हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 124 – अपने संस्कारों को हमने… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “अपने संस्कारों को हमने…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 124 – कविता – अपने संस्कारों को हमने… ☆

अपने संस्कारों को हमने,

घर-आँगन में तापा।

पथ से भटके संतानों के,

छिप-छिप रोते पापा।

 *

तन पर पड़ीं झुर्रियां देखीं,

सिर में छाई सफेदी ।

दर्पण ने सूरत दिखलाई

दिल ने खोया आपा।

 *

जोड़-तोड़ कर भरी तिजोरी,

अंतिम समय में लोचा।।

जीवन जीना सरल है भैया,

सबसे कठिन बुढ़ापा।

 *

गलत राह पर चढ़े शिखर में,

गिरते आँखों देखा।

बुरे काम का बुरा नतीजा,

जोगी ने घर नापा।।

 *

बनी हवेली रही काँपती,

वक्त में काम न आई।

साँसों की जब डोर है टूटी,

यम ने मारा लापा।

 *

जिन पर था विश्वास हमारा,

घात लगा धकियाया।

गैरों ने ही दिया सहारा,

अखबारों ने छापा।

 *

देर सही अंधेर नहीं है,

सूरज तो निकलेगा।

दशरथ नंदन हैं अवतारी

रावण ने भी भाँपा।

 *

अपने संस्कारों को हमने,

अपने हाथों तापा।

पथ से भटके संतानों के,

छिप-छिप रोते पापा।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 6 – संस्मरण – दिखावा – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  संस्मरण – दिखावा)

? मेरी डायरी के पन्ने से… संस्मरण – दिखावा – द ग्रेट नानी  ?

शिक्षण के क्षेत्र से जुड़े रहने के कारण तथा टीचर ट्रेनर होने के कारण कई स्थानों पर कभी-कभी वर्कशॉप लेने के अवसर मुझे मिलते रहे।

कुछ समय तक मैं निरंतर गुजरात के विभिन्न शहरों में वर्कशॉप लेने जाया करती थी। उस वर्ष भुज शहर के कुछ विद्यालयों के साथ मैं काम कर रही थी।

मेरे साथ एक एसिसटेंट भी हुआ करती थी। उसका नाम था सौदामिनी। मैं उसे अक्सर सौ कहकर ही पुकारती थी। एक तो उसे बात-बात पर खिलखिलाकर हँसने की आदत थी और दूसरी विशेषता यह थी कि उसके सान्निध्य में मुझे सौ लोगों के बीच रहने का सुख अनुभव होता था। वह बहुत बातूनी भी थी। उसकी तत्परता और उपस्थित बुद्धि दोनों ही मुझे बहुत अच्छी लगती थी।

हम लोगों को पुणे से भुज तक जाने के लिए एक रात का सफ़र तय करना था। दिक्कत यह थी कि उस मार्ग की रेलगाड़ी में केटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं थी। अतः अपने साथ पर्याप्त वस्तुएँ ले जाने की जरूरत पड़ती थी।

रात के 7:30 बजे गाड़ी चलती थी और दूसरे दिन शाम को करीबन 6:00 बजे भुज पहुँचती थी। उन दिनों यह गाड़ी सप्ताह में एक ही दिन चलती थी।

समयानुसार गाड़ी चल पड़ी और हमारी यात्रा शुरू हो गई। हमारे साथ डिब्बे में हमारेवाले हिस्से में अधिकतर महिलाएँ ही थीं। थर्ड क्लास एसी की बुकिंग थी।

गाड़ी के छूटते ही सभी महिलाएँ जो डिब्बे में थीं एक दूसरे से वार्तालाप करने लगीं। यह सिलसिला काफ़ी समय तक चलता रहा। एक दूसरे से परिचित होना, नाम, धाम, कार्यक्षेत्र आदि विषयों पर कुछ देर तक चर्चा होती रही।

डिब्बे में जो दो पुरुष थे उन्होंने ऊपर के बंकों में अपनी जगह सुरक्षित कर ली थी क्योंकि नीचे चार महिलाएँ और साइड की दो महिलाएँ आपस में घुल मिल गई थीं। इसमें अधिकतर महिलाएँ बिजनेस वोमन थीं।

महिलाओं में आपस में कई विषयों पर चर्चा छिड़ गई। वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर, वर्तमान युवा पीढ़ी के दृष्टिकोण तथा व्यवहारों पर, राजनीतिक परिस्थितियों पर तथा गुजरात की विशेषताओं पर। विशिष्टरूप से अधिक तर महिलाएँ गुजराती थीं तो वे वहाँ के उत्सव, पतंग उत्सव, गरबा नृत्य आदि पर भी गर्व से काफी चर्चा करने लगीं।

