हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 195 ☆ इन सम यह उपमा उर आनी… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “इन सम यह उपमा उर आनी…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 195 ☆ इन सम यह उपमा उर आनी

एक शब्द दो लोग पर अर्थ अलग निकलता है। हमारा व्यक्तित्व उसके साथ जुड़कर उसे  शक्तिशाली बनाता है। जिनकी कथनी और करनी में भेद हो, केवल एक पक्ष को साधते हुए बयानबाजी  की जा रही हो तो शक होना जायज है। जल्दबाजी में दूसरे के शब्दों को कापी कर  स्वयं बढ़चढ़ कर बोलना और हँसी का पात्र बनना। सच तो ये है कि जब दोहरा चरित्र हो तो हास्य के साथ शर्मनाक स्थिति बन जाती है, जिसे सुधारने की नाकाम कोशिश, अनजाने ही उलझन उतपन्न कर देती है। वर्षों से एक ही पदचिन्ह पर चलना और नए युग से तारतम्यता न रख पाना आपको गर्त में धकेल रहा है। जिसे सब कुछ पहले ही मुक्त हस्त से सौंप दिया हो और अब फिर देने की घोषणा करना कहाँ तक उचित है। बंदरबाट की विचार धारा से उन्नति नहीं हो सकती है। जो जिसके योग्य है उसे वो मिलना चाहिए अन्यथा आप के साथ वो भी डूबेगा जिसकी चिंता में आप दिन- रात  एक करते जा रहे हैं।

सत्यराज से सत्यधर्म तक सबको समान अवसर मिलना चाहिए। गुणीजन जब बड़े पदों में बैठेंगे तभी सही निर्णय होंगे। रणनीति बनाने की कला सबको नहीं आती। सही विचारधारा के साथ सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय का चिंतन जनकल्याण की दिशा को गति प्रदान करेगा।

आछे दिन पाछे गए, गुरु सो किया न हेत।

अब पछताए होत क्या? चिड़िया चुग गय खेत।।

हैरानी तो तब होती है जब सलाहकार विदेशी धरती पर बैठकर देश को राह दिखाने की नीतियाँ निर्धारित करता हो। समझदारी को ताक पर रख कुछ भी बोलते जाना क्योंकि जो बोल रहे हैं उसका अर्थ तो सीखा ही नहीं। जिसका जमीनी जुड़ाव नहीं होगा उसे न तो कहावतों  न ही मुहावरों का पता होगा। वो बस लिखा हुआ पढ़ेगा। अरे भई कम से कम ऐसा लिखने वाला तो ढूंढिए जो चने के झाड़ में बैठ कर न लिखता हो, उसे हिंदी और हिन्द के निवासियों के मन की जानकारी हो।

अभी भी समय है जागिए अन्यथा- जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 280 ☆ परिचर्चा – सवाल लेखकों के जवाब मेरे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक परिचर्चा सवाल लेखकों के जवाब मेरे। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 280 ☆

? परिचर्चा – सवाल लेखकों के जवाब मेरे ?

(समकालीन व्यंग्य समूह एक मासिक स्तम्भ चलाता है  “रचनाकार कठघरे में “ इसमें लेखक से लेखक ही सवाल करते हैं। इसी स्तंभ में ई-अभिव्यक्ति के विवेक रंजन श्रीवास्तव।)

पहला सवाल — क्या आज के अधिकांश लेखक मजदूर से भी बदतर हैं जो बिना परिश्रमिक निरंतर लिख रहे हैं। इसके लिए लेखक या संपादक में कौन जिम्मेवार है ?

       — प्रभात गोस्वामी

उत्तर …मजदूर तो आजीविका के लिए किंचित मजबूर होता है, पर लेखक कतई मजबूर नहीं होता।

बिना पारिश्रमिक लिखने के पीछे छपास की अभिलाषा है। संपादक इसके लिए दोषी नहीं कहे जा सकते, यद्यपि पत्र , पत्रिका का मैनेजमेंट अवश्य दोषी ठहराया जा सकता है, जो लेखन के व्यय को बचा रहा है।

सवाल 2… व्यंग्य विधा हमेशा विद्रूपताओं को उजागर करती आई है। इसमें आम आदमी का दर्द और परेशानियों का अधिकतर समावेश होता रहा है। आज मजदूर दिवस पर यह सवाल लाजिमी हो जाता है कि क्या एक श्रमिक को व्यंग्य का पात्र बनाना उचित होगा ? वैसे भी यह वर्ग हमेशा उपहास का पात्र ही रहा है। आप क्या सोचते हैं ? कृपया बताएं।

– प्रीतम लखवाल, इंदौर

उत्तर … आपके प्रश्न में ही उत्तर निहित है, मजदूर यदि कामचोरी ही करे  तो उसकी इस प्रवृत्ति पर अवश्य व्यंग्य लिखा जाना चाहिए। हमने कई व्यंग्य पढ़े हैं जिनमे घरों में काम करने वाली मेड पर कटाक्ष हैं ।

मेहनतकश होना बिलकुल भी  उपहास का पात्र नहीं होना चाहिए।

प्रश्न : मैं तो कलम का मजदूर हूं इस उक्ति में कितनी सच्चाई है ?

