्योंकि व्यक्ति भावनाओं में बहने के पश्चात् उचित-अनुचित का निर्णय नहीं ले पाता। इसलिए सत्य को स्वीकारिए; भले ही उसके उजागर होने में समय लग जाता है और कठिनाइयां भी उसकी राह में बहुत आती हैं। परंतु सत्य शिव होता है और शिव सदैव सुंदर होता है। सो! सत्य को स्वीकारना ही श्रेयस्कर है। जीवन में संघर्ष रूपी राह पर यथार्थ की विवेचना करके समझौता करना सर्वश्रेष्ठ है। जब गहन अंधकार छाया हो; हाथ को हाथ भी न सूझ रहा हो…एक-एक कदम निरंतर आगे बढ़ाते रहिए; मंज़िल आपको अवश्य मिलेगी। यदि आप हिम्मत हार जाते हैं, तो आपकी पराजय अवश्यंभावी है। सो! परिश्रम कीजिए और तब तक करते रहिए; जब तक आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। संबंधों की अहमियत स्वीकार कीजिए; उन्हें हृदय से महसूसिए तथा बुरे लोगों से शुभ की अपेक्षा कभी मत कीजिए। बिना सोचे-विचारे जीवन में कभी कोई भी निर्णय मत लीजिए, क्योंकि एक ग़लत निर्णय आपको पथ-विचलित कर पतन की राह पर ले जा सकता है। सो! भावनाओं को यथार्थ की कसौटी पर कस कर ही सदैव निर्णय लेना तथा उसकी हक़ीक़त को स्वीकारना श्रेयस्कर है। यथा-समय, यथा-स्थिति व अवसरानुकूल लिया गया निर्णय सदैव उपयोगी, सार्थक व अनुकरणीय होता है। उचित निर्णय व समझौता जीवन-रूपी गाड़ी को चलाने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है, उपादान है; जो सदैव ढाल बनकर आपके साथ खड़ा रहता है और प्रकाश-स्तंभ अथवा लाइट-हाउस के रूप में आपका पथ-प्रशस्त करता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 6 – नवगीत – प्रिय नेताजी… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – प्रिय नेताजी…

? रचना संसार # 6 – नवगीत – प्रिय नेताजी…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

प्रिय नेताजी,

तुमसे विनती करती जनता,

बातें हैं सब सच्ची।

 *

काश ! ग़रीबी मिट जाए यह,

कर भी लो कुछ वादा।

मरें सड़क पर हम सब भूखे,

ज्यों बिसात के प्यादा।

तरस रहे मिल जाए हमको,

चाहे रोटी कच्ची।

 *

सोते रहते हो महलों में,

मखमली बिछौने पर।

फुटपाथों पे हम रह खाते,

भी पत्तल-दौने पर।।

जीवन अब तो नर्क हुआ है,

खाते हरदम गच्ची।

 *

करो निदान समस्याओं का,

पा जाएँ संरक्षण।

मिल जाए हमको भी थोड़ा,

सेवा में आरक्षण।।

अच्छे दिन कब तक आएँगे,

पूछे घर की बच्ची।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #213 ☆ एक पूर्णिका – बस एक इम्तिहान काफी है… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – बस एक इम्तिहान काफी है… आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 213 ☆

☆ एक पूर्णिका – बस एक इम्तिहान काफी है… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हमारी खुशी के लिए एक मुस्कान काफी है

आप रहेंगे दिल में बस ये अरमान काफी है

*

हम ये नहीं कहते कि हमारे पास आ जाओ

हमें तुम याद रखती हो यह अहसान काफी है

*

आप  हमारे  हैँ  हम आपके ये हमारे लिए

बस हमारी यही एक सुखद पहचान काफी है

*

प्यार की कब बकालत की इस दुनिया ने कभी

प्रेमियों को लगता है उनका अवदान काफी है

*

न  जाने  किस  कसौटी  में कसती रही दुनिया

प्यार  के  लिए तो  बस  एक इम्तिहान  काफी है

*

हों सच्चे अहसास प्यार में समाज के भी यहाँ

जिसके लिए सच्चा सामाजिक संज्ञान काफी है

*

प्यार में मिलेगा सुखद “संतोष” तब ही सभी को

होगा जब उनका सही मान सम्मान काफी है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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