रेलगाड़ी में बैठकर दो घंटे तो वैसे बीत चुके थे। महिलाओं का प्रिय विषय भोजन पर चर्चा शुरू हुई। हमारे साथ एक सिंधी महिला भी थीं। वे आधुनिक कई पाक क्रिया पर चर्चा कर रही थीं। कुछ अन्य महिलाओं ने तो अपनी -अपनी डायरियाँ ही खोलकर कुछ लिख भी डालीं। सूप, चायनीज़ भोजन आदि।

उस महिला की उँगलियों में अनेक हीरे की अँगूठियाँ थीं जिस प्रकार के सूटकेस लेकर वे चल रही थीं उससे ज़ाहिर था कि वे काफी धनाढ्य परिवार से थीं। परंतु उसके साथ ही साधारण लोगों के साथ उठना – बैठना एवं मिलना वे शायद पसंद भी करती थीं। वे काफ़ी स्टाइलिश भी थीं यह वेश-भूषा से ही स्पष्ट हो रहा था।

हर जगह ऐसे मौकों पर मैं श्रोता बनकर रहना अधिक पसंद करती हूँ। मुझे लोगों को निहारने, उनकी बातें सुनने में मज़ा आता है इससे मुझे अपनी कहानियाँ या संस्मरण लिखने के लिए पर्याप्त मसाले भी मिल जाते हैं।

वैसे भी मेरे साथ बातूनी सौ उपस्थित थी तो मुझे बात करने की आवश्यकता नहीं होती थी। मेरी सौ मेरी चुप्पी की कमी पूरी कर देती थी। उसमें जिज्ञासा बहुत थी और वह लोगों से खूब सवाल पूछती थी। सहज -सरल, चुलबुली स्वभाव की सौ बड़ी आसानी से सबके साथ घुलमिल जाती थी। ।

सौ की एक और खासियत थी कि वह लोगों से ईमेल आई डी लेकर उनके साथ पत्र व्यवहार भी जारी रखती थी। अब तक तो उसने संभवतः आधी दुनिया से रिश्ता जोड़ लिया होगा। उन दिनों उसके पास एक अत्याधुनिक कैमरा था जिसकी सहायता से वह हमारे वर्कशॉप की विडियो शूट किया करती थी।

हमारी यात्रा जारी थी। सौ सिंधी महिला से अत्यंत प्रभावित थी। चलिए अपनी सुविधा के लिए उनका नाम कोमल रख लेते हैं। वैसे आज मुझे उनका नाम याद नहीं। बस वह घटना याद है जो चिर स्मरणीय है।

रात के नौ बज चुके थे। अब तो हमारे डिब्बे में अलग-अलग प्रकार की खुशबू आ रही थी। सभी अपना – अपना भोजन का डिब्बा खोल चुके थे। ढोकला, थेपला, अचार, मुरब्बे पराँठे, सब्जियां और उसके साथ इडली चटनी, पूड़ी सब्जी आदि।

कोमल जी का डिब्बा बड़े करीने से सजा था। वे पेपर प्लेट, टिश्यूपेपर और प्लास्टिक की चम्मच निकालने लगीं। भोजन में हाथ लगाने से पूर्व उन्होंने एक तरह की सुगंधित तरल पदार्थ से अपने हाथों को स्वच्छ किया।

उत्साहवश हमारी सौ ने उनसे पूछ ही लिया कि वह हाथ में क्या लगा रही थीं उत्तर में कोमल जी ने बताया कि यह सैनिटाइजर है। अर्थात हाथ में अगर कोई जीवाणु हो तो उसका सफ़ाया हो जाएगा।

(पाठकों से यह बताना आवश्यक है कि जिस समय की यह घटना है उस समय सैनिटाइजर की प्रथा आम लोगों में नहीं थी और ना ही लोग उसका उपयोग आज की तरह किया करते थे।)

मैं ध्यान से कोमल जी को देखती रही। हर वस्तु बड़ी अच्छी तरह से प्लास्टिक के विभिन्न प्रकार व आकार के पैकेटों में लपेटी हुई थी। पूड़ी- सब्जी तथा सॉस के सेशे भी थे। अब कागज की बनी प्लेटों पर विभिन्न भोजन सजाए वह सभी को बड़े प्रेम से खिला रही थीं ऊपर बंक में लेटे व्यक्तियों को ज़बरन उठा- उठा कर भाई साहब, भाई साहब कहकर प्रेम से सबको खाना परोस कर खिला रही थीं।

सौ ने बड़ी आत्मीयता से पूछा, ” कोमल जी आपके घर पर ना रहने से आपके पति व बच्चे आपको बहुत मिस करते होंगे न!”