एक श्रमिक के शारीरिक श्रम और बुद्धिजीवियों के श्रम में भारी अंतर है। दोनों एक दूसरे का पर्याय नहीं हो सकते, फिर बुद्धिजीवियों के सर पर ही मोरपंख क्यों खोंस दिये जाते हैं ?

–इन्दिरा किसलय

उत्तर : बुद्धिजीवी ही मोरपंख खोंसते हैं, वे ही उपमा , उपमेय, रूपक गढ़ते हैं।

मैं तो कलम का मजदूर हूं , किन्ही संदर्भो में  शब्दों की बाजीगरी है।

बौद्धिक श्रम और शारीरिक मजदूरी नितांत भिन्न हैं ।

सवाल – कहते हैं कि कविता के पांव अतीत में होते हैं और उसकी आंखें भविष्य में होती हैं, पर व्यंग्य इन दिनों लंगड़ा के चल रहा है और उसकी आंखों में मोतियाबिंद जैसा कुछ हो गया है ? आप इस बात पर क्या कहना चाहेंगे ?

 – जयप्रकाश पाण्डेय 

जवाब… विशेष रूप से नई कविता की समालोचना में  प्रयुक्त यह  युक्ति सही है , क्योंकी कविता की पृष्ठ भूमि , इतिहास की जमीन , विगत से उपजती है। प्रोग्रेसिव विचारधारा की नई कविता उज्ज्वल भविष्य की कल्पना के सपने रचती है । किंबहुना यह सिद्धांत प्रत्येक विधा की रचना पर आरोपित किया जा सकता है, व्यंग्य पर भी। किंतु आप सही कह रहे हैं की व्यंग्य लंगड़ा कर चल रहा है। व्यंग्य को महज सत्ता का विरोध समझने की गलती हो रही है, मेरी समझ में व्यंग्य विसंगतियों का विरोध है ।

यह हम आप की ही जबाबदारी है कि अपने लेखन से हम समय रहते व्यंग्य की लडखडाहट से उसे उबार लें ।

सवाल – बहुरूपिए निस्वार्थ भाव से त्याग करते हुए लोगों को हंसाते और मनोरंजन करते हैं। साथ ही समाज में फैली विसंगतियों पर कटाक्ष करते हुए लोगों को जागरूक बनाते हैं। पर व्यंग्यकार को बहुरूपिया कह दो तो वह मुंह फुला लेता है, क्या आप मानते हैं व्यंग्यकार बहुरूपिया होता है ?

— जयप्रकाश पांडेय 

उत्तर …व्यंग्यकार व्यंग्यकार होता है, और बहुरूपिया बहुरूपिया । कामेडियन कामेडियन … अवश्य ही कुछ कामन फैक्टर हैं । व्यंग्यकार को बहुविध ज्ञानी होना पड़ता है, और कभी अभिव्यक्ति के लिए बहुरूपिया भी बनना पड़ सकता है।

प्रश्न : एक राम घट-घट में बोले की तर्ज पर विधा-विधा में व्यंग्य बोलता है। फिर भी इसको अलग श्रेणी की विधा मानने का विमर्श खड़ा करना क्या समुचित हैं ?

— भंवरलाल जाट

उत्तर … बिजली से ही टीवी , लाइट , फ्रिज , पम्प , सब चलते हैं, फिर भी बिजली तो बिजली होती है, उस पर अलग से भी बात होती है।

व्यंग्य हर विधा में प्रयुक्त हो सकता है , पर निखालिस व्यंग्य लेख का अपना महत्व है। उसे लिखने पढ़ने का मजा ही अलग है। इसी लिए यह विधा विमर्श बना रहने वाला है।

प्रश्न… विवेक जी, आप व्यंग्य के वैज्ञानिक हैं। तकनीकी व्यंग्य लेखन के कुछ पाॅइंट हमें भी सिखाईये।

साथ ही आपके व्यंग्य में शीर्षक हमेशा बड़े होते हैं। क्या शीर्षक भी प्रभाव डालते हैं ?

— सुषमा ‘राजनिधि’ इंदौर,

उत्तर … सुषमा जी यह आपका बड़प्पन है कि आप मुझे ऐसा समझती हैं। अब तो  व्यंग्य लेखन की स्वतंत्र वर्कशाप आयोजित हो रही हैं, प्रेम सर का प्रयोग सफल हो। हम सब एक दूसरे को सुनकर , पढ़कर प्रेरित होते हैं। कभी मिल बैठ विस्तार से बातें करने के अवसर मिलेंगे तो अच्छा लगेगा ।

जहां तक शीर्षक का प्रश्न है, मेरा एक चर्चित आलेख है ” परसाई के लेखों के शीर्षक हमे शीर्षक निर्धारण की कला सिखाते हैं “