इस पर ज़रा – सा झेंपकर अपनी अदा से माथे पर लटकी जुल्फों को उन्होंने गर्दन झटका कर पीछे हटाया एक मधुर – सी मुस्कान के साथ बोलीं, ” जी सो तो है। दे मिस मी अ लॉट ” उनके बातचीत करने के ढंग में भी काफी आधुनिकता थी और वे काफी स्टाइल से बातें किया करती थीं।

सभी ने अनेक प्रकार के भोजन का आनंद लिया। बातचीत में समय अच्छा कट रहा था। अब कोमल जी ने एक बड़ा – सा, ऊँचा – सा टप्पर वेयर का डिब्बा निकाला और उसमें रखे बेसन के लड्डू सबको खिलाने लगीं। साथ में गीले टिश्यू पेपर भी पकड़ाती रहीं। बार-बार कहती रहीं, ” भोजन के बाद थोड़ा स्वीट खाना तो बनता ही है। ” साथ में यह भी बोलीं कि ” यह तो घर का बना हुआ है, मैं अब मायके से लौट रही हूँ न!” जो पुरुष अब तक ऊपर बैठे थे वे भी भोजन करने के लिए नीचे उतर आए थे।

आठ लोगों की अच्छी मजलिस जमी हुई थी अब। कई प्रकार की बातें हँसी – ठठ्ठा आदि सब कुछ चलने लगा। ऐसा लगने लगा मानो सभी एक ही परिवार के सदस्य थे। शायद रेल में सफ़र करनेवाले लोग इसी तरह कुछ समय के लिए मिलते हैं और फिर बिछड़ भी जाते हैं।

भोजन समाप्त कर सब अब सोने की तैयारी करने लगे। रेलवे सेवा की ओर से सभी यात्रियों को कंबल चद् दर व तकिया दिए गए थे। अब सब आराम से सोना चाहते थे। दूसरे दिन शाम को ही सब अपनी मंजिल तक पहुँचने वाले थे।

अचानक बत्ती बंद करने से पहले कोमल जी ने बड़ी मीठी और सुरीली आवाज में एक सवाल किया, ” यहाँ कोई खर्राटे तो नहीं लेता है ना! मुझे खर्राटों से सख्त नफ़रत है।

मैं रात भर सो नहीं सकती। अगर किसी को खर्राटों की आदत हो तो….प्लीज़……

उनकी मधुर, मीठी, सुरीली आवाज़ में पूछे गए प्रश्न का किसीने कोई उत्तर नहीं दिया। लेकिन एक चुप्पी और सन्नाटा ने अचानक सबको चुप रहने के लिए विवश कर दिया।

थोड़ी देर सभी चुप रहे तथा बगलें झाँकने लगे। पर हमारी सौ कहाँ चुप रहती भला! उसने तुरंत कोमल जी से पूछ ही लिया, ” मैडम, आपको खर्राटे से इतनी नफ़रत आख़िर क्यों है ?”

कोमल जी मानो उत्तर देने के लिए प्रस्तुत ही बैठी थीं। अपनी अदाओं और लटकों -झटकों से अपनी ज़ुल्फों को पीछे हटाते हुए बोलीं, “एक्चुअली मेरे हस्बैंड को खर्राटे लेने की बड़ी बुरी आदत है। मैं उनके इस आदत से बहुत परेशान हूँ। मुझे रात भर नींद नहीं आती। आजकल तो अक्सर मैं बाहर के बैठक में ही सो जाती हूँ। क्या करूँ मुझे तकलीफ़ जो होती है। “

फिर क्या था सब को मानो चर्चा के लिए नया विषय ही मिल गया। कोई अपने पति की कोई पिता की और तो कोई माता के खर्राटे भरने की बात पर चर्चा करने लगा। घंटा भर सभी चर्चा का आनंद लेते रहे। उस चर्चा के दौरान विभिन्न प्रकार के खर्राटों की भी चर्चा होती रही। सभी ने सहर्ष इस चर्चा में हिस्सा लिया। इस प्रकार एक मनोविनोद का वातावरण वहाँ निर्माण हो गया।

रात काफी हो चुकी थी। उस एसी कंपार्टमेंट के अन्य सभी सदस्य अपनी बत्तियाँ बुझा कर सोने का प्रयास कर रहे थे। पर हम सब की चर्चा हँसी और शोर ने औरों को भी शायद परेशान ही कर दिया था।

मैंने धीरे से कहा, ” चलिए अब सोया जाए। इस विषय पर चर्चा कल सुबह जारी रखेंगे। ” सभी को इस बात का अहसास हुआ कि बाकी सभी लोगों ने बत्ती बंद कर दी थी अतः हम लोगों ने भी एक दूसरे को गुड नाईट कहा और अपनी-अपनी चादरों और कंबलो में दुबक गए।

दूसरे दिन सुबह सभी उठे तो पहले कोमल जी ने सबसे फिर उसी सुरीली, मधुर आवाज में धन्यवाद कहा। सबको पता तो था कि कोमल जी ने सुबह-सुबह सबको धन्यवाद क्यों कहा पर फिर भी सौ उनकी थोड़ी बहुत खिंचाई करना चाहती थी। फिर अपनी मधुर मीठी सुरीली आवाज में कोमल जी ने कहा, “आप सब ने रात को खर्राटे नहीं लिए और मैं आराम से सो सकी इसलिए धन्यवाद कह रही हूँ। इतना कहकर वे अपना ब्रश- पेस्ट और हैंड टॉवेल लेकर डिब्बे के बाहर की ओर चली गईं।

उनके पीछे मुड़ते ही सौ ने अपना मोबाइल निकाला और मुझे कोमल जी की सभी तस्वीरें जो उसने पिछली रात को खींची थी दिखाई। रात के समय वह विभिन्न आवाजों में खर्राटे भर रही थीं। उस तस्वीर को देखकर और आवाज सुनकर डिब्बे की बाकी महिलाएँ ठहाका मारकर हँसने लगीं। इतने में कोमल जी ब्रश करके लौट आईं। तो सब की ओर देखकर थोड़ी देर अवाक – सी सबका मुँह ताकती रह गईं। फिर उन्हें देखकर हँसने वालों ने अपने मुँह पर हाथ रख लिया या दुपट्टे रख लिए। तो उन्होंने फिर सुरीली आवाज में पूछा, ” वाह किस जोक पर आप सब हँस रही हैं? मुझे भी तो उसमें शामिल कीजिए “।

सौ ने बड़ी अदा से कोमल जी के सीट पर बैठ जाने पर कहा, ” यह देखिए आपकी तस्वीरें। क्या आपने धन्यवाद इसलिए कह रही थीं क्योंकि सब ने आपके खर्राटे सहन किए रात भर ? वैसे मैं तो जागती ही रही रात भर। तभी तो यह तस्वीरें ले सकी। सॉरी आपको पूछे बिना ही मैंने ये क्लिक किए। “

कोमल जी कैमरे में कैद अपनी खर्राटे भरती हुई तस्वीरें देखकर अत्यंत लज्जित हुईं शायद क्रोधित भी।

सौ ने भी क्षमा माँगकर सारी तस्वीरें डिलीट कर दी।

फिर बाकी सारा दिन कोमल जी किसी से ना बोलीं और ना ही भोजन की पिटारी खुली। शायद अपने अमृततुल्य भोजन खिलाकर वे सबको उनके खर्राटे सहन करने के लिए तैयार कर रही थीं।

सौ की शरारती मैं कभी नहीं भूलूँगी।

आज वह मेरे साथ नहीं है लेकिन उसकी कुछ बातें और भुज की वह यात्रा सदैव स्मरणीय रहेगा।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 273 ☆ आलेख – लंदन से 9 – डे लाइट सेविंग – मतलब बिना जिए ही गुजर गया जिंदगी का एक घंटा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख डे लाइट सेविंग – मतलब बिना जिए ही गुजर गया जिंदगी का एक घंटा। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 273 ☆

? आलेख – डे लाइट सेविंगमतलब बिना जिए ही गुजर गया जिंदगी का एक घंटा ?

यूके में प्रति वर्ष मार्च महीने के आखिरी रविवार को 1 बजे घड़ियाँ 1 घंटा आगे बढा दी जाती हैं, इस तरह जीवन का एक घंटा बिना जिए ही आगे बढ़ जाता है।

यह वापस प्रति वर्ष अक्टूबर के आखिरी रविवार को 2 बजे 1 घंटा पीछे कर दी जाती हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि अप्रैल से यहां समर सीजन शुरू हो जाता है जब सूर्योदय जल्दी होने लगता है।

वह अवधि जब घड़ियाँ 1 घंटा आगे होती हैं उसे ब्रिटिश ग्रीष्मकालीन समय (BST) कहा जाता है। शाम को अधिक और सुबह में कम दिन का प्रकाश होता है (जिसे डेलाइट सेविंग टाइम भी कहा जाता है)। इस वर्ष 31 मार्च को आखिरी रविवार था, इसलिए जब मैं सुबह लंदन में सोकर उठा तो इंटरनेट से जुड़े होने के कारण मोबाइल में तो समय अपडेट हो चुका था, पर टेबल पर रखी घड़ी एक घंटे पीछे का टाइम ही बतला रही थी। रात 1 बजे समय को एक घंटा फारवर्ड कर दिया गया था। अब अक्तूबर के आखिरी रविवार अर्थात इस वर्ष 27 अक्तूबर को घड़ी वापस एक घंटा पीछे की जाएंगी। मतलब भारत के समय से जो साढ़े चार घंटे का अंतर यूके के समय का है, वह पुनः साढ़े पांच घंटो का कर दिया जायेगा।

दुनियां के कई देशों में इस तरह की प्रक्रिया अपनाई जाती है।

भारत में डेलाइट सेविंग टाइम का उपयोग नहीं किया जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भूमध्य रेखा के पास स्थित देशों में मौसमों के बीच दिन के घंटों में अधिक अंतर का अनुभव नहीं होता।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 187 – कन्या भोज – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा कन्या भोज ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 187 ☆