न तो शीर्षक बहुत बड़ा होना चाहिए और न ही एक शब्द का की भीतर क्या है समझ ही न आए । शीर्षक से लेख के कर्टन रेजर का काम भी लिया जाना उचित है।

बच्चो के नाम पहले रखे जाते हैं , फिर उनका व्यक्तित्व विकसित होता है , जबकि व्यंग्य लेख में हमें अवसर होता है कि हम विचार लिपिबद्ध कर ले फिर शीर्षक तय करें । मैं इसी छूट का लाभ उठाया करता हूं।

प्रश्न…  कुछ व्यंग्यकार झूठों के सरताज, नौटंकीबाज, मक्कार और जहर उगलने वाले नेता की इन प्रवृत्तियों पर इसलिए प्रहार करने से परहेज करने की सलाह देते हैं कि वह जनता द्वारा चुना गया है। क्या ऐसे जनप्रतिनिधि को व्यंग्यकारों द्वारा बख्शा जाना चाहिए ?

ऐसी विसंगतियों के पुतले जनप्रतिनिधि का बचाव करने वाला लेखक क्या व्यंग्यकार कहलाने का हकदार है ?

— टीकाराम साहू ‘आजाद’

जवाब : आजाद जी , मेरा मानना है कि हमें पूरी जिम्मेदारी से ऐसे नेता जी पर जरूर लिखना चाहिए, व्यक्तिगत नाम लेकर लिखने की जगह उन प्रवृतियों पर कटाक्ष किए जाने चाहिए जिससे यदि वह नेता उस लेख को पढ़ सके तो कसमसा कर रह जाए ।

जनता द्वारा चुन लिए जाने मात्र से नेता व्यंग्यकार के जनहितकारी विवेक से ऊपर नहीं हो सकता।

सवाल…  व्यंग्य का पाठक वर्ग कितना बड़ा है? क्या व्यंग्यकार ही इसे पढ़ते हैं या यह आम जनता तक भी पहुँचता है ?

कविता के लिए तो कवि सम्मेलनों में व्यापक पब्लिसिटी से जनता का आवाहन किया जाता है और वह जन-जन तक पहुँचती है लेकिन यह व्यवहार व्यंग्य में नहीं है। व्यंग्य की जब भी बैठक/गोष्ठियां, आयोजन/सम्मेलन होते हैं तो उसमें प्राय: व्यंग्य लेखक ही सम्मिलित होते हैं या एक दो अतिथि और मुख्य अतिथि। क्या यह  स्थिति व्यंग्य के हित में है ?

क्या व्यंग्य, व्यंग्य लेखकों के बीच ही नहीं सिमट कर रह गया ?

— के.पी.सक्सेना ‘दूसरे’

जवाब… मेरा मानना है कि व्यंग्य का पाठक वर्ग विशाल है, तभी तो लगभग प्रत्येक अखबार संपादकीय के बाजू में व्यंग्य के स्तंभ को स्थान देता है।

यह और बात है की कई बार फीड बैक न मिलने से हमे लगता है कि व्यंग्य का दायरा सीमित है।

वरन गोष्ठियों के विषय में मुझे लगता है की लोग अपनी सुनाने में ज्यादा रुचि रखते हैं, शर्मा हुजूरी मित्रो की वाहवाही भी कर लेते हैं।

यदि छोटे व्यंग्य,  किंचित नाटकीय तरीके से प्रस्तुत किए जाए तो उनके पब्लिक शो सहज व्यवहारिक हो सकते हैं। जो व्यंग्य के व्यापक हित में होगा । आजकल युवाओं में लोकप्रिय स्टेंडप कामेडी कुछ इसी तरह के थोड़े विकृत प्रयोग हैं  ।

प्रश्न… आदरणीय विवेक जी

क्या गुरु को दक्षिणा स्वरुप अंगूठे की अभिलाषा रखनी चाहिए ? अंगूठा मांगना तो एक विकृति रही थी। क्या उसकी पुनरावृति होनी चाहिए ?

आप रचनात्मक और सृजनात्मक परिवार से हैं, किन्तु आपकी नौकरी बहुत सारी उन विसंगतियों से परिपूर्ण रही हैं जो व्यंग्य के विषय बन सकते हैंl ऐसे में सामंजस्य कैसे बना पाते थे ?

— परवेश जैन

उत्तर … परवेश जी गलत को किसी भी तरह की लीपा पोती से त्वरित कितना भी अच्छा बना दिया जाए समय के साथ वह गलत ही कहा और समझ आ जाता है ।

प्रचलित कथा के आचार्य द्रोण एकलव्य के संदर्भ में एक दूसरा एंगल भी दृष्टव्य और विचारणीय है । मेरी बात को इस तरह समझें कि यदि आज कोई विदेशी गुप्तचर भारतीय आण्विक अनुसंधान के गुर चोरी से सीखे तो उसके साथ क्या बरताव किए जाने चाहिए ??

एकलव्य हस्तिनापुर के शत्रु राज्य मगध के सेनापति का पुत्र था। अतः द्रोण की जिम्मेदारी उनकी धनुरविद्या को शत्रु से बचाने की भी मानी जानी चाहिए। इन स्थितियों में उन्होंने जो निर्णय लिया वह प्रासंगिक विशद विवेचना चाहता है । अस्तु ।

मैंने जीवन में हमेशा हर फाइल अलग रखी, घर, परिवार, आफिस, साहित्य … व्यंग्य लेखन में कार्यालयीन अनुभवों के साथ  हर सुबह का अखबार नए नए विषय दे दिया करता था।

सवाल… व्यंग्य उपन्यास लिखना कठिन कार्य है, हरिशंकर परसाई जी के “रानी नागफनी” से लेकर डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी के “नरक यात्रा” तक व्यंग्य उपन्यासों की लंबी सूची है लेकिन जब चर्चा  होती है तो सुई “राग दरबारी” पर आकर क्यों अटक जाती है ?

— जय प्रकाश पाण्डेय

जवाब… शायद कुछ तो ऐसा भी होता ही है की जो सबसे पहले सर्वमान्य स्थापना अर्जित कर लेता है , वह लैंडमार्क बन जाता है। उसी से कम या ज्यादा का कंपेरिजन होता है।

रागदरबारी जन मूल्यों पर आधारित व्यंग्य लेखन है , सुस्थापित है ।  उससे बड़ी लाइन कोई बने तो राग दरबारी का महत्व कम नहीं होगा ।

सवाल… व्यंग्यकार व्यंग्य को भले ही व्यंग्य लिख लिख कर हिमालय पर बिठा दें लेकिन साहित्य जगत में उसको आज भी अछूत माना जाता है। एक किताब के विमोचन समारोह में अतिथि जिन्होंने विमोचन भी किया था तब उन्होने व्यंग्य के लिए कहा था कि व्यंग्य तो कीचड़ है आप क्यों उसमें पड़े हैं। साथ ही कहा था कि अच्छा है आप अन्य विधाओं में भी लिख रहे हैं तो उससे मुक्त हो जायेंगे ।

– अशोक व्यास

जवाब…एक विधा में पारंगत जरूरी नहीं की दूसरी हर विधा में भी पारंगत ही हो , और उसकी पूरी समझ रखता हो।

ऐसे में इस तरह के बयान आ जाना स्वाभाविक नही है।

प्रश्न…व्यंग्य विधा में भी प्रयोग की गुंजाइश है। प्रयोग से व्यंग्य रचना और ध्यान खींच सकती है। आपके क्या विचार हैं ?

इसके लिए क्या प्रयास किये जा रहे हैं ?

— अनिता रश्मि

उत्तर… खूब संभावना है। प्रयोग हो ही रहे हैं। डायरी व्यंग्य , पत्र लेखन व्यंग्य , कहानी, विज्ञान कथा व्यंग्य , संवाद व्यंग्य , आत्मकथा व्यंग्य , संस्मरण व्यंग्य , आदि ढेरो तरह से रची गई रचनाएं पढ़ी है मैने ।

प्रश्न… मजदूरों के कुछ आम नारे हैं। पहला – “दुनिया के मजदूरों एक हो।”  मगर मजदूर एक न हुए।

दूसरा – “जो हमसे टकराएगा… चूर चूर हो जाएगा।” लेकिन मजदूरों से टकराने वाले अधिक पत्थर दिल हुए।

तीसरा – “हर जोर जुलुम की टक्कर में…हड़ताल हमारा नारा है।”  किंतु जोर जुलुम बरक़रार है।

चौथा – “इंकलाब ज़िंदाबाद।” पर इंकलाब के तेवर अब, ढीले हैं।

फिर मजदूर दिवस का औचित्य क्या ?

— प्रभाशंकर उपाध्याय

जवाब… वामपंथ अब ढलान पर है । ये सारे नारे वामपंथ के चरम पर दिए गए थे। शहीद  भगत सिंह अपने समय में इस विचारधारा से प्रभावित हुए। किंतु समय के साथ साम्यवाद असफल सिद्ध हो रहा है। संभवतः मजदूरों का शोषण जितना चीन में है , अन्यत्र नहीं।

यदि मजदूरों को उनके वाजिब हक मिल जाएं तो ये नारे स्वतः गौण हो जाएं।यूं मजदूरों के हक की लड़ाई के लिए बनाए नारे कभी खत्म नहीं होते,समय बदलता है पर दबे कुचले मजदूरों के हक हमेशा जिन्दा रहते हैं, ये इंसानियत को जिंदा रखने वाले होते हैं। यही प्रगति भी है शायद , एक हक मिलते ही दूसरे के लिए जागना नैसर्गिक  प्रवृति है।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 4 – अंतर्मन का भाषण ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अंतर्मन का भाषण)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 4 – अंतर्मन का भाषण ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