🌻 लघुकथा 🌻🌹 कन्या भोज 🌹

घर की साफ- सफाई करते-करते अचानक अलमारी के पुस्तकों के बीच एक कागज मिला कंचन सिहर उठी।

यही वह चिट्ठी थी, जिसने उसके मातृत्व सुख को तार – तार कर दिया था। चिट्ठी सास – ससुर के पास से लिखा गया था…. ‘सुनो पप्पू हमने यहाँ अनाथ बच्चियों के आश्रम जाकर कन्या भोज का इंतजाम करके आए हैं। पंडित जी का भी कहना है कि घर में बेटा पोता ही आएगा।

अब तुम भी कान खोल कर सुन लो हम सभी को बेटे की चाह है। वंश का नाम रोशन होगा।’

‘कल मंदिर के भी जागरण में हमने दान कर पोते के नाम की जयकारा लगवाई है।’ कंचन इसके आगे पढ़ती की पप्पू उसके पति देव की आवाज सुनाई पड़ी…. “क्या हुआ यह जानकर कि मैं सब जानता था तुम्हें गांव से इन सब बातों से दूर रखा। सारी बातें सुनता रहा समझता रहा। ताने सुन सुन आखिरी फैसला था… कि या तो गर्भ में हो रही बच्ची को गिरा दिया जाए या फिर बेटा ही होना चाहिए।”

“मुझे बेटा या बेटी से कोई फर्क नहीं पड़ता है। पड़ता है तो सिर्फ उसकी परवरिश, उसके संस्कार और उसके अच्छे सुनहरे भविष्य के लिए हम क्या कर सकते हैं।  माता-पिता की जिम्मेदारी।”

आज फिर मोहल्ले में कन्या भोज कराया जा रहा था। पप्पू के यहां बिटिया चहकती दौड़ते दौड़ते सभी पड़ोसियों के यहां कन्या भोजन करने जा रही थी।

अचानक शर्मा जी के यहाँ से आने के बाद वह अपनी मम्मी से पूछ बैठी ” मम्मी…. क्या कन्या भोज कराने से घर में वंश होता है?” “आज शर्मा आंटी ने कहा… बेटा तुम कन्या माता रानी का रूप हो वरदान देती जो कि मेरे घर में बेटा पैदा हो।”

“मम्मी.. क्या? आपने कभी कन्या भोज नहीं कराया था। क्योंकि सभी कह रहे थे कन्या भोज करने से बेटा होता है। बोलो ना आपने कराया होता तो मैं भी बेटा ही पैदा होती न।

फिर तो हम सभी एक साथ दादा-दादी के साथ रहते और आपको कड़वी बात नहीं सुननी पड़ती।

अब आप कन्या भोजन कर लेना। वंश आ जायेगा।” मम्मी- पापा अपनी बेटी का मुँह ताकते रहे।

बिटिया रानी अपनी बात कहते फिर चहकते हुए दूसरे घर जाने के लिए दरवाजे के बाहर निकल गई। पास में पड़ी हेयर पिन, चूड़ी, बिंदी, कंगन, डिब्बा, रिबन उपहार में मिले सामान उस मासूम के उपकार को बया कर रहे थे। मम्मी के नैनों से अश्रुं धार बह निकली उसे सहेजने और बटोरने लगी। पतिदेव ने कहा… “बेटियाँ होती ही प्यारी है।”

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 78 – देश-परदेश – जंगल में अमंगल ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 78 ☆ देश-परदेश – जंगल में अमंगल ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मानव जाति सैकड़ों वर्षों से जंगलों का दोहन करती आ रही है। अब समय बदल चुका है, जंगल में निर्वाह करने वाले अनेक जीव जंतु मानव  जीवन में ही प्रवेश कर उसे समाप्त कर चुके हैं।

प्रकृति अपना बदला ले कर रहती है। मानव जाति ने जंगल की संपदा को समेटा है, अब मानव जाति को जंगल के पशु और पक्षी समाप्त कर देंगे।

जंगल में इस बात को लेकर आपात काल लागू कर दिया गया कि कुछ जीव जंगल से पूरी तरह से समाप्त हो गए हैं। जैसे की कौआ, गिरगिट, कुत्ता, लोमड़ी, और चमगादड़। इनकी खोज खबर के लिए जंगल से एक विशेष टीम शहरों में गई और जंगल के राजा को अपनी  अंतरिम रिपोर्ट तय समयानुसार जमा करा दी है।

टीम के निष्कर्ष में पाया गया जंगल के सभी कौए दुनिया की विभिन्न टीवी चैनल पर एंकर का कार्य कर रहे हैं। गिरगिट तो जन मानस के नेता के रूप में मज़े ले रहे है।

कुत्ते नर और मादा दोनों आजकल दुनिया के गिरगिटों के मीडिया प्रभारी बन कर कौओं की चैनल पर रात दिन भौं भौं कर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं।