एक मंत्री जी अपने जीवन की अंतिम साँसें गिन रहे थे। उनके पास अधिक समय नहीं था। सो उन्होंने अपने लड़के को पास बुलाया और कहा – “मुझे नहीं पता कि मैं और कितनी देर जी पाऊँगा। मैं चंद पलों का मेहमान हूँ। तुमने मेरे कई भाषण सुने हैं। ये सभी बाहरी भाषण हैं। इन्हें हर कोई सुन सकता है। लेकिन मैं तुम्हें आज एक भाषण सुनाऊँगा जो तुम्हें बाहर नहीं अपने अंतर्मन में हमेशा दोहराना होगा। यदि तुम इस भाषण का गूढ़ार्थ समझ गए तो तुम्हें किसी चीज़ की कमी नहीं खटकेगी। सफलता तुम्हारे क़दम चूमेगी। तो ध्यान से सुनो–

भाइयो और बहनो! मैं सबको हाथ जोड़कर सिर झुकाए प्रणाम करता हूँ। आपको पता है कि मेरे पिता ने किस तरह विश्वास दिलाकर, वोट हथियाकर, विधायक बने, फिर मंत्री बनकर करोड़ो रुपए डकार गए। आपको भनक तक नहीं लगने दी। दूधमुँहे बच्चों के दूध से लेकर पूँजीपतियों को ज़मीन मंजूर करने तक की हर स्कीम में एक से बढ़कर एक स्कैम किए, इन स्कैमों के चलते जो नाम कमाया है, वह किसी से छिपा नहीं है। उनका नाम टाइप करने भर से गूगल का सर्च इंजन काँपने लगता है। धरती फटने लगती है। उसी फटी धरती में खुद धरती माँ समाने के लिए मचलने लगती है। सरकार ने मेरे पिता को एक सौ करोड़ रुपए देकर गरीबों के लिए घर बनाने को कहा तो उन्होंने आपको झुग्गी-झोपड़ियाँ बनाकर दी। अब आप पूछेंगे कि वे सौ करोड़ रुपए कहाँ गए, तो मैं उसका पूरा हिसाब लेकर आया हूँ। तो सुनिए, पचास करोड़ में हमारे लिए दिल्ली में सभी ऐशो-आराम वाला गेस्ट हाऊस बनवाया। शेष बचे रुपयों से अपनी रखैल के लिए शॉपिंग मॉल बनवाया। आप लोगों से आऊटर रिंग रोड के नाम पर खेती करने वाली ज़मीनें छीनकर प्राइवेट कंपनियों के मालिकों को बेच डाला। इतना सब करने के बावजूद किसी ने मेरे पिता को भ्रष्टाचारी कहने की हिम्मत नहीं की। न जाने कितनी हत्याएँ कीं, बलात्कार किए, ज़मीन हड़पी लेकिन किसी ने चूँ तक नहीं की। बल्कि उनके लिए आप विरोधियों से लड़ गए। चुनाव के समय एक दारू की बोतल, बिरयानी पैकट और एक हरी पत्ती फेंकने पर कुत्तों से भी अधिक दुम हिलाकर विश्वास दिखाने वाली आपकी कला पर हमें गर्व है।

मेरे देशवासियों चिंता मत कीजिए। पिता जी नहीं रहे तो क्या हुआ, मैं तो हूँ न। मेरे पिता द्वारा स्थापित कीर्तिमान को साक्षी मानते हुए मैं आपसे प्रण करता हूँ कि अंतरिक्ष में जितने तारे हैं, मैं उनसे भी ज्यादा स्कैम करूँगा। मैं अपने पिता को किसी भी सूरत में निराश नहीं होने दूँगा। उन्होंने आपके लिए कम से कम झुग्गी-झोपड़ियाँ तो बनवाईं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपकी झुग्गी-झोपड़ियाँ नेस्तनाबूद करके आप सभी को मंदिरों की चौखट पर भीख माँगने के लिए मजबूर कर दूँगा। मेरे पिता जी ने आऊटर रिंग रोड के नाम पर आपकी आधी ज़मीनें छीन लीं। मैं उन्हीं का बेटा हूँ। मुझमें उन्हीं का असली खून दौड़ता है। मैं बिना हड़पे कैसे रह पाऊँगा। मैं एयरपोर्ट के नाम पे झूठा वादा करके बाकी बची ज़मीनें भी छीन लूँगा।

सोचिए देशवासियों  मैं यह सब आपको क्यों बता रहा हूँ। इसलिए कि मैंने आप जैसी मूरख जनता कहीं नहीं देखी है। मेरे पिता ने लाख स्कैम किए, बलात्कार किए, हत्याएँ कीं, फिर भी आप उन्हें जिताते रहे। जब तक आप जैसे भेड़ हैं तब तक मुझ जैसे लकड़बग्घों का चुनाव में खड़ा होना ज़रूरी है।  मुझे और मेरे परिवार को पता चल गया है कि आपमें शर्म-हया नाम की चीज़ नहीं बची है। मैं आपके खून-पसीने की कमाई से विदेश में महंगी पढ़ाई के साथ-साथ मौज मस्ती करता रहा और आप थे कि अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के लिए भी तरस गए। मेरे पिता अक्सर कहा करते थे कि मूरख जनता को मूरख न बनाना हमारी मूरखता होगी। उन्होंने कहा था कि नेता के पेट से नेता और गरीब के पेट से गरीब ही पैदा होता है। विधायक से मंत्री बनना मेरे पिता का खानदानी बिजनेस है। मैं उसी बिजनेस की परंपरा निभा रहा हूँ। इस बार मैं चुनाव में खड़ा हूँ। विश्वास है कि बगैर बुद्धिमानी दिखाए अपनी मूरखता से मुझे अवश्य विजयी बनाओगे। मूरखता दिखाना आपकी खानदानी आदत है तो उसे भुनाना हमारी। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि यह परंपरा यहाँ नहीं रुकेगी। आज मैं जीतूँगा तो कल मेरा बेटा जीतेगा। आज मैं विधायक बनूँगा तो कल मेरा बेटा विधायक बनेगा। आज मैं मंत्री बनूँगा तो कल मेरा बेटा मंत्री बनेगा। और आप पहले भी भेड़ थे, आज भी भेड़ हैं और आगे भी भेड़ रहेंगे।”

इतना कहते हुए मंत्री जी ने दम तोड़ दिया।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #169 – आलेख – सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 169 ☆

☆ आलेख – सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

यह प्रश्न जटिल है कि क्या सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है, इसका कोई आसान उत्तर नहीं है। इस मुद्दे के दोनों पक्षों में मजबूत तर्क दिए जाने हैं।

जो लोग मानते हैं कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर गिरता है, उनका तर्क है कि इससे लेखक न्यायाधीशों या दर्शकों को खुश करने के लिए अपनी कलात्मक अखंडता का त्याग कर सकते हैं। उनका यह भी तर्क है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव रचनात्मकता को दबा सकता है और फॉर्मूलाबद्ध लेखन की ओर ले जा सकता है।

दूसरी ओर, जो लोग मानते हैं कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य के स्तर में सुधार हो सकता है, उनका तर्क है कि यह लेखकों को अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने के लिए आवश्यक प्रेरणा और फोकस प्रदान कर सकता है। उनका यह भी तर्क है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव लेखकों को अपने काम के प्रति अधिक आलोचनात्मक होने और उत्कृष्टता के लिए प्रयास करने के लिए मजबूर कर सकता है।

मेरे विचार में, सच्चाई इन दोनों चरम सीमाओं के बीच में कहीं है। हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कुछ लेखकों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, लेकिन यह दूसरों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक भी हो सकता है। अंततः, सम्मान के लिए लिखने से साहित्य के स्तर में सुधार होता है या नहीं, यह व्यक्तिगत लेखक और शिल्प के प्रति उनके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।

अपने तर्क का समर्थन करने के लिए, मैं खेल और साहित्य दोनों से दो उदाहरण प्रदान करूंगा। खेल की दुनिया में, हम अक्सर देखते हैं कि जब एथलीट प्रमुख प्रतियोगिताओं में प्रतिस्पर्धा कर रहे होते हैं तो वे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रतिस्पर्धा का दबाव उन्हें खुद को अपनी सीमा तक धकेलने और अपना सब कुछ देने के लिए मजबूर करता है। उदाहरण के लिए, माइकल जॉर्डन एनबीए फ़ाइनल में अपने अविश्वसनीय प्रदर्शन के लिए जाने जाते थे। वह अक्सर कहा करते थे कि उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ बास्केटबॉल तब खेला जब दांव सबसे ऊंचे थे।

साहित्य की दुनिया में, हम ऐसे लेखकों के उदाहरण भी देख सकते हैं जिन्होंने दबाव में होने पर भी अपना सर्वश्रेष्ठ काम किया है। उदाहरण के लिए, चार्ल्स डिकेंस धारावाहिक उपन्यास के उस्ताद थे। वह अक्सर समय सीमा के दबाव में लिखते थे और इस दबाव ने उन्हें नियमित आधार पर उच्च गुणवत्ता वाले काम करने के लिए मजबूर किया। उनके उपन्यास, जैसे “ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़” और “ग्रेट एक्सपेक्टेशंस”, अंग्रेजी साहित्य के क्लासिक्स माने जाते हैं।

निःसंदेह, सम्मान के लिए लिखने वाले सभी लेखक महान कार्य नहीं करते। हालाँकि, मेरा मानना ​​है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कई लेखकों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक हो सकता है, और इससे बेहतर काम का उत्पादन हो सकता है।

जिन उदाहरणों का मैंने पहले ही उल्लेख किया है, उनके अलावा, कई अन्य लेखक भी हैं जिन्होंने दबाव में महान कार्य किया है। उदाहरण के लिए, विलियम शेक्सपियर ने सार्वजनिक मंच के लिए नाटक लिखे, और वह जानते थे कि उनके काम का मूल्यांकन दर्शकों द्वारा किया जाएगा। इस दबाव ने उन्हें ऐसे नाटक लिखने के लिए मजबूर किया जो मनोरंजक और विचारोत्तेजक दोनों थे। उनके नाटक, जैसे “हैमलेट” और “किंग लियर”, आज भी साहित्य के अब तक लिखे गए सबसे महान कार्यों में से एक माने जाते हैं।