विश्व के सभी चमगादड़ मानव जाति में प्रवेश कर किसी काले से रंग के छोटे से डिब्बी नुमा यंत्र को सोते जागते पकड़े रहते हैं। ये यंत्र खाते, पीते इनके हाथ में रह कर मानव जाति के दिमाग को दीमक के समान खोखला करने में लगा रहता है।

लोमड़ी के बारे में बस इतना ही कहा, ये प्रजाति व्हाट्स ऐप के मैसेज का लेनदेन (कॉपी/पेस्ट) बहुत ही होशियारी और चालाकी से कर अपना नाम अर्जित करने में कार्यरत है।

आपके मन में भी किसी जंगल के जीव के बारे में इस प्रकार की जानकारी हो तो, साझा कर ग्रुप के सदस्यों का ज्ञानवर्धन कर सकते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #232 ☆ दोन्ही किल्ले… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 232 ?

दोन्ही किल्ले ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

नारी मुक्ती नारी मुक्ती गर्जत होते

मुक्त मनाने वावरले की बडवत होते

*

का काट्यांनी फुलाभोवती केले कुंपण

कळीस तर ते डोक्यावरती चढवत होते

*

स्त्री जातीच्या वाटा विस्तृत केल्या ज्यांनी

त्या वाटेवर महिलांना मी वळवत होते

*

जगापुढे या सावित्रीच्या लेकी याव्या

म्हणून नारी शक्तीला मी घडवत होते

*

शुभ्र पांढरी लोकर वाटे ती डोळ्यांना

शीत कड्यांचे समोर मोठे पर्वत होते

*

वाऱ्यासोबत धावत सुटलो आम्ही साऱ्या

ते हाताने सुगंध आता अडवत होते

*

बेड्या हाती पडल्यावरही कुठे थांबले

घर व नोकरी दोन्ही किल्ले लढवत होते

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ “गुढीपाडवा…” ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “गुढीपाडवा…” ☆ सौ राधिका भांडारकर 

शालिवाहन या राजाने शालिवाहन शकास सुरुवात केली आणि या शकाची सुरुवात अर्थात आरंभ म्हणजेच गुढीपाडवा होय. तो दिवस म्हणजे चैत्र शुद्ध प्रतिपदा. पहिला महाराष्ट्रीयन राजा म्हणून आजही शालिवाहन राजाचे महत्व आहे. या संदर्भात एक अख्ख्यायिका आहे.

शालिवाहन राजाने मातीची माणसे बनवली. त्यावर पाणी शिंपडून त्यांच्यात प्राण भरला आणि हेच होते शालिवाहनाचे  सैन्य. या सैन्याच्या मदतीने त्याने प्रभावी शत्रूंचा पराभव केला. या विजया प्रित्यर्थ शालिवाहन शके सुरू होऊन नवीन वर्षाची सुरुवात होते.  या दिवशी पंचांग वाचन आणि देवी सरस्वतीचे पूजन करून हिंदू नववर्षाचे स्वागत केले जाते.

महाभारतातील आदीपर्वा मध्ये उपरीचर नामक राजाने इंद्रा कडून मिळालेली कळकाची काठी इंद्राला नमन म्हणून जमिनीत रोवली आणि त्या काठीची पूजा केली. हा दिवस होता चैत्र शुद्ध प्रतिपदेचा. नवीन वर्षाचा आरंभ दिन म्हणून या दिवसाला  गुढीपाडवा असे म्हणून साजरा करण्याची पद्धत आहे.

ब्रह्मदेवाने सृष्टी निर्माण केली तो हाच पवित्र दिवस. ब्रह्मदेवाने विश्व निर्मिती केली ती याच दिवशी आणि पुढे सत्य युगाची सुरुवात झाली.  या दिवशी विश्वातील तेज तत्व आणि प्रजापती लहरी या मोठ्या प्रमाणात उत्सर्जित होतात आणि गुढीच्या माध्यमाने आपण त्या अधिकाधिक संचित करायचा प्रयत्न करतो.

भगवान विष्णूने  मत्स्य रूप धारण करून शंखासुराचा वध केला तोही दिवस म्हणजे चैत्र शुद्ध प्रतिपदा.

लंकाधीश  रावणाचा वध करून श्रीराम १४ वर्षांचा वनवास संपवून अयोध्येस परतले आणि अयोध्या नगरवासीयांनी घरावर गुढ्या, तोरणे उभारून आनंदोत्सव साजरा केला म्हणूनच गुढीपाडवा म्हणजे विजय दिन.  हा दिवस  देशभर साजरा केला जातो.

गुढीपाडवा साजरा करण्या संदर्भात अशा अनेक आख्यायिका आहेत पण या दिवसा मागे एक निसर्ग तत्त्वही आहे. गुढीपाडव्या निमित्ताने त्याचाही विचार व्हायला हवा.

शिशिरातील पानझडी नंतर ऋतुचक्र हळुवार कूस पालटते आणि पर्णहीन वृक्षांना नवचैतन्याची चाहूल लागते, रंगविभोर फुलांनी डवरलेल्या वृक्षाचं पुष्पवैभव, आंबेमोहराचा सुगंध, कोकिळेचा वसंत पंचम एका सर्जनशील ऋतुच्या आगमनाची वर्दी घेऊन येतो. रंग, रूप, गंध! नाद स्पर्शातील शालीनता म्हणजे वसंतागमनाची नांदी आणि त्यासाठीच गुढीपाडव्याच्या निमित्ताने केलेला चैत्र शुद्ध प्रतिपदेचा, नववर्षाचा, आरंभाचा आनंदोत्सव.

युगादि तथा उगादी या नावानेही हा दिवस साजरा केला जातो. (आंध्र प्रदेशात) पडव, पाडवो या संस्कृत शब्दाचा मराठी अपभ्रंश पाडवा. याचा अर्थ  चंद्राची कला. चैत्रशुद्ध प्रतिपदे नंतर चंद्र कले कलेने वाढतो म्हणून यास चैत्र पाडवा म्हणतात. आपले पूर्वज निसर्गा विषयी कृतज्ञता पाळण्यासाठी सूर्य, चंद्र, पर्वत, नदी, वृक्ष यासारख्या निसर्ग स्वरूपाची पूजा करायचे त्यातूनच या प्रतीकात्मक गुढीची निर्मिती झाली.

गुढी म्हणजे ब्रह्मध्वज— विजय ध्वज. पराक्रम, विजय, सर्जनशीलता, उत्पत्ती आणि चैतन्य यांचे प्रतीकात्मक पूजन म्हणजे गुढीपाडवा.

घराचा दरवाजा, खिडकी, अथवा गच्ची भोवतालची जागा  स्वच्छ करून धान्य आणि रांगोळीने सजलेल्या पाटावरून मोकळ्या आकाशात सहा ते सात फूट उंचावर एक काठी उभारावी त्यावर साडी व जरीचे वस्त्र गुंडाळावे, वरती तांब्याचा किंवा कोणत्याही धातूचा कलश उपडा ठेवावा, फुलांची माळ, कडुनिंबाचा पाला आणि साखरगाठीने  काठी सजवावी.

अशा रीतीने गुढीची पूजा करण्यामागे काही शास्त्रीय संदर्भ आहेत. गुढी म्हणजे ब्रह्मध्वज हे मनुष्य देहाचेही प्रतीक आहे. गुढीसाठी वापरण्यात येणारी काठी म्हणजे आपल्या मेरुदंडाचे, मणक्याचे,कण्याचे प्रतीक आहे. शरीराला ताठ उभे करण्यासाठी जसा मणका गरजेचा तसा गुढीचा हा बांबू! शरीर केवळ हाडांसह चांगले कसे दिसेल? त्यावर मासाचे आवरण असते म्हणून बांबूला रेशमी वस्त्रादी  गोष्टींने सजविले जाते आणि त्यावर मस्तकरुपी कलश ठेवला जातो.

वैज्ञानिकतेच्या नजरेतूनही याचे महत्त्व आहे. चैत्र शुद्ध प्रतिपदेला प्रजापतीच्या प्रकाश लहरी सर्वाधिक प्रमाणावर धरतीवर येतात. गुढीवरचा उपडा कलश म्हणजे जणू काही डिश अँटेनाच. तो वातावरणातल्या या  लहरी खेचून घेतात आणि या लहरींचा स्पर्श छताखाली राहणाऱ्या लोकांना होतो. या लहरींनी जमिनीची उत्पादन क्षमता ही वाढते म्हणूनच शेतकरी या महिन्यात शेतीची नांगरणी करतात.

गुढीपाडव्याच्या दिवशी कडुनिंबाच्या पानांचंही खूप महत्त्व आहे. गुढीचा प्रसाद म्हणून धणे, गुळ आणि कडुनिंबाचा पाला यांचे एकजीव मिश्रण दिले जाते. कडूनिंब म्हणजे पुराणातला परिभद्र वृक्ष. हा संजीवक वृक्ष आहे आणि यांच्या पर्णसेवनाने रोगप्रतिकारक शक्ती वाढते. चैत्रात हा नवी पालवी धारण करतो म्हणून नवचैतन्य देणाऱ्या कडूनिंबाचे या दिवशी फार महत्त्व आहे.

कडुनिंबाचं कडूपण आणि साखरगाठीचा गोडवा …किती सूचक मिश्रण आहे हे! माणसाचं जगणं असंच असतं ना थोडं कडू थोडं गोड. काही वेळा कटू बोलावं लागतं, ऐकावही लागतं आयुष्यातली कडू ही चवही अपरिहार्य आहे आणि असं बघा सगळंच गोड असतं तर जगण्यासाठी काही आव्हान उरलं असतं का?