मेरा मानना ​​है कि लेखकों की अगली पीढ़ी को सम्मान के लिए लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे उन्हें बेहतर काम करने में मदद मिलेगी और लेखक के रूप में सफल करियर बनाने में भी मदद मिलेगी।

अंत में मेरा मानना ​​है कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधर सकता है। प्रतिस्पर्धा के दबाव से बेहतर लेखन हो सकता है, और मान्यता की इच्छा लेखकों को लिखते रहने की प्रेरणा प्रदान कर सकती है। साहित्य और खेल से ऐसे कई उदाहरण हैं जो इस तर्क का समर्थन करते हैं।

यहां उन लेखकों के कुछ अतिरिक्त उदाहरण दिए गए हैं जिन्होंने दबाव में भी बेहतरीन काम किया है:

टोनी मॉरिसन ने 1993 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीता। उन्होंने “बिलव्ड” और “द ब्लूस्ट आई” सहित कई उपन्यास लिखे।

अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने 1954 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीता। उन्होंने कई उपन्यास लिखे, जिनमें “द ओल्ड मैन एंड द सी” और “फॉर व्हॉम द बेल टोल्स” शामिल हैं।

जेके राउलिंग ने हैरी पॉटर श्रृंखला लिखी, जो अब तक की सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक श्रृंखला में से एक है। उन्होंने श्रृंखला की पहली पुस्तक एक समय सीमा के दबाव में लिखी, और उन्होंने श्रृंखला में सात और पुस्तकें लिखीं।

ये उन लेखकों के कुछ उदाहरण हैं जिन्होंने दबाव में भी बेहतरीन काम किया है। मेरा मानना ​​है कि प्रतिस्पर्धा का दबाव कई लेखकों के लिए एक शक्तिशाली प्रेरक हो सकता है, और इससे बेहतर काम का उत्पादन हो सकता है।

मुझे आशा है कि इस लेख से इस बहस पर कुछ प्रकाश डालने में मदद मिली होगी कि सम्मान के लिए लिखने से साहित्य का स्तर सुधरता है या नहीं। मेरा मानना ​​है कि उत्तर हां में है, और मैं सभी लेखकों को अपना सर्वश्रेष्ठ काम करने का प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करता हूं, भले ही वे पुरस्कार के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हों या नहीं।

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

04-07-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #45 ☆ कविता – “क्या मोहब्बत की भी सीमा होती है?…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 45 ☆

☆ कविता ☆ “क्या मोहब्बत की भी सीमा होती है?…☆ श्री आशिष मुळे ☆

दिल आजकल बुझसा गया है

धड़कन शरमा जो रही है

उमर बढ़सी गई है

कीमत घटसी गई है

क्या मोहब्बत की भी सीमा होती है?

 *

फिर तेरी याद आती है

नज़र ख़्वाब देखती है

धड़कन फिर तेज़ होती है

फिर एक बार दुनिया आइना दिखाती है

क्या मोहब्बत की भी सीमा होती है?

 *

क्या सच में कुछ सच झुटे होते है

मुहब्बतकी पैरो में जंजीरे क्यों होती है

ऐसी मैंने क्या मांग लगाई है

उम्र नहीं बस जान ही तो मांगी है

क्या मोहब्बत की भी सीमा होती है?

 *

हर कोई मुहब्बत के ख़िलाफ़ क्यों है

क्यों इंसान को जन्नतमें सलांखे है

जो अभी इस वक्त पा सकते है

उसके लिए क्या मरना जरूरी है

क्या मोहब्बत की भी सीमा होती है?

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 203 ☆ बाल गीत – भिन्न – भिन्न सबके चेहरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 203 ☆

☆ बाल गीत – भिन्न – भिन्न सबके चेहरे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

प्रभु की लीला अजब गजब है

भिन्न – भिन्न सबके चेहरे।

कोई काला कोई गोरा

कुछ लँगड़े हैं कुछ बहरे।।

सभी इन्द्रियाँ जिनकी अच्छी

तन – मन जिनका स्वस्थ बनाया।

भाग्यवान ही वही मनुज हैं

जिनको घर , भोजन मिल पाया।।

 *

जो ईश्वर से खुश हैं रहते

नित पूजें शाम सवेरे।।

 *

नहीं अहम , बहम होता है अच्छा

सत्य मार्ग पर सदा चलो।

सरल , सहज जीवन अपनाकर

लक्ष्य बनाकर सदा बढ़ो।।

 *

हिम्मत कभी नहीं हारें हम

छट जाते सभी अँधरे।।

 *

सोच सदा अच्छी ही रखना

यही प्रेम ,आशा ,परिभाषा।

वाणी में यदि प्रेम घुल गया

हटे कपट , मन वैर निराशा।।

 *

सबमें खोजा यदि ईश्वर को

हटें भेद तेरे – मेरे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ गोड गोडुला ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक  

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? गोड गोडुला श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

जागतिक पुस्तकदिनाच्या शुभेच्छा !