आता या सणा मागची आणखी एक गंमत! थोडा मिस्कीलपणा! ज्यात आपलं बालपण सांचलेलं आहे. चिडवत होता की नाही तेव्हा ….”गुढीपाडवा आणि नीट बोल गाढवा”

आता याचा विचार करताना  वाटते या गमतीदार शब्दसमूहात केवळ यमकच नव्हे तर एक सहज मारलेली आपुलकीची टप्पल आहे हो! जगण्याचं भान देणारी टप्पल.. गुढीपाडव्याच्या सणानिमित्त मिळणारा एक आनंदाचा संकेत आणि संस्कार.

आपणा सर्वांना नववर्षाच्या खूप खूप शुभेच्छा!!

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ मी तो भ्रमर… ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

 

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– मी तो भ्रमर – ? ☆श्री आशिष  बिवलकर ☆

कमनीय बांधा तुझा,

अप्सरेपरी तुझे लावण्य |

मादकपणा नजरेत,

वेड लावी तुझे तारुण्य |

*

मादक नजरेत तुझ्या,

वर्षावती जुलमी बाण |

घायाळ करती मज,

ओवाळावे तुझ्यावर प्राण |

*

चांदण्यात शोभावी

जशी  शुक्राची  चांदणी |

लाखात एक उमटून दिसावी,

अशी सौंदर्यवती तू देखणी |

*

मंजूळ आवाज तुझा,

मधापरी त्यात माधुर्य |

घुमती कानी शब्द तुझे,

शब्दांना तुझेच सौंदर्य |

*

न्याहाळताना तुझे सौंदर्य,

माझा मी रहात नाही |

मंत्रमुग्ध होऊन जातो,

आठवेना तुझ्यापुढे काही |

*

कमल नयन तुझे,

मोहित मी तो भ्रमर |

मिटावे कमलदल तू,

गुंतून जावे जीवनभर |

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 183 – सुमित्र के दोहे… जीवन  ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपके अप्रतिम दोहे – जीवन।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 183 – सुमित्र के दोहे… जीवन ✍

क्षणभर का सानिध्य ही, तन में भरे उजास।

दर्शन की यमुना हरे, युगों युगों की प्यास।।

*

हृदय और मरुदेश में, अंतर नहीं विशेष।

हरित भूमियों के तले, पतझड़ के अवशेष ।।

*

तन-मन में शैथिल्य है, गहरा है अवसाद ।

एक सहारा शेष है, अपने प्रिय की याद।।

*

यह सांसों की बांसुरी, कब लोगे तुम हाथ ।

प्रश्नाकुल साधे कहें, कब तक रहें, अनाथ।।

*

मरुथल जैसी जिंदगी, अंतहीन भटकाव।

हरित भूमियों से मिले, जीवन के प्रस्ताव।।

*

नील वसन तन आवरित, सितवर्णी छविधाम।

कहां प्राण घन राधिके, अश्रु अश्रु घनश्याम।।

*

मौसम की गाली सुने, मन का मौन मजूर ।

और आप ऐसे हुए, जैसे पेड़ खजूर।।

*

जंगल जंगल घूम कर, मचा रहे हो धूम ।

पंछी को पिंजरा नहीं, ऐसे निकले सूम।।

*

क्या मेरा संबल मिला, बस तेरा अनुराग ।

मन मगहर को कर दिया, तूने पुण्य प्रयाग।

*

सांस सदा सुमिरन करें, आंखें रही अगोर।

अहो प्रतीक्षा हो गई, दौपदि वस्त्र अछोर।।

*

बरस बीत कर यो गया, मेघ गया हो रीत।

कालिदास के अधर पर, यक्ष प्रिया का गीत।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 185 – “इधर आँख में आँसू…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  इधर आँख में आँसू ...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 185 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “इधर आँख में आँसू ...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

उतर गई सूरज की पीली-

धूप बढ़ी छाया ।

गया‘ , दिहाडी से अब

तक क्यों लौट नहीं पाया?

 

उसकी बेटी कल से भूखी

व कुपोषिता थी ।

ग्राम महाजन के कर्जे की

रुग्ण शोषिता भी

 

उसके सूखे कंठ सिर्फ

अटका था यह जुमला-

माँ कब दोगी रोटी कल

से कुच्छ नहीं खाया ॥

 

पिघले शीशे से उंडेल

कर शब्द अचेत हुई ।

मेरी बेटी बची सिर्फ

क्या जैसे छुईमुई ।

 

ऐसा सोच गयारमवा

की औरत दरवाजे –

आतुर खड़ी प्रार्थना

करती सुन लो रघुराया ॥

 

तनिक देर के बाद कोई

हरकारा चिल्लाया ।

मढ़ पर भण्डारा, हुजूर ने

सबको बुलवाया ।

 

इधर आँख में आँसू मन

में लहर खुशी की रख –

गयाराम की बीबी कहती

धन्य प्रभू माया ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

22-03-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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