न कळत्या वयामधे 

धरून पुस्तक हाती

मन लावून शोधतो

जणू जगाची उत्पत्ती

*

पाहून ही एकाग्रता

चक्रावली मम मती

वाचाल तर वाचाल

हे त्रिवार सत्य अंती

*

आदर्श गोड गोडुल्याचा

सगळ्यांनी तो घ्यावा

चांगल्या पुस्तकात मिळे

तुम्हां ज्ञानामृताचा ठेवा

तुम्हां ज्ञानामृताचा ठेवा

© प्रमोद वामन वर्तक

संपर्क – दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.) 400610 

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #228 – लघुकथा – ☆ वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा वातानुकूलित संवेदना” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #228 ☆

☆ वातानुकूलित संवेदना… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती छिटपुट धूप-छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये एक रिक्शा चालक पर अचानक उनकी नज़र पड़ी।

लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर साहित्यजीवी बुद्धिप्रकाश जी उसके पास पहुँच कर देखते हैं –

वह व्यक्ति खर्राटे भरते हुए इत्मीनान से गहरी नींद सोया है।

समस्त सुख-संसाधनों के बीच सर्व सुविधाभोगी,अनिद्रा रोग से ग्रस्त बुद्धिप्रकाश जी को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने गहरे से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से स्वाभाविक ही ईर्ष्या होने लगी।

इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे  पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वे वापस अपनी कार में सवार हो गए और घर पहुँचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में जुट गए।

‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने  की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरी करते हुए बुद्धिप्रकाश जी आत्ममुग्ध हो एक अलग ही स्फूर्ति व उल्लास से भर गए।

रिक्शाचालक पर सृजित अपनी इस दयनीय सशक्त कहानी को दो-तीन बार पढ़ने के बाद उनके मन-मस्तिष्क पर इतना असर हो रहा है कि, खुशी में अनायास ही इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी जोरों से मन में हिलोरें लेने लगी।

तो ताजे-ताजे मिले इस संवेदना परक विषय पर कविता लिखना बुद्धिप्रकाश जी ने इसलिए भी जरूरी समझा कि, हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से पात्र रिक्शेवाले के ज़रिए उन्हें किसी सम्मानित मुकाम तक पहुँचा कर कल को प्रतिष्ठित कर दे।

यश-पद-प्रतिष्ठा और सम्मान के सम्मोहन में बुद्धिप्रकाश जी अपने शीत-कक्ष में अब कविता की उलझन में व्यस्त हैं।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 52 ☆ खिलखिलाती अमराइयाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “खिलखिलाती अमराइयाँ…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 52 ☆ खिलखिलाती अमराइयाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

हवा कुछ ऐसी चली है

खिलखिलाने लगीं हैं अमराइयाँ।

माघ की ख़ुशबू

सोंधापन लिए है

चटकती सी धूप

सर्दी भंग पिए है

रात छोटी हो गई है

नापने दिन लगे हैं गहराइयाँ।

नदी की सिकुड़न

ठंडे पाँव लेकर

लग गई हैं घाट

सारी नाव चलकर

रेत पर मेले लगे हैं

बड़ी होने लगीं हैं परछाइयाँ।

खेत पीले मन

सरसों हँस रही है

और अलसी,बीच

गेंहूँ फँस रही है

खेत बासंती हुए हैं

बज रहीं हैं गाँव में शहनाइयाँ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ग़म ख़ुशी का है सिलसिला न डरो… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ग़म ख़ुशी का है सिलसिला न डरो“)

✍ ग़म ख़ुशी का है सिलसिला न डरो… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जब ग़ज़ल अपना सर उठाती है

शाहों के तख़्त तक गिराती है

ज़िन्दगीं साथ कब निभाती है

मौत से कितना ख़ौफ़ खाती है

 *

उससे इतना तो रब्त है मेरा

वो ग़ज़ल मेरी गुनगुनाती है

 *

मेरा जब भी उदास मन होता

माँ ख़यालों में मुस्कराती है

 *

नेवले साँप दोस्त बन जाते

जब सियासत हुनर दिखाती है

 *

हार से लेके जो सबक लड़ता

ज़िन्दगीं उसको ही जिताती है

 *

ग़म ख़ुशी का है सिलसिला न डरो

ज़िन्दगीं हर कदम बताती है

 *

मदरसों में जो हम न पढ़ पाए

ज़िन्दगीं वो हमें सिखाती है

 *

इस जहाँ की हवस है ऐसी हवस

खून का रिश्ता भूल जाती है

 *

लगता बच्चे किसान को झूमें

फ़स्ल जब उसकी लहलहाती है

 *

ये अदालत है न्याय कब करती

अपना बस फैसला सुनाती है

 *

दस्त पर जिसको है यक़ीन अरुण

मुफ़लिसी उसको कब सताती है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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